Book Title: Shukl Jain Mahabharat 02
Author(s): Shuklchand Maharaj
Publisher: Kashiram Smruti Granthmala Delhi
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. 'शुक्ल" जैन महाभारत . अनुक्रमणिका की सख्या सख्या विपय परिच्छेद–१ . mo Kur.9 । १ पाण्ड्ड की विरक्ति द्वितीय परिच्छेद-२ २ हिडिम्बा विवाह तृतीय परिच्छेद–३ - ३ जरासिंध-वध ४ \ अद्भुत महल... ५ दुर्योधन का षडयंत्र ६ वाजी ७ द्रौपती का चीर हरण ८ धृतराष्ट्रर की चिन्ता ६ श्रीकृष्ण की प्रतिज्ञा १० दुर्योधन का कुचक्र ११ लाख का महल १२ बकासुर वध... १३ गधों से मित्रता १४ पासा पलट गया १५ पाण्डव बच गए १६ पाण्डव दास रूप मे १७ कीचक वध ... १८ दुर्योधन की चिन्ता १९ दुर्योधन से टक्कर वृहन्नला रण योद्धा के रूप में २१ कौरवो के वस्त्र हरण २२ दुर्योधन की पराजय २३ पाण्डव प्रकट हुए २४ परामर्श २५ श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथी ... ... . २६ मामा विपक्ष में १०० १०७ ११७ १३०० १३५ , . १४७ १६९ २०८ २१५ २४७ ::::: २५४. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका पृष्ट २९५ ३०९ ३१४ ३१ सना सख्या विषय । २७ सन्धि वार्ता.. २८ दुर्योधन का अहकार २९ कृष्ण शान्ति दूत बने ३० कुन्ती को कर्ण का वचन सेनापतियो की नियुक्ति ३२ कृष्णोपदेश ... ३३ प्राशीर्वाद प्राप्ति ३४ युद्ध होने लगा ३५ दूसरा दिन ... ३६ तीसरा दिन... ३७ चौथा दिन ... ३८ पाचवां दिन . ३९ छटो दिन ४० सातवा दिन... ४१ पाठवा दिन... ४२ नौवां दिन . ४३ मृत्यु का रहस्य ४४ भीष्म का विछोह ४५ दुर्योधन का कुचक्र ४६ युधिष्ठर को जीवत पकडने की चेष्टा ४७ वारहवां दिन ४८ तेरहवां दिन ४९ कर्ण का दान ५० अभिमन्यु का वध ५१ अर्जुन की प्रतिज्ञा ५२ जयद्रथ वध .. ५३ द्रोणाचार्य का अन्त ५४ कर्ण का वध... ५५ दुर्योधन का अन्त ५६ अश्वत्थामा ... ५७ गाधारी की फटकार ३२५ ३३५ ३४० ३५९ ३७१ ३८६ ३८९ ३९४ - :: :: :: :: : . ४०० ४१७ - ४२७ ४३५ ४५२ ४५८ भ::: ४७५ ४०२ ५०६ ५०८ ५२२ ५३५ ५४७ ५७६ ५८० Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * दो शब्द र प्रस्तुत ग्रन्थ और लेखक के विषय मे इससे पूर्व प्रथम तथा द्वितीय भाग मे बता चुके हैं इस विषय में अधिक बताना दिवाकर को दीपक दिखाना है। पुस्तक के लगभग 625 पृष्ठ हैं जब पुस्तक ही इतनी महान् है तो उसके रचयिता कितने महान होगे यह तो पाठक गण अपनी प्रतिभा से विचार सकेंगे। ' प्रूफ का संशोधन श्री रमेश मुनि जी महाराज तथा श्री सन्तोष मुनि जी महाराज ने अति ही सावधानी एव प्रेम से किया फिर भी त्रुटि का रह जाना सम्भव है क्योकि पुस्तक एक विशाल एव विराट है। उपरोक्त दोनो मुनि इस ग्रन्थ लेखक श्रमण संघीय पंजाव प्रान्त मन्त्री पं० रत्न कवि सम्राट जैन धर्म भूषण परम श्रद्धेय श्री शुक्ल चन्द्र जी महाराज के ही शिष्य है। जिन्होने अत्याधिक परिश्रम से प्रूफ संशोधन कर अनेक श्रुटियां निकाल दी फिर भी कोई त्रुटि हो तो धर्म प्रिय सज्जन सुधार कर पढे । प्रत्येक बन्धु का परम कर्तव्य है कि जैन महाभारत के श्रादर्श और उसके दृष्टि कोण पर चलने का भरसक प्रयास करे तथा अपना जीवन सफल वनाए तभी अपना परिश्रम सफल समझेंगे। जो स्थान गगन मे प्रथम नक्षत्र को उपवन में प्रथम सुमन को माला में प्रथम मोती को प्राप्त है वही स्थान ग्रन्थो मे प्रथम जैन महाभारत को है। इससे अधिक लिखने मे में समर्थ नही हु विशेष पाठक गण स्वय समझ लेंगे। भवदीय : सुखदेव रान जैन कोतवाली बाजार, अम्बाला शहर । Page #6 --------------------------------------------------------------------------  Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत ग्रन्थ लेखक के विषय में सार पंजाब प्रान्न मन्त्री पं० रत्न कवि सम्राट परम श्रद्धेय पूज्य श्री शुक्ल चन्द्र जी महाराज के सुशिष्य सन्तोष मुनि 'दिनकर" प्रभाकर।" .. . साधु जीवन कठोर साधना तथा दुर्गम निष्ठुर पथ पर चलना और नाना प्रकार के परिपहो का सहना है। आप इस आधुनिक युग मे जैन धर्म के एक उज्ज्वल चमकते हुए दिवाकर तथा श्री वर्द्धमान- . स्थानक वासी जैन श्रमण सघ के मन्त्री हैं । दिनकर से तेजस्वी राकेश से प्रोजस्वी दिव्य ज्योति अमर विभूति विश्व प्रिय आप ने शांत काति को जन्म देकर जो सत्यादर्श सघ समक्ष रखे ,उसका अखिल भारतीय श्रमण एवं श्रावक संघ.अभिनन्दन करते हैं..। आप एक सस्कृति के प्रकाशक है । शात और निर्भीक जीवन में प्रेम और सामंज्यस का जो विलक्षण समन्वय हुअा है उसी के नाते आप आज तक जैन समाज के लोक प्रिय लोक पूज्य और लोकवंघ बन रहे है । हमारी समाज मे आप एक अमूल्य चितामणि रत्न है । ज्ञान के भडार और शान्ति के सिन्धु हैं। शुक्ल जैन रामायण तथा शुक्ल जैन महाभारत जैसे महान् प्रन्यो के रचयिता से ही आपकी प्रतिभा का परिचय हो जाता है । आप एक प्रतिभा सम्पन्न और प्रभाव शाली सजग साधु तथा साधुत्व को एक साक्षात् मूर्ति है। जैनागमो का प्रापने गहरा अध्ययन किया मोर विपुल हिन्दी साहित्य का भी। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत ग्रन्थ लेखक के विषय में इसके साथ २ संस्कृत प्राकृत गुजराती, मराठी आदि भाषाओ पर भी आपका अच्छा अधिकार है । उपरोक्त दो ग्रन्थो के अतिरिक्त और भी कई पुस्तकों का आपने प्रकाशन किया जम्बु चरित्र वीर मति जगदेव चरित्र मुख्य तत्त्व चितामणि अध्यात्म गुण माला धर्म दर्शन शुक्ल गीताजलि नवतत्त्वादर्श भारत भूषण जगत विख्यात प्रधानाचार्य पूज्य सोहनलाल जी म० एव पंजाब केशरी प्राकाण्ड विद्वान जैनाचार्य पूज्य कांशीराम जी म० का आदर्श जीवन आदि अनेक पुस्तको का आपने अपना अमूल्य समय निकाल कर प्रतिपादन किया । 7 अखिल भारतीय समाज आपका मनोहर नाम न लेकर पंडित श्री जी के नाम से पुकारती है । पडित श्री के नाम की ख्याति इसी लिए नही कि आप केवल विद्वान हो अथवा द्विज वंश कुलोत्पन्न हैं । बल्कि विद्वता के साथ-साथ गम्भीर दार्शनिक सैद्धान्तिक तथा कठिन से कठिन विषय का भी लोक भाषा मे विवेचन करते हैं, और जैनागमो का गम्भीर ज्ञान तथा समझाने की विद्वता पूर्ण कला आप मे ही है । सरलता सहन शीलता प्रमुदित मुख शांत मूर्ति स्नेह सरल स्वभाव करुणा सिन्धु शान्ति सरोवर जैन धर्म के ज्ञाता आदि गुण आपके स्वाभाविक ही है । इस युग में आप हिन्दी सस्कृत के एक प्राकांड विद्वान् हैं । और इसी से ग्राप महान् हैं । आपकी सर्व श्रेष्ठ पुस्तको का जनता ने हार्दिक स्वागत किया जो हाथो हाथ बिक रही है । अपने जीवन में आप जो कुछ हमें प्रदान कर रहे हैं वह हमारे विचारों की पवित्रता आचरण की पावनता और आत्मा की शुद्धता के लिए प्रकाश स्तम्भ और अलोक मार्तण्ड की भाति है । आपने अपनी अमृतमयी प्रेम प्लावित जादू भरी वाणी द्वारा अनेक स्थानो पर धार्मिक एवं सामाजिक सुधार कर समाज में स्नेह की सुन्दर निर्मल एवं मंगलिक कल्याण कारी मन्दाकिनी प्रवाहित की हैं। श्राप जैसे महान् ज्योर्तिधर पर जैन समाज जितना भी अधिकाधिक गर्व करे उतना ही थोड़ा है । आप सत्य अहिंसा क्षमा शान्ति के एक साक्षात् श्रवतार हैं । आप की ओजस्वी वाणी ने जनता के समक्ष जादू का कार्य किया । भारत भरण जगन निशान खिला ल के Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत ग्रन्थ लेखक के विषय मे ३ प्रधानाचार्य पूज्य सोहन लाल जी महाराज पजाब केशरी प्राकाड विद्वान् जैनाचार्य हृदय समाट पूज्य काशी राम जी महाराज की भाति आप भी अपने पथ पर निर्भयता से अग्रसर हो रहे है और उन्ही के सत्यादर्शों पर चल रहे है सत्य अहिंसा पथ पर अग्रसर होते हुए श्रमण सस्कृति के अमर देवता अहिंसा मूर्ति प्रेमावतार क्षमा सिन्धु केवल ज्ञान दर्शनाराधक करुणाभण्डार श्रमण भगवान महावीर का धर्म प्रचार्थ कर सम्वत २०२० का चातुर्मास जैन सघ की प्राग्रहभरी बिनती पर अम्बाला शहर स्वीकार किया। आपने अपनी विशेषताओ से अपने आदर्शों से जन हित कार्यो से और अपने महान गुणो से इस निरस मानव लोक का तिमिर प्लावित मानव ससार को जैन धर्म - रूपी दिवाकर की किरणे विस्तृत कर चमत्कृत कर दिया और जो मुरझाया हुआ तथा शुष्क उपवन था वह हग भरा तथा लहलहाता हुग्रा बना दिया। और पाप ने दानवता के स्थान पर मानवता ग्रहण करना स्वार्थ वृति तज कर परमार्थ वति जागृत करना विश्व कल्याण मे ही निज कल्याण की भावना रखना तथा अन्य की भलाई के लिए अपने प्राणों की आहुति दे देना आदि इस प्रकार के उपदेश सुनाकर जनता को मंत्र मुग्ध बना दिया। ___ आप एक लोक प्रिय सन्त और जनता की श्रद्धा भावना के केन्द्र हैं साधुवों की व्यवस्था मे श्राप श्री हम सब के लिए एक प्रादर्श हैं। श्रमण सस्कृति मानव सस्कृति जैन सस्कृति का रहस्य बतलाते हुए अाप ने फरमाया था कि जो सुख शान्ति दूसरे को देने मे हैं वह लेने मे नही जो ग्रानन्द अन्य को देने मे हैं वह लेने मे नही जो त्याग मे है वह भोग मे नही वही स्वर आज भी हमारी जैन समाज में गूजायमान हो रहा है। संघ शिरोमणि चरित्र नायक चूड़ामणि, चितामणि रत्न प्रातः स्मरणीय कवि सम्राट केशरी सम विशाल कार्य तप पुत. ब्रह्मचर्य से तेज युक्त प्रफ्फुलित बदन दिव्य ज्योति सुडोल भव्य शरीर हस्ती वत गम्भीर चाल चितन शील नयने नवनीत सम मृदु हृदय उन्नत ललाट तेजो मय मुख स्वर्ण रूप सरम मरल कोमल ओजस्वी प्रवाह मयी प्रभाव शाली जादू भरी अमृत मयो वाणी प्रादि गुणों महित गुरुदेव Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत ग्रन्थ लेखक के विषय मे अापने केवल पंजाब प्रांत मे ही नही महाराष्ट्र, सौराष्ट्र,बम्बई, बंगा विहार, राज्यस्थान गुजरात, काठिया वाड, यु पी. एम. पी पी ब एस. पी. मैसूर आदि अनेक प्रातो मे पैदल पर्यटन कर मधूर धर्मोपदेश हारा जनता का कल्याण किया और अब कर रहेहै तथ। सन् 1947 पूर्व रावलपिंडी, गुजरावाला, लाहौर, पसरूर, कसूर, स्यालकोट दि मे किया जो आज हमारे लिए विदेश बन कर पाकिस्तान मे म्मलित है। आप अपने जीवन काल में कल्याणकारी लोक राज अहिंसात्मक विश्व बन्धुत्व एवं अध्यात्मिक साधना की पराकाष्टा को स्थापित कर रहे हैं पाप जीव विज्ञान के प्राचार्य है । आपका समग्र शरीरिक दर्शन ही जिस भाग्यशाली पुण्यवंत नर को उपलब्ध हो गए वह सदा के लिए कृत कृत्य हो गया उसका जीवन सफल एवं उच्चकोटि का बन गया । इस लोक मे तथा परलोक मे सुखमय बन गया। आप हमारी समाज मे एक दिनकर सद्दश्य है जिस प्रकार दिवाकर की सहस्रो किरणे प्रचण्ड एव प्रखर विस्तृत हो रात्रि तिमिर को नष्ट कर प्रकाश से जगमगा देता है परन्तु वह मार्तण्ड- तो.केवल रात्रितम का ही हरण करता है जो भौतिक है परन्तु पाप की जैन धर्म दिवाकर की कोटि-कोटि किरणें ज्ञान का अलोक धर्म का प्रकाश अध्यात्मिक मानव हृदय को पालौकिक करती हुई असार ससार नश्वर नाश्वान तथा क्षण-भगुर विश्व को त्यागने तथा सयम रूपी अमूल्य रत्न ग्रहण करने की प्रेरणा देती है। आपके जीवन की प्रत्येक घटना एक आदर्श मयी हैं और उस का वर्णन भी इसी लिए करते हैं कि ससार-ससार के मित्थ्या चक्कर से वचे पूण्य-पाप, सत्य-असत्य, हिंसा-अहिंसा की पहिचान करें और धर्म से सम्बन्ध योग कर जन्म मरण बन्धन तोड़े कर प्रष्ट कर्म रहित अजर अमर निराकार अरूपी अविकार सच्चिदानन्द सकल विश्व एव प्रयलोक दृष्टिगोचर स्वर्ग एवं दोजख का ज्ञाता परमात्मा. स्वरूप बन सकता है । आप का हृदय नवनीत सम मृदु शिशु सम सरल मानों प्रेम सरिता प्रवाहित हो रही है परन्तु नियम पालन तथा सयम क्रिया मे वज्र से भी निष्ठर है इसमे तनिक सन्देह तत पर अजमेर सादड़ी सोजत बीकानेर जहा ती Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत ग्रन्थ लेखक के विषय मे सर्व मे भाग लिया और प्रत्येक मे सफलता आपके पावन पदपकज चूमने लगी सैकडो साधुवो में आप का तेज निराला ही था वास्तव मे शुक्ल सचमुच हो शुक्ल हैं मानो शुक्ल ध्यानी शुक्ल लेश्या के धारक हैं । मुख पर ज्योति दमदमा रही है कितनी सहन शीलतो कितनी शाति कितना साहस उत्साह प्रेम कितना स्नेह धन्य है आप के जीवन को वारम्वार धन्य हैं आपके सयम को गुरु देव धन्य है। आपका प्रारम्भ से ही श्रमण सघीय निर्माण में अत्याधिक प्रेरक हाथ रहा है । सन् 1957 मे देहली विश्व धर्म सम्मेलन मे आप सब साधुवों से प्रतिनिधि थे। सम्मेलन के लगभग 300 प्रतिनिधियो मे आपके चेहरे पर जो शान्ति चमक रही थी जो तेज चमत्कृत का वह अन्तर्राष्ट्रीय जगत के धार्मिक प्रतिनिधियो को जैन धर्म को 'त्याग मयी साधना और आत्मतेजस्विता के प्रति वरवश आकृष्ट कर रही थी उसकी सफलता का कारण आपकी कृपा दृष्टि ही है। आप भव्य भद्रात्मा ज्ञान दर्शन चरित्र के आराधक और दृढ संयमी साधक है सहानुभूति स्नेह प्रेम और सरलता का झरना तथा अहिंसा दया करुणासत्य ज्ञान तप का सरोवर निरन्तर एव अविरल प्रवाहित होता रहता हैं । आपने ही जनता के हृदय की भावना को सम्मान देते हुए बड़े बड़े ग्रन्थों का काव्यात्मक भाषा मे निर्माण किया अभी जैन महा' भारत के पीछे भी आपका उद्देश्य जन कल्याण हो रहा; है इसका प्रथम भाग तो प्रकाशित हो चुका था यह द्वितीय खंड प्रकाशित हो रहा है। यह शुक्ल जैन महाभारत जैन श्राचार जैन इतिहास और जैन दृष्टि कोण के विषय मे भी नवीन प्रकाश एव अलोक दिखाएगा ऐसो सम्पूर्ण मुझे विश्वास है। । संघ संगठन समाज'को एकता और संघ की भलाई तथा दूसरो के परमार्थ के लिए आपने युवाचार्य जैसे महान् पद का भी त्याग कर दिया यही है आपके जीवन की एक महान और महत्व पूर्ण विशेपता यही है आपके जीवन का एक सत्यादर्श । निर्भयता और निस्वार्थता श्रापके हृदय की ठोस वस्तु हैं आप मानव जीवन धर्म दर्शन समाज और सस्कृति के विभिन्न विषयो पर गृह विचार रखते हैं माप स्वछन्द विचार शैली विशिष्ट कल्पना Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत ग्रन्थ लेखक के विषय मे शक्ति एव मौलिक चिन्तन शीलता के परिचायक है । मानव जीवन को नवीन मोड देने नवीन दिशा दिखाने विकास पथ पर बढ़ने एव प्रगति करने के लिए सहयोग देने में पूर्णतः समर्थ है आपने श्रमण सघ का जो कार्य एव निर्माण किया वह अद्वितीय है। अतीत काल मे श्रमण सधीय निर्माण में आपने भरसक प्रयास किया वर्तमान मे अत्याधिक प्रयत्न कर रहे हैं और भविष्य मे अत्यत चेष्टा करेंगे । ऐसी शुभाशा है। . . . शासन देव से प्रार्थना है कि आपको दीर्घायु दे आपकी छत्र छाया मे रहते हुए चतुर्विध सघ प्रगति कर रहा है आपका आशीर्वाद और आपका साया करोडो बर्ष तक जैन समाज और अपनी शिष्य मडली पर रहे यही मेरी एक हादिकाभिलाषा एव कामना है। - विशेष परिचय जानने के लिए जैन महाभारत के तृतीय भाग मे पढ़ें। हार्दिक उद्गार जैन धर्म दिवाकर पूज्य वर भव्य जीवो के तारण हारे है। आशाओ के केन्द्र हमारे निर्मल शशि उजियारे हैं । शान्ति सिंधु क्षमा ‘दया और ज्ञान गुणी भड़ारे है। सहन शीलता करुणानिधि अद्भुत उज्ज्वल पुण्य सितारे हैं ।। तेजस्वी "दिनकर" प्रोजस्वी इन्दु प्रेम मन्दाकिनी बहाते हैं। राजे और महाराजे सारे चरणन शीष निवाते हैं। पंजाब प्रान्त मन्त्री क्या-क्या गुण आपके गायें हम । गुरु देव आपके चरणन मे श्री सादर शीष झुकाये हम ॥ प्रधानाचार्य भारतभूषण जगतविख्यात पूज्य सोहनलाल जी म०कीजर पजाव केशरी जैनाचार्य प्रकांड विद्वान पूज्य काशीराम जी म० की जर श्रमण संघीय मत्री कवि सम्राट प०रत्न पूज्य शुक्ल चन्द्र जी म०कीज प्रोम शान्ति ! शान्ति !!' शान्ति !!! भवदीय .-मुनि सन्तोष "दिनकर" प्रधानाचार्य संवत् 28 महावीर सवत 2489 भादव शुक्ला पचमी 23 अगस्त सन् संवत् २०२० 1963 श्री महावीर जैन भवन अम्बाला शहर (पंजाब) Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 शुक्ल जैन महाभारत * प्रथम परिच्छेद ARY STARL पाण्डु की विरक्ति RRRRKS iii पूर्व कर्म के हाथ में है जीवन की डोर शुभ होवे तो मिल जायेगा जग उलझन का छोर घोर तिमिर भी छूट जाता है, होती है जब भोर भटक भटक कर सरिता, पहुंचे सागर के ही चोर WE श्वेत छत्र से सुशोभित पाण्डु नृप को वन क्रीड़ा करने की इच्छा हुई । चचल श्रश्व, मदोन्मत हाथी और सुन्दर, सुसज्जित रथ तैयार हो गए, चारो प्रकार की सेना सज गई । सौम्य सुन्दरी कमल मुखी माद्री भी पति आज्ञा से सोलह शृङ्गार करके तैयार हो i गई । नृप महल से निकले तो अनेक प्रकार के बाजे बज उठे । माद्री पालकी मे सवार हो गई । प्रश्व चचल हो गए । श्रीर नृप अपनी 7 सेना के साथ वन की ओर चल पडे । बन मे पहुच कर सेना को एक स्थान पर रोक कर नृप और माद्रो सघन वन में चले गए, वहां जहा प्रकृति सोलह शृङ्गार कर के मदनोत्मत्त थी । नृप कभी ताल वृक्षो की शोभा देखता, कभी सरल सरस वृक्षो पर दृष्टि जमा देता, और कभी मजरियो की सुगंध से परिपूर्ण, सुगन्धित ग्राम्र वृक्ष उमे अपनी ओर आकर्षित कर लेते। प्रशोक वृक्ष, जो कामितियों के पैरो की ताड़ना से हरे भरे हो जाते हैं, नृप को अपने यौवनोन्मादी शरीर को एक टक देखने के लिए आमन्त्रित करने तो प्रमदाओं के Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत कुल्लो से सीचे गए बकुल के वृक्ष उसको ओर अपने कर पसार देते। कभी कुसवक वृक्ष उस की दृष्टि हर लेते तो कभी मदोन्मत्त भ्रमरो के मधुर सगीत उसके चित्त को बाहु पाश मे आवद्ध करने की चेष्टा करते। और वह कोयल कुक रही है, कानो मे माधुर्य घोलतो हुई न प और माद्रो के शुभ गमन पर अभिनन्दन राग अलाप रही है । जल प्रपात अपने हिये को वाणा पर तरल तरगो का, कि भौरयो के मधुर कण्ठ को भा लज्जित , करने वाला राग नृप के हृदय को गुद गुदा रहा है और कही। विभिन्न एव विचित्र रगो के पक्षो किलोल करते हुए मन मे आ वसने के लिए लालायित दीखते है । सारी प्रकृति ही मद. भरी है । ऐसे मादक वातावरण मे भला कौन कायर अपने हृदय पर काबू रख सकता है । नृप कभी प्रकृति के शृङ्गार को देखता तो कभी माद्री की घोर काली केश लताओं में उलझ जाता। वह माद्री के साथ वन के स्वच्छन्द पशु पक्षियो की नाई क्रीडा करने लगा। उस ने चन्दन के रस से, अगरुद्रव के मर्दन से, सुगधित दवा के निक्षेप से, उस चित्ताकर्षक एव सुन्दर वन पशुओ के चचल कटाक्ष सहित निरक्षिण से इस प्रकार महाराजा. राजरानी माद्री के सहित, जिस समय प्रकृति नदी के मनोरम रूप सुधा का आस्वादन करने मे तल्लीन थे, उसी समय एक ऐसी अकल्पित घटना घटी कि जिसने उनका आमोदमयी जीवन-सरिता के प्रवाह को ही मोड दिया। उस मद भरे सरस सुन्दर वातावरण मे, जहाँ लता वितानो पर मुखरित पुप्पो की मनमोहक मुगन्ध पर भ्रमरगण अपनी राग रागिनिया ध्वनित कर रहे थे। सहसा एक हृदयद्रविक चीत्कार कर्ण कुहरो मे गूजने लगा। उस आर्तनाद से वह समस्त बन-प्रदेश मानो प्रकम्पित हो रहा हो। जिससे धर्मात्मा पाडुनरेश के दयालु हृदय को वडा आघात पहुचा और वह एक क्षण का भी व्याघात न करते हुए शब्दानुसरण करते हुए उस स्थल पर पहुचे जहा एक भोला मृग किसी लुब्धक के तीक्ष्णवाण से पाहत होकर कराहता हुआ छट पटा कर अपनी जीवन लीला को समाप्त कर रहा था। और उसको प्रेयसी उसकी पोर व्यथित दृगो से अश्रुपूर्ण नेग्रो से खड़ी देख रही थी। पांडुनृप को उपस्थित पाकर मृगी का हृदय और भी चचल हो उठा। वह दैन्यभाव से एक बार नरेश की तरफ देखती, तो Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत दूसरी बार अपने म्रियमाण प्रियतम कीमोर । जैसे कि कह रही हो कि क्या आप इसी न्यायपद्धति एव वलवते पर हम निरीह वन वासी प्रजा की पालना करते है। क्या हमने किसी को मारा था अथवा हम किसी का धन चुराते है ? जिसके उपलक्ष्य में आपके साथियो ने इतनीनिर्दयता एव कठोरता से मेरे पति का वध किया है ? मैंढ हीखेत खाने लगे तो उसकी रक्षा कैसे हो सकती है यह तो रक्षक के ही भक्षक वन जाने जैसी बात हुई ! केवल घास तृण खाकर, ही जीवन यापन कर देने वाले मेरे पति को मार कर राजन् आप के साथियो को क्या मिला ? भूपति, हिरणी के दुख • तप्त हृदय से नि मृत आर्तनाद को हृदय कर्णो से श्रवण कर रहे थे। उसी की जाति के एक सदस्य के द्वारा उपस्थित किये इस पैशाचिक काड ने नर नाथ का हृदय विदीर्ण कर दिया था। हिसारूपी रग मे रगे मानव रूपी दानव की दानवता से राजा का शरीर सिहर उठा था । उसे ऐसा अनुभव हो रहा था कि मानो समस्त चराचर जगत को अपनी मुखद गोद मे भरणपोषण एव विश्राम प्रदान करने वाली प्रकृति देवी मनुप्य का उपहास उडाती हुई शिक्षा दे रही हो कि-ऐ मानव ! तू सप्टो का सर्वश्रेष्ठ प्राणो हो कर भी मानवता के अभाव मे पशुओं से भी निम्नतर है। तू उनके उपकार से, उनके श्रम से उत्पन्न अन्न, वस्त्र, फल, फूल, दूध, दधि, घी, मक्खन आदि अमृत का सेवन करके स्वय तो जीवित रहना चाहता है। पर अपने जघन्य स्वार्थवश उन जीवित दानानो को जीवित नही रहने देना चाहता । यह तेरी कैसी कृत। नता है ! यदि मानवाकृति प्राप्त की है तो मानवता का यह अ.दि : मूत्र भी सदा सर्वदा स्मरण रख कि -दशवकालिक सूत्र ४,९ संसार भर के प्राणियों को अपनी प्रात्मा के ममान समझो, यहो अहिमा की व्यारया है और यही अहिंसा का भाप्य, महाभाष्य । तथा कसोटी है । (हिमा जो कि मनुप्यत्व का प्रमुख अङ्ग है। है जिस दिन जिस घडी मे तू अपने जीने का अधिकार ले कर बैठा इन है वहो जीने का अधिकार सहज भाव से दूसरों के लिए भी देगा, हो तो मेरे अन्दर दूसरों के जीवन की परवाह करने को मानवता -- .-.-11 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत जागेगी, दूसरों के जीवन को अपने जीवन के समान समझेगा, और सब प्राणी तेरी भावना में तेरी अपनी आत्मा के समान बनने लगेंगे और सारे संसार को समान दृष्टि से देखेगा, और समझेगा कि जो वस्तु मुझे प्रिय है वही इन्हे भी है क्योकि - सव्वे प्रारणा पिया उमा, सुहसाया, दुख पडि कूला, अप्पिय वहा, पियाजी विगो, जीविउकामा । सव्वेंसि जीवी यंपियं । अर्थात - सव जीवो को जीवन प्रिय है और सभी जीना चाहते है सुख के लिए तरसते हैं और दुख से घबराते हैं अतः प्राणियो के जीवित्तव्य एव सुख का यदि तू निमित बनने को तैयार रहता है तो तभी समझना कि तेरे अन्दर अहिंसा है अर्थात तू वास्तव में मानव है । सव्वे जोवा वि इच्छति, जीविउ न मरिज्जिउं । तम्हा पाणवहं घोरं निग्गथा वज्जयति णं ॥ सव जीव जीना चाहते हैं, कोई मरना नही चाहता। सभी को अपने जीवन के प्रति श्रादर और आकांक्षाए हैं । सभी अपने लिए सतत प्रयत्न शील हैं। अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे है, सत्ता के लिए जूझ रहे है सो जैसा तू है वैसे ही सब हैं । भगवान कहते हैं कि इसी लिए मैंने प्राण वध अर्थात हिंसा का त्याग किया है । और दूसरो को सताना छोड़ा है। स्वयं को सताया जाना पसन्द होता तो दूसरो को सताना न छोडते । मर जाना पसन्द होता तो मारना न छोडते । मगर सभी प्राणियो के जीवन की धारा एक है । तुमंसि गाम तं चेव जं हत व्वति मरासि तुमंसि गामतं चैव जं ग्रज्जावेयव्वति मरासि तुमंसि नाम तं चैव ज परियावेयव्वति मरणसि, एवं जं परिछेत्तव्वति मरणसि, जं उद्धवेयव्वंति मरणसि, Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत __ भजू चेय षडिवुद्ध जीवी मम्हा ण हता विधायण, अणुसंवेयरामप्याणे रण ज हंतव्वं गाभिपत्थए । तुम जिस जीव को कष्ट देने योग्य, परिताप उपजाने योग्य यावत मारने योग्य समझते हो वह प्राणी तुम्हारे समान ही शिर पैर, पीठ और पेट वाला है। यदि कोई प्राणी तुम्हे दुख देवे यावत् मारने के लिए आता हो तो उसे देख कर जिस प्रकार तुम्हे दुख होता है। उसी प्रकार दूसरे जीवो को भी होता है । अथवा जिस काय को तुम हनन करने योग्य मानते हो उस काय में तुमने हजारों बार जन्म धारण किया है, इस लिए यह समझो कि तुम ही हो। इस प्रकार विचार करके जो पुरुष सब जीवो को प्रात्म तुल्य मानता है, वही श्रेष्ठ है। जो जीवो की हिंसा की जाती है उसका पाप स्वय जीव को ही भोगना पडता है। अत: किसी भी प्राणी की स्वय घात न करे, न दूसरो से करवाये, और करने वालो की अनुमोदना भी न करे । शास्त्र मे एक अन्य स्थान पर कहा गया है :सव्वेपारणा सव्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता रण हंतव्वारण अज्जा वेयव्वा रण परिधेतन्वा ण परिया वेयवारण उद्दवेयवा, एस धम्मे सुध्दे गिइए सासए। -अर्थात एकेन्द्रिय से ले कर पचेन्द्रिय तक किसी भी प्राणी की हिंसा न करनी चाहिए, उन्हे शारीरिक व मानसिक कष्ट न देना चाहिए। तथा उनके प्राणो का नाश नहीं करना चाहिए । यह अहिंसा धर्म नित्य है, शाश्वत है । हिंसा तीन काल मे भी सुख देने वाली नही है । दया उत्कृप्ट धर्म है । दया-नदी महातीरे, सर्व धर्मास्तृणाड कुराः । तस्या शोषमुपेतायाँ प्रियन्नन्दति ते चिराम 120 ऐन्द्रिक लोलुप्ता के वरावर्ती मानव द्वारा किये जाते फूर पामों Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेन महाभारत को स्मरण कर-कर राजा का मन ग्लानि से भर उठा था जिस के कारण पाड़ नप का मन ससार, शरीर और भोगो से विरक्त हो गया कहा तो वह विषयानुरागी था और कहा उमने यह सोच कर कि भोग से अन्य पापो के झझट मे उलझ कर पाता के धर्म को भूल गया हूं, मुझे अपनी आत्मा के लिए भी कुछ करना चाहिए. मुक्ति के लिए भी कुछ करना है. यह तो मेरा जीवन ही सव व्यर्थ जा रहा है, ससार के सारे मोह बधन तोड डाले इसी लिए तो काल लब्धि एक ऐसी वस्तु है जो जीव की भवितव्यता के अनुसार उसके भाव और तद स्वरूप क्रिया कर देती है। पाण्डु नृप उस समय विचारने लगा- इन्द्रिय विषय प्राणियो के लिए दुर्गति मे ले जाने वाला है। जहां वृथा ही प्राणवध हो उसमे मेरी क्या सिद्धि ? जिस राज्य काज से पाप हो भला उससे मेरा क्या सम्बन्ध ? फिर शास्त्रो मे पढा ज्ञान उसके मस्तिष्क मे उभर आया- "इस जीव ने अनन्त वार मनुप्यादि पर्याय धारण करके विषय सुख भोगे, उन से ही जव तृप्ति नही हुई तव अब केसे तृप्ति हो सकती है,"फिर वह सोचने लगा ।- "जो एक वार भोगी. जा चुकी वह तो जूठी हो गई, ससार मैं कौन ऐसा वुद्धिमान जो उच्छिप्ट खाना पसन्द करेगा ? फिर विषय भोगते समय ही सुहावने लगते हैं, उत्तरकाल में नीरस हो जाते हैं, बल्कि विष समान प्रतीत होते हैं अतः विषय सेवन जीव को कोई मुख देने वाली चीज नही है, वह तो रोग का प्रतिकार है इसा लिए प्राचार्यों ने ऊपर के स्वर्गो मे प्रविचार का नहो होना हो सुख बतलाया है। विषय सुख अनित्य है क्षण स्थायी है । कुछ देर चमत्कार दिखा कर नष्ट हो जाने वाला है। नृप विचार करता है कि हे आत्मन ! तूने अनन्त काल तक विषय सुन्व भोगे पर तृप्ति न हुई. परन्तु अव तो सन्तुष्ट हो। इस ममय तो तुझे सब अनुकल साधन मिले हुए हैं । याद रख. ससय पाते हुए तू यदि नही चेता तो कर्म का एक ऐसा झकोरा पायेगा कि पीछे हूण्टे भी पता नही लगेगा। दूसरी बात यह है कि यदि तू समझकर भी इन विपयो से विरक्त नही होता है तो एक दिन वह आयेगा कि तुझे हो यह विषय छोड देंगे। इस लिए समझदारी इसी में है कि तू पहले हो इनका परित्याग करदे और और उन पथ पर पग वढा जिससे तेरा कल्याण होगा। पदार्थ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत मे रत रहने से जीव का कभी कल्याण नही होता यह निश्चय समझ पाण्डु नृप कुछ देर तक विचार मग्न रहे और फिर कुछ निर्णय करके अपने आप से ही बोले -" अब तक मैं मोह के फन्दे मे पड़ा हुआ था, अब मैं प्रति वुद्ध हुआ । इस समय मैं आत्म सुख से सुखी हूं। मुझे सन्तोप है और आत्मा के सच्चे सुख का अभिमान है । अव मुझे-स्त्री प्रेम से कोई प्रयोजन नहीं। __ कामी पुरुष विपय भोगो मे तन्मय हो कर अपने भोजन को अपने विवेक को, वैभव और वडप्पन को, यहा तक कि जीतव्य को छोड देते है, कामी राजा अपने राज्य धर्म को भूल जाते है, उन्हे अपने कर्तव्य, न्याय अन्याय, का भी ध्यान नहीं रहता, वे मिथ्यात्व के कारण अकरणीय कार्य भी करने योग्य बना लेते है । यह उनकी गिरावट की चरम सीमा आ जाती है। पर कामासक्त होने का कारण हमारा साहित्य भी है। साहित्यकार भी कामासक्त हो कर साहित्य को मानव जाति को नष्ट कर डालने योग्य रच डालते हैं। वे पेट के लिए विषयानुरागियो को प्रसन्न एव आनन्दित करने के लिए कामोत्तेजक कविताएं कह डालते है, जिनका सारे 'समाज पर प्रभाव पड़ता है पर जिस व्यक्ति की हृदय की आँखें खुली है वह जानता है कि जिन कुचो को सुवर्ण के कलश अथवा अमृत के दो घड बताया गया है वे मांस के दो पिड है। जो स्त्री मुख श्लेष्क-खकार और थक का घर है. उसको उपमा दी जाती पूण चन्द्रमा को, इसीलिए स्त्रियों को चन्द्र मुखी कहा जाता है । सीधे सीधे नेत्रो को. जहाँ निद्रा उचटने के पाश्चात मल घृणास्पद मल ही मिलता है, मृगलोचन कह कर प्रशशा की जाती है। इसी प्रकार स्त्री के अन्य अगों की बडी सुन्दर वस्तुग्रो से उपमा दी जाती है, इस प्रकार पाठकों के हृदय में कामाग्नि प्रज्वलित हो जाती है। पाण्डु राजा सोचता है वास्तव मे यह हमारी पास है, और हमारे भाव है जिसे अच्छा समझे उसकी हर बुराई को भी भलाई के रूप में देखते हैं। स्त्री का रूप देखकर बेकार ही उत्तेजना प्रा जाती है। वास्तव में वह तो सात धातुओ का पिंड है, नश्वर है, माया का स्थान है, फिर भी तू रागान्ध हो कर उनमे ग्रासक्ति करता है, प्राश्चर्य है तेरी बुद्धि पर ।" उसे अपने अब तक के Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत चरित्र से घृणा होने लगी और वैराग्य उसके हृदय मे अकुरित हो गया । फिर उसे माद्री की आंखो में मादकता दिखाई नहीं दी। उसके नेत्रों के सामने से विषय वासनानो का आवरण दूर हो गया। फिर उसने अपनो वैरागी आंखों से अपने चारो ओर देखा कही उसे मादकता दिखाई नही पड़ी किसी भी सौंदर्य ने उसे अपनी ओर आकर्षित नहीं किया। वह चारो और देखता हुआ घूमने लगा उसी समय उसे मुनि दिखाई दिए । वह उनके पास गया । क्योकि वह जानता था कि सच्चा सुख उन्ही के मार्ग मे है । मुनिगण का नेतृत्व करने वाले मुनि श्री सुव्रत जी थे, वे व्रतो से युक्त थे, सर्वाविधि ज्ञान के धारक थे, गुप्ति और समिति के पालन कर्ती एव षट काय के जीवो की रक्षा करने वाले थे। वे भव-तन भोगो से एकदम विरक्त थे और सदा आत्म चिन्तन मे ही लगे रहते थे। बारह भावनामो का चिन्तन करने वाले वाइस परीषहो को जीतने वाले उन मुनि जी की तपश्चर्या बहुत बढ़ी थी, इसी लिए उनका शरीर क्षीण हो गया था। वे जितेन्द्रिय व क्षमा के भण्डार थे । अक्षय सुख भोक्ता थे वे कभी स्त्रियो के तीक्षण कटाक्ष-बाणो के लक्ष्य नहीं हुए थे। उनका पक्ष उत्तम था। वे प्रतिक्षण ही कर्मों को निर्जरा करने में लगे रहते थे। उन्होने इन्द्रिय जन्य सुख की तिलाजलि दे दी थी। बड़े बड़े राजा महाराजा जिनके चरणो को सेवा करते थे उन महान योगी सुव्रत मुनि के चरणो मे पाण्ड्ड नृप जा गिरा। मुनि राज ने धर्म वृद्धि का आशीर्वाद दिया और कहाराजन् इस ससार वन में यह जीव सदा ही चक्कर लगाता रहता है। जिस प्रकार अरहट की घडी तनिक भी नहीं ठहरती वह घूमती ही रहती है । जो पुरुषार्थी पुरुष है वे सदा ही धर्म का सेवन किया करते है। वे अपना एक क्षण भी व्यर्थ नही खोते क्योकि निश्चय नही है कि एक क्षण मे क्या कैसा होता । धर्म दो भागों में बाटा गया है एक श्रावक धर्म और एक मुनि धर्म । धर्म के धारण करने कराने से ही जीव भव भ्रमण से छूट सकता है और कोई दूसरा उपाय नही है। योगी अथवा मुनि धर्म के पाँच महाव्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति इस प्रकार तेरह प्रकार से पालन होता है।" इसके उपरान्त सुव्रत मुनि ने मुनि धर्म और श्रावक Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत धर्म की सविस्तार व्याख्या की और अन्त मे बोले-मुनि धर्म से मोक्ष और श्रावक धर्म से स्वर्ग की प्राप्ति होती है । अत. राजन् ! तुम परमोपकारी धर्म का पालन करो। अव तुम्हारी आयु बहुत हो कम रह गई है। इस लिए अव तुम भली प्रकार सावधान हो जाओ, विषयों से अब प्रीति मत करो। मानव जीवन को व्यर्थ मत बनायो। मेरा तो यही मत है कि अव तुम एकक्षण की भी देरी मत करो, विधि पूर्वक धर्म पालन करो इसी मे कल्याण है। __ मुनि जी के धर्मोपदेश से पाण्डु नप के नेत्र खुले और उसने विषयो की ओर से मन हटा कर धर्म की ओर प्रीति लगाई। माद्री के साथ अपने महल को वापिस गया। महल से जाते समय वह ससाराभिमुख था, पर वापिस आते समय वह आत्माभिमुखी न चुका था। उसने धृतराष्ट्र तथा विदुर को अपने महल मे बुलाया और सारी घटना कह सुनाई। तदुपरान्त अपने निर्णय को उनके सामने रखते हुए कहा-"मैंने अपना पथ खोज लिया है । मेरी आयु के बहुत ही कम दिन शेप रह गये है अव मे इस बहुमूल्य समय को धर्म ध्यान मे व्यतीत करना चाहता हू अत एव राज-काज भार से मुक्त होना चाहता हू।' धृतराष्ट्र ने सारी बात सुन कर कहा धर्म पथ पर जाने वाले को रोकना कदापि भला नहीं है। यद्यपि हमारे हृदय मे बसा भ्रातृ स्नेह यह पसन्द नहीं करता कि आप हम से अलग हो। पर क्या करें, वैराग्य का अकुर जिस के हृदय मे उत्पन्न होता है उसे कोई भी नहीं रोक सकता। ___ जब पाडु के निर्णय की कुन्ती को सूचना मिली तो वह करुण अन्दन करने लगी। माद्री तो पहले से ही दुखी थी। पर उस की प्रिय रानियों का रुदन भी पाण्डु को विचलित न कर सका। उनने उन्हे सम्बोधित करके शात भाव से कहा---'इस सनार मे यह जीव कभी इस गति ने उस गति मे, और कभी उन गति ने इस गतिमे चक्कर लगाता हुया घूमता रहता है। फिर मुझे किसी ने किसी दिन तो इस संसार को, तुम्हे और राजपाट को छोड़ कर चले ही जाना है, कोई नई बात में नहीं कर रहा। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ম দ जैन महाभारत इस लिए दुखी होने की क्या बात है ? विचारो, कि भरत चक्रवर्ति जो कि छ खण्ड का अधिपति था, जिस ने भूमण्डल को जीत कर अपने वश मे किया, वह भी काल से न बचा तो हमारी तुम्हारी तो बात ही क्या है ? यह काल बली अजेय है । वात यह है कि इस भव सागर में चक्कर लगाता हुआ कोई भी व्यक्ति सनातन शाश्वत नही रहा, इस लिए किस के लिए शोक किया जाय । इन भोगों से किस सत्पुरुष का मन उचाट नही हुआ। मैं चाहता हू कि जो थोडी सी आयु शेष रह गई है उसको अकारत न जाने दो क्या तुम यह चाहती हो कि मेरी आत्मा इसी ससार मे व्याकुल घूमती रहे। मैं कभी शाश्वत सुख न पा सकू मैं जानता हूं कि तुम मुझे सुखी देखना चाहती हो, ग्रत मुझे विदा दो ।" १० t इस प्रकार रानियों को समझाया और मुक्त हस्त से दान देना आरम्भ किया । दीन दुखियों में अपार धन राशी वितरित की थी । अपने पाचो पुत्रो को बुलाकर उन्हे उन के कर्तव्य समझाए और राज्य भार धृतराष्ट्र को देकर वोले- भाई ! मेरे इन पाचो पुत्रो को अपना ही पुत्र समझ कर इनका लालन पालन करना । >> धृतराष्ट्र जो चक्षु हीन थे, वोले “भ्राता विश्वास रखो कि आज से मैं १०० के स्थान पर अपने १०५ पुत्र समभूगा ।" जब विदा का समय आया तो पाण्डव रोने लगे । पाण्डु मुस्कराने लगे, कहा - "तुम तो वीर सन्तान हो तुम्हारी आखों में सू शोभा नही देते | आज तुम्हारा पिता धर्म पथ पर जा रहा है उसे प्रांसुओ से नही मुस्कानो से विदा दो ।" 1 पाडु नरेश की शिक्षाओं से सवने अपने मन को ज्यो त्यों शान्त किया परन्तु राजरानी माद्री के हृदय की विलक्षण स्थिति थी । पति के विना उसे समस्त ससार सूना-सूना सा प्रतीत हो रहा था । जिन महलो मे रानिया दिवान रंग रेलियो करते करते सूर्य कव चढा और कब अस्त हुए का भी उसे ध्यान न होता था वही महल उसे यम दष्ट्रा समान भयानक प्रतीत हो रहे थे। जिसके कारण उसने समाधि प्राप्त करने के लिए पति पदानुसरण करने का Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत दृढनिश्चय करके अपने पुत्र नकुल और सहदेव को कुन्ती को समर्पण किया । और स्वय पाडु नरेश के साथ ही प्रायिका दीक्षा के लिये अग्रसर हुई । ११ सारा नगर उनके पीछे चला । पाण्डु नृप की जय जय कार से सारा नगर गूंज उठा । नगर से बाहर जाकर एक बार सभी कीर देखकर पाडु वोले “ - आप लोग अव मुझे क्षमा करें और वापिस जाकर धर्म ध्यान मे लगे, वैभव को छोड़ कर इस प्रकार पाडु चले गए। गंगा के तट पर जाकर उन्होने निर्ग्रन्थ दीक्षा ली और तप लीन हो गए । मुनि पाण्डु सभी जीवो पर समता भाव रखते थे, सब जीवो से उनका मैत्री भाव था, गुणी पुरुपो को देखकर ग्रानन्दित होते थे । उनका मन दर्पण वत स्वच्छ था । ग्रन्त मे उन्होने ग्राहार का त्याग कर, गुरू को साक्षी कर वीर शय्या स्वीकार की सम्यक ज्ञान दर्शन चारित्र तपाराधना रूपी पोत पर प्रारूढ होकर भव सागर को तोर्ण करने की इच्छा वाले उस महा यशस्वी पाण्डु मुनि ने प्राणी मात्र से समभाव एव मंत्री भाव स्थापित किया । तीव्र तपश्चरण से शरीर उनका जैसे कृश होता जा रहा था । अत त्यों-त्यो विलक्षण आत्म तेज उनके ललाट प्रतिभासित हो रहा था । अन्ततः वह समय आया जबकि सिद्ध परमेष्ठी भगवन्तो का हृदय कमल मे स्मरण करते हुए इस विनश्वर शरीर को त्याग कर सौधर्मकल्प मे दिव्य देवद्यूति सम्पन्न महाहिर्दक देव के रूप जन्म लिया । उधर मात्री प्रायिका ने भी हृदय को कपाने वाली दुर्धर तप अग्नि द्वारा जन्म जन्मान्तरों की पापराशि को भस्म करते हुए सलेखना मरण करके इसी सौधर्म देव लोक मे दिव्य द्युति वाले श्रमर शरीर को प्राप्त किया ।” भीष्मपितामह द्वारा पाडवों का राज्यभिषेक - पाडु नरेश की दीक्षा के पश्चात, हस्तिनापुर के राज्य सचालन कक्ष में कौरव वश के वयोवृद्ध, प्रतिष्ठित अधिकारियो की मनणा प्रारम्भ हुई कि नव भविष्य में राज्य सचालन का भार किस को सांपना चाहिये बहुत समय के वाद विवाद के पश्चात् भी अधिकारी सब का निश्चत मत यही स्पष्ट हुआ कि यदि प्रजा की प्रसन्नता समृद्धि मुख नैतिकता राज्यवृद्धि की कामना है तो युधिष्ठिर को हो Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...१२............... जैन महाभारत राज्यधिकारी निश्चित किया जाय । नीति के अनुसार एक तो राज कुमारो मे युधिष्ठर सब से बड़ा है इसलिए भी राज ताज का वह अधिकारी है। दूसरे परम धार्मिक सत्यवादी, दयालु, उदार, न्यायवन्त शूरवीर आदि नृपोचित गुणो की साकार प्रतिमा भी है। इसी कारण समस्त प्रजा तथा सेना सेनापति, मंत्रीगण आदि सभी अधिकरीगण युधिष्ठिर सहित पाडवो को हृदय से आदर भी देते है तथा उनके इशारे मात्र पर अपना तन मन धन न्यौछावर करने के लिए तत्पर रहते हैं । मत्रणा गृह मे उपस्थित समस्त अधिकारियो द्वारा इस भावना को चतुर्दिशा से समर्थन प्राप्त हो रहा था। सबके ललाटों पर हानुभूति नाच रही थी । परन्तु कौरव कुल वरिष्ट भीष्म पितामह, न्याय नीति मूर्ति विदूर, समीप मे बैठे हुए धृतराष्ट्र के चेहरे को निनिमेषनिहार रहे थे। जिसके कारण उपस्थित समुदाय के वार्तालाप की प्रतिक्रिया धृतराष्ट्र के हृदय मे क्या हो रही है यह उनसे छुपा हुआ नही रहा था । भीष्म पितामह दुर्योधन की महत्वाकाक्षा को और पुत्री के प्रति धृतराष्ट्र के मोह से भलीभान्ति परिचित थे। यही कारण था धृतराष्ट्र के हृदय के मुखरूपी दर्पण पर प्रतिविम्वित एकके पश्चात् दूसरे भावों को अनायास ही पढ रहे थे। और कौरवकुल के हित कारी भविष्य के लिए चिन्तित थे। ।। तभी धृतराष्ट्र ने समीचीन चर्चा से ऊवकर मौनभग करते हुए बोलना प्रारम्भ किया, कि इसमे कोई शक नही कि पाडव होनहार शक्तिशाली एव प्रजाप्रिय है। परन्तु हमे यह भी ध्यान रखना चाहिए कि दुर्योधन भी शूरवीर, नीतिनिपुण, दवंग प्रकृति का, एवं पांडवों की समानता रखने वाला राजकुमार है। अत. पीछे से कोई उपद्रव न खडा हो इसवात को ध्यान में रखते हुए हमे अपना निर्णय करना चाहिये । क्यो पितामह और विदुर जी आपकी इसमे क्या सम्मति दीर्घ निश्वोस छोड़ते हुए पितामह ने कहना प्रारम्भ किया Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत T } पुत्र, इस राज्य को स्थिर एव वृद्धिगत करने मे पाडु राजा ही सर्व सर्वा थे, हम सब देख रहे है कि युधिष्ठिर भी अपने पिता के यशस्वी सर्वगुण सम्पन्न पुत्र है । और राजकुमारो मे है भी सबसे बड़े एवं प्रिय । श्रत जो जिस कार्य योग्य हो उसे ही वह अधिकार समर्पण करना उचित होता है । परन्तु यदि दुर्योधनादि कुमार पांडवो के साथ प्र ेम पूर्वक निर्वाह नही कर सकते और अपने लिए राज- ताज की माग करते है । तो सर्वश्रेष्ठ यही रहेगा, कि राज्य के दो भाग करके एक भाग पाडवी को, दूसरा भाग दुर्योधनादि को सौप दिया जाय । कुल की मर्यादा एव प्रतिष्ठा इसी प्रकार स्थिर रह सकती है । 1 विदुरादि ने भी गृह -क्लेशाग्नि, जो धार्तराष्ट्रो मे अन्दर ही अन्दर सुलग रही है - विस्फोट का रूप न धारण कर ले, इस वात को ख्याल मे रख कर जब भीष्म पितामह की सम्मति का समर्थन किया, तो धृतराष्ट्र के आनन पर सहसा हृदय की हर्षानुभूति चमकने लगी । और साधु साधु कहते हुए इस निर्णय का समर्थन किया । इसके पश्चात् राज्यविभाग एव अभिषेक आदि से सम्बन्धित श्रावश्यक विचार-विमर्श करके मंत्रणा को समाप्त किया । और उसे मूर्त रूप देने की क्रिया मे तत्परता से सब कोई जुट गये । १३ X X हस्तिनापुर मे राज्यभिषेक की तैयारियां जोर-शोर से प्रारम्भ हो गईं महलो- भवनो, राजपथो, वीथियो को खूब सजाया गया । चारो तरफ वन्दनवार, पुप्पमालाओ सुगन्ध वस्तुनों का साम्राज्य छा गया । झडियो, ध्वजाओ से सारा नगर सजी दुलहन समाज ग्राकर्षक बना हुआ था । गहनाईयां वज रही थी । भेरी पटह झल्लरी दुन्दुभिनाद से जब आकाश व्याप्त था तो शुभ घड़ी में पूर्व निश्चयानुसार भीष्म पितामह धृतराष्ट्र श्रादि कोरव कुल वरिष्ठों द्वारा युधिष्ठिर का यथाविधि राज्याभिषेक किया गया। इस प्रकार आधा राज्य पाडवो को और आधा राज्य दुर्योधनादि कौरवों के प्राचीन कर दिया = गया । X X Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. ............. जैन महाभारत राज्याभिषेक के उपरान्त युधिप्टिर को आशीर्वाद देते हुए धृतराष्ट्र ने समझाया-पुत्र युधिष्ठर, भैया पाडु ने इस राज्य को अपने बाहुवल से बहुत विस्तृत किया था और वश के गौरव को चार चाद लगाये थे। मेरी कामना है तुम भी अपने पिता के समान ही यशस्वी गौरव शाली, सुखी और कुलध्वज बनो। तुम्हारे पिता पाडु ने मेरे कथन को कभी अन्यथा नही किया। गुरु के विनीत शिष्य के समान सदा सर्वदा मुझे वहुमान देते रहे। तुम भी अपने पिता की यशस्वी सन्तान हो। मुझे तुम से भी ऐसी ही आशा है मेरे बेटे दुरात्मा हैं। एक स्थान पर ही रहने से सम्भव है परस्पर मे वैमनस्य वढे। इसलिए मेरी तुम्हे यही सम्मति है कि तुम खांडवप्रस्थ को अपनी राजधानी बना लो और वही से राज्य सचालन करो। इससे तुम मे और दुर्योधनादि के मध्य शत्रुता की सभावनाएं ही समाप्त हो जायेगी। खाडवप्रस्थ वही नगरी है जो पुरु, नहुष, ययाति और हमारे प्रतापी पूर्वजो की राजधानी रही है। उसके उद्धार से पूर्वजों की राजधानी के वसाने का यश भी तुम्हें प्राप्त होगा। धृतराष्ट्र के मृदु वचनो को मान कर पाडवो ने खाडवप्रस्थ के भग्नावशेषो पर, जोकी उस समय तक निर्जन वन ही बन चुका था, निपुण शिल्पकारो से एक नये नगर का निर्माण कराया। सुन्दर २ भवनो अभेद्य दुर्गों आदि से सुशोभित उस नगर का नाम इन्द्रप्रस्थ रक्खा गया। इस नई राजधानी में, जिसकी उन दिनों भारत में प्रगसा हो रही थी, माता कुन्ती और सती द्रोपदी सहित पाडव सुख पूर्वक राज करने लगे। तेईस वर्ष पर्यन्त दिन दूना रात चौगुना आनन्द मगल छाया रहा। इस बीच में भीम सेन अर्जुन नकुल सहदेव चारों भाईयो ने युधिष्ठर की छत्र छाया मे अपने राज्य की सीमाए विस्तृत करी, अन्य अनेक प्रदेश अपने राज्यान्तर्गत कर वहा न्यायनीति का, ऋद्धि समृद्धि का साम्राज्य स्थापित किया । - - Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * द्वितीय परिच्छेद * - . हिडिम्बा विवाह इन्द्रप्रस्थ के निवासी कौमुदी महोत्सव मनाने मे तन्मय थे। नाना प्रकार के नाटको नृत्यो हास परिहास मे दिवस कव गया रात्रि कव आई का भान भूले हुए थे। जिधर देखो रंग रेलियो का सागर ठाठे मार रहा था । पाचो पांडव भी वन यात्रा से विरत नही थे। वे भी शरीर रक्षकों के साथ पर्वत के एक शिखर से दूसरे शिखर पर, एक बन प्रदेश से दूसरे वन प्रदेश मे प्रकति की मनोरम छटा को निहारते हुए मन्द मन्द सुगन्ध लिये हुए समीर से अठखेलियाँ करते हुए अपने उन्मुक्त हास से वन प्रदेश को मुखरित करते हुए विचरण कर रहे थे । उन्होंने एक दिन वन के गहन प्रदेश में प्रवेश करने की ठानी। अग रक्षको को खेमे पर ही नियुक्त कर बवर केशरी सम निर्भीक झूमते झामते सारे दिन अमोद प्रमोद मे चलते हुए साय काल के समय एक ऐसे बन प्रदेग में पहुंचे जहा प्रत्येक ऋतुयो के सफल वृक्षो की पंक्तियो के मध्य में एक निर्मल सरोवर कमलो की सुगन्ध बसेर रहा था। क्योकि पाडव इस समय श्रान्त हो चुके थे। रात्रि सिर थी । अत. वहीं विश्राम लेने की ठानी। रचि अनुसार सरस स्वादुफलो का प्रावादन किया। पौर सरोवर तीर स्थान पर निर्मित पृथ्वीगिला फलको पर मनो विनोद करते हए दूँग्धती शशिकिरणो मे स्नान करते हए भीम के अतिरिक्तचारो पाण्डव सोगए भीम सेन जागता रहा । जहा वे लोग थे, उसी के निकट एक प्रवल विद्याधर रहता था जिनका नाम धा Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेन महाभारत हिडम्वासुर वह बडा ही भयानक और हिसक प्रकृति का था, उस की आखे सदा जलती रहती थी, वाल उसके नेत्रों की लाली की भाति लाल थे , वह भीमकाय विद्याधर बडा हो बलिष्ट था कहते है कि क्रोध मे आकर वह छोटे मोटे वृक्षों को भी उखाड कर फेकता था। उसके भय के मारे बन की इस ओर कोई भी पग न धरता था । उस के साथ अनेक विद्याओ मे निपुण सुन्दर वहन हिडम्वा भी रहती थीं, जो अपने भाई की भाति बलिष्ठ एवं निर्भीक थी । यह सुरम्य प्रदेश इन्ही की स्थली थी जहा पर कि इस समय पाण्डव सो रहे थे। वह ही, अकेला भीम सेन उनकी रक्षा के लिए जाग रहा था । चन्द्र रश्मियो ने जव शीतल चान्दनी की वर्षा की और धवल चान्दनी वृक्षो के पत्तों मेसे छनछन कर पृथ्वी पर आने लगी, तब इस हल्के और शीतल प्रकाश में विचरण करते हुए हिडम्बासुर की दृष्टि पाण्डवो पर पडी। पासमें बैठे भीमसेन के गदराये शरीरको देखकर उस की जवान चटखाने लगी उसने अपनी वहन की तरफ देखा और वोला हिडम्बा ! आज हमारे लिए अनुपम शिकार आ गया है। वह देख कितना मोटा गदराम शरीर का व्यक्ति वैठा है उसके कुछ साथी सोये हुए हैं। लगता है वह कोई वलिप्ट एव निर्भीक व्यक्ति है उसे सीधे जाकर छेड़ना अच्छा नही तुम जानो और अपने माया जाल से किसी प्रकार फसा कर यहाँ ले पायो फिर दूसरों को भी देखा जायेगा।" हिडम्बा ने भी ध्यान से देखा और प्रसन्न होकर उसने एक परम सुन्दरी का रूप धारण कर लिया और भीम की ओर चली गई। उस ने दूर खड़े होकर भीम को गौर से देखा । भीम के `मुख मण्डल पर मनोहर काति छाई थी, उसके ललाट पर अपूर्व तेज था । उस की आखे शशि रश्मियो के प्रकाश मे भी चमकती दीखती थी, श्याम वदन भीम के मुख पर छाई निर्भीकता से वह बहुत ही प्रभावित हुई। आगे जाकर उसने पूछा- "तुम कौन हो और कहा से आए हो।" भीम ने एक बार उसकी ओर देखा और लापरवाह होकर वोला-हम कोई भी हो, कही से आए हो, तुम्हे क्या मतलव ? इस लापरवाही का हिडम्वा पर प्रभाव पड़ा, उसने कहा-"जानते नही हो यहां हिडम्बा सुर रहता है जिसके नाम से Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिडम्बा विवाह ............... ही लोग घबराते है। भीमसेन ने फिर भी लापरवाही दर्शाते हुए कहा-"वहीं धवराते होंगे जिनमे वल नही । वीर पुरुष किसी से नही घबराते।" भीम की इन बातो ने हिडम्बा पर जैसे जादू कर दिया हो, वह उस पर मुग्ध हो गई । उसने सहानुभूति दर्शाते हुए कहा - मेरा मतलब यह है कि आप यहा से शीघ्र चले जाईये वरना हिडम्वा सुर आप को मार डालेगा।" भीम मुस्करा उठा, उसने कहा - "पाप की सहानुभूति का धन्यवाद ! आप चिंतित न हो हिडम्वा सुर कुछ करेगा तो स्वय अपनी मौत बुलायेगा।" वह कुछ और निकट आ गई अनेक यत्नो से भीम को अपनी ओर आकर्षित करने की चेष्टा की पर भीम ने एक बार भी उसके अनुपम सौदर्य पर अच्छी प्रकार दृष्टि न डाली । इस वात से हिडम्बा व्याकुल हो गई और उस ने मन ही मन निश्चय कर लिया कि विवाह करेगी तो इसी पुरुष से। उसने निकट जाकर कहा- “मैं हिडम्बा सुर की वहन हूं। मुझे उसने इस लिए भेजा था कि आप को ले जाकर उसे सौप दू पर आप ने मुझे बहुत प्रभावित किया है। आप चाहे कुछ कहे मैं आपको अपना पति मान चुकी है। इस लिए श्राप की रक्षा करना मेरा कर्तव्य है। आप यहा से तुरन्त हट जाय । मैं कितनी ही विद्याए जानती हुँ । आप जहा चाहे मैं आपको वही पहुचा सकती है। आप मुझ पर ही ध्यान करे मेरे साथ यहा से चले चलिए।" तव भीम ने उसे गौर से देखा और बोला-"तुम कहती हो कि मैं तुम्हारे साथ भाग चलू । क्या अपने भाईयो को उस पिगाच के लिए छोड़ जाऊं।" यदि तुम्हे उनसे मोह है तो इन्हें भी जगा लीजिए मैं उन्हे भी अधिक सुरक्षित स्थान पर पहुचा दंगी। वह बोला "क्या था. मर सोये अपने भ्रातायो को जगा कर उन्हें कष्ट दू । नही मुक Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत नही हो सकता । भीम ने कहा परन्तु यदि आप इन्हे यहां से नही हटाएगे तो आप काल के मुह मे चले जायेंगे। ____ मैं काल का भी काल हूं आने तो दो उस असुर को मैं मार कर न भगा दू तो मेरा नाम भी भीम नहीं।' प्रेम के मारे वह कहने लगी- देखिये आप मेरी बात मान लीजिए, कही ऐसा न हो कि बाद को पश्चाताप करना पड़े। मैं ने किसी मनुष्य को अपना जीवन साथी न बनाने का निश्चय किया था, पर आप को देखते ही मेरा वह निश्चय मिट गया, मैं आप को अपना स्वामी मान चुकी है। अतएव मैं अपने स्वामी को सकट मे पडते देखना नही चाहत्ती। इतने मे हिडम्बासुर बहुत देरी होने के कारण स्वंय वहां चला आया और उसने हिडम्बा की अन्तिम बात सुन ली । उसे हिडम्बा पर वडा क्रोध आया, और इससे भी अधिक - भीमसेन पर। उसने जाते ही भीम सेन पर आक्रमण कर दिया । भीमसेन ने तुरन्त फुरती से उस का दाव काट दिया और उसने हिडम्बासुर की टाग पकड ली। वह उसे घसीटता हुआ दूर ले गया, ताकि मार धाड़ से भ्राताओ की निद्रा भग न हो जाये। भीम और हिडम्बासुर मे टक्कर होने लगी। हिडम्बासुर बार वार बड़े ज़ोर से चीख कर भीम की ओर झपटता, पर भीम उसे अपनी ठोकरों से गिरा देता । बार वार चीखने की आवाज सुन कर अर्जुन की आख खुली और पास खड़ी एक सुन्दरी पर उसकी दृष्टि पडी, तो आश्चर्य चकित हो कर पूछा-"भीम कहा चला गया ? यह आवाज कैसी आ रही है ? तुम कौन हो ?' एक ही श्वास मे उसने कई प्रश्न उठा दिए। चिन्तित हिडम्वा ने दूर, जहा हिडम्बा और भीम युद्ध रत्त थे, की ओर सकेत करके कहा- “वहा हिडम्बासुर उन्हे मार रहा रहा है।" अर्जुन ने धनुष बाण सम्भाले और तत्काल उधर गया । उसने देखा कि हिडम्बासुर भीम पर वार वार आक्रमण कर रहा है, उसने समझा कि भीम हिडम्बासुर के आगे कमजोर पड़ रहा है अतएव उसने भीम सेन को पुकार कर कहा-“भैया ! तुम कहो तो मैं इसे अभी ही वाणो से मार डालू । घबराना नही ।" भीम Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिडम्बा विवाह 4 सेन के ग्रधरो पर मुस्कान खेल गई । वह बोला- नही, ऐसी कोई बात नही । मैं तो इसके साथ अभी तक खेल कर रहा था । " इतना कह कर उसने एक वार क्रुद्ध हो कर हिडम्वार पर भयकर प्रहार किया और हिडम्वासुर उसकी ठोकरो की मार से वही ढेर हो गया । १९ तव हिडम्बा ने अर्जुन से अनुमय विनय करके भीम के साथ अपने विवाह की बात कही । इतने मे अन्य भ्राता भी जाग गए । युधिष्ठिर ने हिडम्बा की विनती के उत्तर मे कहा - माना कि तुम्हारा भीमसेन से अनुराग है परन्तु जब तक तुम्हारे कुल शील का हमे पता नही तब तक कैसे हम अपनी कुलवधू स्वीकार कर सकते है ? महाराज आप उचित ही फरमाते है, हिडम्बा ने उत्तर दिया परन्तु आप निश्चय रखिये सिंहनियो का जन्म शृगालो के यहा नही होता । विद्याधरों की उत्तर श्रेणी मे एक संध्याकार नाम का विशाल नगर है । उसमे शत्रुरूपी हस्तियों को अपने महा पराक्रम से मर्दन करने वाला हिडम्ववगोत्पन्न यशस्वी सिंह घोष राजा राज्य करता है । उनकी प्रिय पत्नि का नाम लक्ष्मणा है । में उन्ही की पुत्री हिडिम्व सुन्दरी के नाम से प्रसिद्ध हू । मेरी विमाता से उत्पन्न यह हिडम्वासुर मेरा भाई है । परन्तु यह जन्म से उद्धत प्रकृति का था । प्रजा को सताता था । जिसके कारण रुष्ट हो कर पिता ने इसे देश निकाला दे दिया था जिससे यह वहुत दुखित एवं असहाय साहो कर वहा से विदा होने को जब आया, तब मेरे से न रहा गया । इसका मेरे साथ बहुत स्नेह था । और इसके उपकारो से मैं कृतज्ञ भी थी । इस लिए मैंने इसका साथ दिया। और अनेक सहेलियो के साथ विशालरत्न राशि को लेकर मैंने इसके हृदय के भार को हलका करने की चेष्टा करो। और इस सुरम्य वन प्रदेश मे एक विशाल भवन निर्माण करवा कर, जो कि यहां से थोडी दुरी पर है, उसमे निवास करना प्रारम्भ किया और यहां रहने हुए यह नरभक्षी बन गया । जिस स्थल को इस समय आप पवित्र कर रहे है, यह उसी की बिहार स्थली का एक किनारा है । यहा धाकर भी मेरे इस भाई का स्वभाव परिवर्तित न हुआ । जब यह भ्रमण को कही निकल जाता तो निष्कारण ही मारधाड़ प्रारम्भ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० जैन महाभारत देता । अतः भ्रमण मे प्राय: मैं साथ रहने लगी और यथा सम्भव किसी मनुष्य को इसके चगुल मे न फसने देती थी । परन्तु प्राज अपने कारनामो की जो उचित सजा होनी चाहिये वह स्वयं ही यह प्राप्त कर बैठा । और यथा सम्भव सहायता करते हुए मैंने इसके ऋण से अपने को उऋण बनाया। मैं समझती हू मेरे सौभाग्य वश ही आपका इधर आना हो गया है। वरना इस श्रटवी मे प्रवेश करने का किसी को साहस ही नही हो पाता । हिडिम्बा ने अपना पूर्ण परिचय देते हुए कहा । इसके पश्चात् वह सुन्दरी पाडवों को अपने भवन मे साथ ले गई। जहां उसकी सहेलियों एव अनुचरों ने खूब अभ्यर्थना की । और विधि पूर्वक भीमसेन ने हिडिम्बा का पाणिग्रहण किया । अनुचरो के हाथ पीछे सकुशल का समाचार दे कर कुछ दिन पाडवो ने वही प्रकृतिछटा का आनन्द लेते हुए व्यतीत किये। और कौमुदी महोत्सव की समाप्ति पर इन्द्रप्रस्थ को गमन किया । भीमसेन को इसी पत्नि से घटोत्कच नामक महाप्राक्रमी पुत्र प्राप्त हुआ। जो कि अपनी माता एव नाना नानी की कृपा से विलक्षण विद्यानों को धारण करता था । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ $$$$$$$医医安安。 - जरासिंध-वध SINESS - पवन द्वीप से कुछ जौहरी व्यापारी जरासिन्ध के महल । में गए और अपने बहु मूल्य रत्नो को बेचने लगे । जीवयशा ने उन के पास जितने बहु मूल्य रत्न थे, सभी देखे । एक रत्न, जो सभी मे मूल्यवान था, जीवयशा के मन भा गया, उसने मल्य पूछा व्यापारियो ने मन चाहा मल्य बता दिया । जीवयशा ने भी अपनी इच्छानुसार दाम लगा दिया। जीवयगा द्वारा वोले गए दामो को सुनकर व्योपारीयो ने पश्चाताप करते हुए कहा- "हम तो यहां इसी लिए आये थे कि आप के महल मे अधिक दाम उठ सकेगे । पर क्षमा करना, अब हम द्वारिका से यहा पा कर पछता रहे हैं । इससे अधिक मूल्य तो इस रत्न का वही मिलता था ।" द्वारिका का नाम उस ने जीवन में प्रथम बार ही सुना था, पूछ बैठी-"द्वारिका नगरी कौनसी ?" व्यापारी ने हंसते हुए कहा-"नाप तो ऐसे पूछ रही हैं मानों कभी द्वारिका नाम ही न सुना हो। भला जम्बू क्षेत्र के किस व्यक्ति ने द्वारिका का नाम न सुना होगा ।" जीवयमा ने अपनी अनभिज्ञता प्रकट की, तो व्यापारी ने द्वारिका की पूरी पूरी प्रगंसा करते हुए द्वारिका का परिचय दिया । वह बोला-"श्री कृष्ण महाराज की राजधानी द्वारिका पृथ्वी पर स्वर्ग के समान है। इतनी मुन्दर नगरी जम्बू द्वीप में पादाचिन हो कोई हो । ऐसा लगता है मानो देवतानो ने ही उसे बसाया हो । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ जैन महाभारत और लोग कहते भी यही है कि इन्द्र देवता की आज्ञा से समस्त देवो ने मिलकर उसे बसाया था।" श्री कृष्ण का नाम सुनते ही वह चौक पड़ी पूछा-"श्री कृष्ण कौन है ?" व्यापारी हस पडा बोला- "प्रांप तो ऐसी भोली बन रही हैं, जैसे कुछ जानती ही नहीं.। भला श्रीकृष्ण को कौन नहीं जानता उन्हो ने ही कस का वध किया था।" व्यापारी के शब्दों से जीवयशा के हृदय मे सोये प्रतिशोध के भाव दवी आग की भाति धू धू करके धधक, उठे । तुरन्त जरासिन्ध के पास गई और नेत्रों मे आँसू भर कर बोली-="पिता जी। यह मैं क्या सुन रही हू ?" 'क्या सुना ?" क्या मेरे पति का हत्यारा अभी तक जीवित है ?" , "वेटी, वह भाग कर समुद्र तट पर जा बसा है । "क्या यही है आप की प्रतिज्ञा ? क्या मैं इसी प्रकार एक अोर विधवा जीवन और दूसरी ओर उस विषैले, नाग को फूलते फलते सुनते रहने का हार्दिक क्लेश सहन करती रहूंगी?" जीवयशा ने कहा। "वेटी! अनुकुल समय आने पर ही सव काम हुआ करते हैं। मैं उस अवसर की प्रतीक्षा में हूं जब वह मूर्ख स्वय मेरे चगुल में आ फसेगा ।" जरासिध ने अपनी पुत्री को सात्वना देते हुए कहा । . . परन्तु जीवयशा ऐसे नही. मानने वाली थी। उस ने क्रोध मे आकर कहा-'वस वस पिता जी रहने दीजिए, अपकी: डोंगें भी देख ली। आप के लिए कभी अवसर नही आयेगा । आप इसी प्रकार मुझे झूठी तसल्ली देते रहेगे। आप साफ साफ क्यो .