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आदिनाथ प्रतिमा
चोळा संधि: 11३|| || आश्रय वसेन सर्वतिघायः सर्वस्यवखनातिशयः लरताश्रणसंसंप्रतिपण
गुणामुखतांप्राप्ताः घरेर विसयहि परियहिं जिण जंमुळन जोरउ तंपिनिविविसिहरुरुरकरे सुख को उप विलयर॥ जलडिया तव रंजियन व देवि पसक ई मणवळ घोल तश्मालश्मालियाड थपथपामय धारा लियाउ कंकेल्लिपल्लवाश्यकण्ड धाइयउ समणेविद्यछा राठ किंकरमिचाण अणतदेवि सिसुणाइदाणिरुलावेंनदे वितगुरु जय लुल्लउ विमलणाणि प्रज्ञेविषसंसेविकुलिर सपाणि धुळेविगड रायमेड सधरुज़ाम कोसल पुरवश्वा लुताम उत्त्राण सेाणिक सिद्धिहरणियइपथु बहुते वह हिरिविसय खेलते खेल्लाइदिहिविलास वर्तव इसइसिरिचलळि रंगते राइसम उलडि पसरतें पसर सुथिरकंति उही होतें उगम किति लार्स
सन्धि ४
घर में फिर से स्वजनों और परिजनों के द्वारा जिन-जन्म का जो उत्सव किया गया उसे देखकर विषधर, नर, विद्याधर और देवेन्द्र कौन ऐसा था जो विस्मित नहीं हुआ?
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शरीर के अनुरूप और रूप को रंजित करनेवाले प्रशस्त भूषण और वस्त्र देकर, मालती-मालाओं को घुमाती हुई, स्तनों में दूधरूपी अमृतधारावाली, अशोक वृक्ष के पल्लवों के समान हाथोंवाली अप्सराओं को धाय के रूप में सौंपकर अनन्तदेवों को किंकर के रूप में देकर, अत्यन्त भाव से शिशु स्वामी को नमस्कार
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कर विमल ज्ञानवाले नाभिराज और मरुदेवी दोनों की पूजा और प्रशंसा कर और अनुमति लेकर वज्रपाणि (इन्द्र) अपने घर चला गया। अयोध्या में बालक दिन दूना रात चौगुना बढ़ने लगता है। सेज पर लेटा हुआ नग्न बालक ऐसा लगता है मानो सिद्धि के मार्ग को देख रहा हो। बालक के बढ़ने पर ऋद्धि विशेष बढ़ती हैं, खेलने पर धैर्य का विलास खेलने लगता है। उसके बैठने पर चंचल आँखोंवाली लक्ष्मी बैठ जाती हैं। चलने पर लक्ष्मी साथ चलती है। प्रसार करने पर स्थिर कान्ति फैलने लगती है। उसके खड़े होने पर कीर्ति उठ खड़ी होती है।
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