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चलमडण्डा कउमडविविवारसोड माणिक्कमकुवुककरिछणवसायक्लकसर्विधरि उचंदाववाणपछि महिदेविएणावश्मनलायती अमलिंदणालमणिपतियहि शिविंडकरोलिहित सियउ गतिमिरहोरवियरतारियही सरणाभवामुपयासियठापजाया। सम्मपसादिन विद्यमेसोहिडासारामा नमच्छिागाला कळर्शायलिसिर्दिसुहाश्सर। यन्त्रखंडपिम्मविठणा कळविफलिमालमिरगुणगंगतरंगविशिया कळविमुत्राहलदि पठाउणणकतंचिगयणलाम कळविहरियारुपमणिपरिह आहेडलधमंडलवदि अति
वडमपल्लवतारणेदि णावश्वसंत्रमाणिवणेदि पवणुड्डयणयलघुलियत परणिया हरमंगलमिणार पाडहियकरमुलिनिहसणेण दाङदिक्कदिकमणासणण पडडल्लउड स्वितम अंधेविटातिरसुवाअजमानामासरासरसंकहिट पङमुष्पाणिलणचलिउडा विपिणतहोमंडवातले नसिमुक्षितिजयणमिलिना राजसहियाइवउसहन करडांसहलारस सगल हसायंगठीला ददददरिविलायतु जिणुलपाईदमिदंदेश अण्डजिज सवसयसवंत महासतंततेला संसारुजिवाणाणिकल मपसजायइवलाहकलनायक
भ्रमरसमूह घूम रहा है, और जिसमें विविध द्वारों से शोभा है, ऐसा मण्डप बनाया गया, माणिक्य और मोतियों तोरणों से ऐसा लगता है कि वनों ने वसन्त का उत्सव मनाया हो। हवा से उड़ती हुई पताकाएँ आकाशतल के गुच्छों से विस्फुरित, नव स्वर्णस्तम्भों पर आधारित। चन्द्र चीनांशुक से आच्छादित मानो धरतीरूपी देवी में व्याप्त हैं, मनुष्यों के द्वारा आहत तूर्यों की मंगलध्वनि हो रही है, पटहवादक की अंगुली के ताड़न, ढकने मुकुट बाँध लिया हो।
कुन्द-कुन्दक के शब्द और डण्डे से पटह इस प्रकार ताडित हुआ कि जिससे झंधोत्ति-दोत्ति शब्द हुआ। घत्ता-सघन किरणोंवाली, स्वच्छ इन्द्रनील मणियों की पंक्तियों से अलंकृत वह मण्डप ऐसा जान पड़ घत्ता-भंभा और भेरियों के शब्दों से क्षुब्ध प्रभु पुण्यरूपी पवन से प्रेरित होकर चले। अशेष त्रिभुवन रहा था मानो रवि-किरणों से त्रस्त अन्धकार के लिए शरण-स्थल बना दिया गया हो।॥९॥
आकर उस मण्डप के नीचे मिल गया ॥१०॥
११ स्वर्ण से प्रसाधित, विद्रुम से शोभित वह ऐसा लगता है जैसे भूमिगत सन्ध्यामेघ हो।कहीं चाँदी की दीवालों डिमडिम का शब्द होने लगता है। मृदंग बजता है, कामदेव हँसता है। टिविली दं-द-द-दं कहती है से ऐसा लगता है जैसे शरद् के मेघ निर्मित कर दिये गये हों, कहीं स्फटिक मणियों से उज्ज्वल क्रीड़ाभूमि मानो जिन कहते हैं कि मैं भी नारीयुगल से भुक्त हूँ। सैकड़ों भवों में घूमते हुए जो उन्होंने भोगा है मानो, है, मानो पवित्र अंगवाली गंगा की तरंग हो; कहीं मोतियों द्वारा की गयी कान्ति है, मानो नक्षत्रों से युक्त आकाश- बही-वही-वही बोलते हुए यही कहते हैं। संसार ही वीणा का शब्द है जो मन में बल्लभ और कलत्र (पति
भाग हो। कहीं पर हरे-लाल मणियों से वरिष्ठ, वह इन्द्रधनुष मण्डल के समान है। अभिनव वृक्षों के पल्लव- पत्नी) को जोड़ता है। Jain Education Internation For Private & Personal use only
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