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तब सराणु ममियमा कुछ। शीलं जसाचिणा सोणा मन्त्रहउँ परिवेन सम्मत ॥ळा सं
धिताचोळूण हे हंसेष ॥॥॥ ख्यात कत्री को यंच्यामः प्रधानः सन्नः धन्यः प्रालेय पिंडोपमध्व तावधूः कवानो सूरत इति कथपा कणसे चिंतिउदेवेंजर दाविवरस गयी लंजयति ॥ इदसंसार दारुणे । वङ्गस।।
चंडवनिपतित बनेागसे। प्रवरकरिकरा कार नाःया लखशोधतात्रीतला ताख्या जाना सिनोच बाकवूक! गेधुठ किंपिणदास जिहाति अवरुविजायरा का खेड़ रसंधारण वसिदोवास परमे सरु समुपास धपुर हलधवलश्ळत्न सासखाई धयचमा। रविग्गगमपजतिग
तिमिरेश लळिविमल कमलालय वासिणि नवजलहर चल बढ्नु वहा सिणितिपलायापुधा
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मैना नरसाळा पा स्वणुवखपणास दजगार नवपुत्रकलाई पाई जाई
सन्धि ७
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त्रिभुवन की सेवा करनेवाले ऋषभदेव ने विचार किया कि संसार में शाश्वत कुछ भी नहीं दिखाई देता, जिस प्रकार नीलांजना नवरसों का प्रदर्शन कर चली गयी उसी प्रकार दूसरा भी संसार से जायेगा ॥ १ ॥ खंडय - अनेक शरीरों का नाश करनेवाले इस दारुण संसार में दो दिन रहकर कौन-कौन नरश्रेष्ठ नहीं
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गये। फिर परमेश्वर शमभाव को प्रकाशित करते हैं—धन इन्द्रधनुष की तरह आधे पल में नष्ट हो जाता है। घोड़े हाथी, रथ-भट, धवल छत्र, पुत्र और कलत्र कुछ भी शाश्वत नहीं हैं। जंपाण, यान, ध्वज, चमर उसी प्रकार नाश को प्राप्त होते हैं जिस प्रकार सूर्य का उदय होने पर अन्धकार चला जाता है। कमल के घर में निवास करनेवाली विमल लक्ष्मी नवजलधर के समान चंचल और विद्वानों का उपहास करनेवाली होती है। शरीर लावण्य
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