नही कहते कि आप में इतनी शक्ति ही नही कि श्री कृष्ण का सिर कुचल सकेगे। आप स्वयं उससे डरते हैं । आपके हृदय मे मेरे प्रति तंनिक सा भी प्रेम होता तो आप अपना सब कुछ दाव पर लगा कर Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरा सिन्ध वध अपनी बेटी के पति के खून का बदला लेते । पर आप को क्या पड़ी है? जा के पैर फटी न विवाई वह क्या जाने पीर पराई जरासिन्ध वेटी की चुनौती भरी बात से व्याकुल हो गया। उसने कहा--"जीवयशा! तुम विश्वास रक्खो कि मैं एक न एक दिन उसका सिर तुम्हारे कदमो मे लाकर पटक दूगा। पर मेरी शक्ति को मेरे बाहु वल को चुनौती न दो।" "पिता जी, जो गरजते है वरसते नही " , जीवयशा की बात जरासिन्ध के तीर की भाति चुभी। वह तडप कर बोला--"तो फिर तुम्हें मेरा बाहुबल ही देखना है तो लो मैं अभी ही उस दुष्ट का सहार करने जाता है। जब तक कृष्ण का वध नही करू गा चैन न लू गा।। कही अवसर के बहाने रास्ते से बेचैनी से मत लोट पडना । निर्लज्जता पूर्वक जीवयशा बोली। जरासिघ ने तुरन्त अपने मत्री को बुलाया और गरज कर बोला मत्री जी! हम आज तक प्रतीक्षा करते रहे कि तुम कव कृष्ण वध के लिए उचित अवसर बताते हो, पर तुम तो जैसे सो गए और मुझे जीवयशा के सामने अपमानित एव लज्जित होने का तुम ने अवसर दिया। अव हम अधिक प्रतीक्षा नहीं कर सकते । जानो अभी ही सेनाए सजवादो। हम इसी समय द्वारिका पर चढ़ाई करने के लिए कूच करना चाहते है। मंत्री ने हाथ जोड कर निवेदन किया-"महाराज ! आपकी - प्राज्ञा शिरोधार्य है, पर इतनी जल्दी में कोई निर्णय कर लेना ठीक - नहीं है ।" जरासिन्ध प्रोधित होकर गरजा-"मंत्री जी! आपने नुना ३ नहीं, हम ने क्या प्रादेग दिया। हम इस समय कुछ नहीं सुनना • चाहते । चाहते हैं केवल पाना पालन। क्या ठीक है क्या नहीं, यह , मन हमारे सोचने की बातें हैं।" मत्री यांपते हुए यहां से चला गया, उसने तुरन्त सेनाएं - १ - - Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ जैन महाभारत सजवाई और उन्हे नृप के साथ कूच करने का आदेश दिया : स्वय । भी साथ हो गया। जरासिन्ध ने उसी समय शिशु पाल आदि अपने सहयोगियो के पास दूत भेज कर, उन्हे सेनाएं लेकर तुरन्त अपनी सेना से आमिलने का सन्देश भेज दिया। और स्वय सेनाए लेकर चल पडा। ज्योही उसने नगर से प्रस्थान किया, मुकुट एक झटके से नीचे आ गिरा। मत्री ने मन ही मन विचार किया कि यह अपशकुन किसी भावी सकट का सूचक है। पर क्रोध. मे बुद्धि को ताक पर रख आये हुए नरेश को कुछ भी समझाना व्यर्थ समझ कर वह चुप रह गया । रास्ते मे शिशुपाल की सेनाए आ गई, जिसके साथ स्वय शिशुपाल भी था। जव लाखों की संख्या मे सैनिक एकत्रित हो गए तो जरासिन्ध अहकार से सोचने लगा कि कृष्ण को वह क्षण भर मे परास्त कर देगा और उस के रक्त से अपने और अपनी बेटी के हृदय मे सुलगती प्रतिशोध की अग्नि को शांत कर सकेगा। । लाखो की संख्या मे सैनिक साथ थे, जरासिन्ध श्री कृष्ण को परास्त करने की आशाओ मे झूमते चला जा रहा था, कि नारद जी आ पहुचे। उन्होने पूछा- “राजन् ! आज किस शत्रु पर चढाई की ठान ली है।' "श्री कृष्ण से कस बध का बदला लेने जा रहा है।" जरा सिध वोला। . नारद जी मुस्करा पड़े। बोले-"दही के भरोसे से कपास खाने की भूल मत करो।" अगाल जब सिहरनी पड़ती है जो चाहता है कहा -"तनिक नाम "क्या मतलब?" जरासिन्ध ने अकड़ कर पूछा। "मतलव यह है कि भेड जब भेड़िये से बदला लेने चले, . श गाल जव सिंह को ललकारने का साहस करे, तो, उसके साहस की तो प्रशसा करनी पडती है पर इस दुस्साहस पर उसे अपना औकात पहचानने की कहने को जी चाहता है।" नारद जी वोले! .. ___ जरासिंध का खून खौल उठा । उसने कहा - "तनिक सभ्यता ' से वात करो। क्या नहीं जानते कि मैं जरासिन्ध हूं जिसके नाम से Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरा सिन्ध वध सारी पृथ्वी कापती है । और वह जिसे तुम सिंह बता रहे हो, वह दवा कर भाग गया है और सागर तट पर भी मेरे ही भय से दुम उसने आश्रय लिया है ।" २५ " कही यह ग्रहकार ही तुम्हे न ले डूबे ?" नारद जी बोले । "बस बस भिखारी हो कर नरेश के मुह मत लगो । वरना कहीं मुझे तुम्हे ही ठीक न करना पड़े जरासन्ध क्रोध में नारद जी के साथ उचित व्यवहार करना भी भूल गया । किन्तु नारद जी भी उसकी घुडकियो में आने वाले न थे, उन्होने हस कर कहा "जब मिथ्याभिमान किसी को प्रधा बना देता है तो मुझे उस पर दया आती है । ठीक है तुम जैसो का इलाज श्री कृष्ण और उनके भाई बलराम जी के पास ही है । पर एक बात मानो स्वयं मरना है तो मरो, शिशुपाल बेचारे को क्यों मरवाते हो ? जरासन्ध लाल पीला हो कर नारद जी की ओर झपटा, पर इससे पूर्व कि कोई भयंकर अन्याय होता, नारद जी वहा से चले गए और जा कर श्री कृष्ण के दरबार में दम लिया श्री कृष्ण ने बंडे श्रादर सत्कार से उनका स्वागत किया। नारद जी बोले" आप इधर आराम से सिंहासन पर विराजमान हैं और उधर जरासन्ध अपनी सेनाए लेकर कस वध का बदला लेने आ रहा है । श्री कृष्ण हसते हुए बोले- "मुनिवर जिस का मस्तक फिर गया हो वह ऐसे ही कार्य किया करता है। आता है तो आने दो । द्वारिका के निकट आते ही उसे अपनी भूल ज्ञात हो जायेगी ।" "कही मृग और कछुए की दौड की ही भाति वात न हो जाए । उसके साथ शिशुपाल भी अपनी अपनी सेना सहित है । इतना अहकार है उसे कि श्राज तो वह शिष्टाचार को भी तिलाजली दे श्राया है। लाखों सैनिक है ।" नारद जी की बात सुनते हो श्रीकृष्ण गम्भीर हो गए। उनकी बार बार धन्यवाद किया और स्वयं जरासिन्ध के मुकाबले की तैयारी में लग गए उन्होंने तत्क्षण प्रपनो सम्पूर्ण राज सभा को Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ... जैन महाभारत .. ५.. . . . . निमत्रित किया। और समस्त स्थिति को विस्तार से प्रस्तुत करके पूछा कि- आप बतलाये कि इस उदंड एव निष्कारण बने शत्रु का कसे प्रतिकार किया जाय ? ... यादववश को विनष्ट करने वाले विमूढ़ से हमारी तलवारें बाते करेगी। इसमे दो मत हो ही नही सकते कड़कते हुए दुर्दान्त योधी अनाधृप्टि ने गर्जना करी। परन्तु रणं कौशल का परिचय देते हुए दूरदर्शिता की बात कही कि-हम जिनेन्द्र शासन मे पढते एव पूर्वजो मे सुनते आ रहे हैं कि प्रति वासुदेव का वध वासुदेव के हाथो से ही होता है, अन्य से नही। अत प्रतिवासुदेव जरासिन्ध की मौत किस वीर के हाथो निर्णीत है, इस बात का निश्चय अवश्य कर लेना चाहिये । यादव कुल श्रेष्ठ, दशाहीग्रणीय समुद्रविजय जो अब तक समस्त परिस्थिति पर विचार रहे थे, ने शान्त परन्तु गम्भीर वाणी से सभा को लक्ष्य करके कहना प्रारम्भ किया कि हमारे वश की ज्योति वत्स श्री कृष्ण एव अनाधृप्टि ने जो कुछ कहां वह आपने सुना ! वैसे तो पापी को नष्ट करने के लिए उसका ,पाप. ही बहुत होता है। परन्तुं व्यवहारानुसार विचार करना बुद्धिमत्ता का चिन्ह है । सभी जानते हैं जब गीदड़ की मौत आती हैं तो वह नगर की तरफ दौडा करता है। वही अवस्था इस समय जरासिन्ध्र की है। हमने कभी उसे अपमानित नही किया और नाही आज तक धर्म विरुद्ध आचरण किया। परन्तु यदि तो भी व्यर्थ ही, वग विशेष से शत्रुता कल्पना कर जरासिन्ध को रक्तपात ही-प्रिय है तो निश्चय ही यह अन्याय उसे सदा सर्वदा के लिए समाप्त किये विना न रहेगा। मुझे वह समय अच्छी तरह स्मरण है जवकि देवकी देवी ने प्रकृति प्रदत्त सात महान शुभ सूचनायो को प्राप्त करके श्री कृष्ण को जन्म दिया था और पश्चात हमारे पूछने पर धुरन्धर नैमित्रिको ने घोपणा की थी कि “यह कुलदीपक कुमार त्रिखडेश्वर वासुदेव पद को प्राप्त करेगा" हमे तो तभी निश्चय हो गया था कि प्रति वासुदेव जरा सिन्ध के अन्याय को समाप्त करने का श्रेय इसी वालक को प्राप्त होगा। परन्तु यदि तो भी आप यही निश्चय करना चाहते है कि जरासिन्ध की मृत्यु किसके हाथो होगी तो उसका सीधा सा उपाय Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरासन्ध वध है कि जो वीर " कोटि शिला" को उठाता है वही प्रतिवासुदेव को समाप्त कर वासुदेव पदेवी प्राप्त करता है । समस्त सभा में ठीके है, ठीक, की ध्वनि गूजने के साथ ही मुस्कराते हुए श्रीकृष्ण जी उठे और प्रमुख यादव वीरो के साथ गरुड विमान मे बैठ कोटि शिलास्थल पर पहुचे । जहां पर वर्तमान प्रपसर्पिणी काल मे तब तक अपने अपने समय मे ग्राठ वार उन महापुरुषो ने पदार्पण किया था जिन्हों को ससार को "वासुदेव" होने का परिचय देना आवश्यक हो गया था । अन्तिम नारायण श्री कृष्ण जी ने एकाग्र - चित्त से परमेष्ठी स्मरण किया और मिद्ध भगवान की जय का घोप गुजायमान करते ही उस पर्वताकार " कोटिशिला " को उठा कर अपनी अद्भुत शक्ति का परिचय दिया । उसी समय ग्राकाश से पुष्पवर्षा होने लगी । दुन्दुभिनाद के साथ " चरम वासुदेव श्रीकृष्ण महाराज की जय" से समस्त पर्वत गुजायमान हो गया। तभी से श्रीकृष्ण जी का ग्रपर नाम " गिरिधर" हुआ ! यादव वीरो के हर्ष का ठिकाना न था । जय जयकार करते हुए विमान से तत्क्षण द्वारिका मे पहुचे और वलराम जी ने समस्त वृतान्त उपस्थित यादव सभा को सुनाया। जिस मे द्वारिका भर मे एक नवीन दृश्य उपस्थित हुया | मुहल्लों २ गलि २ घर २ " वासुदेव श्रीकृष्ण की जय" के नारो से गूजने लगा । समस्त वीरो की धर्मनिति युद्ध मे विजय प्राप्ति की लहर दौड़ रही थी । चौगुने जोश से सभी योध्दा कार्यरत हुए | पाडवो के पास दूत द्वारा सूचना भेज दी गई। सभी यादवो को तैयार रहने का आदेश दे दिया गया । श्ररिष्ट नेमि जी ने कितनी ही योषधियां जो युद्ध मे आवश्यक थी, ला कर दे दी । समुद्र विजय के समस्त भ्राता सभी के पुत्र, समस्त यादव योद्धा अस्य शंस्त्र ले कर युद्ध के लिए तैयार हो गए। 3 1 २७ महाराज युधिष्ठिर उन दिनो सम्राट पद प्राप्त करने के लिए राजसू यज्ञ करना चाहते थे, इस सम्बन्ध में विचार विमर्श के लिए उन्होंने श्रीकृष्ण को इन्द्रप्रस्थ बुलाया था। उन्होने श्री कृष्णं से कहा - "कुछ लोग मुझे राजसु यज्ञ करने की राय दे रहे है । ग्राप एक ऐसे व्यक्ति हैं जो मुझे प्रसन्न करने के लिए मेरी प्रदानाए नहीं करेंगे, बल्कि मेरे दोषों को मेरे सामने साफ साफ बता देगे । घाम मुह देवी बात नही करेंगे और न किसी स्वार्थ का कोई अनुचित Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत } मत ही देंगे। इसी लिए परामर्श के लिए मैने आप को बुलाया है । अव आप बताईये कि आपकी क्या सम्मति है । २८ श्री कृष्ण जी ने उत्तर दिया- " राजन् ! राजसू यज्ञ कां अर्थ है वह महोत्सव जिसमें खण्ड ( क्षेत्र ) के समस्त राजा एकत्रित हो कर महोत्सव करने वाले राजा को सम्राट पद से विभूषित करते हैं, और उस के प्राधीन रहना स्वीकार करते है । सम्राट् पद प्राप्त करने के लिए आप कोई महोत्सव करे यह बैंडी प्रसन्नता की बात है, पर देखना यह है कि क्या अन्य राजा, आपके प्राधीन श्रीना स्वीकार करेगे ? यदि यह भी मान लिया जाय कि दुर्योधन तथा 'कर्ण आदि आपको सम्राट बनाने मे कोई आपत्ति नही करेंगे तो भो जरासन्ध तो कदापि आपको सम्राट मानना स्वीकार न करेगा । उसने कितने ही राजाओ को बन्दी बनाकर अपने बन्दी गृह मे डाल रखा है। तीन खण्ड के राजा उस से घबराते हैं । और संहर्ष उस के प्राधीन होना स्वीकार कर चुके है । यहाँ तक सुना है कि जब सौ नृप उसके बन्दीगृह मे प्रजायेंगे तब वह उन से हो राजसूयज्ञ करेगा, और पथ भ्रष्ट लोगो के मतानुसार यज्ञ मे पशुओ की बलि के स्थान पर कुछ राजाओं की बलि देगा । ऐसे अन्यायी नरेश से मत ग्राशा करना कि वह आपको सम्राट मानें गा, कोरी भूल है । इस लिए यदि आप को सम्राट पद चाहिये तो पहले जरासन्ध से निवटिये ।” 7 1 ' भीम वही उपस्थित था, श्री कृष्ण की बात सुनकर वह - 1 वोल उठा -- यदि भ्राता जी श्राज्ञा दें तो उस धूर्त से मैं अच्छी तरह निबट सकता हू । मुझ से कहा जाय तो उस पापी को यम लोक पहुचा दू । और अपनी गदा से उस के समस्त सहयोगियों को एक एक कर के वध कर डालू ं ।” "भीम ! माना कि तुम बड़े वलवान हो, पर जरासिन्धं भी कोई कम शक्तिवान नही है । शिशुपाल जैसा साधन सम्पन्न और पराक्रमी नरेश तक उस के आधीन है। उसे परास्त करने के लिए. शिशुपाल और उसकी सेना का सामना करना पड़ेगा । " श्री कृष्ण ने कहा । : 1 " जो भी हो। मैं और अर्जुन बलि मिल कर उस को उस को धूल न Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरासन्ध वध F चटादें तो तब कहना ।" भीम गरज कर बोला युधिष्ठिर श्री कृष्ण और भीम की वार्ता के समय विचार मग्न थे, वे बहुत सोच विचार के पश्चात बोले- "यदि सम्राट पद प्राप्त करने के लिए 1 f • मुझे अपने भीम और अर्जुन जैसे वीर भ्राताओं को दाव पर लगाना f पडे, और कितने ही निरपराधी मनुष्यो के रक्त से अपने मस्तक पर सम्राट का तिलक लगाना हो, तो मैं सम्राट पद को प्राप्त करने की कामना ही नही कर सकता। मैं नही चाहता कि मेरी एक आकांक्षा की पूर्ति के लिए रक्त पात हो । इस लिए अच्छा है कि में अपने मित्रों और भ्राताओं के उस प्रस्ताव को भूल जाऊ और सुख शांतिपूर्वक राज्य काज करू।" श श्री कृष्ण बोले- " आप के विचार आदरणीय है । धर्म पथ बरं के राही ऐसा ही निर्णय किया करते हैं । तथापि जरासन्ध जैसे पापी नरेश की करतूतो को रोकने के लिए ग्राप को कुछ न कुछ ॥ अवश्य ही करना चाहिए। कोई शक्तिवान व धर्म प्रिय नरेश यह सहन नहीं कर सकता कि कोई अन्यायी स्वच्छन्दता पूर्वक छोटे छोटे नरेशो का सहार करता रहे और अपनी ग्राकाक्षा पूर्ति के लिए पशु वध से आगे जाकर नरवध करने का साहस करे ।" स "आप की बात ठीक है । तथापि मैं अपने प्रिय वन्धुओ को किसी ऐसे कार्य के लिए नियुक्त नही कर सकता जिस मे उन के प्राणो पर वन श्राये । हाँ, यदि आप चाहें तो आप के सहयोग के लिए मैं और मेरे बन्धु गरम उरू नर पिशाच पाप लीला रोकने मे पन् सर्वदा तत्पर रहेगे ।" - उत्तर मे युधिष्ठिर ने श्राश्वासन दिया | हे 41.4 २९ य क्ष स झोर 感 भाग्यवश इस निर्णय के कुछ दिनों बाद ही जरासन्ध ने श्री कृष्ण पर आक्रमण करने की मूर्तता कर डाली | श्री कृष्ण के तद्वारा जत्र महाराज युधिष्ठिर को यह समाचार मिला उन्होंने भीम और अर्जुन की सेना सहित तुरन्त द्वारिका को भेज दिया। द्वारिका से श्री कृष्ण, चलराम, समुद्र विजय, वसुदेव, ho उस समय यहो वात तय पाई थी कि अब की बार यदि जरासन्ध ने कोई नया उत्पात खडा किया तो श्री कृष्ण के नेतृत्व मे पाण्डव अपनी पूर्ण शक्ति उसके सहार के लिए प्रयोग करेंगे । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० जैन महाभारत "और इन सभी के पुत्र, तथा अन्यं योद्धा, एक वडी सेना सहित साथ ही पाण्डवो की सेना व पाण्डव रणभेरी बजाते हुए चल पड़े द्वारिका से पैतालीस योजन दूर सेन पल्लो स्थान पर सेनाए रो दी गई । उधर से वसुदेव के अनुयायी खेचर भी आ गए। " • जर्रासिन्ध की सेनाओं से एक योजन दूर ही सेनाए-रोक दे गई थी और एक राजदूत द्वारा जरासिन्ध पर सवाद भेजा-गय कि अच्छा यही है, ज़रासिन्ध अपनी सेनाओं सहित वापिस चल जाय। - परन्तु जरासिन्ध के सिर पर तो अहकार सवार था, ह. कव मानने वाला था, उसने अपने एक मंत्री द्वारा श्री कृष्ण । सवाद भिजवाया कि कस बध का बदला लेने के लिए जरासि आया है वह - 'खून का बदला - खून' की नीति, मानने वाला और विना श्री कृष्ण से बदला लिए नहीं लौटेगा। श्री कृष्ण ने मंत्री को उत्तर देते. हुए कहा- "आप ज़रासि से जाकर कहें कि यदि वे बिना युद्ध के नही मानेगे तो हम भी स प्रकार से तैयार हैं । परन्तु कस वध की आड ले कर वे युद्ध न करे. उस पापी ने मेरे छ. भ्राताओं को न जाने क्या किया। उसने प्रज को बहुत कष्ट पहुचाए थे, उस ने अपने पिता को बन्दी बनाया थ मेरे पिता जी को कपट से उसने जेल मे डाल रक्खा था, मेरा व करने के लिए कितने ही षडयन्त्र किए थे। इस लिए उस ने जैम किया वैसा फल पाया। अतएव- कस का बदला लेने का विचा अत्याय पूर्ण है। हम नहीं चाहते कि बिना कारण ही रक्तपात हो, अतएव वह लौट जाये, वरना उस के हठ से हमे भी युद्ध करन पंडेगा, जिसका परिणाम उस के हक मे ठोक नही होगा।". . . मन्त्री ने श्री कृष्ण के साथी योद्धाओं को देखा और स्वर घबरा गया, उस.ने जरासिन्ध्र से जाकर श्री कृष्ण का उत्तर को सुनाया और अन्त मे बोला-"महाराज ! शत्रु दुर्वल भो हो तो.में उसे अपने से अधिक शक्तिं शाली समझना चाहिए। यह युद्ध युक्ति संगत नही है, और इस समय मुकावले के वीरो को देख कर भो हमारा युद्ध करना उचित नहीं है ।" Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . जरासिन्ध वध मंत्री की बात से जरासिन्ध के अहकार को ठस पहुची थी अत. उस ने कडक कर पूछा-"उन मे कौन ऐसा है, जो मेरी सेना मेरे सहयोगियो और मुझ से जीत सके ?" - मंत्री ने हाथ जोड़ कर कहा-"महाराज । रोहिणी के स्वयवर मे आप वसुदेव से परास्त हो चुके है। और अब तो वसुदेव के दो वीर पुत्र भी हैं, कृष्ण और वलराम, दोनों ही बलवान एव विद्यावान है, उन के साथ पाण्डव भी हैं, द्रौपदी के स्वयवर मे आप अर्जुन के कौशल को देख ही चुके हैं। उन के साथ नेमि नाथ जी भी है, जिन की दिव्य शक्ति की घर घर में चर्चा है। हे मगधेश्वर | उन वीरो का सामना करना दुर्लभ है। शिशुपाल रुक्मणि के हरण के समय श्री कृष्ण से मुह की खा ही चुका है। फिर आप किस वीर पर गर्व कर सकते है। श्रीकृष्ण के देव अधिष्ठायक है, जिन्हो ने काली कुवर के प्राण लिए थे। अतएव ' अच्छा यही है कि आप लौट चलिए। युद्ध का विचार त्याग दी :: जिए।" । मत्री की बातें सुन कर जरामिन्य को बहुत क्रोध आया । । कहने लगा-"रे धूर्त ! कायर ! यदि शत्रुयो से इतना हो भयभीत । है तो यहां से भाग क्यो नहीं जाता? क्यो दूसरो को भी भयभीत कर रहा है। या साफ साफ कह कि तू यादवो के बहकाए मे या । गया है।" मत्री जरासिन्ध की बात सुन कर कांपने लगा, और यह समझ कर कि यदि कुछ और समझाने की चेष्टा करू गा तो व्यर्थ ' ही प्राण गंवाने पड़ेंगे । उसने जरासिन्ध की चापलूसी करना ही __ अपने लिए हितकर समझा। उसने कहा- "महाराज । पाप तो । बेकार ही रुष्ट हो गए, मेरे कहने का अर्थ तो यह है कि पुरानो १४ सारी वातो को याद करके और शत्रुनो की शक्ति को उचित प्रकार से जानकर युद्ध करे । वैसे प्रापका रण क्षेत्र में नामना करना (रिसके वर की बात है, फिर भी चाह रचा गार युद्ध करना ।। शहिए। शत्रु भी पाप ने भयभीत है। आपकी तलवार की शक्ति, को कौन नहीं जानता? मैं तो प्रापयो नुमो के मन की बात बता रहा था।" Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत जरासिन्ध ने प्रसन्न हो कर कहा- अब भी तो ढग की बात कही। सिंह को शंगाल से डराने की बात करता है। यादवो के । लिए तो मैं अकेला ही हूं। "महाराज ! आपकी अपार शक्ति के सामने वे क्या है ? मैं कही पाप को मर्यादा के प्रतिकूल कोई बात थोडे ही कर सकता ह? मैं तो आपको उत्तेजित कर शत्रुओ के नाश का समुचित प्रबंध कर रहा था ।" मत्री ने कहा। वात चीत करते करते रवि अस्त हो गया। जरासिन्ध ने समस्त सरदारो और योद्धाओ को खा पी कर विश्राम करने का आदेश दिया। ' x x x x x x. x प्रात.काल होते ही जरा सिन्ध ने चक्रव्यूह रचना प्रारम्भ कर दिया। एक सहस्र ओर बनाए गए, एक एक ओर पर एक एक हजार योद्धा, नरेश और रण बाकुरे लगाए गए। एक एक योद्धा के साथ दो दो हजार रथं सवार, अश्व सवार और पैदल सैनिक थे। औरों की रक्षा के लिए ५ सहन घुड सवार और सोलह सहस्र पैदल सैनिक नियुक्त किए गए। चक्रमुख पर आठ हजार योद्धा जिन मे विशेषतया कौरव वशी सेना के सरदार थे, नियुक्त किए गए। चक्र के मध्य मे मगधेश्वर के साथ पांच हज़ार शूरवीर रण वाकुरे रक्खे गए और उनके चारो ओर सवा ६ हज़ार रणवीर चुने हुए नौजवान खड़े किए गए। बाई ओर मध्य देश के नरेश और उस की सेना दाई ओर उनके अन्य भूप लगाए । चक्र नाभि की सधि सधि पर एक एक शूरवीर सेना पति नियुक्त किया गया । चक्रव्यूह में सामने शकट व्यूह रचा गया जिस पर शिशुपाल की सेनाए, व सरदार थे। ___ जब जरा सिन्ध के चक्रव्यूह की सूचना श्री कृष्ण को मिली तो उन्हो ने गरुड व्यूह रचने का आयोजन किया । व्यूह के मुख पर ५० हजार तेजस्वी कुमार रक्खे गए। मोर्चे पर कृष्ण और वलराम ने अपने अपने रथ रक्खे। वसुदेव के अक्रूर सुमुख आदि राजकुमारा Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरासिन्ध वध ३३ को श्री कृष्ण के आगे रक्षक की भाति नियुक्त किया गया। उनके पीछे सहस्रो रथ सवार, गज सवार और अश्व सवार सैनिको के साथ उग्नसैन अपने पुत्रो सहित थे। सब के पीछे धर, सारण, शशि दुर्धर, सत्यक, नामक पाच राजा नियुक्त किए गए, ताकि समय पड़ने पर काम पा सके । दाहिनी ओर समुद्र विजय ने अधिकार जमाया, उनके चारो ओर २५ हजार चुने हुए सैनिक थे। वाई' ओर वलराम के योद्धा और पाडवो को सेना रक्खी गई उनके साथ में अर्जुन और भीम, उन के पीछे २५ हजार अश्व सवार सैनिक नियुक्त किए गए। फिर चन्द्र यश्म, सिहल बवर काम्बोज, केरल, द्रविड, इन छ नरेशो को साठ हजार सैनिको सहित लगाया गया। इनके पीछे शाम्बस भानु, कुगल रणबाकुरे थे, और अनगिनत सेना इस व्यूह की रक्षा के लिए थी। इस प्रकार का गरुड व्यूह रच कर श्री कृष्ण ने युद्ध की तैयारी करली । आवश्यकता पड़ने पर वायुयानो का भी प्रयोग किया जा सके, इस लिए वायुयान भी तैयार कर दिए गए। भाई की रक्षा के लिए अरिप्ट नेमि जी भी युद्ध मे उतर रहे है, यादव जान कर देवराज शकेन्द्र जी ने उनकी सेवा के लिए मातली नामक सारथी, अस्त्रशास्त्रो से सुसज्जित रथ तैयार कर भेज दिया गया जिस पर अरिप्ट नेमि जी सवार हुए। समुद्र विजय ने श्री कृष्ण के ज्येष्ठ पुत्र को इस व्यूह का सेनापति नियुक्त किया। . व्यूह तैयार हो जाने पर श्री कृष्ण ने एक बार पुन जरासिन्ध को युद्ध से वाज आने का सन्देश भेजा, जिस के उत्तर में जरासिन्ध ने युद्ध का विगुल बजा दिया। फिर क्या था, घमासान युद्ध होने लगा। खड़गे परस्पर लड़ने लगी। कट-कट कर शोग गिरने लगे, रक्त की धाराए फूट पड़ी। अकड़ते और जवानी के उत्साह में पादते फादते योद्धा आपस मे जूझ रहे थे धनुष तथा सडग की मार से योद्धा भूमि पर गिर कर तटपने लगे। जरासिन्ध की सेना की मस्या अधिक थी और वह अपनी सेनानी को ले कर जी जान तोट कर लड़ रहा था, कुछ ही देरी में जरासिन्य के भयकर प्रहार से श्री कृष्ण को सेना तितर बितर हो गई। जरासिन्य हर्षचित हो डोंगे हाफने लगा उसके सैनिको मे हर्प दोढ़ गया, यह देख कर Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत 1 श्री कृष्ण व्याकुल हो गए, उन्होने तुरन्त अपनी पताका फहराई, पांचजन्य बजाया और शीघ्र हो योद्धाम्रो को ललकार कर एकत्रित किया, उन्हे प्रेरणा दी, अपने शब्दो से उत्साह प्रदान किया और उनके सम्मान की चुनौती देते हुए एक साथ मिल कर जरासिन्ध फ्री सेना पर टूट पड़े । चारो ओर से जरासिन्ध और उसके व्यूह को घेर लिया ।। ३४ 1 यहा नेमि और अर्जुन ललकार कर शत्रु सेना पर टूट पड 1 अनावृष्टि, बलाहक योद्धा दे उनका साथ दिया और देखते ही, देखते जरासन्ध का चक्रव्यूह तोड डाला । इन वीरो का रणकौशल देखकर शत्रु सेना आश्चर्य चकित रह गई, उसके पैर उखड़ने लगे । तव रुक्मिन और रुधिर जरासिन्ध की ओर से मोर्चे पर आ डटे, इस ओर से अर्जुन और अरिष्ट नेमि जी थे। अरिष्ट नेमि जी के शस्त्र के प्रहार से रुक्मिन और रुधिर दोनो ही घबराए अर्जुन के बाणो ने उन्हें होश न लेने दिया, तब उनके पाव उखडते देख सात नरेश जरासिन्ध की ओर से लडने के लिए आ गए । महा म जी ने तुरन्त उनके प्रायुध गिरा दिए। " î G 7 अपने पक्ष की हार होते देख जरासिन्ध के सहयोगी सन्तय नृप ने महानेमि जी पर एक भयकर ( विद्यामयी) शक्ति छोडी जिस के प्रभाव से यादव कम्पित हो गए। तब मातली ने ग्रष्टिनेमि जी को वताया कि रावण भी यही प्रभेद्य शक्ति रखता था जो उसने धरणेन्द्र से प्राप्त की थी। इस राजा ने भी उसी शक्ति को बलि से प्राप्त किया है | इसको काटने का वज्र ही एक मात्र साधन है ।. 1 तब अरिष्टनेमि जी ने महा नेमि को वज्र बाण दिया, उसे वाण के छूटते ही उस शक्ति का सहार हो गया वह व्यर्थ हो गई, रुक्मी आयुध लेकर सक्रन्तय नृप के साथ आ मिला और ग्राठ नरेशो ने अपनी सेनाओ सहित मोर्चा जमाया। कौमुदी गदा श्रीर अनल वाण से नेमि जी ने रुक्मी को मैदान से भगा दिया। कुछ ही देरी मे अरिष्ट नेमि जी ने अनेक प्रकार के दिव्य शक्तिवान् ग्रस्त्रो का प्रयोग किया जिन से ग्राठो नरेशो के पाँव उखड गए ' और वे भागते ही नज़र आये । · 1 " Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरासिन्ध वध ३५ भयकर युद्ध चल रहा था, प्रत्येक योद्धा अपने अपने रणकौशल से विरोधी को परास्त करने की चेष्टा मे था .। समुद्र विजय ने राजा द्रुम को, स्तिमित ने भद्र राजा को, और अक्षोम्य ने वसु सेन नृप को यमलोक पहुचा दिया। इसी प्रकार कितने ही शूरवीर संग्राम में मारे गए। महाद्म, कुन्तिभोज, श्री देव आदि नप यम लोक सिधार गए। इतने मे सूर्य अस्त हो गया और दोनो पक्ष अपने अपने डेरो मे चले गए। रात्रि भर सभी ने विश्राम किया। प्रात होते ही हिर राय नाम नृप जरासिन्ध की ओर से अपनी सेना को लेकर रण क्षेत्र में आ गया, और आते ही भयकर वाण वर्षा की, परन्तु अर्जुन ने उसके वाणों को बीच ही मे काट गिराया। हिर राय नाम रह रह कर सिंह की भाति गरजता और विकट रूप से वाण वर्षा करता रहा, तव भीम ने आगे बढ कर अपनी गदा से उसके रथ को चूर चूर कर दिया और समुद्र विजय के शुभ जयसन ने अर्जुन के पास अपना रथ खड़ा करके हिर राय नाम की सेना पर बाण वर्षा प्रारम्भ कर दी । उसके तीक्ष्ण वाणो से गिरते सैनिको को देख कर हिरराय नाम ने गरज कर कहा-- , ओ मूर्ख जय सैन ! भाग जा, क्यो 'व्यर्थ मे प्राण गवाता है। जय सैन ने क्रोधित हो कर एक ऐसा वाण मारा कि हिरराय नाम का सारथी लुढक पडा। क्रुद्ध हो हिरराय नाम ने जय सैन पर वाणो की बौछार कर दी और जयसन अपने सारथी सहित मारा गया। अपने भाई को गिरते देख महाजय दौड़ कर आ गया और हिरराय नाम पर टूट पडा, परन्तु उमको हिरराय नाम के सामने एक न चली, कुछ ही देरी मे वह भी मारा गया । - यह दृश्य देख कर अनावृष्टि पर कोप छा गया और मोर्चों पर या उटा, पाते ही एक ऐसा वाण मारा कि जिसने उस धनुष को ही - तोड़ दिया, जिसके द्वारा जयसन और महाजय का वध किया गया था। और गरज गार वोला-हिरराय नाम इन दो मारों के रक्त 7 का बदला तुझ मे लिया जायेगा। भागने का प्रयत्न न करना। । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत याद रख कि तेरी मृत्यु का सन्देश आया रक्खा है। . "छोकरे ! पहले अपनी मां से तो विदा ले ली होती, जाकर देख उसके स्थनो से दूध चू रहा होगा।" हिररायनाम ने अकड कर कहा और स्वय भयकर वार करने प्रारम्भ कर दिए, अपने सरदारो को उत्तेजित करने के लिए उसने ललकारा-"देखते क्या हो,शत्रु को भागने का अवसर भी मत दो, वह देखो, उनकी-मौत उनके सर नाच रही है, वहादुरो आगे बढो, विजय तुम्हारी बाट देख रही।" सरदारों ने मिल कर घोर सग्राम करना . प्रारम्भ कर दिया, यह देख कर भीम, अर्जुन और यादवो को भी जोश आ गया, भीम, ने अकड कर कहा-"वीरो, गीदडो की भवकियो की चिन्ता मत करो, जिनके हाथ मे शक्ति नही होती, वे जवान चलाया करते हैं। तनिक इन्हे अपने बाजुओ की गति तो दिखादो।" सभी जोश से लडने लगे। हिरराय नाम अनाधृष्टि को मारने के लिए दात पीस कर, तलवार लेकर वढा, अनावृष्टि भी रथ से उतर पडा और तलवार हाथ मे ले कर यह कहता हुआ आगे वढा-- "अरे दुष्ट मामा, देखता हूं तेरी तकदीर मे भी भानजे के हाथो ही मरना लिखा है। तो चल ले मैं ही तुझे यमलोक पहुचाता हू।" , हिरराय नाम क्रोध से पागल हो उठा, बोला--मूर्ख अपने उन भाईयो से मिलना चाहता है तो आ मेरी तलवार तुम जैसो को यमपुरी पहुचाने मे बहुत माहिर हू ? । 'अरे पापी ! तूजीवित रहा तो मुझे बार वार मामा कहते हुए लज्जा आयेगी। आ चल तुझे यम महाराज के पास पहुचा दू ।" इतना कह कर अनाधप्टि ने तलवार का वार इस जोर से किया कि हिरराय नाम का सिर धड़ से अलग हो कर धूल मे जा मिला। फिर अप्टावीग को भी उसने मार गिराया। . भीम और अर्जुन ने अनाप्टि की वीरता देख कर कहा"वाह, वाह, वास्तव मे सिंहनी का सिंह ववर है।” इन दो वीरो Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरासिन्ध वध के मरते ही जरासिन्ध पक्ष की सेना में भगदड मच गई। यह दृश्य देख कर जरासिन्ध बहुत चिन्तित एव दुखित हुआ और युद्ध बन्द करके उसने दूर जा कर तेला तप धारण किया और कुल देवी को स्मरण करके उसकी आराधना की अन्त मे उसने कहा-"माता । मेरा भविष्य अन्धकारमय होता जा रहा है। सारे सहयोगी निष्काम होते जा रहे है, बस अव तेरा ही एक मात्र सहारा है। हे माता, शीघ्र आयो और शत्रु की सेना का वल क्षीण करो।" जरासिन्ध की विनती से सुरी पाकर यादव सेना पर कोप गई और सारी सेना को निर्वल बना कर चली गई । सैनिक अस्त्र शस्त्र चलाना चाहते पर हाथ काम ही नहीं करते थे. तब बडो चिन्ता हुई । अरिप्ट नेमि जी से उस समय मातली ने सुरी के अभाव को समाप्त करने की युक्ति बताई, मातली के कथनानुसार ही कार्य किया गया, और देवी की माया समाप्त हो गई। फिर यादव सेना अपनी पूर्ण शक्ति से लडने लगी। . परन्तु जरासिन्ध समझने लगा कि यादध सेना का प्रात्म वल कम हो गया है, इस लिए उसने एक दूत भेज कर समुद्र विजय के पास सन्देश भिजवाया कि श्री कृष्ण और वलराम को हमारे हवाले कर दो, तो हम युद्ध बन्द करके वापिस चले जायेगे।। समुद्रविजय ने दूत से कहा- 'जरासिन्ध चाहे युद्ध करे या रण क्षेत्र से भाग जाय, जव तक यादवों के दम में दम है, वे किसी प्रकार भी ऐसी शर्त को स्वीकार न करेंगे।" दूत के जाने के बाद समुद्र विजय ने यादवों को ललकार कर कहा- क्या बात है, शत्रु को ऐसा अपमान जनक प्रस्ताव भेजने का साहस क्यों हुग्रा? क्या यादवों की तलवार की गति धीमी हो गई है, पया यादव योद्वानों के हौसले पस्त हो गए हैं ? क्या हम शत्रु को लेने का अवसर देकर अपना उपहान कराने पर तुले हैं। यदि तुम यादव अथवा सच्चे वीर होते घर वापिन जाने की इच्छा को भूलकर मागे बटो। एक ही दगा में घर जाना है वह विजय की पताका फहराते ही कोई घर जायेगा, वरना यही पाट कट कर मर जायेगा।' Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत समुद्र विजय को ललकार सुनकर यादव सेना ने श्री कृष्ण और समुद्र विजय का जयनाद किया और दांत पीस कर हल्ला बोल दिया। इस भयकर प्रहार से जरासिन्ध की सेना को आत्म रक्षा करना कठिन हो गया, निकट था कि जरासिन्ध के सैनिक रणक्षेत्र मे शस्त्र फेंक कर भाग जाते, कि सूर्य अस्त हो गया, और युद्ध बन्द कर दिया गया इस आक्रमण से जरासिन्ध की सेना बहुत भयभीत हो गई थी। तब उसे सूझ गया कि उसकी पराजय अवश्य 'वाको है, पर प्रात होते ही कर्ण अपनी सेना लेकर वहा पहुच गया और उसने जरासिन्ध से उसकी ओर से युद्ध करने की इच्छा प्रगट की, अधा क्या चाहे ? दो नयन, बिल्ली के भागो छीका टूट गया, जरासिन्ध ने सहर्ष उसे उस दिन रण भूमि में सेना ले कर लडने की आज्ञा दी, पर साथ ही अपना स्नेह दर्शाने के लिए उसने कहा"श्री कृष्ण के पास बहुत शक्ति है, भीम और अर्जन उस ओर से लड रहे हैं, बहुत से बीर मारे जा चुके हैं, इस लिए तुम अपने को बचा कर होशियारी से युद्ध करना।" कर्ण ने कहा- "आप विश्वास रखिये, मैं अर्जुन और भीम को यमपुर पहुचा कर छोड गा । मैं उन्हें बता दूंगा कि इस भूमि पर ऐसे भी वीर हैं जो उन्हे धूल चटा सकते है।" कर्ण के साथ उसका मित्रदेव नाग कुमार भी हो गया, और वे रणक्षेत्र मे जा डटे। उधर से वसुदेव और उग्रसेन आ गए। कर्ण को रणक्षेत्र में देख कर वसुदेव ने गर्ज कर कहा- अच्छा, कर्ण तुम्हे भी मृत्यु यहा खीच लाई ?" "मैं तो तुम्हारी मृत्यु का आदेश ले कर आ रहा हूं।" "तनिक ध्यान से देखो किधर तुम्हारी मृत्यु का ही आदेश न हो ।" 'कर्ण ने तुरन्त बाण मारते हुए कहा-"देखो वह आ गया। मृत्यु. का आदेश, तुम स्वय पढ लेना।" - दोनो एक दूसरे पर वार करने लगे। बहुत देर तक धमा Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरासिन्ध वध सान युद्ध होता रहा। जब वसुदेव ने देखा कि कणं इस प्रकार परास्त होने वाला नहीं है तो उसने गरज कर कहा-"अो सूत पुत्र तू ऐसे नही मानेगा। ले तुझे भस्म किए देता हू ।" यह कर अनिल बाण मारा परन्तु कर्ण का सहायक देव था, वह तुरन्त ही वहा से लुप्त हो गया और तत्काल जल ला कर उसने अग्नि वाण को प्रभाव हीन कर दिया। तव वसुदेव समझ गए कि कर्ण भी एक दीव्य शक्ति रखता है। तभी नारद जी आ पहुचे, उन्होने वसुदेव से कहा-“वसुदेव! मुकाबले के वीर के साथ नागकुमार है, इसी लिए तुम्हारे वाण उसका वाल वाका नही कर सकते, अत कुछ करना है तो नाग कुमार का कुछ करो।" फिर मातली देव (साथी के साथ पा कर नारद जी बोले-पाप यहा हैं और वहा कर्ण नाग कुमार के सहयोग से भयकर युद्ध कर रहा है । ऐसा कभी न देखा होगा, तनिक वहां जाकर देखो।" . मातली देव तुरन्त वसुदेव के रथ पर या बैठा, नाग कुमार मातली देव को वसुदेव के सारथी रूप में देख कर भाग खडा हया। इतने मे ही मूर्य अस्त हो गया, सग्राम वन्द कर दिया गया और दोनो वीर अपनी अपनी सेनाओ मे जा मिले। हस नामक मत्री ने जरासिन्ध से कहा-महाराज | अभयदान मांगता हू, तब आप से विनती करता हूँ कि यह सग्नाम आपके लिए मुसदायक नहीं है, इस मे जो नर सहार हो रहा है, उसका दोष प्रापके सिर मढा जायेगा। आप चाहे तो अभी ही यह सग्राम रुक सकता है, और सहस्रो बहनो के मुहाग की रक्षा हो सकती है ।" पाहते हैं जब गंगाल की मौत ग्राती है तो वह पाम की ओर भागता है, जब मृत्यु निकट होती है, मस्तक फिर पाता है, ज्वर ने पीड़ित व्यक्ति को भोजन रुचि कर नही होता शठ को ज्ञान भला नहा लगता, इसी प्रकार जरासिन्ध को ममी की बात बड़ी नवी नगो, उसके नेत्रों में रक्त उतर पाया, बोला- "म देन न्हा ह Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० ४० जैन महाभारत . कि जब से तुम रण भूमि मे आये हो और विशेपतया जब से श्रीकृष्ण के पास हो आये हो, तभी से तुम्हारा मस्तक फ़िर गया है। तुम पागलों जैसी बातें करते हो, मेरे वैरियो की प्रशसा, करते हो, और मुझे मैदान से भाग जाने को उकसाते हो, क्या इसका यह अर्थ नही है कि तुम वैरियो से मिल गए हो। नमक हराम !" उसी समय दूसरा मत्री, डभक बोल उठा- 'महाराज श्रवीर कभी रण क्षेत्र से इस प्रकार वापिस जाने की बात भी नहीं सोचा करते । वे या तो विजयी हो कर लौटते हैं या- प्राण देदेते हैं। रण भूमि मे मरने वालो को यश मिलता हैं हस की बाते महाराज के लिए अपमान जनक है ।" . डभक की बाते सुन कर जरासिन्ध और भी बिगड गया उस - ने हस को ललकारते हुए कहा- “सुन रहे हो, मंत्री जी की बात ! जो भी तुम्हारी बात मुंह से सुनेगा वही तुम पर थूकेगा, अतएव भविष्य मे ऐसी बात मुह से मत निकालना, जो मेरे कोप को जागृत करदे, मेरी तलवार वैरियो का रक्त पी सकती है, तो वैरियो के हितैषियो को, आस्तीन के नागों को भी यमलोक पहुचा सकती बेचारा हस अपना सा मुंह ले कर रह गया। बोला कुछ नहीं प्रात. होते ही जरासिन्ध ने सेनाप्रो को तैयार होने का आदेश दिया और शिशुपाल को उस दिन के लिए सेनापति नियुक्त कर स्वय भी रण के वस्त्र, वस्त्र आदि पहन लिये । सवालाख सेना सज कर तैयार हो गई । जरासिन्ध ने अपनी खड़ग हवा में लहराते हुए कहा- "युद्ध होते कई दिन बीत गए। शंगालों की सेना अभी तक सामना करती रही। पर अब मैं यह सहन नही कर सकता। अत' मैं इस खडग की शपथ लेकर कहता हूँ कि चाहे जो हो अाज में कृष्ण का सिर इस खडग से उतार लूगा। जिस सैनिक में एक एक वैरी का खून पी जाने का साहस न हो, वह अभी ही पीछे चला जाय ।" शिशुपाल वोला-"महाराज! आप निश्चित होकर लडिए । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . हमारा एक-एक सैनिक आपके नाम पर अपने प्राण न्योछावर करसे को तैयार है, एक एक सैनिक आपकी शपथ को पूर्ण करने के लिये वैरियो गाजर मूली की भाति काट डालने को तैयार है ।" जर सन्ध वध 1 शिशुपाल ! हम सदा से ही तुम पर पूर्ण विश्वास करते हैं । श्री कृष्ण तुम्हारा भी वैरी है । तुम्हें जीवन चाहिये तो कृष्ण का वध करो। तुम्हे सुख चाहिए तो अपने पथ के काटे को क्रूरता से "समाप्त कर दो । आज तुम्हारे शौर्य की परीक्षा है ।" जरासिन्ध ने शिशुपाल को उत्तेजित करते हुए कहा- "महाराज ! आप की प्रसन्नता मुझे अपने जीवन से अधिक प्रिय है ।" शिशुपाल ने चापलूसी करते हुए कहा । हमे तुम से ऐसी ही प्रागा है ।" 1 इधर मन के लड्डू फोडे जा रहे थे, उधर यादव गरुड व्यूह रच रहे थे। जब उधर व्यूह रचना देखी तो शिशुपाल ने भी चक्र व्यूह रचा । सारी सेना को युक्ति पूर्वक लगाया । जरासन्ध प्रथम दिन की भाति सैनिकों के बीच रहा। शिशुपाल उस के आगे रक्षको का अधिष्ठाता था । 4 जरासन्ध ने युद्ध आरम्भ करने से पूर्व अपने मंत्री को बुला कंर पूछा- 'मंत्री जी ! हमे यह बताओ कि आज विरोधी सेना में कौन कौन से सुभट हैं ? मंत्री ने सामने सकेत द्वारा वता बता कर कहा - "महाराज ! अनाधृप्ट कुमार है । वही वह देखिये उन के रथ पर वह सामने श्याम श्रश्व वाले रथ पर पाडवों को सेना का सेनापति है। गज चित्र युक्त पताका लहरा रही है । श्वेत अश्व और कपि स्वजा वाला रथ अर्जुन का है। नील कमल की बोभा वाले ग्रस्व जिन रथ मे जुते हैं, उस पर भीम सेन नवार हैं । और वह देखिये, सिह चिन्ह ध्वजा वाला, स्वर्ण समान चमकता र समुद्र विजय का है । वृपभ चिन्ह जिस ध्वजा मे हैं, वह अरिष्ट नगि जी वे रथ पर लहरा रहा है, उस मे शुक्ल वर्ग के अन्य जुने है । कवरे अश्वों वाले रथ में अक्रूर कुमार है. और कदी के चिन्ह बाली ध्वजा उस पर लहरा रही है | लाग श्रव वाला व उग्र मैन का, तीत वर्णी ऋवी का रथ महानेगि का. और हरिण " Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत चिन्ह वाली ध्वजा जिस पर लहराती है वह रथ जरत कुमार का है। पद्म रथ राजा के रथ के अश्व पदम समान हैं, और कमल जिस ध्वजा पर चमक रहा है, वह साहरण के रथ पर लहरा रही है। .............." 'मैं पूछता हू, कृष्ण का रथ कौन सा है ?" बीच ही मे जरासिन्ध कड़क कर वोला। । भत्री एक बार तो काप . उठा-बोला-"महाराज सेना के बीच मे श्वेत अश्वों वाला रथ जिस पर गरुड़ चित्रित ध्वजा लहरा रही है, श्री कृष्ण का है। और कृष्ण के पास दाहिनी ओर बलराम है" . बस बस पुराण मत वखानो' मंत्री जरासिन्ध की बात सुन कर मौन रह गया। जरासिन्ध ने सेना पर दृष्टि डाली और गरज कर बोलासब शत्रु दल पर टूट पडना।" युद्ध प्रारम्भ हुआ। योद्धा आपस मे जूझने लगे, गज सवारों से गज सवार, अश्व सवारो से अश्व सवार, रथारोहियो से रथारोही, और पैदल सैनिको से पैदल सैनिक भिड गए। खड़गो की खन खन की ध्वनि से रण क्षेत्र भर गया। इतने ज़ोर का शोर हुआ कि आकाश पृथ्वी भी कांप उठे। उसी समय नारद जी पधारे। जरासिन्ध के पास पहुंच कर बोले-'आप जैसे योद्धा के सामने वह ग्वाला क्या चीज है । तनिक आगेबढ़ कर उसी का सफाया कीजिए, सैनिको पर खड़ग उठाना आप को शोभा नहीं देता। आप श्री कृष्ण को मार कर जो यश प्राप्त करेंगे, वह आज तक किसी को नही प्राप्त हुआ होगा। नारद जी की बात सुन कर जरासिन्ध उत्तेजित हो गया और नारद जी के सकेत पर कार्य करने के लिए आगे बढ़ने लगा।' नारद जी श्री कृष्ण के पास भी पहुचे और बोले-महाराज! बूढा जरासिन्ध तो पक्के आम की भांति है, परन्तु आप की खड़ग Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरासिन्ध वध ४३. विना नही गिरेगा। आप के सामने वह क्या है, शीघ्र काम तमाम कर के झगड़ा समाप्त कीजिए, क्यों व्यर्थ रक्त पात करा रहे हैं ?" ___श्री कृष्ण जी नारद जी की बात पर हस दिए, “आप को तमाशा ही देखना है, तो घबराइए नही । अव अधिक प्रतीक्षा नही करनी होगी। वह स्वय अपनी मृत्यु की ओर अग्रसर हो रहा है।" यवन कुमार और अक्रूर आदि मे घमासान युद्ध हो रहा था, मार काट करते यवन कुमार को 'सहारण ने जाकर आगे बढ़ने से रोक दिया। यवन कुमार कुछ देरी तक उसका सफल सामना करता रहा, सहारण ने ललकार कर कहा- "छोटे मोटे सैनिको को मार कर अपने को वीर समझ लिया होगा, पर किसी वीर से पाला नही पडा है, तो बगले झाक रहे हो।" - सहारण की बात सुन कर यवन कुमार को वडा क्रोध आया उसने कडक कर कहा-"अपने मुह मिया मिठू बनते पाप ही को देखा है। डीग, हाकना छोड़ कर हाथ दिखाओ। आटे दाल का भाव अभी ज्ञात हुया जाता है।" 'वढ बढ र बाते बनाना बहुत आता है, होता हुआता कुछ नहीं।" चिड कर सहारण बोला। यवन कुमार ने क्रुद्ध होकर उस का रथ चूर चूर कर दिया। इस पर सहारण भी क्रुद्ध हो गया. उस ने यवन कुमार पर खड़ग का एक ऐसा वार किया कि सिर धड मे अलग हो गया। सहारण की इस 'वीरता को देख कर यादव मेना में भारी हर्ष छा गया, मैनिक आनन्दित हो कर उछलने लगे। युवराज का वध होते देख कर जरासिन्ध बहुत सुंझलाया, उस ने श्री कृष्ण की ओर बढना छोड़ कर सहारण का पीछा पकड़ा। कुछ देरी तक दोनो में युद्ध होता रहा, अन्त में जरामिन्ध के वारो को सहारण न काट पाया और उस को खडग से मारा गया। फिर वह भूने मिह को भाति बलराम के पृषी पर टूट पड़ा और सभी को प्रान को प्रान में मार गिराया, हम से पांटयों की Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत सेना. मे आतक छा गया ॥ सभी भयभीत हो गए, जरासिन्ध जिधर जाता माराकाट करता निकल जाता, कुछ सैनिक तो उस से अपने प्राण बचाने के लिए भाग जाते। शिशुपाल श्री कृष्ण से भिड गया, उस ने कृष्ण को ललकार कर कहा--"यह गोकुल' ग्राम नहीं है, चरवाहो,, ग्वालो की सग्राम मे भला क्या चला सकती है। देखा कैसे मर रहे है, तुम्हारे योद्धा ने क्षत्रियो का संग्राम कभी नहीं देखा होगा, अब तो आँख खुली। खैर चाहते हो तो शस्त्र फेक दो ।'... , . , ____ श्री कृष्ण ने हस कर कहा-"शिशुपाल | पहले अपनी उस माता से तो पूछ लिया होता, जिसने मुझ से तेरे. प्राणो की क्षमा मांगी थी ? या मेरे हाथो मरने मे ही तुझे आनन्द आयेगा ?' . शिशुपाल गरज कर बोला-मैंने तो अपनी मा से पूछ लिया, पर तू तो यशोदा ग्वालिन से पूछ ले; उसकें ढोर कौन चुंगाएगा? मेरा एक भी वार नहीं सहा जायेगा। . . श्री कृष्ण ने कहा-“ऐसे योद्धा होते तो रुक्मणि के विवाह मे दुम दबा कर न भागते। 'चलेगी न-तेग और तलवार उन से . . यह वाजू-बहुत आजमाए हुए है।" .. . शिशुपाल को बहुत क्रोध आया, उस ने दांत पीस, कर श्री कृष्ण पर आक्रमण कर दिया। श्री कृष्ण वार काटते हुए बोले- 'तेरी धृष्टतायो को मैंने कितनी ही वार क्षमा कर दिया, पर अब तू सिर पर ही चढता चला आता है तो ले अपने किए का भोग ।" इतना कह कर उन्हो ने उस पर एक ऐसा वार किया कि शिशुपाल वही ढेर हो गया। शिशुपाल के मरते ही यादव सेना में नवोन आगा का सचार हुआ, सैनिको ने श्री कृष्ण की जय जयकार करनी आरम्भ करदी। जरासिन्ध अपने परम सहयोगी की मृत्यु- देख कर आग बबूला हो गया। उस ने आव देखा न ताव अपना रथ श्री कृष्ण की ओर हकवा दिया। उधर जरासिन्ध के पुत्रों ने बल राम को घेर रखा था , श्री कृष्ण ने उन पर वाण वर्षा की. उधर Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरासन्ध वघ बलराम भी शोध गति से वाण बरसा रहे थे। दोनो के वाणो को वर्षा से जन्ससिन्ध के पुत्र मारे गए। जब जरामित्व की दृष्टि उस ओर गई तो उस ने अपने पुत्रों की हत्या का बदला लेने के लिएबलराम को घेर लिया । और गदा का प्रहार किया, जिस से वलराम व्याकुल हो गए, पुन गुदा मारने को उठाई तो अर्जुन की दृष्टि उस पर चली गई अर्जुन बीच मे कूद पडा और भयकर युद्ध. 1 करके वलराम को बचा लिया । ● क ४५ 'जरासन्ध ने श्री कृष्ण को निकट देखकर कहा - ""तुम इतने दिनो अपनी चतुराई से मेरे हाथो से बचे रहे तुम्हारी सरी माया. समाप्त हो जायगी । की प्रतिज्ञा पूरी करू गा ।" पर ग्रेब मेरे हाथों ग्राज मैं जीव यशा श्री कृष्ण बोलें. 'यह तो अभी ही पता चल जायेगा कि जीव यंगा को प्रतीज्ञा पूर्ण होगी या एवता मुनि की भविष्य वाणी । तनिक दो दो हाथ हो कर ।" 7 1 5 I जर सिन्ध ने गरज कर कहा - में जरासिन्ध हू जिस ने कभी पराजित होकर नही जाना, मेरे नाम से सारा समार कांपता है ! ग्वालो मे खेलने वाला मेरा क्या सामना करेगा ?" उतना कह कर उस ने श्री कृष्ण पर वाण वर्षा आरम्भ करदी, पर श्री कृष्ण उस के बाणो की अपने बाणो के बीच ई हो मे काट देते। कितने ही समय तक वाणी से युद्ध होता रहा. अन्त मे जयसिन्ध ने चक रन्न चलाया उसे चलता देख कर ही यादव सुभट भयभीत हो गए, पान्डवो और यादवों ने मिलकर 1, す उसे काटने के कितने ही यत्न किये पर कोई बार न बनाई। यासिर चक्र ग्राकर श्री कृष्ण के शरीर में लग गया पर रो का स्वर्ण होना था, कि चक्र गेंद की भाति हो गया, श्री कृष्ण को कोई नोट ही नई इस बात को देखकर जगमिन्न की प्रां फैन मो गई, उस की समझ मे हो न आया कि चत्र रत्न ने श्री कृष्ण पर क्यों न कटा । ह श्री कृष्ण ने उसी नय को अपने हाथ में लिया, और गरज Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ जैन महाभारत कर बोले-'पापी! देख क्या यह भी मेरी ही माया है। ये तेरा शस्त्र ही मेरे काम आ रहा है। तू बूढा है, जा कुछ दिनों और। ससार में रहना चाहे तो भाग जा, वरना तेरा ही अस्त्र तेरे. प्राण लेगा?" जरासिन्ध पर तो शक्ति का अहकार सवार था, उस ने अकड कर कहा-'ग्वाले! पहले इस चक्र का प्रयोग सीखने के लिए मेरा शिष्य बनता तब इसे प्रयोग करने की बात करता तो कदाचित तेरी धमकी का मुझ पर कुछ प्रभाव भी पडता अब क्या है, तेरे लिए तो यह एक खिलौना ही है।" तो फिर देख इस खिलौने की करामात ! इतना कह कर श्री कृष्ण ने चक्र रत्न उस की ओर घुमा कर मारा, जिस से देखते ही देखते जरासिन्ध. का शीश कट कर धरा पर आ गिरा और वह चौथे नरक मे-चला गयो। आकाश से पुष्प वर्षा होने लगी। श्री कृष्ण की जय के नारो से युद्ध स्थल गूज उठा । जरासिन्ध की सेनाओ ने शस्त्र डाल दिए और रण भूमि उत्सव स्थल मे परि णत हो गई। यादव संनिक आनन्द चित हो कर विपुल वाद करने लगे। जरासिन्ध का बध होते ही नेमिनाथ जी ने तुरन्त जा कर जरासिन्ध के बन्दी ग्रहो मे बन्दी बने पड़े राजाम्रो को बन्धन मुक्त किया। जब जीवयश को पिता की मृत्यु का समाचार मिला तो वह वहुत दुखी हुई और अग्नि में कूद कर खाक हो गई। श्री कृष्ण ने मगध देश का चौथाई भाग जरासिन्ध के शेष रहे पुत्र को, दे दिया। उन्होने मृत यादवो के शवो का दाह संस्कार किया और तीन खण्डो की दिग्विजय करने चल पडे। जिसे आठ वर्ष मे पूर्ण किया और तीन खंड में अखड आन मानवाकर त्रिखडीश्वर हो कर वाद्यसमूहों के साथ महामहोत्सव पूर्वक अलका सदृश द्वारिका नगरी मे प्रवेश किया। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * चतुर्थ परिच्छेद * *****安安免安安安安安 X अद्भुत महल $$%%%%%%%%%% जरासिन्ध और शिशुपाल का वध हो जाने से महाराज युधिष्ठिर के सम्राट पद पाने का रास्ता खुल गया। श्री कृष्ण के - सहयोग से महाराजाधिराज पद से युधिष्ठिर को विभूषित करने के = लिए एक महोत्सव राजसूयज्ञ के नाम से रचाया गया और दुर्योधन = कर्ण और शकुनी भी श्री कृष्ण के कारण महाराज युधिष्ठिर को । सम्राट बनने से न रोक पाये। इधर श्री कृष्ण ने अपनी बहन सुभद्रा का विवाह अर्जुन के ( साथ कर दिया था इस लिए पांडवों के साथ उनका घनिष्ट सम्बन्ध , था, वे पाण्डवो के प्रत्येक कार्य मे सहयोग और परामर्श देते थे। इसी सम्बन्ध के कारण, और महाराज युधिष्ठिर को धर्म परायणता के कारण पाण्डवों की कीर्ति में वृद्धि होती रही. प्राधा राज्य पाने पर भी वह भारत खण्ड में प्रसिद्ध हो गए और सौ राजा उनके प्राधीन आ गए। १ सुभद्रा के गर्भ से एक कातिवान पुन उत्पन्न हया, इस खुशो ( में महाराज युधिष्ठिर ने एक विराट उत्सव किया। उस उत्सव के लिए अर्जुन के मित्र मणिचूड ने अद्भुत महल बनाया, जिसमें उस युग की सर्वोत्तम कला दिखाई गई थी। रत्तो और मणियो से युक्त दीवारें पोर स्तम्भ इतने आपंक बने हए थे कि अखि घोबा खा जाती थी। कही रवि उदय होता दर्शाया गया था. तो काही पूर्ण पाति धवल चांदनी वत्रता हमा। फर्श पर नील मणि लगी थी। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ जैन महाभारत FF और रगो का ऐसा सुन्दर नमूना था कि नीले तथा श्वेत रग से रग फर्श को देख कर कोई भी व्यक्ति 'जल' का धोखा खा सकता था, जहा जल था वहा फर्श दिखाई देता था, इसी प्रकार दीवारे भी छद्ममयी थी, दूर से द्वार दीख पड़ने वाली जगह मोटे पत्थरो को दीवार थी और जहा दावार प्रतीत होती थी, वह द्वार थे। विभिन्न भाति की रत्न पुतलिया, चित्र, तथा नाना प्रकार के कामो से युक्त वह महल एक अद्भुत भवन बन गया था। " पुत्र जन्मोत्सव पर युधिष्ठर ने अनेक नरेशो को निमन्त्रित किया, श्री कृष्ण, बलराम दुर्योधन, कर्ण, शकुनि आदि सभी निमन्त्रित थे। बहुमूल्य भेट दी, बहुमूल्य उपहारो के ढेर लग गए। देश विदेश से कलाकार निमन्त्रित थे। आठ दिन तक विभिन्न नृप, संगीत और प्रदर्शनों की धूम रही। युधिष्ठिर ने मुक्त हस्त से धन व्यय किया दान देने में युधिष्ठिर ने इतना धन व्यय किया देखने वाले भी दातो तले उगली दवा कर रह गए। हस्तिनापुर, द्वारिका और इन्द्रप्रस्थ के ब्रह्मचारी विद्यार्थी बडी संख्या में एकत्रित थे, उन्हें सहस्रो गौएं दान दी, जो 'जिसने मागा वही दिया, याचक लोग कह उठे-"महाराजाधिराज युधिष्ठिर ने पुत्र जन्मोत्सव पर जो किया; वह, अभूतपूर्व है. प्रशसनीय हैं, और एक समय तक उसकी याद रहेगी।" . .. .. सभी आनन्द चित थे ' परन्तु दुर्योधन के दिल पर साप लोट रहा'था, वह ईर्यों के मारे जला जा रहा था यद्यपि महाराजा धिराज युधिष्ठर ने भ्रातृ स्नेह से धन का हिसाव किताव उसी के जिम्मे दे दिया था, और उसे इस बात की छूट थी कि वह अपनी इच्छानुसार जितना चाहे व्यय करे । यह बात इस लिए की गई। थी ताकि दुर्योधन के मन का मैल जाता रहे और वह समझ ले कि युधिष्ठिर उसे सगे भ्रात तुल्य मानते हैं। परन्तु जिस समय कोष की चाबिया उसे मिली तो वह मोचने लगा कि यह सुन्दर अवसर है पाडवों को वरवाद करने का। खूब धत उडाऊगा और कोप खाली कर दू गा। जिससे राज कोप का सन्तुलत बिगड़ जायेगा और प्रजा के लिए व्यय होने वाला धन समाप्त होने से, प्रजा जन पाण्डवा के प्रति क्रूध हो,जायेगी, क्योकि जन साधारण के हितार्थ भी व्यय Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अद्भुत महल ४९ नही किया जा सकेगा । कर्मचारियों का वेतन रुक जायेगा, इसलिए वे असन्तुष्ट हो जायेंगे । इस प्रकार राजा का सारा ढांचा ही अस्त व्यस्त हो जायेगा। यह सोच कर वह एक पैसे के स्थान पर चार पैसे व्यय कर रहा था, पर जब उसने देखा कि उसकी इस नीति से पाण्डवो के यश मे ही वृद्धि हुई तो वह अपने भाग्य को कोसने लगा। शिशु का नाम अभिमन्यु रक्खा गया। ज्योतिपियो ने उस के वीर होने की भविष्यवाणी की। श्री कृष्ण ने शिशु को वहुमूल्य उपहार दिए। उन्हे अपार हर्ष हो रहा था, यह देखकर कि बालक का कातिवान मुख और उज्ज्वल ललाट बता रहा था कि वालक अद्भुत वीर योद्धा होगा। उत्सव की समाप्ति पर समस्त नरेश, अतिथि एवं विद्वान गण विदा हो गए। पर दुर्योधन को युधिष्ठिर ने यह कर रोक लिया-"ऐसी क्या जल्दी है, कुछ दिन ठहर कर चले जाना, जैसा हस्तिनापुर वैसा ही आपके लिए इन्द्रप्रस्थ है।" सभी पाण्डवो ने दुर्योधन से बहुत प्रेम दर्शाया, दुर्योधन मन ही मन उनसे कुढता था, पर प्रत्यक्ष रूप मे वह भी उन से प्रेम ही दर्शाता। भाईयो के कहने पर कुछ दिन उसने वही रुकना स्वीकार कर लिया। जन्मोत्सव पर बना हुआ अदभुत महल उन दिनो इन्द्र प्रस्थ मे दर्शनीय भवन था, जो देखता वही प्रगसाए करता। परन्तु दुर्योधन ने अभी तक उमे जाकर नही देखा था, क्योकि ईर्ष्या के कारण उसे यह कदापि सहन नहीं हो सकता था कि पाण्डवो की किसी भी वस्तु की प्रगसा करनी पड़े। परन्तु एक दिन भीम ने दुर्योधन से कहा-"भ्राता जी ! मणि चर द्वारा निर्मित भवन आप भी तो देखिए। लोग तो बढी प्रगमा करते हैं। पर कला की पहचान पाप मरीने कला प्रेमियो और अनुभवियो को ही होती है। लोग तो किसी को प्रसन्न करने यो लिए भी वैसे ही प्रगसा कर दिया करते हैं। चलिए शाप देन कर उस में जो कमि हो वताईये। महाराजाधिराज युधिष्टिर ने Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत उस पर बहुत धन व्यय किया, है ।" . . . दुर्योधन न चाहते हुए भी जाने से इंकार न कर सको, अपने अन्य संगी साथियों के साथ वह 'भीम के साथ महल देखने चल पड़ा। जिस समय दुर्योधन और उस के साथी महल के आगन में 'पहुचे उस समय द्रौपदी उसके ऊपर खड़ी थी। दुर्योधन ने ज्यो ही अन्दर प्रवेश किया तो सामने नील मणि के फर्श को देखकर वह समझा जल है, इस लिए उसने जूते निकाल कर वस्त्र ऊपर कर लिए। देखने वाले दुर्योधन की इस भूल पर हस पड़े, और ऊपर खड़ी द्रौपदी भी खिल खिला कर हस पडी। लोगो और द्रौपदी के हसने से दुर्योधन को बडा क्रोध आया भीम उसी समय बोल पड़ा-भाई साहब, वस्त्र सभाल रहे हो, किसी से मल्ल युद्ध तो नही करना।" क्रुद्ध दुर्योधन बोला-'क्या तुम मुझे यहां डुबा मारने लाट 'हो ? महल है या तालाव घर ।" भीम ने हस कर कहा-"भाई साहब ! यह जल नहीं नील मणि से आपकी दृष्टि धोखा खा गई है ।" । दुर्योधन को अपनी भूल पर बड़ी लज्जा आई। उसने अपने वस्त्र नीचे कर लिए, जूता पहन लिया और आगे बढ़ने लगा। खीझ मिटाने के लिए वह सर्व से आगे तीव्र गति से चला, उसके 'पीछे था दुःशासन । कुछ दूर जाकर दुर्योधन धंडाम से जल कुण्ड मे गिर पडा। दर्शक हंस पडे, दुशासन भी गिरते गिरते 'बाल वाल वचा। भीम ने कहा- "भाई साहब ! ऐसी जल्दी क्या थी स्नान करने को ही जी चाहता था तो आप मुझ से कहते। आप के लिए सव प्रवन्ध हो जाता। यहां तो आप ने वस्त्रों सहित हो जल मे छलांग लगा दी।" दुर्योधन को क्रोध भी आया और लज्जा भी ईि। भीम ने उसे बाहर निकाला। ऊपर खड़ी द्रौपदी ठहाका मार कर हस पडा। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अद्भुत महल दुर्योधनं जल रहा था, पर बेचारा स्वयं लज्जित भी था, भीम ने ऐसे दूसरे कपडे दिए, कपडे बदल कर वह फिर भवन की सैर करने लगा.. . .. एक स्थान पर उसे द्वार दिखाई दिया, दुर्योधन ने उस ओर पग वडाया, भीम ने उसी दम कहा-जरा ध्यान से देखिये, कही दीवार से मत टकरा जाना। दुर्योधन ने कहा-'तो तुम ने मुझे मूर्ख ही समझ रखा है।" वह यह कह कर आगे वढा ही था कि सिर दीवार से जा टकराया द्रौपदी. देखते ही हस पडी। और बौली डिंगोरी पकड़ कर कोई करो इम्दाद अन्धे की न हो अन्धा यह क्यो, मांखिर तो हैं औलाद अधे की । सुनते हैं धृतराष्ट्र अन्धे है, पर लगता है उनके पुत्र भी अन्वे ही है । दुर्योधन ने एक बार अग्नेय नेत्रो से द्रौपदी की ओर देखा श्ररि वह अपने क्रोध को न रोक सका, वही से माथा सहलाते हुआ वोला-"कोन अधा है, तुझे शीघ्र ही पता चल जाएगा, जिन आँखो म हर्प ठाठे मार रहा है, एक दिन उन्ही से अश्रुसिन्चु फूट पडेगा, तव तू अन्धे को ही याद करेगी ." भीम ने दुर्योधन को क्रोध करते देखा तो झट से बोल उठाभ्राता जो ! द्रौपदी आपकी भाभी है। परिहास करने का तो उसे अधिकार हैं । श्राप तनिक सी बात पर ऋद्ध हो गए। जाने भी दीजिए।" कुध दुर्योधन मौन हो कर भीम के साथ आगे बढा । भीम न द्वार की ओर सकेत करके कहा-यह है द्वार। आप इस के द्वारा अन्दर जा सकते हैं।" _ यह द्वार तो दीवार जैना दीखता था. दुर्योधन ने गेप पूर्ण मोहमते हुए कहा--- "यम बस, मुझे मूर्व न बनायो। दीवार को में दार नहीं समझ सकता। अन्धे राह पर अन्धा नहीं, नीम Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ जैन महाभारत हंसी रोकने का प्रयत्न करते हुए बोला- "अच्छा आप मेरे पीछे आईये।", भीम उसी दीवार सा चमकने वाले द्वार में घुसा और अन्दर चला गया, दुर्योधन को बड़ा आश्चर्य हुआ। VFREE Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र * पञ्चम परिच्छेद * दुर्योधन का षड्यन्त्र १ दुर्योधन का षड़यन्त्र भौर हो या सायं, निशि हो या दिन, चौबीसो घण्टे दुर्योधन चिन्ता मे घुलता रहता था। उसके लिए उपलब्ध समस्त वैभव शूल समान हो गए, उसे बात बात पर क्रोध आता, दास दासियो पर अकारण ही चिल्ला उठता, रंग सरसों सा हो गया। 'रात्रि को जव श्राकाश मे तारो का जाल विछा होता, शीतल चादनी कलियों के अधरों पर मुस्कान बखेरती, और स्रो कणों को भी श्वेत रत्नों का रूप प्रदान करती, उस समय भी दुर्योधन झझलाया रहता, उस के मुख से दीर्घ निश्वास, निकलती वह हर समय व्याकुल रहता। जव पोस कण पृथ्वी पर फैली हई वस्तुप्रो को भिगो देते, उस समय भी उसके हृदय मे चिन्ता की ज्वाला धधकती रहती। उसका मुह उतरा रहता, और चिडचिडे स्वभाव के कारण सारा महल दुधिन से कापने लगा। वह किसी बात में रुचि न लेता, न किसी स हसता बोलता, निरोग हो कर भी वह रोगी की भाति अधिक समय शय्या पर ही पड़ा रहता। तभी तो कवि ने कहा है : चिन्ता ज्याल शरीर मे, बनि दावा लगी जाय । प्रगट धुग्रां वहिं संचरे, उर अन्तर धधुग्राय ।। उर अन्तर धंघुग्राय जर जिमि कात्र को भट्टी। रक्त मांस जरि जाय रहे हड्डिन की टट्टी। माह गिरधर पाविराय सुनो हो मेरे मिन्ता: गो नर कैसे जिये कि जिन घर व्याप निन्ता ।। