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यउपयूडिहिदिनासायपासदिवाश्चप्पविर्वधविससवितागुणवंयुअणाश्छ सुसवि वह तिगाङगनिवहछ जिउकालोनठा सवतणुमत्रनाउगामिससिहतारखेवला येत दायावाणिजरंजेवियतिनसतर ताण्डरकदवकडा पाहिदासासणतडीना रुझचनुआणवि। कारोफामविलासधरणिसार सवसपिंडयादणायारे दिहिणघयश्कहिमिवियारेसवपसमा डसरेसविसरिसठ कारडपुतलियरसामरिसडाणासारंधुगधुअविहशिया मणधमधामडराया दतियनिए दुरिमहामुदारिनरकपुदिनसुखमापन्विर्णिममिरविणमगारउमाणम उन्ने भावान्ताउसमुजलवित लोडरपत्रदाणविहाए अहवाससंगपरिचाएं मयविलमुपर गुणसलरणे जिप्पामहरिसुहासथिरमागीदप्युविधारवारसवधरणे यमरसिठरामापरिदाणे घना विदियासवहारही जतायारहो अदिनिकमुणपसचिरुजावासिठ तषिअपार सिहा कायकिलसंणासावखेड्या मणमित्रएवावारण एसोकासणकारण सासटासह संवा गरोहहामिदियवाणपरमेसरुसवनसुशकालेच ग्वाप्पिद्यशनिदधरणीरूहा, इतिहक्लिाकामाकामियाणिजस्ताव तण्याहससहावसाममहावैधणदारणमारणगम
तथा प्रकृति-स्थिति-अनुभाग-प्रदेशवाले बन्ध विशेषों से बलपूर्वक जकड़ लेता है।
से मायाभाव को, सुपात्र को दान देकर लोभ अथवा सब प्रकार का परिग्रह छोड़कर। दूसरे के गुणों की याद घत्ता-गुणवान्, अनादि सूक्ष्म विवेकी, दो शरीरों से निबद्ध (तैजस और कार्मण) त्रिगतिवाला यह जीव कर मद के विलास को और स्थिर मन से होते हुए हर्ष को जीतना चाहिए। घोर और वीर तप के आचरण कर्ता और भोक्ता उत्पन्न शरीर मात्र ऊर्ध्वगामी और स्वयंसिद्ध है॥१३॥
से दर्प को और रसवन्ती स्त्री के परित्याग से राग को। १४
पत्ता-इस प्रकार जिसके आश्रवद्वार बन्द हैं ऐसे मुक्त आहार-विहारवाले जीव को कर्म का बन्ध नहीं आते हुए पाप का जो पूर्ण संवर नहीं करते, उनके ऊपर सिर पर बिजली की तरह असह्य वज्रपात होगा। होता, और जो पुराना संचित कर्म है अपोषित, वह काय-क्लेश के द्वारा नष्ट हो जाता है ।।१४॥ ध्यान के विस्तार और धरती पर सोने से स्पर्शविलासी चित्त रुक जाता है, पशु के पिण्ड के समान आहार ग्रहण करने से रसना इन्द्रिय रुक जाती है, और वह दृष्टि विकारभाव से कुछ भी ग्रहण नहीं करती। कान सुन्दर और असुन्दर स्वरों में समान हो जाते हैं, वे नष्ट राग-द्वेषवाले कर दिये जाते हैं। और गन्ध के अविभाजन मनोमात्र के द्वारा आचरण में ऐसा क्यों नहीं किया जाता कि शाश्वत सुखवाला संवर हो।"मैं दिगम्बर (सुगन्ध-दुर्गन्ध आदि) से नाक भी (वश में कर ली जाती है); तीन गुप्तियों (मन, वचन और काय) के होता हूँ।" फिर परमेश्वर सच सोचते हैं कि समय अथवा उपाय से जिस प्रकार वृक्षों के फल पकते हैं, द्वारा मन, वचन और काय की दुश्चेष्टाओं को (वश में करना चाहिए); सुचरित को पाप से संरक्षण दिया उसी प्रकार सकाम और अकाम निर्जरा से कल्पित पाप नष्ट होता है। स्वभाव से सौम्य शरीरधारियों, बन्धन, जाये, क्रोध होनेपर क्षमा से उसे नियमित किया जाये, मृदुता से अविनय करनेवाले मान को, और सरलचित्त विदीरण और ताड़न आदि बातों को प्राप्त होते हुए,
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