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आरजनदवपनासंलावणासारजयमारसिंगारपवारनिनेयजयदीददालिदोहाविळन जयटु बिपाअंतरंगाणडलेथा जमणाहनारायणीमञ्चपादिया जयदेवकंठोरखवाटपादळ अयशक्ति समतसमशळा साजयमथरगामितियणसामि यतिउमशि उददि जजिम्ममकरम पाठणाधमा तहादेसदामईनहि दो वंदविऊण मनाएणविळण पडुपडहणादि मागिणधा। दिंडणिकिहिमटकहिं अंसाकेहि संकेतसलाहि टक्काद। काहि करडार्दिकाहलहिं अचरिहिंमदलहिं तालहिंसखर्दिछ। नदिअसंखर्दि पहिरिपदयादि जसनूरघोसहि वकवयणुवक । पक्षण करपिहियपिडायणु हरिसणविफुरिणियतरुपिपरि
आदिनाथकीन यरिल विविहंगदारहिं ससावसारहिं उपत्यपरिखडयाड
स्तुतिकरण लामडमधम्मापुरायण ययजयनिवारणासुरमदिहरोकटमहिवाटुकडयांशपलिमबरदार मियदेशसंवरशोसणफुवश्पणिफरसुतिसुमुअज्ञविसजलणक्रिइधगधगाइनरुअरशता
द्रव्यों और पर्यायों की सम्भावनाओं के सार, आपकी जय हो; काम के शृंगार के भार का भेदन करनेवाले और टक्कों, झंझा और सधोक्कों, भेभंत-भंभाहों, ढक्का और हुडुक्कों, करडों, काहलों, झल्लरियों, महलों, आपकी जय हो; दीर्घ दारिद्रय और दुर्भाग्य का छेदन करनेवाले आपकी जय हो। दुविनीत हृदयवालों के लिए ताल और शंखों और भी असंख्य दिशाओं को बहरा बना देनेवाले जयतूर्य-घोषों के द्वारा, जिसके अनेक अज्ञेय आपकी जय हो, वीतराग शल्यहीन हे नाभेयनाथ, आपकी जय हो। सिंहासन पर स्थित हे देव, आपकी मुख हैं, अनेक नेत्र हैं, जिसने हाथों से विशाल आकाश को आच्छादित कर रखा है, हर्ष से विह्वल तरुणीजन जय। दुष्टचित्तों और भक्तों में मध्यस्थ चित्त, आपकी जय।
से घिरा हुआ ऐसा इन्द्र रसभावों से श्रेष्ठ विविध अंग निक्षेपों के द्वारा उछलता है, गिरता है, और धर्म के घत्ता-हे मन्थरगामी त्रिभुवनस्वामी, आपकी जय हो, इतना माँगा हुआ दीजिए कि जहाँ जन्म नहीं है, अनुराग से नृत्य करता है। पैरों के गिरने से सुमेर पर्वत फट जाता है। धरतीपीठ कड़कड़ होता है। शेषनाग कर्म नहीं है, पाप नहीं है और न धर्म है उस देश में मुझे ले जाइए॥१९॥
घूमता है, थर्राता है, अपना शरीर सम्हालता है, क्रोध से फुफकारता है, कठोर विष उगलता है, विष की २०
ज्वाला फैलती है, धक-धक हुरहुर करती है, देव को स्नान कराकर, भक्ति से प्रणाम कर, पटुपटह के नादों, थारी-दुगिग के आघातों, दुणिकिटिम
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