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ जैन महाभारत दुर्योधन की यह दशा देख कर उसके मामा शकुनि से न रहा गया, पूछ बैठा- “दुर्योधन तुम निशि दिन दुबले होते जा रहे हो। कोई रोग भी प्रतीत नही होता, प्रत्येक प्रकार की सुख सम्पदा तुम्हे प्राप्त है, फिर इस प्रकार रोगी जैसी दशा का क्या कारण है ? ___ "मामा ! आप तो जानते ही हैं, पाण्डव कितनी उन्नति कर रहे हैं, वे सारे. क्षेत्र पर छा गए है। उनके यग की दिन दूनी रात चौगुनी वृद्धि हो रही है.। इस बार जब अर्जुन, के पुत्र के जन्मोत्सव में मैं - गया था, आप तो मेरे साथ थे ही। मेरा कितना उपहास किया गया, कितना अपमानित हुश्शा मैं । इस सब के होते मैं जिऊ तो कैसे ! मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि मैं पतन की ओर जा रहा है । और एक एक बात मे पाण्डव मुझे परास्त करते जा रहे हैं। व्यथित दुर्योधन ने अपने मनं, की, चात कह -सुनाई। राम में ऐसा - शकुनि-ते--दुर्योधन कोः सान्त्वना देते हुए कहा- "तुम्हारे मन मे, बसी चिन्ता को समझ गया, पर मेरी समझ मे यह नहीं कि. पाण्डवों की उन्नति से तुम पर कौन सी मुसीवत का पहाड, टूट पडा ? पाण्डवो के पास जो कुछ है. वह तुम्हारा ही दिया हुआ तो है। तुम उन से किस वात मे, कम हो.? पाण्डव तुम्हारे ही भाई हैं, उन की वृद्धि को देख कर तुम्हे चिन्ता होना आश्चर्य की बात है।" ...'"मामा जी ! आप भी ऐसी वातें करते हैं ?.- दुर्योधन ने शकुनि की बातो. पर. शका प्रगट करते हुए कहा- आप को तो ऐसीबातें नही कहनी चाहिए। . जब कि आप जानते हैं, कि मैं अपमान पूर्ण जीवन व्यतीत करने से जीवित जल. मरना अच्छा समझता हूं। द्रौपदी ने मुझे कितने ही लोगो के सामने अपमानित किया, पर मैं उसका कुछ न कर सका, अभी तो इतना ही है कि द्रौपदी मुझे अन्धा कह कर पुकारती है पर पाण्डवो की इसी प्रकार उन्नति होती रही तो एक दिन मुझे वे लोग भरी सभागो मे गालिया दिया करेगे, उनके बच्चे तक मुझे अपमानित किया करेंगे, और क्या पता वह भी दिन आजाए कि पाण्डव, इतनी शक्ति प्राप्त करले। मुझे हस्तिना पुर से भी निकाल कर वाहर खड़ा करदें।" Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्योधन का पडयन्त्र ५५ __शकुनि ने दुर्योधन को धैर्य वधाने के लिए कहा- “तुम भी कैसे बुरे स्वप्न देखने लगे ? पाण्डव एक नही हजार जन्म भी करे तो भी वे तुम्हारा वाल वाका नहीं कर सकते। और मेरे विचार से तो तुम्हे यूही भ्रम हो गया है । द्रौपदी ने तुम्हें अपमानित करने के लिए उपहास नही किया होगा, और न पाण्डव ही तुम से किसी प्रकार का द्वप रखते है। अत. व्यर्थ की चिन्ता से क्या लाभ। तुम भी अपनी उन्नति के लिए प्रयत्न करो।" "नही, मामा मैं पाण्डवो को भलि प्रकार समझता हूं-दुर्योधन ने कहा- वह एक एक बात मुझे चिढाने के लिए करते है। वह 'महल भी उन्होंने मेरे ही उपहास के लिए बनाया था। मैंने प्रतिज्ञा "की है कि द्रौपदो द्वारा किए गए अपमान का वदला लूंगा, जब तक मैं उसी प्रकार द्रौपदी को भरी सभा में अपमानित नहीं कर लूगा, तब तक चैन नही लूगा । या तो अपने अपमान का बदला लूगा और पाण्डवो को मुझे चिडाने का वदला मिल जायेगा, वरना मैं जीवित ही चिता में प्रवेश करू गा। अत यदि श्राप मुझे प्रसन्न - देखना चाहते है, तो कोई उपाय बताइये जिस से मैं अपने अपमान । का बदला ले सकू।" है शकुनि ने बार बार समझाया कि वह द्रोपदी या पाण्डवो से - बदला लेने की बात मन से निकाल दे, पर दुर्योधन न माना जव : शनि ने देखा कि दुर्योधन ह्य पर अड़ा हुआ है, तो वह भानजे : के प्रेम से विवग हो कर उसके मन को मात करने के लिए उस की इच्छा पूर्ति के उपाय खोजने में लग गया। दुर्योधन और शकुनि । दोनो नापस मे विचार विमर्श करने लगे। उसी समय कर्ण भी । वहा पहुंच गया और उनकी मत्रणा में वह भी शामिल हो गया। ई कर्ण ने तो वही अपना पुराना सुझाव दिया -- "चलो अनायाग ही १ पाण्डवो पर ग्राममण कर दो।' पर नकुनि ने इस प्रश्नाव का है नग्त विरोध किया यह बोला- "काणं तुम हमेगा पनि धारा विरोधियों को सामने की बात किया करते हो, पर बनी यह नही गोचले किदिनोशी पर भी कम शनि नही है। पादचों को पानि द्वारा परास्त कराना बच्चो का खेल नहीं है। वेअर तन गति Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत शाली है कि उनका सामना करना लोहे के चने चबाना है। उन्हें तो किसी अन्य ही उपाय से जीता जा सकता है।” कर्ण ने दम्भ पूर्ण शब्दो में कहा- "मामा | आप भी कैसी बाते करते हैं' रण भूमि मे तो जाने दीजिए, पाण्डवो मे एक भी ऐसा नही जो मेरे सामने आ कर जीवित बच कर जा सके।" दुर्योधन बीच मे बोल उठा- “पर यदि किसी प्रकार विना लडाई झगडे के ही उन्हे परास्त किया जा सके तो इससे वढ कर अच्छी बात और हो क्यों सकती है ?" कर्ण तव कुछ ढीला पडा और बोला-"हा, यदि कोई ऐसी भी तरकीव हो सकती है, तो.अवश्य की जानी चाहिए, युद्ध करना ही आवश्यक तो नही है।" फिर दोनो शकुनि का मुह देखने लगे, जैसे उनके मौन नेत्र शकुनि से अन्य उपाय पूछ रहे हो। शकुनि कुछ देर विचार मग्न रहा और अन्त मे चुटकी बजा कर वदे हर्ष से वोला - 'युधिष्ठिर को चौसर खेलने का तो शौक है ही, बस उसे आप चौसर खेलने को आमंत्रित करे, इधर से मैं रहू फिर दुर्योधन | मैं उनकी जीत कर दिखला दू गा। वस चौसर के खेलका प्रवन्ध तुम पर रहा ।" वात मुनते ही कर्ण और दुय?न के मुख मण्डल पूनो के चार की भाँति खिल उठ। कितनी ही देर तक वे आपस मे शकुनि कं बुद्धि की प्रशशाए करते रहे और उसके पश्चात चौसर खेलनं वे षड़यन्त्र का जाल बिछाने पर विचार करने लगे। x x x x x x x दुर्योधन और शकुनि घृत्तराष्ट्र के पास गए। शकुनि । बात छेडी- "राजन ! देखिये तो आप का वेटा दुर्योधन शोक प्रो चिन्ता के कारण पीला सा पडता जा रहा है। उसके शरीर के। रक्त ही सूख गया प्रतीत होता है। क्या आप को अपने वेटे की में चिन्ता नहीं है। ऐसी भी क्या बात कि आप अपने बेटे की चिन्त । का कारण तक न पूछे ? Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्योधन का पड़यन्त्र ५७ __बूढे धृतराष्ट्र को अपने पुत्र पर अपार स्नेह था ही, शकुनि की वात से वह सच मुच बहुत चिन्तित हो गए, दुर्योधन को अपनी छाती से लगा कर प्यार करते हुए बोले-"बेटा, हा मेरे तो. आखें ही नहीं, जो मैं तुम्हारी दशा देख सकता। पर तुम्हें सभी प्रकार का ऐश्वर्य प्राप्त है. तुम मेरे ज्येप्ट पुत्र हो, राज्य के उत्तराधिकारी तुम्ही हो । फिर तुम्हें दुख काहे का हैं ? दुर्योधन अवरुद्ध कण्ठ से, दीर्घः निश्वास छोडते हुए बोला"पिता जी। मैं राजा कहलाने योग्य कहाँ रहा ? एक साधारण व्यक्ति की तरह खाता पीता, पहनता ओढता हुं। यह भी पता नहीं कि भविष्य में यह भी मिलेगा, या नहीं ? बेटे की निराशा पूर्ण बातें सुन कर धृतराष्ट्र का हृदय फटा सा जाने लगा, उन्होने तुरन्त उस से, इस उदासीनता और निराशा का कारण पूछा। दुर्योधन ने अपने मन की गाठ खोलते हुए इन्द्रप्रस्थ की सुपमा, वहां को स्मृद्धि, पांडवों के यश की वृद्धि और द्रौपदी के उपहास की सारी बातें बता दीं। और अन्त मे बोला- 'अब आप ही बताइये मुझे चैन आये तो क्यो कर। मेरे लिए तो दुदिन पा रहे हैं, न जाने कब पाण्डव शक्ति शाली होकर राज्य छीन ले। यदि मुझे राजा भी बने रहने दिया, तो भी आज तो द्रौपदो अपमान करती है. कल उसके बच्चे मुझे भी सभाओं में अपमानित किया करेंगे। सच पूछो तो पिता जी. पाण्डवो की उन्नति क्या हो रही है, मेरे हृदय पर कुल्हाडे चल रहे है।" ' , धृतराष्ट्र में दुर्योधन की चिन्ता का कारण पाण्डवो की उन्नति जान कर कहा- "बेटा सन्तोप रक्खो। तुम्हारी आशाए निर्मल हैं। तुम्हे ..... • " दुर्योधन ने वात काटते हुए उपदेश देना प्रारम्भ कर दिया"पिता जो मन्तोप क्षश्रियोचित धर्म नहीं है। उरने अथवा दया करने से राजानों का मान सम्मान जाता रहता है, उनकी प्रतिष्ठा नहीं रहती। बुधिष्ठिर का विशाल व धन धान्य ने भरपूर राज्य भी देसकार मुन ऐसा नगता है कि मानो सम्पति और राज्य तो कुछ है ही नहीं। पिता जी मैं तो यह महसूस कर रहा हूं लिपाटव Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत उन्नति की ओर जा रहे हैं और हम पतन की ओर ।" बेटे पर-असीम प्यार के कारण - उसे व्याकुल देख कर घृतराष्ट्र से न रहा गया, उन्होने बड़े प्रेम से दुर्योधन को समझाना चाहा बोले-बेटा! तुम्हारी ही भलाई के लिए कहता हूं, पाण्डवो से बैर मत करो युधिष्ठिर किसी प्रकार तुम से बैर नही रखता, वह कभी किसी के प्रति भी शत्रुता नही रखता, वह धर्मराज है अपने ही भाई से भला क्यो बैर रक्खेगा। उसकी शक्ति हमारी ही शक्ति तो है। उसने जो ऐश्वर्य प्राप्त किया है उस पर हमारा भी अधिकार है। जो उसके साथी हैं, वही हमारे भी हैं। उसे जो भी यश प्राप्त हुआ उस से हमारे कुल की भी तो कीति मे वृद्धि हुई। उसका कुल जितना उच्च है, उतना तुम्हारा भी है। वह रण कौशल मे जितना प्रवीण है. उतने ही तुम भी हो। तब फिर अपने ही भाई की उन्नति को देखकर तुम्हारे मन मे द्वेषानल क्यों भड़कता है ? बेटा ! तुम विश्वास रक्खो वह कभी तुम्हारी वद्धि के प्रति ईर्ष्या नहीं करेगा। उस से बैर रखना तुम्हे शोभा नहीं देता।" . धृतराष्ट्र को सीख दुर्योधन को पसन्द न आई, वह झुझला) कर बोला-"पिता जी ! आप वृद्ध हो गए है, पर अभी तक आप को लोगो को समझाना नहीं आया। आप तो बस युधिष्ठिर की प्रशंसाओं के तूमर बाधते रहते है। आप को क्या पता कि पाण्डव शनैः शनैः शक्ति प्राप्त कर के हम से राज्य छीनने का बडा यत्न कर रहे है । आप की सीख पर चला तो मैं कही का नही रहूगा ।" कहते कहते दुर्योधन का गला रुध गया, पिता का हृदय पसीज गया, पर वह थे, नीति शास्त्र के पारगत, वोले- "वेटा मैं तुम्हे दुखी नही देखना चाहता, तुम्हारे प्रति मेरे हृदय में कितना प्रेम है, यह तुम ने कभी समझने का प्रयत्न ही नही किया । मैं जो कहता हूं तुम्हारे हित के लिए ही कहता हू। पाण्डवो को किसी भी प्रकार प्राज परास्त करना सम्भव नही है। इस लिए तुम शक्ति सचय करो, इसी मे तुम्हारी भलाई है। शत्रु को कभी प्रेम से और कभी शक्ति से जीता जाता है।" Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्योधन का पडयन्त्र ५९.. दुर्योधन पिता को राजनीति का पाठ पढ़ाते हुए बोला"पिता जी ! आप की दशा उस कलुछी के समान है जिसे पाक में रहकरभी उस के स्वाद का ज्ञान नहीं होता। आप नीति शास्त्र मे पारगत होते भी नीति को नहीं समझते। पिता जी ! नीति और ससार की रीति-नीति एक दूसरे से भिन्न होती है। सन्तोप और सहन गीलता राजानो का धर्म नही है। राजा का धर्म है कि वह किसी भी प्रकार शत्रुओं पर विजय प्राप्त करे, चाहे उसे लोग न्याय कहे, अथवा अन्याय लोगो की चिन्ता नही करनी चाहिए।" उसी समय शकुनि भी बोल उठा- “राजन् ! दुर्योधन ठोक कहता है, अव की वार इन्द्रप्रस्थ मे द्रौपदी और पाण्डवो ने जितना । दुर्योधन का अपमान किया है, उसे देखते हुए पाप को कुछ करना , ही चाहिए। यदि इस समय आप ने दुर्योधन का साथ न दिया तो । आपको अपने बेटे से हाथ घोने पडेंगे।" इसके पश्चात शकुनि ने' दुर्योधन के निश्चय को कह सुनाया, इसका मनोवछित प्रभाव पडा, धृतराष्ट्र द्रवित हो गए, उन्हो ने दुर्योधन पर प्रेम दर्शाते हुए पूछा - “यदि तुम अपनी ही इच्छानुसार काम करने के इच्छुक हो, तो वताओ, मैं उसमे क्या सहयोग दे सकता हू। अपने ज्येष्ठ पुत्र के न हित के लिए मैं प्रत्येक उचित कार्य करने को तैयार हू।" - तव शकुनि ने सलाह दो-"पाप तो केवल युधिष्ठिर को - चौसर खेलने के लिए निमत्रित कर लीजिए । वस पासो के चक्कर मे युधिष्ठिर को परास्त करके श्राप के पुत्र की इच्छा पूति । कर दी जायेगी। दुर्योधन का दुख दूर करने का इस समय बस एक । यही उपाय है, न लडाई झगड़ा. न रक्त पात, हलदो लगे न फटकारी रग चोखा ही चोखा।" धृतराष्ट्र ने चौसर के सेल मे युधिष्ठिर की सम्पति छीन नेने का पहले तो विरोध किया, पर दुर्योधन और नकुनि दोनों ने पुत्र ? स्नेह को भडका फर और अनेक बाते इधर उधर से मिलावर उन्हें 7 नरम नार लिया। जब शकुनि और दुर्योधन ने देखा कि न. गन: तराष्ट्र पर पुरा कुर्मप्रणा का प्रभाव पलने लगा है तो दुर्योधन अन्त १ मे बोला-"पिता जी! उद्देश्य को पूर्ति के लिए जो भी उपाय हो Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-महाभारत: सके, किया जाना उचित है- तलवार- और बाण ही. तो शस्त्र नहीं है, . प्रत्येक वह साधन -शस्त्र की गणना में ही आता है, जिस से विरोधो को परास्त किया जा सके। किसी के कुल या जाति से . यह नही जाना जाता कि वह शत्रु है अथवा मित्र जो भी हृदय को दुख पहुचाये, और जो भविष्य के लिए सकट खड़ा कर सकता है, वहीं शत्रु है, फिर चाहे वह सगा भाई ही क्यो न हो । सन्तोष कीसीख तोआदमी. को-पगु बनाने के लिए दो. जाया करती है, क्षत्रिय यदि सन्तोष करने लगे तो फिर उनके शस्त्रो को जग खा- जाये--और वे कभी अपने राज्य व शक्ति का विस्तार न कर सके। सब से अच्छा क्षत्रिय वह है जो भीवी सकट को पहले से ही यह पहचाने और जो भविष्य मे दुखदायी हो सकता है, इससे पहले कि वह उस योग्य हो,' पहले ही दबोच कर ठण्डा करदे । - मुसीवत की पहले से ताड़ कर उसे रोकना ही बुद्धिमातो का कर्तव्य है । 'पिता जी !: वृक्ष की जड मे चीटियों का बनाया हुआ विल जिस प्रकार एक दिन सारे वृक्ष के ही नाश का कारण बन जाता है उसी प्रकार हमारे भाई भी एक दिन हमारे नाश-का कारण बनेगे, इसलिए क्षत्रियो के धर्म का पालन का प्रत्येक सम्भव उपाय से उन को शक्ति कम करना हमारा कर्तव्य है। फिर हम उन्हे भूखोथोड़े ही मारने वाले है, उन्हे उतनी ही छूट देगे, उतने ही साधन उन्हें प्राप्त होगे, जिससे वे सुख पूर्व जीवन व्यतीत करे पर हमारे नाश का कारण न बने ।" - दुर्योधन की बात समाप्त होते ही शकुनि वोल उठा-"राजन् ! श्राप बस युधिष्ठिर को खेलने का निमत्रण देदे । राज रीति अनुसार वह अवश्य ही तैयार हो जायेगा, शेप सारी जिम्मेवारी मुझ पर छोड दे। दुर्योधन ने फिर कहा-पिता जी! बिना किसी प्रकार के जोखिम और युद्ध तथा रक्त' पात के शकुनि मामा पाण्डवो की सम्पत्ति जीत कर मुझे देने को तैयार है. आप इस अवसर से. लाभ उठाइये। यदि ऐसे सुन्दर अवसर पर भी आप ने कायरता दिखाई तो फिर समझ लीजिए, ऐसा स्वर्ण अवमर फिर नही आने वाला। - धतराष्ट्र बोले- वेटा!"मुझे इस प्रकार पाण्डवों की सम्पत्ति Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्योधन का षड़यन्त्र हीन करना अच्छा नही जंचता ।" - . . "पिता जी ! आप तो वस उचित. तथा अनुचित के चक्कर में ही रहेगे, और शत्रु अपना काम कर जायेंगे। जब साप निकल जायेगा, तब- लकीर पीटने से क्या होगा। • श्राप इस धर्म और राज्य-नीति,को उठाकर ताक पर रख दीजिए और थोडी देरी के लिए केवल राजा बन कर सोचिए। दुर्योधन वोला । उसी समय शकुनि ने भी उसका समर्थन कर दिया-महाराज उसमे हिचकिचाने की क्या बात है ? चौसर का खेल कोई हमने तो ईजाद किया नहीं। हमारे पूर्वज भी तो इसे खेलते आये है, और कितनो ने ही इस हथियार से अपनी मनोकामना पूर्ण की है। यह एक ऐसा-शस्त्र है, जो बिना रक्त बहाये ही किसी को विजय और किसी को पराजित बना देता है। - उम मे अन्याय को तो कोई बात नही।". . . . . . । - धृतराष्ट्र बोले 'अच्छा तो मैं विदुर से और सलाह कर लूं। वह बडा बुद्धिमान है, उसकी सलाह बडी नपी तुली रहती है।" ... दुर्योधन सुन कर बोला-पिता जी । मुझे तो कभी कभी लज्जा आने लगती है कि मैं उस बाप का बेटा हू. जिसे अपनी बुद्धि पर तनिक 'सा भी विश्वास नही है। विदुर चाचा तो मुझ से-जलते है, चे पाण्डवो से ही स्नेह रखते है, वे भला आप को ऐसी कोई सलाह क्यो देंगे जिस मे मेरा लाभ और पाण्डवो की हानि होम वे तो आप को उपदेश देगे और अपने उपदेशो से आप को शांत कर देंगे". . . . . । .. शकुनि ने भी कहा -"राजन् ! आप राज्य के स्वामी है; आप को किसी की सलाह के मोहताज नही रहना चाहिए। यह दुनिया वडी चालबाज है। लोग अपने अपने स्वार्थों की रक्षा और अपने चहेतो के भले के लिए ही कोई सलाह दिया करते हैं। क्या प्रापको अपने बेटे से अधिक विदुर जी पर विश्वास है।" तात्पर्य यह है कि दुर्योधन और शकुनि ने धृतराष्ट्र को अपनी बात मनवा ही दी धृतराष्ट्र ने वायदा,कर लिया कि युधिष्ठिर को - 1 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत खेलने का बुलावा वे भेज देंगे । दुर्योधन और शकुनि वहुत प्रसन्न हुए। दोनो ने मिल कर इन्द्रप्रस्थ मे देखे भवन जैसा ही एक सभा मण्डप तैयार कराया और फिर बुलावा भेजने को कह दिया। - ६२ एक दिन धृतराष्ट्र ने विदुर जी को बुला कर चुपके से इस सम्बन्ध मे उन से भी राय ली । विदुर जी ने इस बात का विरोध किया । पर धृतराष्ट्र ने अन्त में यह कह कर बात समाप्त कर दी कि- " जो हो मुझे भी ऐसा लगता है कि प्रारब्ध हमें नचा रही है । नाग होना है, तो होगा ही । उस से हम कैसे बच सकते है | अव तो मैंने निर्णय कर ही लिया, इस लिए तुम जाकर युधिष्ठिर को सभामण्डप देखने और खेलने का निमंत्रण दे आओ ।" "मुझे ऐसा लगता है कि हमारे कुल का नाश होना अब आरम्भ होने वाला है । आपकी ग्राजा मानेकर मैं चला भी जाऊ तो मेरी ग्रात्मा मुझे बारम्वार धिक्कारती । शास्त्रो मे जो सात दुर्व्यसन गिनाए गए हैं, जुआ उन में से प्रथम है । आप स्वयं उसे खिलाये वह बड़े दुख की बात है ।" विदुर जी ने कहा । → - धृतराष्ट्र ने कहा - " विदुर जी । तुम्हारी बात युक्ति संगत होते हुए भी ग्राज मैं उसे अस्वीकार करने पर विवश हूँ। क्योकि मैं दुर्योधन से वायदा कर चुका है। यदि तुम्हारी आत्मा इन्द्रप्रस्थ जाने को स्वीकार नही करती, तो तुम्हारा जाना उचित नही है । में किसी दूसरे को भेज दूंगा ।" विदुर जी धृतराष्ट्र के इस निश्चय को सुन कर क्षुब्ध होकर वहाँ से चले गए । ग्रन्त मे जयद्रथ को भेजना तय पाया । जयद्रथ के प्रस्थान करने से पूर्व दुर्योधन और शकुनि ने उसे बहुत कुछ समझाया पढाया । I ᄉ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . * छटा परिच्छेद * ******※※※※※ - बाजी । - %%%%%%%%%%出出出 हस्तिनापुर में सभा मण्डप (भवन) तैयार हो जाने पर शकुनि और दुर्योधन का सिखाया-पढाया जयद्रथ इन्द्रप्रस्थ पहुचा। प्रचानक जयद्रथ के इन्द्रप्रस्थ पहुच जाने पर युधिष्ठिर ने उस का बंडा आदर सत्कार कर के पूछा - कहिए, हस्तिनापुर मे तो सब सकुशल हैं ?" जयद्रथ बोला-"सभी सकुशल एव प्रसन्न हैं। आप को हस्तिनापुर ले चलने के लिए आया हू ।" ___युधिष्ठिर ने गद गद हो कर कहा-"अहो भाग्य 1. मुझे चाचा जी ने याद किया। क्या कोई उत्सव हो रहा है ?" . __ "धृतराष्ट्र ने हस्तिनापुर मे एक सुन्दर सभामण्डप बनवाया है, वास्तव में आज पृथ्वी पर उस के समान सुन्दर एव मनोहर अन्य कोई भवन नही होगा। लाखों रुपये व्यय कर के बनवाया हुआ यह भवन सभी को पसन्द आया है, पसन्द ही नही, देखने वाले उस की मुक्त कण्ठ से प्रशसा कर रहे हैं। दुर्योधन की इच्छा थी कि आपको भी वह भवन दिखाया जाय। अत धृतराष्ट्र ने आप को अपने परिवार सहित हस्तिनापुर चलने का निमंत्रण देने के लिए भेजा है।" जयद्रथ ने कहा। धर्मराज युधिष्ठिर ने धृतराष्ट्र के निमत्रण को सहर्ष स्वीकार कर लिया। अपने अन्य भ्राताओ को बुलाकर उन्हो ने धृतराष्ट्र का निमत्रण और अपना चलने का निर्णय सुना दिया। सभी भ्राता Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत धृतराष्ट्र के दर्शन करने के इच्छुक थे, वो सोचते थे हस्तिनापुर जा कर उन्हे विदुर चाचा और भीष्म पिता मह से भी भेंट करने का अवसर प्राप्त होगा और प्रेम भाव से दुर्योधनके मन मे धधक रही ईर्ष्या दावानल को शान्त करने का प्रयत्न भी कर सकेंगे, अतएव सभी चलने को तैयार हो गए। -. . - - -. पाण्डव परिवार सहित हस्तिनापुर की ओर चल पडे। वे बड़े प्रसन्न थे, और हस्तिना पुर के नर नारियो, परिवार के प्रतिष्ठित वृद्ध जनों से भेंट करने की आशा से आनन्दित हो रहे थे, हस्तिना पुर पहुचने पर दुर्योधन शकुनि आदि ने उनका बहुत आदर सत्कार किया। एक सुन्दर भवन मे. उन्हे ठहरा दिया गया दूसरे दिन स्नान आदि करके सभा ने मण्डप देखा वे. बडे प्रसन्न हुए और मुक्त कन्ठ से उसकी प्रशसा की। भवन का कोना कोना उन्हें दिखाया गया, जव मुख्य स्थान पर वे पहुचे तो शकुनि ने कहा"युधिष्ठर ! खेल के लिए चौपड बिछा हुआ है, चलिए दो हा लें।" 'राजन् ! यह खेल ठीक नहीं है। इस मे कोई साहस के तो बात होती नही, व्यर्थ ही समय जाता है और नये उत्पात खर हो जाते हैं। धर्म ग्रथो और सर्वज्ञ मुनियो का उपदेश है कि पारं का खेल खलना. धोखा देने के समान है, यह मनुष्य के नाश क कारण बनता है। क्षत्रियो के लिए तो रण का क्षेत्र जीत प्रौ हार के लिए होता है। पासा फेंक.कर भाग्यो का निर्णय करन अच्छी वात नही है।" -युधिष्ठिर ने शिष्टता पूर्ण उत्तर दिया। यद्यपि यह सब बातें युधिष्ठर ने सहज भाव से कही थी पर उन के मन में जरा सा खेल लेने की भी इच्छा हो रही थी। शौकीन जो ठहरे। हा, उन्हे यह भी मान था कि यह खेल बुरा है, इस लिए इन्कार भी कर रहे थे। . . . शकुनि ने तुरन्त कहा-"महाराज ! आप जैसा खिलाडी भी ऐसी बातें करे तो आश्चर्य की बात है। इस में तो कोई धोखे का बात ही नहीं है। शास्त्र पढे हुए पडित भी आपस में शास्त्राथ किया करते हैं, जो अधिक विद्वान को परास्त कर देता है। युद्ध Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - वाजी मे भी शस्त्रो विद्या का पारगत नौसिखिये को परास्त कर देता है। यही बात इस खेल में भी है। · मजा हुआ खिलाड़ी कच्चे खिलाडी को हरा देता है। यह भी कोई धोखे की बात हुई.?-आप, को कदाचित हारने का भय है, इस लिए आप धर्म की आड़ ले रहे हैं।' __युधिष्ठिर को अन्तिम बात चुभ गई, उत्तेजित होकर बोले- "र,जन् ! ऐसी बात नहीं है, आप आग्रह करते हैं तो मैं खेलने को तैयार हू, मैं राजवशो की रीति के अनुसार खेलने को , सदा तत्पर हू, पर मैं समझता उसे बुरा ही हू ।" युधिष्ठर ने दुर्योधन के प्रस्ताव को स्वीकार करते हुए कहा"भाई के प्रेम पूर्ण निमत्रण को भला मैं कब अस्वीकार कर सकता हू। पर मेरे साथ खेलेगा कौन?" __ "मेरी ओर से मामा शकुनि आप के साथ खेलेंगे, पर दाव पर लगाने के लिए रत्नादि जो धन चाहिए वह मैं दूगा- दुर्योधन वोला। युधिष्ठिर ने सोचा था कि यदि दुर्योधन खेलेगा, तो उसे वे आसानो से ही हरा देगे, पर जब शकुनि के साथ खेलने की बात आ गई तो वे हिचकिचाने लगे, क्योकि शकुनि पुराना मजा हुआ खिलाडी है, इसे वे अच्छी तरह जानते थे। वोले-"मेरी राय है कि किसी को दूसरे के स्थान पर न खेलना चाहिए। वह खेल के : साधारण नियमो के विरुद्ध है ।" "अच्छा तो न खेलने का अव दूसरा बहाना बना लिया"शकुनि ने हंसते हुए कहा ।' - युधिष्ठिर भला यह कव सहन कर सकते थे, कि कोई उन्हे बहाने वाज कहें, इस लिए, उत्तेजित होकर बोले-"कोई बात नहीं मै खेलूगा ।" उसी समय भीम बोल पड़ा- "भ्राता जी ! पाप धर्मराज होकर क्या करने जा रहे हैं। अब आप राजकुमार नहीं महाराजा घिराज हैं । जुआ खेलना ,धर्म के प्रति कूल है। इस दुर्व्यसन ने Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत कितने ही परिवारो' का नाश कर डाला कितनों को राजा से । रंक बना दिया। - यह खेल नही झूठ, फरेब और कपट का दूसरा नाम जुआ है। आप तो धर्म नीति और राजनीति मे पारगत है, . फिर भी जुआ खेल रहे है, यह बात साफ बता रही है कि आप अपने को स्वय ही घोर सकटो मे फंसा रहे है ।" , दुर्योधन ठहाका मार कर हसा और अन्त में बोला-"यह भी खूब रही। सभी धर्म और नीति सिखाने वाले हो गए । भाई भाई मे क्रोडाएं भी होती हैं. और मनोरजन भी। इस का मतलब क्या यह है कि महाराजाधिराज हैं तो भाईयो के साथ खेलने पर भी प्रतिवन्ध लग गया ?" युधिप्टिर ने भीम को शात करके कहां-"भैया भीम ! राज वश की रीति के अनुसार मै खेलने से इन्कार नही कर सकता। फिर यह जुआ, जुए की भाति नही, भाईयो का मनबहलाव होते ____ इतने मे विदुर जी भी आगए, पांचो भाईयो ने चरण छू कर प्रणाम किया, चौसर खेलने की तैयारी देख कर विदुर जी ने संकेत से युधिष्टिर को रोकते हुए कहा-“बेटा युधिष्टिर तुम तो धर्म ग्रथों के विद्वान हों, तुम ने शास्त्रों में बताए गए त्याज्य दुर्व्यसनों को भी पढा है । तुम भी नल के इतिहास की पुनरावृति करना चाहते हो, तो खेलो और जी भर कर खेलो। क्योकि वश की उन्नति के दिन तो हवा हुए, पाण्ड्ड ने राज का विकास किया, तो तुम उसका मालियामेट कर डालो। कोई बात नही है, दुर्व्यसन तुम नहीं अपनायोगे तो नष्ट हुए दरिद्र लोग अपनायेगे क्या ?" ताने भरी बात सुनकर युधिष्ठिर झिझकने लगे, तभी शकुनि ने कहा-"पाप भी कैसी बाते कर रहे हैं, कितने दिनों में तो युधिष्ठिर हस्तिनापुर आये हैं, इस शुभ अवसर पर मन वह लाव हो जाय तो क्या डर है ?" इसी प्रकार की वातो से युधिष्ठिर को शकुनि और दुर्योधन ने खेलने पर तैयार कर लिया, युधिष्ठिर की आत्मा तो Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - बाजी .. कहती थी कि यह बुरा हो रहा है, पर दिल कहता था कुछ बाज़ी खेलने मे क्या बुराई है। धन तो हाथ का मैल है, कुछ हार भी गया तो कौन सी बात है।-आखिर हृदय की बात चल गई। और खेल प्रारम्भ हुआ, सारा मण्डप दर्शकों से खचाखच, भरा हुआ था. द्रोण, भीष्म, तथा, विदुर और धृतराष्ट्र जैसे वयो वृद्ध भी विराजमान थे। विदुर जी के मुख पर खेद और क्षोभ के भाव झलक रहे थे, भीष्म ने खेल प्रारम्भ होने से पूर्व कहा"युधिष्ठिर को चौसर पर देख कर ही मुझे बहुत दुख हो रहा है। न जाने क्यो मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि आज कुछ अनर्थ होने वाला है।' उसी समय विदुर जी वोले--"और मुझे तो ऐसा लगता है कि यह बाजी इस वश के पतन का श्री गणेश कर रही है। युधिष्ठिर स्वय अपने धर्म पथ को भूल कर एक दुर्व्यसन मे अपने आप को झोक रहा है, मानो भाग्य ही उस से और हम से,रूठ रहे है ।" द्रोणाचार्य ने कहा- "युधिष्ठिर । न जाने क्यो आज मेरा मन रो रहा है ।" उस समय, दुर्योधन उनकी ओर आग्नेय नेत्रों से देख रहा था, क्रुद्ध होकर वोला-"तो क्या आप लोग यह नहीं चाहते कि हम दो भाई एक स्थान पर बैठ कर मनोरजन के लिए कुछ खेल भी ले " धृतराष्ट्र ने बेटे को ढाढस बधाने और पीठ थपथपाते हुए कहा-"नही, नही मनोरजन करने या मन बहलाव से तुम्हे कौन रोकता है ? बस किसी प्रकार का -झगडा फिसाद नही होना चाहिए।" . ... . .. शकुनि मामा खेल मे हो और कोई अनहोनी घटना न घटे यह कैसे हो सकता है ?" असन्तुष्ट भीम ने कहा। "कहिए युधिष्ठिर महाराज ! क्या इरादा है, मैदान मे Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८' जैन महाभारत डटनी है या भाग जाना है ।" " शकुनि ने युधिष्ठिर को उत्तेजित होकर कहा "पाण्डवों ने कभी भाग जाना नहीं सीखा। पासा फेको ।" युधिष्ठिर ने उत्तेजित होकर कहा । H किन्तु उन्हे यह पता नही था कि यह चौसर का खेल उन से सारी सम्पति छीनने के लिए रचा गया है । और जो पासे, फेके जा रहे है, वे विशेषतया युधिष्ठिर को ही बरबाद करने की इच्छा से बनवाये गए हैं । उन्हे मुख्यता इसी खेल के लिए बनवाया गया था, जिन को फेकने का तरीका और जिन से हर वार जीतने का उपाय केवल शकुनि को ही ज्ञात था । ' उन पाँसों से शकुनि जब चाहे जीत, जब चाहे हार सकता था, एक प्रकार से उन की कला शकुनि के हाथ में थी । इस लिए खेल मे जीतने का श्रेय चाहें किसी को मिले, पर वास्तव मे श्रेय था उस को, जिसने यह अदभुत पाँसे बनाये थे । . यह बात साफ होने पर भी कि यह खेल साबित होगा, कुल वृद्ध उसे रोक नही पा रहे थे । पर उदासी छाई हुई थी । कौरव राजकुमार बडे चाव से देख रहे थे । झगड़े की जड उन के चेहरो ज्यों ही पासों को हाथ लगाया गया, विदूर जो ने कहा“यंत्र का रहस्य उसका स्वामी ही जानता है, युधिष्ठर, खेलने से पहले अपने अपने को तोल लो ।” परन्तु खेल आरम्भ हो गया । पहले रत्नो की बाज़ी लगी, फिर मोने चादी के खजानो की, उसके बाद रथों व घोडो की, तीनो दाव युधिष्ठिर हार गए । तव चतुर शकुनि ने एक वार युधिष्ठिर को जिताना चाहा ताकि युधिष्ठिर दत्तचित्त हो कर खेलें में लगे रहे, खेल बन्द न करदे । समस्त आभूषण दाव पर लगाए गए, उस वार युधिष्ठिर जीत गए । फिर क्या था युधिष्ठिर का हौसला वढ गया, वह जोश से खेलने लगे । उसी दम भीष्म जी बोले Wed 1 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - बाजी--- जीते तो .चस्का पडे, हारे लेत उधार । । । ना मुराद इस खेल की, जीत भली न हार फिर पासे फेके गए, युधिष्ठिर ने जीते हुए धन और दासियो __ को दाव पर लगा दिया। उसे वे हार गए। फिर तो अपनी सारी सेना की बाजी लगादी और हार गए। एक बार सब हाथी । लगा दिए, उन्हे भी हार गए। शकुनि का पासा मानो उस के . ।इशारो पर चलता था। , खेल चलता रहा। युधिष्ठिर बारी बारी से अपनी गाये। - भेड-बकरियां , दास दासिया, स्थ. घोडे, हाथी, सेना और " यहा तक कि देश की प्रजा को भी हार बैठे । परन्तु उनका चस्का न छूटा, तव भीम ने हस्तक्षेप करते हुए कहा - "भ्राता जी] अब बहुत हो चुका ।, शास्त्रो मे जो कहा है, उस का, परिणाम मिल गया.. अब आप इस नाश कर्ता खेल को बन्द कीजिए। क्यो दुनिया भर के सामने लज्जित होते हैं ? क्यो __ अपने माथे पर कलक लगाते हैं। । उस समय शकुनि बोला-“भोम तुम चुप रहो। जव ६ इधर से कोई नही बोल रहा, तो तुम क्यो हस्तक्षेप करते हो। ३१ जी हार गए, क्या पता दूसरे दाव पर उसे युधिष्ठिर जीत ले ? 2. क्या हार कर वापिस जाना चाहते हो ?' स . युधिष्ठिर के मन मे, जो अाशा करवटे बदल रही थी, और सहारा मिला, वे भीम को शात करते हुए बोले-' भीम तुम चुप रहो। इस बार न सही, तो अबको बार तो मुझे और भी भाग्य आज़मा लेने दो ।" - भाइयो के शरीर पर जो ग्राभूषण थे, वह भी उन्होंने दाव तो पर लगा दिये, और हार गए। - और कुछ शेष है ?" शकुनि ने पूछा । । । । -- . युधिष्ठिर यू हार मानने वाले न थे, भला वह कैसे सहन ___कर लेते कि वे जुए मे चारो खाने चित हो गए, बोले- 'यह Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० जैन महाभारत सावले रग का सुन्दर युवक, मेरा भाई नकुल खंडा है, वह भी. मेरा धन है, इसकी बाज़ी लगाता हूं चलो।" - "प्रच्छा तो यह बात है, तो यह लीजिए, आपका प्यारा भाई अव हमारा हो गया " उत्साह से कहते कहते पासा फेका और बाजी मार ली। विदुर जी चिल्ला उठे-धिक्कार है, धिक्कार है, यह मन बहलाव हो रहा है या अत्याचार। तुम लोगों की धूतंता की भी कोई सीमा है। धन दौलत, दास, दासी, हाथी घोडे और प्रजा, को हार गए, अब भाइयों की भी बाज़ी लगाने लगे ? तुम लोगोंको लज्जा आनी चाहिए। यह खेल नही, निर्लज्जता और अन्याय का स्वाग हो रहा है। सुनते हो तराष्ट्र ! 'तुम्हारे चहेते मनुष्यो को बाजी पर लगा रहे है। तुम्हारे शकुनि और दुर्योधन कौरव वंश के मुख पर कालिख पोत रहे है। इन्द्रप्रस्थ का राज्य छीन लिया अब पाण्डवो को धातु की भांति प्रयोग कर रहे हैं। धृतराष्ट्र कुल की नाक बचानी है तो उठो इन पासों को भाड़ मे फेक दो और शकुनि को निकाल बाहर करो।" दुर्योधन जीत की खुशी मे उछल रहा था, उसे जीतने का इतना नगा था कि वह विदुर जी को ललकारने लगा-आप क्यो शोर कर रहे है ? जब खेलने वाला मनुष्यो को दांव पर लगा रहा है, तो हम क्या कर सकते हैं ?" शकुनि ने उसी समय कहा--"युधिष्ठिर को अपने भाग्य पर विश्वास है, वे यूही नहीं खेल रहे, एक ही दांव पर वह सव कुछ वापिस ले सकते हैं ?" "भाई धतराष्ट्र ! देख नही सकते, तो सुन तो सकते हैं, वेटा शिष्टाचार को भी भूल गया, उसने लोक लज्जा को भी ताक पर रख दिया, और उधर तुम्हारे भतीजे सव खो रहे है। अब भी कुछ करो।" वदुर जी ने व्याकुल हो कर कहा। धृतराष्ट्र बोले- "मैं तो वृद्ध हो चुका, अव मेरी कौन । सुनता है ?" Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाजी भीष्म पितामह इस दशा को देख कर क्षुब्ध हो गए थे, कहने लगे - " आज क्या होने वाला है ? कुछ पता नही । मुझे तो ऐसा लगता है कि शकुनि के हाथ मे पासा नहीं, बल्कि नगी तलवार है, और उससे वह निर्भय व स्वच्छन्द हो कर कुल मर्यादा, धर्म, नीति और वग की प्रतिष्ठा का वध कर रहा है ।" ७१ धृतराष्ट्र को भी विवश हो कर कहना पड़ा - " दुर्योधन ! बस बस बहुत हो चुका । मैं सुन रहा हू कि प्रत्येक व्यक्ति तुझे धिक्कार रहा है । अब यह महानाशक खेल बन्द कर दे ।" "पिता जी । आप शांत बैठे रहिए, युधिष्ठिर को आज जी भर कर खेल लेने दीजिए ।” – दुर्योधन बोला । " कहिए, अब क्या लगाते हैं, खेलते है या भाग्य को रोते हैं ? शकुनि ने युधिष्ठिर को ताना देते हुए कहा । युधिष्ठिर बोले - "क्यों गर्व करते हो, अब की बार न सही, इस बार तकदीर का पासा पलटेगा । यह जो मेरा भाई सहदेव है जो सारी विद्याओ मे निपुण है, विख्यात पण्डित की बाजी लगाना उचित तो नही, फिर भी लगाता हू । चलो देखा जायेगा ।” शकुनि ने पासे को हाथ मे लिया और उत्साह से कहा - निश्चित हो कर खेलिये भाग्य हो जब कि साथ | पाँसा शकुनि हाथ है, तो जीत भी अपने हाथ || यह चला और वह जीता - कहते हुए पासा फेंक दिया और प्रासा गिरते ही प्रफुल्लित हो कर उछल पडा । बोला - "देखिये बाज़ी तो स्पष्टतया हमारी है, कहिए अब किस की बारी है ।" युधिष्ठिर चिन्ता मग्न हो गए, तव शकुनि ने इस आशंका से कि कही युधिष्ठिर खेल न बन्द करदे, कहा “कदाचित भीम और अर्जुन आप की दृष्टि में, नकुल और सहदेव से अधिक मूल्य - वान है ? हा, हो भी क्यों न वे माद्री के बेटे थोड़े ही हैं । सो उन्हे तो आप वाज़ी पर लगाने से रहे ।” Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत युधिष्टिर बोले- " शकुनि, कदाचित ग्राप हम भाईयो में फट डालने का असफल प्रयत्न कर रहे है । अधर्म तो मानो तुम्हारी रंग रंग मे कूट कूट कर भरा है। तुम क्या जानो कि हम पात्र भाईयो के सम्बन्ध कैसे है ?" - युद्ध के प्रवाह में पार लगाने वाली नाव के समान, महान, तेजस्वी, पराक्रम में अद्वितीय, विजय श्री का प्रिय, सर्वगुण सम्पन्न, भ्राता अर्जुन को अब की बार में बाजी पर लगाता हूँ ।" ७२ → शकुनि ने निर्लज्जता से कहा- वाह युधिष्ठिर महाराव वाह | बाजी लगाने वाला हो तो ऐसा हो पर - ř भाग्यवान की जीत है, भाग्य हीन की हार । होनी होत टले नही, यह कर्मो की मार ॥ पासे फेक कर बोला - " लीजिए महाराज अर्जुन भी आप के हाथ से हार गया, अब क्या भीम को बाज़ी पर लगाईयेगा 7 कोई दैविक शक्ति 'मानो युधिष्ठिर को पतन की ओर खीचे ले जा रही थी, वे स्वयं अपने को इस विनाशक खेल से रोकने का प्रयत्न करते, पर अपने पर काबू करने में असफल हो जाते, अपने कर्मों के फल से बधे हुए युधिष्ठिर ने कहा- हा युद्ध मे जो हमारा गुग्रा है, असुरो को भयभीत करने वाला वज्रधारी, इन्द्र सदृश तेजवान, महावली, अद्वितीय साहसी, श्रीर पाण्डव कुल गौरव, अपने भाई भीम को दावपर लगाता हू युधिष्ठिर की बात समाप्त होते होते शकुनि ने पासा फेंक दिया और युधिष्ठिर भीम को भी हार गए । 37 1 1 शकुनि बोला- 'तो ग्राप ही रह गए, कहिए क्या विचार है?" युधिष्ठिर ने कहा - "हा । इस वार मैं स्वयं अपने आप का दाव पर लगाता हूं जो हो, पांसा फेको ।” . “लो, यह जीता" कहते हुए शकुनि ने पांसा फेंका और बाजी भी ले गया । दुर्योधन प्रसन्नता के मारे उछल पड़ा, वह खडा हुआ और Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाजी एक एक करके सब पाण्डवो को पुकारा, घोषणा की कि अब वे उस के दास हो चुके है। शकुनि की दाद देने वालों के हर्ष नाद और 'पाण्डवो की इस दुर्दशा पर तरस खाने वालो के हाहाकार से सारा सभा-मण्डप गूज उठा। इधर सभा मे खलबली मच रही थी, उधर शकुनि युधिष्ठिर से बोला "अब बताइये, क्या लगाते है।" "अब मेरे पास धरा ही क्या है लगाने को, सब कुछ तो हार चुका।"-युधिष्ठिर ने निराशा व उदासीनता - भावो से दुखित हो कर कहा। "नही, आपके पास एक और चीज शेष है, जिसके चरण घर मे आते ही आपको सुख सम्पदा और यश प्राप्त हुआ।"-शकुनि ने द्रौपदी की ओर सकेत करते हुए कहा "मैं तुम्हारी बात समझा नही, ऐसी भला कौन सी वस्तु है" "वही साक्षात लक्ष्मी द्रौपदी, क्या पता उसी के भाग्य से आपको विजय प्राप्त हो जाये ।" शकुनि ने युधिष्ठिर को फासने के लिए कहा। ___ - और जुए के नशे मे चूर युधिष्ठिर, 'जब तक स्वास, तब तक आश" की लोकोक्ति के अनुसार कह बैठे-'तो चलो, मैं उस रूपसि, लक्ष्मी, द्रौपदी की भी बाजी लगाई- 'यह मुंह से निकल तो गया, पर फिर वे स्वय हो विकल हो गए, उसके परिणाम को सोच कर वे कांप उठे । युधिष्ठिर की वात पर सारी सभा मे हा हा कार मच गया, वृद्धजनो की ओर से "धिक्कार धिक्कार" की आवाज आई। विदुर जी बोल उठे-"जुए के नशे मे अन्धो ? क्या सती द्रौपदी की लाज का भी जुना खेल रहे हो। तुम मनुष्य हो या पशु । देखो इस पाप से कही आकाश न टूट पडे ।" कुछ लोग बोले-"छि छि कैसा घोर पाप है ?" कुछ लोगो के नेत्रो मे अश्रुधार बह निकली, भीष्म और द्रोणाचार्य व्याकु Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ जैन महाभारत हो उठे, कितने ही लोग पसीने मे नहा गए। परन्तु दुर्योधन और उसके भाई मारे खुशी के नाचने लगे, पर युयुत्सु नाम का धृतराष्ट्र का एक बेटा शोक सन्तप्त हो उठा, उसके मुख से निकल हो तो गया- "जब यह घोर पाप होने लगा, तो कुरु वश के नाश के दिन ही आ गए समझो ।"- और मारे लज्जा के उसने अपना सिर झुका लिया। शकुनि हर्ष चित्त हो कर बोला अन्तिम बाजी है यही , यह भी मेरे हाथ। -- बनी द्रौपदी भी गुलाम, अपने पति के साथ ॥ - और उसने पांसा फेक दिया। आनन्दित हो कर उसने शोर मचाया-'यह लो, यह बाजी भी मेरी ही हो गई।" - दुर्योधन को तो जैसे मन इच्छित फल मिल गया, वह विजय से मदान्ध हो कर विदुर जी को आदेश देता हुआ बोला- 'आप अभी रनवास मे जाये और उसे तत्काल यहां ले आये, आज से वह हमारी दासी है, उसे हमारे महल मे झाड़ देने का काम करना होगा आज मैं उस चुडैल से अपने अपमान का अच्छी तरह बदला लूंगा।" विदुर जी को दुर्योधन की बात से बडा क्रोध आया, वे बोले "मूर्ख, क्यो मदान्ध हो कर अपनी मृत्यु और कुल के नाश को निमन्त्रण कर रहा है। पाप की ऐसी पट्टी तेरी आँखो और बुद्धि पर वन्ध गई है कि मानवीय व्यवहार को भी भूल गया। सती द्रौपदी के लिए तेरे मुख से ऐसे शब्द निकलने लगे कि कोई गवार व्यक्ति भी अपने भाई की स्त्री के लिए नही कह सकता। अपने विछाये हुए जाल में युधिष्ठिर को फांस कर क्या अब तू इतना पाप भी करने पर उतारु हो गया है कि एक सती की आबरू पर भी हाथ उठाने को तैयार है । कुरू वश के मस्तक पर कलंक लगाने से पहले, यह तो सोचा होता, कि जिन्हों ने अपनी बल, बुद्धि से इतन बड़े पृथ्वी खण्ड पर राज्य किया है, वह इस लिए नही कि किसी एक Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ -- “बाजो की दुष्टता से उन के इतिहास पर- ही कालिख पुत जाये। अपने इस बूढे अन्धे बाप की प्रतिष्ठता का तो ध्यान रक्खा होता।" दुर्योधन को फटकारने के पश्चात विदुर जी सभा सदों को सम्बोधित करते हुए बोले-“अपने को हार चुकने के पश्चात युधिष्ठिर को कोई अधिकार नही कि द्रौपदी को वाजी पर लगाए,, साथ ही सती द्रौपदी कोई किसी की सम्पत्ति नही है, वह जीवन सगिनी है, तो इसका यह अर्थ 'नहीं हो जाता कि उसे पशुओ की भाँति किसी को सौंप दिया जाय। पाचाल राज्य की राजकुमारी को जुए मे-घसीटने का पाप करने का अधिकार किसी को नही है, उस का अपना स्वत. का अस्तित्व है । अतएव द्रौपदी को अपमानित करना एक घोर अन्याय है । मुझे ऐसा प्रतीत होता है, कि कौरवों का अन्त समीप आ गया है। इस लिए अपने ही हित की वाते उन्हे कडवी लगने लगी हैं, और अपते ही हाथो अपने लिए गड्ढा खोद रहे हैं। आप लोग ऐसे अत्याचार को रोकने का प्रयत्न कीजिए, आखिर आप भी तो इन्सान है, क्या हमारे बहू बेटियां नहीं हैं ? क्या हम सभी पगु बने हुए इस जघन्य, व पाशविक अत्याचार को देखते रहेगे। यह खेल नही कपट जाल है।" उपस्थित लोगों में से कितने ही चिल्ला उठे-"विदुर जी ठीक कहते हैं, द्रौपदी को बाजी पर नहीं लगाया जा सकता वह नही हारी गई। यह युधिष्ठिर की अनाधिकार चेप्टा थी " विदुर जी की बातो और लोगों के शोर को सुन कर दुर्योधन बौखला उठा, उसने अपने सारथी, प्रातिकामी को बुला कर कहा “विदुर, तो हम से ही जलते है और पाण्डवो से डरते हैं, तुम्हे तो कोई डर नही ? अभी रनवास मे जाओ, और उससे कहो कि अब वह हमारी दासी है, तत्काल यहा आये। तुम उसे साथ ले कर यहां शीघ्र प्राओ।" इस समय चारो ओर से आवाजे आई.-"यह अन्याय है अत्याचार है। नारी का अपमान घोर पाप है, छि. छि. यही है राजाओ का न्याय ?'' Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत कोई व्यक्ति जोर से बोला- "अन्धे धृतराष्ट्र की क्या बुद्धि भी मारी गई है, जो यह अन्याय करा रहे है । यह तो दरिद्र जुआरियो में भी नही होता ।" ७६ विदुर जी ने धृतराष्ट्र से कहा- "सुन रहे हो ? लोग क्या कह रहे हैं ? तुम्हारा बेटा तुम्हारा नाम उछाल रही है 95 भीष्म पितामह ठण्डी स्वांस लेते हुए बोले- ''इस घोर पाप को देखने से पहले ही मैं मर जाता तो अच्छा था ।" T दुर्योधन इन आवाजों से व्याकुल हो कर चीख उठा- '' बन्द करो यह बाते, जो होता है उसे देखते रहो ।" } 4 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * सप्तम परिच्छेद * द्रौपदी का चीर हरण दुर्योधन की आज्ञा पा कर प्रातिकामो रनवास मे गया और द्रौपदी को प्रणाम करके बोला- "रानी जी ' आप को महाराज दुर्योधन ने इसी समय सभा मण्डप में बुलाया है।" उस समय प्रातिकामो के मुख पर खेद के भाव छाये हुए थे, उसकी बात सुन कर शोक विह्वल चेहरा देख कर द्रौपदी ने आश्चर्य चकित हो पूछा- ' क्या कह रहे हो तुम ?- क्या मुझे सभा मण्डप मे बुलाया है ? और वह भी दुर्योधन ने ?" । गरदन झुकाए हुए प्रातिकामी बोला-जी हा, जी हाँ, महा राज युधिष्ठिर जुए मे आप को हार चुके है। अव श्राप दुर्योधन की दासी हो गई हैं, आप को महल मे झाड़ देने का काम करना होगा। इसो आज्ञा को सुनाने के लिए आप को सभा मे बुलाया गया है।" प्रातिकामी की बात सुनते ही द्रौपदी भौंचक्की सी रह गई, जैसे उन के कानो मे किसी ने शूल ठोक दिए हो। उस के हृदय पर वज्राघात हुआ, कुछ देर तक वह मूर्तिवत खडी रह गई । जो पाचाल देश की राजकुमारी, ऐश्वर्य और वैभव मे जीवन व्यतीत करने वाली पुष्पी से भी अधिक नाजक, प्रेम और वात्सल्य के सरोवर में पनपी कर्मालनि दास दासियो से सेवित रानी द्रौपदी को अनायास ही ऐसी बात सुनने को मिली कि जिसकी स्वप्न मे भी कल्पना न की Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत जा सकती थी, अतः उसे मूर्छा आने लगी, पर अपने को सम्भार कर उसने कहा- "प्रातिकामी ! मैं यह क्या सुन रही हूं। तुर गलत कह रहे हो, या मेरे कान गलत सुन रहे हैं। , . क्या रवि भूमि की धूलि से उग सकता है ? ..... . . बार्ज पर लगाने के लिए क्या,महाराज युधिष्ठिर के पास और कोई चीर नही थी ?" . प्रातिकामी ने बडी नम्रता से समझाते हुए कहा- 'हा महा रानी जी, महाराजाधिराज युधिष्ठिर के पास और कोई चीज नह रह गई थी ?" - "यह कैसे हया ?" द्रौपदी के नेत्रो मे असीम आश्चर्य ठार मार रहा था। तब सारथी प्रातिकामी ने जुए के खेल का प्रारम्भ से ले क अन्त तक का सारा वृतान्त कह सुनाया। सारी बाते सुन कर द्रौपद अचेत सी रह गई। उसका कलेजा फटा सा जा रहा था, उसे सारं पृथ्वी घमती सी, सारी वस्तुए चक्कर लगाती सी प्रतीत हुई । क्षत्रिय-नारी थी, अत' उस ने अपने को शीघ्र ही सम्भाल लिया क्रोध के मारे उसके नेत्र अगारो की भाति लाल हो गए उसने प्राति कामी से कहा- "रथवान जा कर उन हारने वाले जुए के खिलार्ड और धर्म विरुद्ध कार्य करने मे लज्जा न अनुभव करने वाले से पूछ कि पहले वे अपने को हारे थे या मुझे? भरी सभा मे उम से या प्रश्न पूछना और जो उत्तर वह दे उसे मुझ से आ कर बताना, उस के बाद मैं जाऊगी " प्रातिकामी गया और भरी सभा मे युधिष्ठिर से प्रश्न किया। सुनते ही धर्मराज युधिष्ठिर अवाक रह गए। वे उस प्रश्न के गहराई को समझते थे। वे अपने को मन ही मन धिक्कारने व अतिरिक्त कुछ न कर सके, उन से कोई उत्तर देते न बना। इस पर दुर्योधन बोला-"वह चुडैल वहीं बैठे बैठे प्रश्न कर रही है, अपनो वर्तमान दशा को भी उसने नही समझा, प्रातिकामी Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रौपदो को चोर हरण ७९ उससे जाकर कहो, कि तुम स्वय चल कर जो चाहे पूछ लो । कोई उसके बाप का नौकर नही है जो उसके आदेश मान कर किसी से प्रश्न पूछता फिरे- जाओ , उसे अभी यहा ले आओ" प्रातिकामी तुरन्त रनवास की ओर चला गया, पर उसी समय विदुर जी बोले- "दुर्योधन | इतनी नीचता पर न उतर कि लोग तुझ से घृणा करने लगेगे। तू अगर इन्सान है तो इतना तो समझ कि द्रौपदी का भरी सभा मे बुलाना बहुत ही घृणास्पद है। वह तेरे भाई की ही पत्नी है और पाचाल देश की राजकुमारी है।" . भीष्म पितामह भी चुप न रह सके, दुखित व क्रुद्ध हो कर बोले-'नीच दुर्योधन ! यदि तू नीचता की चरम सीमा को पहुचना चाहता है, यदि तू नारी, जो सदा आदरणीय हैं और वह भी सती द्रौपदी जैसो नारी को भरी सभा मे अपमानित करना चाहता है, तो तेरा पिता तो अन्धा है ही, हमारी भी आँखे फोड दे, हमारे कानों के परदे तोड डाल ताकि हम द्रौपदी को उन आखो से अप'मानित होते न देख सके जिनसे हम ने उसे आदरणीय के रूप मे देखा है, उन कानो से उसके करूण चीत्कार न सुन सके जिन से हम ने उसका मधुर प्रणाम सुना है। दुष्ट मत भूल कि वह एक सन्नारी है जिसने कभी हमारे सामने अपनी आखे ऊची नही की।" सभा मे उपस्थित लोग चिल्ला उठे- "अनर्थ हो रहा है, पाप हो रहा है।" ' " परन्तु दुर्योधन नीचता पूर्ण ठहाका मार कर हसता रहा । उधर प्रातिकामी ने द्रौपदी से विनम्र शब्दो मे कहा- "राजकुमारी । नीच दुर्योधन ने आदेश दिया है कि आप स्वय चल कर युधिष्ठिर से पूछ लें।" शोकविह्वल द्रौपदी ने कहा-"नही, नही मैं सभा मे नही जाऊगी, यदि युधिष्ठिर उत्तर नहीं देते तो उपस्थित सज्जनो को मेरा प्रश्न सुनाओ, और जो उत्तर मिले आकर मुझे सुनायो।" - प्रातिकामी पुन. सभा मे पाया और सभासदो को द्रौपदी Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जैन महाभारत का प्रश्न सुनाया। यह सुनकर दुर्योधन चिल्ला उठा, और अपने भाई दु शार से बोला-"दु शासन ! यह नीच पाण्डवो से डरता प्रतीत हो है, तुम्ही जाकर उस घमडी औरत को ले आओ। और य वह आने मे अना कानी करे तो उसकी चोटी पकड कर य घसीट लाओ।" ___ तब विवश हो कर धृतराष्ट्र ने कहा- दुर्योधन ! क्यो व वश को कलकित करता हैं, अपनी मूर्खता से बाज़ आ।" पर दुर्योधन ने सुनी अन सुनी कर दी। दुरात्मा दु शास के लिए इससे अच्छी बात और क्या हो सकती थी, खुशी खुद वह द्रौपदी के रनवास की ओर चल दिया। शिष्टता को ताक प रख कर वह द्रौपदी के कमरे मे घुस गया और निर्लज्जता पूर्व वोला-“सुन्दरी ! आयो, अब क्यो देर लगाती हो। हमने तुर जीत लिया है, अब शरमाती क्यो हो । अरी अब तक पाच की थं अव सौ कौरवो की बन कर गुलछरें उडाना। यह परदा वरदा छोह अव तो सभा मे चलो, बड़े भैया तुम्हे बुलाते हैं, उनका दिल खुः 'करो।" - "देवर ! तुम कैसा उपहास कर रहे हो, मुझे सभा मे जाना चाहते हो। इस मे तुम्हे लज्जा न आयेगी।" द्रौपदी वोली दु शासन को क्रोध चढ गया, बोला- "देवर, देवर कह कर ह 'अपमानित मत करो। कौन देवर किसकी भावी। अब तो तु हमारी दासी हो। इतनी ही लज्जावती थी तो ऐसे मूखों के घ मे क्यो पाई थो; 'द गासन | जरा होश सम्भाल कर बात कर।" श्रावेश पाकर द्रौपदी बोली। "चलती है या नहीं, या बताऊ होश की वात ? मैं नए से बात कर रहा ह तो तू सर पर चढती जाती है ।"-चिल्ला क दु.गासन बोला और लपक कर हाथ पकड़ने की चेष्टा करते हु Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 द्रौपदी का चीर हरण कहने लगा- " तू ऐसे नही मानेगी, पैरो के बल नही सर के बल 'जायेगी ।' / ८१ द्रौपदी तीर की चोट खाकर व्याकुल हरिणी की भात आर्तनाद करती हुई शोकातुर हो अन्त पुर में परन्तु दु शासन ने वहा भी उसका पीछा न छोडा लिया । द्रौपदी ने दीनता पूर्वक कहा - "आज एक ही साड़ी पहन रक्खी है, मुझे सभा मे न ले चलो ।' । भाग चली। दौड़कर उसे पकड़ मैं रजस्वला हूं । सभा मे पहुच कर दुशासन ने उसे फर्श पर दे पटका। सती द्रौपदी सभा मे उपस्थित वृद्धो को लक्ष्य करके बोली - "कपटजाल मे फसा कर महाराज युधिष्ठिर को पापियो ने हस्तिनापुर बुलाया और मजे हुए खिलाडी और धोखे बाज लोगो ने उन्हे कुचक्र र्चा कर अपने जाल मे फंसा लिया । धर्म के प्रतिकूल यह दुर्व्यसन होता रहा, पाप व कपट का षडयन्त्र चलता रहा, पर आप सभी मौन रहे, इस पाप लीला को देखते रहे । आप लोग तो न्यायवंत, विद्यावान, धर्म रक्षक और बुद्धिमान कहलाते हैं, आप राज वशे 'की नाक हैं । क्या यही है आपका न्याय ? यही है आप का धर्म यही है आपकी बुद्धिमत्ता । पापियो ने युधिष्ठिर को अपने जाल मे फसा कर मुझे भो ढाँव पर लगवा लिया, आप सब लोगो ने इस अधर्म अन्याय, अत्याचार और कपट जाल को कैसे स्वीकार कर 1 लिया, उस समय कहा गई थीं यापकी बुद्धिमत्ता, उस समय आप 1 का न्याय कहा जा कर सो गया था । आप की आखो की लज्जां | धर्मबुद्धि कहा चली गई थी ? क्या इसी विरते पर न्यायाधीश बनते { किन्तु दुरात्मा दुशासन न माना उसने कहा "द्रौपदी !, यह तो और भी अच्छी बात है । प्राज तुम्हे अन्धे के पुत्र की शक्ति का भान हो जायेगा । हमारी दासी है तू । तेरे नखरे नही चल सकते ।,, द्रौपदी ने अपने आप को छुडाना चाहा, पर दुशासन कुत्ते की भाति उस से चिपटा था, उसने उसके बाल बसेर डाले, आभूषण तोड फोड डाले, और उसी अस्त व्यस्त दशा मे उस के बाल पकड कर घसीटता हुआ सभा की ओर ले जाने लगा । धृतराष्ट्र के लडके द. शासन के साथ मिल कर भारी पाप कर्म करने पर उतारू हो गए । पर द्रौपदी ने अपना क्रोध पी लिया । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . जैन महाभारत के वृद्ध यहां बैठे ता कहां है आपका लकवा मार हो.? क्या यही है कुरुवश की नीति ? क्या आप भी पापी के सहयोगी नहीं है ? जो पहले ही अपने आप को पराधीन कर चुका हो, जिस की स्वतन्त्रता छिन गई, उसे एक नारी की वाजी लगाने का क्या अधिकार थां? मुझे युधिष्ठिर को दाव पर लगाने का अधिकार किस ने दिया है यह कहां का न्याय है कि कोई व्यक्ति पराधीन हो गया तो उसकी पत्नी भी पराधीन कर दी जाय ? जिस अधर्म में मेरी कभी सम्मति नही हुई उस में मुझे हारने या जीतने का किसी को अधिकार नही है। मेरा अपना अस्तित्व है। मैं धातु नही हूं, मैं मानव हूं। मुझे अपने जीवन के सम्बन्ध में निर्णय करने का स्वय अधिकार है। आपजो कुरुकुल के वृद्ध यहां बैठे है, आप की जबान को क्या लकवा मार गया है । कहां है आपकी वीरता कहां है आप का न्याय ? बोलो क्या नारी का अपमान करना ही आप के कुल की परम्परा है। आप के भी बह बेटियां हैं, आप भी किसी नारी की कोख से जन्म ले कर ही इतने बडे हुए, क्या नारी को इस प्रकार अपमानित करते देखते समय आप को लज्जा नहीं आती? वोलो क्या है मेरे प्रश्नो का उत्तर। आज एक नारी आप से पूछती है, कि इस अन्याय के सम्बन्ध मे पाप का क्या विचार है ? क्या यह जो कुछ हो रहा है, धर्मानुकूल है !" इतना कह कर द्रौपदी मौन हो गई, उसने एक एक करके सभी के मुख को देखा और फिर पाण्डवो की ओर दृष्टि डाल कर उन्हे लक्ष्य करके सिहनी की भांति गर्जना की- इसी विरते पर धर्मराज कहलाते हो, इसी विरते पर रण वीर, योद्धा, कर्मवीर महावली और गुणवत कहलाते हो? मैं युधिष्ठिर महाराज प्राप से पूछती हूं. कहां है आप का धर्म ? कहां है आप का न्याय ? किसने आप को मेरे भाग्य का निर्णय करने का अधिकार दिया था? मुझे अपने पाप की भट्टी मे धकेलने का आपको क्या अधिकार था? यदि कौरव कुल ने लज्जा, मानवता, धर्म और न्याय को स्वार्थ एव नीचता की भट्टी मे फेक दिया, यदि इन वृद्ध सज्जनो ने अपने पापी वेटों के हाथो अपने को गिरवी रख दिया है. यदि इन की बुद्धि को लकवा मार गया. तो आप तो धर्मराज हैं, आप क्यो इनके पडयन्त्र मे फंसते चले गए ? - फिर अर्जुन को लक्ष्य करके बोली-“मेरे सुहाग के स्वामी ! Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रौपदी का चीर हरण .. पया इसी बलबूते पर धनुर्धारी बने थे। आप से तो वह दरिद्री भी अच्छे जो जीते जी अपना सहधर्मिणी की ओर किसी को आँख उठा कर भी नहीं देखने देते। आप की भुजाओ मे बहते गर्म लहू को आज क्या हुआ, आज जब भी सभा मे मुझे अपमानित किया जा रहा है, आप की विद्या. आप का तेज, आपकी वीरता कहा जा कर सो गई? पर आप तो दुर्योधन के दास हैं, अब काहे कों वोलेगे? इसी वीरता पर आप मुझे पाचाल देश से ब्याह कर लाये थे ? ' द्रौपदी के वाक्यों से व्याकुल अर्जुन अपनी गरदन झुकाए खडा रहा । फिर वह सन्नारी भीम, नकुल और सहदेव को सम्बोधित करके बोली-'मैं समझती थी कि पाडववीर है, उन को भुजाओ मे जान है, वे धर्मवीर है धीर और गुणवान हैं। पर आज जब मुर्दो की भाति गरदन लटकाए खडे अपने सामने मुझको अपमानित होते देख रहे हैं, तो मुझे लगता है कि यह सव दिखाने भर के हैं, वरना इनका विवेक तो कब का मर चुका है। कहो, क्या पांडु नरेश की सन्तान आप ही हैं ?" डूब मरो चुल्लू भर पानी मे, तुम्हारे रहते आज मैं अकेली निस्सहाए अबला हो गई है। यह दुष्ट मुझे भरी सभा मे लाकर रक्त के आँसू रुला रहे हैं, और आप लोग मौन खड़े है, मिट्टी के बुतो को तरह ?" पांचाल राज की कन्या को तो आर्त स्वर में पुकारते और असहाय सी विकल देख कर भीम सेन से न रहा गया, वह अपनी परिस्थिति को समझता था, इस लिए कडककर बोला - "भाई साहब! मुझे अाज्ञा दीजिए कि जिन हाथो ने सती द्रौपदी के केशो को पकडकर उसे घसीट कर यहा लाया है, अभी ही उसके हाथ अपनी गदा से तोड़ डालूं। इन दुप्टो का क्षण भर मे काम तमाम करदूं ।" ____ "चुप रह ओ हमारे दास, मुझे मजदूर मत कर कि मैं अभी ही तेरी इस कैची की भाति चलती ज़बान को भरी सभा मे कटवा दूं।" क्रोध से जलता हुआ दुर्योधन गुर्राया। । अर्जुन ने उसे शान्त करते हुए कहा- "भैया भीम ! तुम चुप रहो । महाराज युधिष्ठिर की भूल के परिणाम को Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R ६४ - जैन- महाभारत - , 1 मन मसोस कर सहलो ।” तब भीम ने युधिष्ठिर को लक्ष्य करके कडक - कर कहा - ' भाई साहब । दरिद्र, अज्ञानी, अधर्मी और गवार जुनारी भी जुए में हार जाते हैं, पर अपनी रखैल स्त्री की भी बाजी नही लगाते । किन्तु आप अन्धे हो कर द्रुपद की कन्या को हार बैठे आप ने ही यह भूलकर के सती द्रौपदी का धूर्तों के हाथों अपमान कराया। इस भारी अन्याय को मैं नहीं देख सकता । आप ही के कारण यह घोर पाप हुआ है। भैया सहदेव !, कही से जलती हुई आग तो लेआ। जिन हाथो से महाराज युधिष्ठिर ने जुआ खेला, और जिन हाथो के कारण- द्रोपदी भाभी का अपमान हुआ, उन्ही को मैं जला डालू f ין ' भीम सेन को आपे से बाहर देखकर अर्जुन ने उसे रोका और बोला - "भैया सावधान ! युधिष्ठिर भाई के सम्बन्ध मे ऐसी कोई बात मुह से न निकालो। क्यो कि यदि हम आपस मे ही ऐसी बाते करने लगे तो शत्रुओ की पूरी तरह से विजय हो जायेगी । यह हमारे पूर्व कर्मों का ही फल है, जो हमारी बुद्धि मारी गई और हम स्वयमेव ही अधर्म की ओर चले गए । शान्त हो जाओ और जो होता है उसे सहन करो ।” अर्जुन की बात सुन कर भीमसेन- शान्त हो गया, अपने को सम्भाल लिया और क्रोध को पो गया । [ के द्रौपदी की ऐसी दोन अवस्था को देख कर दुर्योधन के एक भाई विकर्ण को बहुत ही दुख हुआ, उससे न रहा गया खडा हो गया, और बोला — उपस्थित क्षत्रिय वीरो वृद्धजनो और दर्शको । मैं नही चाहता था कि आपके सामने कुछ कहू । जिस सभा मे कुल के वृद्ध मुलझे हुए, बुद्धिमान और अनुभवी लोग तथा वे लोग जो न्याय रक्षक हैं, विराजमान हो तो कम ग्रायु के लोगो को बोलना नहीं चाहिए, परन्तु जब न्यायाधीश ही चुप चाप तमाशा देखने लगे, जब कि अन्याय अपना नग्न ताण्डव करता हो, पर वृद्ध जनो के कान पर जू न रंगती हो, जब कि किसी सन्नारी के साथ अत्याचार हो रहा हो और विद्यावानो तथा न्यायकर्ताओ के मुह पर ताले पड गए हो, तो छोटो को जिनकी बुद्धि सही सलामत है, जिन का विवेक जीवित है, जो न्याय प्रिय है, उन्हें विवश हो कर Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रौपदी का चीर हरण बोलना ही पड़ता है। इसलिए मैं पूछता हू, कि अपने को न्यायाधीश कहने वाले, उच्चासनों पर विराजमान लोग इस अत्याचार लीला पर क्यो चुप्पी साधे बैठे हैं। यह स्पष्ट है कि महाराजाघिराज युधिष्ठिर को कपट से बुला कर जुत्रा खेलने पर मजबूर किया गया, इकार करने पर ताने मारे गए और 'न जाने पासे पर क्या जादू पड़ा था कि युधिष्ठिर को कुछ ही समय में महाराजाधिराज से रक बना दिया गया, रक भी नही, बल्कि दास बना लिया गया। मेरी आपत्ति एक तो यह है कि जब युधिष्ठिर पहले स्वयं कों हार चुके तो उन्हें द्रौपदी को दाव पर लगाने का भला क्या अधिकार था? - ", 'दूसरी यह कि क्षत्रियो ने चौसर खेलने के जो नियम बना रक्खे हैं उनके अनुसार विरोधी खिलाडी'स्वयं कह कर किसी वस्तु की बाज़ी नही लगवा सकता। पर शकुनि मामा ने महाराज युधिष्ठिर को द्रौपदी का नाम ले कर उसे बाजी पर लगाने का प्रस्ताव ही नही किया, बल्कि उकसाया भी। - तीसरी बात यह कि द्रौपदी, पशु, पक्षी नही है, वह मानव है, बिना उसकी मर्जी के, और जब कि वह जुना खेलना पाप समझती है, उसकी कोई सम्मति इस खेल मे नही थी, तो द्रौपदी को इस अधर्म मे क्यो धकेला जाये ? इस लिए मैं सारा खेल ही नियम विरुद्ध ठहराता हूँ। मेरी राय में द्रौपदी नियम पूर्वक नहीं जीती गई। इस लिए जो कुछ हो रहा है वह भयंकर अन्याय है, जिस का विरोध प्रत्येक न्याय प्रिय व्यक्ति को करना चाहिए।" र युवक विकर्ण के इस तर्क सगत वक्तव्य से, अब तक जिन के मस्तिष्क पर भ्रम का परदा पडा था. उठ गया और लोग चिल्ला उठे- "ठीक है विकर्ण ठीक कहता है। यह अन्याय हो रहा है । यह नियम विरुद्ध हैं। धर्म की रक्षा हो गई। धर्म की रक्षा हो गई।" विकर्ण के वक्तव्य से दुर्योधन के पक्ष पातियोमे खल वली मच गई। उस समय कर्ण, अपने मित्र दुर्योधन के हाथ पांव फूलते देख कर उठ खडा हुया और गरज कर बोला "विकर्ण | तुम निरे मूर्ख हो। तुम सभा मे बैठने के भी योग्य नही हो : तुम्हे शिष्टाचार भी नहीं आता। जिस सभा मे कुल वृद्धजन उपस्थित हो, छोटो को नहीं बोलना चाहिए। फिर तुम विना आजा के. कसे बोलने लगे Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -जैन महाभारत 1 तुम मे न वृद्धि है और न विवेक ही, और खड़े हो गए तर्क वितर्क करने को । अरे मूर्ख, जब युधिष्ठिर ने पहली बाजी मे अपनी सारी सम्पत्ति हार दी, तो फिर उसके पास बचा ही क्या ? द्रौपदी तों स्वयमेव ही हारी गई । युधिष्ठिर के शब्द नही सुने जो वह अपने भाईयो की बाजी लगाते हुए कह रहे थे । वह अपने भ्राताओं आदि को अपनी ही सम्पत्ति मानते है । इस लिए तुम्हारी शंकाएं पूरी तरह बकवास हैं, उन में कोई तथ्य नही। मेरी समझ मे तो यह नही आ रहा कि अभी तक पाण्डव अपने राज्योचित वस्त्रो मे क्यो है ? जब सारी सम्पत्ति हार गए तो पाण्डवो और द्रौपदी के सारे कपडे तक भी दुर्योधन के हो गए । यह तो दुर्योधन का प्रातृ प्रेम समझो कि वह इन मूल्यवान कपडों को पहनने की पाण्डवो और द्रोपदी को अभी तक छूट दे रहे हैं ।” कर्ण की कठोर बातो से पाण्डवो पर तो वज्र टूट पड़ा। उन्हों ने उसी समय बहुमूल्य वस्त उतार दिए । दुर्योधन को तो एक नया उत्पात सूझ गया, जो कदाचित अभी तक उस के मस्तिष्क मे न आया था, उस ने दु शासन को लक्ष्य करते हुए कहा - "यह द्रौपदी कैसे अभी तक साड़ी पहने खडी है। दुशासन अभी ही, इसी समय इसकी साडी उतार लो ।” ८६ सभा मे उपस्थित लोग दुर्योधन के इस आदेश को सुन कर कांप उठे । न्याय प्रिय लोगो के नेत्रो से अश्रुधार फूट पडी । वृद्ध जनो ने अपना मुह ढाप लिया | चारो ओर श्मशान की सी शांति छा गई । दुशासन आगे बढा और वह दुरात्मा द्रोपदी की साडी खीचने लगा । अब बेचारी द्रोपदी क्या करती। उसने मनुष्यो की प्रामा त्याग कर उस समय शासन देव को याद किया, जिन प्रभु की रद लगाई, उसने ग्रार्त्त स्वर मे शील सहायक देव की टेर लगाई - "प्रभु ! अव तुम्ही हो मुझ अवला की लाज के रखवारे । तुम्हारी शरण आती हूं। हे घासन देव ! यदि मैं वास्तव मे पतिव्रता और सती हू तो आओ मेरी लाज बचाओ। मेरे पति और मेरे मभी सहायक इस समय मेरा साथ छोड़ चुके है, पर आप तो मेरा साथ न छोड़ना । लो मैं ग्राप ही की शरण आती हूं' 99 द्रौपदी कहती कहती प्रचेत हो गई। उस समय एक श्रदभुत " Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रौपदी का चीर हरण ८७ चमत्कार दिखाई दिया। सभासद आँखें फाड फाड कर देख रहे थे। दुशासन द्रौपदी की साडी पकड कर खीचने लगा, ज्यो ज्यो वह खीचता जाता, त्यों त्यो साडी बढती जाती । यह चमत्कार देख कर लोगो मे कपकपी सी फैल गई। निर्लज्ज दुर्योधन भी पहले तो आखे फाड़ फाड कर देखता रहा, फिर बोला-“दु शासन ! देखी द्रौपदी की करतूत, न जाने कितनी साढियां पहन कर आई है। जरा जल्दी जल्दी खीच ।" दुशासन ने तेजी से खीचना प्रारम्भ किया। पर और अलौकिक शोभा वाली साढी का ढेर लग गया। आखिर दुशासन खीचता खीचता थक गया, सारा शरीर पसीने से तर हो गया, अन्त मे उसके हाथो मे खीचने की शक्ति नही रही और वह हाँपता हुआ अलग हट कर बैठ गया । इतने मे भीम सेन उठा, उसके होंट मारे क्रोध के फडक । रहे थे मुख मण्डल तम तमा रहा था, नेत्रो से ज्वाला निकल ' रही थी। ऊचे स्वर मे उसने प्रतिज्ञा की- "उपस्थित सज्जनो। १ मैं शपथ पूर्वक कहता हूँ कि जब तक भरत वश पर बट्टा लगाने वाले और मानवता को कलंकित करने वाले इस नीच दुशासन की इन भुजाओ को न तोड दूंगा. जिनसे इसने सती द्रौपदी को अपमानित किया है, तब तक इस शरीर का त्याग नही करूगा। जब तक रणभूमि मे इस की छाती नही तोड दूगा, तव तक चैन नही लूगा।" भीम सेन की इस भीष्म प्रतिज्ञा को सुन कर सभा । सद थर्रा गए। . अचानक उसी समय सियार बोलने लगे, गधो के रेकने और मासाहारी चील कौवो के चीखने की आवाज सुनाई दी। इस प्रकार की मनहूस आवाजें कितनी ही देरी तक आती रही। का . इन लक्षणो से धृतराष्ट्र समझ गए कि जो कुछ हुआ है. वह उस के पुत्रो के लिए बहुत ही दुखदायी होगा। सम्भव है । उनके कुल का विनाश हो जाये। इस लिए उन्हो ने शीघ्र ही . इस । घटना पर पानी फेरने का उपाय करना आवश्यक समझा। इन्हो __ने द्रौपदी को अपने पास बुलाया। उसे समझाया, प्रेम पूर्वक म उसे सान्त्वना दी। और जो हुआ उसे भूल जाने की प्रेरणा दी। