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निर्वनंविण कडा म डरेंसर किंमहल जोतोयपर लद सोपल वियरसमतल र प्यसहर का हल वयणविचा रियाई एंगमुहपवणेणा सारियाई मार्क रियली सासेणसंख वर
हिरण्यपवित्रसंख कंसालाईतालाइ सलस संति विहडेणिलुमिरणाइव मिलति लगादोर दिंडलयाई नंढरियण र तरुन्नयाई । चत्र ॥ सम्म हपहपडि चिरई उजागजति किहा जिप ३५
जिस कारण से बहुछिद्र बाँस को (बाँसुरी के रूप में) बेधा गया है, मानो वही वह मधुर स्वर में कह रहा है (कि वधू ही एकमात्र रमण-स्थल है)। वह मृदंग भी क्या जो भोग (हाथ की थाप) को प्राप्त न होता है, वह श्रेष्ठ होते हुए भी दूसरे का करप्रहार सहता है। काहल के शब्द फैल गये हैं मानो मुख के पवन के द्वारा वे दूर हटा दिये गये हैं। निःश्वासों से शंख आपूरित हो गये, असंख्य बहरे अन्धे मूक और पंगु भी
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चादिना
आपूरित (धन से सन्तुष्ट हो गये हैं। कंसाल और ताल सलसल करते हैं, मिथुनों की तरह अलग होकर फिर मिलते हैं। दरवाजों पर लगे हुए वृत्त ऐसे मालूम होते हैं मानो मनुष्यरूपी वृक्ष के फूल हों। बत्ता प्रहार की प्रतिइच्छा रखनेवाले सन्नद्ध आतोद्य वाद्य इस प्रकार गरजते हैं
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