________________
सहिदंड प्रखश्वरियमेतसि द्याणमंडणं ॥ यानलिययाणामनंदा विम्मेव यूणे तरु गिरिगणोपर लायगुड मऋण गंणपुरं। तंविविहरे)। उरस्समु हा छामि मिकूद सण परिवमिग सुरणामियपया देहपंचमयाधयेचये ऋगतपणं मेतिमपुरुजियञ्चलिहि समंज लिह गया जम्मरमा जतिजिण अप्रतिमांधारासि तुम पामु पसिक मांगदियंशियम अलापविहालीगावला बहमुग्गच्या हा किष्णम या माधुरिजम इस सपदिज। यज्ञवराणि मिलवणा थिमहार पायणे शिवसंति वो कुदैपवरी मूलमरीमालूरदले सरकतिफला सायंविमल पियंतिजला सिरघुलिय डा विजर तिजडो किरतेविमुणी तादिवझुणी। ससिरदि सयणे उग्गमगमणोमा लुग्ण इतरूं। माधुया दमही माखणहमद माकप हायदि माविसदसरा मा हाइपरं मासाएबिदी। ज
छिदिदी ताणिवसमय। तर समयं गोग्स हडरिये डुडुरियं ॥ लव से कम जया सिकरी तंजाइखयं॥ घना । जिप लिंगंड ब्रियसंग। अंकिउंपाउडरसतिं च कहवण फिर जीव होजम सदायें। धत्रावली (तालवारा दिवालासिखखरो इमदलमोरपिंकक
राजाओं का चरित ही भृत्यों के लिए अलंकारस्वरूप है। तरुओं से गहन विषम और विजन में परलोक से रति करनेवाले तुम्हें छोड़कर तथा विविध घरोंवाले अपने उस नगर में जाकर, भरत का मुख हम किस प्रकार देखेंगे? सबने उसके इस कथन को पूरी तरह स्वीकार कर लिया। सुरों से प्रणम्य हैं चरण जिनके ऐसे तथा काम को जलानेवाले उत्तुंग शरीर मनु (आदिनाथ) को वे प्रणाम करते हैं और भ्रमरों से गूँजती हुई कुसुमांजलियों के द्वारा जन्म ऋण से मुक्त जिनकी पूजा करते हैं। वे इस प्रकार कहते हैं, "तुम धीर हो, तुम क्रम और गृहीत नियम को नहीं छोड़ते। हम चपल और नष्ट बल हैं। तुम्हारे मार्ग से च्युत होकर हाय हम मर क्यों नहीं गये।" इस प्रकार मन में गति को धारण करनेवाले सरल श्रमण मकान बनाकर हरिणसमूह से युक्त वन में रहने लगे। वे प्रवर कन्द, मधुर जड़ें, बेल का गूदा और फल खाते हैं, शीतल मधुर जल पीते हैं, सिर में व्याप्त जटाओंवाले वे मूर्ख विचरण करते हैं, जबतक वे मुनि बनते हैं, तब तक सूर्य और चन्द्रमा
Jain Education International
के शयन और उद्गम के स्थल आसमान में दिव्यध्वनि होती है कि वृक्षों को मत काटो, हवा को मत चलाओ, धरती मत खोदो, आग मत जलाओ, सरोवर में प्रवेश मत करो, दूसरों को मत मारो, यह विधि नहीं है। यदि धैर्य नहीं है, तो राजा के बसन और शरीर के आभूषण शीघ्र धारण कर लो। प्राणों का दलन करनेवाले संसार के परिभ्रमण में जो तुमने दुष्ट आचरण किया है, वह नष्ट हो जायेगा।
धत्ता - परिग्रह से शून्य जिनका वेश धारण कर, खोटी आशावाले तुमने जो पाप किया है, जीव का वह पाप, हजारों वर्षों तक न छूटता है और न नष्ट होता है ॥ ४ ॥
५
इन अक्षरों (दिव्यध्वनि) के होने पर बहुत से राजा पेड़ों के पत्ते और मयूरपिच्छ तथा वल्कल धारण कर दूसरे दूसरे मुनि बन गये।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org