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ , जन महाभारत फिर युधिष्ठिर को समझाते हुए बोले- 'बेटा युधिष्ठिरं । तुम तो अजातशत्रु हो। उदार हृदय भी हो। मैं जानता हूं कि 'तुम इतने विशाल हृदय हो कि अपने शत्रुओ को क्षमा दान कर सकते हो। दुर्योधन से तुम्हे कोई वैर नही है। तुम ने उत्ते सदा अपना भाई समझा है। यह कुमित्रो के जाल मे फस गया है। इसे अपने और पराये की पहचान नहीं है। इसे इस, कुचाल के लिए क्षमा करदो। और जो कुछ हुआ उसे अपने दिल से निकाल,दो।" उन्हो ने दुर्योधन को अपने पास बुलाया और कहा-'बेटा तुम्हारी भूले हमारे कुल के नाश का कारण बन जायेगी। तुम जिस रास्ते पर चल रहे हो, वह नाश का है, कलंक और पाप का है। अब भी समय है, 'सम्भल जाओ। और अपनी भूलो को सुधारने का प्रयत्न करो। इस समय जो हुआ वह घोर अनर्थ हैं। वह हमारे कुल के मस्तक का काला दाग बन जायेगा। तुम युधिष्ठिर की जीती सम्पति वापिस करदो और उन्हे पहले के अनुसार राज्य करने दो, जिस आदर सत्कार से उन्हे बुलाया था, उसी आदर सत्कार से वापिस भेज दो। तुम्हारा और कुल का हित इसी वात में है। यदि तुम ने ऐसा न किया तो याद रक्खो तुम्हार। नाश अवश्यमभावी है। लक्षण बता रहे है कि अपनी वरवादी के वीज तुम ने वो दिए है। चलो अब भी समय है। इन सब बातो को इस एक उपाय से धो सकते हो। मेरी बात मान कर युधिष्ठिर की सम्पत्ति वापिस करदो ।" दुर्योधन के मन में भी यह वात बैठ गई कि कुछ भूल हो गई है। लक्षण शुभ नहीं है। पापी कायर भी होता है। इसी कारण दुर्योधन उस समय मन ही मन ताप रहा था, पर वह सोचने लगा कि यदि युधिष्ठिर की सम्पति उसे वापिस देदी, तो पाण्डव कभी इस घटना को न भूलें गे और किसी न किसी समय अवसर पाकर अवश्य ही बदला लेंगे। सांप चोट खाकर बच निकलता है, तो वह अवश्य ही चोट करने वाले को डसता है। इसी प्रकार पाण्डव इन्द्रप्रस्थ पहुचते ही अपने दल बल के साथ, मुझ पर आक्रमण कर देंगे और भीम ,अपनी प्रतिज्ञा- पूरी करेगा। .. इस Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रौपदी का चीर हरण ८९ लिए भयभीत होते हुए वह बोला-"पिता जी ! जो सम्पत्ति युधिष्ठिर हार चुके उसे वापिस कैसे किया जा सकता है। हम ने उन से यह सन्पत्ति छीनी थोडे ही है और न कोई अन्याय कर के ही ली है। नियम पूर्वक चौसर के खेल मे जीती है। इस लिए अब युधिष्ठिर का उस पर कोई अधिकार नहीं। न उसे वापिस लेने का साहस ही करना चाहिए। हम ने बल पूर्वक तो यह सब कुछ दाव पर लगवाया नही। फिर भी आप की आज्ञा को मैं टाल नहीं सकता। मैं इतना कर सकता हू कि युधिष्ठिर मेरी एक शर्त मान ले, तो उन्हे उसका राज पाट वापिस मिल सकता "बोलो क्या शर्त है ?" - "शर्त यह है कि पाण्डव द्रौपदी सहित बारह वर्ष तक बनों । मे जाकर रहे और तेरहवे वर्ष मे अज्ञात वास करे। यदि अज्ञात । वास के समय में वे कही पहचान लिए तो फिर उन्हे बारह वर्ष । वनवास और एक वर्ष अज्ञात वास मे व्यतीत करना होगा। यदि । वे नही पहचाने गए तो तेरह वर्ष उपरान्त 'पाकर वे अपना राज पाट वापिस लेने के अधिकारी होगे। यह शर्त यदि पाण्डव माने है तो मैं भाई होने के नाते उन के साथ यह दया कर सकता हू।"हर "हम किसी की दया के मोहताज नही है। हमारी भुजामों ६ मे शक्ति होगी तो हम स्वय अपना राज्य वापिस ले लेगे।"- ' भीमसेन ने गर्जना की। . . बात बिगडती देख कर धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर को अपने पास न बुलाया और बहुत ही विनम्र शब्दो मे प्रेम पूर्वक उन्हे इस शर्त को मान लेने पर विवश किया, कभी पाण्डु का वास्ता दिया, कभी म उनके दया भाव को याद दिलाया, कभी उन को सहन शीलता पा और भ्रात प्रेम को जागृत किया, तात्पर्य यह है कि हर प्रकार से अशा उन्हे मजबूर कर दिया और अन्त मे उन से शर्त मनवा ही ली। प्र . ., बात तय हो गई और पाण्डव माता कुन्ती से विदा लें कर के पर परिवार सहित वनोको चल पडे । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अष्टम परिच्छेद * Xधृतराष्ट्र की चिन्ता | जब पाण्डव परिवार सहित वन को जाने लगे तो, उनको देख की इच्छा से हस्तिनापुर के नर-नारी सडको पर निकल आये इतनी भीड़ थी कि सडको पर चलना असम्भव था, इसलिए कु लोग ऊचे भवनो की छतों और छज्जो पर खडे थे। महाराजाधिरा युधिष्ठिर जिन की सवारी सेना सहित बड़ी सज धज से निकर करती थी, उस दिन साधारण वस्त्र पहने पैदल अपने परिवार सहि जा रहे थे, यह देख कर लोग हा हा कार करने लगे। कुछ लोग की आंखो से अश्रुधार वह रही थी, कुछ 'हाय-हाय' कर रहे और कुछ 'छि-छि.' करके कौरवो को धिक्कार रहे थे। उन अत्याचार पर सारा नगर क्षुब्ध था। अन्धे धृतराष्ट्र ने विदुर को बुला कर पूछा-"विदुर ! पाग के बेटे अपने परिवार सहित कसे जा रहे हैं ? मैं अन्धा हूं, दे नहीं सकता तुम्ही बताओ कैसे जा रहे है ?" विदुर जी बोले-"कुन्ती पुत्र युधिष्ठिर ने कपड़े से मुख ढा रक्खा है। भीमसेन अपनी दोनों भुजायों को निहारता, अजु अपने हाथ मे कुछ बालू लिए उसे विखेरता, नकुल और सहद अपने शरीर पर धूल रमाये हए क्रमशः युधिष्ठिर के पीछे जा रहे है Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धृतराष्ट्र की चिन्ता " द्रौपदी ने अपने विखरे हुए केशों से अपना सारा मुह ढक लिया है मोर प्रसू बहाती हुई युधिष्ठिर का अनुसरण कर रही है ।" F L ९१ यह सुन कर धृतराष्ट्र की आशका और चिन्ता पहले से भी अधिक प्रबल हो उठी । उन्होने उत्कठा से पूछा - " और नगर वासी क्या कह रहे है ?” "महाराज ! लोगो के नेत्रो से आसू और कण्ठ से कौरवो के लिए धिक्कार के शब्द निकले है । कह रहे हैं कि धृतराष्ट्र ने अपने बेटो को राज्य देने के लिए पाण्डवो को निकाल दिया। कुछ लोग कह रहे हैं कि कुरुवश के वृद्धो को धिक्कार है जिन्होने दुर्योधन और दुशासन के कहने से यह अत्याचार किया । इसी प्रकार कोई कुछ और कोई कुछ कर रहा है देखो नीले आकाश में बिजली कौध रही है । और भी कितने ही अनिष्टकारी लक्षण हो रहे हैं ।" - विदुर जी ने कहा । को विदुर और धृतराष्ट्र की यह बाते नारद जी आ निकले । ' उन्होंने घृतराष्ट्र इस पाप के कारण चौदह वर्ष बाद कौरवो भविष्य के जानकारो का यही विचार है। कर नारद जी तो चले गए और धृतराष्ट्र और उसके साथी नारद की यह भविष्यवाणी सुन कर भय भीत हो प्राचार्य द्रोण के पास गए और उनके आगे गिड गिड़ाते हुए बोले - "आचार्य जी ! जब चारों ओर से हम पर विपत्तियाँ टूट पडने की आशका है, तब हम आप की शरण आये हैं । यह सारा राज्य आप का है, हम आप ही की शरण हैं, आप विद्यावान, दयावान और बुद्धिमान है, आप हमे शरण लीजिए । आप कभी हमारा साथ न छोडे । ” हो रही थी कि कही से बताया कि दुर्योधन के का नाश हो जायेगा | यह भविष्य वाणी सुना इस पर दोणाचार्य बोले - "पाण्डव अजेय है, वह न्यायवत एवं गुणवान है, यह जानते हुए भी चूंकि तुम लोग मेरी शरण आ गए हो, इसलिए में तुम्हे ठुकरा नही सकता । जहा तक मुझ से चन पडेगा में तुम्हारी प्रेम पूर्वक हृदय से सहायता करूगा ।' परन्तु होनी को कौन टाल सकता है । तेरह वर्ष उपरान्त पाण्डव बडे Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ जैन महाभारत क्रोध से लौटेगे। उन का स्वसुर द्रुपद मेरा शत्रु है। 'अपने अपमान का बदला लेने के जिए उसने तपस्या की थी जिससे धृष्टद्युम्न प्राप्त हुआ। मैं जानता हू वह मेरे प्राण हरने वाला है। उसके कारण मेरा नाश होना है। और अब सारे लक्षण बता रहे हैं कि मैं और तुम एक ही नौका में सवार हो गए हैं। यह नौका डूबनी अवश्य है। इस लिए जो पुण्य कर्म करने हो, वह इन तेरह वर्ष मे ही कर लो। विलम्ब न करो, धर्म पथ पर बढो। वरना मनुष्य जीवन बेकार हो जायेगा। दुर्योधन ! मेरी बात मान लो युधिष्ठिर से सन्धि कर लो। इसी मे तुम्हारा भला है। , मैंने अपनी राय दे दी, अब तुम्हारी जो इच्छा हो सो करो।" द्रोणाचार्य को दुर्योधन अपने पक्ष मे करने के लिए ही उनके पास गया था, पर वह कोई श्रेष्ठ राय मानने को तैयार नहीं था, उस ने उनकी बातें टाल दी। x x x x x x x एक दिन संजय ने धृतराष्ट्र से पूछा- "आप चिन्तित दिखाई देते हैं, क्या कारण है ?" पाण्डवों से बैर हो जाने के बाद मैं निश्चिन्त रह ही कमे सकता हूं?" अन्धे राजा ने उत्तर दिया। . संजय बोला- "आप सच कह रहे हैं, जिसका नाश होना होता है उसकी बुद्धि फिर जाती है। आप ने लड़को के कहने म श्रा कर अधर्म को अपनी नीति का आधार बनाया। किसी के पापो का फल देने के लिए प्रकृति किसी के सिर पर कुल्हाड़ा थोड़ ही चलाती है, उसके पाप ही ऐसी परिस्थिति उत्पन्न कर देते है, जिस से वह उल्टे रास्ते चल कर स्वय गड्ढे में गिर जाता हैं।" धृतराष्ट्र व्याकुल हो कर कहने लगे- "दुख तो इस बात का है कि मैंने विदुर की राय भी नहीं मानी। जब कि मैं सदा ही बुद्धिमान की बात मानता था, उसने जो राय दी वह धर्म और नीति के अनुकूल थी। किन्तु मैं अपने नासमझ बेटो की बात Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धृतराष्ट्र की चिन्ता मान बैठा । मुझे धोखा हो गया, मैं भटक गया ।” ! एक और धृतराष्ट्र विदुर जी की राय को न मानने पर दुखी हो रहे थे, दूसरी ओर देखिये वे विदुर जी के साथ क्या करते हैं ? -- यह उदाहरण इस बात का कि जब नाश के दिन निकट आते है तो उल्टी सूझा करती है । ९३ "विनाश काले विप्रीत बुद्धि ' विदुर जी बार बार आग्रह करते कि पाण्डवों के साथ सन्धि करलो, वे कहते - " आप के बेटो ने घोर पाप किया है, ऐसा पाप जिसका उदाहरण इतिहास मे कही नही मिलता । उन के पाप से - हमारे कुल का सर्व नाश हो जायेगा । आप अब भी सम्भलिए, अपने मूर्ख बेटो को सुपथ पर लाइये । पाण्डवो को बन से वापिस बुला लीजिए, उनका राज्य उन्हे दे दीजिए । यह सब करना आप ही का कर्तव्य है ।" विदुर जी प्राय ऐसे ही उपदेश धृतराष्ट्र को दिया करते । विदुर जी की बुद्धिमता का उन पर भारी, प्रभाव था, अतः धृतराष्ट्र उनकी बातो को शुरु शुरु मे सुन लिया करते थे । परन्तु बार बार विदुर जी की यह बाते सुनकर धृतराष्ट्र ऊब उठे । एक दिन विदुर जी ने फिर वही बात छेडी तो धृतराष्ट्र भुला कर बोले - " विदुर ! तुम हमेशा पाण्डवों का पक्ष लेते हो और मेरे पुत्रो के विरुद्ध बातें करते रहते हो । इम से प्रकट होता है कि तुम हमारा भला नही चाहते, नही तो बार बार मुझे दुर्योधन का साथ छोडने को क्यो उकसाते । दुर्योवन मेरे कलेजे का टुकडा है, चाहे वह कुछ करे मै उसे नही छोड़ सकता । तुम्हारी इन बातो को सुनते सुनते मेरे कान पक गए हैं । तुम्हारी बाते न न्यायोचित 'हैं और न मनुष्य स्वभाव के अनुकूल हो । यदि हम तुम्हे अन्यायी और पाण्डव पुण्यात्मा प्रतीत होते है, तो तुम हमारे पास क्यो हो, पाण्डवो के साथ ही बन मे क्यो नही चले जाते ?" धतराष्ट्र क्रोध से ऐसे कह कर बिना विदुर का उत्तर सुने Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत - ही अतःपुर मे चले गए। . ... . . . . . . :- - विदुर ने मन में कहा कि अब इस वश का नाश निश्चित है। उन्होने तुरन्त अपना रथ जुतवाया और उस पर चढ कर जंगल मे उस ओर तेजी से चल पड़े जहा- पाण्डव बनवास के दिन बिता रहे थे। विदुर जी के चले जाने के बाद धृतराष्ट्र को अपनी भूल सुझाई दी। वह सोचने लगे विदुर जी को भगा कर मैंने अच्छा नहीं किया। इससे तो पाण्डवों की शक्ति ही बढ़ेगी। अतः उन्होने संजय, को बुलाकर उसे विदुर जी को समझा बुझा कर कर वापिस ले आने को भेजा। मंजय ने बन में जाकर विदुर जी को वहुत समझाया और धृतराष्ट्र की ओर से क्षमा मागी और विदुर जी को वापिस हस्तिना पुर ले आया। एक बार महर्षि मैत्रेय धृतराष्ट्र के महल मे आये। धृतराष्ट्र ने उनका बडा सत्कार किया, फिर हाथ जोड कर विनय पूर्वक कहा- “मुनिवर आप ने कुरु जगल के बन मे मेरे भतीजो को देखा होगा वे कुशल से तो है ? क्या वे वन मे ही रहना चाहते "है ? हमारे कुल मे उन के वनवास से परस्पर मित्र भाव कम तो नहीं हो जायेगा ?" महर्षि वोले-"राजन्' काम्पक वन मे अनायास ही पाण्डवो से भेट होगई - उन पर जो वीतो है, वो मुझे जात है। आप के और भीम जी के रहते हुए यह नहीं होना चाहिए था।" उस समय दुर्योधन सभा मे उपस्थित था, मुनिवर ने उसे लक्ष्य करके कहा-"राजकुमार | तुम्हारी भलाई के लिए कहता हूँ कि पाण्डवो को धोखा देने का विचार. छोड दो। पाप का परिणाम सदा दुखदायी होता है । जो अन्याय तुम उनके साथ । कर रहे हो वास्तव में तुम अपनी आत्मा के साथ ही वह कर रहे हो। अब भी अधर्म का गस्ता छोड कर सुपथ पर आजायो । मैमि भाव और प्रेम पूर्वक रहो " Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घृतराष्ट्र की चिन्ता हे राजकुमार शात्रों में कहा है. तुमंसि नाम सच्चेव जं हंतव्यं ति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं अज्जावे अव्वं ति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं परिया वेयव्वं ति मन्नसि तुमंसि नाम सच्चेव जं परिघेत्तव्यं ति मन्नसि एवं तुमंसि नाम सच्चेव जं उद्ववेयव्यं ति मन्नसि ।। - अर्थात जब तुम किसी को हनन, आज्ञापन, परिताप, परिग्रह, एवं विनाश योग्य समझते हो तो यह विचार करो कि वह तुम ही हो। उसकी आत्मा और तुम्हारी आत्मा एक सी ही है। जैसे तुम्हे हननादि अप्रिय है, और तुम उससे बचना चाहते हो, उसी प्रकार उसकी आत्मा को भी है। - मुनिवर ने मधुर वाणो मे दुर्योधन को समझाया पर जिद्दी दुर्योधन ने उनकी ओर मुह भी नहीं किया, कुछ बोला भी नही, बल्कि अपनी जाघ पर हाथ ठोकता रहा। और पैर के अगूठे से जमीन कुरेदता मुस्कराता रहा। दुर्योधन की इस ढिठाई से मुनिवर को बडा खेद हुआ। धृतराष्ट्र ने हाथ जोड़ कर पूछा कि "भगवन ! आप दुर्योधन के भविष्य के सम्बन्ध मे तो कुछ बताइये ।' ___मुनिवर बोले-देवो ने सर्वज्ञ देव से पूछकर जो बताया है, वह मैं कह सकता हूं, वह यह है कि दुर्योधन इस समय जिस जांघ को ठोक रहा है, युद्ध मे भीम अपनी गदा से तोडेगा। और इसी से इसकी मृत्यु होगी। SALWAY Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * नवम परिच्छेद * श्री कृष्ण की प्रतिज्ञा - जब श्री कृष्ण को हस्तिना पुर में हुई घटना की सूचना मिली और उन्हे ज्ञात हुआ कि पाण्डव सपरिवार बनो मे चले गए हैं, सो वे तुरन्त पाण्डवो से मिलने के लिए चल पडे। दूसरी ओर घृष्ट घुम्न भी पांचाल देश से कुरु जगल के वनो की ओर चला। श्री कृष्ण के साथ राजा कैकेय, भोज और वृष्टि जीत के नेता आदि भी थे। इन सभी का पाण्डवों के साथ बहुत स्नेह था और उन्हे वडी श्रद्धा के साथ देखते थे। अर्जुन के मित्र विद्याधर खेचर भी उनसे मिलने के लिए चले। इस प्रकार क्षत्रिय राजाओ का एक बड़ा दल और अनेक विद्याधर आदि पाण्डवों के आश्रम मे पहुचे। पाण्डव वड़े हर्ष चित होकर सभी से मिले। दुर्योधन और उसके साथियो की करतूतों का पूरा हाल जब सभी ने सुना तो सभी की खेद हुआ। सभी राजाओं ने एक स्वर से धृतराष्ट्र और उसके वेटों की भर्त्सना की। कितने ही राजा एक स्वर से बोले-- "दुराचारी कौरवों का विनाश हम सबकी खड़ग से होना अवश्यमभावी है। हम इस अन्याय का बदला रण भूमि Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कृष्ण की प्रतिज्ञा मे लेगे। उन के रक्त से हम पृथ्वी की प्यास बुझावेगे।" ... आगन्तुक राजा जब अपने अपने मन की कह चुके, तो द्रौपदी श्री कृष्ण से मिली। श्री कृष्ण को अपने सामने देखते ही • उसकी आँखो से सावन भादो की झडी लग गई। अवरुद्ध कण्ठ बडी कठनाई से वह बोली-"मधु सूदन ! मैंने कौरवो के हाथो से जो अपमान सहा है, वह ऐसा है कि कहते हुए ही मेरा कलेजा - फटा सा जा रहा है। उस समय मैं रजुस्वला थी, एक साडी ही पहनी हुई थी। दुष्ट दु शासन ने मेरे केश पकड कर घसीटता हुआ भरी सभा मे मुझे ले गया। कुरु कुल के सभी वृद्ध वहा उपस्थित थे। पर किसी ने इस पाप के विरुद्ध उफ तक नही किया। दुर्योधन की आज्ञा पर उस दुष्ट ने मेरी साडी खीचनी प्रारम्भ की, मुझे भरी सभा मे नगा करने की चेष्टा की, उस समय महाराज युधिष्ठिर ने सिर नीचा कर लिया, धनुषधारी अर्जुन का गाण्डीव उस समय भूमि पर पडा था, महावलो भीम उस समय चुप खडा , था, मेरा वहा कोई नही रह गया था। वृद्ध जन गरदन झुकाए । बैठे थे। मैं भीष्म और धृतराष्ट्र की बधु हू, पर वे इस बात को भी भूल - गए थे। पाण्डु नरेश की वधु और पॉचाल नरेश की । बेटी उस समय निस्सहाय व अवला बनो हुई थी। दरिद्र पुरुष भी होते हैं वे भी अपनी पत्नी के अपमान को सहन नहीं कर । ते, पर मैं विश्व विख्यात धनुषधारी की पत्नी होकर अनाथ सी | विलाप कर रही थी। उस समय यदि काम आया तो मेरा सती चारित्र। जिस समय से,मुझे यह घोर अपमान सहन करना पड़ा उस समय से मैं तो यह समझ बैठी हू कि मेरा इस ससार मे कोड । नही है, न पति न परिवार, श्रीहर, और न आप ही। पापी दुराचारी मेरे साथ प्रत्येक अन्याय कर सकते है। वोलो क्या __ मुझ जैसी अभागिन इस ससार मे और भी कोई होगी ?' ___-कहते कहते द्रौपदी का कोमल होट फडकने लगा, वह बिलख विलख कर रो रही थी। उस के अश्रुओ की बहती गगा यमुना १ मे श्री कृष्ण की धारता भी बह चली। वे शोक विहल हो गए। । परन्तु समय की नजाकत को समझते हुए उन्हो ने अपने आप को । वहुत सम्भाला और मिष्ट वचनो से द्रौपदी को सान्त्वना देने लगे, Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत और वोले-वहन द्रौपदी ! तुम विश्वास रक्खो कि पाण्डव प्रो उनके सहयोगी इतने शक्ति शाली हैं कि वे तुम्हारे अपमा का बदला अवश्य लेंगे। तुम पर जो भी बीती है, उसे सुन कर मेरा कलेजा फटा सा जाता है । पर एक बात से मुझे सन्तो है कि जो कुछ हुआ है वह अवश्य ही तुम्हारे पूर्व कमों के फल है, दुर्योधन आदि तो निमित्त मात्र है । हा परन्तु उन्हें ने जो कुछ किया वह बैरभाव से ही किया इस लिये उन भी अपने पाप का फल भोगना पड़ेगा। तुम शोक न करो मैं वर देता हू कि उन दुप्टो के विरुद्ध मे पाण्डवों को प्रत्येक सम्भव ओ + उचित सहायता दू गा। यह भी निश्चय मानो कि तुम पुर महलो के वैभव को प्राप्त करोगी। महाराज युधिष्ठिर पुनः अप पद को सुशोभित करेगे। चाहे आकाश टूट कर गिर जाए, चा हिमालय फट कर विखर जाय, चाहे पृथ्वी टुकडे टुकडे हो जाय चाहे सागर सूख जाय पर मेरा यह वचन झूठा नही होगा।" श्री कृष्ण की इस प्रतिज्ञा मे द्रौपदी का मन खिल उठा उसने अर्जुन की ओर अर्थ पूर्ण दृष्टि से देखा। अर्जुन भी द्रौप को सान्वना देते हुए बोला- "हे पाचाली, श्री कृष्ण का वच झूठा नही होगा। वही होगा जो उन्होंने कहा है। तुम धीर घरों: हमारे साथ वासुदेव है तो फिर हमे किसी प्रकार की चिन नहीं है ।" वष्ट धुम्न ने अपनी बहन की वातो को सुन कर दुखित । कर कहा-~"हे वहन । मुझे तुम्हारी बाते सुन कर बडी लज्जा । रही है। मेरे रहते मेरी बहन को कोई अपमानित करने । दुस्साहस करे, यह मेरे लिए डूब मरने की बात है।" -" वह अपने आप को धिक्कारने लगा---'धिक्कार है मेरे पौरुप को टूट जाओ ऐ मेरी बलिष्ट भुजाओ टूट जागो, जब तुम अप बहन की रक्षा नहीं कर सकती तो तुम्हारा अस्तित्व व्यर्थ है हे मेरे नेत्रो अच्छा है तुम ज्योति हीन हो जायो, मैं अपनी पार से अपनी बहन के नयनो को सजल कैसे देख ? फूट जागो कानों फूट जायो, अपनी बहन के अपमान की कथा सुनने से अच है कि तुम फूट ही जाओ।" Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कृष्ण की प्रतिज्ञा r - 1. . --- ------ धृष्ट द्युम्न को श्री कृष्ण ने धैर्य बन्धाया। उस समय वह बोला- 'महाराज! अाज अाप ने जो प्रतिज्ञा की है मैं उसे पूर्ण करने के लिये अपना सब कुछ दाव पर लगा दूगा। मैं उसे द्रोणा चार्य को, जो कि मेरे पिता का शत्रु और आजकल कौरवो का सिरक्षक है, मारूगा। भीष्म को शिखण्डी, दुर्योधन को भीमसेन, और सूतपुत्र कर्ण को अर्जुन युद्ध मे यमलोक पहुचायेगे।" । श्री कृष्ण ने कहा-“मैं उस समय द्वारिका मे नही था। यदि होता और इस खेल का पता चलता तो चौसर के खेल को ही न होने देता, 'यह खेल धर्म के प्रतिकूल है। इस दुर्व्यसन में जो पडा है, उसका नाश हो गया है। घृतराष्ट्र के बुलाये बिना ही सभा में पहुंच जाता और भीष्म तथा द्रोण जैसे वृद्धजनों को समझा बुझाकर इस नाशकारी खेल को रुकवा देता।" "आप ऐसे समय द्वारिका से कहा चले गए थे? धृष्ट धुम्न ने पूछा। । जरासिन्ध के मित्र शाल्व ने उस समय जबकि मैं इन्द्रप्रस्थ ।। मे था, द्वारिका का घेरा डाल दिया था। पर बलराम की बुद्धि1 मता और नगर की सुरक्षित स्थिति के कारण वह अपने मन्तव्य । में सफल नहीं हुआ और मेरे द्वारिका पहुचने से पहले ही घेरा - | उठाकर भाग गया था। मैं इन्द्रप्रस्थ से लौट कर उस धुर्त को परास्त करने चला गया था। उसे यमलोक पहुचा कर आ ही रहा था कि मुझे इस काण्ड की सूचना मिली और मैं तुरन्त बन की ओर है चल पडा।" श्री कृष्ण ने बताया। । इसके पश्चात श्री कृष्ण पाण्डवों से विदा हुए वे सुभद्रा और अभिमन्यु को अपने साथ लेते गए। धृष्टद्युम्न ने बहुत चाहा कि , वह पाचाल देश चली चले पर वह तैयार न हुई। अतएव द्रौपदी ' के पुत्रों को ले कर धृष्टद्युम्न पाचाल देश की राजधानी को चला गया। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * दसम परिच्छेद * दुर्योधन का कुचक्र +- + चाहे दुर्योधन ने अपने अभिमानी स्वभाव के कारण उस समय पूरी ढिठाई दिखाई थी। परन्तु महर्षि मैत्रेय की भविष्य वाणी ने उसके हृदय को हिला दिया था। देवर्षि नारद के कथन के पश्चात् उसी का अनुमोदन करती हुई वह वाणी रह कर उसके हृदय प्रदेश मे गूज रही थी। जिस से दुर्योधन का खाना पीना। हराम हो गया था। कोमल शय्या पर करवटे बदलते बदलते ही ! प्रभात हो जाती थी परन्तु निद्रा देवी के दर्शन भी नही हो पाते थे। इसी समय दूत ने आ कर उन सारी घटनायो की सूचना दी जो कि वन मे पाण्डवो के पास घटी थी। अनेक प्रवल विद्याधरो, नरेशो, मुख्यतया त्रिखडाधिपति वासुदेव श्री कृष्ण की प्रतिज्ञा को सुन कर दुर्योधन का हृदय हाफ उठा उसका रहा सहा आत्म. विश्वास समाप्त हो गया। मौत की भयावह छाया उसकी अाँखा के सामने मडराने लगी। पैरो को पटकता हुमा विक्षिप्तो की सी अवस्था मे वह कब तक महल मे घूमता रहा इसका ध्यान उसे तब आया, जब कि उसके कानो में शकुनि को यह शब्द पडे कि-- दुर्योधन, क्या कारण है तुमने अभी तक भोजन नही किया, Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्योधन का कुचक्र .. १०१ जव कि सूर्य मध्यान्ह को भी लाघ गया है। और समीप मे आने पर दुर्योधन के चेहरे पर उडती हुई हवाइयो और चढी हुई पाखो को देख कर शकुनि स्तम्भित सा रह गया। मामा को अपने समीप मे देख कर दुर्योधन स्मत्स्थि हुआ। और सिंहासन पर बैठते हुए भर्राये हुए कठ से कहने लगा मामा जी या तो इसके प्रतिकार का अपनी विचक्षण बुद्धि से कोई शीघ्र ही मार्ग निकालिये अन्यथा कौरव-कुल की नैया तो मझधार मे ही डूबी हुई समझिये। क्यो-क्यो राजन, ऐसी अशुभ वाणी क्यों मुह से निकाल रहे हो- बैठते हुए आश्चर्य निमजित शकुनि ने दुर्योधन से कहा। जब चारो तरफ से अशुभ ही अशुभ देखने और सुनने को मिल रहा है तो आप ही सोचिये मैं कब तक शुभ स्वप्नो की कल्पनाए करताहुआ बैठा रह सकता हू । समय रहते हुए यदि कुछ प्रबन्ध नही किया तो दावानल के धू धू करके चारो तरफ से महल को घेर लेने पर कुया खोदने के उपक्रम से कुछ होने जाने वाला नहीं है। इस तरह कहते हुए प्रतिहारी को भेज कर अपने अभिन्न हृदय कर्ण,' दु शासन आदि को भी दुर्योधन-ने बुला लिया और अपनी व्याकुलता का समस्त रहस्य समझाते हुए बल दिया कि हमे कोई ऐसी युक्ति निकालनी चाहिये कि साप मरे न.लाठी टूटे। . ___ कहते है पाप ही पापी के हृदय. को दहलाता रहता है। इस । समय इस चाडाल चौकडी के हृदय पर अपने कृत्यो के अवश्यम्भावी । कुफल की विभीपिका पूरो रगत दिखला -रही थी। परन्तु रस्सी । जल जाने पर भी जैसे ऐठन सीधी नही वनती, त्यो अपने विनाश, की काली रात्रि को सन्मुख देखते हुए भी, गाधारी पुत्र शालीनता एव सद्बुद्धि को अब भी सन्मान देने को तैयार नहीं थे। पाडवो की प्रतिष्ठा और उन्हे सुख प्राप्ति की कल्पना भी दुर्योधन के हृदय मे ववडर, उत्पन्न करने के लिये पर्याप्त आधार थी परन्तु साथ ही साथ अपने अनिष्ट को सम्भावना के तूफान ने उसकी इपोग्नि को ज्वालामुखी की भान्ति भयकर रूप से धधका दिया । था। जिसके कारण इस समय उसके हृदय से निकलने वाले विचार Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ “जन महाभारत रूपी लावे से न्याय-नीति सौजन्यता. या मानवता रूपी कल्पद्रम झुलसते जा रहे थे। वह ऐसा उपाय दढ निकालने मे निमग्न था कि जिससे पाडवो का विनाश अवश्यम्भावी हो। इस कुचक्र-योजना निर्माण मे उसका मामा शकुनि मित्र कर्णादि सहयोगी एव परामर्शदाता बने हुए थे। काफी समय पर्यन्त विचार-विमर्श एव वादविवाद के पश्चात् , अन्तत. यह मित्र-मडली एक ऐसे विचार-विन्दु पर केन्द्रित हुई, कि जिससे दुर्योधन सहित सभी के चेहरे विजयोल्लास की सी दीप्ति से चमकने लगे । और "शुभस्य शीघ्रम्" का दुरुपयोग करते हुए, परस्रर के बुद्धि नैपुण्य की प्रशसा करते हए, योजना को क्रियान्वित करने के लिए धृतराष्ट्र के मत्रणा-गृह मे जा उपस्थित हुए। . . . - ___ + + + + .x x x . वत्स चिरञ्जीव होवो। कहो इस समय किस कारण से आनो हुअा। नमस्कार का उत्तर देते हुए वृद्ध राजा ने दुर्योधन से पूछा। पिता जी, बस अब बहुत हो चुका। पुरजनों की तीखी कडवी बातो को सुनते-सुनते. मेरे कान पक चुके हैं। अब मेरे से आपकी अपनी, अपने भाईयो की यह तीव्रनिन्दा एवं भर्त्सना नही सही जाती इतने विशाल साम्राज्य को पा कर भी हमे यदि मनस्ताप से झुलसते रहना पड़े तो उसके रखने से क्या लाभ ? . - क्यो? क्यो पुत्र, किस घटना को ले कर पुरजन हमे घृणित दृष्टि से देखते हैं । उत्सुकता से धृतराष्ट्र ने पूछा । यही कि जिस दिन से भाग्य ने हमारा साथ दिया। न्याय पुरस्क र हमने द्यूत मे युधिष्ठिर को पगजित किया, उसी दिन से पुरजन परिजन हाथ धो कर हमारे पीछे पड हुए है कि कौरवो से अपने भाइयो को वृद्धि नहीं देखी गई । उनको यश, राज्य, वैभव प्रतिष्ठा इन्हें फूटी पाखो नही सुहाती। हमे कोई कुलगार कह कर थकता है। कोई अत्याचारी को रट लगा रही है। और यहा तक घष्टता बढ़ गई है कि आपकी ही छत्र छाया मे रहते हैं, और आपका Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्योधन का कुचक्र ही कहते है कि प्रांखो से तो श्रधा था ही, अब हृदय की भी फूट गई है । पिता जी, सच कहता हूं कि इस अपमान से जीवित रहने की अपेक्षा मर जाना श्रेयस्कर है ! मन करता है इन राज्यद्रोहियों को चुन चुन कर मौत के घाट उतार दूं । परन्तु आपकी - कोमल प्रकृति से विवश हो कर दांत पीस कर रह जाता हूं। अब जब सिर से भी पानी गुजरने लगा तो मेरे लिए आप से निवेदन करना आवश्यक हो गया है। १०३ वृद्ध धृतराष्ट्र बुद्धिमान थे, न्यायशील भी। अपने भतीजों के प्रति उन्हे कुछ स्नेह भी था । उन्हे अपने पुत्रों के प्रति मोह था । उनके चक्षु ज्योति हीन थे । उनके स्वभाव मे दृढ निश्चय करने और उस पर चलते रहने की कमी थी । किसी बात पर वे स्थिर नही रह सकते थे । अपने हठी पुत्र दुर्योधन को वश मे रखने की उनमे क्षमता नही थी । इसी कारण यह जानते हुए भी कि दुर्योधन कुपथ पर जा रहा है, उसे रोकने अथवा सुपथ पर लाने मे असमर्थ थे । इसके कार्यों को देख देख कर उनके मन मे पीडा होती । पर वे मन ही मन मैं घुटते कुडते रहते पर प्रत्यक्षत कुछ कह न पाते थे । परन्तु आज अपने पुत्र की बातो को सुन कर जहा उन्हे अपने अपमान को जान कर दुख होना चाहिये था प्रत्युत प्रसन्नता हुई । उन्होने सोचा, चलो सुबह का भूला शाम को भी घर ग्रा जाये तो खैर ही है । शायद कोई रास्ता ऐसा निकल आये जिससे अब यह पाडवो से विरोध करना त्याग देवे और प्रेम पूर्वक साथ रहना स्वीकार कर लेवे । इत्यादि विचार करते हुए राजा धृतराष्ट्र ने चिन्ता व्यक्त करते हुए कहा पुत्र, गुलाब केतकी कस्तूरी किसी से चिचोरिया करने नही जाती कि तुम हमे सुगन्धित रूप मे वखानो । पारखी स्वयं उनकी सुगन्ध से श्रापित होता है और प्रशंसा करता है । त्यो पांडव धर्मात्मा है, गुणवान हैं, सबसे समान स्नेह रखते हैं । इसी कारण प्रजा भी उन्हे चाहती है। उनकी सहायता करने वालों की भी कमी नही है । और जब से तुमने द्यूत के द्वारा पाडवो से विरोध खडा किया है। तब से प्रजा तो क्या हमारे वश के प्रतिष्ठित समस्त पुरुषो की भी दृष्टि से गिर गये हो । मुझे यह भय सताता रहता Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१०४ जैन महाभारत है कि कही प्रजा विद्रोह न कर बैठे। हम लोक निन्दा और अपयश पात्र तो हो ही चुके है पर कही हस्तिनापुर से भी हाथ न धोना पड जाय। इस लिए अब भी समय है कि तुम पांडवो से प्रेम स्थापित कर लो। इसमे तुम्हे यश भी प्राप्त होगा और निश्चित रूप से आनन्द मगल भी। पिता के मुख से पाडवो की प्रशसा सुन कर दुर्योधन के हृदय मे एक बार फिर टीस सी पैदा तो हुई। परन्तु अवसर की अनुकूलता नहीं थी। प्रत जहर की सी घुट पीते हुए, अपने रचे हुए जाल मे फसाने के लिए प्रत्यक्षत स्वर मे कोमलता प्रदर्शित करते हुए बोला - - पिता जी मैं इस से नही घबराता कि कौन पाडवो का । साथी है। और कितनी उनमे शक्ति है। हमारे भी मित्रों की कमी नही मुझे अपनी शक्ति का पूर्ण विश्वास है। मैं जब चाहे पाडवो को सदा की नीद सुला सकता है। परन्तु 'मुझे दुख तो इस बात का है कि मैं जैसे २ पाडवो को चाहता हू वे त्यो त्यो प्रजाजनों में अधिक सन्मान के पात्र बनते जाते हैं । और हमे प्रतिष्ठा के स्थान पर अपयशकाभागी बनना पडता है। इस लिये कोई ऐसी युक्ति ' सुझाइये कि जिस से हमे भी ससार आदर की दृष्टि से देखने लगे और आप का सर्वत्रं जय जयकार होवे। बेटा तुम ने आज मेरे हृदय को अमृत से सीच दिया। भगवान तुम्हे सदा ही सबुद्धि देवे। पुत्र स्मरण रक्खो, यश रूपी वैभव से जो सम्पन्न है वह तीनो काल मे सुखी और अजर अमर है और अपयशभागी त्रैलोक्येश्वर होकर भी दीनहीन और मृत प्राय होता है। अतः सर्वदा वह कार्य करो जिस से तुम्हारे यश की वृद्धि हो। दूसरे को बढाने से ही मनुष्य वृद्धि पाता है। जितना किसी को सुख प्रदान करोगे उतनी ही तुम्हारी वृद्धि होगी। यश प्राप्ति होगी! जितना किसी को सतायोगे, रुलाओगे, गिराओगे, उतना ही तुम्हे भी कष्ट उठाना पडेगा, रोना- पडेगा और ससार की दृष्टि से गिर जाओगे। इस लिए पुत्र यदि तुम यशस्वी Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्योधन का कुचक्र १०५ एव सुखी बनना चाहते हो, तो सबसे प्रथम अपने भाई पांडवों के सुखो का निराकरण करो कि जिनको तुमने राजराजेश्वर की गद्दी में दीनहीन भिक्षुको की सी. दयनीय स्थिति मे ला पटका है यदि तुम उन्हे सुख सुविधाए प्रदान करो, तो प्रजा तुम्हारा अवश्य अभिनन्दन करेगी। और वत्स, मैं तो यह समझता हू कि यदि उनका राज्य तुम उन्हे समर्पण करदो, समस्त विसवाद ही समाप्त, हो जाये और ससार भर मे तुम्हारा जय जयकार गूज उठे। प्रेम से दुलारते हुए अन्धे राजा ने दुर्योधन को सम्मार्ग पर लाने की चेप्टा की। पिताजी श्राप का, कथन धर्म नीति अनुमोहित है। सभी ग्रन्थ एव वृद्धजन यही कुछ. समझाते है परन्तु मैं तो राजनीतिज्ञो. के इस कथन को प्राथमिकता प्रदान करता हूं कि शत्रु एवं काटों को जब भी समय मिले मसल डालना चाहिये। परन्तु देखता हू कि इस पथ पर अग्रसर होते हुए प्रत्येक अवसर पर मुझे लाछित ही होना पड़ा है।' -अत. हृदय से न चाहते हुए भी; मात्र आप की आजा को शिरोधार्य कर, एक बार इस शिक्षा की भी परीक्षा करके देख लेता है। यदि इसमे कुछ हृदय को समाधान एव लोक मे सफलता प्राप्त हुई, तो फिर जैसे भी आप को याज्ञा होगी उसे विना ननुनच के स्वीकार करता रहूगा। परन्तु वर्तमान मे मुझे 'यह उचित नही जचता कि मैं पोंडवों को सहसां राज्यं प्रदान कर दू। दुर्योधन ने कहा। - हा. दुर्योधन तुम्हारा कथन सोलह आने सत्य है। यदि इस समय पांडवों को राज्य लौटाया गया तो लोग समझेंगे कि दुर्योधन पाडवों से डर गया है। दूसरे इस समय वे लोग अपने किये का भोग रहे है। जो उन्होने महाराज का अपमान किया था अव उसका उनको स्वाद मिल रहा है । गर्मी सर्दी भूख प्यास आदि से व्याकुल होते हुए अवश्य हो तुम्हारे ऊपर दात पीसते होगे। यदि ऐसे समय राज्य की वागडोर उनके हाथो समर्पण कर दी तो वह "हाथ धो कर तुम्हारे पीछे पड़ेगे। आश्चर्य नही उस समय हमे ही राज्य से हाथ न धोने पड़ जायें। इस लिये भले वनने की धुन में । कही अपने पैरो, पर कुल्हाड़ी न, मार,बैठना। वात सम्भालते हुए Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ me १०६ शकुनि ने कहा -- जैन महाभारत यही तो दुविधा है । एक तरफ तो पिता जी की प्रतिष्ठा के " ने स्थापित करने का महाप्रश्न है दूसरी में गिरने का पूरा भय है । दुःशासन है । परन्तु मैंने निर्णय कर लिया है कि हुए पथ पर भी चल कर परीक्षा करूंगा कि क्या परिणाम निकलत है । प्राज्ञाकारिता का नाट्य करते हुए दुर्योधन ने कहना प्रारम् किया - परन्तु श्रापहितैषियो की चेतावनो को भी झुठला नह सकता। इस लिए मेरे तो विचार मे यही जचता है कि पाड को वनवास से तो बुलवा लिया जाये और अपने आस-पास के किर छोटे नगर मे उनके निवास का, खान पान यादि सुविधाओ का प्रबन्ध कर दिया जाये । श्रौर देखा जाय कि हमारे इस कदम प्रजा पर और पाडवों पर क्या प्रभाव पडता है । C तरफ कुए से बचते हुए खा रंग जमाया। यह सब ठी एक बार पिता जी के सुभार ठीक है ठीक, कर्ण ने कहना शुरु किया- इससे एक तो की गतिविधि पर भी नियंत्रण रखा जा सकेगा दूसरे हो सकता कि आपके सद्व्यवहार से पाडव हृदय से प्राप को स्नेह करने जाये और हमारे महाराजा की इच्छा भी पूर्ण हो जाये । मेरे विचार मे इस कार्य के लिए वारणावत का चुनाव प्रच रहेगा। यहां से उन पर निगाह भी आसानी से रखी जा सके और वहां कोई विशेष सहायक भी उन्हे नही मिल सकेगा ।। यह भी उचित है । यदि पिता जी आज्ञा दे तो वहां एक श्रावत बनवाये देता हू जिस मे वे लोग राज्य कर्मचारियों से पृथक पृथक आराम से रह सकें। यदि उन्होने भाई चारे का सबूत दि तो बनवास की अवधि के पूर्ण हो जाने के पश्चात् राज्य लोट का कार्य-क्रम भी बनाया जा सकेगा । दुर्योधन ने कहा 14 धृतराष्ट्र. जो दतचित्त हो इनकी बात-चीत के उतार चढ को जाँच रहे थे, बोले— पुत्र, मैं तो यही चाहता हूं कि इस परी के चक्कर में न पड़ कर सरलता पूर्वक पाडवों का राज्य उ समर्पण करदो । वे धर्मात्मा एव कृतज्ञ हैं । कभी स्वप्नों मे 1 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - n . ............... दुर्योधन का कुचक्र १०७ __ तुम्हारे अहित को नहीं सोचेगे .. . . .. नही, नही पिता जी आप भूलते हैं। मैंने धर्म नीति का परीक्षण करने का निर्णय किया है इसका अभिप्राय यह नही कि हम राजनीति को ताक पर ही रख दें। हमे फूक २ कर इस पथ पर कदम रखना होगा। उस समय आप तो सिर्फ इतनी ही प्राज्ञा दीजिये कि जल्दी से जल्दी एक आवास गृह वारणावत मे बनवा हूँ और तब आप पांडवों को जैसे भी उचित समझे वैसे उसमें निवास करने के लिये बुलवा भेजिये । बस । - पुत्र, पाप का फल सदा बुरा होता है। राज्य के प्रलोभन में कोई ऐसा कार्य न कर बैठना जिससे तुम्हे नरकों के दुख भोगने पडें । और यह ससार भी तुम्हारे लिये नरक बन जाये। धृतराष्ट्र अभी तक दुर्योधन. की तरफ से सशकित थे। परन्तु उनमे उसे ललकारने की शक्ति नहीं थीं। . . पिता जी, विश्वास रखिये, ऐसी कोई बात मैं करने वाला नही हूं कि जिसमें आपको किसी प्रकार का कष्ट उठाना पड़े। दुर्योधन ने आश्वासन देना प्रारम्भ किया और अपने कार्य मे पूर्ण सहायता का वचन ले कर खुशी २ यह मडली अपने महल आई और पूर्व निश्चयानुसार कार्य मे दत्तचित्त हो कर जुट गई। x + ) , xxx दुर्योधन ने अपने कुचक्र सभालन के लिए मुह मांगा धन प्रदान कर अपने पुरोहित पुरोचन को, जिसे कि पाडव भी श्रद्धा एव विश्वास की दृष्टि से देखते थे, अपना अभिन्न हृदय बना लिया था। उसी की देख रेख मे वारणावत मे लाख, प्रोम आदि तुरन्त अग्निग्राह्य पदार्थों के समिश्रण से एक महल का निर्माण कराना प्रारम्भ किया, और धृतराष्ट्र का सन्देश लिखवा कर सदल वल युधिष्ठिर के पास वन मे भेज दिया। जहा पर उसने येन केन प्रकारेण पाडवो को वारणावत मे निवास करने के लिये और अपने साथ चलने के लिए तैयार कर धूम धाम से प्रवेश कराने के लिए वारणावत में कार्य कर रहे राजकीय कर्मचारियों एव निवासियो को आगमन Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ जैन महाभारत की तिथि का समाचार भेज दिया । . . . . . . . • x x x x xisixx . जहां एक तरफ दुर्योधन पांडवो के विनाश का कुचक्र रख रहा था वहां दूसरी तरफ धर्मात्मा विदुर भी - शान्त न बैठे थे। धृतराष्ट्र के द्वारा पांडवों को वारणावत-निवास -क्रराने आदि का समस्त समाचार उन्हें ज्ञात हो चुका था । और दुर्योधन यह सब सदाशयता से कर रहा होगा.यह उनका हृदय मानने के लिए तैयार न था। अत. चतुर दूतो को वारणावत भेज कर महल में प्रयुक्त की जा रही विशेष सामग्री आदि के द्वारा वह वास्तविकता को समझ चुके थे। अत. वारणावत मे इस महल में ठहराने का दुर्योधन का "क्या आश्य है, और कैसे उससे अपनी रक्षा करनी चाहिये इत्यादि समस्त वाते उन्होने सांकेतिक भाषा में लिख कर अपने विश्वस्त पुरुष को युधिष्ठिर के पास वारणावत मे देने के लिए प्रेषित कर दिया। r CRE 4 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IT " /... एकादस परिच्छेद * 177 G लाख का महल 5 tr J वारणावत के लोगों ने जब पाण्डवो के ग्रागमन का समाचार 'सुना वे बड़े प्रसन्न हुए। और उनके स्वागत को तैयारियां जोर • शोर से होने लगी। सभी लोग पाण्डवों के गुणों से परिचित थे, तः वे उनका स्वागत करना अपना कर्तव्य समझते थे । F ܕܪ 2 "Y- R जब पाण्डवो ने वारणावत में प्रवेश किया, सहस्रो नर नारी उनके ऊपर पुष्पो की वर्षा और जय जयकार करने लगे । re युधिष्ठिर और सती द्रौपदी के प्रति बहुत श्रद्धा दर्शाई गई । सारा नगर सजा हुआ था । » · वारणावत के नागरिको की ओर से किए गए प्रभूत पूर्व स्वागत से पाडवो का मन भी खिल उठा । 1 -लाख का महल अभी तैयार नही हुआ था अतएव पुरोचन ने उन्हे दूसरे स्थान पर ठहराया । इसी समय विदुरद्वारा प्रेरित समाचार युधिष्ठिर को मिला, जिसे जानकर वे आश्चर्यचकित रह गये और भविष्य के चौकन्ने बन गये। कुछ दिनो पश्चात महल तैयार हो जाने पर पुरोचन वडे आदरपूर्वक उन्हें महल मे ले गया । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० जैन महाभारत महल की सुन्दरता को देख कर सभी प्रसन्न हुए। भीमसेन ने कहा--- "भ्राता जी! महल बडा सुन्दर है। दुर्योधन ने वास्तव में हमारे लिए कितना अनुपम महल बनवाया है। लगता है अब उनके मन में भ्रातृ स्नेह जागृत हो गया है।" नकुल ने आगे बढ़ कर दीवार के प्लास्तर को स्पर्श करके प्रसन्न हो कर कहा- "और इसमें मिट्टी कितनी चिकनी लगी है। पता नहीं चलता कि यह दर्पण है या चिकनी मिट्टी।" । उसी समय युधिष्ठिर बोल उठे-"पर है यह सारी घोखे की टट्टी।" सहदेव ने आश्चर्य चकित होकर कहा- भ्राता जी! आप तो कभी ऐसी बाते कह जाते हैं कि आश्चर्य होता है। इतना बहुमूल्य सुन्दर महल है और आप कहते है इसे धोखे की टट्टी।" । अर्जुन बोल उठे-"कई लाख की लागत से तैयार हुआ होगा। ___ वाह रे पुरोचन, जी चाहता उसकी कला की प्रशसा किए जाऊ ।" "हां, यह लाख का ही बना है। युधिष्ठिर वोले शिकारी ने शिकार करने के लिए नयनाभिराम व चित्ताकर्षक जाल विछाया है।" चारो भाई युधिष्ठिर का मुंह ताकने लगे। भीम बोल पडा-"क्या कहते है भ्राता जी ! इस मे लाख की ही लागत है, यह तो कई लाख का है।" "हां हा, है लाख का ही।" द्रौपदी भी युधिष्ठिर के शब्दो पर चकित थी। उस ने कहा-"इतना सुन्दर महल है कि सभी इस की प्रशसा कर रहे हैं और महाराज बता रहे हैं इसे जाल ?वात क्या है ?" भीम प्राग्रह करने लगा युधिष्ठिर से उनकी बात जानने का। तब युधिप्ठिर नोले-यद्यपि मुझे यह ज्ञात हो गया है कि Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्योधन का कुचक्र यह स्थान खतरनाक है। यह शीघ्र आग पकडने वाली वस्तुओं को विशेषतया, लाख को मिट्टी में मिलाकर बनाया गया है. फिर भी हमे इस रहस्य को अपने मन मे छुपाकर रखना चाहिए। विचलित नहीं होना चाहिए । पुरोचन को भी यह ज्ञान न हो कि हमे महल का भेद ज्ञात हो गया है। विदुर चाचा ने यहां पहुंचने के समय ही मुझे महल का रहस्य सांकेतिक भाषा में बता दिया है । परन्तु अभी शीघ्रता मे हम से कोई ऐसी बात न करे जिस से पुरोचन को तनिक सा भी सन्देह हो जाय।" युधिष्ठिर की इस सलाह को सभी ने मान लिया और उसी लाख के भवन मे रहने लगे। इतने मे विदुर जी का भेजा हुया सुरग बनाने वाला एक कारीगर वारणावत नगर मे आ पहुचा । उस ने एक दिन पाण्डवो को एकान्त मे पाकर के अपना परिचय देते हुए कहा-"आप लोगो की भलाई के लिए हस्तिनापुर से अपने इनके द्वारा विदुर ने युधिष्ठिर को साकेतिक भाषा मे जो उपदेश दिया है उसको मैं जानता हूं। यही मेरे सच्चा होने का प्रमाण है। आप मुझ पर भरोसा रक्खे । मैं आपकी रक्षा का प्रवन्ध करने के लिए ही यहा आया हूं।" इसके पश्चात वह कारीगर महल में पहुंच गया और गुप्त रूप से कुछ दिनो मे ही उस ने एक सुरग वना दी। इस के रास्ते पाण्डव महल के अन्दर से नीचे ही नीचे महल की चहार दीवारी और गहरी खाई को लाघ कर और बच कर बेखटके बाहर निकल सकते थे। यह काम इतने गुप्त रूप से हुआ कि पुरोचन को अन्त तक इस बात की खबर न होने पाई। पुरोचन ने लाख के भवन के द्वार पर ही अपने रहने के लिए स्थान बनवा लिया था। इस कारण पाण्डवो को सारी रात हथियार लिये चौकन्ना रहना पड़ता था। कभी कभी वे सैर करने के बहाने आसपास के वनो मे घूम कर पाते और वन के रास्तो को अच्छी प्रकार देख लेते। इस प्रकार पड़ोस के प्रदेश और जंगली रास्तो का उन्होने खासा परिचय प्राप्त कर लिया Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११०२२ जैनः महाभारत, वे पुरोचन से, ऐसे हिलहिलकर व्यवहार करते- जैसे. उस पर कोई सन्देह ही, नही है; वल्कि वह उनका अपना व्यक्ति है। सदाहसते-खेलते रहते। उनके व्यवहार को देख कर किसी का तनिक ... ! सा भो सन्देह नहीं हो सकता था कि उन के मन मे किसी प्रकार . की शका, अथवा चिन्ता है । . . . . ., उधर पुरोचन भी. कोई शीघ्रता नही करना चाहता था उस ने सोचा, कि ऐसे अवसर पर, इस ढग से भवन को आग लगाई जाये कि कोई उसे दोपी न ठहरा सके।' 'दोनों ही पक्ष अपने अपने दाव खेल रहे थे। इसी प्रकार दिन बीतते रहे। एक दिन पुगेचन ने सोचा कि अब.पाण्डवों का काम तमाम करने का समय आगया, पाण्डवो, को मुझ पर पूर्ण विश्वास है। महल को बने महीने बीत गए। इस समय आग लगाने पर. कोई भला .क्या सन्देह कर सकेगा? .बुद्धिमान युधिष्ठिर उस के रग ढग से ताड गए कि वह अब क्या सोच रहा है। उन्होने अपने भाइयो से कहा -पुरोचन ने अब हमें जलाकर मार डालने का निश्चय कर लिया मालूम होता है। यही समय है कि हमे भी अव यहा से भाग नि । लना चाहिए." .. • युधिष्ठिर के परामर्श से द्रौपदी ने उस रात को एक बडे भोज का प्रबन्ध किया। नगर के सभी लोगो को भोजन कराया गया। बडी. धूम धाम रही मानो कोई उत्सव हो। खूब खा पी कर. भवन के सभी कर्मचारी सो गए। पुरोचन ने भी छक कर खाया था वह भी गैय्या पर पड़ते ही खरीटे भरने लगा। , आधी रात के समय भीम सेन ने भवन में कई जगह आग लगादी और फिर पाचो भाई सती द्रौपदी के साथ सुरग के रास्ते अधेरे मे रास्ता टटोलते हुए बाहर निकल आये। ' वे भवन से । बाहर निकले ही थे कि अग्नि ने सारे भवन को अपनी 'लपेट मे ले । लिया। पुरोचन के रहने के मकान मे भी आग लग गई। ...' ., । “चाग की लपटे आकाश की ओर उठ रही थी,, ऐसा मालूम होता था कि आकाश को छूलेगी। लपटो का: प्रकाश, सारे नगर Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाख का महल पर छा गया। निंद्रामग्न लोग जाग उठे। सारे नगर मे खल बली मच गई। लोग तुरन्त महल की ओर भागे। पर जब तक कोई,वहा पहुचे, तो आग सारे महल में लग चुकी थी, -भवन का काफी भाग भष्म हो चुका था। हतप्रभ लोग हाहाकार करने लगे। रुई की भाति जलते भवन को देख कर लोग समझ गए कि महल किसी शीघ्र आग पकडने वाली वस्तु का बना है। वे उसे दुर्योधन का षडयन्त्र समझने लगे और सभी कौरवो के अन्याय । की आलोचना करने लगे। -- सभी समझ रहे थे कि पाण्डव इसी भवन मे भस्म हो गए। यह सोच कर उनकी छाती फटने सी लगी, सभी के नेत्रों से अश्रु और क्रोध की चिनगारिया निकल रही थी। ___ कोई कहता-"पाण्डवों की हत्या करने के लिए ही पापी कौरवो ने यह षडयन्त्र रचा था।" दूसरा कहता-"हम भी सोच रहे थे कि आखिर पाण्डवों के लिए कुछ दिन रहने के हेतु इतना विशाल भवन क्यो वनाया जा रहा है। लो यह षडयन्त्र था इस भवन की पृष्ठ भूमि मे।" तो कोई कहता-- ‘पाण्डवो के शत्रुओ ने ऐसा अन्याय किया है, जिसका उदाहरण कही भी नही मिलता " इसी प्रकार क्षुब्ध जनता अनाप शनाप कहती रहीं। जो जिसके मन मे आया क्रोध वश वही कहता। चारो ओर हाहाकार हो रहा था। लोगो के देखते देखते सारा भवन जल कर ख क हो गया। पुरोचन का मकान और स्वय पुरोचन भी आग की भेट हो गया। पाण्डवो की मृत्यु का भ्रम होने से सारा नगर विहल हो ( गया। सारे नगर में लोग पाण्डवो के गुणो को याद कर कर के रोते . रहे। लोगो ने तुरन्त ही हस्तिनापुर मे खवर पहुंचा दी कि पाण्डव जिस भवन मे रहते थे, वह जल कर राख हो गया और महल का कोई भी व्यक्ति जीता नही बचा। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “जैन महाभारत - यह समाचार सुनकर वृद्ध धृतराष्ट्र को शोक तो हुआ पर मन 'ही मन उन्हें आनन्द भो हो रहा था कि उन के वेटों के शत्रु समाप्त हुए और झगडा समाप्त होगया । ग्रीष्म ऋतु मे जैसे गहरे तालाव का पानी सत्तह पर गरम किन्तु गहराई मे ठण्डा रहता है, ठीक उसी तरह वृतराष्ट्र के हृदय मे शोक भी था और आनन्द भी । धृतराष्ट्र और उनके वेटो ने पाण्डवों की मृत्यु का “वडा शोक मनाया। सव आभूषण और सुन्दर वस्त्र उतार दिए और एक एक मामूलो कपडा पहन कर पाण्डवों तथा द्रौपदो को जलांजलि दी। फिर सर्व मिल कर बड़े जोर जोर से रोने और विलाप करने लगे। उनका यह शोक प्रदर्शन अपने षडयन्त्र पर परदा डालने और लोगो की शकाओ को निर्मूल सिद्ध करने के लिए था। सारा हस्तिनापुर रो रहा था, परन्तु दार्शनिक विदुर ने यह कह कर कि जीना मरना.तो प्रारब्ध की वात होती है, इस मे किसी का क्या चारा? अधिक शोक न दीया। उन्हे मत ही मन में यह विश्वास था कि पाण्डव'अवश्य ही बच निकले होगे। अत. दूसरो के सामने तो वे भी कुछ रोये पर मन ही मन यह अनुमान लगाते रहे कि पांडव किस रास्ते से किस ओर गए होगे और इस समय कहाँ पहुचे होगे? इत्यादि पितामह भीष्म तो मानो शोक के सागर मे डूब गए थे। परन्तु अन्त मे उन्हे भी विदुर जी ने समझाया और पाण्डवो की रक्षा के लिए उनके द्वारा किए गए प्रवन्धो का - वृत्तांत वता कर उन्हे चिन्ता मुक्त किया। ___x x x x x x : ४ : लाख के महल को जलता छोड़ कर सुरंग के द्वारा निकल कर द्रौपदी सहित पाण्डव जंगल में पहुंचे। बनो.के वीहड़ रास्ते को रातों रात तय करते रहे। प्रातः होने तक वह चलते रहे और बीहड़ पथ पर पैदल चलते चलते थक गए। द्रौपदी तो बुरी तरह थक कर चूर हो गई थी। उस के लिए एक भी पग उठाना दूभर हो रहा था, अतः वह यह कह कर भूमि पर गिर पड़ी और वोली कि मुझे आत्म शान्ति है पर मुझ से नहीं चला जाता, मैं ता Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाख का महल यही पडी रहूगी।" .. __समस्त पाण्डव भी प्यास से व्याकुल थे अत भीम के अतिरिक्त सभी बैठ गए मीम जलाशय की खोज मे गया। एक स्थान पर टक्करे खाकर उसे जलागय मिल गया। उसने कमल के पत्तों में पानी भर लिया और जल में अपना दुपट्टा भिगो लिया और लाकर चारो भाइयो तथा द्रौपदी को पानी पिला कर सचेत किया। फिर भीम ने ढारस बधाई। प्रोत्साहन दिया और सती'को कंधे पर उठा लिया। चारों भाई साथ हो लिए। भीम उन्मत्त हाथी की भाति आगे आगे रास्ता साफ़ करता चला, अन्य भाई पीछे पीछे चलते रहे। . गगा तट पर पहुच गए। एक नाव के द्वारा उन्हो ने . गगां पार की और फिर चलने लगे। कभी कभी किसी भाई के थक जाने पर भीम उसे भी उठा लेता और झूमता झामता चलता रहता। चलते चलते रात्रि हो गई सभी भाई और द्रौपदी थक कर सो गए, पर भीम उस बीहड वन मे अकेला ही जागता रहा। हिंसक पशुओं-की-भयानक आवाजे पा रही थी, पर भीम निश्चित हो, कर बैठा था, वह समस्त वृक्षो व पक्षियो को देख कर मन मे सोचता-"वन के यह वृक्ष, - और-पक्षी एक दूसरे की रक्षा करते हुए कैसे मौज से रह रहे हैं, पर धृतराष्ट्र और दुर्योधन मानव होते हुए भी शाति पूर्वक प्रेम भाव से नही रह मकते। उनसे तो यह वृक्ष और-पक्षी ही भले।" - प्रातः हुई फिर वे चल पडे । ... 'पाँचो भाई और द्रौपदी अनेक विघ्न बाधाओं को झेलते हुए रास्ते पर बढते रहे। वे कभी द्रौपदी को उठा कर चलते, कभी धीरे धीरे बढते। कभी विश्राम करने लगते और कभी आपस मे होड़ लगा कर रास्ता नापते। भूख प्यास से व्याकुल पाण्डव आगे बढते ही गए। . रास्ते मे उन्हे एक कर्म सिद्धान्त का ज्ञाता मिला और उनकी .परस्पर वाते हुई। पाण्डवों को इस प्रकार वनो मे भटकते हुए देखकर उस निश्चय व्यवहार के ज्ञाता ने उन से पूछा कि 'महलों र Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत मे वास करने वाले इस प्रकार निर्धनो और निस्सहायों की भाति कहां जा रहे है ?" उत्तर मे युधिष्ठिर ने अपनी समस्त विपदाए कह सुनाई। द्रौपदी रोने लगी और उसने कौरवो के अन्याय की शिकायत . की। तव सिद्धान्तज्ञाता वोले-ससार में प्रत्येक व्यक्ति पाप भी करता, है, धर्म भी, जो पाप नहीं करता वह निवृति मार्गी है।, लक्ष्मी, सम्पत्ति और राज्य के लिए लोग नीच से नीच कार्य भी कर डालते है, पर संसार मे पुण्य पाप का चक्र चलता रहता है, जो सुख भोगते हैं वह अपने पुण्य से। आप का जितना पुण्य है उतना ही, सुख आप को मिलेगा। न ससार मे कोई किसी को सुख देता है न दुख, यह मनुष्य के अपने कर्म है जिनका फल सुख या दुख के रूप में मिलता है। बाकी सब निमत मात्र बन जाता है। आप ओ भोग रहे है वह आप के पूर्व कर्मों का फल है, जो भोगना ही होगा। ऐसा ही सर्वज्ञ देव का सिद्धान्त कहता है। दुख के समय आप को विचलित नही होना चाहिए और किसी के अन्याय से पथ विमुख भी नही होना चाहिए।" सिद्ध पुरुष के उपदेश से द्रौपदी को बहुत सान्त्वना मिली। और अपनी विपदाओ तथा दुर्योधन के अन्याय पूर्ण व्यवहार को अपने तथा पाण्डवो के पूर्व जन्मो के कर्मों का फल समझकर वह अपने भाग्य को तदवीर से बदलने के लिए पाण्डवों के साथ पुन चल पडी। आगे जाकर जव वन समाप्त होने को था, पाण्डव भ्राताओ ने आपस मे विचार विमर्श किया कि भावी कार्य क्रम क्या हो? युधिष्ठिर वोले-"अच्छा हो कि हम अभी कुछ दिनों दुर्योधन की आँखों से ओझल रहे। उसे इसी हर्ष में फूलता छोड दें कि हम सब अग्नि की भेट हो गए है। इस के लिए यह आवश्यक है कि हम अपना वेष वदल कर घूमे।” अर्जुन ने युधिष्ठिर की वात का समर्थन किया और सभी ने एक मन होकर निश्चय किया कि वे गुप्त वेष धारण कर ले। अतएव उन्हो ने राजकुमारों के वस्त्र उतार डाले और साधारण वस्त्र पहन लिए। पथ कर वेपधारी पाण्डव वन से निकल कर वस्ती की ओर चले। