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इंदंडास पक्के पाणा खगे मिलिय तदिंसमिसम्म वड मंडलिय को दिएर नघुसि समलदि सिरिकामिणि रायगदिनु को विदा सदसदि पंणियअसेल िमयणादिविर लिन को निणिवा समिरविलायन घर तिमिक विवेकादिविधु लहारा लिया कसणज लहरेर्विज्ञालिय कासुदिपडति चमर चलई एकितसु सिसिणि ड्रेस दल कपूर धूलिवहलुठ स्वरुप रुटटतमियरुघुलभ सोकादि यंत्रनिवारियम तंबोलहोपाणिपसारिया ख सामिन्दिं कामिदि का मिणिहिं वेदास्य वंदियाहिं पणवंतदिसतर्हिरनिवादि अदिविरोडमणिकिर एहिं | शामलय विलसिया॥ जळणिसमोपणयप्सो सिंगारद । रामाणि निमंति जगज लिनियर कयिदरवरपडिहारणार पग्रइसेवा इस गिडी वपुर्जिलगु पड्सण्ठं कमर्कपण अहुनिहा लगाउँ, हिक्का सदा चालणनं खास धमिला मन्नानं करमे डिपरसापेलण वठे उपपदंसण अपसगुण संसउं सविधान काम विना इहागमदेवरी संवयवारणडे परणिंदणुपाय पसारणडं अवरुविजविण पंविरडियन। तंभकर जगुरु यागर दियउ मम हो माणस सामिदेतडी ढंक हो दी पत्र अप्यधता। इसलकि 49.
एक से एक प्रमुख राजा क्षणभर में इकट्ठे हो गये, और बहुत से माण्डलीक राजा वहाँ आकर बैठ गये। कोई राजा केशर से चर्चित है मानो लक्ष्मीरूपी कामिनी के अनुराग से अधिगृहीत है। कोई राजा चन्दन से धूसरित सफेद दिखाई देता है मानो अपने ही यश से भरा हुआ हो। कस्तूरी से विलिप्त कोई राजा ऐसा जान पड़ता है कि जैसे सूर्य और चन्द्रमा के डर से अन्धकार को धारण कर रहा है। किसी राजा पर हारावली इस प्रकार व्याप्त है मानो काले बादल में बिजली हो। किसी पर चंचल चमर पड़ रहे हैं, जो ऐसे लगते हैं मानो कीर्तिरूपी कमलिनी के दल हों। उस दरबार में कपूर की प्रचुर धूल उड़ रही हैं, जिसमें मधुकर गुनगुनाता हुआ मँडरा रहा है। किसी ने आते हुए उसे हटा दिया गया और पान के लिए अपना हाथ फैलाया।
घत्ता- जहाँ विद्याधर स्वामियों, कामना रखनेवाले समस्त देवरूपी बन्दियों तथा प्रणाम करते हुए रतिसमूहों और मणि किरणों में विरोध है ।। १ ।
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जहाँ प्रणय से प्रसन्न शृंगार धारण करनेवाला स्त्रीसमूह बैठा हुआ है। जहाँ यष्टि धारण करनेवाले भक्तिनिष्ठ श्रेष्ठ प्रतिहारी मनुष्य लोगों का नियंत्रण करते हैं। राजा के सामने थूकना, जँभाई लेना और हँसना सेवा का दूषण माना जाता है। पैर हिलाना, तिरछा देखना, हकारना, भौहों का संचालन करना, खाँसना, चोटी खोलना, हाथ मोड़ना, दूसरे के आसन को खिसकाना, सहारा लेना, दर्पण देखना, अत्यधिक बोलना, अपने गुणों की प्रशंसा करना, अत्यन्त विकारग्रस्त होना, शरीर को देखना, इष्ट, आगम और देब को निन्दा करना, पैर फैलाना (इसके सिवा) और जो विनय से रहित तथा गुरुजनों के द्वारा गहिंत बातें हैं, उन्हें नहीं करना चाहिए। राजा के आदमी को मानना चाहिए और अपनी दीनता को छिपाना चाहिए।
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