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राणिकरुणपकाध्यंत सवसवेश्वगुणवंतए वयोगटसारुमगादासदेलवेतवास हितावविधएपरियणुपुरुधरूमादकन सवेसवेनलवसममिरिकता परमणारिदि यूमलमालवेलवेहोमणिरकणीसबम डिसारियदपंचपमाणे स्वेचवेदियहाउसझायदा सणणाणचरितण्यासें सवेलरमरणहाउसमासांता लहाएसमाहिणालदेसवेवाहिएजावन जाडविरत संसारुचरण जिणवरचणशंसदेवमणसमरसतानाखेड्याश्यजाचितशण यमणे अपनेखाउथिनवणे मागासवर्सपी सोयावश्यरमपवालगामडमुणुसरणसिद्धसडा रा ददकिमारकम्पविणिवारावरकसारकपकणिकाणपिडालवासिणगारसारख्यवसिद्धान यचितिवटतिसमक्षण पडतीरममिणियन्त्रणु सक्जिएमजाणिरजादेदिलायनियम पाश्यताहिं वलसपालायतकथालया देहकनिदावियदिवालय पवजम्मकयधमायरावण अणदिएसंसावियसहसावण घखिमयमंझलिकेसरण्याखमयसलसवलियपढ़ाय तिरपतिलार्वेमडलियर जयदेवाहिदवपरमेसरपणमुणिजलकिरकेहना किंगितिकंपति माणुनर्जेठाससिरानातलायशिवास कियाथायअलरकपास जानकम्मुपायालविळिए
दीन में करुणा, दशाशून्य में उपेक्षा और गुणवान् में मेरी रति भव-भव में बढ़े। जन्म-जन्म में तप की आग छोड़कर परमपद को प्राप्त करता है। मेरे लिए दृढ़ और विचित्र कर्मों का निवारण करनेवाले, इन्द्रियों के सुख से क्षीण मेरा शरीर व्रत के योग्य हो। जन्म-जन्म में धन-परिजन, पुर और घर उपस्थित न हो, उपशमश्री वर्ग में अत्यन्त निस्पृह, संसाररूपी तृणभार के लिए अग्निज्वाला के समान, आदरणीय सिद्ध मेरे लिए शरण मेरे मन में स्थित हो। मेरा हृदय नारी के रूप में न रमे, भव-भव में वह निष्पाप और इच्छाओं से शून्य हो। हों। यह सोचते हुए और सम्यक्त्व धारण करते हुए एवं रतिभूमि का निवर्तन करते हुए, जिनकी बुद्धि को पाँच प्रकार के प्रमादों को दूर हटानेवाले सत् ध्यान में जन्म-जन्म मेरे दिन जायें, दर्शन, ज्ञान और चरित को जैसे ही इन्द्र ने जाना वैसे ही लौकान्तिक देव वहाँ आ पहुँचे। जिनका घर ब्रह्मस्वर्ग का लोकान्त था, जो प्रकाशित करनेवाले संन्यास से मेरा मरण जन्म-जन्म में हो।
शरीर की कान्ति से दिव्यालय को आलोकित करनेवाले थे. पूर्वजन्म में धर्म की प्रभावना करनेवाले. प्रतिदिन घत्ता-भव भव में रत्नत्रय की एकता और प्राप्ति में विरक्त जीव जीवित रहे। संसार से उतारनेवाले शुभभावनाओं की सम्भावना करनेवाले, और जो फेंकी गयी कुसुमांजलि की केशर रज में लीन मधुकर कुल जिनवर के चरणों को जन्म-जन्म में मन में स्मरण करता रहूँ॥१८॥
से जिनचरणों को शवलित करनेवाले थे। भावपूर्वक हाथ जोड़कर वे कहते हैं- "हे देवाधिदेव परमेश्वर,
आपकी जय हो। जिसको आप नहीं जानते, वह कैसा है, क्या गिरि के समान है, या परमाणु जैसा। इस प्रकार जो वन में स्थित होकर अपने मन में अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन करता है वह भव-सम्पदा को अलोकाकाश और त्रिलोक का निवासभूत लोकाकाश क्या अलक्ष्य प्रदेश है? जीवकमं पुद्गल का विस्तार,
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