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 *{ * द्वादस परिच्छेद * 2 *************** बकासुर वध, - *************** द्रौपदी के साथ पाचों पाण्डव एक चक्री नगर में पहुंचे । वे एक ब्राह्मण के घर ठहर गए और भिक्षा माग कर अपनी गुजर करने लगे । कहते हैं भिक्षा से जो मिलता, उस मे से आधा भीम को दे देते और शेष मे चारो भ्राता तथा द्रौपदी गुजर करते । क्यों, कि भीम सेन में जितनी अमानुषिक शक्ति थी उतनी ही अमानुषिक C भूख भी थी। यही कारण था कि लोग उसे वृकोदर भी कहते थे । वृकोदर का अर्थ है भेडिये के से उदर वाला । भेडिये का पेट छोटा सा प्रतीत होने पर भी मुश्किल से ही भरता है । भीम सेन के पेट की भी यही दशा थी भिक्षा से जो मिलता था उसमे से आधा उसे मिलने पर भी उस से उसका पेट न भरता, । हनेशा ही भूखा रहने के कारण वह दुबला भीम सेन का यह दशा देख कर द्रौपदी और उसे सन्तोप न होता । होता जा रहा था । युधिष्ठिर बड़े चिन्तित रहने लगे । होती और वह बुरी जब थोडे से अन्न से भोम की पूर्ति न तरह परेशान रहने लगा तो उस ने एक कुम्हार से मित्रता कर ली और उसे मिट्टी खोदने यादि मे सहायता देकर प्रसन्न कर लिया | कुम्हार उस से वहुत प्रसन्न था उसने एक वडी हाण्डी बना कर उसे दी । भीम जब हाढी को लेकर भिक्षा लेने जाता तो उसके Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ बकासुर वध भीम- काय शरीर और विलक्षण हाडी को देख कर बालक हसते - हसते लोट पोट हो जाते । जब कभी पाण्डवो को भिक्षा लेकर घर लौटने मे देरी हो जाती तो सती द्रौपदी बुरी तरह अशकाओ से पीडित हो जाती । बड़ी चिन्ता से उनकी बाट जोहती रहती । वह बेचैनी मे सोचने लगती कि कही दुर्योधन के दूतो ने उन्हे पहचान ने लिया हो, कही कोई विपदा न खडी हो गई हो । एक दिन चारो भाई भिक्षा के लिए गए, केला भीम सेन घर पर रहा। इतने मे ब्राह्मण के घर के भीतर से बिलख बिलख कर रोने की आवाज आई। ऐसा प्रतीत होने लगा मानो कोई बहुत ही शोक प्रद. घटना घट गई हो । भीम को जी भर आया । वह इसका कारण जानने के लिये घर के भीतर गया । कर देखा कि ब्राह्मण और उसकी पत्नी आखो मे कियां लेते हुए एक-दूसरे से बाते कर रहे है । अन्दर जा 3 आसू भरे सिस . ब्राह्मण बडे दुखी हृदय से अपनी पत्नी से कह रहा था"अभागिनी । कितनी ही बार मैंने तुझे समझाया कि इस ग्रन्वेर् नगरी को छोड़ कर कही और चले जायें, पर तुम ने न माना । कहती रही कि इसी नगर मे पैदा हुई, यही पली तो यही रहूगी । माँ बाप तथा भाई बहनों का स्वर्ग वास हो जाने पर भी तू यही, हठ करती रही कि यह मेरे वाप दादे का नगर है, यहीं रहूग 1 मैंने बहुत समझाया पर तेरी समझ मे एक न आई । अब बोलो क्या कहती हो ?" नही होता ? ब्राह्मण की पत्नी अपनी भूल पर पश्चाताप करती हुई वोली- 'मुझे क्या पता था कि यह दिन हमे भी देखना पडेगा । अपनी मात्र भूमि से किसे प्रेम हा आज अवश्य पछताती हूं । सोचती हूं कहा चली गई थी तब मेरी बुद्धि । आज सिर पर ग्रा बनी तो हाथ मलती है । पर क्या किया जाय । वस यही कर सकती हू कि मेरी ही हठ से आज इस परिवार पर यह विपत्ति पडी, ग्राज मुझे ही इसका दण्ड भोगने दें । आप बालकों को सम्भालें और मुझे जाने दे ।” 4 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत 1. ब्राह्मण द्रवित हो कर बोला-"तुम मेरी धर्म-कर्म की सगिनी हो, मेरी सन्तान की मां हो और मेरी पत्नी हो। मैंने सदा ही तुम्हारे प्रेम की ऊष्णता से अपने सरद पडते विचारो तथा भावो को गरमी प्राप्त करी है। तुम ने जीवन के हर क्षण में मेरे साथ सच्चे मित्र की भाति मेरा साथ दिया है। तुम ने 'निर्धनता मे भी मुस्कान का हाथ नही छोडा । मेरा जीवन सर्वस्व तुम्ही हो। तुम्हे मृत्यु के मुह में भेज कर मैं अकेले कैसे जीवित रह सकता हूं?" - "पिता जी! आप मुझे ही भेज दें। मैं ऐसे मुसीवत के समय आप के काम आ सकू और माता पिता के ऋण से मुक्त हो सकू तो अहोभाग्य !" ब्राह्मण की कन्या बोलो। ब्राह्मण अवरुद्ध कण्ठ से बोला--"हाय मैं अपनी बेटी की बलि कसे चढा दू? यह तो मेरे पास एक धरोहर है, जिसे सुयोग्य वर को व्याह देना मेरा कर्तव्य है। हमारे वश की वेल को चलाए रखने के लिए हमे जो कन्या मिली है, भला इसे मौत के मुह मे कंसे भेज सकता हू? यह तो घोर पाप होगा।" पुत्र तुतला कर बोला- "पिता जी | तो मैं जाताहू " • "नहीं, नही मेरे लाल । मेरे कुल के तारे ! यह कदापि नही हो सकता। ब्राह्मण कहने लगा और फिर अपनी पत्नी को सम्बोधित करके वोला-तुम ने मेरा कहना न माना, उसी का फल अब भुगतना पड़ रहा है। यदि मैं शरीर त्यागता हू तो फिर इन अनाथ वालकों का पालन पोषण कौन करेगा? हा देव । अव मैं क्या करू ? और कुछ करने से तो अच्छा यही है कि हम सब एक साथ मृत्यु को गले लगा ले। यही श्रेयस्कर होगा।"कहते कहते ब्राह्मण सिसक सिसक कर रो पड़े। ब्राह्मण की पत्नी अवरुद्ध कण्ठ से बोली-“प्राण नाथ ! पति को पत्नी से जो कुछ प्राप्त होना चाहिए, वह मुझ से आप को प्राप्त होगया। पुरुप स्त्री के विवाह का उद्देश्य है वह पूर्ण हो गया। क्योकि मेरे गर्भ से एक पुत्र तथा एक कन्या उत्पन्न हो ।। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत चुके हैं । - मेरा कर्तव्य पूर्ण हुआ । अब मेरे न रहने पर भी आप मुझ से इनका पालन पोषण कर सकते है । परन्तु आप के बिना यह सम्भव नही है । इसके अतिरिक्त दुष्टो से भरे इस ससार में अनाथ स्त्री का जीवन दूभर हो जाता है । जिस प्रकार मास के टुकड़े को चील कौए उठा ले जाने की ताक मे मण्डराते रहते हैं, उस प्रकार इस नगर में दुष्ट पुरुष विधवा स्त्री को हडप ले जाने के ताक मे लगे रहते हैं । जैसे घी लगे टुकड़े पर कितने ही कुत्ते झपट पडते हैं उसी प्रकार किसी अनाथ स्त्री पर वदमाश लोग झपट पडते हैं । आप न रहे तो अपनी लाज की रक्षा और इन श्राप के बाल बच्चो का लालन पालन कैसे मुझ से होगा ? विना यह बच्चे तडप तडप के जान दे देंगे । इस लिए नाथं मुझे ही उस नर भक्षक के पास जाने दीजिए। पति के जीते जी पत्नी का स्वर्गवास हो जाय इस से बढकर और स्त्री के सौभाग्य की वात क्या हो सकती है ? मैं पतिव्रता नारी के समान आपकी सेवा सुश्रुषा करती रही। अपने धर्म का पूर्णतया पालन किया, अब मुझे मरने कोई दुख न होगा । अत आप मुझे सहर्ष प्राज्ञा दे दीजिये कि अपने परिवार के लिए मैं अपने प्राण दे दू ।" १२० - पत्नी की व्यथा पूर्ण बाते सुन कर ब्राह्मण से न रहा गया । उसने अपनी पत्नी को छाती से लगा लिया और असहाय सा हो कर दीन स्वर में अश्रुपात करने लगा । अपनी पत्नी को प्यार करते हुए बोला- प्रिये ! ऐसी बाते मत कहो। पति का कर्तव्य है कि वह अपनी पत्नी की रक्षा और उसके जीते जो उसका साथ न छोडे, इस लिए मैं अपने प्राण बचा कर तुम्हे भेजू तो मुझ से वडा, पापी कौन होगा ? नही, नहीं मैं यह घोर पाप नही कर सकता । तुम्हारा वियोग सहन नही कर सकता ।" 栽 ן माता पिता की बाते सुन कर पुत्री ने दीनता पूर्वक कहा - " पिता जी ! आप मेरी वाते भी तो सुने, इस के पश्चात कभी न कभी इस आपकी जो इच्छा हो सोचें । मुझे तो परिवार से चले ही जाना है । अपने परिवार तो इससे अच्छी मेरे लिए सदगति और क्या हो सकती है ? आप * के काम में आ सकू Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बकासुर वध १२१ - चले गए तो हम विलख विलख कर उसी प्रकार मर जायेगे जिस प्रकार सरिता के सूखने पर मछलियां । मेरा छोटा भाई मृत्यु को प्राप्त हो जायेगा। मेरी मां पर न जाने कितनी विपत्तियो का पहाड़ टूट पड़े। मां मर गई तो बिना माँ के हमारा जीवन दूभर हो जायेगा। अत जिस प्रकार नाव द्वारा नदी को पार किया जाता है इसी प्रकार मुझे उस मनुष्य भक्षी के पास भेज कर आप विपत्ति से पार उतरें। इस से मेरो जीवन भी सार्थक हो जायेगा। और नही तो नेरी ही भलाई को दृष्टि मे रख कर आप मुझे भेन दें।" ' बेटी की बातें सुन कर माता पिता दोनो के आसू. उमड़ आये उन्होने बेटी को अपने कलेजे से लगा लिया और बारम्बार उसका माथा चूम कर अश्रुपात करने लगे लडकी भी रो पड़ी। सवको इस प्रकार रोते देख कर.ब्राह्मण का नन्हा सा बेटा अपनी बड़ी बड़ी आंखो मे माता पिता और वहन को देखते हुए उन्हे समझाने लगा और वारी वारी से उनके पास जाता और अपनी तोतली-बोली में "रोओ मत, रोप्रो मत, मा रोप्रो मत. दीदी रोप्रो मत, पिता जी रोप्रो. मत" कह कर उन्हे चुप कराने लगा और फिर एक सूखी सी लकडी उठा कर बोला- “पिता जी आप मुझे जाने दें, मैं इस लकडी से ही उसको इस ज़ोर से म र डालूगा।" वालक की तोतली वोली और वीरता का अभिनय देख कर इस सकट पूर्ण घडी मे भी संव को हसी आ गई। कुछ क्षण के लिए वे अपना दुख भूल गए। भीम खडा खडा यह सारा दृश्य देख रहा था, उस ने सभी की बातें सुन ली थी। ब्राह्मण परिवार को दुखित होते देख कर उसका मन भर आया। अपनी बात कहने का यह सुन्दर अवसर देख कर वह आगे बढ़ा और बोला- "हे ब्राह्मण देवता ! क्या आप कृपा करके मुझे बता सकते हैं कि आप को इस समय क्या दुख है। मुझ से वन पड़ा-तो मैं आप को उस दुख से छुड़ाने का प्रयत्न अवश्य करूगा। . . . - - "देव ! आप इस सम्बन्ध मे भला क्या कर सकेंगे हताश हो कर ब्राह्मण बोला। ... "फिर भी बत्ताने ही है।" भीम ने आग्रह Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ जैन महाभारत किया । . . . . . . . . हा, बताने में क्या हर्ज है, ब्राह्मण ने कहना प्रारम्भ कियासुनिये ! इस नगर के निकट ही एक गुफा में एक मनुष्य भक्षी पिशाच रहता है। पिछले तेरह वर्ष से वह नगर वासियों पर भाति भांति के अत्याचार कर रहा है। इस नगर का राजा इतना निकम्मा है कि वह उसके अत्याचारो से नगर वासियों की रक्षा नहीं कर सकता । वह पिशाच पहले जहाँ किसी मनुष्य को पाता मार कर खा जाता था, क्या स्त्रिया, क्या बच्चे, क्या बूढे कोई भी उस के अत्याचार से न बच सके। इस हत्या काण्ड से घबरा कर नगर वासियो ने मिल कर उससे वडी अनुनय-विनय की कि कोई नियम बना । लोगों ने कहा- इस प्रकार मनमानी हत्या करना तुम्हारे भी हक मे ठीक नहीं है। अन्न, दही, मदिरा आदि तरह तरह के खाने की वस्तुए जितनी तुम चाहो उतनी हांडियों में भर कर व बैल गाडियो मे रख कर हम तुम्हारी गुफा मे प्रति सप्ताह पहुंचा दिया करेंगे। गाड़ी हाकने वाले आदमी और बैल भी तुम्हारे खाने के लिए होगे। इन को छोड़ कर अन्य किसी को तंग न करने की कृपा करो।" बकासुर ने लोगो की यह वात-मान ली और तब से इस समझौते के अनुसार यह नियम बना हुआ है कि लोग बारी वारी से एक एक अादमी और खाने पीने की वस्तुएं प्रति सप्ताह उसके पास पहुचा देते है.! - और इसके बदले मे यह बलशाली पिशाच वाहरी शत्रुओं और हिंस्र पशुओं से इस नगर की रक्षा करता है। ..,..', ' ' "जिस किसी ने भी इस मुसीबत से इस नगर को बचाने का प्रयत्न किया, उसको' तथा उसके बाल बच्चों को इस पिशाच ने तत्काल ही मार' कर खा लिया। इस कारण किसी का.साहस नहीं पडता कि कुछ करे। तात ! इस देश का राजा इतना कायर है कि उससे कुछ नहीं होता जिस देश का राजा अपनी जनता की रक्षा नही कर सकता, अच्छा हैं उस देश के नागरिको के वच्चे ही न हों। अव हमारी व्यथा यह है कि इस सप्ताह मे उस नर पिशाच के खाने को आदमी और भोजन भेजने की हमारी, वारी है। , किसी गरीव आदमी को खरीद कर भेजना चाहू तो इतना धन भी मेरे पास .नही है, धेनवाण तो ऐसा ही करते हैं। मैं इन बच्चों को छोड़ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बकासुर वध कर चला जाऊ या स्वय बच कर पत्नी या चालको मे से किसी को भेजूं-यह मुझ से नही हो सकता, अतएव अब, तो मैंने यही निश्चय किया है कि हम सभी, एक साथ उस पिशाच के पास चले जायेंगे।' यही हमारी व्यथा है, आप ने पूछी सो बता दी देव, मला आप इस सकट मे-, हमारी क्या सहायता कर सकते हो। भोम.ने, यह सुन कर मुस्कराते हुए उत्तर दिया-प्रिय वर!; आप इस बात की चिन्ता छोड दें। तुम्हारे स्थान पर उस नर भक्षक वकासुर के पास आज भोजन ले कर मैं चला जाऊंगा ' ' ' ' ' . भीम की बाते सुन कर ब्राह्मण चौंक पड़ा और बोला"आप, भी कैसी बात कहते हैं। श्राप हमारे अतिथि हैं। आपको मृत्यु के मुंह में भेजू , यह कहा का न्याय है;? देव, मुझ से यह नही हो सकता।" . . . . . , , , ब्राह्मण को समझाते हुए भीम बोला- द्विज वर ! घबराइये नही। मैं ऐसे मत्र सीखा हुआ हूं कि जिसके बल से इस अत्याचारी पिशाच की एक न चलेगी. उसका भोजन बनने की बजाय उसे ही मार करके लौटूंगा। कई बलिष्ट पिशाचों व राक्षसों को इन हाथों से मारे जाते मेरे भाईयों ने स्वय देखा है...इस लिए आप.चिन्ता न करे। ''हां इस बात का. ध्यान रक्खे कि इस बात की किसी को 'कानो कान खबर न हो, क्योकि यह बात, फैल गई तो फिर मेरी विद्या अभी काम न देगी।" . । भीम को डर था कि यह बात फैल गई तो दुर्योधन और उस के साथियो को पता चल जायेगा कि पाण्डव एक चक्रा नगरी में छुपे हुए हैं। इसी लिए उसने इस बात को गुप्त रखने का आग्रह किया था। ब्राह्मण को जव विश्वास हो गया कि वास्तव मे इस के पास एक विचित्र विद्या है, जिसके वल से वह पिशाच को मार सकता हैं, और उसका वाल वाका भी न होगा, तो उसने भीम की र बात मान ली। 'इस से ब्राह्मण परिवार की सारी व्यथा का अन्त हो गया और अपने अतिथियो के प्रति उन्हे वड़ी श्रद्धा हो गई।.. । 'भीम को जब निश्चय हो गया वह बकासुर के पास भोजन सामग्री ले कर जा सकता है तो वह फूला न समाया। उसके अंग Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ जैन महाभारत अंग में बिजली सी दोडे गई। जब चारों भाई भिक्षा ले कर लौटे तो उन्होने देखा कि - भीमसेन के मुख पर असाधारण आनन्द को झलक है। युधिष्ठिर ने तत्काल ताड लिया कि भीमसेन को कोई बडा कार्य करने का अवसर प्राप्त हुआ है। उन्होने पूछा- 'पार्ज भीमसेन बड़े प्रसन्न चित्तं प्रतीत होते हो, क्या कारण है ? क्या प्राज तुमने कोई भारी काम करने की ठानी है ? भीम ने उत्तर में सारी बात कह सुनाई। युधिष्ठिर ने सुन कर कहा- यह तुम कैसा दुस्साहस करने चले हो तुम्हारे हो बलबूते पर तो हम निश्चित रहते हैं। तुम्हारे अपार साहस से हम लाख वे महल से जीवित यहाँ तक चले आये। तुम्हारे ही बल पर हर दुर्योधन से अपना राज्य छीनने की आशा लगाए बैठे है। ऐसे साहसी व बलिष्ट भाई को हम कैसे हाथों से गवा सकते है । गवाने की आप को खूब सूझी ? ..... - .:-- - .., युधिष्ठिर को इन बातों के उत्तर में, भीम वोला- "जिस ब्राह्मण के घर में हम इतने दिनों से प्राश्रय पाये हए है। जिसके घर हम छुपे है, जिसने सदा ही हम से प्रेम प्रदर्शित किया, जब उस के परिवार पर विपत्ति पड़ी तो क्या मनुष्य के नाते हमे उसके दुख को दूर करना नहीं चाहिए? भाई साहब हम उस के उपकारो से उऋण इसी प्रकार हो सकते है । मुझे अपने बल पर गर्व है। मैं अपनी शक्ति को खूब जानता हू । तुम इस बात की चिन्ता मत करो जो वारणावत से आप को यहा उठा लाया, जिस ने हिडिव का वध किया, उस भीम के बारे मे आप को न कुछ चिन्ता करनी चाहिये और न भय । मेरा वकासुर के पास जाना ही कर्तव्य है । ' : है. इसके पश्चात-नियमानुसार-नगर वासो मदिस, अन्न, दहा आदि खाने पीने की वस्तुए गाडी. मे, रख कर-ले प्राये! उस गाडा में दो काले वैल जुड़े हुए थे। -भीमसेन हसता हुया उछल कर गा 'मे बैठ गया। ब्राह्मण परिवार, मन ही मन उसकी विजय का कामना करने लगा। नगर वासी भी बाजे बजाते हुए कुछ दूर तक उसके , पीछे चले।; एक निश्चित स्थान पर लोग रुक गए और अकेला भीमसेन गाडी दौडाती हा प्रागे चल पडा। उस समय Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बकासुर वध १२५. शेष चारी भाई भीम को हसरत भरी नजरों से देख रहे थे। 1:--- गुफा के निकट - पहुच कर भीमसेन ने देखा कि चारो ओर स्थान स्थान पर. हडिया ही हडिया बिखरी पडो है। रक्त के चिन्ह, - मनुष्यो. व पशुओं के बाल खाल इधर. उधर पडे हुए हैं । चारो ओर बडी दुगध पा रही है। आकाश मे गिद्ध और चीले मण्डरा रही हैं । . . इस का भी भत्स दृश्य की तनिक भी चिन्ता न करते हुए भीम ने गाड़ी वही खड़ी करदी। और सोचने लगा कि-'गाडी में वड़ा स्वादिष्ट भोजन लगा है ऐसा खाना फिर कहां मिलेगो । बकासुर का वध करके यह भोजन खाना ठीक नहीं होगा, क्योकि मार-धाड में क्या पता यह वस्तुएं बिखर कर खराब हो जायें और किसी काम की भी न रहे। इस लिए यही ठोक है कि इन्हे यहीं सफा चट कर जाऊ .".-- - - - .. --- - - . उधर-वकासुर मारे भूख के तडप रहा था। जब बहुत देर हो गई तो बड़े क्रोध के साथ गुफा से बाहर आया। देखता क्या है कि एक मोटा सा आदमी बडे आराम से बैठा हुआ भोजन कर रहा है। यह देख कर बकासुर को आँखे लाल हो गई । इतने में भीम सेन की नजर भी उस पर पड़ी। हसते हुए उसे पुकार कर कहा-"बकासुर कहो, चित्त तो प्रसन्न है ।" - भीम सेन की इस ढिठाई को देख कर बकासुर क्रोध से जले उठा और तेज़ी से भीमसेन पर झपटा उस का शरीर वडा लम्बा चौडा था। सिर और पूछो के बाल भी आग की तरह लाल थे। मुह- इतना चौड़ा-था कि लगता था इस कान से उस कान तक फटा हुमा है। स्वरूप- इतना भयानक था कि देखते ही रोगटे खड़े हो जाये । . . . . . . . .. .. . . 'भीमसेन ने जव चकामुर को अपनी और पाते देखा तो उसको अोर से पीठ फैर ली और कुछ भी परवाह किए बिना खाने म ही लगा रहा बकासुर ने निकट आ कर भीम सेन की पीठ में जार से. एक मुक्का मास : पर जैसे उसे तो कुछ हुआ ही नहीं। वह Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...................जन महाभारत.. शाति पूर्वक बैठा हुआ दही-खाता-रहा। तब बकासुर को और भी अधिक क्रोध आया और उस ने अधिकाधिक जोर से प्रहार करने प्रारम्भ कर दिये । भीम सेन जब दही खा चुका तब पलंट कर उसकी ओर रुख किया, हस कर बोला- "वकासुर! तू तो थक गया हो गा, कुछ आराम करले।' बकासुर इस 'उपहास से चिड़ गयां और एक सूखे वक्ष को 'उठा कर उस के ऊपर दे मारा। परन्तु भीम सेन विद्युत गति से ऐसा छिटका कि वृक्ष की एक टहनी भी उसके शरीर को न लगी। उलटा बकासुर ही वृक्ष के साय पृथ्वी पर आ गिरा भीम सेन ने दौड़ कर,एक ऐसी ठोकर मारी. कि बकासुर प्रौधे मूह भूमि पर गिर पड़ा। - भीम. ने कहा-'ले अब कुछ देर बागम से सुस्ताले " : बकासुर थक गया -था, कुछ देर तक वह न उठ सका। तब-भीम ने- उसे ठोकर मार कर कहा"अव उठ और सामना कर " -: - . . . . . . . . बकासुर उठा और उस पर आक्रमण करने को बढा पर भीम ने पहले ही प्रहार कर दिया, वह बार बार उस के प्रहारों को रोकने का प्रयत्न करता . पर लड़खडा कर गिर पड़ता। आखिर एक बार भीम ने उसे पकड कर सिर से ऊपर उठा लिया और कहने लगा "बकासुर तू खाता तो बहुत है। इस नगर के कितने ही निरपराधी मनुष्यो को तू खा चुका 1 नगर से पाये हुए 'स्वादिष्ट भोजनो से तू वर्षों से पेट पूजा करता रहा है। पर तुझ मे न वजन है और न बल । बिल्कुल गिद्ध ही रहा। ले अपनी नर्क गति को जा।" -और उसे-इस जोर से एक शिला पर पटखा कि वकासुर के प्राण पखेरु - उड़ गए। उस के मुह से रक्त को धारा वह निकली। - . . . . . . . . . कुछ लोगो का मत है कि भीम ने अपने घुटने से उसकी रीढ की हड्डी तोड दी थी। जो भी हो भीमसेन की मारसे उस नर-भक्षी का प्राणान्त हो गया। तव भीमसेन ने उसे वार वार उलट पलट कर देखा और जब उसे विश्वास हो गया कि बकासुर ससार से चल बसा तो उसने शव को घसीट लिया और नगर के फाटक पर ले जा कर फटक दिया। फिर घर जा कर स्नान किया और भाइयो से सारा वृत्तान्त कह मुनाया। वह आनन्द और गर्व के मारे फूले न समाये Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बकासुर वध .१२७ । नगर पर बकासुर का शव पड़ा देख कर सारे नगर वासी प्रसन्न हो कर उसे देखने एकत्रित हो गए। उसकी भैस सी विशाल काया को क्षत विक्षत देख कर उन्हे बडा आश्चर्य हुआ। वह कौन महाबली है जिसने इस नर पिशाच से हमे अभय प्रदान किया ? यह प्रश्न सब की जिह्वा पर थिरक रहा था। आज किसकी बारी थी इस राक्षस के पास जाने की इस बात की अण्वेषण करते २ नगर निवासी उसी ब्राह्मण के घर पहुंचे। जहाँ पाण्डव भीम के शरीर को मर्दन कर रहे थे। हो रही चेप्टा को और भीम को देखते ही वे पहचान गये कि यही वीर पुरुष है जिसे पक्वान्नादि देकर विदा किया था। और इसी के महापराक्रम से आज समस्त नगर वासियो को जीवन दान प्राप्त हया है। हर्षोन्मत हुए नागरिकों ने पाण्डवों को घेर लिया और नाचने कूदने एव जय जयकारो से आकाश को गुजायमान करने लगे। । युधिष्ठिर भीम आदि पांडव जिस स्थिति से बचे रहने के प्रयत्न मे वेश परिवर्तन रूप पटाक्षेप किये हुए थे दुर्दैव कहिए अथवा सद्भाग्य प्रकृति के एक सकेत ने ही उस छद्यवेश को समाप्त कर दिया । एक चक्री नगर के निवासी अपने उपकारी के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापन तो कर रहे थे परन्तु अभी तक उन्हे यह पता नहीं था कि यह ससर्थ पुरुष वास्तव मे है. कौन ? इसी समय वहाँ के युवराज ने कुछ सेवको सहित वहां पदार्पण कियो, जो कि इसी अन्वेषण मे निकला था। कि अन्ततः ऐसा कौन पराक्रमी है जिसने चिरकालीन हमारे मस्तक कलंक को दूर कर यशस्वी बनाया है ? - नगर वासियों के आश्चर्य एवं हर्ष का पारावार उमडपडा जव कि युवराज ने पांडवो को देखते ही पहचान कर राजराजेश्वर युधिष्ठिर धर्मराज की जय! के नारे लगावे एवं झुक २ कर नमस्कार - करना प्रारम्भ कर दिया। बेशक पांडवों ने वेप बदला हुमा था परन्तु राजसूय यक्ष के समय अच्छी प्रकार से परिचय प्राप्त किये हुए युवराज को, पांडवों को पहचानने में देरी न लगी । पाडवों के वनवास - आदि घटना से युवराज पूर्ण परिचित था अतः उसे Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ जैन महाभारत वस्तुस्थिति के परखने में देर नहीं लगी। नाना-प्रकार से कृतज्ञता प्रगट करने के पश्चात अनुरोधपूर्वक द्रौपदी सहित पांडवो, को राज भवन मे ला कर उनकी सब प्रकार से सेवा: सुश्रुषा करने में राज परिवार ने अपना परम सौभाग्य, समझा। इस प्रकार पांडवों की सेवा प्राप्ति एव वकासुर के उपद्रव निवृति रूप दुहरे-हर्ष मे एक चत्री नगरा आनन्द मे तन्मय था . .. . कोई नहीं चाहता था कि पाडव-यहा से जाये परन्तु युधिष्ठिर ने समझाया कि हम प्रतिज्ञानुसार बन में ही निवास करना-च हते हैं। कौरवो की बिना अनुमति के, कि जित से हम वचन बद्ध है। अधिक समय तक नगर में निवास करना नं तिकदृष्टि से हमारे लिए ही हानिप्रद होगा। और कुछ दिवस "आतिथ्य ग्रहण , कर, समस्त राज परिवार गज कर्मचारी एवं नगर निवासियो की साश्रुपूर्ण विदाई ले द्रौपदी सहित पाडवो ने वन-प्रस्थान किया। . प्रश्न यह है कि बकासुर कौन था ? . .... आइये उम का सक्षिप्त वृतांत सुनाए। वह एक नरेश था, पर अपने मूर्ख और पापी परामर्शदाताओ, सखाओ और मित्रों के सगति से उसमे मास भक्षण का दुर्व्यसन पड़ गया था। एक बार उसकी रसोई के कर्मचारियो ने उस के लिए मास का प्रवन्ध न देख कर स्मशान भूमि से एक मृत बालक का मास ला कर पका दिया। उस दिन के मास का स्वाद भिन्न पा कर उस ने रसोइयां से इसका रहस्य पूछा । जब उसे पता चला कि यह मास बालक का था तो उसनें भविष्य में मनुष्य का मास खाने का ही निश्चय कर लिया। वह वालकों को पकडवा मगवाना और उनका मास खा जाता। उसके इस घोर - अन्याय से प्रजा विद्रोही हो गई। अन्यायी नरेश का सिंहासन पर आरूढ रहना देश के लिए कलक की बात है। उसे सिंहासन च्युत कर देना ही जनता का धर्म है इस सिद्धान्त के अनुसार जनता ने विद्रोह किया और उसे मार भगाया। तव वह एका चक्री नगर के पास की एक गुफा में रहने लगा और इक्के दुक्क व्यक्तियो का वध करके खा जाता। कुछ दिनों पश्चात वह इतना वलिप्ट हो गया कि सारा नगर मिल कर भी उसे न पछाड़ पाया। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बकासुर वध इधर सिंहासन पर एक निकम्मा शासक विराजमान हुआ, उसकी दुष्टता से कभी भी प्रजा एक हो कर उस दुष्ट बकासुर के विरुद्ध न लड पाती । अकेला एकाचक्री नगर उस पर काबू न पा सकता था । १२९ अन्य नगरों की जनता खामोश थी, उसे इस निकम्मे शासक को कुनीतियो के चक्र से ही फुरसत न मिलती थी । और शासक इस बात को समझता था कि यदि नगर से प्रति सप्ताह एक व्यक्ति ले कर बकासुर शत्रुओं से मेरे राज्य की रक्षा करता रहे तो घाटे का सौदा नही है । इस प्रकार वकासुर एकाचक्री नगर के रहने वालो के सिर पर लदा हुआ था । जिस का नाश अन्त मे महाबली भीमसेन के हाथो हुआ 1 1 वीर पुरुष अपने पौरुष से प्रजा के दुखो को दूर करने मे कभी नही हिचकते 1 वे दूसरो की रक्षा के लिए अपने को भी संकट में डालने पर हर्ष अनुभव करते हैं । - एक विचारक निकम्मे, अन्यायी और मदांध शासन को उखाड़ फेंकना जनता का कर्त्तव्य है । - ........ . क्रूर और जन द्रोही अन्त में विनाश को प्राप्त होते है मुनि शुक्ल चन्द्र 040 i Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * एकादस परिच्छेद * गंधर्वो से मित्रता । अनेक कष्ट हसते-हसते सहन करते हुए पाण्डव वन में । जीवन व्यतीत कर रहे थे। एक ओर तो उन्हें हिंसक पशुओ से अपनी रक्षा और जीवनयापन की समस्या को हलझाने में सदव सजग और सतत्त प्रयत्नशील रहना पडता: दूसरी ओर उनकी ख्याता एक चक्री नगर के प्रकरण को ले कर दूर-दूर तक फैल चुकी थी। लाक्षाभवन के दाह के कारण पाण्डवों के दाह की जो भ्रान्ति चारा तरफ फैलाई थी, वह दूर हो गई थी, जिस के कारण अनेक ब्राह्मण, मित्र श्रद्धालु भक्त आदि उन के पास पहुच जाते। अतिथि सत्कार उन के लिए कई वार तो बडी ही विकट समस्या बन जाती। पर युधिष्ठिर कभी पीछे न हटते, स्वय भूखा रहना पसन्द करते, पर अतिथि का समुचित सत्कार करते। कहते हैं एक बार दुर्योधन ने कुछ लोगों को यह कहला दिया कि वन में युधिष्ठिर मुक्त हस्त से दान दे रहे है। भिक्षा मांग कर उदर पूर्ति करने वाले, दरिद्री और दान से जीवन यापन करने वाले ब्राह्मणो ' का एक बड़ा दल दान के लोभ मे पाण्डवो के आश्रम पर पहच गया और उस न अपन आने का कारण कह सुनाया। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गधर्वो से मित्रता - युधिष्ठिर क्रुद्ध नही हुए बल्कि उन्हो ने जो भी सम्भव हो सका, जो उनके उस समय पास था, दान मे सब कुछ दे दिया। वनवास में भी उन्हो ने अपने स्वभाव का. परित्याग नही किया । उधर एक चक्री नगर का समाचार जब दुर्योधन को मिला, तो जैसे उसके स्वप्नो पर भयँकर वजापात हुआ हो। वह बहुत चिन्तित हो गया। उसके लिए लाख के महल से पाडवों का बच निकलना और इतने दिनो तक पता भी न लगना, एक अद्भत बात प्रतीत हो रही थी। वह जितना हो इस रहस्यमयी बात पर विचार करता था, उतना ही उसे अपने सहयोगियों और अपने भाग्य पर अविश्वास होता जाताथा । वह मन ही मन मे पुरोचन को गालिया देने लगा। और अपनी योजना की असफलता का उत्तरदायित्व उसी के सिर थोपने लगा। दु शासन और दुर्योधन, दोनों भाई अपने भाग्य पर अश्रुपात करने लगे। , उन्हो ने अपना दुखडा शकुनि को सुनाया-“मामा ! अब बताओ क्या करें? दुष्ट पुरोचन ने हमे कही का भी नही छोडा। लाक्षाभवन की घटना को लेकर ससार का प्रत्येक विचारशील व्यक्ति हमें घृणा की दृष्टि से देखेगा। इससे हमे लाभ होने की अपेक्षा पाडवो को ही लाभ हुआ है। इत्यादि अनेक प्रकार से पछताते हुए अपने सिर को पीटने लगे। पांडवो के प्रति दबी हुई ईर्षा की अग्नि उस के हृदय में और भी प्रवल हो उठी। और पुरातन शत्रुता फिर से जाग उठी । फन कुचले सर्प की तरह दुर्योधन भयंकर रूप से विषवमन एव चोट करने की सुविधा में घूमने लगा। + x + x + +'. x . __ एक बार अर्जुन गाण्डीव धनुप को हाथ में लेकर वन की मैर को निकला और सुर प्रेरणा से एक पहाड़ पर चला गया । अर्जुन एक शिला पर बैठ कर सुस्ताने लगा कि तभी एक 'विकराल Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत मूर्ति दीर्घ कृष्ण काम भील दूसरी ओर से आ निकला। उस के हाथ में प्रचन्ड धनुष बाण था. नेत्र चडे हुए थे। अर्जुन ने व्यग करते हुए कहा-'हे बनवासी । इस धनुष को क्यो उठाये' फिरता है। यह तो किसी रण वीर के हाथ में ही शोभा देता है। तू क्यों व्यर्थ ही बोझ ढो रहा है ।" "तो मैं क्या रण वीर नहीं हूं?" क्रुद्ध होकर भील ने पूछा। अर्जुन उसको बात पर हस पड़ा। भील को बहुत क्रोध आया। "रे युवक ! साहस है तो मेरा सामना कर, मेरा रण कौशल देख, मेरी वीरता का स्वाद चख। क्षण भर मे यम लोक पहुच जायेगा, तब तुझे मेरे शौर्य का ज्ञान होगा ?" भील बोला- और उस ने धनुष पर बाण चढाना प्रारम्भ कर दिया। __अर्जुन ने कहा- "जा, जा क्यो अपनी शामत बुलाता है, अपना, रास्ता नाप।" साना . . परन्तु भील तो अपना धनुष सम्भाल चुका था, अर्जुन को भी गाण्डीव उठाना पड़ा। दोनो में भयकर युद्ध होने लगा। दोनो ओर से चलने वाले तीरों का एक मण्डप सा बन गया। उस समय क्रोध युक्त होकर अर्जुन ने जितने तीर छोडे, भील ने, सभी को निष्फल कर दिया। धनुष युद्ध को व्यर्थ समझ कर अर्जुन ने मल्ल युद्ध आरम्भ कर दिया। भील ने भी अपनी भुजा और ताल ठोक कर सामने आ गया। दोनो परस्पर भिड गए। खूब गुत्थम गुत्था हुए, परन्तु अन्त में इस युद्ध मे भी अर्जुन ने उस भील को परास्त करने का उपाय उसकी समझ न पाया, परन्तु उसने आशा नहीं छोड़ी। वह उदासीन न हुआ, साहस का दामन अभी तक उसने न छोड़ा था। इतने में उसका दाव लग गया और उसने भील के दोनों पैर पकड़ कर चारो ओर चक्र की भाति इस जोर से घुमाया कि वेचारा भील अर्धमृत समान हो गया। अर्जुन उसे पृथ्वी पर पटकना ही चाहता था, जिस से किसो शिला से टकरा कर उस के प्राण पखेरू उड़ जाते, कि अनायास ही वह भील आभूषण आदि Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंधर्वों से मित्रता १३३ से भूषित हो दिव्य रूप मे दिखाई दिया | अर्जुन अनायास ही उस के इस विचित्र परिवर्तन को देख कर आश्चर्य चकित रह गया । तुरन्त उसे छोड दिया और इस परिवर्तन के रहस्य पर विचार करने लगा । उसी समय उस ने अर्जुन को पृथ्वी तक मस्तक झुका कर विनय पूर्वक प्रणाम किया और बोला- हे पार्थ। मैं आप की वीरता साहस और असीम बल से बहुत हो प्रभावित हुआ हू | आप के दर्शन करके मुझे जो प्रसन्नता हुई है, उसे कह नही सकता हर्ष के समय आप मुझ से जो चाहे माग ले, आप की प्रत्येक कामना को पूर्ण करके मैं प्रसन्नता अनुभव करूंगा । इस अर्जुन उसकी इस बात को सुन कर चकित ही रह गया, वह उसे बडी विचित्र बात दिखाई दी, सोचने लगा कि इस से क्या मागू ? पता नही कितनी शक्ति है इसके पास ? कहा तक यह मुझे दे सकता है । यह बात उसको समझ मे न आई। तदापि उसने इस अवसर को भी हाथ से न जाने दिया, वह बोला - "यदि श्राप मुझ पर इतने दयालु है, तो कृपया आप मेरे सारथी बन जाइये ।" "तथास्तु" - वह बोला । " आप अपना परिचय तो दे । नाम, धाम और यहां आने का कारण सभी कुछ बताइये ।" अर्जुन ने कहा । उत्तर में वह कहने लगा- 'मैं कौन हू, यहां क्यो आया और क्या चाहता हूं ? यह एक बडी कथा है । आप बैठ जाइये और ध्यान पूर्वक सुनिये | इतना कह कर वह स्वयं भी बैठ गया, अर्जुन बैठ कर उसकी कथा सुनने लगा - उस ने कहना आरम्भ किया- हे पार्थ । इमी भरत क्षेत्र मे विजयार्द्ध नामक एक सुन्दर पहाड़ है उसकी दक्षिण 1 श्रेणी मे इथन पुर नामक एक नगर है, जो कि अपने विशाल कोट आदि से प्रत्यन्त शोभायमान है । वहाँ का राजा विद्युत प्रभ था वह नमि के वश का एक गुणवान एव सुशील पुप्प था । श्रपने कौशल Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ जैन महाभारत और शुद्ध चरित्र के कारण वह विद्याधरो का अधिपति था। उसके दो पुत्र थे, एक का नाम इन्द्र और दूसरे का विद्युन्मालो था। विद्युत प्रभ ससार से विरक्त हो गया, उसने अपना राज्य इन्द्र को सौंप दिया और बिद्यन्माली को युवराज पद से विभूषित कर दिया। . युवराज विद्युन्माली.ने कुछ दिनो पश्चात प्रजा पर अत्याचार करने आरम्भ कर दिये। वह नगर वासियो की सुन्दर स्त्रियो और युवा कन्याओ का अपहरण कर लेता, धनिकों को दिन.दिहाडे लूट लेता, इसी प्रकार के अन्य जघन्य अत्याचार वह करता:। जिसके फल स्वरूप सारे नगर में उपद्रव होने लगा। जनता विद्रोही हो गई। वह राज वश को अपना शत्रु समझ कर उसे उखाड़ फेकने का उपाय करने लगी। परिस्थिति का मूल्याकन करके इन्द्र बहुत चिन्तित हो गया। उसने अपने भाई को एकान्त मे बुला कर समझाया कि-"जनता ही जनार्दन होती है -1,--राज्याधिकारी जन प्रजा को अपनी पाप कामनाओं का शिकार बनाने लगते हैं, तो वही प्रजा जो पहले उनके प्रत्येक आदेश को सहर्ष स्वीकार करती रहती है, अन्त मे अपना शत्रु समझ कर उन पर टूट पडती है। कोई भी राज प्रजा की इच्छा विना.जीवित नही रह सकता । इस लिए तुम अपने इस पापाचार को बन्द करो, प्रजा को सन्तुष्ट कगे और सुपथ पर आ कर प्रजा की सेवा मे तन, मन, धन लगायो। यही कल्याण मार्ग है ।" . परन्तु जिस जीव का भवितव्य ही अच्छा न हो उस को शुभ शिक्षा भी रुचिकर नहीं होती। वह तो कुपथ छोड कर सुपथ पर पाने की अपेक्षा इन्द्र को ही अपना वरी समझने लगा । वह समझता था कि वह राजा है, तो उसे अपनी प्रजा पर मन इच्छित अत्याचार करने का पूर्ण अधिकार है। और इन्द्र जो उसे ही जनता के विद्रोह क कारण समझता है, उस जनता का हिमायती है जो अपने युवराज के विरुद्ध विद्रोह करने का दुस्साहस कर रही है। इन्द्र को उसके रंग ढग अच्छे नही लगे। उसने उसे बुला कर कहा-"विद्युनमाली ! तुम हमारे वश को कलकित कर रहे हो। तुम्हारे कारण हम किसी को मुख दिखाने लायक भी नहीं Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गधों से मित्रता १३५ रहे। अपनी करतूतो को बन्द करो, वरना मुझे राजा का कर्तव्य - पालन करते हुए कुछ करना होगा।" विद्युन्माली भला इन्द्र की बात का कोई उचित मूल्य क्यों प्राकता? वह-तो मदान्ध था पाप ने उस की बुद्धि हर ली था । झुध हो कर महल से भाग गया और बाहर रह कर लोगों को लूटने।' खसोटने लगा। कुछ दिनो पश्चात वह खर दूषण के वशजो के साथ स्वर्णपुर चला गया और उनके साथ रहने लगा। . अब वह खर दूषण के वशजो को साथ ले कर वार बार राज्य पर आक्रमण कर देता है, जनता को लूटता है, लोगो की बहू बेटियो की लाज लूटता है राज्य को क्षति पहुंचाता है और वापिस चला जाता है। राज्य की शाति भग हो गई है, लोग चिन्तित हैं । शत्रुनो ने इन्द्र को मिटा डालने की कसम खा रक्खी है। ___मैं उसी इन्द्र के सेनापति विशालाक्ष का पुत्र हू, नाम है चन्द्र शेखर । मेरे पिता का स्वामी शत्रुदल से सदा ही भयभीत रहता है, मैं उसकी यह दशा न देख सका और एक निमित्तज्ञ से पूछा कि इन्द्र की मुसीबतो को दूर करने वाला, शत्रुदल का सहारक कौन होगा? उस ने मुझे बताया कि जो मनोहर गिरि पर तुम्हे परास्त कर देगा वही इन्द्र की समस्त विपदाओ का अन्त कर सकता है। वही, रथनुपुर की जनता के कष्टों का निवारण करेगा। बस मैं 'उसी भविष्यवक्ता के वचन पर विश्वास करके भेप वदल कर यहा रहता था, अहो भाग्य ! आज आपके दर्शन हो गए। र आप से प्रार्थना है कि मेरे साथ चलिए और इन्द्र को सकटों से उवारने का प्रयत्न कीजिए क्योकि आप ही इस में समर्थ हैं । चन्द्रशेखर की बातो को सुन कर अर्जुन बोला- "यदि मेरे 1 द्वारा कोई व्यक्ति सुखी हो सकता है, तो मैं उसे सुखी देखने के लिए. अपने प्राणो पर भी खेल सकता हूं। वे दोनो एक वायुयान द्वारा वहा से चल दिए और कुछ ही समय मे विजयार्द्ध महागिरि पर पहुच गए। चन्द्रशेखर ने जा कर Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ जन महाभारत इन्द्र को अर्जुन के आने का शुभ समाचार सुनाया। इन्द्र स्वय अपने साथियो सहित स्वागत को आया, उसने बहुत ही आदर सत्कार किया । दूसरी ओर शत्रुदल को भी किसी प्रकार यह समाचार मिल गया कि प्रसिद्ध धनुर्धारी अर्जुन इन्द्र के यहा विराजमान है। अत' उन्होने तुरन्त वायुयानो से आ कर सारे नगर को घेर लिया। रण भेरी वज उठी । अर्जुन भी इन्द्र के साथ मोर्चे पर आ डटा! चुनौती स्वीकार कर ली और युद्ध के लिए तैयार हो गया। दोनो ओर से महा भयानक युद्ध होने लगा। कुछ ही देर में अर्जुन समझ गया कि विकट शत्रुदल का सामना है। उसे साधारण वाणो से नही जीता जा सकता। अत. उसने दिव्यास्त्रो को सम्भाला कितने ही शत्रुओ को उसने नाग पाश मे बाध लिया, कितनो को अग्नि बाण से भस्म कर डाला, और अनेक को अर्धचन्द्र वाण से छिन्न भिन्न कर डाला। इस प्रकार तीन दिन घमासान युद्ध में अर्जुन ने शत्रुदल को समाप्त कर दिया और विजय के वाजे वजा कर, जय घोप के साथ इन्द्र सहित महल को वापिस आ गया । ___ सारे नगर मे हर्ष छा गया, नर नारी अर्जुन की प्रशसा करने । लगे, समस्त गधर्व उसके सामने नत मस्तक हो कर उसकी सेवा में लग गए। सभी गधर्व उसका गुणगान करने लगे और उसके मित्र हो गए। गवर्वो का प्रमुख नेता चित्रागद अर्जुन का घनिष्ठ मित्र हो गया। चित्रांगद के साथ अर्जुन ने विजयार्द्ध की दोनों श्रेणियो का भ्रमण किया। धविद्या-विशारद चित्रागद अपने सहयोगियो सहित अर्जुन की सेवा में रहता। अन्त में अर्जुन अपने भाईयो के पास वापिस चला पाया। चित्रागद अन्य गधर्वो -सहित उसके साथ-था, इन सभी ने कितने ही दिनो तक पाण्डवो की सेवा की और हर प्रकार से सहायता करते रहने का वचन दिया। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! 1 * द्वादस परिच्छेद * " *************** पांसा पलट गया *************** * * * ★ पाण्डवो के पास कितने ही ब्राह्मण और दर्शनाभिलापीं लोग आते रहते थे, जो भी हस्तिनापुर पहुचता, उसी से दुर्योधन पाण्डवो की दशा के सम्बन्ध मे पूछता । जो कोई उससे कहता कि पाण्डव बहुत दुखी है, वडे कष्ट उठा रहे है, दुर्योधन वडा प्रसन्न होता | यह सुन कर उसे सन्तोष मिलता कि पाण्डव त्रसित हैं । वे दुखो मे हैं, असह्य कष्टो का सामना कर रहे हैं । धृतराष्ट्र जब किसी से सुनते कि पाण्डव वन में, आधी पानी और धूप मे तकलीफें उठा रहे हैं, वडी यातनाए वे सहन कर रहे है, तो उनके मन मे चिन्ता होने लगती। सोचने लगते कि इस अनर्थ का अन्त क्या होगा ? इस के फल स्वरूप कही मेरे कुल का सर्वनाश न हो जाय । रुका हुआ है तो अपना क्रोध रोक किसी न कीसी की वह सोचते -- " भीम का क्रोध यदि श्रव तक युधिष्ठिर के समझाने बुझाने से । वह कब तक सकेगा ? सन्तोष की भी तो सीमा होती है । दिन पाण्डवो का क्रोध सन्तोष का वाघ तोड़ कर ऐसा तूफान भाति निकलेगा कि जिसमे सारे कौरव-वश का सफाया हो जायेगा । " Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ जैन महाभारत यह सोचते ही धृतराष्ट्र का हृदय काप उठता। कभी कभी वे सोचने लगते कि- "भीम और अर्जुन जरूर बदला लेंगे। पर दुर्योधन, दुशासन और शकुनि न जाने क्यो उस तूफान के बारे मे कुछ नही सोचते। वे तो अपनी क्रूरता की पराकाप्टा करने पर उतारू हैं। वे क्यो नही देखते कि भीम जैसा काला नाग उनके वश को ही डस जाने को तैयार है।" - . _ वे कभी अपनी ही भूल के लिए अपने को धिक्कारते। कभी दुर्योधन को दोषी ठहराते; कभी शकुनि और कर्ण को। वे इसी चक्कर मे चिन्तित रहते। पर वे कोई उपाय ऐसा नही, ढूढ पाते कि जिससे इस द्वेष के दावानल को शान्त किया जा सके। किन्तु दुर्योधन और शकुनि बहुत प्रसन्न थे और यदि कभी कुछ सोचते भी पाण्डवो को दुख देने के उपाय। एक बार कर्ण और शकुनि दोनो दुर्योधन को चापलूसी की बाते करके शब्दो द्वारा पृथ्वी से उठा कर आकाश पर रख रहे थे, और बारम्बार उसकी बुद्धि की सराहना कर रहे थे कि उसने ऐसा विचित्र उपाय किया जिस से युधिष्ठिर की राज्य-श्री अब उस की तेज और शोभा बढ़ा रही है। तभी दुर्योधन वोला- “तुम लोगो के सहयोग से ही मुझे यह सौभाग्य प्राप्त हुआ। पर मैं पाण्डवों को मुसीवतो' में पडे हुए अपनी पाखो : से देखना चाहता हूं और यह भी चाहता हू कि दुखो से पीडित पाडवो के सामने अपने, सुख भोग और ऐश्वर्य का भी प्रदर्शन करू , जिससे उन्हे अपनी दयनीय दशा का कुछ पता तो चले। झोंपड़ी में रहने वाला पीडित व्यक्ति अपनी पीडा का सही मूल्यांकन तब तक नही कर सकता जब तक वह किसी ऐश्वर्यवान,. वैभवशाली' महल के . निवासी के ठाठ को नही देखता। जब तक शत्रु के कष्टों को हम अपनी आखो से नही देख लेगे तब तक हमारा मानन्द अधूरा ही रह जायेगा । . कोई ऐसा उपाय करना चाहिए कि जिससे हमारी यह इच्छा भी पूर्ण हो जाये।" ---- - -- - शकुनि ने उत्साहित हो कर कहा- "उपाय........? उपाय की इस मे क्या बात है। चलो चले ठाठ बाठ के साथ। यह भी. Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पासा पलट गया कोई बड़ी बात है ? . . . ., -- कर्ण ने कहा- "दुर्योधन | यदि मेरी बात मानो तो सैन्य बल के साथ चलो और बन मे उन्हे जा कर घेर लो। बडो आनन्द आयेगा ।। थोडो से ही बल से काम चल जायेगा।" "दुर्योधन गम्भीरता पूर्वक बोला- "तुम लोग उसे जितना -आसान समझते हो, उतनी आसान बात नही है। बात यह है कि पिता जी पाण्डवो, मे हम से अधिक तवोबल समझते हैं। - इसी से वे पाडवो से . कुछ डरते हैं। इसी कारण बन मे जाकर- पाण्डवो से मिलने की आज्ञा देने मे वे वे. झिजकते है । वे डरते है कि __ कही इससे हम पर कोई आफत न आ जाये । लेकिन मैं कहता -हू कि यदि हम.ने द्रौपदी और भीम को जगल मे पडे , कष्ट उठाते , न देखा तो हमारे इतने करने-धरने . का लाभ ही क्या हुआ ? मुझे वस इतने से सन्तोष नही है कि पाडव बन. मे.कष्ट उठा रहे हैं और हमे उनका इतना विशाल राज्य मिल गया है। मैं तो अपनी आखो-से उनका कष्ट देखना चाहता है। इस लिए कर्ण ! तुम और शकुनि कोई ऐसा उपाय करो कि जिससे बन मे जा कर पाडवो को चिडाने की आजा हमे मिल जाय।" . कर्ण ने इस उपाय को खोज निकालने का उत्तरदायित्त्व ले लिया । . . . . . . - दूसरे दिन पौ फटते ही कर्ण दुर्योधन के पास गया और वडे हर्ष से बोला- "लो, उपाय मिल गया । ह्रत वन मे कुछ ग्वालों को वस्ती है जो आपके आधीन है। प्रत्येक वर्ष बन मे जा कर पशुओ की गिनती लेना राजकुमारो का काम है। वहुत काल से यह प्रथा चली आ रही है। अत, उस बहाने हमे अनुमति मिल सकती है। और वहा जा कर.. ... - कर्ण ने वात पूरी भी न की थी कि दुर्योधन और शकुनि मारे खुशो के उछल- पडे । वोले-"बिलकुल ठीक तूझी है, तुम को।' कहते कहते दोनो ने कर्ण की पीठ थपथपाई । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० जैन महाभारत - ___ ग्वालों की वस्ती के चौधरी को बुला भेजा और उस से बातें भी कर ली गई। __ चौधरी ने धृतराष्ट्र से जाकर कहा- “महाराज गाए तैयार है। बन के एक रमणीक स्थान पर राजकुमारों के लिए प्रत्येक प्रकार का प्रवन्ध कर लिया गया है। प्रथा के अनुसार राजकुमार उस स्थान पर पधारें, और जैसा कि सदा होता आया है, चौपायो की सख्या, अायु, रंग, नस्ल इत्यादि जाच कर खाते मे दर्ज कर ले और बछडों पर चिन्ह लगाने का काम पूर्ण कर के बन मे कुछ देरी खेल कर थोडा मन वहला ले। चौपायो की गणना का काम भी पूर्ण हो जायेगा और उनका मन भी बहल जायेगा।" .. राजकुमारो ने भो धृतराष्ट्र से जाने की अनुमति मांगी' पर धृतराष्ट्र ने उत्तर दिया- 'नही, द्वैत वन मे पाण्डवो का डेरा है। तुम्हारा वनवास के दुखो से क्षुब्ध पाण्डवों के निकट भी जाना ठीक नहीं है। मैं भीम और अर्जन के निकट पहचने की अनुमति नहीं दे सकता। चौपायो की गणना का हो प्रश्न है तो वह कोई और भी कर सकता है।" . . तब शकुनि ने समझाया-'महाराज़ ! अर्जुन और भीम चाहे कितने भी क्रुद्ध हो, पर वे युधिष्ठिर की आज्ञा बिना कुछ नही कर सकते और युधिष्ठिर १६ वर्ष से पूर्व कोई भी कुकर्म न होने देगे। आप विश्वास रक्खे कि कौरव उनके पास भी न जाय गे। मैं स्वय उन के साथ जाऊगा और कोई बखेडा न खडा .हान दूगा। आप इन्हे आजा दीजिए।" इस प्रकार शकुनि ने समझा बुझा कर अनुमति ले ली। परन्तु धृतराष्ट्र ने चेतावनी देते हुए कहा-"खवरदार जो पाण्डवा के पास भी गए।" अनुमति मिलने पर कर्ण ने शनि को बधाई दी और दुर्योधन से बोला-"अब चलो और अवसर मिले तो पाण्डवो का । , मफाया करदो" Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पासा पलट गया १४१ । एक वडी सेना और अनेक नौकर चाकर लेकर कौरवो ने द्वैत वन की ओर प्रस्थान किया। दुर्योधन और कर्ण यह सोच कर फूले न समाते थे कि पॉडवो को कप्ट मे पड़े देख कर बहत आनन्द पायेगा और वे हमारे शाही ठाठ-बाठ देख कर जल उठेगे। बन पहुच कर ऐसे स्थान पर अपने डेरे लगा दिए जो कौरवो के आश्रम से चार कोस की दूरि पर था। कुछ देर विश्राम करके वे ग्वालो की वस्तियो मे गए और चौपायो की गणना की रस्म अदा की। इसके बाद ग्वालो के खेल और नाच देख कर कुछ मनोरजन किया। फिर बन वूमने की बारी आई। घूमते घूमते वे एक जलाशय के पास जा पहुंचे वहा का स्वच्छ जल और रमणीक दृश्य देखकर दुर्योधन बहुत प्रसन्न हुआ। जब इसे ज्ञात हुआ कि पाण्डवो का पाश्रम निकट ही है, तो उसने अपने नौकरो को आदेश किया कि डेरे इस जलाशय के पट पर ही लगा दिए जाये उसने सोचा था कि एक तो यह स्थान रमगोक है दूसरे यहा से पांडवो . के हाल चाल भी भलि प्रकार देखे जा सकेंगे। जब दुर्योधन के नौकर चाकर जलाशय के तट पर डेरे लगाने गए, तो गधर्व राज चित्रागद ने, जिस के डेरे जलाशय के निकट ही लगे हुए थे, डे रे लगाने से रोक दिया। नौकरो ने जाकर दुर्योधन से कहा कि कोई विदेशी नरेश जल शय के पास पड़ाव डाले है, उसके नोकर हमें डेरे नहीं लगाने देते। दुर्योधन को यह मुन कर बहुत क्रोध आया और गरज कर बोला- "किस राजा की मजाल है कि हमारे डेरे लगाने से रोक दे । जाग्रो किसी की मत सुनो कोई रोके तो उसे मार कर भगा दो।" । आज्ञा पा कर दुर्योधन के अनुचर फिर गए और तम्बू गाडने लगे , गधर्व राज के नौकरो ने अ.कर उन्हे गेका ' जब न माने ., तो दुर्योधन के नीकरो को उन्होने बहत मारा, वे बेचारे अपने प्राण १ ले कर भाग पाये। दुर्योधन को जब पता चला तो उसके क्रोध की सीमा न रहो, अपनी सेना ले कर जलाशय की ओर चल पड़ा। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ "जैन महाभारत वहा पहुचना था कि गन्धर्वो, और कौरवों मे युद्ध हो गया। -घोर सग्राम छिड़ गया । आमने सामने के युद्ध मे कौरवो की सेना न रुक सकी। यह देख कर गधर्व राज को बहुत क्रोध आया और उसने माया युद्ध प्रारम्भ कर दिया। ऐसे ऐसे भयानक और विचित्र माया अस्त्र उसने बरसाये कि कौरवों की उनके सामने एक न चली। यहा तक कि कर्ण जैसे महारथियो के भी रथ और अस्त्र चूर चूर हो गए और भागते ही बना। अकेला 'दुर्योधन युद्ध मे डटा रहा। गधर्व राज चित्रांगद ने उसे पकड लियां और रस्सो से बांधकर अपने रथ मे डाल लिया। फिर विजय घोष किया। कौरवा की सेना के सभी प्रधान वीर रस्सों मे बध चुके थे, सेना तितर बितर हो गई थी। बचे खुवे सैनिको' ने पाण्डवों के आश्रम मे जा कर दुह ई मचाई और रक्षा की प्रार्थना की। बेचारे दुर्योधन का पासा पलट गयीं, वह गया था ठाठ दिखाने, और पाण्डवो का उपहास करने, बन गया बन्दी और स्वय उपहास का विषय । दुर्योधन और उसके साथियो के इस प्रकार अपम नित होने का समाच र सुन कर भीम को बड़ी प्रसन्नता हुई युधिष्ठिर से बोला"भाई साहब | गधों ने वही कर दिया जो हमें करना चाहिए था। दुर्योधन अवश्य ही हमारा मजाक उडाने आया होगा। सो उसे ठीक ही सज़ा मिली। गधर्व राज को उनके इस कार्य के लिए, वधाई भेजनी चाहिए।" . . . . . . :-- - युधिष्ठिर बोले -"भैया ! 'दुर्योधन के गधों के हाथो बन्दी । होने पर तुम्हे प्रसन्न नही होना चाहिए। आखिर को. ता अपना भाई ही है उसे गधर्वराज की कैद से छुडाना ही चाहिए। अपन कुटुम्ब के लोग कद मे पडे हो और हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे यह कैसे हो सकता है । तुम्हे इसी समय दुर्योधन और उसके साथियो को मुक्त कराने जाना चाहिए।" --- -भीम झन्ला उठा, बोला- वाह भाई साहब । आप तो । देवतायो जैमी वाते करते है यह बात तो उसके लिए होनी चाहिए। जो हमें अपना भाई मानता हो। दुर्योधन तो हमे अपना बेरी समझता है। जिमने विष दे कर और गंगा में डुबा कर मुझे मार - Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांमा पलट गया १४३ डालने का प्रयत्न किया, जिसने हमे लाख के महल मे जला मारने का षडयन्त्र रचा, जिसने सती द्रौपदी को भरी सभा मे अपमानित किया, जिसने कपट से आपका राज्य छीन लिया, उस नीच को भला हम कैसे अपना भाई माने ?" __ "नही भीम ! हमे अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। तुम तो धर्म का ज्ञान रखते हो, वह अन्धा हो गया, तो क्या हम भी अन्धे बन जायें। वह जो कर रहा है, अपने लिए ही बुरा कर रहा है । - जो दूसरे के लिए गड्ढा खोदता है, वही उसमे गिरता भी है। उस ने हमे चिडाने का प्रयत्न किया, उसे इसका फल मिल गया। हमे अपने कर्तव्य से नहीं चूकना चाहिए" - युधिष्ठिर ने शाति पूर्वक कहा । । भीम और युधिष्ठिर की बाते हो ही रही थी कि वन्दी दुर्योधन और उसके साथियो का अत्तिनाद सुनाई दिया। युधिष्ठिर व्याकुल हो उठे और अपने भाईयो से बोले- "भीमसेन की बात ठीक नही है। भाईयो ! हमे अभी ही जा कर दुर्योधन को छुड़ा लाना चाहिए।" - युधिष्ठिर के आग्रह पर भीम और अर्जुन दौड पडे और जाते हो गधर्वो की सेना पर टूट पडे । चित्रागद ने जव अर्जन को देखा तो उसका क्रोध शात हो गया। उसने कहा-"मैंने तो दुरात्मा कोरवो को शिक्षा देने के लिए ही यह किया था। यदि आप चाहते हैं तो मैं इन्हे अभी हो मुक्त किए देता है । . यह कह कर चित्रागद ने उन्हे तुरन्त बन्धन मुक्त कर दिया श्रार साथ ही प्राज्ञा दी कि वे इसी समय हस्तिनापुर लौट जाये। अपमानित कौरव तुरन्त हस्तिनापुर की ओर चल पड़े। कर्ण जो __ पहले ही भाग चुका था, रास्ते में दुर्योधन को मिला।.. + + + + + + दुर्योधन बड़ा ही दुखित था, उसे अपने अपमान का, इस अपमान का कि इतने विशाल राज्य के उत्तराधिकारी को गंधर्व राज Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.४.४ ... जैन महाभारत ने बन्दी बना लिया, और उसके शत्रु पाण्डवो के कारण उसकी मुनि हुई, बहुत ही दुख था। उसने कर्ण को लक्ष्य करके कहा - "क भाई । अव मेरा जीवन व्यर्थ है : इस से तो अच्छा था कि गध राज मुझे मार डालता या पाडवो द्वारा मुक्त होने से पहले, मैं युद्ध मे मारा जाता। मुझे जितने भय कर अपमान को सह करना पड़ रहा है, वह मेरे लिए असह्य है। नेरे शत्रु पाडवों मुझ पर एक अहमान कर दिया, वे कितने प्रसन्न होगे और इ घटना को ले कर मेरा कितना उपहास कर रहे होगे। मेरो । इच्छा है कि मै अब हस्तिनापुर हो न जाऊ, बल्कि यही अनश करके प्राण लगा हूँ।" दुर्योधन को इतना दुखी देख कर कर्ण ने उसे सान्त्वना दे हुए कहा-'दुर्योधन | आखिर इतनी सी बात को ले कर तुम इत निराश हो गए 'गिरने हैं शहमवार मैदाने' जग मे' इस मे कौन अपमान की बात है। पाडवो ने आकर , तुम्हे मुक्ति भी दिलादी तो क्या हुआ ? तुम स्वय थोडे ही उन से सहायता की याचना करने गए थे। मैं तो समझता हू कि यह सारा काण्ड पांडवो की इच्छा से ही हुअा। अपने ही फैलाए जाल मे उन्होने तुम्हे फासा और स्वय बड़े भारी दयावान बनने के स्वप्न, मे मुक्त करा बैठे। उनमे बुद्धि होती तो कही वे तुम्हे मुक्त कराते.? , तुम्हे तो उनकी इस मूर्खता से लाभ उठाना चाहिए।" दुर्योधन के मन मे वात नही बैठी, उस ने कहा- "नहीं, नहीं उनका विछाया जाल भी हो तो भी मेरी सारी शक्ति उनके सामने हेच हो गई, यह क्या कम अपमान हे। अभी से जव उन की इतनी शक्ति है, तो तेरह वर्ष पश्चात तो और भी बढ जायेगी। फिर वे अवश्य ही राज्य छीन लेंगे।" ___शकुनि ने उस समय धैर्य बन्धाते हुए कहा- "दुर्योधन तुम्हें . भो उलटी ही सूझा करती है। जव जैसे तैसे छल कपट से मन Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पासा पलट गया तुम्हे पांडवों का राज्य छीन कर दिया और उसे भोगने का समय अाया तुम आत्म हत्या करने की सोचने लगे। पांडवो को नही देखते, कितनी विपदाएं पड रही हैं, तुम्हारे हाथों उनका कितना घोर अपमान हुआ, पर आज भी वे अपनी शक्ति द्वारा राज्य लेने की सोच रहे हैं। यदि आप हत्या करके ही मरना था तो मुझ से यह सब क्यो कराया ? इस से तो अच्छा है कि तुम हस्तिना पुर चलो और पाण्डवो को वन से बुलाकर उनका राज्य उन्हे वापिस कर के चैन से रहो ।" यह वात सुनते ही दुर्योधन के मन मे पाण्डवो के प्रतिईर्ष्या को अाग जाग उठो, दुर्योधन क्रुद्ध होकर बोला-"नही, पांडव चाहे जो करे अब उन्हे राज्य को ओर मुह भी न करने दिया जाये गा। मैं अपनो इस तलवार की सौगंध खाकर कहता हूं कि पाडौं के सामने कभी सिर न झुकाऊगा।" इस प्रकार क्रोध ने दुर्योधन के मन मे आत्मग्लानि के उठते ज्वार को समाप्त कर दिया । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * त्रिदिस परिच्छेद ** पाण्डव बच गए 7 दुर्योधन के मन मे कभी कभी फिर भी अपमान का दुख जाग उठता। उस ने कहा- "मुझे गधर्वों द्वारा बन्दी बनाने का इतना दुख नही है जितना अर्जुन द्वारा मुक्त कराये जाने का । है कोई वीर जो मुझे इस दुख से मुक्त करा सके ? जो कोई पाण्डवो को मारकर मेरे इस दुख का निवारण करेगा, उसे मैं अपने राज्य का एक भाग्य दे दूगा ।" दुर्योधन की इस घोषणा को सुन कर कनकध्वज राजा ने कहा - "महाराज ! मैं इस काम का बीडा उठाता ह और विश्वास दिलाता हू कि ग्राज से सातवे दिन ही पाण्डवो को काल के गाल मे भेज दूगा । यदि मैं यह काम न कर सका तो प्रतिज्ञा करता हूं कि ग्रग्नि कुण्ड में गिरकर भस्म हो जाऊगा ।" प्रतिज्ञा कर चुकने के पश्चात वह दुष्ट बुद्धि ऋषियों के एक श्राश्रम मे पहुंचा और कृत्या - विद्या को सिद्ध करने लगा । जब इस बात का पता नारद जी को लगा तो उसी समय पाण्डवों के पास गए उन से कनकध्वज की प्रतिज्ञा तथा उसकी पूर्ति के लिए कृत्या विद्या सिद्ध करने की बात सुनाई । नारद जी की बात सुनकर युधिष्ठिर ने अपने भाइयो से कहा-"संसार मे एक धर्म ही महान सहयोगी होता है । मनुष्यों W f Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाण्डव वच गए १४७ को सकट से उबारने वाला उसका अपना पुण्य है। अत हम पर जो घोर सकट आने वाला है उस से बचने का एक मात्र उपाय है कि हम सभी अपने को धर्म ध्यान मे लगाए।" भाइयो को धर्म ध्यान को प्रेरणा देकर युधिष्ठिर अपनी समस्त इच्छाओं का विपय भोग हटा कर धर्म ध्यान मे तल्लीन हो गए। वे मेरू पर्वत सदृश निश्चल खडे हो नासाग्र दृष्टि कर आत्मा का चिन्तन करने लगे। उनका विश्वास था कि धर्म ध्यान के प्रसाद से जितने भी अमगल है वे सव नष्ट हो जाते हैं और निशिदिन नये मगल होने लगते हे। धर्म के प्रताप से ही दुख सुख रूप परिणमन होता है । जिस प्रकार ग्रीष्म ऋतु की प्रखर किरणो के लगने से वृक्ष फलता है, इसी प्रकार धर्म धारण से इन्द्र तक का आसन कपायमान होता है। युधिष्ठिर और उनके भाइयो द्वारा धर्म ध्यान व उपधान तप करने से एक देवता का आसन कम्पायमान हुआ और उसने अपने अवधिज्ञान के बल से जान लिया कि पाण्डवों पर कोई आकस्मिक विपदा आने वाली है। उसी के लिये वे घोर तप कर रहे हैं । वह तुरन्त भू लोक की ओर चल दिया और उसने सकल्प किया कि पाण्डवो को इस सकट से अवश्य ही उबालूगा ।। और प्रकट होकर पाण्डवो से बोला - पाडु पुत्रो ! निश्चित , रहो कि कोई भी शत्र तुम्हारा कुछ नही कर सकता । कोई भी सकट पड़ने पर मैं तुम्हारी रक्षा अवश्य करु गा।" महाराज युधिष्टिर बोले- 'लेकिन कनकध्वज द्वारा विद्या सिद्ध कर लेने पर हमारी रक्षा कैसे हो सकेगी ?" "धर्म तुम्हारी रक्षा करेगा । तुम्हारा सहायक तुम्हारा पुण्य है।"--इतना कह कर वह देव वहा से चल पडा और कुछ दूर पर बैठो द्रौपदी को हर कर ले गया । एक भांड की दृष्टि उस ओर पड़ी। पाण्डवो को उस पर वहुत क्रोध पाया। युधिष्ठिर ने उसे पकड़ने के लिए नकुल और सहदेव को आदेश दिया। वे दोनो भ्राता उसी समय धनुप बाण मम्भाल कर उसके पीछे भागे। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ जैन महाभारत - तभी एक ब्राह्मण, जो पास ही रहता था, चिल्लाता हुया आया-"महाराज ! दौड़ो, हिरण, मेरी अरणी ले भागा।" . युधिष्ठिर ने आश्चर्य चकित होकर पूछा--"हिरण अरणी कैसे ले भागा ?" "महाराज | मेरी झोपडी के बाहर अरणी की लकडी टंगी थी हिरण आया और उस से अपने शरीर की खुजली मिटाने लगा, और खजली मिटाकर भागने लगा, अरणी उसके सीग मे अटक गई। सीग मैं अरणी अटकने से घबराकर वह बडी तीव्र गति से भागा जा रहा है ।" ब्राह्मण ने कहा। काठ के चौकोर टुकड़े पर मथनी जैसी दूसरी लकडी से रगड़ कर उन दिनो आग सुलगा लेते थे, उसकों अरणी कहते थे। . अर्जुन बोला-"तुझे अपनी अरणी की ही लगी है, द्रौपदी को एक दुष्ट हर ले गया, हमे उसको चिन्ता है।" . ! ___"महाराज मेरी अरणी ......" ब्राह्मण ने फिर पुकार की। युधिष्ठिर ने अर्जुन को रोकते हुए कहा-"ठीक है, इस ब्राह्मण की सहायता हमारे अतिरिक्त और कौन करेगा। जब ऐसे समय ब्राह्मण ने हमे याद किया है, तो हमे अवश्य ही उस की सहायता करनी चाहिए।" __फिर स्वय उस हिरण का पीछा करने के लिए दौड़ें। उन्हें दौडता देख कर भीम और अर्जुन भी साथ हो लिए। परन्तु हिरण तो मीग मे अरणी अटक जाने से छलांग लगाता बड़ी तोद्र गति से दौड़ा जा रहा था, अत तीनो भाई पीछे भागते भागते थक गए, और हिरण आंखो से ओझल हो गया। . . 'तीनों बुरी तरह थक गए थे और प्यान तीनो को बडे जोरा को लग रही थी, वे एक बरगद के पेड़ के नीचे बैठ गए। चारों Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ نی पाण्डव बच गए प्रोर दृष्टि डाली पर पानी कही दिखाई न दिया । दूसरी ओर से नकुल और सहदेव आगए । { युधिष्ठिर ने पूछा - "क्यो द्रौपदी कहा है ?” "महाराज | वह दुष्टं न जाने कहा छुप गया, बहुत ढूंढा • दिखाई ही नही दिया । हमे प्यास बड़े जोरो की लगी है, पानी की खोज मे इधर चले आये ." वे बोले । १४९ 1 अर्जुन को वडी निराशा हुई और वह कहने लगा- “भाई "साहब! आप की एक भूल के कारण देखा । हमे कितने दुख भोगने पड़ रहे है । द्रौपदी का हरण हुआ, अब न जाने उसकी खोज मे कहा कहा लडना मरना पडेगा ।" { महाराजाधिराज थे, के मारे ऐंठ रही है। 1 1 ग्राप भीम भी बोला - "अधर्म का फल देख लीजिए । और आज वन मे प्यासे बैठे हैं, जिह्वा प्यास और पानी का कही पता ही नही है ।" नकुल ने कहा - "भ्राता जी । प्यास के मारे हमारा बुरा हाल है, पानी कही नही मिला। मुझे तो ऐसा लगता है कि • पानी बिना ही में मर जाऊगा ।" 4 "श्री बैठ कर भ्राता जी की बुद्धि को रोले ।" भीम बोला । युधिष्ठिर समझ गए कि प्यास के मारे सभी बौखला गए है। 'श्रसहनी प्यास ने उनके विश्वास को भी झोड डाला है । 