________________
३
यविडविकसमकिपिंजरे मणिमयकरामंडित महीको स्थापाटापरेसारिठसहसोहणा स्य णायरबिलुहट्वश्थायणाजगसिरिणाधारसुवागोगाश्सरावसु गंगामिति विमहेड पडिगयसंकिरणयवलियमेङ रुखडणावरूखाउवेठ देवड़वल्लद्धपासणलामी मेव। लासहिरससिहिजोयवण रसवाश्वसपिडियसुवाणु पिसिचयतिसलिलदिालश्वाससिविए मणेजलजलरमाणिकपहादियानवलोन जधिकतामणमपतिसाठे यसमडसधुवाण मरलास पप्पासमूलिविकारुजासु गदाणलगमुविचित्रर्सिगुजोयंववासजायपाश्च्या टोचास हितासथियानता दात्रेलवणसमुहमा उन्नरदहिोणेदउँमणहाद सदिलदामिविविवाह ण्डाडवा महिमायविहवरिजामवि दशहासविलिनी एकेकाविश्वगुरुक्की पाणणारखना धावली तवगतकालहिदिसविहाय पंचधणसयाश्युणियापसमापी णाणकाला। मिपरिणामजायठ परविज्ञाहलेणग्रहितविहायानाकुलजाकमणसमागया इसहतवता। वसंगमा घुबानताउंणिन्नहिमान अवरा उपयंत्रसाहियाउं सहिमवसाधारसमण सश्देहदाम। संजमेण पारजिनमुहामंडलेण चगंधवषप्पावणण विज्ञाहराणियमंकमेण विज्ञानहतिसमा १२
है कि जहाँ तक लवण समुद्र है। जिसकी उत्तर-दक्षिण श्रेणियाँ सुन्दर विद्याधरों की हैं। विकसित वृक्षों के पुष्पपराग से पोला और मणिमय कटक से शोभित वह विजयाध पर्वत मानो जैसे घत्ता-जो धरती को छोड़कर, दस योजन ऊपर जाकर दस योजन विस्तृत है, और नाना रत्नों से सुन्दर धरती का हाथ हो। रत्नाकर तक फैला हुआ शोभन जो ऐसा लगता है मानो (रत-नागर) विदग्ध पुरुष में एक-एक वैभव में महान है ॥११॥ स्त्रीजन हो। जो मानो विश्वश्री के नाट्य का आधारभूत बाँस हो, अथवा पृथ्वीरूपी गाय के शरीर का आधार हो; गंगा और सिन्धु नदियों के द्वारा जो खण्डित शरीर है, जिसमें प्रतिगजों की आशंका में गज मेघों को आहत करते हैं, वृक्षों के लिए जो पर्वत वृक्षायुर्वेद शास्त्र हो, देवों के लिए प्रिय जो मानो स्वर्गलोक हो। वहाँ हमेशा चतुर्थकाल की स्थिति का संविधान है। मनुष्यों की ऊँचाई पाँच सौ धनुष प्रमाण है। जहाँ धातु पाषाणों के औषधि रस की आग से चमकते हुए रंगवाला जो, रसवादी की तरह स्वयं स्वर्णमय हो गया कर्मभूमि के समान कृषि आदि कर्म से उत्पन्न तथा श्रेष्ठ विद्याओं के फल से अधिक भोग हैं । कुलजाति के है। जो चन्द्रकान्त मणियों के जल से रात्रि में गल जाता है, और दिन में सूर्यमणियों की ज्वाला में जल उठता क्रम से आयी हुई, असह्य तपस्या के ताप से वश में आयी हुई पूर्व की विद्याएँ उन्हें नित्य रूप से प्राप्त हो है। माणिक्यों की प्रभा से प्रकाश (अवलोकन) मिल जाने के कारण जहाँ चकवे शोक को नहीं जानते । जो गयीं और भी विद्याएँ उन्होंने (नमि-विनमि ने) प्रयत्न से सिद्ध कर लीं। उपसर्गों को सहन करने का धैर्य समस्त रजतमय है, और चन्द्रमा की आभा के समान है, जिसका विस्तार पचास योजन है, जिसके विचित्र शम, पवित्र देह, होम, संयम, मुद्रामण्डल के प्रारम्भ करने से नैवेद्य, गन्ध, धूप और फूलों द्वारा अर्चा करने शिखर आकाश को छूते हैं, जो पचीस योजन ऊँचा है । लम्बाई में वह अपने दोनों किनारों से वहाँ तक स्थित से नियम और व्रत करने से विद्याधरों को स्वभाव से विद्याएँ सिद्ध होती हैं।
Jain Education Internation
For Private & Personal use only
www.jan143.org