'उन्होंने सहदेव ने कहा- "वृक्ष पर चढ कर देखो तो सही कही जलाशय भी दिखाई देता है अथवा नही ।" महदेव वृक्ष पर चढा और उसने चारों ओर देख कर बतलाया कि कुछ दूरी पर कुछ ऐसे वृक्ष दिखाई देते हैं जो जलाशय "के तट पर ही होते हैं । कदाचित वही जलाशय है । + युधिष्ठिर ने कहा- 'तो फिर तुम जाओ और शीघ्र ही जल लेकर साम्रो।" Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० जैन महाभारत सहदेव उस जलाशय पर गया। उस ने सोचा कि पहले स्वयं पानी पी लू। फिर कमल के पत्तो में भ्राताओं के लिए पानी ले जाऊगा। ज्यों ही उस ने पानी में पैर रक्खा एक आवाज आई-"ठहरो ! यह जलाशय मेरे अधिकार मे है। पहले मेरे प्रश्नो का उत्तर दो तव पानी पीना।” सहदेव को यह बात सुनकर बडा क्रोध आया। वह बोला --"मैं तो प्यास के मारे मरा जा रहा है। वहां मेरे भाई प्यास से तडप रहे है और तुझे प्रश्नो की पडी है।" इतना कह कर उसने अपनी शक्ति का विश्वास करते हुए पानी पिया। ज्यो ही पानी पीकर बाहर निकला। वह मूछित होकर गिर पड़ा। जब बहुत देरी हो गई और सहदेव न लौटा तो युधिष्ठिर ने नकुल को कहा-'सहदेव को गए हुए वहुत देरी हो गई। पर वह अभी तक नही लौटा। देखो तो सही क्या बात है ?" ___नकुल गया, तो उसे अपने भ्राता को अचेत अवस्था में पडा देखकर बड़ा आश्चर्य हआ। उसने वहत ध्यान से देखा पर उसे वह मत प्रतीत हा वह क्रोध मे भर गया, उसने कहा . --"कौन है, जिसने मेरे भाई की हत्या की है। मेरे सामने आ।" वार वार पुकारने पर भी जब कोई सामने न आया तो उसने सोचा कि पहले पानी पी ल फिर उस दृष्ट का सहार करूगा वह पानी मे उतरने लगा। तो वही आवाज़ आई-"ठहरी वह जलाशम मेरे अधिकार मे है, पहले मेरे प्रश्नो का उत्तर दो, तव पानी पीना ।" __ "अभी ठहर ! तुझे बताता हूं। तूने ही मेरे भाई को हत्या की है। मैं तुझ से अपने भ्राता की हत्या का बदला लूगा , तनिक मुझे पानी पी लेने दे।" - नकुल ने पानी पिया, जब वह वाहर पाया तो मूछिन होकर गिर पड़ा। जव नकुल को गए हए भी बहुत देरी हा गई, तो युधिष्ठिर Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ 1 पाण्डव बच गए १५१ ने अर्जुन को भेजा | अपने दो भाईयो को जलाशय के तत्पर मृतावस्था मे देखा तो वह फूट फूट कर रोने लगा। उसकी छाती शोक से फटी सी जाती थी। कुछ देर बाद वह उठा, पानी पीने के लिएवढा । तभी आवाज़ आई - " ठहरो । इम जलाशय पर मेरा अधिकार है । पहले नेरे प्रश्नो का उत्तर दो.. ....... " अर्जुन ने गरजकर कहा - " अच्छा तो तुम ही हो मेरे भाईयो के हत्यारे । दुष्ट सामने श्रा । पाण्डवो पर हाथ उठाने का मज़ा अभी चखाता हू " अर्जुन ने गर्जना को - "कौन है ? शक्ति है तो सामने आ । दूसरी ओर से ठहाका मार कर हसने की आवाज़ आई । क्रुद्ध ग्रर्जुन ने उसी समय गाण्डीव द्वारा शब्द वेधी वाण चलाने आरम्भ कर दिए । पर ठहाके की आवाज ग्राती ही रही । छुपा हुआ क्यो है, तब अर्जुन ने सोचा कि पहले पानी पी लूं, फिर इस की खबर लूगा । वह ज्यो ही पानी पोकर बाहर श्राया तट पर आते ही मूर्च्छित होकर गिर पडा । जब अर्जुन को गए हुए भी बहुत देरी हो गई तो यह देखने के लिए कि माजरा क्या है ? यह सब कहा खो गए, भीम श्राया । जलाशय पर तीनो को मृतावस्था मे देखा तो भ्राताओ से लिपट लिपट कर रोने लगा । और फिर कडक कर बोला'किसने मेरे भ्राताओं की हत्या की है । सामने आये। मैं अभी ही उसे बता दूंगा कि पाण्डवो पर हाथ उठाने का मतलब है अपनी मृत्यु को निमंत्रण देना ।" परन्तु कोई उत्तर न मिला । कोई सामने न आया । प्यास से व्याकुल भीम पानी पीने के लिए वढा । तब फिर वही श्रावाज ग्राई - " ठहरो! इस जलाशय पर मेरा अधिकार है. "A " भीम कडक कर वोला--"अरे दुष्ट ! हम शक्ति द्वारा भी Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ जैन महाभारतः तेंरा साहस हो तो रोक ।" "देखो ! करने पर भी पानी पिया था, वह मृत पानी पीना जानते हैं | तुम्हारे भाइयो ने मना पड़े हैं । तुम भी ऐसी भूल मत करो। " - आवाज आई 1 - : ま भीम की आखे 'लाल हो गई, वह बोला - "अच्छा त मेरे भ्राताओं के हत्यारे तुम्ही हो । छुप क्यो रहे हो, कायर ! तुम्हे अपनी शक्ति पर तनिक सा भी अभिमान है तो सामने ग्रानो," E कोई सामने नही आया । तव भीम ने कहा- "तो फिर मैं जल पीता हू । शक्ति हो तो आकर रोक ।" भीम ने पानी पिया और वह भी तट पर आकर बेहोश होकर गिर पडा । 1 4 जब चारों' में से एक भी नं लौटा, तो युधिष्ठिर समभ गए कि जरूर मेरे भाई किसी सक्ट मे फस गए हैं । इसी लिए वे भाइयो की सहायता के लिए चल पड े - 1 - जलाशय के पास आये तो चारो को मृत समान देख कर उन के नेत्रो से गंगा-यमुना वह निकली। वे कभी सहदेव के शरीर को टटोलते तो कभी श्रर्जुन के । कभी नकुल के पास बैठकर रोते तो कभी भीम के । बैं भीम के शरीर से लिपट कर बोले - "भैया "भीम तुम ने कैसी कैसी: प्रतिज्ञाएं की थी । क्या वे ग्रव सव निष्फल हो जायेंगी । बऩवास के समाप्त होते होते क्या तुम्हारा जीवन भी समाप्त हो गया । देवता की बाते भी ग्राखिर झूठी ही निकली।" हाय व किसके बल पर मैं गर्व करूगा ? किस की गदा के बल पर मैं दुष्टो को चुनोती दूगा . फिर वे अर्जुन के शरीर से लिपट कर बिलख बिलख कर रोने लगे -- "अर्जुन ! हाय आज तुम भी मुझे ग्रकेला छोड़ गए ।, हाय श्रव में द्रौपदी को कैसे मुह दिखाऊंगा ? यह तुम्हारा गाण्डीव ग्रव कौन उठायेगा ?" - वे नकुल और सहदेव से लिपट कर भी बच्चो को भाति Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाण्डव बच गएँ १५३ रोये। वे बार बार सोचते कि ऐसा कौन शत्रु हो सकता है. जिसमे इन चारों का वध करने की सामर्थ्य थी? वे अपनी भूल को ही भ्राताओ के वध का कारण समझ कर पश्चाताप करने लगे- "हाय ! मै हो यदि अधर्म पर पग न बढाता जुया न खेलता तो दिग्विजय की सामर्थ्य रखने वाले मेरे इन भ्रांताओ का वध न होता। शास्त्रो मैं ठीक ही कहा है कि जुआ नाशकारी खेल है। मैं ही इन की अकाल मृत्यु का कारण बना। परन्तु यदि वास्तव मे मेरी भूल ही. के कारण मुझ पर यह विपदा पडी, तो मुझे ही उस आजेय शक्ति ने उस का दण्ड क्यों न दिया ? क्यो मेरे प्रिय भ्राताओ को उसका दण्ड भोगना पडा।" - करुण कुन्दन करते करते युधिष्ठिर को कितना ही समय व्यतीत हो गया। और वे प्यास से व्याकुल होकर जलाशय की ओर अग्रसर हुए। उन्होने ज्यो ही पानी पीना चाहा। फिर वही आवाज आई। साथ ही यह भी आवाज आई कि-"युधिष्ठिर महाराज | पानी न पियो। तुम ने भी यदि अपने भ्राताओ जैसी ही भूल की, मेरे चेतावनी देने के उपरान्त भी पानी पिया, तो तुम्हारी भी वही दशा होगी, जो तुम्हारे भ्रातानो की हुई है " १२ ९ ' .:-. __ आवाज़ सुनते ही महाराज युधिष्ठिर रुक गएँ और वह समझ गए कि यह किसी यक्ष की माया है। फिर भी वे यह सोच कर पानी पीने लगे कि-"जब मेरे भ्राता ही संसार मे नहीं रहे तो मैं जी कर क्या करूगा।" दुखित युधिष्ठिर ज्यों ही जल पोकर बाहर आए तो अपने भ्राताओ के पास आते ही अचेत होकर गिर पडे । दूसरी ओर कनकध्वजे ने कृत्या-विद्या सिद्ध करली। कृत्या उसके सामने पहुंची और प्रसन्न होकर उसकी मनोकामना पूर्ण करने का वचन दिया। '. वह बोला-"यदि तुम मे अतुल्ल शक्ति है, तो जाकर अभी ही पाण्डवो का काम तमाम करदो।" Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ जैन- महाभारत कृत्या वहाँ से चल कर उस स्थान पर आई जहाँ पाण्डव मृत समान पडे थे । उस ने देखा कि पाण्डव मृत समान पड़े हैं, और एक भील उन्हे उलट पलट कर देख रहा है। पूछा - "इन पाण्डवों को क्या हुआ उसने भील से ?" 7 वह दुखित होकर बोला- ' दीखता नही यह मरे पडे हैं इन मे जीवन का एक भी चिन्हें नही है । हाय, हाय, किसी दैत्य ने इन्हे मार डाला।" "तुम्हें इन के मरने का इतना दुख क्यों है ? क्या तुम इन के दास हो ?". - कृत्या ने पूछा । आखो मे आसू भर कर भील बोला - " मै क्या सारा ससार इनकी सेवा करने को तैयार रहता था। मैं दास तो नहीं, पर 7 उनका भक्त श्रवश्य हू ;" "ऐसे क्या गुण थे इन मे ? ' - "यह दुखियो का दुख हरने वाले, न्याय वत, धैर्यवान ' सहन शील, दान वीर, धर्म पर अडिग रहने वाले योद्धा, समस्त संसार का भला चाहने वाले, शत्रु के साथ भी मित्रों जैसा व्यवहार करने वाले और असीम साहसी थे । इनके मरने से दुष्टो को खुल खेलने का अवसर मिल गया । दरिद्रो का अव कोई सहारा ही नही रहा । वह भील वोला । 39 J कृत्या ने श्राश्चर्य से कहा- “अच्छा इतने गुणवत थे पाण्डव । तो फिर कनकध्वज उन्हे क्यो मारना चाहता था ?" " उसे इन की हत्या करने के पुरस्कार स्वरूप दुरात्मा दुर्योधन अपने उस राज्य का एक भाग देने का वायदा कर चुका था, जो एक दिन पाण्डवो का ही था, छल, कपट और अन्याय द्वारा जिसे उस दुरात्मा ने अपने दुष्ट सहयोगियों के सहारे छीन लिया था। " - भील बोला । "भील तुम ने मुझे बता कर बहुत ही अच्छा किया। मैं कृत्याह । मुझे कनकध्वज ने सात दिन की घोर तपस्या से सिद्ध Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाण्डव वच गए...............१५५.. ___ करके पाण्डवो की हत्या करने के लिए भेजा था।"-कृत्या बोली। . : - भील ने अाश्चर्य प्रकट करते हए कहा-"पाप कृत्या विद्या हैं। और धर्मराज युधिष्ठिर के परिवार का नाश करने के लिए उस दुष्टात्मा के कहने से चली आई ? आश्चर्य की बात है। आप को तो उसी दुष्ट का बध करना चाहिए।" ___ कृत्या भील की बात सुन कर तुरन्त वापिस चली गई और जाते ही कनकध्वज के सिर पर वज्र की भाति गिरी जिस से उसका सिर फट गया और कनक ध्वज यमलोक सिधार गया । । भील रूपी देव ने अमृत नोर का छोटा देकर धर्मराज युधिष्ठिर की मूर्छा दूर की। जब वे पूरी तरह सावधान होगए, तो अपने सामने भील को देख कर बोले .--भीलराज ! वह कौन शक्ति है. जिसने मुझ मूछित किया था। उसो ने मेरे भ्राताओं को अपनी माया से मृत समान कर दिया।" भील रूपी देव ने कहा-'हे धर्मराज ! मेरे प्रश्नो का उत्तर दें तो आप का सब दुख दूर हो सकता है। आप ने उस समय मेरी बात नहीं मानी और पानी पिया।" युधिष्ठिर समझ गए कि वह भील नहीं बल्कि कोई यक्ष है। अत तर्क वितर्क करना ठीक न समझ उन्होने कहा"आप प्रश्न कीजिए।" ___ तव भील रूपी देव ने प्रश्न किए और युधिष्ठिर उत्तर देने लगे। प्रश्न--'मनुष्य का कौन मदा साथ देता है ?" उत्तर-"धर्म ही उसका सदा माथ देता है.। प्र०-कौन सा ऐसा शास्त्र (विद्या) है जिमका अध्ययन कर के मनुष्य बुद्धिमान होना है । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत उ०- मुनि गण की संगति से ही मनुष्य बुद्धिमान होता है। प्र० -- भूमि से भी भारी वस्तु क्या है ? उ० - सन्तान को कोख मे धरने वाली माता भूमि से भ भारी होती है । प्रि० - प्रकाश से भी ऊँचा कौन है ? T उ० - पिता । - प्र० - हवा से भी तेज चलने वाला कौन है ? १५६ उ० मन | प्र० - घास से भी तुच्छ कौन सी चीज है ? उ०- चिन्ता | - प्र० -- विदेश जाने वाले का कौन मित्र होता है ? उ०--विद्या | प्र० - घर ही मे रहने वाले का कौन साथी होता है ? उ०- पत्नि और धर्म । - प्र०—मरणासन्न - वृद्धे का कौन मित्र होता हैं ? उ० - दान, क्यो कि बही मृत्यु के बाद अकेले चलने वाला जीव के साथ-साथ चलता है । प्र० - बरतनो में सब से बडा कौन सा है ? ----- उ०- भूमि ही सब से बड़ा बरतन है जिस मे सब कुछ समा सकता है । -- 7 प्र० - सुख क्या है ? उ०- मुख वह चीज है जो गोल और सच्चरित्रता पर स्थित है । " T प्र०—किस के छूट जाने पर मनुष्य सर्व प्रिय बनता है ? उ०--अभाव के छूट जाने पर !. प्र० - किस चीज़ के खो जाने से दुख नही होता ? उ०- क्रोध के खो जाने से । प्र० - किस चीज को गंवा कर मनुष्य धनी बनता है ? उ०- लालच को 1 = प्र० - युधिष्ठिर । निश्चित रूप से बतायी कि किसी का ब्राह्मण होना किस बात पर निर्भर करता है ? उस के जन्म पर विद्या पर या शील स्वभाव पर ? 3 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाण्डव बच गए १५७ जो लोए बंभणों वुत्तो, अग्गीव महिनो जहा । सया कुसल संदि, तं वयं बम माहणं ।। जिन्हे कुशल पुरुषो ने ब्राह्मण कहा है, और जो संदा अग्नि के समान पूजनीय है, उन्ही को ब्राह्मण कहता हूँ । जो न सज्जइं आगंत, पव्ययंतो न सोयई । रमए अज्ज वयणाम्मि, तं व वून माहणं ।। ... जो स्वजनादि मे आसक्त नहीं होता और प्रवजित होने मैं सोच नही करता किन्तु आर्य वचनो मे रमण करता है, उसी को मैं ब्राह्मण कहता हू । . . जयारूवं जहा मढ, नित मल पावगं । . . . · रागहोस भयाईयं तं वयं बूम माहणं ।। जिस प्रकार अग्नि से शुद्ध किया हुआ · सोना निर्मल होता है उसी प्रकार जो राग द्वेष और भयादि मे रहित है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हू । तर पाणे वियोणित्ता, मंग हेण य थावरे। जो न हिंसइ तिविहेणं, तं वयं वूम माहणं ।। . __जो त्रस और स्थावर प्राणियो को मक्षेप या विस्तार मे ज़ान कर त्रिकरण त्रियोग से हिसा नहीं करता, उसी को मैं ब्राह्मण कहता हूँ। ... कोहा वा जड़ वा हासा, लोहा वा जई वा भया । मुसं न वयई जो उ, त वयं वृम माहणं ।। क्रोध मे. लोभ से, हास्य तथा भय से भी जो झूठ नहीं बोलता, उसी को मैं ब्राह्मण कहता हूं। . . Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ जैन महाभारत शास्त्रों मे कहा है। कम्मुणा बंभणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तियो । वइस्लो कम्मुणा होइ, सुदो हेबइ कम्मणा ॥ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र यह सब कर्म से होते है जिसमे शील नहीं, वह ब्राह्मण नही, जिस मे दुर्व्यसन है, वह चाहे कितना ही पढ़ा लिखा हो, ब्राह्मण नही कहला सकता | चारो वेदो को कण्ठस्थ करके भी यदि कोई चरित्र भ्रष्ट हो तो वह 'नीच ही है। फिर चाहे उसने ब्राह्मणं माता पिता से ही जन्म क्यो न लिया हो । प्रश्न-सब से अधिक आश्चर्य की क्या बात है ? . उत्तर-प्रति दिन अपनी आँखो के सामने छोटे बड़े जीवों, वडे बडे वलिकण्ठो, महाराजाओ, विद्वानो आदि को मरते देखकर भी मनुष्य भोग लिप्सा मे अपने मनुष्य जीवन को गवाता है और अपने रुप, रग, शक्ति धिद्या, और ज्ञान पर अहंकार करता है। यही सव से वडा आश्चर्य है । इसी प्रकार भील रूपी देव ने कितने हो प्रश्न किए और धर्मराज युधिष्ठिर ने उनके तकं सगत, धर्माबुमार और शास्त्रा के अनुसार उत्तर दिए। . अन्त मे देव बोला- "राजन । अापकी धर्म बुद्धि से म बहुत प्रसन्न हू। वास्तव मे पाप धन्य है। मैंने सुना था कि पाप धर्मराज है. परन्तु आज मेरे सामने प्रत्यक्ष प्रमाण उपस्थित हो गया। फिर भी अभी तक मुझे इस बात पर आश्चर्य है कि आप जैमा व्यक्ति जुए जैसे दुर्व्यसन मे फस गया।" . लज्जित होकर युधिष्ठिर वोले-'आप ठीक कहते है। मैं राजवशी की गति का त्याग न कर पाया, औरं आज अपना उसी एक भूल का इतना भयकर फल भोग रहा है।" Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाण्डव वच गए १५९ - "मैं आप के एक भाई को जिला सकता है। बताइये आप इन चार मे से किसे जीवित देखना चाहते है ?"-देव ने कहा ।। . युधिष्ठिर ने पल भर सोचा कि - किसे जिलाऊ? और, तनिक देरि वाद बोले- "मुझे तो, सब ही मे प्रेम है। फिर भी,, यदि आप एक को ही जिला सकते हैं, तो जिसका रग सावला पाखें कमल सी, छाती विशाल, और बाहे लम्बी लम्बी है और जो: तमाल के वृक्षः सा गिरा पडा है, वही मेरा भाई नकुल जी उठे " युधिष्ठिर की बात समाप्त होते ही भील रूपी देव ने अपने देव रूप मे प्रगट होकर कहा-"युधिष्ठिर । भीमकाय शरीर वाले, लिष्ट भीमसेन को छोडकर नकुल को तुम ने क्यो जिलाना ठीक समझा ?' मैंने तो मुना था कि तुम भीम को ही अधिक स्नेह करते हो। और नही तो कम से कम अर्जुन को ही जिला लो, जिस का रण कौशल सदैव तुम्हारी रक्षा करता रहा । इन दो भाईयो को छोडकर तुमने नकुल को जिलाने की इच्छा प्रकट की, इसका क्या कारण है ? युधिष्ठिर बोले-"देवराज । मनुष्य की रक्षा न भीम से होती है न अर्जुन से। धर्म ही मनुष्य की रक्षा करता है और विमुख होने पर धर्म ही से मनुष्य का नाश होता है। मेरे पिता को दो पत्नियों मे से एक मैं, कुन्ती पुत्र बचा हूं। मैं चाहता हू कि माद्री का भी एक पुत्र जी जाये। जिससे हिमाव बराबर हो जाए। इसी लिए मैंने नकुल को जिलाने की इच्छा प्रगट की। धर्म नीति यही कहती है।" पक्षपात से रहित राजन् । तुम्हारे सभी भाई जी उठेगे।- "इतना कह कर उस ने अमृत नीर वर्षाया और अचेत भ्रातामो में पुन चेतना लौट आई। . उस के पश्चात देव ने - द्रौपदी को लाकर देते हुए कहा"द्रौपदी हरण, मृग द्वारा अरणी ले जाना और आप सभी को मूछित करना यह मेरा ही काम था। मैं सौधर्म इन्द्र का प्रीति पान एक एक देव हूं। श्राप के धर्म ध्यान में मेरा ग्रासन डोला और मैंने Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत पता लगाया कि क्या कारण है। जब मुझे ज्ञात हुआ कि तुम लोगो पर आपत्ति आने वाली है, मैं वहा से चल कर आया और यह सब माया रची। जब तुम लोग मूछित अवस्था मे पड़े थे, तव कनक ध्वज द्वारा सिद्ध कृत्या तुम्हारा बध करने आई। और तुम्हे मृत समझकर, मेरे समझाने से दह वापिस लौट गई और क्रुद्ध हो कर उसने कनकध्वज की ही हत्या करदी। - इस अवसर पर मैने जो तुम्हारी परीक्षा ली, इस से मुझे ।। ज्ञात हो गया कि तुम वास्तव मे धर्मराज हो । तुम्हे कोई परास्त न कर सकेगा। अब तुम्हारे बारह वर्ष पूर्ण हो रहे है। . तुम्हारा एक वर्ष गुप्त रहने का काल भी ठीक प्रकार व्यतीत होगा। दुर्योधन तुम्हारा पता न लगा सकेगा।" यह कह कर देव वहाँ से चला गया । . . . इस प्रकार कितने ही कष्ट सहन करते २ बनवास की वारहवर्ष को अवधि समाप्त हो गई। इस वीच अर्जुन ने पाशु पात विद्या । सिद्ध कर ली, मामवभी नामक जलाशय के पास युधिष्टर की अपने पिता जो देव वने गए थे, से भेंट हो गई। अपने भाई दुर्योधन को मुक्त करके अपनी विशाल हृदयता का प्रमाण दे दिया । . .. ____- यह कथा सुन कर जो कोई अपने आचार विचार. को शुद्ध करने का प्रयत्न करेगा, वह अवश्य ही धर्म पथ पर बढ सकेगा। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * चौहदवां परिच्छेद * पाण्डव दास रूप में तेरहवां वर्ष वनवास को अवधि पूर्ण होने पर युधिष्ठिर अपने ग्राश्रम मे रहने वाले विद्वानो से बोले ' हे विद्वानो ! धृतराष्ट्र और उनके पुत्रो के जाल मे फस कर हमे अपने राज्य से हाथ धोने पडे । और महाराज पाण्डु की सन्तान होकर भी बनो मे दीन-दरिद्रो की भाति जीवन व्यतीत करना पडा । यद्यपि हम बडी कठनाई से अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे, परन्तु आप लोगो की कृपा व समय समय पर मुनि राजो के सतसग से यह दरिद्रय पूर्ण जीवन भी हमने बहुत आनन्दं पूर्वक व्यतीत किया। परन्तु ग्रव हमारा वनवास काल समाप्त हो गया और अब हमे शर्त के अनुसार एक वर्ष तक अज्ञात वास मे रहना होगा । और कितनी कठोर शर्त है यह आप को ज्ञात ही है, अत हमारे साथ आप लोगो का रहना ठीक नही है । आप के रहते हम अज्ञात वास मे नही रह सकते । हमे प्रत्येक उस व्यक्ति से छुप कर रहना होगा जो भय से अथवा प्रलोभ मे ग्राकर दुर्योधन को हमारा पता बतलादे । अतः आप से विदा चाहते है । आप हमे आशीष देकर विदा करे ।" 1 कहते.. कहते युधिष्ठर की याखे डब डबा आई । विद्वानो ने कहा- "महाराज ! प्राप के स्वभाव, दया भाव और प्रेम के कारण ही हम वन मे श्राप के साथ रहे । श्राप के मन की व्यथा + Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ जैन महाभारत को हम समझते हैं। परन्तु विपत्तिया किस पर नही पडती। जो विश्व विभूतिया होती हैं, उन पर सकट आते ही हैं, सकटो मे ही उनकी परीक्षा होती है। विश्वास रक्खें कि आप शत्रुओ पर अवश्य विजय प्राप्त करेंगे." , विद्वानी और अन्य मित्रों को इस वार्तालाप के पश्चात महाराज युधिष्ठिर ने विदा दी। व सभी हस्तिनापुर की ओर चले गए और वहां जाकर लोगो में यह बात फैला दी कि. पाण्डव आधी रात को हमे सोता छोड़कर कहीं चले गए। यह बात सुनकर उन लोगों में भान्ति भान्ति की शंकाए उत्पन्न हो गई जो पाण्डवो के प्रशंसक अथवा भक्त थे। कुछ लोग तो इस समाचार से बहुत ही दुखित हो गए। - . . . . . . . : : विद्वानों तथा अन्य साथियो के चले जाने के उपरान्त पाण्डव एकान्त में बैठ कर भावी कार्य क्रम पर विचार करने लगे। युधिष्ठिर ने अर्जुन को सम्बोधित करके कहा- "अर्जुन! तुम लौकिक व्यवहार में निपुण हो। तुम्हीं बतायो कि यह तेरहवा वर्ष , किस देश मे और कैसे बिताया जाय ?" , अर्जुन बोला-"महाराज ! 'स्वय धर्म देव ने आप को घर दान दिया है, इस लिए मुझे पूर्ण आशा है कि हमारा तेरहवा बप भी मुगमता से कट जाये गा और दुर्योधन हमारा पता न लगा सके गा चारों ओर पांचाल, 'मत्सय, शाल्व, वैदेह. वालिहक, दशाण, शूरसेन, मगव आदि कितने ही देश हैं। उस मे से आप जिसे पसन्द करे वहीं चलकर रहे। हां, मेरी राय यह है कि हम सभी की साथ ही रहना चाहिए। ज्वेप चाहे भिन्न भिन्न हो। - "फिर भी तुम इन सभी देशों में से किसे पसन्द करते हो !" युधिष्ठिर ने पूछा। "महाराज | मेरी राय तो यह है कि मत्सय देश मे जाकर रहा जाय । वहा का अधि पति महाराज विराट है, उसकी धानी बड़ी ही सुन्दर और स्मृद्ध है। योगे आपकी जैसी मजी। -अर्जन बोला। -THM .." Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाण्डव दास रूप में + १६३ 2 'हाँ, बिराट राजा से तो मैं भी परिचित हू, वे बड़े ही शक्ति सम्पन्न, धर्म पर चलने वाले, धैर्यवान और सुलझे हुए वयोवृद्ध है, हमे चाहते भी बहुत है। दुर्योधन की बातो मे भी आने वाले नही है । इस लिए मेरी भी यही राय है कि उनके यहा ही छुप कर रहा जाय | युधिष्ठिर ने अर्जुन की बात का अनुमोदन करते हुए कहा । 7 fe "अच्छा. यह तो तय हुआ संमभों, पर यह भी तो सोचना हैं कि हम लोग वहां किस वेष मे रहेंगे और उनका कौनसा काम केरेंगे ?" - अर्जुन ने प्रश्न उठाया और यह सोच कर उस का जी भैरे प्रायो कि जिन धर्मराज युधिष्ठिर ने सम्राट पद प्राप्त किया था, * ही अंब विराट के सेवक' 'या दास वन कर रहेगे । 'और' जिन धर्मराज को छल कपट छू तक भी नहीं गया, उन्हें ही छद्म वेष में रह कर नौकरी करनी पडेगी ? 1 : · कुछ देर विचार करने के उपरान्त युधिष्ठिर वोले -"लो भाई ! मैने अपने लिए तो सोच लिया। मै तो महाराज विराट से प्रार्थना करूंगा कि वे मुझे अपने दरवारी काम के लिए रख लें । मैं सन्यासी का सा वेष बना कर केक के नाम से रहा करूंगा । राजा के साथ में चौपड खेला करुगा और इस प्रकार उनका मन बहलाया करूगा । चोपड खेलने के अतिरिक्त मैं राज पण्डित का कम भी कर लूंगा। ज्योतिष शकुन, नीति यादि शस्त्रों तथा जो कुछ ज्ञान मुझे है. उस से राजा को हर प्रकार में प्रसन्न रखू गा । साथ ही सभा में राजा की मेवा टहल भी कर लूंगा। कह दूंगा कि राजा युधिष्ठिर का मै मित्र बन चुका हू। मै इस प्रकार रहूगा कि विराट को कोई सन्देह भी नहीं हो पायेगा और दुर्योधन के. गुप्तचर भी न समझ पायेंगे कि वास्तव में मैं कौन हू । लोग बताओ कि क्या क्या काम करोगे : " श्रव तुम युधिष्ठिर की बात सुन कर सभी अपने अपने सम्बन्ध मे मोचने लगे। कुछ देरी तक सभी विचार मग्न रहे पूर्ण शांति व्याप्त रही, तभी शांति भग करते हुए युधिप्टिर बोले- "या 4 भीम ! तुम बताओ कि कौन सा काम करोगे ? तुम ने तो लान + · Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत तक किसी की बात सहन करनी नहीं जानी । जिसने तुम्हारे स्वाभिमान को चोट पहुचाई उसी को तुम ने अपने क्रोध का शिकार बनाया । तुम ने हिडम्वा सुर का वध किया. एक चक्रा नगरी मे बकासुर का वध कर के नगरवासियों को चिन्ता मुक्त किया। जब भी हम पर विपदा आई तुम अपने असीम बल की पतवार से हमारी नौका पार लगाते रहे । तुम कंसे किसी का सेवक होना स्वीकार करोगे ? और कैसे अपने को काबू में रख सकोगे । वहा तो जिस के आधीन रहोगे उसकी पड़ेगी । आह ! तुम कैसे कैसे किसी का दास रह तुम्हारी है। जिस प्रकार मुश्क और कर रक्खो पर वह छुप नही पाता, इसी दुर्लभ है ।" अनुचित सभी बाते सहनी छुपा सकोगे ? महावली मुझे सभी से अधिक चिन्ता अगारे को कितना हा छुपा प्रकार तुम्हारा गुप्त रहना १६४ 4 उचित अपने को सकेगा ? 44 कहते कहते युधिष्ठिर का गला रुध गया । उन्होने अपने आंसू पीते हुए कहा- "मुझे क्या पता था कि मेरा प्यारा भोम कभी किसा का दास बनने पर भी विवश होगा ।" भीम उन्हें धैर्य बन्धाते हुए बोला- "महाराज ! श्राप क्यो अधीर होते है ? मैं परिस्थित को भलि प्रकार समझता हू । वारह मास की ही तो बात है, जसे तैसे व्यतीत कर लूंगा। मेरा विचार है कि मैं राजा विराट का रसोइया बन कर रहूंगा। आप जानते ही है कि मै रसोई बनाने मे बडा ही कुशल हू । राजा को ऐसे ऐसे स्वादिष्ट भोजन वना कर खिलाया करूंगी, जो उन्होने कभी खाये न हो । मेरे कार्य से वे प्रसन्न हो जाये गे । जंगल से लकडिया भो ले प्राया करूंगा, इस के अतिरिक्त राजा के यहा कोई पह 'लवान आया करेगा, तो उस से कुश्ती लड़ कर राजा का मन बह आप विश्वास रक्खे कि मैं कभी अपने को प्रकट न होने दूंगा ।" लाया करूंगा। जैव कुश्ती लडने की बात युधिष्ठिर ने सुनी तो उनका मन विचलित हो गया; - वे सोचने लगे कि कहीं भीम सेन 'कुश्ती लड़ने "लडने ही में कोई अनर्थ न कर बैठे जिसके कारण कोई और विपति Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाण्डव दाम रूप मे - खडी ही जाय और सारा बना बनाया खेल ही धूल में मिल जाये। युधिष्ठिर की बात भीम ने ताडली और गका समाप्त करने के लिए भीम ने कहा-"भ्राता जी । आप निश्चिन्त रहे। मैं किसी को जान से नहीं मारूगा। हा जो अधिक अकड फू दिखाया करेगा उसकी हड्डिया अवश्य चटवा दिया करू गा, पर किसी को प्राण ,रहित नही करू गा।" ., . "हा' कहीं कोई नया उत्पात-न खडा कर देना ?" ___ "आप विश्वस्त रहे। ऐसी कोई बात नही होगी जिस से मेरे कारण आप को किमी विपत्ति मे फमना पडे। हसते हुए भीम ने कहा। .."भैया अर्जुन ! तुम्हारी वीरता और कान्ति तो छिपाये नहीं छिप सकत । तुम कौन सा काम करोगे?" युधिष्ठिर ने भीम से आश्वस्त होकर अर्जुन से पूछा। . ___ अर्जुन ने उत्तर दिया--"भाई साहब । मैं भी अपने को छिपा लूगा। विराट के रनवाम मे रानियो और राजकुमारियो की सेवा टहल किया करू गा।" ___तुम्हे रनवाम मे भला रक्खेगा कौन?" युधिष्ठिर हुस कर बोले। - मैं वृहन्नला बन जाऊगा! मैं सफेद शख की चूडिया पहन लगा, स्त्रियो की भाति चोटी गूथ लूगा और कचुकी भी पहन लगा। इस प्रकार विराट के अन्त' पुर में रह कर स्त्रियो "को नाचना गाना भी सिखाया करू गा। जब कोई मुझ से पूछेगा तो वह दगा कि मेने द्रौपदी की मेवा मे रह. कर यह हुनर सीख लिया है।"-अर्जुन यह कह कर द्रौपदी की ओर देख कर. मुम्करा दिया। । अर्जुन की बात सुन कर युधिष्ठिर फिर उद्विग्न हो । बोले- "देखो कर्मों की पनि कमी है। हमे कैसे कमे नाच- नवा रहा Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ जैन महाभारत . है। जो काति और पराक्रम मे वासुदेव के समान है, जो भारत देश कारत्न है, और जो' मेरू पर्वत के 'सममि गोंन्तित है। उसी अर्जुन को रीजा विराट के रनवास से नपुसक बन कर जाना पड़ेगा और रनवास में नौकरी करने की प्रार्थना करनी पडेगी। ! हमारे भाग्य में क्या क्या लिखा है?" - . , . . . ___ इसके पश्चात युधिष्ठिर की दृष्टि नकूल और सहदेव पर पड़ी। दुखित हो कर पूछा--"भैया नकूल ! लुम्हारा कोमल शरीर यह दुख कैसे सहन कर सकेगा? तुम कौन सा काम करोगे " - ‘नकुल जो अब तक अपने सम्बन्ध में पूर्ण विचार कर चुका था वोला-"मैं विराट के अस्तबल मे काम करु गा। घोडी की सुधाने और उनकी देख रेख करने, मे मेरा मन लग जायेगा। घोडी के इलाज. का मुझे अच्छा ज्ञान है। किसी भी घोड़े को मैं का मे भी ला सकता हूं। फिर चाहे घोडा सवारी का हो, अथवा रस का, मभी को मै साध लिया करूगा। विराट से कह दूगा कि पाण्डवों के यहां मै अश्वपाल के काम पर लगा हुआ था. निश्चय ही मुझे अपनी पसन्द का काम मिल जायेगा।" .... अब. सहदेव की बारी आई। युधिष्ठिर बोले - "बुद्धि में वृहस्पति और नीति शस्त्र मे शुक्राचार्य ही जिसकी समता कर सकत हैं, और मत्रणा देने मे जिसके समान कोई भी नही, ऐसा मेरा प्रिय अनुज सहदेव क्या काम करेगा ?"-युधिष्ठिर का , गला उस समय अवरुद्ध था। " महदेव बोला - "भ्राता जी । जब सभी छोटा से छोटा कार्य करने को तैयार है, आप में महाराजाधिराज, व धर्मराज नौकर वन कर मेवा टहल करने को तैयार हो गए,” भीम भैया महावला रमोइया. अर्जुन जमा धनुर्धारी नसर्क और नकुल भैया अस्तवल का मेवक वन कर कार्य करेंगे तो फिर मुझे किस बात की परेशाना है। मैं अपना नाम नान्ति पाल रख कर विराट के चौपाया का देख भाल करने का काम कर लगा गाय बैलों को किसी प्रकार की बीमारी न होने दूंगा और जगली जानवरोन्में उनकी रक्षा किया Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाण्डव दास रूप में १६७ करूंगा कि उनकी संख्या भी बढती जाये, वे हृष्ट पुष्ट हो और दूध भी अधिक देने लगे।"-". इस के पश्चात युधिष्ठिर द्रौपदी से पूछना चाहते थे कि तुम कीनमा काम करोगी, पर उसका साहस न हुआ । मुह से शब्द ही न निकलते थे वे मूक से बने रहें, जी प्रादरणीया है, देवी के समान जिसकी पूजा होनी चाहिए, वह सुकुमार राज कुमारी किसी की कैसे और कौनसी नौकरी करेगी। युधिष्ठिर को कुछ न सूझा । मन ही मन व्यथित होकर रह गए यह सोच कर भी उनका मन सिहर उठता था कि जिसने सदा ही दास दासियो से सेवा कराई है, जो दूसरो को आदेश देती रही है, वह कैसे किसी की दासी बन कर उसके ग्रादेशो का पालन कर सकेगी? द्रौपदी समझ गई, और स्वय ही बोली-“महाराज ! प्राप मेरे लिए शौकातुर न हो। मेरी ओर से निश्चिन्त रहे। सीग्न्त्री वन कर मै राजा विराट के रनवास में काम करूगी। रानियो और राजकुमारियो की सहेली बन कर उन की सेवा टहल भी करती रहूगी। अपनी स्वतत्रता और सतोत्व पर भी कभी पाच न आने दूंगी। राजकुमारियों-की चोटी गूथने और उनके मनोरजन के लिए हसी खुशी से बात करने के काम में लग जाऊगी। मैं कहूगो कि महारानी द्रौपदी की कई वर्ष तक सेवा शुश्रुषा करती रही हूं।" द्रौपदी की बात सुन कर युधिष्ठिर के प्रानन्द का ठिकाना न रहा। उसको सहन शीलता की प्रशसा करते हुए बोले-"धन्य हो कल्याणी ! वीर वश की बेटी हो तुम ! तुम्हारी यह मगलकारी वाते और सहन शीलता का आदर्श तुम्हारे कुल के अनुरूप हैं।" विद्याचर, खेचर प्रादि कितने ही अनेक प्रकार के लोग अर्जुन के मित्र थे। साथ ही महाराज युधिष्ठिर के पास वह अगूठो भी यो जो उन के पिता पाण्ड को किसी समय एक विद्याधर ने दी Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ जन महासमारत.. । थी। पाठको को याद होगा. कि उसी अगुठो के सहारे पाण्डू नृप कुन्ती से मिले थे। इस प्रकार की कितनी ही सुविधाए वेप बदलने और रूप रग आदि इच्छानुसार परिवति न करने के लिए पाण्डवो को उप्लब्ध थी। , अर्जुन ने उस समय पाण्डु नृप वाली अगूठी के सहारे अपना नपुंसक जैसा रूप धारण कर लिया और विराट नृप की राजधानी की ओर चल पड़े। . . . Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . * पन्द्रहवां परिच्छेद * 张珠珍安安安安免安华安安 * कीचक बध- - ****密密岱岱晓晓密密密 मत्सय नरेश विराट सिहासन पर विराजमान थे। एक सेवक ने आकर उन्हे प्रणाम करते हुए कहा-"महाराज की जय विजे हो एक सन्यासी आप के दर्शन करना चाहता है। अपना नाम और पाने का तात्पर्य कुछ भी नहीं बताता।" विराट नृप ने सेवक को आदेश दिया कि उसे दरवार मे माने दो। और कुछ देर बाद एक सन्यासी वेषधारी व्यक्ति विराट के सामने श्रा उपस्थित हया। ब्राह्मण समझ कर विराट ने उस का अभिवादन किया और आने का कारण पूछा। . वह वोला-“मेरा नाम कक है, मैं महाराजाधिराज युधिष्ठिर का मित्र है। चौसर सेलने, ज्योतिष राजनोति आदि मे निपुण हू। जव से सम्राट युधिष्ठिर का राज्य दुर्योधन ने छीन लिया और वे जगलों में चले गए, तभी से बेकार मारा मारा फिर रहा हूं। सम्राट युधिष्ठिर को मैंने बहुत खोजा, पर कही पता न लगा। जीवन यापन का कोई साधन नही था। आप के गुणों को प्रशसा सुनी। युधिष्ठिर भी आप की बड़ी ही प्रशसा किया करते थे, अत विवश होकर आप की शरण पाया है। यदि आप मुझे अपनी सेवा मे रख ले तो अति कृपा हो। महाराज धिष्ठिर द्वारा पून सिंहासनारूढ होने पर मैं उनके पास चला जाऊगा।' Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत विराट ने युधिष्ठिर का नाम सुना तो उन्हे बडी प्रसन्नता हुई वह कह बैठे-महाराजाधिराज युधिष्ठिर का जिक्र करके तुम ने हमारे मन में व्यापक दुख को हरा कर दिया। "प्रोह ! कितना अन्याय हुआ उन के साथ ? वे तो वास्तव में बड़े हो बुद्धिवान, दयावान और धर्म नीति का पालन करने वाले अद्वितीय नरेण है। पर उनकी एक भूल ने ही उन्हे राजा से रंक बना दिया। पर तुम उनके मित्र हो, अपने को चौसर के खेल में निपण बताते हों, फिर तुम्हारे रहते युधिष्ठिर चौसर मे क्यो हार गए ?" "महाराज ! उस समय मैं उनके पास नहीं था, उन्हे तो धोखे से हस्तिनापुर बुलाया गया था, यदि मैं उनके साथ होता तो फिर शकुनि की क्या मजाल थी कि वह उन्हे परास्त कर देता।" -कक ने कहा। "जो भी हो, हम तुम्हे निराश नही करेंगे। महाराज युधिष्ठिर के दरबार की भॉति ही इस दरबार को समझो।" विराट बोले। _ 'महाराज ! मुझे आप से ऐसी ही आशा थी। वास्तव म आप के सम्बन्ध मे महाराज युधिष्ठिर ने जो बताया था, वह अक्ष. रश सत्य सिद्ध हो रहा है। मेरे साथ महाराज युधिष्ठिर के कुछ और सेवक भी है। जो अपने अपने काम में सर्व प्रकार से निपुण है। वे भी जीवन, यापन के लिए ही आप की शरण आये है।" कक रूपी युधिष्ठिर ने कहा। विराट ने उसी समय उन लोगो को भी वूला लिया । भीम से पूछा -- "तुम महाराज युधिष्ठिर के यहा क्या काम करते थे !" . "महाराज ! मैं उनकी रसोई मे काम करता था, मुझ से वह बहुत प्रसन्न थे।" - "डील डौल से तो तुम्हारे कथन का समर्थन नही होता।" "मुझे बचपन से पहलवानी का शौक रहा है, और महाराज युधिष्ठिर भी मुझे कभी कभी कुश्तियां लडाकर मनोरजन किया Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीचक वध करते थे, चस यह डील डोल उसी की निशानी है ।"भीम वोला 1 +7 ? ". 7 "तो फिर यहाँ भी तुम्हे रसोई के साथ साथ कुश्तियां भी दिखानी पड़ा करेगी ।" - विराट ने कहा । J १७१ - और भीम की रसोइया रख लिया गया । फिर नम्वर प्राय अर्जुन का । "क्या तुम भी महाराज युधिष्ठिर के सेवक थे ? " – नपुसक के रूप में अर्जुन से विराट ने प्रश्न किया । जी ! मैं सेवक नही सेविका थी ।" ~ तुम्हारा यह रूप क्या है, वस्त्र नारियों से, ग्रावाज और शरीर की बनावट पुरुषों सी । आधा तीतर श्राधा बटेर ।" -- विराट ने हंसते हुए कहा । "महाराज । प्रकृति ने मुझे न पुरुष बनाया और न स्त्री । म जाने क्या इच्छा थी प्रकृति की 1 वस बीच बीच का ही रूपं चन गई। मेरा नाम वृहन्नला है ।" अर्जुन ने कहा । बृहन्नला रूपों "तो वृहन्नला ! तुम किस कार्य में दक्ष हो ?" + " महाराज में राजकुमारियो को करना आदि आदि बहुत से काम जिनका रानियो और राज कन्याग्रो से ही सम्बन्ध है, करती रही हैं ।" नाचना गाना, श्रृंगार सरकार से वान्ता नहीं, इसी प्रकार नकुल और सहदेव ने अपने पूर्व निश्चयानुसार अपने अपने योग्य कार्य बताए। विराट ने युधिष्ठिर के नाम पर उन्हें उनकी मन पसन्द काम दे कर नोकर रख लिया । द्रौपदी और वृहन्नला को निवास में लगा दिया गया । चैक राज पन्डित के स्थान पर नियुक्त कर दिये गए थे. वै विराट के साथ घोर खेल फेर दिन व्यतीत करते, नमय समय पर Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत . उचित परामर्श देते और नीति सम्बन्धी बाते बता कर विगट के सामने आने वाली समस्याएं सुलझाते । भीम रसोई मे जी लगा कर काम करता, विभिन्न प्रकार के स्वादिष्ट भोजन वना कर राजा को खिलाता और विराट के राज्य के कितने ही पहलवानो से कुम्ती लड कर राजा का मनोरंजन करता, इस प्रकार उसने विराट का मन जीत लिया. । नकुल और सहदेव अस्तबल व पशुशाला में मन लगा कर काम करते, और घोड़ों तथा पशुओं की उचित प्रकार से देख भाल करके राजा को सन्तुष्ट करने मे सफल हुए । १७२ उधर अर्जुन वृहन्नला के रूप में विराट की कन्या उतरा को नाच गाना सिखाता और द्रौपदी सौरन्ध्री के रूप में रानी सुदेणा की मन लगा कर सेवा करती । इस प्रकार वे दोनों हीं रनिवास मे छुपकर रहते रहे । X X X ".XE *.~. x~~ ""x - रानी सुदेष्णा का भाई कीचक बडा ही बलवान था, वह अपनी बहन के यहां ही रहता था । उस ने अहने भाईयो को साथ लेकर विराट की सेना को सशक्त बना रक्खा था उसकी वीरता से प्रभावित होकर विराट ने उसे अपनी सेना का सेनापति बना दिया था। वह सारे राज्य पर छा गया था और अपनी चतुरता एव वीरता से उसने अपना एक ऐसा स्थान पा लिया था कि विराट के राजा होते हुए भी एक प्रकार से मत्सय देश पर कीचक ही राज्य करता था । उस की बात टालने या उसकी इच्छा विरुद्ध चलने का साहस विराट को भी न होता था । अतएव समस्त प्रजा-, भी रचनात्मक रूप-मे कीचक को ही राजा मानती और विराट मन ही मन उससे डरने थे । के ftar चुनिका नरेश चूलिका का बेटा था । उसे विराट यहा जो शक्ति प्राप्त थी उम से उसे ग्रहकार हो गया था। वह जो चाहे कर सकता है, इस का उसे अभिमान था । - कीचक ने जब इन्द्राणी समान सुन्दरी द्रौपदी को देखा तो एक ही झलक मे अपना दिल दे बैठा। सोरन्ध्री के रूप पर Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीचक बध वह मुग्ध हो गया और उसे दासी समझ कर आसानी से ही फंसा लेने की आशा करने लगा। सौरन्ध्री के प्रति उसकी आसक्ति की यह दशा हो गई कि सोते जागते, हर समय उस के नेत्रो मे सोरन्ध्री की छवि ही घूमती रहती और वह जैसे तैसे उस से मिलने का प्रयत्न करने लगा । - सोरन्ध्री ने की चक के नेत्रो मे तैरते विषयानुराग को भाँप लिया, वह समझ गई कि यह पापी उसे भूखे नेत्रो से क्यों देखता है और उसके नेत्रो मे उमडती वासना की बाढ का क्या परिणाम निकल सकता है, वह उसकी शक्ति को अच्छी तरह समझती थी । अतएव वह सदा ही उस से चौकन्नी रहती, और कोई ऐसा अवसर तू आने देती, जिस से कि कभी एकान्त मे कीचक का सामना हो । + १७३ पर वह बेचारी दासी जो थी, अपने पति की वर्तमान दशा को भलि प्रकार समझती थी, ग्रत यह जानते हुए भी कि उसका पति इतना महान शक्तिवान है कि कीचक जैसे दुराचारियों को एक ही वार से ठिकाने लगा सकता है, अपने मन मे उठते भय के ज्वार को मन ही मे दफन कर लेतो, ग्रपने पति अर्जुन से कभी कुछ न कहती | वह सोचती, ग्यारह मास बीत चुके, वस एक मास और शेष है, इस समय को जैसे तैसे अपने सतीत्व की रक्षा करते हुए विता देना ही ठीक है। कही अर्जुन को इम नीच की दुर्भावना का पता चला गया तो वह ग्राग बबूला होकर इस दुष्ट को दण्डित कर डालेगा और न जाने इस के कारण इसका क्या परिणाम निकले. महाराज युधिष्ठिर की प्रतिज्ञा पूरी न हो सकेगी और पुन. उन्हे १२ वर्ष के बिए बनवास मिलेगा । परन्तु कीचक की पाप दृष्टि तो उन कुत्तो की भांति सदा उसका पीछा करती रहती थी, जो कि मांग के एक टुकड़े के लिए जीभ निकाले फिरते हैं। सोरन्ध्री रूपी दीप शिसा पर कीचक रूपी पतिगा जल मरने तक को तत्पर था। जहां यह दीप निखा पहुचती वही कीचक की भूखी दृष्टि प्रा जाती । मोर के > - Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ जैन महाभारत अपना भी सौर हो जाता जाता, . एक, एक पग पर वह अपने हृदय को न्योछावर करने को तत्पर रहता:, उस के लिए अब वह केवल उसकी बहन की दासी नई रह गई थी; उसके हृदय की रानी , उसके हृदय की एक एक-ध कन मे-मोरन्ध्री का नाम, बस गया था। वह प्रत्येक क्षण उसके अपनी कामवासना का शिकार बनाने की युक्तियां सोचता रहता वह जब भी सौरन्ध्री को देखता उसके रक्त का तापमान बर जाता, हृदय की गति तीन हो जाती और उस का मन उमको अप निकट खींच लेने के लिए उतावला हो जाता, पर सौरन्ध्री"कभ ऐसा अवसर ही नहीं आने देती, जब कि वह कोमान्ध एकान्त उमे पा सक। . .. . ... . . : परन्तु भेडिये की माद में रह कर भेडिए- का सामना नह यह भला कैसे सम्भव है ? एक दिन अनायास ही सौरन्ध्री व सामना हो गया। एक सौरन्ध्री थी और दूसरा था कीचक। इन अतिरिक्त वहा कोई न था । "सौरन्ध्री!"- कीचक ने पुकारा। " · सौरन्धी चौक पड़ो और कीचक को देखते ही उसका सा शरीर काप उठा। भय उस के मन पर छा गया। अपनी मन दगा छुपाने की उस ने लाख कोशिश की पर कीचक भाप गया। "तुम कुछ भयभीत दिखाई देती हो। क्या बात है ?" "जी, कोई देव ... ." - "अोह यह बात है ?' नही नहीं इस बात से भयभीत हा । की तुम्हे कोई आवश्यकता नही ।। तुम जानती हो यहाँ मेरा राग है, विराट तो नाम मात्र के लिए है।" मौरन्ध्री ने वहा से खिसकने का प्रयत्न किया तो दुष्ट कात्र वोल ठा- "नागनी कहा हो? तनिक मेरी छाती पर तो ह घर कर देग्बो | तुम्हारे लिए मेरे हृदय की धडकनें क्यों कहती है सोरन्धी कदाचित नमार मेन्तुम ही एक मात्र मुन्दरी ही जिम मोदर्य-ने मेरी प्रांतो से नीद और हदय में चैन छीन लिया है Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीचक वध १९५ पर तुम हो कि मै जितना तुम्हारे निकट पाने का प्रयत्न करता ह, उतनी ही तुम मुझ से दूर रहने के लिए प्रयत्नशील रहती हो। आखिर इतनी घृणा का क्या कारण है ?" "आप को किसी पर-नारी से ऐसी बाते करते लज्जा नही आती?".- सौरन्ध्री ने अपने मनोभावो को छुपाने का प्रयत्न किया और कीचक की बातों से उस के हृदय मे उस के प्रति जो, घृणा एव क्रोध का तूफान उठा था, उसे रोके रहने का असफल प्रयत्न किया, पर जैसे किसी कटोरे मे मात्रा से अधिक पानी भर देने से पानी छलक पड़ता है, उसी प्रकार सौरन्ध्री का क्रोध भी छलक पडा। । तुम लज्जा की बात कहती हो, पर मेरे हृदय की दशा को नहीं जानती? तुम्हे पता नहीं कि मैं तुम्हारे लिए किस प्रकार तडप रहा हूँ। तुम्हारा सौभाग्य है कि मुझ जैसे सर्व शक्ति सम्पन्न सेना पति ने अपना मन तुम जैसी दासी पर वार दिया है। पर वास्तव मे तुम्हारे रूप ने मुझे घायल कर दिया है। और तुम्ही मुझे लज्जा का पाठ पढाती हो। सौरन्ध्री ! मेरे हृदय से इतना अन्याय पूर्ण खेल मत करो।"- कीचक ने बहुत ही प्रेम पूर्ण स्वर से कहा।। सौरन्ध्री की आखो मे खून उबल पाया, बोली-"कामान्ध होकर यह मत भूलो कि मैं एक बलिष्ठ गंधर्व की पत्नी हूं। मेरे साथ पाप लीला रचाने का विचार भी तुम्हारे लिए नाश का कारण बन सकता है। समझे ?" ___"सुन्दरी ! तुम्हारे रूप में जितनी शीतलता है, तुम्हारे कण्ठ में भी उतनी ही नम्रता होनी चाहिए। मैं तो समझता था कि तुम मुझे अपने पर आसक्त जानकर हपतिरेक से उछल पडोगी, पर देखता हूं कि तुम्हारा दिमाग प्रास्मान पर चढ गया है। गीदड के विट की प्रावश्यकता पड़े तो गीदड पहाड पर जा चढता है। इसीलिए तो कदाचित किसी ने कहा है । गर गदही के कान मे कह द कि मैं तभप-फिदा। - बहुत मुमकिन है कि वह भी घाम माना छोड दे ॥" Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत .. - कीचक ने इतना कह कर सौरन्ध्री की प्रोर घूर कर देखा । मैं यहा दासों के रूप मे हू, पर इसका अर्थ यह नही मैं तुम्हारी कामाग्नि का शिकार हो जाऊ? -सीरन्ध्री वॉली । "सौरन्ध्री । जब से मैंने तुम्हे देखा है, प्रशासक और तुम्हारे प्रेम का भूखा हो गया हू ! भाग्य के सितारे को चमकाना चाहो तो मेरे प्रेम को उत्तरे प्रेम में द फिर देखो मैं तुम्हे दासी से रानो बना दूंगा ।" मैं तुम्हारे रूप क तुम यदि अप ~ "तेरी रानी के पद पर मै एक बार नहीं सहस्त्र बार थूकर्त हूं । धिक्कार है तुम्हारी आत्मा को धिक्कार है तुम्हारे उच्च पद पर तुम अपनी वासना के मद मे इतना भी भूल गये कि मैं किसी क पत्नी हू । और पतिव्रता नारी स्वप्न मे भी किसी पर पुरुष क ओर नही देखती ?" - अपने क्रोध को नयन्त्रित रखते हुए सौर ने कहा । → ---- कीचक का रोम रोम जल उठा, एक बार उसका हाथ खड़ग की मूठ पर गया, पर तत्क्षण सम्भल कर उसने अपने घर नियत्रण किया, जोध को पोकर वीला - "कल्याणी । तुम्हारी बाते तो इतनी कटु हैं कि मुझे जैसा वीर उन्हें सहन नहीं कर सकता । पर क्या करू बिना जाने पहचाने ही मैं तुम्हें अपना हृदय दे बैठा हूं। अतएव मैं फिर तुम्हे सुपथ पर आने के लिए अवसर देता हूँ । वास्तव मे तुम्हारा यह अलौकिक रूप, दिव्य छवि और तुम्हारी यह सुकुमारता ससार मे अतुल्य हैं । तुम्हारा उज्ज्वल मुख तो चन्द्रमा को भी लज्जित कर रहा है। तुम जैसी मनोहारिणी स्त्री इससे पहले मैंने ससार मे नही देखी। कमलो मे वास करने वाली लक्ष्मी की साक्षात मूर्ति को दासी के रूप में देखकर मुझे मानसिक दुःख होता है। हे साकार विभूति, लज्जा, श्री, कीर्ति और काति जैसी देवियो का प्रति मूर्ति ! तुम तो सर्वोत्तम मुख भोगने योग्य हो, पर हाय ! तुम जघन्य दुःख भोग रही हो । मैं तुम्हारा उद्धार कर तुम्हे तुम्हारे अनुरूप स्थान देना चाहता हू तुम चाहो तो मैं तुम्हारे लिए अपनी अन्य पत्नियो को त्याग दूँ, या उन सभी को तुम्हारी सेविकाए बना दू । : मेरी प्रेम याचना स्वीकार करो और अपने भाग्य पर गर्व करो कि दासी होते हुए + १७६ " Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीचक बध .. ... ., १७७ .. भी तुम्हारे रूप पर मुझ जैसा शूरवीर पासक्त हो रहा है। वह शूरवीर जिसके शौर्य से मत्सय नरेश तक कापता है, जिसकी उगली के इशारे पर सारा मत्सय देश नाचता है। जिसके असोम बल के सामने विश्व के सभी योद्धा सिर झुकाते है। . ऐसे वीर की पटरीनी बनने का अवसर तुम्हें मिला है, इसे मथ से जाने देना बुद्धिमानी नहीं है ।" कीचक को इस सीख का भी सोरन्ध्री रूपी द्रौपदी पर कोई प्रभाव न पडा, उसने दात पीसते हुए कहा-निर्लज्ज! अपने इसी पीरूप पर इतराता है जो एक स्त्री के रूप के सामने नतमस्तक हो गया । एक सती की लाज का सौदा करने का साहस करता है। मुझे ज्ञात नही था कि विराट नरेश के राज प्रासाद मे ऐसे नीच लोग भी रहते हैं. जिन्हे लज्जा, सभ्यता, धर्म और बुद्धि छू तक नही गई। में अपने सतीत्व के सामने सारे ससार की वीरता, उच्च से उच्च पद और स्वर्ग के वैभव तक को ठुकरा सकती हू। याद रख कि मुझ जैसी पतिव्रता के सामने तेरे सारे प्रलोभन और भय व्यर्थ सिद्ध होंगे। खबरदार ! जो भविष्य मे कभी इस प्रकार का विचार भी तेरे मस्तिष्क मे उभरा । ..... " _"प्रो दासी ! कीचक के नम्र निवेदन को ठुकराने का परिणाम क्या होगा? जानती है ?"-कीचक ने क्रोध से जलते हुए कहा। ___ "जानती हूं। तेरा क्रोध उबल पडेगा और तु स्वयंमेव अपनी मृत्यु को आमन्त्रित करने से न चूकेगा. ?". --सौरन्ध्री बोली । ' अपमानित कीचक सौरन्नी के उत्तर से तिल मिला उठा।. उस ने सौरन्ध्री की ओर हाथ वढाया, पर वह विद्युत गति से वहा में हट गई। क्रोधाग्नि में जलता कीचक देखता ही रह गया। शास्त्रो मे ठीक ही कहा है कि वासना लिप्सा में फसे वीर भी फायर हो जाते हैं, उनकी वृद्धि पर वामना परदा डाल देती है चोर Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत वह नाश को प्राप्त होते है । यह ऐसा दावानल है जो मनुष्यत्व को भूप्म कर डालता है । १७८ मदान्ध कीचक पर सौरन्ध्री के दृढता पूर्वक कहे गए कटु वचनों का भी कोई प्रभाव न हुआ । सती द्रौपदी के धमकी व चेतावनी भरे वाक्यों से भी उसकी वासना का नशा हिरेने न हुआ। वह स्वयं ही बेचैन रहा और अपनी इच्छा पूर्ति के लिए विभिन्न उपाय करने पर विचार करने लगा " एक दिन कामदेव का दास कीचक अपनी बहन रानी सुदेष्णा के पास गया। बाल उलझे हुए । नेत्रों में लाली ऐसी लाली जो इस बात का प्रतीक थी कि वह कई दिन से सोया नही है। कपडे भी कई दिन से नही बदले गए थे। ऐसी अवस्था में गया वह अपनी वहन के सामने | - सुदेष्णा उसकी इस दशा को देखते ही विस्मित रह गई । सुदेष्णा ने पूछा - "भैया ! यह कैसी दशा बना रक्खी है. कुशल तो है ।" "कुशल तो तुम्हारे हाथ मे है ।" "क्यो क्या वात है ?" “बहन ! चारो ओर से निराश होकर तुम्हारे पास आया हूं अव तुम्ही हो जो मुझे जीवन दान दे सको ।" か सुदेष्णा का हृदय कांप उठा, एक अजीव श्रशका उस के म में जागृत हो गई । वोली - "क्या मेरे बस की बात है ? त फिर तुम्हें काहे की चिन्ता है । जो बात है निस्संकोच कहो | अपने भैया के लिए अपने प्राण तक दे सकती हूँ ।" i " “वहन ! मुझे तुम्हारे प्राण नही चाहिएं, मुझे अपने प्रा चाहिए ।" A 7 कौन है ऐसा शत्रु जिसके कारण तुम्हारे प्राणो १ , Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीचक बध १७९ पा बनी। क्या संसार में ऐसा भी कोई है जिस से तुम इतने भयभीत और निराश हो गए। मत्सय देश में तो ऐसा कोई भी नही। सम साफ' साफ क्यो नही.............." पर" . कीवक बीच ही मे बोल उठा। "इस धरती पर ऐसा कोई वीर नहीं उत्पन्न हुना जिस से मुझे किसी प्रकार का भय हो ।' तुम इस सम्बन्ध मे नि क रहो । पर जब आते हैं किस्मत के फेर ...... ... ... मकड़ी के जाल मे फसते है मेर" ": "पहेलियों क्यों बुझा रहे हो। साफ साफ बतायो न । मैं तुम्हारी बातों से वैचैन हो उठी हूं।" मुदेण्णा बोली। . . "बहन ! विवश हो कर लज्जा को ताक पर रख कर अपनी बहन के सामने मैं अपनी बात कह रहा है। वह जिम की मुष्ठी में मेरे प्राण है, तुम्हारी नई दासी है, मोरन्नी।" ' कोचक की वात ने मुदेष्णा को और भी चक्कर मे डाल दिया यद्यपि एक बार उसकी छाती धड़की, और वह मही बात का अनुमान लगाते लगाते रह गई। शका को विश्वास में बदलने के लिए पूछ बैठी-"भैया ! उस दासी के हाथ मे तुम्हारे प्राण कैसे हा सकते है। वह तो स्वय हमारी ही कृपाप्रो की मोहताज है।" सुदेणे ! रूप में वह शक्ति है जिसके मामने मसार की समस्त. शक्तियां शक्ति हीन हो जाती है।'कीचक ने कहा। . "तो यूं कहो न कि काम वामना वह बला है जो सिह को कुत्ते के रूप में परिणत कर डालती है ।"-सुदेष्णा ने सब कुछ ममझ कर अपने भाई को एक मीग्व देने के लिए कहा। - "तुम भी मुझे निरांग कर दोगी, ऐगी तो मुझे स्वप्न में भी प्रागा न यो । ना तो मोचो कि तुम्हारे और मेरे शरीर में बाने में में कि अभिन्न सम्बन्ध है। तुम ने जिस फोन में पर पमारे , मी योग्य में मृले जीवन मिला है। में जो भी है, जैना Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० जैन महाभारत 1 भी हूं. तुम्हारा भाई हूं। तुम्हारे ही सहारे मैं अपने देश को छो कर यहां चला आया । मैं सदा ही तुम्हारे राज्य, तुम्हारे पति के सिंहासन के लिए अपने प्राण तक देने को तैयार रहा । तुम्हारे शत्रुत्रों को अपना शत्रु समझा । जान बूझ कर मृत्यु से टक्कर लेने में भी नही हिचका । क्यों ? क्या केवल तुम्हारे लिए ही, नहीं । तुम्हारे सुहाग और तुम्हारे पति के सिंहासन के लिए ही क्या मैंने रण भूमि में शत्रुओं को नही ललकारा। आज मेरा काम पडा है तो क्या मुझे तुम्हारे उत्तर से लज्जित होना पड़ेगा ?" H +1 י $ 1 I रानी सुदेष्णा को यह समझते देर न लगी कि कीचक काम देव के पूरी तरह से अधिकार मे आगया है, वासना ने उसे उस स्थान पर लेजा पटखा है जहाँ से वापिस लौटाना असम्भव नहीं तो अति कठिन कार्य अवश्य है फिर भी उस ने कहा- "भैया | सौरन्ध्री मेरी दासी है, तो तुम्हारी भी दासी ही है। तुम सेना पति हो । इस राज्य के सब से ऊचे व सम्मानित आसने परे श्रासीन हो। तुम अपनी दासी के मोह जाल मे फसो यह तो तुम्हें शोभा नही देता । तुम्हारे घर मे एक से एक सुन्दर रानी है ।" - "सुदेष्णे । प्रेम और आसक्ति नीच और ऊच के झमटो से ऊपर की बाते हैं । रूप सौंदर्य चाहे जहा हो उसके आकर्षण में कोई कमी कदापि नही होती । यह वह जादू है जिसका वार कभी खाली नहीं जाता। तभी तो लोग कहते है कि प्रेम अच्छा होता है । मेरे मन मे सौरन्ध्री की छवि इतनी चुभ गई है, कि निकाले नही बनती । इस सम्बन्ध मे कोई भी सीख व्यर्थ है ।" - कीचक बोला । 1 रानी सुदेष्णा ने गम्भीरता पूर्वक उसे समझाने की चेष्टा करते हुए कहा - "मनुष्य को अपनी प्रतिष्ठा, मान और लोक लज्जा के लिए कितनी हो प्रिय वस्तुओं को तिलाञ्जलि देनी पड़ती है। धर्म त्याग का ही रूप है । वीर वह नही है जिम के शरीर में अतुल्य शक्ति है, अथवा जो अपने शत्रुओ पर विजय पाता है, वरन वह है जो दुष्ट इच्छाश्रो टोपो कमजोरियो और अपनी इन्द्रियो पर विजय पाता है। काम मनुष्यत्व का सत्र मे बड़ा व भयंकर त्रु Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीचक व है, जो उस पर विजय पाता है, वास्तव मे वही वीर है । तुम स्वय चीर हो, अपने को वीर कहलाना चाहते हो, अपने शौर्य पर तुम्हे गर्व है, फिर तुम काम देव के वशीभूत होकर एक दासी के सामने प्रेम याचना करो, या वासना के लिए अपने शौर्य को कलकित करो; तुम्ही सोचो यह तुम्हारे लिए लज्जा की बात नही तो और क्या ?" १८१ ' वहन ! मै स्वयं अपनी कमज़ोरी पर लज्जित हूं। परन्तु ब तो विना सोरन्ध्री को प्राप्त किए मेरा जीवन दुर्लभ है। जो मी हो । अब तो कोई ऐसा उपाय करो जिस से मौरन्ध्री मुझे स्वीकार करे, वरना मैं उसके मोह में प्राण दे दूंगा ।" "भैया ! सौरन्ध्री जितनी रूपवती है, उतनी ही उच्च विचारो की सती भी। वह किसी बलवान गंध की पत्नी है । पर - स्त्री पर कुदृष्टि डालने का दोष कर रहे हो । जानते हो यह कितना बडा पाप है । पता नही इसके कारण तुम्हे कितने नारकीय दुख भोगने पडे । यदि तुम इस लिए भी तयार हो जानो तो भी सौरन्ध्री पतिव्रत धर्म का उल्लघन करने को तैयार हो जायेगी, इसकी आशा में तो कर नही सकती । वह तो साक्षात सती प्रतीत होती है । इसी कारण बताओ में कर ही क्या सकती हू ?""" सुदेष्णा ने विवशता प्रकट करते हुए कहा । कीचक वोला - "सुदेणे ! लोग जितने उच्च दीखते है वास्तव में होते उतने ऊचे नही । स्त्रियों के स्वभाव मे मै भलि भाति परिचित है। प्रत्येक जीव सुख चाहता है। सुख का मोह मनुष्य से दुष्कृत्य से दुष्कृत्य करा डालता है । वैभव का आकर्षण ही भयानक होता है । तुम यदि उसे मेरे द्वारा उप्लब्ध मुख का मोह दर्गाओ तो विश्वास रखो कि वह श्रवश्य पिघल जायेगी । तुन प्रयत्न तो करो।" 'उसके ललाट पर चमकना तेज कदाचित तुमने नही परया मुदेष्णा ने कीचक को मौरी की उच्चता माने हेतु पहा- उन के तेज को शनि के सामने में पिसो ऐसी बन - Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ जैन महाभारत को आशा ही नही कर सकती जिसे स्वय मैं ही अधर्म समझती है। वह तो धर्म के सम्बंध में पारंगत है। मैं उस से ऐसा कोई प्रस्ताव नहीं कर सकती जिसके स्वीकार होने की किचित मात्र भी पागा नहीं ." "ऐसा लगता है कि तुम पर उसकी बातों का जादू चम गया है। वरना तुम तो उसकी मालकिन हो, भला तुम्हारा वह क्या विगाइ सकती है ?" :- ... हा बिगाड तो नहीं सकती, पर मैं. अधर्म से अपने को सम्मिलित नही करना चाहती है.... .. : -- ... , , तो फिर यह क्यो नही कहती कि मैं, तुम्हारे काम मे कोई सहायता ही नहीं करना चाहती।" . . - - - - "नही, भेया नहीं, ऐसो कोई बात नहीं है । पर तुम तो पत्थर पर जोख लगवाना चाहते हो।" - .:: --- : . "" - "यही तो बात है, तुम जिसे पत्थर समझती हो, वास्तव मे उसका रूप भले ही पाषाण समान हो, है वह अन्दर से पाला ही, बिल्कुल मोम समान । तुम एक बार प्रयत्न तो करके देखो।":. - 4 - -- रानी सुदेष्णा कीचक के वारम्बार आग्रह के कारण विवश हो गई उसी काम के लिए जिसे करना वह स्वय पाप समझती था। पर वह पाप करने से घबराती भी थी । उसने कहा - "भया . तम मुझे विवश कर रहे हो, अपनी स्थिति का दुरुपयोग कर ग्रह हो ।-अच्छा 1 'मै इतना कर सकती है कि मैं सोरन्ध्री का तम्हारे पास एकान्त में अकेली भेज द। और तम वहा उस समन वुझा कर प्रसन्न कर लेना। बस इम से अधिक की प्राशो मुझे र मत करो। " कीचक को यह वान म - - - * Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीचक-वध - १८३ . एक पर्व के अवसर पर कीचक ने अपने घर बङ भोज का आयोजन किया और सीम रस तैयार कराया। -सौरन्ध्री को फासने के लिए ही यह षड़यन्त्र रचा गया था। रानी सुदेष्णा ने सौरन्ध्री को बुला कर कहा- "कल्याणी । - भैया के यहा' बहुत ही अच्छा सोम रस तैयार किया गया है। मुझे बड़े जोर की प्यास लगी है। तुम भैया के यहा जानो और एक कलश भर कर सोम रस ले आयो।" . . : . रानी का आदेश सुनकर सौरन्ध्री (ोपदी) का कलेजा धड़क उठा 1; बोली-'इस अन्धेरी रात्रि मे मै कीचक के यहां अकेली कैसे -जाऊ? मुझे डर "लगता है ।-- महारानी आपकी कितनी ही अन्य दासियां है । 'उन मे से किसी एक को भेज दीजिए। मुझे इस कार्य के लिए क्षमा ही कर दे तो बडी कृपा हो ।" "सौरन्ध्री। भैया के घर जाने मे तुम्हे डर - काहे का ? तुम राज महल की दासी हो । तुम्हारे ऊपर कोई निगाह उठा कर भी देख ले तो उसकी आफत या जाए । जाओ तुम्हे कोई भय की बात नहीं है।" सुदेष्णा बोली । ___ "आपने सदा मेरे ऊपर कृपा की है । क्या आज इस आदेश से मुक्त करके मुझे कृतज्ञ न करेगी ? वास्तव मे मै वहां जाते हुए घबराती हू । वरना आज तक मैंने आप के किसी यादेश को टालने की चेष्टा नही की।"-सोरन्ध्री ने नम्न शब्दो मे मे विनती की। सुदेष्णा ने क्रोध का अभिनय करते हुए कहा-"सौरन्ध्री ! तेरा यह साहस कि मेरी ही अवज्ञा करने लगी? भय का वहाना वनाकर क्यो धोखा देती है ? साफ साफ क्यों नहीं कहती कि तू जाना नहीं चाहती ?" सौन्धो ने नम्रता पूर्वक कहा-"महारानी जी ! लाप कृपया मेरी नियत पर सन्देह न कीजिए। में आपकी दासी हू पीर पापकी भाजा का पालन करना मेरा कर्तव्य है । परन्तु सत्य यह Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ जैन महाभारत है कि सेनापति मुझे कुदृष्टि से देखते हैं। वे कामदेव के वशीभूत होकर धर्म को भूल जाते है . उनकी आखो मे सदा ही वासना अकित रहती है । वे काम' सन्तप्त हो मेरे सतीत्व का हरण करना चाहते हैं । अतएव इतनी गहन रात्रि मे मैं उनकेघर जाती घबराती है। मैं ने जब-के ग्रहा नौकरी की थी, आपको याद होगा कि आपने मेरे सतीत्व की रक्षा का वचन दिया था। अतएव आप मुझे वहा न भेजिए। वे काम से पीडित है, मुझे देखते ही अपमान कर बैठेगे।" "तू तो काम से बचने के साथ साथ मेरे भाई पर भी दोषा. रोपण करने लगी २-रानी सुदेष्णा ने बल खाते हुए कहा-क्या तू अपने को इतनी रूपवती समझती है कि कोई उच्चपदासीन राज. कुमार अपनी चन्द्र मुखी रानियो को छोड कर तुझ दासी पर कुदृष्टि डालेगा। नही यह सब तेरी बहानेबाजी है" "नही, महारानी ! आप ऐसा न कहे मै आप के आदेश का पालन करने के लिए प्राण तक दे सकती है। पर अपने सतीत्व की रक्षा करना भी तो मेग धर्म है। मैं य ही किसी पर दोषारोपण नहीं करती।"-सौरन्ध्री ने कहा।। - "तो फिर तुझे ही जाना होगा। मैं कहती हूं कि मर आदेश का पालन करते हुए तझे कोई आँख उठा कर भी नहीं देख सकता तू कलश लेकर जा और रस लेकर तुरन्त चली ग्रा। ' रानी की आज्ञा का पालन करना आवश्यक हो गया। सौरन्त्री रोती और डरती हुई कलश लेकर कीचक के घर की ओर चली। मन ही मन वह जिनेन्द्र व शील सहायक देव का स्मरण करती जाती थी। भयभीत हरिणी की भाँति उसने कीचक के रनवास भवन मे पदार्पण किया। उसे देखने ही कीचक आनन्द विभोर हो उठा। हपतिरक से उछल कर खड़ा हो गया, वोला-सुन्दरी ! तुम्हारा हादिक स्वागत है। तुम ने मेरे घर पधार कर मेरे लिए जो उल्लास का प्रादुर्भाव किया है, उसके लिए शत शत धन्यवाद ! आज की रात्रि Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - . .काचक वध .............. . .. १८५. . . का प्रभाव मेरे लिए वडा मगलमय होगा ।", सौरन्नी ने अपने मन मे उठे घणा एव क्रोध के तूफान को रोक कर कहा- 'मुझे महारानी जी ने सोमरस लेने के लिए यहा . भेजा है। कृपया कलश भरवा दीजिए। उन्हे प्यास सता रही . "और मुझे जो तुम्हारे सौदर्य की प्यास सता रही है, क्या तुम्हे उसका तनिक सा भी ध्यान नहीं। इतनी कठोर मत बनो, मृग नयनी !"-कीचक बोला।। "घर पर आये शत्रु का भी अपमान नही किया करते। क्या वह रीति भी भूल गए । कामान्य होकर असम्य मत बनो। सौरन्ध्री वोली । __ “मैं तुम से सभ्यता की शिक्षा नही लेना चाहता। मुझे तो प्रेम की तृप्ति की भिक्षा चाहिए।" - "सेनापति ! आप राज कुल के है और मै ठहरी एक नीच - दासी। फिर आप मुझे क्यो चाहने लगे? यह अधर्म करने पर. श्राप क्यों तुले हुए है। मैं पर-नारी है। यदि आप ने मेरा स्पर्श भी किया तो आप का सर्वनाश हो जायेगा। स्मरण रखिये कि ' में एक गधर्व की पत्नी हैं। वे क्रोध मे पागए तो पापका प्राण । ही लेकर छोड़ेंगे।"-द्रोपदी ने पुन. उसे सावधान किया। ... "कल्याणी | तुम जो भी हो, मेरे लिये रानी हो। मैं तुम्हारे प्रम के लिए प्राण तक न्योछावर कर सकता है। हाँ बस मुझे एक वार तृप्त कर दो। मैं तुम्हारे लिए स्वर्ग समान वैभव के द्वार खोल दूगा। मैं तुम्हारी इच्छा पर अपना सब कुछ होम करने को प्रस्तुत .. रहूगा। मेरा प्रेम ऊपरी नहीं है, इसका सम्बन्ध मेरी आत्मा से है। यदि तुम मेरी हो जाओ तो फिर गधर्व तो क्या ससार की को शक्ति मेरे नाश का कारण नही बन सकती। प्रिय रानी। आला मुझे जीवन दान दो।" कीचक ने फिर वही बेसूरी रागिनी - "मैं तुम्हारी मूर्वता में अपना ममय नांट नहीं करना चाहती Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ जैन महाभारत सौरन्ध्री ने आवेश मे श्राकर कहा- मुझे रानी जी ने श्राज्ञा दी है कि अविलम्ब सोमरस ले आऊ । अतः उस देते है या चली जाऊ ।" "कल्याणी ! रस तो कोई और दासी भी : लेजा सकती हैकीचक ने कामान्ध होकर कहा- तुम श्राई हो तो मेरी कामना को ' तृप्त व मुझे सन्तुष्ट करती जाओ। तुम मधुर कण्ठ वाली सौम्प मूर्ति हो, करूणा की प्रति मूर्ति हो, कठोर मत बनो । आओ जीवन का सच्चा श्रानन्द ले ।" 1 "पापी | मुझे दासी रूप मे देख कर तेरा मस्तक फिर गया है । मैने कभी स्वप्न मे भी पर पुरुष की ओर कुदृष्टि से नही देखा, धर्म विरुद्ध आचरण नही किया । अपने धर्म व सतीत्व के प्रभाव से मैं तुझे तेरी मदान्धता का मजा चखा दूंगी।" - सोरन्ध्री ने क्रोध मे आकर कहा । अनुनय विनय और ग्रह से काम न बनता देख दुष्ट कीचक नेवल पूर्वक अपनी इच्छा पूर्ण करनी चाही और सोरन्घ्री रूपी द्रोपदी का हाथ पकड़ कर खीच लिया। सौरन्ध्री ने कलश वहीं पटक दिया और झटका मार कर उस से अपना हाथ छुडाकर राज सभा की ओर भागी । क्रोध से भरा और द्रौपदी से मात खाया हुआ कीचक चोट खाये नाग की भाति उसके पीछे दौडने लगा । सौरन्ध्री हरिणी की भाति भय विह्वल होकर विराट नरेश की दुहाई मचाती हुई राज सभा मे जा पहुंची। वह हाप व काप रही थी । उस ने अवरुध कण्ठ से सारी सभा को सुना कर विराट नरेश के सामने जाकर कहा-'दुहाई है महाराज की ! यह केसा अन्याय है । कैसा आप का शासन है। आपका सेनापति मेरे सतीत्व की नष्ट करने पर तुला है । वह वल पूर्वक मुझे भ्रष्ट कर डालना चाहता है । वचाइये | बचाइये | मेरे सतीत्व की रक्षा कीजिए । वह दुष्ट व्यभिचारी . " इतने ही मे कोचक भी वहा गया । वह क्रोध में पागल हो गया था । मदाव ने आगे वढ कर मौरन्ध्री को ठोकर मार कर गिरा दिया और अपशब्द कहे । सारे सभा सद देखते रह गए। किशो Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीचक वध १८७ का साहस न पड़ा कि उस अन्याय का विरोध करता। मत्सय नरेश को जिस ने अपनी मुट्ठी मे कर लिया था उस के विरुध बोलने का साहस भला कौन करता। उस समय राजसभा मे युधिष्ठिर और भीम सेन भी बैठे थे। अपनी आखो के सामने द्रौपदी का इस प्रकार अपमान होते देख कर दोनो भाई अमर्ष से भर गए। भीम तो उस दुष्टात्मा को मार डालने की इच्छा से क्रोध के मारे दात पीसने लगा। उसको पाखें लाल हो गई, भौहे टेडी हो गई और ललाट से पसीना बहने लगा। वह क्रोधावेश मे उठना हो चाहता था कि युधिष्ठिर ने अपना गुप्त रहस्य प्रगट हो जाने के भय से अपने पैर के अगूठे से उसका अगूठा दवा कर सकेन पूर्वक उसे रोक दिया। चोट बाई हई सिंहनी की भाति सौग्न्ध्री रूपी द्रौपदी गर्जना कर उठी।-"मेरे पति समस्त विश्व को मार डालने की शक्ति रखते है, मैं उस परिवार को वह हू जो सारे जगत को अपने अस्त्रो गस्त्रों से भस्म कर सकता है। किन्तु वे धर्म के पास से बन्धे है मैं सम्मानित धर्म पत्नी है। तो भी आज एक सूत पुत्र ने मुझे लात मारी है। भरी सभा में मुझ पर अन्याय किया है , एक पतिव्रता का अपमान हुग्रा है. और सभी सभासद सब मौन वैठे है, किसी को उस अन्याय पर कुछ कहने का माहस नहीं हो रहा। क्या इसी विरते पर अप लोग न्याय रक्षक कहलाने का दम भरते है ? हाय ! जो शरणार्थियों को सहारा देने वाले हैं और इस जगत मे गुप्त रूप में विचरते रहते है वे मेरे पति महारथी व उनके योद्धा भ्राता आज कहा है ? अत्यन्त बलवान तथा तेजस्वी होते हए भी वे अपनी प्रियतमा एव पतिव्रता पत्नी को एक सुत पुत्र के हाथो अपमान होते कस कायगे की भाति महन कर रहे हैं ? अाज पतिव्रता का अगमान हो रहा है, क्या इन भुजाओ और पैरो पर बव नहीं टूटेगा जिन मे मेरे शरीर का पर्व ह्या है ?" अन्धन करती मौरन्ध्री उठी और निर्भय होकर विगट नरेग को ललकार कर बोली- मैंने तो सुना था कि मलय नरेगा न्याय प्रिय व निर्भय व्यक्ति है, पर प्राज उनको मात्रा के सामने यह दृष्पत्य हुना है जो किसी होन मे होन नरेश के दरबार में भी Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत नहीं होता। निरपराध नारी को अपने सामने मार खाते देवकर भी जिसकी भुजाए नही फरकी, जिसकी जिह्वा नहीं हिलो, उसे न्यायधीश कहलाने, और किसी देश का राज्य सचालन का क्या अधि. कार है। शास्त्र कहते है जो पीडितो की रक्षा नही कर सकता, न्याय का संरक्षण नहीं कर सकता जिसकी भुजाए निरश्रतो और निपराधियों की रक्षा मे नही उठ सकती, जो नारी को उस का उ. चित स्थान नही दिला सकता, व्यभिचारियों को दण्ड नहीं दे सकता, वह शासनारूढ रहने का अधिकारी नही है. ऐसे नरेश के होने से तो देश को बिना नरेश रहने मे हो भला है। मैं तो समझती थी कि वि. राट नरेश की व्यवस्था विराट है, हृदय भी विराट है, ज्ञान और क्षमता भी विराट ही होगी पर आज ज्ञात हुआ कि वह नाम मात्र का नरेश है। वरना शासन सता तो अन्यायियो के हाथ में है।" कीचक क्रन्दन करती सौरन्ध्री को एक ठोकर मार कर चला गया और कहता गया- मूर्ख ! मेरे विरुद्ध कितना ही शोर मा. कितना ही विलाप कर, इन सब से कुछ होने वाला नहीं है। मैं जो चाहू वह कर सकता ह। भेड बकरियां सिंह का क्या खाकर सामना करेगी।" बिलखती सौरन्ध्री विराट और उसके सभासदो को उलाहुना देती रही। कीचक के जाने के बाद सभासदो ने उस कलह के कारण पूछा। अवरुद्ध कण्ठ से सौरन्ध्रो ने कीचक के पापाचार का भण्डा फोड किया। विराट ने उसे सान्त्वना देने का प्रयास किया, सभासद मन ही मन कीचक को कोसने लगे। वि. भी विलखती सोरन्ध्री के वतात को सनकर दखित हए, उन्हमाण भी आया, पर बिल्कुल ऐसे ही जैसे किसी चिडिया को वाज पर अाता है। विराट क्रोध करने के अतिरिक्त और कर ही क्य सकते थे । • एक सभासद ने सौरन्ध्री (द्रौपदी) की व्यथा सुनकर कहा "यह साध्वी जिस पुरुष की धर्म पत्नी है, उमे जीवन में महानता 'लाभ मिला है। मनुष्य जाति मे ऐमी सदाचारणी और मतान 'मिलना कठिन ही है। मैं तो इसे मानवी नहीं देवी माना Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “कीचक वध दूसरा वोला- "जिसका धर्म सेनापति जैसे अत्यन्त बलवान उच्चपदासीन, वैभव शाली, सर्व शक्ति सम्पन्न व्यक्ति के प्रलोभनो - और धमकियो के सामने भी नही डिगा, वह धन्य है, दासी रूप मे देख कर हमे आश्चर्य होता है यह तो किसी उच्च कुल की मन्तान जब समस्त सभासद मुक्त कण्ठ से द्रौपदी की प्रशमा कर रहे थे, उसी समय युधिष्ठर ने द्रौपदी को लक्ष्य कर के कहा"सोरन्ध्री । अव यहा क्यो खडी हो, विलाप करते और मोती समान अश्रु विन्दु लुटाने से क्या लाभ ? तेरा पति और उसके भाई गन्धर्व अभी समय नही देखते । इसी लिए नही आ रहे । ममय को देख कर, परिस्थिति का सही मूल्याकन न करके, क्रोध और आवेश मे जो कार्य होता है वह दुखदायी ही होता है। अवसर पाकर वे तेरा प्रिय कार्य अवश्य ही करेगे। तू सन्तुष्ट रह । अपने पति पर और अपने धर्म पर विश्वास रख । महल मे रानी सुदेष्णा के पास जा और प्रतिज्ञा कर। न्याय की रक्षा करने के लिए महाराज विराट भी उत्सुक है तेरे पति की तो बात ही न पूछी क्रोध को पी जाना ही श्रेयस्कर है।" मोरन्ध्री के वाल खले थे, कमर पर छिटक रहे देश उसके टूक टूक हुए हृदय का प्रतिविम्ब प्रतीत होते थे, नेत्र अश्रुपूर्ण थे और दहकते प्रगागे को भाति जल रहे थे। वह महाराज युधिष्ठिर जो अनुचर रूप मे थे की बात समझ गई और वहा मे चली गई। राणी सुदेष्णा ने जो मोरन्ध्री की दशा देखी तो उनका मन संशक हो उठा । मन के भाव छुपाते हुए उस ने पूछा-"कल्याणी तुम्हागे यह क्या दशा हो गई है ? तुम तो मोमग्स लेने गई थी फलश कहा है? है है. यह तम्हारे नेग्रो मे अधविन्द यो विपर रहे हैं? क्या किमी ने कोई प्रनई कर डाला? गनी पर सौरन्ध्रो का कोई सन्देह नहीं था, अपनी स्वामिन समझ फर उगनं सिस्क्रिया भर कर, मुबक्ने हुए, कहा-"महा Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत रानी जी । वही हुआ जिसकी मुझे अशका थी । उस समय प ने मेरी एक न सुनी और आज सेनापति ने मेरे साथ घोर प्रत्याचार किया ।" १९० विस्फारित नेत्रों मे उसकी ओर देखते हुए रानी ने पूछा"यह मैं क्या सुन रही हूं। मुझे सब कुछ बताओ कि उसने तुम्हारे साथ क्या अन्याय किया ।" "उस दुष्ट ने मेरा सतीत्व भग करने का असफल प्रयास किया - सोरन्ध्री वेष धारिणी द्रौपदी बोली -- और जब मैंने उस काम सन्तप्त, कामान्व और व्यभिचारी का विरोध किया तो उसने वन पूर्वक पाप लीला करनी चाही, मैं उसकी वलिष्ट भुजाओ मे मुक्त होकर राज दरवार की ओर भागी । उसने पीछा किया और भरे दरवार मे मुझे मारा । सभी सभासद और यहां तक कि महाराज भी यह सारा दृश्य मौन बैठे देखते रहे। किसी दो इतना भी साहस न हुआ कि उस पापी को दुष्कृत्य के विरोध में एक शब्द भी कहता । " "क्या इतने समय मे यह सर्व कुछ होगया ? - ग्राञ्चर्य प्रकट करते हुए सुदेष्णा ने कहा- तुम्हे वापिस आने में देर हुई तभी मेरा माथा ठनका था । हाय । मुझ ही से भूल हो गई जो तुम्हे विवश करके वहा भेजा । पर अव पश्चाताप से क्या होता हैं। वास्तव मे कीचक ने यदि ऐसा ही किया है तो यह उनका घोर अपराध है । तुम कहो तो मैं उसे मरवा डालू | " बेचारी मोरन्नी ने रानी के शब्दो को उसी रूप में समझा जिस रूप मे कहे गए थे, जबकि रानी भी कदाचित जानती होगी कहने को वह कह गई पर यह बात उस के बम के बाहर की थी । मोर ने उत्तर दिया- ' महारानी जी | आप को कष्ट ने की आवश्यकता नहीं । उस दुष्ट का वही aus ढंगे जिनवा वह अपराध कर रहा है।" रानी नौरन्ध्री के शब्दो को सुन कर सिहर उठी । भयान Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीचक वध श्रागका से उसका हृदय कपित हो गया । (द्रौपदी) लज्जा और क्रोध के मारे ग्रपनी हीन ग्रौर असहाय अवस्था अपना t अपमानित सौरन्ध्री आपे से बाहर हो गई थी । पर उसे वडा क्षोभ हुमा उम का धीरज टूट गया । परिचय ससार को मिल जाने से जो ग्रनर्थ हो सकता था उस की भी चिन्ता न कर के वह मन ही मन कीचक के वध की बात सोचने लगी। कहते है कि उस ने सर्व प्रथम अर्जुन से जो उम समय वृहन्नला के रूप मे थे, अपनी व्यथा और कीचक वध का प्रस्ताव कहा। अर्जुन वोले- प्रिये । तुम्हारे अपमान की बात सुन कर = मेरे हृदय पर जो बीत रही है उसे में शब्दो मे व्यक्त नहीं कर मकता । मेरा खून खौल रहा है । भुजाए फड़क रही है । वार् - वार गाण्डीव का स्मरण हो रहा है । मुझे अपने पर निमत्रण रखना दुर्लभ हो रहा है । परन्तु फिर भी मुझे महाराज युधिष्ठिर की प्रतिज्ञा का ध्यान आता है । मैने तुम ने और मेरे अन्य भाईयो ने उनकी प्रतिज्ञा के कारण जो जो कप्ट उठाए हैं, वे ऐसे हैं जिन के कारण कोई भी स्वभिमानी व्यक्ति विचलित हो सकता है ! और तुम ने तो हम सभी से अधिक दुख भोगे हैं और भोग रही हो । पर मैं इस समय भ्राता जी के आदेश से बन्धा हू । चित्रश हू, बल्कि पगु ही समझो।" १९१ यशस्वी अर्जुन को बात से द्रोपदी को शान्ति न मिली । दुखित होकर बोली - " प्राण नाथ | मै पांचाल नरेश की पुत्री हू, क्या इन्ही दुरावस्थाम्रो मे डालने के लिए ही आप मुझे स्वयंवर में जीत कर लाये थे ? उस दिन की बात तो आप न भूने होगे जय दुष्ट दुःशामन मुझे 'दासी' कह कर, मेरे केश पकड कर भरी सभा मे खीच लाया था । और भरी सभा में मुझे वस्त्र होन करने की चेष्टा की थो I आज भी मेरे कैणों मे मुझे उस पापी के हाथो की दुर्गन्ध आती है । उस अपमान को आग में में नदा 'ही जलती रहती हूँ । मेरे अतिरिक्त नसार मे और कौन सी राजकन्या है जो उन अन्याय सहन कर के भी जीवित हो ? वनबास के दिनों में दुष्ट जयद्रथ ने मेरा स्पर्श किया, वह मेरे लिए { Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत दूसरा अपमान था. वह भो मैं ने सहन किया और अब यहा के राजा विराट के सामने भरी सभा मे मै अपमानित हुई। कीचक ने भरी सभा में मुझे ठोकर मारी और महाराज युधिष्ठिर तथा भीम सेन वैठे देखते रह गए। इस बात से मेरे हृदय को कितनी चोट पहुची मै हो जानती हूं।" "दुष्ट कीचक कितने ही दिनो से मेरे सतीत्व को नष्ट करने का ण्डयन्त्र कर रहा है। वह इस देश का वास्तविक नरेश है। विराट तो नाम मात्र के ही नरेश है। उस दिन कामान्ध ही मुझे बल पूर्वक अपनी वासना की अग्नि मे जलाना चाहा, मै जैसे तैसे वच निकली और अपमानित हुई पर ऐसे कब तक काम चलेगा ? प्रति दिन उसके पाप पूर्ण प्रस्तावो को सुन कर मेरा हृदय विदीर्ण । हो रहा है। जब मै महाराजाधिराज युधिष्ठिर - को, जो धर्मराज कहलाते है. अपनी जीविका के लिए कायर नरेश की उपा- - सना करते देखती हूं, तो मेरा हृदय फटा जाता है।" महावली भीमसेन को जब मैं रसोइया के रूप मे देखती हु, तो मुझे बहुत दुख होता है। पाकशाला मे भोजन तैयार होने पर ___ जब वे वल्लभ नाम धारी रसाइया के रूप में विराट की सेवा मे , प्रस्तुत होते है तो मेरा हृदय रोने लगता है। और आप जो अकेले ही रथ मे बैठ कर मनुष्यो की तो क्या देवताओं को भी पराजित करने की शक्ति रखते है आज रनिवास मे विराट की कन्याओ को बृहन्नला के वेप मे नाच गाना सिखाते दिखाई पड़ते है तो मेरे, हृदय मे कितनो वेदना होती है, उसे व्यक्त करना सम्भव नही है। और ! कितना बड़ा अनर्थ है कि धर्म में, सत्य भापण मे और शूरता मे जो जगत प्रसिद्ध हैं वही हो जडे बने हुए है। आपके छोटे भाई सहदेव को जब मैं गौओं के साथ ग्वालो के वेप मे आते देखती हू तो मेरे शरीर का रक्त सूख जाता है, वरवस अश्रु छल छला आते है। मुझे याद है जब वन को पाने लगी उस समय माता कुन्ती ने रोकर कहा था-"पाचाली! सहदेव मुझे वडा प्यारा है, यह मधुर भापी सम्य धर्मात्मा तथा अपने सब भाइयो का आदर करने वाला है, किन्तु है बडा ही सकोची । तुम इसे अपने हाथ मे ही भोजन कराना। देखना! इसे कोई कष्ट न होने पाये।" Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९३ कीचक वध अाज उसी सहदेव को देखती ह कि गीग्रो के पीछे डण्डा लेकर प्रातः से सायकाल तक घूमता है और रात्रि को कम्बल बिछा कर सो जाता है। जो रूखा सूखा मिलता है उसी से उदर पूर्ति कर लेता है। यह सब देख देख कर दुखी होती हू, हृदय का रक्त पीती हू, पासू मन ही मन पी जाती हू, बोझल मन लिए जीती है। यह कैसी समय की विडम्बना है कि सुन्दर रूप, अस्त्र विद्या और मेधा शक्ति इन तीनो गुणो से सम्पन्न है वह प्रिय नकुल बेचारा आज विराट जैसे नरेश की अश्व शाला का सेवक है। मनुष्यो की सेवा न कर के उसे घोडी की सेवा मे लगा देखती हूँ फिर क्या मेरा हृदय विदीर्ण नहीं होता? न जाने कैसे जी रही हू।" पूर्व जन्म के दुष्कर्मों का ही फल है। 'देखा, शास्त्रो के प्रति कूल कार्य करने का परिणाम। महाराजाधिराज युधिष्ठिर को यदि जूए का दुर्व्यसन न होता तो सारे परिवार की यह अधो गति क्यो होती? मेधावी पाण्डु की वहू, पाचाल देश की राज कुमारी, आज किस दशा मे है, सुनने वाले भी रो उठेगे। मेरे इस क्लेश से पाण्डवों और पांचाल राज्य का भी अपमान हो रहा है। आप के जीवित होते मुझे यह कप्ट भोगर्ने पडे, धिक्कार है ऐसे जीवन को।" कहते कहते सौरन्धी (द्रौपदी) क्रोध से भर गई, पर अपने पर नियंत्रण रखते हए वह फिर वोली-“एक दिन समुद्र के पास तक की धरती जिसके आधीन थी ग्राज वही द्रौपदी सुदेष्णा के आधीन हो कर सदा भयभीत रहती है। यही नहीं, कुन्ती नन्दन! पहले मैं किसी के लिए. स्वय अपने लिए भी उबटन नही पोसती थी परन्तु आज राजा विराट के लिए चन्दन घिसना पड़ता . है रानी के लिए उबटन पीसना होता है। देखो ! मेरे हाथो मे घट्ट पड़ गए हैं। क्या ऐसे ही थे पहले मेरे हाथ । कहते हए.द्रोपदी ने अपने हाथ अर्जुन के सामने फैला दिए भार सिसकती हुई बोली"--न जाने मने क्या ऐसा अपराध किया जिसका फल मुझे उतना भय कर भोगना पड़ रहा है।" Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ जन-महाभारत __ अर्जुन ने उसके पतले पतले हाथो को देखा, सच मुच काले काले दाग पड़ गए थे। उन हाथो को अपने मुह से लगा कर वे रो पडे। नेत्रो से सावन भाद्रो की झडी लग गई। क्लेश से पीडित हो कर अर्जुन कहने लगे-'पांचाली! मेरे गाण्डीव को धिक्कार है, तुम्हारे कोले पड़ गए हाथो को देख कर मुझे प्रात्म ग्लानि हो रही है। क्या करू जो में आता है कि ऐश्वर्य के मद उन्मत्त कामान्ध कीचक का इसी क्षण वध कर डालू, इस कायर नरेश को यमलोक पहुचा दूं पर क्या करू भ्राता जी की प्रतिज्ञा मेरे रास्ते में रोड़ा बन गई है। प्रिये । जहाँ मेरे पास शक्ति है, उत्साह है, विद्या है वही मुझे बुद्धि भी मिलो है। भ्राता जी ने धर्म और बुद्धि से काम न लिया तो उन्हे और उन के आश्रित हम सवो को आज का दिन देखने को मिला यदि वही भूल अर्थात बुद्धि से काम न लेने की भूल में भी करू तो क्या पता हम पर और क्या विपदाए पडे। तुम बुद्धि मती हो। क्रोध का दमन करो। पूर्व काल में भी कितनी ही पतिव्रता नारियो ने पतियो के साथ दुख भोगे हैं। सती सीता का उदाहरण तुम्हारे सन्मुख है। अतएव कल्याणी ! तुम कुछ दिनो के लिए सन्तोष करो। वह दिन शीघ्र ही आयेगा जब तुम्हारे कष्टो का निवारण करने के लिए मैं स्वतन्त्र हो जाऊगा।" सौरन्ध्री रूपी द्रौपदी को इसी प्रकार समझा बुझा कर अर्जुन ने शांत किया। पर अलग होते ही पुन कीचक द्वारा.किया गया अपमान उसके हृदय को कचोटने लगा। उसे रह रह कर अपमान का तुरन्त वदला लेने की इच्छा सताती। तब उसका ध्यान भीम सेन की ओर गया और उस के हृदय ने कहा.-"पाचाली! ऐसे समय भीम सेन; केवल भीम सेन ही तुम्हारी इच्छा पूर्ति के लिए तैयार हो सकता है, बदला लेना है तो उसी के पास चल।"-ग्रीर उस ने निश्चय कर लिया कि वह भीमसेन से एकान्त मे मिलेगी और अपनी व्यथा सुना कर इस के निवारण का उपाय करने को कहेगी। वह अवश्य ही ऐसे प्राडे समय पर सब कुछ कर डालने को तैयार हो जायेगा। उसकी भुजायो में गक्ति है, उस के रक्त मे गर्मी है, उम के मन में चंचलता है। उत्साह कोष और शत्रु पर Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीचक वध १९५ विजय पाने को उसकी उत्कठा ही उसका गुण बनी हुई है। वह अवश्य ही कीचक का वध करने को तैयार हो जायेगा। यदि कीचक का बध न हुया तो उस का मन सदा ही अपमान से जलता रहेगा और किसी वार भी भयकर घटना घट जाने का भय बना रहेगा। सभी वातें विचार कर उस ने भीमसेन से मिलने का निश्चय कर ही लिया। रात्रि अपने यौवन पर है। अल्हड रात्रि का घोर तिमिर व्याप्त है। पहरे दारो के अतिरिक्त सभी निद्रामग्न है। कभी कभी कुत्तो के भूकने से रजनी की निस्तब्धता विदीर्ण हो जाती है। दूर जगलो मे सियार अपनी स्वभाविक ध्वनि से वन की शाति को भंग कर देते हैं। पहरे दारो की आवाज और मैनिको की सीटियो की 'ध्वनि भी कभी कभी तिमिर मे चुभ जाती है। रनिवास मे पूर्ण शाति है, सभी खर्राटे भर रहे है, पर बेचारी द्रौपदी को नीट कहा, हार्दिक वेदना मे वह तड़प रही है। जब उसे विश्वास हो गया कि अब कोई नहीं है जो उस की गतिविधियो को देख सके। वह उठी और विल्ली के पैरो मे पग रखती हुई रनिवास से बाहर हो गई। पहची भीममेन के पास जाकर भीम सेन को जगाया। उसे इतनी रात्रि को द्रौपदी के आकस्मिक यागमन से पाश्चर्य हया। पाखे मल कर उम ने देवा पोर विस्मय पूर्ण शब्दो मे वोला --"है, यह क्या? पाचाली तुम यहा, इतनी रात्रि को कैसे ?" "तुम यहा खर्राटे भर रहे हो। पर मुझे नीद कैसे पाये। मेरे हृदय मे तो विष पूर्ण तीर चुभा है।" - द्रौपदी वोली। "माफ साफ बतानो ना कि क्या बात है? क्या कोई भयंकर घटना घटी है ?" "इम मे भयकर घटना और क्या हो मस्ती है कि पर Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत प्रतापी मेघावी नरेश पाण्डु की वहू, पाचाल की राज कन्या के सतीत्व को राहू ग्रस जाना चाहता है। मैं जिसने कभी कुन्ती माता का भी भय नहीं माना आज वही द्रौपदी भयभीत हरिणी की भांति अपने को बचाने का प्रयत्न कर रही है। वीर पुरुषो के 'सग निर्भय होकर जीवन व्यतीत करने वाली नि सहाय अवला की भाति ठोकरे खा रही है। वोलो और क्या भयकर घटना होनी शेष रही है।" सिसकती हुई द्रौपदी बोली। ____ "क्या हुअा?" विस्फारित नेत्रो से देखते हुए भीममेन ने पूछा। "यह पूछो कि क्या नही हुआ? क्या उस दिन को वात भूल गए जव भरी सभा मे पापी कीचक ने मुझे लात मारी थी ।द्रोपदी ने अपनी व्यथा सुनाते हुए कहा- महाबली | आखिर मैं यह अपमान पूर्ण जीवन कब तक व्यतीत करती रहू ? मुझ से यह अपमान नही सहा जाता नीच दुरात्मा कोचक का तुम्हे इसी समय वध करना होगा। महारानी होकर भी यदि मैं विराट की रानियो के लिए चन्दन व उबटन पीसती रही, और दासी बनी, तो तुम लोगों की प्रतिज्ञा के लिए। तुम लोगो की खातिर ऐसे लोगो की सेवा चाकरी कर रही हू जो श्रादर के योग्य नही है। मै आज रनिवास मे थर थर कापती रहती हू! मेरे इन हाथो को तो देवो ।" कह कर द्रौपदी ने अपने हाथ भीमसेन के आगे पसार दिये। भीमसेन ने देखा कि कोमलागनी द्रौपदी के हाथो मे काले काले दाग पड़ गए है। भीमसेन का मन रो पड़ा। आक्रोश मे आकर बोला-"कल्याणी | धिक्कार है मेरे बाह बल को, धिक्कार है अर्जुन की शूरता को। हमारे जैसे वलिप्टो के रहते तुम्हारी यह दशा हो हमारे लिए डूब मरने की बात है। अब मैं न तो युधिष्ठिर की प्रतिज्ञा का पालन करूंगा, न अर्जुन की सलाह की ही चिन्ता करूंगा। जो तुम कहो गी वही करूगा इसी घडी जाकर कीचक का बध किए देता हूं।"-इतना कह कर भीमसेन उसी क्षण फुरती से उठ खड़ा हुआ। भीमसेन को इस प्रकार एक दम उठते हुए Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीचक वध देख कर द्रौपदी समल गई और भीमसेन को सचेत करते हुए बोली - "नही नही ग्राको मे कोई ऐसा कार्य मत कर बैठना 'जिम से कोई नई विपत्ति आने का भय हो । उनावली मे कोई काम कर बैठना ठीक नही ।" "तो फिर ?" "तुम्हे सर्व प्रथम यह प्रतिज्ञा करनी होगी कि मेरे इस प्रकार मिलने को रहस्य मे ही रखना होगा। किसी से भी इसका जिक्र न हो । दूसरे कोई ऐसा उपाय करना होगा कि कीचक का वध भी हो जाय पर गुप्त रूप मे । किसी को कानो कान पता न चले कीचक का वध इस लिए आवश्यक है कि किस ने उसे मारा। कि वह दुष्ट अपनी नीचता से बाज न आयेगा और समय पाकर फिर अपना कुत्सित प्रस्ताव करेगा । करने का प्रयत्न करेगा । परन्तु इस का यह भो तो अर्थ नही कि तुम उस पापी को दण्डित करते करते स्वय ही विपत्ति मे फस जाश्रो ?" - द्रोपदी संम्भल कर बोली | अवसर पाकर बलात्कार " तो कोई उपाय ही सोचो।" "हा तुम भी विचार करो ।" और फिर दोनो विचार मग्न हो गए। दोनों सोचने लगे । सोच विचार के उपरान्त यह निश्चय पाया कि कीचक बहुत को धोखे से राजा की नृत्यशाला के किसी एकान्त स्थान मे बुला लिया जाय और वही उसका काम तमाम कर दिया जाय । X X X - X " x X दूसरे दिन प्रातः काल अनायास ही दुरात्मा कीचक का पूर्व योजित योजना के आधार पर सौरन्ध्री स्पी गामना हो गया। द्रोपदी ने उस दुष्ट से वन निकलने की कोई चेष्टा न को । कीचक देवा ! मेरा प्रभाव | मैंने तुम्हे भरी में निफ्ट पहन कर कहा सभा में विराट के सामने ही लात मार कर गिरा दिया, तिमी को तुम समझती थी कि विराट की तक करने का साहस न हुग्रा X Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत शरण जाकर तुम्हारी रक्षा हो सकेगो, पर मूर्ख सौरन्ध्री क्या तू नहीं जानती कि विराट तो मत्स्य देश का नाम मात्र का राजा है, असल मे तो मैं ही यहा का सब कुछ है। यदि मेरी इच्छा पूर्ति करोगी तो महारानी का सा सुख भोगोगी, और मैं तुम्हारा दास बन कर रहूगा। वरना तुम्हारा जीवन भी दुर्लभ हो जायेगा। मेरे पजे से तुम्हे कोई नहीं बचा सकता। इस लिए मेरी बात मान लो।" उस समय दोपदी ने कुछ ऐसा भाव बनाया मानो कीचक का प्रस्ताव उसे स्वीकार है और वह उस के प्रभाव मे आ गई है। वह बोली। सेनापति ! मैं आप की बात टालने का साहस भला कैसे कर सकता है। पर लोकलज्जा मेरे पाड़े आती है। मैं सच कहती हू कि मुझे अपने पति से बड़ा भय लगता है। यदि आप मुझे पचन दे कि आप मेरे साथ समागम की बात किसी को मालूम न होने देगे तो मैं आप के प्राधीन होने को तैयार हं! लोक निन्दा से मैं डरती है और यह नही चाहतो कि यह वात. पाप के साथी सम्ब. धियो को ज्ञात हो। बस इतनी सी हो बात है।" कीचक की बाछे खिल गई। आनन्द विभोर हो कर बोला-"वस इतनी सी बात पर तुम परेशान हुई फिरती हो और व्यर्थ ही बात का बनगड बनवा रही हो। तुम्हे विश्वास प्राय न पाये पर वास्तव में मैं तुम्हारी प्रत्येक इच्छा को पूर्ण करूगा और इस बात का पता किमी को न चलने दगा। मैं वचन देता हूं कि मैं तुम्हारे रहस्य को अपना रहस्य समझ कर अपने हृदय मे दफन कर दूगा। वम मुझे ता तुम्हारी 'हा' की आवश्यकता थी। अब बोलो मैं तुम्हारे लिए और क्या कर सकता हूं।" "पाप की मेवा मे फिर यह दासी भी उद्यत है।" नि ?" "तो फिर मधुर मिलन के लिए कोई ममय, कोई स्थान ।' "नृत्य शाला मे स्त्रिया दिन के समय तो नृत्य कला मीखती Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीचक वध । रहती हैं-द्रौपदी ने अपने मन मे उठ रहे घृणा तथा क्षोभ के भयकर .: तूफान को छुपाते हुए कहा-रात को वे सब अपने घर चली जाती । है। वहा कोई नहीं रहता। वही स्थान उपयुक्त है आप आज । रात्रि को वही आकर मुझ से मिले। मैं बही मिलूगी, किवाड र खुले होगे आप चुप चाप वहा या जाये। देखिये किसी को कुछ भी पता न चले।" कीचक के आनन्द का ठिकाना न रहा। वडी बेचैनी से दिन बीता। वारम्वार कीचक आकाश की पोर देखता रहा, उसके अनुमान से वह दिन द्रौपदी के चीर की भाति बढता जा रहा था। पर द्रौपदी का चीर तो असीम था, दिन तो उतना ही लम्बा था, आखिर किसी तरह रात हुई। कीचक के दिन ढले ही स्नान किया। रात्रि का अधकार फैलते ही बन ठन कर निकला और दबे पाँव नत्य शाला की पोर वढा । नृत्य शाला के किवाड खुले थे. देखते ही उसका हृदय वासो उछलने लगा। शोघ्नता से वह अन्दर घुस गया ताकि कोई देख न नृत्य शाला मे अधेरा था। कीचक ने गौर से देखा तो : पलग पर कोई लेटा हुआ दिखाई दिया। उम ने समझा उस के ' स्वप्नो की रानी पलग पर लेटी है। उस के हृदय ने कहा ग्रोह ! अपने वचन की कितनी धनी हे वेचारी । कदाचित दिन ढले ही आ गई है और मेरी प्रतिक्षा करते करते थक कर पलग पर सो गई है।" अघरे में टटोलता हुआ पलग के पास पहुचा। और धीरे से । फुन फुमाहट में बोला - "मेरे हृदय की रानी! मृग नयनी! प्रियतमा ! तुम प्रा गा। प्रोह ! मुझे कितनी देर हो गई। क्षमा करना। मै तुम्हारे वचन की पूर्ति के लिए बहुत छुपकर यत पाया है।" Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० जैन महाभारत ____ कीचक ने पलग पर लेटी हई आकृति को सौरन्ध्री समझ कर बंडे प्यार से उस पर हाथ फरा। उस समय कामात्तुर होने के कारण उसका हाथं काप रहा था। उस ने कहा- “कोमलांगनी. उठो। मैं आगया। मैं तुम्हारा प्रेमी ! कितने दिनो से जिस कल्पना को मन में सजोया या आज उसकी पू। हुअा चाहती है। मेरे मन की चाह पूर्ण होगी। तुम जो सारे संसार में सर्वाधिक सुन्दर हो, आज मुझ मिली। कितना उल्लास है मेरे मन मे? वस क्या बताऊ। मुझ जैसा सौभाग्य शाली और कौन होगा, जिसे तुम जैसी अप्सरा का प्रेम मिला हो।" उसी समय वह प्राकृति विद्युत गति से जाग उठी. झंपट कर उस ने कीचक दुष्ट का हाथ पकड लिया। जिस प्रकार मृग पर सिह झपटता है, उस प्रकार वह प्राकृति झपटी। और कीचक का हाथ दबोच लिया। और इतने जोर का धक्का मारा कि प्रेम विह्वल कीचक धड़ाम से धाराशायी हो गया। कीचक समझ गया कि आकृति सौरन्ध्रो न होकर उसका पति गंधर्व ही है। गर्व से पाला पडा जान कर वह मम्भल कर उठा। कीचक भी कोई कम शक्तिवान न था। वह उठा और भिड गया। दोनो मे मल्ल युद्ध होने लगा। यह इन्द्र बालो और सुग्रीव के युद्ध के समान था। दोनो हो वडे वीर थे। उन की रगड से वास फटने की सी कडक के समान भारी शब्द होने लगा। जिस प्रकार प्रचन्ड प्राधी वृक्ष को झझोड़ डालती है उसी प्रकार कीचक से लड़ने वाले याद्धा ने उसे धक्के दे देकर सारी नृत्य शाला मे घुमाया। बली कीचक ने भी अपने घुटनो को चोट से शत्रु को भूमि पर गिरा दिया। तब वह वोर दण्ड पाणि यमराज के समान बडे वेग से उछल कर खटा हो गया। एक बार ऋद्ध होकर उसने कोचक को अपनी भुजायो मे कर लिया, जैसे रस्सी से पशु को बाघ देते है। अब कोचक फुटे हए नगारे के समान जोर जोर से इकारने और उसकी भुजायो मे अपने को मुक्त करने का प्रयत्न करने लगा। तनिक सी देरी ही में कीचक का गला उस वीर के हाथ में गया और उसने कीचक के सभी अंगों को चकना चूर Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { कीचक वध कर दिया । कीचक की पुतलियां बाहर निकल आई। उसी समय जबकि कीचक अन्तिम सासे गिन रहा था, वह वीर वोला - "दुष्ट कीचक | तेरे पापाचार का दण्ड देने के लिए मैं आया था। याद रख भीम के ससार मे रहते - किसी की शक्ति नही जो जिसे तू सौरन्ध्री उस सन्नारी की लाज से खिलवाड कर सके, समझता है ।" तो वह वीर था भीमसेन । वह भीमसेन जिस के बाहु बल पर महाराजाधिराज युधिष्ठिर और माता कुन्ती को बहुत ही अभिमान था । २०१ भीमसेन ने उस दुष्ट की ऐसी गति बनादी कि उसका एक गोलाकार मास पिंड सा बन गया। फिर द्रौपदी से विदा लेकर भीमसेन रसोई घर मे चला गया और आराम से सो रहा । इधर द्रौपदी ने नृत्य शाला के रखवालो को जगाया और बोली- ' तुम्हारा सेनापति दुष्ट कीचक कामांध होकर प्रतिदिन मुझे तग किया करता था । ग्राज वह मुझ से बलात्कार करने श्राया था। मेरे पति के भ्राता गधर्व ने अनायास ही यहां पहुंच कर उस दुष्ट को दण्डित किया। जाओ देखो तुम्हारे सेनापति की क्या गति हुई । व्यभिचारी, मदान्ध और अत्याचारियो की यह दशा होती है । देखो तुम्हारे सेनापति वहा मृत पड़े | हैं ।" सुनते ही रखवाले काप उठे। उन्हो ने जाकर देखा कि नहीं पर मैनापति नही, बल्कि खून से लथ पथ एक मास पिड पड़ा था । x X X X X X X कीचक के भाई उपकीचक कहलाते थे । नृत्य शाला के पहरेदारो ने कीचक की मृत्यु का समाचार उपकीचकों को दिया । यह ऐसा समाचार था कि उपकीचको को मुनते ही वडा ग्राघात लगा पर उन्हें तुरन्त ही विश्वास न हुआ कि मसार में कोई ऐसी Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ जैन महाभारत भी शक्ति हो सकती है जो कीचक जैसे शूरमा का वध कर सकती है। उनकी समझ मे न पाया कि सेनापति कीचक क्योकर मारा गया। इस समाचार की सच्चाई को जानने के लिए वे दौडे दौडे नाट्य शाला गए और जब उन्होने कचक का मास पिण्डी की भाति पडा शव देखा, तो हठात उनकी आखो से अश्रु धारा बह निकलो। वे सब उस शव के चारों ओर बैठ कर करुण क्रन्दन करने लगे। विलाप करते करते जव उन्हे बहुत देरी हो गई और उधर राज प्रासाद के सभी लोग कीचक के अन्तिम दर्शन करने एकत्रित हो गए तो उपकीचको मे से एक बोला-"इस प्रकार विलाप करते रहने से क्या लाभ! अब चलो भ्राता जी का अन्तिम संस्कार कर ले। जो होना था सो तो हो ही गया।" अपने प्रांसू पोछ कर एक बोला-"पर अभी तक यह तो पता चला ही नहीं कि यह दुस्साहस किस मूर्ख ने किया कि सेनापति का बध कर डाला। हम लोगो के रहते वह वदमाश हमारे भाई का वध कर के निकल जाये यह तो हमारे लिए डूब मरने की वात है।" "हा ठीक है। हम उस मूर्ख दुस्साहसी का सिर काट डालेंगे हम उसे जीवित नही छोडगे। हम उसे बता देगे कि कीचक परिवार पर हाथ उठाना अपने नाश को निमन्त्रित करना है।" तीसरे उपकीचक ने कहा। फिर तो सभी की मुट्ठिया बध गई। सभी ऋद्ध होकर कीचक के हत्यारे को गालियां देने लगे। पहरेदार को बुलाया गया और हत्यारे के बारे में पूछा। जव उस ने बताया कि काचक का वध सोरन्ध्री के कारण हा और हत्यारा गधर्व सेनापति का हत्या करके निकल गया तो उन सभी को सौरन्ध्री पर बहुत क्रोध आया। उन्होंने सौरन्नी को पकड़ लिया। एक उपकीचक बोला- "इस स्त्री के कारण ही हमारे भ्राता का वध हुआ। यही है कीचक को हत्या की जिम्मेदार। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३ कीचक वध हम यह किसी प्रकार सहन नहीं कर सकते कि कीचक का वध करा कर यह पापिन जीवित रह कर हृदय जलाती रहे। इसे भी कीचक के साथ ही जलना होगा।" ठीक है, ठीक है। इसे भी कीचक के शव के साथ ही जला दो।" समस्त उपकीचकों ने कहा । राजा विराट कीचक के वध से बड़े दुखित थे क्योकि अब वे अपने को निस्सहाय समझने लगे। कीचक से वे जहा भयभीत रहते थे, वही उसके सहारे वे निश्चिन्त थे। उन्हे अपने बेरियो का कोई भी भय नही रहा था। परन्तु कीचक के वध से उन के सामने पुन. वैरियो का भय उपस्थित हो गया था। और साथ ही वे उस गधर्व से बहत ही भयभीत थे जिसने कीचक को मार डाला था। वे सोचते थे कि सौरन्ध्रो के कारण प्राज तो कोचक जैसा वलवान सेनापति मारा गया, कल को कही कुछ और न हो जाय । इस लिए जब उपकोचकों ने सोरन्ध्री को कीचक के शव के साथ ही जला डालने का निश्चय किया तो उन्हों ने कोई विरोध न किया। यद्यपि उसी समय उन्हे यह भी ध्यान पाया कि सीरन्नो के जला डालने पर यदि गधों ने मत्स्य देश को ही तहम नहस कर डालने की ठान ली तो क्या होगा? पर उसी समय उन्हें यह भी ध्यान आया कि यदि उपकीचको के बाड़े पाये और वे कष्ट हो गए तो क्या होगा। बस इन प्रश्नो से विराट वडे असमजम मे पड गए। चक्कर में पड़े विराट को कुछ न सुझा कि क्या करे। वस चे चिन्तित रहे। उधर उपकीयको ने कीचक की अर्थी के साथ सोरन्त्री को याध लिया। और इमशान भमि की ओर चल पड़े। पाचान देश की राजकुमारी और परम तेजस्वी धनुर्धारी अर्जुन की जोवन मगिनी द्रौपदी, मोरन्धी के वेप में उस समय उपकीचगो के चगुल में फस कर अवला की भाति विलाप कर रही थी। उसने बरुण चन्दन करते हुए कहा-"कहा है मेरे सिरताज ! बहां है मेरे Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ जैन महाभारत जीवन साथी वीर ! कहां हैं मेरे रखवारे शूरवीर। हाय ! मुझे 'अबला समझ कर यह दुष्ट जीवित ही चिता मे जलाने लेजा रहे हैं। दौडो ! मुझे बचाओ।" इसी प्रकार आवाहन करती, विलाप करती, चीखती पुकारती द्रौपदी अर्थी के साथ वधी हुई श्मशान भूमि में गई। लगता था कि आज द्रौपदी के जीवन का अन्त कायर उपकीचकों के हाथो ही होना है। श्मगान भूमि मे चिता सजाई गई। कीचक का शव रख दिया गया और अग्नि लगाई ही जाने वाली थी, कि द्रौपदी ने बड़े करुण शब्दो में रोकर कहा-"पापियो किसी सन्नारी को जीवित जलाते हुए तुम्हे लज्जा नही आती? क्या वीर पुरुषो का यही धर्म है ? एक अवला के साथ इतना अन्याय करते हुए तुम्हारा हृदय नहीं कांपता? अरे दुप्टो इतना तो सोचो कि तुम भी किसी नारी की ही सन्तान हो। तुम ने भी किसी नारी की कोख से ही जन्म लिया।" पर उन दुष्टो की समझ में एक बात न आई। तव द्रौपदी ने पुकार कर कहा-"हे नाथ | आप तो दुखियों के सहारे हैं । आप के बनुप में तो इतनी शक्ति है कि सम्पूर्ण मत्स्य देश को भी नष्ट भ्रष्ट कर डाले ऐसी दशा में आपकी सहधर्मिणी दुष्टो के हाथों अबला की नाई जीवित जलाई जा रही है, तो आप कहां हैं । नाथ। आप ने तो जीवन पर्यन्त मेरा साथ देने और मेरी रक्षा करने की शपथ ली थी।" कुछ देरी रुक कर वोली-'हे दिशात्रों! मेरे सहयोगो उस वीर गधर्व मे जाकर कहदो, जिम ने कोचक जैसे वलिप्ट को मार गिराया कि इस समय यदि उस ने सहयोग न दिया तो वह जिसकी आखा से आँसू न वहने देने के लिए वह गंधर्व समार भर मे टक्कर लेन को भी तैयार हो जाता है, इस ससार से चली जायेगी और हृदय में मिकायत लेकर मरेगी कि जब समय पाया तो पात्र बलशाला Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीचक बध गंधर्वो मे से एक भी काम न आया।" "इस चडेल को भौकने दो जी ! लगायो ग्राग। हम ने वहुत धुरंबर गधर्व देखे है।" एक उपकोचक ने इतना कहा और आग लगानी चाही। उसी समय श्मशान भूमि के एक कोने से आवाज़ आई"ठहरो ! अभी आग न लगाना ।" देखा तो एक वडे वृक्ष को कधे पर रक्खे हुए एक भीमकाय , व्यक्ति चला आ रहा है। उसे देखते ही उपकीचक सन्न रह गए। काटो ती शरीर में रक्त नही। गला सूख गया। हाथ और पैर कापने लगे। उस आगन्तुक के शरीर और कन्धे पर रक्खे वृक्ष को देख कर उन्होने समझा कि हो न हो यही वह गधर्व है जिसे सौरन्ध्री पुकार रही थी। आते ही उस वीर ने देखते ही देखते सभी उपकीचको को मार डाला। उन मे से किसी का साहम न हुआ कि उसका मुकाबला करता। द्रौपदी के उल्लास का ठिकाना न रहा । बात यह थी कि वह वीर भीमसेन था। जो उपकीचकों से पहले ही श्मशान भूमि मे प्रा छुपा था । उपकीचकों को मार कर द्रौपदी को भीमसेन ने नगर को भेज दिया और स्वय दूसरे रास्ते से महल में चला गया। x x x x x x x विराट चिन्ता मग्न बैठे थे। एक दून ने प्रवेश करते हुए प्रणाम किया और हकलाते हुए कुछ कहना चाहा। विराटे नरेग ने उसकी और देखा। वे समझ गए कि दाल मे कुछ काला है। पूछ बैठे--"गहो, कहो क्या बात "महाराज गजब हो गया।" Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ जैन महाभारत "क्या बात है ?" 'उप...... ........कोचक मारे गए।" उस ने कापते हुए कहा । सुन कर विराट भी कांप उठे। स्वय कुछ न पूछ सके। कक ने पूछा-"कैसे मारे गए उपकीचक ? किस ने मारा उन्हे ? "महाराज ! श्मशान भूमि में जब सौरन्नी को कीचक के शव के माथ चिता पर रख कर आग लगानी चाही। उसी समय कोई गधर्व वहाँ पहुचा और उसने सभी उपकीचको को मार डाला!" दूत ने कहा। कक रूपी युधिष्ठिर समझ गए कि वह गधर्व कौन हो सकता है। फिर भी कृत्रिम आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा - "हैं-क्या ऐसा हो गया-यह तो वडा बुरा हुआ।" विराट के मुख से कुछ भी न निकला। उनकी आखों के सामने तो महानाग की कल्पना आ गई। सौरन्ध्री ! हम तुम्हारी सेवा से बड़े प्रसन्न है। तुम वास्तव मे बड़ी ही बुद्धि मति सन्नारी हो ।" रानी मुदेष्णा ने कहा। द्रौपदी हाथ जोड़ कर बोली-"पाप मुझ से सन्तुष्ट हैं यह मेरे लिए बड़ी सौभाग्य की बात है।" "परन्तु मष्ट न होना। अब महाराज को तुम्हारी सेवामा की आवश्यकता नहीं रही। मुझे खेद है कि अब मैं तुम्हारी सेवामा से वचित रहूंगी।".-रानी बोली। ऐसी क्या त्रुटि हुई मुझ मे ?" द्रौपदी ने विस्मित हा Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ कीचक बध कर पूछा। "नही त्रुटि तो कोई नहीं हुई। पर अब हम तुम्हे अपने महल मे नही रख सकते। "सो क्यो ?' "वात यह है कि महाराज तुम्हारे गधों से घबराते है। अरि वह नहीं चाहते कि तुम्हारे कारण कोई नई मुसीवत खडी हो जाय ।"-रानी सुदेष्णा ने कहा । राजा विराट ने पहले ही रानी सुदेष्णा को कह दिया था कि सौरन्ध्री को उचित पुरस्कार देकर विदा कर देने मे ही हमारा कल्याण है। पता नही उसके गधर्व क्या कर डाले। इसी लिए सुदेष्णा ने जो स्वय ही द्रौपदी से भयभीत हो गई थी, उक्त वात कही थी। द्रौपदी को बडो ठेस लगी। फिर भी उसने नम्रता पूर्वक कहा-"महारानी जी! केवल १५ दिन मुझे और यहा रहने की आज्ञा दे दीजिए। तव तक मेरे पति का एच्छिक कार्य तथा मन्तव्य पूर्ण हो जायेगा। और वे स्वय ही मुझे यहा से ले जायेगे। आप ने जहा और वहत सी कृपाए की है इतनी और कीजिए ।" रानी ने यह वात विराट से जा कही। और उन दोनो ने. द्रोपदी के पति के भय से, द्रौपदी की विनती स्वीकार कर ली। नगर के जो लोग भी द्रौपदी को देखते, कह उठते-"इम का रूप ही इतना आकर्षक है कि कोई वीर उस पर ग्रासक्त होकर अपने प्राण दे तो कोई आश्चर्य को बात नही। पर है यह बडी भयानक। इस की ओर किसी ने कुदृष्टि से देखा और प्राण गए।" द्रोपदो से सभी घबराने लगे थे। अतएव कोई उसे किनी काय को न कहता। वात तक करते हए घबराते। परन्नु द्रोपदी उमा प्रकार सेवा कार्य करती रही। जबकि रानी मुदेष्णा उसे कहा करतो कि वह अधिक काम न किया करे। पाराम से रहे । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * सोलहवां परिच्छेद * % 出%%%%%%%%%%%% दुर्योधन की चिन्ता 张晓华老年医*****圣经 दुर्योधन विचार मग्न बैठे थे। उस के पास ही उस समय भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य, कर्ण, कृपाचार्य, भिगर्त देश के राजा और दुर्योधन के भाई भी उपस्थित थे। विचार इस बात पर हो रहा था कि पाण्डवो का पता कैसे लगाया जाय।। एक गुप्तचर ने प्रवेश किया। दुर्योधन शीघ्रता से पूछ बैठा"वोलो ! क्या समाचार लाये ? कुछ पता चला पाण्डवा का?" वह सिर नीचा कर के खड़ा हो गया। - "कुछ कहो भी कही सुराग लगा?"-दुर्योधन ने उत्सुकता से पूछा। "महाराज । मैं और मेरे साथियों ने कई देशो मे-खोज की। पहाहो की गुफापो मे, ऊचे ऊचे शिखरो पर, जगलो मे, जनता की भीड़ो मे, मेलो मे ग्रामो तथा नगरो म, जगलियो और खत, मजदूरी किमानो ग्रादि मे तुढा पर पाण्डवोका कही पता न चला। उनके इन्द्रसेन आदि सारथि द्वारका पुरी पहुंचे है, उन से भी पता चलाया। पर यह पता न लग सका कि वे कहां गए। जावित Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०९ दुर्योधन की चिन्ता है या मर गए। कुछ समझ मे नही पाता कि वे किधर निकल गए।" -उस गुप्तचरे मे खेद पूर्वक कहा। __"गाव मे नही, शहरों मे नही, पहाडो पर नही, जगलों __ मे नहीं तो फिर वे कहाँ निकल भागे। उन्हे जमीन खा गई या प्रास्मान निगल गया? नहीं, नही तुम मूर्ख हो। तुम ने ठीक प्रकार देखा ही नही। वरना वे सूई तो है नही कि कही पत्तो या राख मे दुबके पड़े रहे। तुम सब नमक हराम हो।"-दुर्योधन ने गर्ज कर कहा। उसी समय एक और गुप्तचर पाया। दुर्योधन ने उसकी ओर टेढी नजर डाल कर कहा-"हा, तुम लो! तुम ने भी कुछ किया या नही ?" ___"महाराज ! मैने समस्त साधु सन्तो के उपाश्रय देखे । विद्वानो के आश्रमों में खोज की। पर पाण्डव कही दिखाई न दिए और जब मुझे विश्वास हो गया कि पाण्डव इस धरती पर है हो नही तो वापिस चला पाया ।"-गुप्तचर ने कहा । अभी दुर्योधन उसकी बात पर टिप्पणी भी नही कर पाया था कि एक दूत ने आकर कहा-"महाराज मत्स्य देश से जो हमारे गुप्तचर आये है उन्होने बताया है कि मत्स्य का सेनापति कीचक किसी गधर्व के हाथो वो रहस्य पूर्ण ढंग से मारा गया। और उस ' के बाद कीचक के सारे भाई भी मार डाले गए।" इस समाचार से दरवार मे उपस्थित सभी लोग विम्मित रह गए। विगतराज सुशर्मा समाचार सुन कर उछल पड़ा। उस ने सन्तोप की सांस लेने हए कहा-"मोह कितना शुभ समाचार ' है। आज मेरे हदय को गाति मिली। कोनक मार डाला गया ' तो मेरी छाती पर रणखी एक भारी शिला उतर गई। मत्स्य देव १ को मनानो ने कई बार हमारे ऊपर ग्राममण किए और यमब प्रारमण दुष्ट कीचक के कारण ही हए। कीचक ने मेरे बन्धु Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत बांधवो को बहुत तग किया था। कीचक,बडा ही बलवान; क्रूर, असहन शोल और दुष्ट प्रकृति का पुरुष था, वह मारा गया अव हम. मत्स्य नरेश से अच्छी तरह निबट सकते है।" . दुर्योधन ने कहा-“त्रिगर्तराज ! लो.तुम्हारी चिन्ता तो समाप्त हुई। अब जब कहोगे तभी तुम्हारे शत्रु से बदला ले लिया जायेगा, पर पहले यह तो सोचो कि पाण्डवो का पता कैसे चले। उनके अज्ञात वास का समय समाप्त होने वाला है। यदि शोघ्र ही उनका पता न चला तो अज्ञात वास काल समाप्त होते ही वे गुर्राते हुए यहा आ पहुचेगे और एक बड़ी मुसीवत खडी हो जायेगी। यद्यपि वे बेचारे अब हमारा कुछ भी नही बिगाड सकते परन्तु फिर भी यह कितना अच्छा हो कि हम अज्ञात वास काल मे ही उन्हे ढूढ निकाले और वे यहा आकर क्रोध को पीते हुए पुन बारह वर्ष के लिए जगलो की खाक छानने के लिए चले. जाये ।" ' कर्ण ने परमर्श देते हुए कहा- "मै आप के विचारो से; सहमत हूँ। मेरी राय से तो अब दूसरे कुशल गुप्तचर भेजे जाये जो भिन्न भिन्न देशो में जाये तथा सुरम्य सभाओ मे, सिद्ध महात्माओ के आश्रमो मे, राज नगरो में, गुफाओं मे वहा के निवासियो से बड़े ही विनीत शब्दो मे युक्ति पूर्वक पूछ कर पता लगावे ।" दुशासन बोला-"राजन् ! जिन दूतो पर आपको विशेष भरोमा हो वही शीन ही मार्ग व्यय लेकर चले जायें। देरी करना ठीक नहीं है।" दुर्योधन ने तत्वादी द्रोणाचार्य की ओर दृष्टि डाली, तो वे बोले-"पाण्डव शूरवीर, विद्वान, बुद्धिमान, जितेन्द्रिय, कृतज्ञ और अपने ज्येष्ठ भ्राता धर्मराज युधिष्ठिर की आज्ञा से चलने वाले है। ऐसे महापुरुप न तो नष्ट होते हैं और न किसी से पराजित हो। उन मे धर्मराज तो बड़े ही शुद्धचित्त, गुणवान, सत्यवान नीतिमान, पवित्रात्मा और तेजस्वी हैं। अपनी शुभ प्रकृति के कारण उन में इतनी शक्ति है कि जब वह छुप कर रहना चाहे तो Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्योधन की चिन्ता उन्हे 'अपनो आंखों से देख कर भी कोई पहचान न सकेगा। अतः इस बात को ही ध्यान में रख कर हमे विद्वान, सेवक, सिद्ध पुरुष अथवा उन अन्य लोगो से, जो कि उन्हे पहचानते हैं, ढूढवाना चाहिए।" ___ दुर्योधन महाराज युधिष्ठिर की प्रगसा से चिडता था, उस ने कहा-"गुरुवर ! आप तो पाण्डवों को न जाने क्या समझते हैं। 'पाप मुझे पूर्ण प्रयेलें कर लेने दीजिए, जब मेरे गुप्तचर उन्हे खोज निकालेंगे और वे अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार पुन १२ वर्ष के लिए बनो में भटकने चले जायेंगे तब अपि का भ्रम टूटे गा " . द्रोणाचार्य मौन रह गए। उसी समय दुर्योवन ने भीग्म पितामह की ओर देख कर कहा-"पितामह ! आप भी तो अपना मत दीजिए। पाण्डवो की खोज कैसे की जाय । अव उनके अज्ञात वास के दिन समाप्त हो रहे है। यदि गीन ही कोई उपाय न किया गया तो पाण्डव इस दाव मे वच निकले गे और फिर युद्ध ठानदेगे ।" पितामह बोले-“पाण्डवों की प्रगमा मुनना तुम नहीं चाहते। अतः मैं उनकी शक्ति का वखान नहीं करता। हा, इतना अवश्य कहता हूँ कि जहा धर्मराज तथा उनके शुभ प्रकृति के भ्राता होगे, उस देश मे समृद्धि का राज्य होगा, वहा उत्तरोत्तर उन्नति हो रही होगी। धन धान्य की वाहल्यता हो गई होगी और वह राज्य मभी प्रकार के प्रातकों में शून्य होगा।" "इस का तो यह अर्थ हया कि हम पहले उन देश की खोज कर जिसमें गत दस ग्यारह मास के भीतर समद्धि का माम्राज्य हुया हो" दुर्योधन बोला। .. "दीपक जहां जलेगा, वहां प्रकाग होगा. और जहां प्रयाग है वहीं दीपक को खोज लो।" पितामह बोले। दुर्योधन ने कहा-"पितामह । श्राप तो हमे कोई नीया Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ जैन महाभारत सादा उपाय बताइये। समय कम है। आप की राय की हमे आवश्यकता है और आप की कृपा बिना हमारा किसी कार्य मे सफल होना दुर्लभ है।" तब भीष्म जी बोले-"राजन ! युधिष्ठिर जैसे धर्मगज, अर्जुन जैसे धनुर्धारी और भीम जैसे बलवान से टक्कर लेनी आसान बात नही है। फिर भी चूकि तुम टक्कर लेना ही चाहते हो तो इतना करो कि ऐसे महाबली की खोज कराओ जिस ने गत दम ग्यारह मास में कोई विचित्र तथा दुस्साहस पूर्ण कार्य किया हो, जिस को देख कर या सुन कर लोग अचम्भे में पड़ गए हो। बस समझ लो कि वह भीम ही है। क्योकि भीम शांत प्रकृति का व्यक्ति नही है। जैसे रवि मेघ खण्डो के नीचे छुपा होने पर भी अपना अस्तित्व बिल्कुल ही नही छुपा सकता उसी प्रकार भीमसेन लाख छुपने का प्रयत्न करे पर वह कोई न कोई ऐसा दुस्साहस पूर्ण कार्य अवश्य ही कर बैठेगा, जिस से सभी चकित हो जायें। याद रक्खो कि भीम को टक्कर का अब बस एक ही व्यक्ति और शेष है वह है बलराम! कीचक था, पर भीम से कम ।” इतना सकेत पा कर कर्ण ने तुरन्त पूछा-"राजन् ! पितामह ने एक वात वडे काम की कही। कीचक वास्तव में बडा ही बलवान था। तनिक इस बात का पता तो लगाइये कि कीचक का वध कैसे हुअा।" दुर्योधन ने तुरन्त उस दूत को बुलवाया जिस ने कीचक के वध का ममाचार दिया था और उस ने पूछा कि कीचक का वध किम ने और कैसे किया। वह बोला-"महाराज यह तो ज्ञात नहीं हुआ कि कीचक को किस ने मारा। पर इतना मुना है कि उसका वध किमो स्त्री के कारण हुया।" दुर्योधन ने बात ताड ली। वह एक बम प्रमन्न हो उठा और उल्लामातिरेक से बोला-"लीजिए पता लग गया। हम न पाण्डवो को खोज लिया।" Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्योधन की चिन्ता कर्ण के हर्ष का ठिकाना न रहा। पूछा - "कैसे ? कहा हैं यह ? बताइये तो सही ।" " वे मत्स्य देश मे है ।" "यह कैसे ज्ञात हुआ ?" "कीचक को भीम तथा बलराम दो ही वीर मार सकते है । ग्रवश्य ही उसे भीम ने वध हुआ वह द्रौपदी हो बलराम का कीचक से कोई द्वेष नही | मारा है और जिस स्त्री के कारण उसका गी।" - दुर्योधन ने उत्साह पूर्वक कहा । "ठीक है । ग्राप बिल्कुल ठीक कहते है ।" - कर्ण बोला । उसी समय त्रिगर्त देश के वीर सुशर्मा ने कहा- "तो फिर ग्राप मुझे मत्स्य देश पर ग्राक्रमण करने दीजिए। यदि पाण्डव वहा छुपे है तो वे अवश्य ही विराट की ओर से युद्ध करने आयेगे । तत्र उन्हे हम पहचान लेगे और आप अपने मन्तव्य मे सफल होगे ।" दुर्योधन ने सुशर्मा की बात स्वीकार करली और उसने निय चय किया कि सुशर्मा मत्स्य देश पर दक्षिण की ओर से आक्रमण करे और जब विगट अपनी सेना लेकर सुशर्मा के मुकाबले के लिए जाये तो उसी समय में अपनी मेना लेकर उत्तर की ओर से छापा मार दूंगा । दूतर्फा युद्ध के द्वारा हम विराट का सारा गौधन श्रायेंगे। उसे परास्त कर उसका राज्य छीन लेंगे और यदि पाण्डव चहा हुए तो उनका पता लग जायेगा 1 माथ ही यदि पाण्डव युद्ध करने ग्राये तो उन्हें युद्ध स्थल पर मार कर निर्विघ्न राज्य करने का अवसर पा जायेंगे २१३ विराट नरेश ने दुर्योधन की मित्रता को सदैव इस लिए दुर्योधन तो उस पर वार खाये बठा था और मे बदला लेने का इच्छुक था । कर्ण प्रत्येक दशा मे दुर्योधन की प्रसन्न देखना चाहता था। इसलिए तीनो ने मिल कर पूरी योजना नामी और मेनात्री को तैयार रहने का आदेश दे दिया गया । X X X X- X X ጸ कराया था शर्मा विराट Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ जैन महाभारत योजना अनुसार सुशर्मा ने दक्षिण की ओर से. मत्स्य देश पर आक्रमण कर दिया। मत्स्य देश के दक्षिणी भाग से त्रिमत राज को सेना छा गई और गायो के झुण्ड के झुण्ड सुशर्मा की सेना ने हथिया लिए, लहलहाते खेत उजाड़ डाले, बाग बगीचो को तबाह कर दिया। ग्वाले तथा किसान जहां तहां भाग खड़े हुए और राजा विराट के दरबार मे दुहाई मचाने लगे। विराट ने जब यह समाचार सुना उसे बडा खेद हुआ। उसने कहा - "हा. गोक! ऐसे समय पर शूरवीर कीचक- नहीं रहा। उस को मृत्यु का समाचार पा कर ही मुशर्मा को मत्स्य देश-पर आक्रमण करने का साहस हुआ।" उन्हे चिन्तातुर होते देख कर कंक (युधिष्ठिर) ने उनको मान्त्वना देते हुए कहा-राजन् ! आप चिन्तित क्यो होते है। कीचक नही रहा तो क्या मत्स्य राज्य अनाथ हो गया? आप मेनाए तो तैयार करवाये। सुशर्मा जैसे लोगो का यह भ्रम आपको तोडना ही चाहिए कि कीचक मारा गया तो विराट नरेश के पास कोई शक्ति ही नहीं रही।" "यह भ्रम टूटे तो कैसे? मैं स्वयं तो वृद्ध हो चुका है। कीचक और उपकीचक सभी मारे गए अव सेना मे ऐसा कोई वीर नही जो सुशर्मा का सामना कर सके। अफसोस कि मैने सौरन्ध्री को अपने रनिवास में स्थान देकर स्वय ही अपनी वरवादी को निमन्त्रित किया।"-~-इतना कह कर विराट बहुत दुखित होने लगे । उमी ममय कंक ने कहा-"महाराज! आप घबराइय नहीं। यद्यपि में मन्यासी वाह्यण हैं फिर भी अस्त्र विद्या जानता हूं। मैने सुना है कि आपके रसोइये, बल्लभ अश्वपाल ग्रंथिक और ग्वाला निपाल भी बड़े कुशल योद्धा हैं। मैं कवच पहन कर रथारूढ़ होकर युद्ध क्षेत्र मे जाऊगा। आप उनको भी प्राज्ञा देदें। उनके लिए रथी, वस्त्रो तथा अस्त्र शस्त्रो का प्रबन्ध करद । फिर देखिये कि सुगर्मा का भ्रम कैसे टूटता है।" "क्या वास्तव मे तुम चारो अस्त्र शास्त्र चलाना जानते हो?" Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्योधन की चिन्ता "हा, महाराज ! आप निश्चिन्त हो ।" "तो क्या तुम्हें विश्वास है कि सुशर्मा को मुह "हा, हा, सुशर्मा बेचारा किस खेत की मूली है ।" ...... २१५ T यह सुन विराट बड़े प्रसन्न हुए । उनकी प्रान्ता अनुसार चारो वीरो के लिए रथ तैयार होकर ग्रा खडे हुए। अर्जुन की छोड शेष चारो पाण्डव उन पर चढ कर विराट और उसकी सेना सहित सुशर्मा से लडने चले गए। - .19 राजा सुशर्मा और राजा विराट की सेनाओ मे घोर युद्ध हुआ दोनो श्रोर के असख्य सैनिक खेत रहे । सुशर्मा तथा उसके साथियो ने राजा विराट को घेर लिया और रथ से उतरने पर विवश कर दिया | अन्त मे सुशर्मा ने विराट को कैद करके अपने र्थ पर बिठा लिया और विजय का शख बजाते हुए अपनी छावनी मे चला गया । जब राजा विराट बन्दी बना लिए गए तो उनकी सेना तितर बितर होगई सैनिक प्रा लेकर भागने लगे । यह हाल देख कर युधिष्ठिर भीम को ग्राज्ञा देते हुए बोले- 'भीम' श्रव तुम्हे जी लगा कर लडना होगा । लापरवाही से काम नही चलेगा। अभी हो विराट को छुड़ा लाना होगा। तितर बितर हो रही सेना को एकत्रित करना होगा और फिर अपने बाहुबल से मुशर्मा का हर्ष चूर्ण करना होगा ।' 4 । 99 चाता की आज्ञा मान कर भीम सेन रथ पर को मेना पर बाणों की बौछार करने लगा। लड़ाई के बाद भीम ने विराट को छुटा लिया | भीमसेन को तो ज्येष्ठ भ्राता के प्रदेश की देरी थी। अभी युधिष्ठिर की बात पूर्ण भी न होने पाई यो कि भीमसेन दीड कर एक भारी वृक्ष के पास गया और उसे उखाड़ने लगा । युधिष्ठिर ने तुरन्त जाकर उसे रोका और कहा यदि तुम सदा का भाति पेड उडते तथा सिंह की सी गर्जना करने लगे तो शत्रु तुम्हे तुरन्त पहचान लेगा। इस लिए और लोगों की ही भांति रथ पर = बैठे हुए धनुष बाण के सहारे लडना ठीक होगा ।" से ही शर्मा थोड़ी देर की और ग Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - महाभारत को बन्दी बना लिया । मत्स्य देश की सेना जो सुशर्मा के भय भाग गई थी पुन मैदान मे आ डटी और सुशर्मा की सेना युद्ध करने लगी। भीम सेन के नेतृत्व में विराट की सेना ने सुशम की सेना पर विजय प्राप्त करली | २१६ विराट भीम का ऐसा पराक्रम देख कर बहुत ही प्रसा । सुशर्मा का हर्ष च् ग्रव सुशम 1 हुप्रा युधिष्टर ने कहा - " महाराज करने के लिए ही हम लोग प्राये थे । वह हो गया । को मुक्त कर दीजिए क्योकि क्षमाशीलता धर्म का आभूषण है दया वीरो को गोभा देती है ।" कक रूपी युधिष्ठर की वात महाराज विराट ने स्वीकार क ली और सुशर्मा को मुक्त कर दिया । Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सतारहवां परिच्छेद ************** __ *** दुर्योधन से टक्कर **xxxrakrit (राजकुमार उत्तर) उधर राजा विराट, चार पाण्डवो के सहयोग से सुशर्मा से लड रहे थे, इधर उत्तर दिशां से दुर्योधन ने अपनी सेनायो तथा सहयोगियो सहित आक्रमण कर दिया। उसकी सेनायो ने लाखों गोए होंक ली; लहलाते खेतों को नष्ट कर डाला । ग्रामीण अपने प्राण लेकर भाग खड़े हुए और उन्हो ने जाकर राजकुमार उत्तर के सामने दुहाई मचाई । वोले- "दुहाई है राजकुमार की हम पर भारी विपदा का पहाड़ टूट पडा है। कौरव सेना हमारी गाए भगा लेजा रहा है। हमारे खेतों खलिहानो को तवाह कर डाला गया है । हमार ग्रामो पर मौत मडरा रही है। हम वरवाद हो रहे हैं । हम बचाइये ." राजकुमार बोला-"तुम्हारी व्यथा को सुन कर हमारा हृदय शोकातुर हो गया है। हमें तुम्हारे प्रति सहनुभूति है । विश्वास रखपो कौरव सेनानी का सिर कुचल दिया जायेगा। बस महाराज को वापिस पा लेने दो । वे दृष्ट सगर्मा को परास्त करने गए है। प्रोते ही होगे ।" "राजकुमार ! महाराज तो जाने कब मरा लौटे । -~-याने पौर किमान दीनता पूर्वक वोल-युद्ध में न जाने कितना ए लग जाए। उस समय तक तो हमारा सर्वनाश हो जायेगा । मान Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत और क्या पता कौरव सेना तबाही मचाती हुई उस समय तक राजधानी तक भी पहुंच जाय । आप हमारे राजकुमार हैं भावी राजा है । इस अवसर पर आप ही हमारे एक मात्र रक्षक हैं ।" २१८ जिस समय ग्वाले और कृषक अपनी दुख भरी गाथा सुना रहे थे, कितने ही नगरवासी वहा आगए थे और रनिवास की स्त्रिया ऊपर खडी २ सारी बाते सुन रही थी । राजकुमार भला अपने को कायर कहलाने को कब तैयार हो सकता था. उसने जोश मे आकर कहा - " घबराने की कोई बात नही है । यदि महाराज नही तो क्या हुआ मैं तो हूं। यदि मेरा रथ हाकने वाला कोई सारथी मिल जाये तो मैं अकेला ही जाकर शत्रु सेना के ढात खट्टे कर दूगा और एक २ गाय उन दुष्टो के फदे से छुडा लाऊगा । ऐसा कमाल का युद्ध करूगा कि लोग भी विस्मित होकर देखते रह जायेगे | कहेंगे — ' कही यह अर्जुन तो नही है' मैं महाराज विराट की सन्तान हू । मेरी भुजाम्रो मे क्षत्रिय रक्त दौड़ रहा है।" ग्वाले और कृषक राजकुमार उत्तर की इस उत्साह पूर्ण वान को सुन कर वडे प्रसन्न हुए । उन्होने हाथ जोड कर गद गद कण्ठ से कहा - "धन्य हो राजकुसार । ग्राप वास्तव मे वीर सन्तान हैं । ग्रापके रहते मत्स्य देश वासियो को भला किस का भय ? बस कृपा कर जल्दी ही चले चलिए । " " अरे ! तुम बड़े मूर्ख हो । बात नही समझे ? मैं कह रहा हू कि एक सारथी का प्रबन्ध करदो । यदि रण स्थल मे रथ हाकने का अनुभव रखने वाला कोई सारथी मिल जाय तो में अभी इसी समय चल सकता हूं । वरना पैदल थोडे ही युद्ध होता है। और ऐसे सारथी सभी महाराज के साथ गए है । ऐसी दशा में तुम्ही बताओ मैं कर क्या सकता हू ?" -- राजकुमार उत्तर ने ग्वाली तथा कृषको के सामने एक उलझन उपस्थित करदी । अव भला बेचारे ग्वाले और कृषक कहा से सारथी लायें । का फैला रह गया । विवशता नेत्रो मे झाकने लगी । उन बेचारो का क्या पता कि राजकुमार के पास सारथी हो या न हो पर बल तथा साहस की बहुत कमी है । उनका मुह फैला Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१९ दुर्योधन से टक्कर उस समय द्रौपदी भी रनिवास की अन्य स्त्रियों के साथ खडी सारी बातें सुन रही थी। उसने राजकुमारी उत्तरा के पास जाकर कहा -“राजकन्ये । देश पर विपदा आई हुई है। ग्वाले और कृषक घबराये हए राजकूमार के आगे दुहाई मचा रहे हैं कि कौरवों की सेना उत्तर की ओर से नगर पर आक्रमण कर रही है। और मत्स्य देश की सैकडो हजारों गाए लूट ली है। इस समय महाराज दक्षिण की ओर मुशर्मा से युद्ध करने गए हैं ! राजकुमार देश की रक्षा के लिए युद्ध करने को तैयार है, किन्तु कोई सुयोग्य - सारथी नहीं मिलता। इसी से उनका जाना अटका हुआ है।" "तो इस में मैं क्या कर सकती हूं?" "प्रापकी वृहन्नला रथ चलाना जानती है। जब मैं पाण्डवो के रनिवास में काम किया करती थी तो उस समय मैंने सुना था कि वृहन्नला कभी कभी अर्जुन का रथ हाक लेती है। यह भी सुना था कि अर्जुन ने उसे धनुर्विद्या भी सिखाई है। इस लिए श्राप अभी बृहन्नला को प्राज्ञा दे दे कि राजकुमार उत्तर की मारथी बनकर रणांगण मे जाकर कौरव सेना को रोके।" ~~दौपदी के मुख मे यह बात सुन कर राजकुमारी के प्रार ६ . दोपदी कामु है ना की सीमा न रही। "मौरन्ध्री ! क्या वृहन्नला इतनी गुणवती है ? साश्चर्य है." __ "और जब वह युद्ध में जाकर अपने कमाल दिवायेगी तो नापको और भी अधिक आश्चर्य होगा: अर्जुन इसी कारण तो बृहन्नला का बहुत आदर करते थे।" "कहीं तू झूठ ही तो नही कह रही ?" 'क्या आपने मेरे मुग्व मे आज तक कोई असत्य नुना?" राजकुमारी निम्नर हो गई। उसने अपने भाई के पास जाकर कहा-या। मैंने मन . सिनम कोरव मेनाओ का संहार करने जा रहे हो।" Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० जैन महाभारत. - P ८ तो इस मे आश्चर्य की क्या बात है ? क्या में बीर विराट की सन्तान नही हूं ।” 1^ “भैया ! मुझे प्राज तुम्हारे मुख से यह बात सुनकर कितना हर्ष हो रहा है, बस मैं ही जानती हूं। तुम विजयी होकर लौटो मेरी यही हार्दिक कामना है ।" ९ उत्तरे ! विजय तो मेरी निश्चित हैं पर मैं जाऊ तो कैसेकोई · सारथी तो है ही नही ।" T "भैया ! मैं तुम्हे यही शुभ सवाद सुनाने आई थी "क्या ?" }, "} 59 "सारथी मिल गया और वह भी अर्जुन का " आश्चर्यपूर्वक उत्तर ने पूछा - " कौन है वह ?" कहा है 1 ,} "यह हमारी वृहन्नला है ना । यह अर्जुन का रथ हावा करती थी । इमे अर्जुन ने धनुर्विद्या भी सिखाई है | तुम्हारे सारथी का काम देगी ।" बस यह अपनी बनी बनाई धाक को चोट पहुचने के भय से राजकुमार उत्तर ने कहा - " उत्तरे । तुम भी कैसी मूर्खता की बात करती हो। कहा बृहन्नला नपुंसक और कहाँ युद्ध रथ का मारथी । अरे तुम ने भाग तो नही खा ली तनिक सोचो तो कि क्या अर्जुन को यही मिली थी रथ हाकने को ?" "नही भैया । मौरन्ध्री कहती है अर्जुन इसे बहुत स्नेह करते थे। तुम युद्ध मे जाना चाहो तो बृहन्नलों को अपना मारी बना लो। न जाना चाहो तो दूसरी बात है ।" उत्तरा की उस बात मे राजकुमार उत्तर ने अपनी बात बनाए उसने के लिए कहा- "नही ! मुझे तो कोई आपत्ति नहीं बृहन्नला यदि वास्तव मे रथ हाक सके । तो मेरे साथ चले ।" Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्योधन से टक्कर २२१ .. "तुम अब जवान हो। किसी भी दिन तुम्हे शामन की बागडोर सम्भालनी पड़ सकती है, इस लिए युद्ध मे जाओ, और - अपनी तलवार के जौहर दिखा कर कीति तथा यश प्राप्त करो।' जब किसी को वीर कहने लगो तो उसे भी अपने बारे मे भ्रम होने लगता है। फिर उत्तर तो अपने को वीर समझता ही था। यह उसका पहला अवसर था कि अकेला युद्ध के लिए तैयार हो, लाडकपन के उत्साह तथा चचलता ते जोर .. मारा और वह तैयार हो गया !.. . . .' राजकुमारी उत्तरा ने रनिवाम से जाकर बृहन्नला से कहा - "वृहन्नला । मेरे पिता की सम्पत्ति और मत्स्य देश वासियो .की गौग्रो को कौरव सेनाए लूट लिए जा रही हैं दुष्टो ने ऐसे समय पर पाक्रमण किया है कि जब राजा नगर मे नही है। मेरे भैया उत्तर उन दुप्टो को मार भगाने के लिए युद्ध करने जाने को तैयार है, पर उन्हें कोई माग्थी नहीं मिल रहा.। मौरन्ध्री कहती है कि तुम्हे अस्त्र शस्त्र चलाना पाता है और तुम अर्जुन का रथ हाक चुकी हो, तो तुम्ही राजकुमार उत्तर का रथ हाक ले जानो न?" ' "वाह राजकुमारी जी । -बृहन्नला रूपी अर्जुन ने कहा -- पाप भी बहुप्रो से चोर मरवाने जैसी बाते करती है। कहा मैं और कहा सारथी बनना। श्राप मेरा वध करवाना चाहती है तो अपने ग्राप मिर काट डालिए। पर मुझ कौरव वीगे की तलवार मे काटने का दण्ट न दीजिए। ग्रोह । जिम समय युद्ध मे धनुषो की टंकार सुनाई देगी। हाथी घोडो की चिंघ द गजेगी, मेरी छाती पाट जायेगी। मैं तो बिना मारे ही मर जाऊगी। हाय । उम नमय तो मेरे शव को कोई ठिकाने लगाने वाला भी हागा। गजन माग जी । मैं मग्राम में नहीं जाऊगी।" बहानला को कृत्रिम घबराहट के भावो को व्यन मी नाही बान ने गजधमार्ग का विश्वास न टिगा। मने कहा"वहानला वात बनाने की चेष्टा नमारी। ऐने नाद समय में नो यदि तुम पाम न प्रायोगी, तो तुम्हारी विद्या और गोग्यता पा Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ जैन महाभारत "अजी राजकुमारी जी! योग्यता तो मेरे पास भी नहीं फटकती और विद्या की पूछती हो, तो वह तो एक मील दूर से ही मुझ से न क सिकोड कर भागती है। हा, कौरव सेनाओ को नाच गा कर रिझाना हो तो फिर वन्दी तैयार है, पर इस के लिये साजिन्दे भी दरकार है।" -वृहन्नला ने आंखे मटकाते हुए कहा। बृहन्नले ! तू मुझे निरा मूर्ख क्यो समझती है। बात वना कर बहकाने से क्या लाभ | तुझे मैं भलि प्रकार समझती हू और सौरम्ध्री तो तेरी रग रग से परिचित है।"- राजकुमारी बोली। "अजी | सौरन्ध्री का क्या ठिकाना। वह नपुंसको को भी अर्जुन समझ बैठे ? अपना तो काम नाचना गाना है, और । बेचारी सौरन्ध्री सग्राम को भी हीजड़ो का खेल समझ बैठी है। उनसे पहले यह तो पूछिए कि नाट्यशाला और सग्राम भूमि मे दूरि कितने अंगुल की होती है।" बृहन्नला ने अपने को छुपाने का भरसक प्रयत्न करते हुए कहा । ___ "तू अपनी बहानेबाजी से उस राज्य के सकट के समय काम आने से मुह छुपाती है, जिसका तूने इतने दिनो तक नमक खाया है और ऐश से रही। आज काम न आयेगी तो क्या मरहम वना कर फोडे पर लगाई जायेगी? ठीक ही है नपुमक से श्राडे समय पर काम पाने की आशा रखना रेत से तेल निकालने के समान है।" राजकुमारी उत्तरा ने क्षुब्ध होकर कहा। बृहन्नला ने इस ताने मे प्रभावित मी होकर कहा--"गजकुमारी । पाप तो इतनी सी बात पर रुप्ट हो गई। भला में आपके काम न अाऊगी तो किस के काम आ सकती है। मैं तो यह कहती थी कि आप तो ऐमी को सारथी के काम पर नियुक्त कर रही है जा घोडो ने इतना घबरानी है कि छाती वासो कूदने मी लगती है और घोडों को लगाम नो क्या अपने हृदय की लगाम तक सम्भलने मे मफन्न नहीं होती। फिर भी संकट आया है तो लीजिए अब यह काम भी कर लगी। अाप रथ जुडवाइये और इन लचकोले हाथों में घोदी की लगाम दीजिए। उम नजाकत Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्योधन से टक्कर से हाकूगी । कि मुए कोरव मोहित न होकर रह जाये तो तव कुहिए ।" 1 उसी समय द्रौपदी वहा आ गई और उसी के साथ साथ रनिवास की अन्य स्त्रिया भी यह देखने के लिए वहा पहुची कि बृहन्नला सारथी रूप मे कैसे जा रही है । द्रौपदी ने कहा--" ग्रभी बाते ही हो रही हैं, तुम्हे तो ग्रव तक नगर से बाहर हो जाना चाहिए था। 1 " "नगर से बाहर कहा उसे तो महल से निकलने में ही मौत श्रा रही है। कहती है कि घोडो को हाकना तो यह जानती ही नही ।" राजकुमारी उत्तरा बोली । "क्यो री बृहन्नला ! क्या ऐसे समय मे भी तुम्हे हास्य परिहास ही सूझ रहा है " - द्रोपदी ने कहा । "नही जी ! हास्य परिहास तो प्राप को सूझा है । भला में और युद्ध मे सारथी बन कर जाऊ । स्वामी सुनेंगे तो क्या कहेंगे ?" - बृहन्नला वेपधारी अर्जुन ने द्रौपदी को संकेत कर के कहा । - । मकेत को समझ कर द्रौपदी बोली--"स्वामी तो स्वयं रण स्थल मे अपने हाथ दिखा रहे है यही समय है जब नरेश को तुम अपना कमाल दिखा सको । और फिर तुम्हे अपने कमाल दिखाने का अवसर भी तो मिल रहा है । एक साल पूर्ण होना चाहता है जब से तुम ने महाराज विराट का नमक खाना प्रारम्भ किया है। पत्र भी यदि अपनी वफादारी का प्रमाण देने तथा उचिन अवसर मे लाभ उठाने का प्रयत्न न किया गया तो वृहन्नला के • वास्ताविक रूप को कौन जानेगा ?" द्रोपदी का इतना सकेत पाना था कि बृहन्नला को बातो को दिया हो बदल गई, उसने कहा- "तो फिर सोरन्ध्री ! जो घोड़ा बहुत में जान पाई हूं उसे अवश्य काम लाऊगी । पर कोई भू होतो तुजाने ।" Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत "हा, हा तुम जानो तो सही।' . . . . तो फिर मुझे कोई बढिया सी साढी तो दिलवा दीजिए।" * 'माढी क्यो?" कौरव वीरो ३ सोमने जाना है। उन में राजे महाराज वहां होगे राजकुमार होगे। उन के सामने इन साधारण कपड़ो मे जाऊगी तो लाज की मारी मर न जाऊगी। कोई क्या कहेंगा कि राजा विराट के महल मे-रहती है और कपडे तक. .... " द्रौपदी (सौरन्ध्री) ने वात बीच ही मे काट दी- "बृहन्नला।' सारथी वन कर जाना है, अथवा नाचने ? कुछ सोच कर ता वात करो." __"हाय राम | मारथी बनूगी तो राजकुमार ही की तो। फिर यह कपड़े क्या लजायेगे नहीं।" "बृहन्नले । बात क्यो बनाती हो। कैपड तो वहीं पहनी ना, “जो अर्जुन की सारथी बन कर पहनती थी। देखो ! अर्व परिहास अच्छा नही । विलम्ब न करो।"-द्रौपदी बोली। __ . "तो फिर आप यो क्यो नही कहती कि मुझे अर्जुन की सारथी का भेप धरता हे।" - और क्या.. .. ..." ... कवच लोया गया और राजकुमार ने सोत्साह उसे दिया। . बृहन्नला के वेप मे अर्जुन नाटक करता हो उसे उल्टी पोर से पहनने लगा। देख कर सभी स्त्रियाँ खिल खिला कर हसं पडी। किसी ने कहा-"फिर तो वृहन्नला ने राजकुमार को जिता दिया समझो। यह क्या वहां घोड हांकगी। जिसे कवच पहनना भा नहीं आता।" उस समय द्रौपदी को अर्जुन पर बडा त्रोध आया। और अर्जन ने कान टवा कर कवच ठीक प्रकार पहन लिया। परन्तु Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२५ दुर्योधन से टक्कर भी वह सभी के सामने नाचने लगा। स्त्रियो की हसी रोके न इकती थी। परन्तु जब महल से बाहर आकर उस ने घोड़ो को रथ मे जोता तो वह एक कुशल सारथी प्रतीत हुआ। राजकुमार उत्तर जव रथ मे आकर बैठा तो राजकुमारी ने कहा- "भैया ! मत्स्य राज की लाज अब तुम्हारे हाथ है।" उत्तर मे बृहन्नला ने कहा-"विश्वास रक्खो कि युद्ध में राजकुमार की विजय अवश्य होगी। और शो के अस्त्र शस्त्र हरण करके रनिवास की स्त्रियो को पुरस्कार के रूप में दे दिए जायेंगे." राजकुमार ने इस घोषणा का अपनी गौरवमयी मुस्कान से समर्थन किया और वृहन्नला ने रथ हाक दिया। जैसे ही घोड़ो को चलने का इशारा किया और रथ चल पड़ा तो रनिवास की स्त्रियो के आश्चर्य की सीमा न रही। सिंह की ध्वजा फहराता रथं बड़ी शान से कौरव सेना का सामना करने चल पड़ा। उस समय बृहन्नला की कुशलता, चपलता तथा निपुणता देखकर सभी , उसकी मुक्त कण्ठ से प्रशसा करने लगे। 30 Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अठारहवां परिच्छेद * . . . . - - वृहन्नला रण योद्धा के रूप में म बृहन्नला को सारथी बनाकर राजकुमार उत्तर जब नगर से. चला तो उस का मन उत्साह से भरा था वह बार बार कहता-"रथ तेजी मे चलाओ। देखो जिधर कौरव सेना गौए भगाए ले जा रही है, उसी ओर भगाओ रथ को " राजकुमार का आदेश पाते ही वृहन्नला ने घोड़ो की बाग ढीली करदी और घोडे बडे वेग से भागने लगे। हवा से बाते करते हुए अश्त्र तीव्र गति से राजकुमार को कौरव सेना की ओर ले जा रहे थे। राजकुमार उत्साह के मारे रथ मे बैठा बैठा ही उछल उछल कर कौरव सेना को देखने का प्रयत्न कर रहा था। चलते चलते दूर कौरवो की सेना दिखाई देने लगी। धूल उड रही थी जो पृथ्वी से उठ कर आकाश को स्पर्श कर रही थी। उस धूल के आवरण के पीछे विशाल सागर की भांति चारो ओर कौरवो की विशाल सेना खडी थी। रोजकूमार ने तो अपने मस्ि ताक मे कौरव सेना की यह कल्पना की थी कि कुछ व्यक्ति होग जो झुण्ड बनाए हुए गोए भगा ले जा रहे होगे। परन्तु वहा ता वह विगाल सेना थी जिसका संचालन भीम, द्रोण, कृप, कण और दुर्योधन जैसे महारथी कर रहे थे। देख कर उत्तर के रोगट खड़े होगए। कहां उसकी कल्पना और कहा यह वास्तविकता उसे कंपकंपी होने लगी। वह सम्भल न सका। सामन ५ हजारो अश्य सवार, रथ सवार, गज सवार और पैदल वार, Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨૭ बृहन्नला रण योद्धा के रूप में समस्त प्रकार के अस्त्र शस्त्रो से लैस। रथों पर भिन्न भिन्न चिन्हो की पताकाएं फहरा रही थी। जिधर दृष्टि जाती उधर रणवीर ही रणवीर दिखाई देते। और फिर साहस ही के लिए तो वह विशाल सेना क्या थी, सीधा नाग का महासागर उमड़ा __ था। इस लिए इतनी विशाल सेना को देख कर ही राजकुमार का अंग अंग कम्पित हो गयो। भय विह्वल होकर उसने दोनो हाथो से अपनी आंखें मूद ली। उस से यह सब कुछ देखते भी न बना। - बोला-"बृहन्नला! रथ रोक लो" ". रथ फिर भी चलता रहा । ___ कापती आवाज मे राजकुमार ने डूबते स्वर से कहाबृहन्नले ! क्या कर रही है रथ रोको, रथ रोको।" बृहन्नला ने घोडों की बाग खीच ली। पूछा-"कहिए ! क्या हुआ?" 1- - क्यो ?". . . .. "मैं नही.लडगा मुझे मेरे घर पहचा दो। जल्दी करो, कही तु ने मुझे देख लिया तो मेरी खैर नहीं।" वृहन्नला ने गजकुमार की बात सुनी तो उसे इस कावन्ता र बटा क्रोध आया। फिर भी सावधानी से कहा-"राजकुमार! कैमी कायरता की बात कर रहे हो? तुम तो शत्रु से लडने प्राये हो । विजय प्राप्त करने पाये । और कहते हो कि " ." __ "नहीं, नही बहन्नला। इतनी वढी मेना से भला मैं अफला फर्म लड़ मकता ह ?"-भयभीत राजकुमार ने कहा-"वह देखो चितनी बडी सेना खड़ी है। लगता है सारी दुनियां को ममेट पाये है कौग्य ।" ___ "इतनी बड़ी सेना हुई तो क्या बात है। एक मिह के सामने साहै नाम भेट भी ना जाय, मिह का क्या बिगड़ता है ?' - Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ जैन महाभारत . . ` “तुम नहीं जानती बृहन्नले ! इस सेना में बड़े बड़े पीर होगे। बड़े बड़े अनुभवी सेनानी होगे और मैं ठहरा अकेला और "अभी बालक । “मुझ में इतनी योग्यता कहां कि इनः कौरवो से पार पा मकू " 'किन्तु तुम तो शत्रुओं से युद्ध करने आये हो, तुम . मत्स्य . देश के भावी राजा हो। सारे देश का भाग्य तुम्ही हो । मत्स्य देश की लाज आज तुम्हारे ही हाथ मे है !" ___ "राजा तो मेरे पिता है-राजकूमार उत्तर ने कहता आर. म्भ किया-और वे ही सेना लेकर मुशर्मा को परास्त करने गए है। सेना भी सारी उनके ही साथ है। फिर भला मैं अकेला इन असख्य शत्रुओं से कैसे लडू ? .- - - - - बृहन्नला बोली- राजकुमार । महल में तो तुम ही डीगे हांक रहे थे। बिना कुछ आगा पीछा सोचे मुझे माथ लेकर युद्ध के लिए चल पड़े और प्रतिज्ञा करके रथ पर बैठे थे। नगर के लोग तुम्हारे ही भरोसे पर हैं। सौरन्ध्री ने मेरी प्रशसा करदी और तुम जल्दी से तैयार होगए मैं तुम्हारी वीरता पूर्ण बातो को सुनकर तुम्हारे साथ चलने को तैयार होगई। अब यदि हम गाए छुडाए बिना वापिस लौट जायेगे तो लोग हमारी हसी उडायग इस लिए मैं तो लौटने को तैयार हू नहीं। तुम घबराते क्यो हो। इट कर लड़ो।" बहन्नला मे घोडो के रस्से ढीले कर दिए थे। ग्ध वड वेग मे जा रहा था। बहन्नला ने उसे रोकने की कोशिश नहा की और शत्रु सेना के निकट पहुंच गया। यह देख उत्तर काना और घबरा गया। उसने सोचा कि मौत के मुहाने पर आगया । ... "तुम ग्थ रोकती क्यो नही ?" - ... "पथ नो शत्रुओं की मेना मे घम कर केगा"... न - "नहीं, नहीं, यह मेरे बमको रोग नही । मैं नहीं लड़गा। मैं जान दूझकर मौत के मुंह में नहीं कूदगा।' Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३९ बृहन्नला रण योद्धा के प मे 'नही' ___"तुम ने तो शत्रुयो के वस्त्र व शस्त्रहरण करके रनिवास स्त्रियो को पुरस्कार स्वरूप देने की प्रतिज्ञा' की है। सोत्रो मही, तुम उन्हे कैसे मुह दिखायोगे।"-बृहन्नला ने। लोक लाज का भय दर्गाकर उसे सम्भालना चाहा । . . . . . . * "कौरव जितनी चाहे गौए चरा कर ले जाये-उत्तर कहने लगा-स्त्रिया मेरी हमी उडाएं तो भले ही उडाए। पर मैं लगा नहीं। लड़ने से आखिर लाभ ही क्या है ? - मैं लौट जाऊगा। रथ मोड लो।" : 1 "नही । मैं राजकुमार की हमी उड़वाना नहीं चाहती। मुझे अपनी इज्जत का भी तो ख्याल है ." "भाड में जाये तम्हारी इज्जत। मैं मौत के मह में नहीं दूंगा। तुम रथ नही मोडोगी तो मैं रथ् से कूद कर अकेले ही दल लौट पड गा।" . "राजकुमार | ऐसी बाते मह से न निकाली। तुम वीरो को सन्तान हो। तुम्हारी भुजायो मे इतनो शक्ति है कि ऐसी ऐसी एक नही हजार कौरव सेनापो को पान की यान मे मार भगाए। और फिर तुम्हारे साथ मैं भी तो ह। मैं मरूगी तो तुम मरना वरना कौन भला तम्हारे मुकाबले पर- इट मकता है ।" . . बृहन्नला के माहम दिलाने पर भी उत्तर अपने को न मम्भाल पाया। उसने प्रावेश मे प्राफर कहा-"तुम्हे तो अपनी जान मे माह नहीं। पर मैं क्यो मा? तम रथ नही लौटाता तोन लोटायो। मैं पदल हो भाग. जाउ.गा।" ___ कहते गाहने 'गजकमार उनर ने धनप बार्ग पं.क दिए गौर और चलते रथ में हो या पटा। भय के मारे वह प्राग में न रहा पोर पागलो को भनि नगर की प्रोन भागने लगा। "गजकुमार | बहरो, भागो मन। अत्रिय होकर नम "मा करन हो। छी छो। देगा नया कहेंगे। जगन्वाना पा करने महने वहानना भीगने मनमा मायाला I - Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० जैन महाभारत . • किया। उसकी चोटी नागिन सी फहगने लगी। माडी अस : ध्यस्त होकर हवा में उड़ने लगी। आगे प्रागे उत्तर पीछे पोहे बृहन्नला। उत्तर बृहन्नला की पकड़ मे नही आ रहा था और रोता हुआ इधर उधर भाग रहा था। सामने कौरव सेना के वीर _आश्चर्य चकित हो यह दृश्य देख रहे थे। उन्हे हंसी भी पा रही थी। -: प्राचार्य द्रोणा के मन में कुछ शका जागृत हुई। सोचने लगे- "कौन हो सकता है यह ? वेष भूषा तो स्त्रियों सी.: पर चाल ढाल पुरुषो के समान प्रतीत होती है। ..." . पर नपुसक सा व्यक्ति रण स्थल में क्यों आया "........... .- . दूसरे वीर भी कुछ ऐसी ही बातें सोच रहे थे। प्रकट रूप मे आचार्य द्रोण बोले-"इसका भागना तो प्रकट करता है. कि यह कोई बलिष्ट व्यक्ति है। आगे वाली व्यक्ति रोता हुआ भाग रहा है और पीछे वाला उसे पकडने दौड़ रहा है। आखिर चूह विल्लो की दौड़ इन मे आपस मे क्यों हुई ?. कही स्त्री वेप में कोई-योद्धा नो-नही ? और कही अर्जुन ही हो तो .... ?.. "अर्जुन नहीं हो सकता-कर्ण ने कहा-और अगर हुआ भी तो क्या ? अकेला ही तो है। दूसरे भाईयो के बिना अर्जुन हमारा कुछ नही दिगाड सकता। पर इतनी दूर की क्यो सोचे ?" "तो फिर यह नपुसक रूपधारी, कौन हो. सकता है ?" -द्रोणाचार्य ने प्रश्न उठाया। "चात यह है कि राजा विराट अनी समस्त सेना लेकर सुगर्मा के मुकाबले पर गया मालूम होता है। नगर में अकेला राजकुमार ही होगा। कोई कुशल मारथी मिला न होगा तो रनिवास में मेवा टहल करने वाले हीजडे को मारथी बना लिया और हम मे लडने चला पाया है।"-कर्ण ने उत्तर दिया। - इधर यह बाते हो रही थी उधर बृहन्नला गजकुमार उत्तर को पकड़ने का प्रयत्न कर रही था। ..जो तोड कर इभर पर Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहन्नला रण योद्धा के रूप मे २३५ भांगने वाले राजकुमार को भाग दौड करके वृहन्नला ने पकड ही लिया। राजकुमार हाथ जोड़कर वोला --"वृहन्नलामैं तेरे पंगे पडता हू। मुझे छोड दे। _ में युद्ध नहीं करूगा। मेरी गेखियो पर न जा। मुझे मेरी माता के पास चला जाने दे।" . . . "राजकुमार ! तुम्हे मैं लाई हूं। मुझे अपने साथ तुम लाये हो।- दोनो साथ पाये है तो साथ हो वापिम जायेगे। शत्रुओ से क्यो हमी उडचाते हो। क्षत्रिय कभी पीठ- दिखाकर नही भागाकरते। तुम इतता डरते क्यो हो ?' . __कहते कहते वृहन्नला ने उसे बलपूर्वक ले जाकर रथ पर बैठाः ही तो दिया। बेचारे उत्तर ने बहुत प्रयत्न किया कि बृहन्नला से छूटकर भाग जाये। पर वह अपने को छुडा न सका। परन्तु वह था तो बहुत ही घबराया हुआ । काँप रहा था। उसने वृहन्नला से कहा "मुझे छोड दो। मैं तुम्हे बहुत धन दूगा, सुन्दर सुन्दर वस्त्र दूगा। तुम जो चाहो मुझ से माग लेना। मुह मागी वस्तु दे दूगा। तुम तो बड़ी अच्छी हो। देखो, तुमने मेरा कहना कभी नही टाला। इस समय मेरी इतनी सी बात मान लो। मुझे नगर में ले चलो। कही युद्ध मे मुझे कुछ हो गया तो मेरी मा रो रो कर मर जायेगी। उसने मुझे बडे प्रेम से पाला है। .. मैं वालक ही तो है। बचपने मे बडी २ बाते कर गया था। मैंने कोई लडने वाली सेना देखी थोड़े ही थी। अब कौरवो की सेना देखकर तो मेरे प्राण ही निकले जा रहे है। बृहन्नला! मुझे इस संकट से बचानो। मेरी अच्छी वृहन्नला। मैं जीवन भर तुम्हारा उपकार मानेगा।" इस प्रकार राजकुमार उत्तर को वहुत घबराया हुआ जानकर बृहन्नला ने उसे समझाते हुए तथा उसका साहस बढाते हुए कहा "राजकुमार ! घवरामो, नही । तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ेगा।" "नहीं, नहीं मर जाऊगा मैं तो। मुझ से नहीं लड़ा जायेगा।" "तुम तो वस घोडो को रास सभाल लो। इन कौरवो से मैं अकेली होलह लूगी । तम केवल रप होकते रहना। इसमें जरा भी न इरा। इस प्रकार निर्भय होकर डटे रहोगे तो मैं अपने प्रयान में Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ = जैन. महाभारत : J ही कौरवो को मार भगाऊंगी, गौओ को छुड़ा लूंगो । यशस्वी विजेता के नाम से प्रसिद्ध होये ।" 1 " वह रही हो नहीं, नहीं भला यह कैसे अम्भव है ?” V ठिकाना न रहा। क्या मुनकर राजकुमार के ग्राश्चर्य का हजारों वीर एक ओर और तुम अकेली दूसरी ओर } "तुम घोड़ों की रास तो सभालो । की भांति क्षण भर में इस सेना को बींच से ही ܪ * 2 - और तुम वृहन्नला ने कहा । " F = C "नही नही । तुम तो स्वयं ही मर जाओगी और साथ ही मुझे ले मरोगी । ना ऐसी मूर्खता में नही करूंगा। मेरी 'मानो तो विलम्ब न करो, भाग चलो | प्राण है तो सब कुछ है। x वरना ***** 97 2 = 1 "राजकुमार मुझ पर विश्वास करो। मैं तुम्हारा बाल भी बाका न होने दूंगी !" — उगम के वृक्ष के पास पहुच कहा - "राजकुमार ! 'तुम्हारी जय हो करो. इस शमी के वृक्ष पर चढ जाओ । । 'देखों पानी की का कीटती हू ।" - बडौ कठिनाई से, राजकुमार घोड़ों की रास सभालने को तैयार हुआ । तब बृहन्नला ने कहा- "नगर के बाहर जो मशान हैं, उसके पास वाले शमी के वृक्ष की ओर रथ को ले चलो ! 2 1 13 T - और रथ उस ओर तेजी से चल पडा । 1 उधर ग्राचार्य- द्रोण उनकी गतिविधियों को सावधानी से देख रहे थे. उन्हें शंका हो रही थी कि नपुंसक के. वप मे कही अर्जुन न हो। संकेत से यह बात उन्होने भीष्म को भी बता दी... यह चर्चा सुन दुर्योधन कर्ण से बोला - "हमे इस बात से क्या मतलब कि नपुंसक के वेप में कौन है। मान लिया कि अर्जुन है फिर लाभ ही लाभ है। गर्त के अनुसार पाण्डवों को फिर - बारह वर्ष के लिए बनवास भुगतना पडेगा ।" कर वहम्मला ने उत्तर से बस अब एक काम और उपर एक गठरी टगी है, Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहन्नला रण योद्धा के रूप मे .२३३ से उतार लाग्यो ।” "क्यो ?" "उस में कुछ हथियार बधे है ।" "नही, इस वृक्ष पर तो लोग कहते है, किसी बुढिया की लाश टगी है। मैं नही चढूंगा ।" : "राजकुमार । तुम क्षत्रिय कुल में जन्म लेकर भी इतने डरपोक क्यो हो ? वृक्ष पर चढ जाओ और देखो तो सही वह लाश है, श्रथवा शस्त्रो की गठरी । " 1... " माना कि उस मे शस्त्र ही है, तो भी रथ मे किन शस्त्रो की कमी है ? जो मुझे बेकार वृक्ष पर चढाते हो ।" of " तुम नही जानते राजकुमार । रथ के अस्त्र शस्त्र मेरे काम के नही । वृक्ष पर टगी गठरी मे ही मेरे काम के अस्त्र शस्त्र हैं । तुम चढो भी ।" "आखिर उस गठरी में ऐसे कौन से अस्त्र शस्त्र है जिन के विना तुम्हारा काम न चलेगा ।" . ८ मैं जानता हू कि उस गठरी मे पाडवो के अस्त्र शस्त्र है ।" यह बात और भी आश्चर्य जनक थी, उत्तर के लिए। उस ने कहा - "तुम तो ऐसी पहेलिया बुझा रहे हो कि अपनी तो समझ मे खाक नही प्राता ।" --- बृहन्नला ने एक वार आखें तरेर कर उसकी ओर देखा और कहीं -- "रांजकुमार ! तुम इतने कायर होगे, मुझे स्वप्न मे भी धाना नही थी ।" १ लाचार होकर उत्तर को उस वृक्ष पर चढना पडा । उन पर जो गठरी थी, उसे सूत्र देखभाल के पश्चात उतारा और मुह बनाते ए नीचे उतर ग्राया । बृहन्नला ने ज्योही गठरी खोली उसमे से सूर्य की भानि जगमगाने वाले दिव्यास्त्र निकले । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ . जैन महाभारत ...... उन अस्त्रो की जगमगाहट देखकर उत्तर की प्रांखें फैली को. फैली रह गई । जगमगाहट की चकाचौंध से अधा सा होकर कुछ देर वह यूही देखता रहा। फिर सम्भल कर वोला-"वृहानला। यह तो बडे विचित्र अस्त्र है।" . “इसी लिए तो इनकी मुझे आवश्यकता थी।" .. राजकुमार ने इन दिव्यास्त्रो को एक एक करके बड़े कौतूहले के साथ स्पर्श किया। इन दिव्यास्त्रो के स्पर्श मात्र से. राजकुमार उत्तर का भय जाता रहा और उसमे वीरता की विजली सी दौड़ . गई। उत्साहित होकर पूछा- "बृहन्नला सचमुच क्या यह - घनुष वाण और खडग पाण्डवो के है ? मैंने तो सुना था कि वे राज्य से वचित होकर जगलो मे चले गए थे और फिर १२ वर्ष बाद उनका कुछ पता न चला कि मर गए या जीते हैं। क्या तुम पाण्डवो को जानती हो? कहा है वे ?" तव वृहन्तला ने कहा-"राजा विराट की सेवा करने वाले कक ही युधिष्ठिर हैं ।" गजकुमार को असीम आश्चर्य हुआ। पूछा-"क्या सत्र ।' "हा, हा महाराज युधिष्ठिर वही हैं।" "अरे ?" "और रसोइया वल्लभ वास्तव मे भीमसेन है। और जिम का अपमान करने के कारण कीचक को मृत्यु का ग्रास बनना पड़ा वही रन्ध्री पांचाल नरेश की यशस्वनी राजकुमारी द्रोपदा है' अश्वपाल ग्रंथिक, और ग्वाले का कार्य करने वाला तंतिपाल पार पोई नही, नकुल तथा महदेव ही हैं।"-बृहन्नला ने कहा, जित सुनकर जहाँ राजकुमार को आश्चर्य हुआ, वहा हर्प भी। वह पूछ बैठा-"तो फिर वीर अर्जुन कहां है ?" . "अर्जुन तुम्हारे सामने उपस्थित है।" Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहन्नला रण योद्धा के रूप मे २३५ राजकुमार उत्तर ने ऑखे मल मल कर अपने सामने इधर उधर दूर तक देखा और फिर बोला-"कहां है वीर अर्जुन ?" "वह मैं ही हूं।" वृहन्नला की यह बात सुनकर राजकुमार खोया सा रह गया। बृहन्नला वेषधारी अर्जुन वोला-"राजकुमार ! धवरायो नही। अभी अभी मेरी वात की सत्यता का प्रमाण मिल जाता है। भीष्म, द्रोण, योर अश्वस्थामा के देखते देखते कौरव सेना को मैं अभी ही हुरा दूंगा, सारी गौए छुडा लाऊगा और तुम्हे यशस्वी वना दूगा." यह मुनते ही उत्तरे हाथ जोडकर अर्जुन को प्रणाम करके वोला--"पार्थ ! प्रापके दर्शन पाकर मैं कृतार्थ हुआ। क्या सचमुच ही मैं इस समय यगम्वो धनजय को अपने सामने देखें रहां हू? जिन्होने मुझे कायर मे बीरता का संचार किया क्या वे विजयी अर्जुन ही है ? नादानी के कारण यदि मुझ से कोई भूल हुई तो आप इस के लिए मुझे क्षमा करदे ". . कौरव मेनागों को देखकर कही फिर उत्तर घबरा न जायऔर उसे विश्वास हो जाय कि वास्तव में अर्जुन वही है, अर्जुन ने पूर्व युद्धो की कुछ मुख्य मुख्य घटनाए मुनाना प्रारम्भ करदी। इस प्रकार उत्तर को सन्तुष्ट करके तथा उसका माहम बढाकर अर्जुन ने रथ कौरव सेना के सामने ला खडा किया। चूडिया उतार फेंकी और अगुलि प्राण पहन लिये। खुले खुले केश मवार कर कपडे से कस कर बांध लिए। जिन प्रभु का ध्यान लगाया और गाण्डीन धनुष सम्भाल लिया। इसके पश्चात गाण्डीव पर डोरी चढाकर तीन बार टकार किया। जिसे सुनकर कौरव सेना के कुछ वीन के दिल दहल गए और कुछ हठात चीग्व उठे-"अरे यह तो अर्जुन के गाण्डीव की व्कार हैं।" कोग्र सेना टंकार को दो दशानो को गंजा देने वाली ध्वनि ने स्वस्थ भी न होने पाई थी कि अर्जुन ने बटे होकर अपने देव दत्त नामक गाँव की ध्वनि की, जिसमे कौरव सेना पर्ग उठी। म में बनवली मच गई विगर्जन प्रागया । Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *उन्नीसवां परिच्छेद* ...... ********** ** कौरवों के वस्त्र हरण 444444444 अर्जुन का रथ जब धीर-गभीर घोष करता हुी आगे वा तो धरती हिलने लगी। गाण्डीव की टंकार सुनकर और अर्जुन का मुकावले पर आना जानकर कौरव वीरो का कलेजा कांप उठा। - उस समय द्रोणाचर्य बोले , "सेना की व्यूह रचना सुव्यवस्-ि थत ढेग पर कर लेनी होगी। इकट्ठे होकर सावधानी मे लडना मालूम होता है सामने अर्जुन आगया है जिसके सामने माना जान कर ही हमारे सैनिक भयभीत होगए है।" प्राचार्य की गका और घबराहट दुर्योधन को “न सुहाई। वह कर्ण मे बोला-"पाण्डवो को अपनी शर्त के अनुसार १२ वर्ष बनवास और एक वर्ष अनात वास में व्यतीत करना था। परन्तु अभी तेहरवा वर्ष पूरो नही हया और अर्जुन प्रकट हो गया 1 हमार तो भाग्य ग्वुल गए। प्राचार्य को तो चाहिए कि वे अानन्द मनाव पर वे नो भय विह्वल हो गए है। बात यह है कि पाण्डवो 'का स्वभाव ही ऐसा होता है। उनकी चतुरता तो दूसगे के दोप निका लने में ही दिखाई पटती है। अच्छा यही होगा कि इन्हें पार.. कर हम आगे बने और म्वय सेना का मचालन करे।" वर्ण तो ठग दुर्योधन का धनिष्ट मित्र। उसकी हा महो मिनाना हा बोना-"विचिय बात है कि मेना के नायक तथा Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौरवो के वस्त्र हरण मुख्य योद्धा तक भयभीत है, कांप रहे हैं जब कि उन्हे दिल खोल कर लड़ना चाहिए। आप लोग यही रट लगा रहे है कि सामने जो न्थ आ रहा है उस पर धनुष ताने अर्जुन बैठा है। पर वहां अर्जुन के स्थान पर परशुराम भी हो तो हमे क्या डर है ? मैं तो अकेला ही उसका सामना करूगा और-यापको उस दिन जो वचन. दिया था उसे आज पूर्ण करके दिखाऊगा 1...सारी कौरव सेना और उस के सभी मेना नायक भले ही खड़े देखते रहे, चाहे गायो को भग़ा ले जायें, मै अन्त तक इटा रहूगा और यदि - वह. अर्जुन ही है तो अकेला ही उम से निबट ल्या।" -- - . कर्ण को यो दम भरते देख कर कृपाचार्य भेल्ली उठे। बोले- "कर्ण ! मूर्खता की बात न करी। हम मव को मिल कर अर्जुन का मुकाबला करना होगा, उसे चारों ओर से घेर लेना होगा। नहीं तो हमारे प्राणो की खैर नहीं। अर्जुन को शक्ति को मैं अच्छी प्रकार जानता हूँ। तुम अकेले ही उसके सामने जाने का दुस्माहस मत कर बैठना।" कर्ण को यह बात अपने गर्व तथा मान पर आघात प्रतीत हुई उसने चिढ कर कहा-"प्राचार्य जी तो अर्जुन की प्रगसा करते ही नहीं थकते। इन्हे अर्जुन की शक्ति बढा चढा कर दिग्बाने की आदत सी होगई है। न जाने उनको यह बात भय के कारण है अयवा अर्जुन के साथ अधिक प्रेम होने के कारण है। जो.हा. जो डरपोक है अथवा केवल उदर पूर्ति के लिए ही दुर्याधन के याश्रित है वे भले ही हाथ पर हाथ धरे खडे है न करे युद्ध या वापिस लौट जाय। में प्रकेला. हो इटा रहगा। जो शत्र को प्रगसा करते हैं या उमके भय वे मारे होवा हवास वो रहे है भला उनका यहा क्या काम .।" ., जब कर्ण ने प्राचार्य पर उम प्रसार अभियोग लगाया, सौर नाना मारा ना उनके भान अवस्थामा ने नहा गया। मन भना का पाहा--"कर्ण। अभी ता गाए ने करम हस्तिनापुर महा पहुंचे हैं। किरा तो तुम ने अनी नर चूछ नहीं और टीम 15 नो निणभरही। हम भने हा क्षत्रिर न हो, माप Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ जैन महाभारत ग्टने वाले तथा विक्षा देने वाले हो हो, पर राजायो को जुएं में हगकर उनका राज्य छीनने तथा वनो मे भटकने के लिए भेजने को वात हमने न क्षत्रियोचित धर्म मे देखो है ' और न शास्त्रों में पढी है। फिर जो लोग युद्ध के द्वारा राज्य जीतते हैं वे भी अपने मुंह मे अपनी डीगे नहीं हॉको करते। तुम लोगों ने कौनमा भार पहाड़ उठा लिया जो ऐसी शेखी बघार रहे हो?' अग्नि चुप चाप सब चीजो को पकाती है, सूर्य चुप चाप सब जगह प्रकाश करता हैं और पृथ्वी अखिल चराचर का भार वहन करती है। फिर भी यह सब अपनी प्रगसा आप नहीं करने। तब जिन क्षत्रिय वीरो ने ऋग्रा खेलकर राज्य छीन लिया है, उन्होने कौन-सा ऐसा पराक्रम किया है जो अपने मुह मिया मिठू बनकर फूले नहो समाते । जमे शिकारी जाल फैला कर भोली तथा. निरपराधो चिडियों को । फसा लेता है, इसी प्रकार तुम लोगो ने पाण्डवो को फंसाकर राज्य छीना, फिर इतनी लज्जा तो होनी ही चाहिए कि अपने मुंह से अपनी प्रशमा न करो।" दुर्योधन तिलमिला कर वोला-'अश्वस्थामा। ठीक हो। तो कह रहा था कर्ण। हम पाण्डवो से किस बात मे कम हैं : कर्ण की टक्कर का पाण्डवो मे है कौन? हम ने किसे धोखा दिया जो हग लज्जित हो'" . . - अवस्थामा ने तुरन्त उत्तर दिया गोमे शूरवीर हो तो बनायो किम युद्ध में पाण्डवो को हराया है आप लोगो ने? एक वस्त्र मे द्रौपदी को भी सभा के बीच खीच लाने वाले वीगे। बतायो तुम ने उसे युद्ध मे जीता था? लेकिन मावधान हो जाया आज यहा चोपड का मेल नहीं है जो शनि के द्वारा चालाकी में कोई पामा फेंका और राज्य हथिया लिया। प्राज तो अर्जुन के म.च रणांगण में दो दो हाथ करने का मवाल है अजन का गापडीव चौपड की गोटें नहीं फेंकेगा, बल्कि अपने बाणों की बौछार करेगा। वर्ण की धोम में काम चलने वाला नही है। यहां जिह्वा पी.नही बल नी लडाई है।" . :कर्णाध में मारे जलने लगा। गरजकर बोला-"प्रश्न Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौरवो के वस्त्र हरण २३९ स्थामा.! अर्जुन तो अर्जुन उसके साथ तुम जैसे उसके प्रशसक भी पा जाये तो कर्ण उनका डट कर मुकाबला करने वाला है।, चौपड के खेल की बात - उठाकर पाण्डवो की मूर्खता के प्रति सहानुभूति दर्शाने वाले योद्धा | राजा दुर्योधन की सेना मे खडे होकर शत्रु का पक्ष लेते हुए तुम्हे लज्जा नही आती।" "लज्जा तो उसे पाये जो दुर्योधन की चापलूसो करते हुए न्याय अन्याय मे भेद करना ही भूल गए। अथवा लम्बी चौडी. डोगे हाक कर युद्ध जोतने का स्वप्न देखे। मुझे लजा क्यो आने लगो है ?"..-अश्वस्थामा ने क्रुद्ध होकर कहा ।। दुर्योधन को अश्वस्थामा को खरी खरी बातो ने विचलित कर दिया। क्रोध के मारे कांपते हए उसने कहा - "अश्वस्थामा ! - प्राचार्य जी के कारण मैं तुम्हारी बातें सहन कर रहा है। वरना अभी ही इस मूर्खता का मज़ा चखा देता। तुम यह भी भूल गए कि अपनी बातो से किसे अपमानित कर रहे हो। स्मरण रक्खो कि ___ मैं अपमानित होने के लिए कभी तैयार नही है। जिस समय हस्तिना पर राज्य के धन से तुम आनन्द लूटते हो उस समय तुम्हे यह क्यो नही याद आता कि यह वही धन है जो उसी दुर्योधन की सम्पत्ति है जिस ने पाण्डवो को जुए में हराया है। ऐसे लज्जाशील हो तो पाण्डवो के साथ जाकर भीख मागते क्यों नहीं घूमते ?" - - : 'जिनके बल पर तुम अकडते हो, उनके लिए ऐसी बाते मुह से निकालते समय यह मत भूलो कि तुम सौभाग्य शाली हो कि 'आचार्यो के शुभ कर्मों के प्रताप से तुम्हारा पाप का घड़ा अभी तक हतिर रहा है।"-अश्वस्थामा ने विगड कर कहा ।... ... "देखते हो, प्राचार्य जी। अश्वस्थामा का दिमाग कितना बिगड़ गया है ?"-दुर्योधन ने कृपाप्राचार्य की ओर देखकर कहा । दर कौरव वीरो को इस प्रकार आपस मे झगडते और परिसिस्थिति चिन्ता जनक होते देख भीष्म पितामह बडे खिन्न हुए। के हस्तक्षेप करते हुए बोले-बुद्धि मान व्यक्ति कभी अपने आचार्य का अपमान नही करते। योद्धा को.चाहिए कि देश तथा कालको Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० जैन महाभारत देखने हुए उसके अनुसार युद्ध करे। कभी कभी बुद्धिमान भ्रम में पड़ जाते हैं। समझ दार दुर्योधन भी क्रोध के कार्य, भ्रम मे पड़ गया है और पहचान नही पा रहा है कि सामने सही वीर, अर्जुन है । अश्वस्थामा ! कर्ण ने जो कुछ कहा मॉलूम हाता है, वह प्राचार्य को उत्तेजित करने के लिए ही था। तुमे उसी बातों पर ध्यान न दो द्रोण, कृपा तथा अश्वस्थामा कर्ण तया दुर्योधन को क्षमा करे। सम्पूर्ण शास्त्रो का ज्ञान एव क्षत्रियोचित तेज प्राचार्य कृप, द्रोण, और उनके यशस्वी पुत्र अश्वस्थामा को छोड कर और किस मे एक साथ पाया जा सकता है। परशुराम को छोड कर द्रोणाचार्य की बराबरी करने वाला और कोनमा ब्राह्मण है ? यह अापस मे लडने झगडने तथा वाद विवाद करने का समय नहीं है। अभी तो हम सव को एक साथ मिलकर शत्रु का मुकाबला करना है। शत्रु सामने धनुष ताने खड़ा है और तुम सब लोग आपस मे झगड़ रहे हो, यह लज्जा को बात है ." : __ - पितामह के इस प्रकार समझाने पर आपस मे झगड़ रहे दुर्योधन, अश्वस्थामा आदि कौरव वीर शांत होगए। उस समय दुर्योधन ने कहा-'पितामह ! ग्राज बड़े हर्ष का अवसर है। पाण्डव अपनी-मूर्खता से फिर शिकार हुए। अजुन अनात वास की अवधि. पूर्ण होने से पूर्व ही प्रकट होगया।" " बेटा दुर्योधन ! अर्जुन प्रकट होगया वह ठीक है। पर उनकी प्रतिज्ञा का समय कल ही पूर्ण हो चुका। इस लिए तुम्हारा प्रसन्न होना व्यर्थ है।" -भीष्म जी ने कहा । "--नही पितामह अभी तो कई दिन गेप है।" ___ "-- तुम भूलते हो, दुर्योधन | पाण्डव कभी ऐमी भूल नह करने वाले।' "-परन्तु हमारे हिसाव से अभी तेहरवा वर्ष पूरा हुआ ह नहीं।" ___" "बेटी नन्द्र और सूर्य की गति, वर्प, महीने मोर १९ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २४१ कौरवों के वस्त्र हरण विभाग के पारस्परिक सम्बन्ध को अच्छी प्रकार जानने वालें, 7 ज्योतिषी मेरे कथन की पुष्टि करेगे । तुम लोगो को हिसाब मै कही भूल हुई है। इसी लिए तुम्हे भ्रम हुआ है । ज्यो ही अर्जुन ने अपने गाण्डीब: की टकार की मै समझ गया कि प्रतिज्ञा की बुधि पूर्ण होगई ।" - - भीष्म पितामह ने ऐसी बात कह कर दुर्योधन की प्रसन्नता पर धूल फेर दी । वह बोला- "पितामह ! खेद कि हम लगा सके। और अब अवधि पूर्ण होते ही हमे | रहा है। जिसकी मुझे आशंका थी वही हुआ । कर युद्ध का श्री गणेश समझिये जो वे मेरे विरुद्ध लिए. करेगे, " पाण्डवो का पता नअर्जुन से लडना पड़ आज तो उस भयराज्य छीनने के - "मेरा विचार है कि युद्ध प्रारम्भ करने से पहले यह सोच लेना चाहिए कि पाण्डवो के साथ सन्धि कर ले या नही, भीष्म पितामह गभीरता पूर्वक बोले- यदि सन्धि करने की इच्छा हो तो उस के लिए अभी समय है । बेटा, खूब सोच विचार कर बताओ कि तुम न्यायोचित सन्धि के लिए तैयार हो या नही ।" राज्य तो रहा इसी लिए देखिये | सामना "पूज्य पितामह ! मैं सन्धि नही चाहता । दूर मैं तो उसका कोई अश भी उन्हे नही दे सकता। सfघ की बात छोडिये अब तो लडने की तैयारी कीजिए। कितना सुन्दर अवसर है कि हमारी इतनी विशाल सेना का अकेला अर्जुन करेगा । यही उन मे सब से अधिक वीर हैं। ' - दुर्योधनयुद्ध मे हम इसे मार भगाए या इसका बध हो जाये तो फिर शेष चार भाइयो को कभी भी लडने का साहस नही हो सकता । ने कहा । यदि 66 "पाण्डवो ने अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण की है तो तुम्हे भी अपनी वरना रक्त पात होगा और प्रतिज्ञा पूर्ण करना ही श्रेयस्कर है । उसका परिणाम चाहे जो हो, परन्तु उसका उत्तर दायित्व तुम पर श्रायेगा । इस लिए यदि मेरी राय मानो तो सन्धि के लिए उद्यत Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ जैन महाभारत हो जाओ "~ भीष्म पितामह ने अपनी राय प्रकट करते है कहा। दुयोधन ने बात टालना ही लाभ प्रद जानकर कहा- "पितामह । शत्रु हमारे सिर पर खडा है; और हम ऐसे समय युद्ध करके सन्धि की वात चलाए यह अच्छी बात नहीं है। आप इस समय तो युद्ध की ही योजना बनाइये।" यह मुन द्रोणाचार्य बोले- भीष्म जी की राय ठीक होते हुए भी चूंकि हम तुम्हारी सहायता के लिए आये है, इस लिए तुम्हारी इच्छा पूर्ति के लिए हमारा कर्तव्य है हम युद्ध की योजना बनाये। अच्छा तो फिर सेना का चौथाई भाग अपनी रक्षा के लिए साथ लेकर दुर्योधन हस्तिना पुर की ओर वेग से कूच करदे। एक हिस्सा गायो को भगा ले जायें। शेष जो सेना रहेगी उसे हम पांच महारथी साथ लेकर अर्जुन का मुकाबला करे । ऐसा करने से ही राजा की रक्षा हो सकती है।' प्राचार्य की योजना कुछ वाद विवाद के पश्चात स्वीकृत हुई और फिर उनकी प्राज्ञानुसार कौरव वीरो ने व्यूह रचना की। उघर अर्जुन राजकुमार उत्तर से कह रहा था- "उत्तर सामने की शत्रु सेना मे दुर्योधन का रथ दिखाई नहीं दे रहा है। अभी अभी वह कही गुम होगया। कवच पहने जो खड़े है वे तो भीष्म पितामह है, लेकिन दुर्योधन कहाँ चला गया। इन महाथियो की ओर से हट कर तुम रथ को उस ओर ले चलो जहा दुर्योधन हो।" दुर्योधन भाग रहा होगा, भागता है तो भागने दो। आप को तो नौयो से मतन्न ।'उत्तर वोला। "मुभ भय है कि कही दुर्योधन गोगो को लेकर हस्तिना पुर पोपोर न भाग रहा हो।"-अर्जुन ने उत्तर दिया। उत्तर की समझ में बात आगई और उसने रथ उसी ओर हाम, दिम जिधर में दुर्योधन वापस जा रहा था। जागे बात Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौरवो के वस्त्र हरण २४३ अर्जुन ने दो दो बाण प्राचार्य द्रोण और पितामह भीष्म की ओर . इस प्रकार मारे कि जो उनके चरणों में जाकर गिरे। इस प्रकार अपने बड़ों की बन्दना करके अर्जुन ने दुर्योधन का पीछा किया। पहले तो अर्जुन ने गाये भगा ले जाने वाली सेना की टुकडी __ के पास जाकर बाण वर्षा की। तीव्र गति से हो रही बाण वर्षा के कारण सेना तनिक सी देर मे ही इस प्रकार तितरबितर हो गई जैसे मिट्टी के ढेलो की मार से काई। सैनिक प्राणो को लेकर भागने लगे और अर्जुन ने उनके अधिकार से गोमो को मुक्त करा लिया। फिर ग्वालो को गाये विराट नगर की ओर लोटा ले जाने का आदेश देकर अर्जुन दुर्योधन का पीछा करने लगा। अर्जुन को दुर्योधन का पीछा करते देख कर भीष्म आदि सेना लेकर अर्जुन का पीछा करने लगे और शीन ही उसे घेरकर बाणो की बौछार करने लगे। अर्जुन ने उस समय अद्भुत रण-कुशलता का परिचय दिया। सब से पहले उसकी कर्ण से टक्कर हुई। कितनी ही देरी तक कर्ण अवाध गति से बाण वर्षा करता रहा । अर्जुन तथा कर्ण का युद्ध देखकर कितने ही सैनिको के होश जाते रहे। कुछ ही देर बाद अर्जुन ने एक ऐसे दिव्यबाण का प्रयोग किया कि कर्ण घायल हो गया और फिर उसे सभलमे का तनिक सा भी अवसर न दे बाणो पर बाण मारता रहा। कर्ण बुरी तरह घायल हुआ और अन्त मे उसे भागते ही बना। F . तब द्रोणाचार्य ने उसे ललकारा-"अर्जुन | अब सम्भलो। - मावधानी से युद्ध करो।" अर्जुन ने वाण छोडकर प्रणाम किया और बोला-"गुरुदेव ! । आप भी सावधानी से सामने प्राइये। . . दोनो मे भयकर युद्ध होने लगा। कितनी ही देर तक दोनो ओर से बाण वर्षा होती रही। अन्त मे द्रोणाचार्य ने दिव्या. स्त्री का प्रयोग प्रारम्भ कर दिया, पर उन अस्त्रो को अर्जन वीच - ही में अपने अस्त्रो द्वारा प्रभाव हीन कर देता। फिर अर्जुन ने - दिव्यास्त्रो का आक्रमण किया, जिसे द्रोणाचर्य सभाल न पाये और Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ . जैन महाभारत उनकी बुरी गत होने लगी। हाथ पाव कांप उठे। यह देखकर अश्वस्थामा आगे बढा और अर्जुन पर बाण बरसाने लगा। अर्जुन । स्वयं नहीं चाहता था कि उसके हाथो गुरुदेव द्रोणाचार्य के सान कोई अशुभ घटना घटें, इस लिए उनकी ओर से हटकर अश्वस्थामा की ओर ध्यान प्रकट करके उसने द्रोणाचार्य को खिसक जाने के लिए मौका दे दिया। प्राचार्य भी ऐसे अवसर को खोना न चाहत थे, बह सुअवसर समझ शीघ्रता से खिसक गए। उनके चले जाने के पश्चात अर्जुन अश्वस्थामा पर टूट पड़ा। दोनों मे भयायक युद्ध होता रहा। द्रोणाचार्य के दोनो ही शिष श्रे, और अश्वस्थामा तो ठहरा उनका पुत्र! पर अर्जुन के आचार्य ने पुत्रवत शिक्षा दी थी। दोनो हो धुरन्धर योद्धा थे इस लिए प्रत्येक एक दूसरे को पछाडने के लिए प्रयत्न शील रहा परन्तु जब अर्जुन ने गाण्डीब द्वारा दिव्यवाणो की वर्षा प्रारम्भ का तो अश्वस्थामा के लिए मुकाबले पर टिक पाना असम्भव होगया -और कुछ ही देर मे अश्वस्थामा परास्त होगया। - तव कृपाचार्य की बारी आई। वे जाते ही क्रुद्ध होक अर्जुन पर टूट पडे। पर जिस वीर ने द्रोणाचार्य का साहस है । लिया था उसके सामने बेचारे कृपाचार्य क्या कर सकते थे। व पूरी शक्ति से लडे। जो भी अस्त्र शस्त्र उनके पास थे, पूरी शक्ति से उन्हे प्रयोग किया। परन्तु जब तक वे स्वय अपने सभी अस्त्र शस्त्रों को अदल बदल कर प्रयोग नही कर चुके, अर्जुन ने अपना वार न किया। अन्त में कुछ देर के लिए अर्जुन ने अपने अस्त्र आक्रमण के रूप मे प्रयोग किए और कृपाचार्य हार खा गए। ___ अंर्जुन को युद्ध कला की अच्छी शिक्षा मिली थी और था उस में अद्मत बल। वह निशाना मारने मे कभी चूकता नहा था, उसके हाथो मे बडी फुर्ती थी और उसके बाण, बहुत दूर तक मार कर सकते थे। जिसके कारण वह अपने शत्रुओं के बाणी का अप पास तक पहचने से पहले बीच हो मे तोड डालता था। अतए वह उन सभी वीरों को परास्त करने में सफल हुन्ना ओ.उम सामने आये। , Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौरवो के वस्त्र हरण ......... २४५ . . फिर अर्जुन ने उत्तर को लक्ष्य करके कहा- "जिस रथ पर मुवरामिय ताड के चिन्ह वाली ध्वजा लहराती है, उसी ओर मुझे ले चलो। वह मेरे पितामह भीष्म जी का रथ है, जो देखने मे देवता के समान जान पंडते है, परन्तु मेरे साथ युद्ध करने के लिए पधारें है।" - उत्तर का शरीर वाणो से घायल हो चुका था। परन्तु अभी तक वह किसी प्रकार यह सब घाव सह रहा था, क्योकि इस बात हो ने कि वह वीर 'अर्जुन का रथ हा के रहा था, एक असीम साहस भर दिया था। फिर भी उस समय वह काफी शिथिलता अनुभव कर रहा था। बोला-"वारवर | अब मै आप के घाडी पर नियन्त्रण नहीं रख सकता। मेरे प्राण सन्तप्त है, मन घबरा रहा है। आज तक कभी भी मैंने इतने वीरों को युद्ध रत नहीं देखा था। आप के साथ जब मैं इतने वीरों को लडते देखता हूँ तो मेरा हृदय विचलित हो जाता है। गदाओं के टकराने का शब्द, शग्वो की उच्च ध्वनि, वीरों का सिंहनाद, हाथियो की 'चिधाड तथा बिजली की गड गडाहट के समान गाण्डीव की टकार सुनते सुनते मेरे कान वहरे हए जाते है, स्मरण शक्ति क्षीण हो रही है। अब मुझ मे चावुक और बागडोर सभालने की शक्ति नही रह गई है।" अर्जुन ने उसे धैर्य वधाते हुए कहा-"नरश्रेष्ठ, डरो मत, तुम राजाविराट की वीर सन्तान हो। तुम पराक्रमी हो, मत्स्य नरेश के सर्व विख्यात वश के रत्त हो। सावधान होकर बैठे रहो धीरज रख कर घोडो पर नियन्त्रण रक्खो। वस थोडी देरी की बात और है मैं शीघ्न ही समस्त शत्रुयो पर विजय प्राप्त कर लूगा और फिर विजय पताका फहराता हग्रा गजध नी लौटगा। लोग जानेंगे कि करिव सेना पर विजय प्राप्त करने वाले यशस्वी एव पराक्रमो वार तुम्ही हा। फिर माग नगर तुम्हारी जय जयकार मनायेगा। राजा तुम्हारी वीरता को सुनकर गद गद हो उठेगे। देखो इतना बडा मान वस थोडे समय मे हो तुम्हे मिलने वाला है। तुम देखते जागो मकसे तीर चलाता ह, कैसे दिव्यास्त्रो का प्रयोग करता हूँ सभी का गहरो. दृष्टि से देवो, ताकि तुम भो भविष्य मे इसी प्रकार Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ जैन महाभारत युद्ध कर सकों। तुम ने अब तक जो साहस दर्शाया है वह प्रशस नीय है " . इस प्रकार अर्जुन ने उत्तर को. धीरज, बधाया। और फिर उत्तर साहस पूर्व के रथ को उसी ओर ले चला, जिधर भीष्म पितामह अपने अग रक्षको, सहयोगियो तथा साथी योद्धाओ के बीच खडे थे, अपनी ओर अर्जुन को आते देख कर निष्ठुर पराक्रम दिखाने वाले शातनु नन्दन भीष्म जी ने बड़े बेग से अर्जुन पर - वाण वर्षा-प्रारम्भ करके धीरता पूर्वक उसकी गति रोकदो। अर्जुन उन के बाणों को बीच ही मे काटता रहा. और कुछ ही देरी बाद एक ऐसा बाण मारा कि भीष्म जी के रथ की ध्वजा कट कर गिर पड़ी इसी समय महाबली दुशासन, विकर्ण, दु सह. और विविंशति इन चार ने आकर धनजय को चारो ओर से घेर लिया। दुशासन में एक बाण से विराट नन्दन उत्तर को बीधा और दूसरे से अर्जुन के छाती पर चोट की। इस से ऋद्ध होकर धनजय ने एक ऐसा तीख बाण मारा जिस से दुःशासन का सुवर्ण जटित धनुष काट दिया और फिर एक के बाद दूसरा तडातड पाच बाण उसकी छाती को निशा ना बनाकर मारे। उन पाच पैने बाणो की मार से कराहता हुआ दुशासन युद्ध छोड कर भाग खडा हग्रा। परन्तु तभी विकण अर्जुन पर बारा वर्षा करने लगा। कुछ समय तो अर्जुन ने उसक प्रहार मे अपनी रक्षा करने के लिए ही गाण्डीव का प्रयोग किया, पर एक वार उस के ललाट पर अर्जुन ने एक तीखा बाण मारा, जिसके लगते ही घायल होकर विकर्ण रथ से गिर पड।। तदनन्तर दुसह और विविति अपने भाई का वदला लेने के लिए अर्जुन पर वाणो की वर्षा करने लगे। पर दोनो के एक साथ प्रहार से भा अर्जुन तनिक मा भी विचिलत न हा. उस ने कुछ देर अपनी रक्षा की ओर दांव लगा कर ऐसे बाण चलाये, जो उन दोनी के वाणा को तोडते हए उस के घोडो, सारथी और स्वय उनके शरोग का बीधने में सफल हुए। · · वीर अर्जन द्वारा चलाए गए वाणो से जब दुसह आर विविंशति के घोड मारे गए और उनका शरीर लोहू-लुहान हागया तो उनके सेवक उन्हे युद्ध भूमि से हटा कर उचित चिकित्सा , Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौरको के वस्त्र हरण २४७ | पड गया, सारीत होगए, इससे हुए भी मृत लिए दूर ले गए। और जिसका कभी निशाना गलत न बैठता था, वह अर्जुन सेना मे चारो ओर प्रहार करने लगा। . धनजय के ऐसे पराक्रम को देखकर दुर्योधन की सेना के रोष रहे सभी वीर चारो ओर से अर्जुन पर टूट पड़े और एक साथ ही वाण चलाकर अर्जुन को इतना अवसर न दिया कि वह किसी पर वाण चला सके। अनेक स्थानो पर उस का कवच टूट गया पौर उसके शरीर मे कई घाव होगए परन्तु वीर अर्जुन तनिक सा भी हतोत्साहित न हुआ। उसने तुरन्त ही एक ऐसा बाण मारा, जो मेघाच्छादित आकाश मे कोधती बिजली की भाति चमका और उस के प्रभाव से कौरव वीर बेहोश होने लगे। कहीं आग सी बिखरी और कही दुगध ने वीरो को घेर लिया। घबरा कर कुछ वीर . प्राण लेकर वहा से भाग खड़े हुए। कुछ जीवित होते हुए भी मृत समान गिर पड़े। हाथी तक मूछित होगए, इस से सभी कौरवो का उत्साह ठण्डा पड़ गया, सारी सेना तितर बितर होगई और साहसी वीर तक निराश होकर इधर उधर चारो ओर भाग पडे । यह देखकर शान्तनुनन्दन भीष्म जी ने अपने सुवर्णजटित धनुष और मर्म भेदी बाण लेकर अर्जुन पर धावा कर दिया। सब से पहले उन्होने अर्जुन के रथ पर फहराती ध्वजा पर फुफकारते हुए सर्पो के समान आठ बाण मारे। जिससे ध्वजा तार तार हो गई। अर्जुन ने इस प्रहार के उत्तर मे एक लम्बे भाले से भीष्म जी का छत्र काट डाला, वह कटते ही भूमि पर आ गिरा और फिर , उनके सारथी को, घोडो को, ध्वजा को और पार्श्व रक्षकों को घायल १ कर दिया। भीष्म पितामह भला कैसे सहन कर सकते थे कि कोई हा उनके सामने आकर उनके रथ, सारथी, घोडो आदि को घायल कर कि दे और उसका कुछ भी न बिगड़े. उन्होने क्रुद्ध होकर दिव्यास्त्रो का प्रयोग करना आरम्भ कर दिया। इन के उत्तर मे अर्जुन ने ए भी दिव्यास्त्र प्रयोग किये । और इस प्रकार दोनों मे बडा रोमाच____ कारी युद्ध होने लगा। दुर कौरब भीष्म जी के रण कौशल को देखकर उनकी प्रशसा हान करते हुए कहने लगे- 'भीष्म जी ने अर्जुन के साथ जो भयकर Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ जैन महाभारत - युद्ध ठाना है, वह बडा ही- दुष्कर कार्य है। अर्जुन वलवान है, करुण है रण कुशल कोर फुर्तीला है, तभी तो डटा हुआ है, वरना कौन है जो भीष्म जी के प्रहारो के आगे इस प्रकार ठहर सके।" उस समय अर्जुन तथा भीष्म दोनो ने ही प्राजापत्य, ऐन्द्र, प्राग्नेय, रौद्र, वारुण, कौबेर, याम्य और वायव्य, आदि दिव्या स्त्रो का प्रयोग कर रहे थे। कभी भीष्म जी किसी अस्त्र से अग्नि वर्षा करते तो उसके उत्तर मे अर्जुन.बिना मेंघ के ही सावन भादों सी झडी लगा देते,. वर्षा होने लगती और भीष्म जी-एक अस्त्र मार कर उस वर्पा को तुरन्त वायु के वेंग से समाप्त कर देते.। कभी अर्जुन मूछित कर डालने वाला अस्त्र चलाता- तो भीष्म जी उस की प्रभावहीन करने के लिए कोई अस्त्र प्रयोग करके तुरन्त ऐसा वाण मारते कि चारो ओर धूल ही धूल के बादल दिखाई पडते। __अर्जुन तथा भीष्म जी सभी अस्त्रो के ज्ञाता थे। पहले तो इन मे दिव्यास्त्रो का युद्ध हा. इसके बाद वाणो का सलाम छिड़ा। अजुन ने भीष्म का सुवर्णमय धनुष काट डाला। तब महारया भीष्म जी-ने-एक ही-क्षण मे दूसरा धनुष लेकर उस पर प्रत्यका चडा दा और क्रुद्ध होकर वे अर्जुन के ऊपर बाणो की - वर्षा करने लगे। एक वाण- अर्जुन की वायी पसलीः मे लगा। परन्तु- अर्जुन के मह कोई चीत्कार न निकला। उस ने हसते हए तीखी- धार वाला एक वाण मारा, और भीष्म जी का धनुष दो टुकड़े. हागया। उसक बाद दस-वाण मार कर भोज्म-जो को छाती पर प्रहार किया, छाती पर कवच-टूट गया और भीष्म जी.का इतनी पीड़ा हुई कि वे रथ का कूवर थाम कर देर तक बैठे रह गए। भीष्म जी.को अचेत जान कर मारथी को अपने कर्तव्य की याद आ गई और वह रथ को युद्ध भूमि से दूर ले गया । DE Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * बीसवां परिच्छेद * दुर्योधन की पराजय ≪ 1 उस ने कान } . इस प्रकार भीष्म जी सग्राम का मुहाना छोड कर रण से बाहर हो गए, उस समय अर्जुन का रथ दुर्योधन की ओर बढा । दुर्योधन भी क्रुद्ध होकर हाथ मे धनुष के ऊपर चढ आया । ले अर्जुन + तक धनुष खीच कर अर्जुन के ललाट मे तीर मारा. और वह बाण = ललाट मे घुस गया, जिस से गरम गरम रक्त की धारा बह निकली । अर्जुन के ललाट को ही चोट नही पहुची, बल्कि उस के मान को भी ठेस पहुची। उसकी भुजाओ का रक्त उबल पडा और विषाग्नि के समान तीखे बाणो से दुर्योधन को बीधने लगा । दोनो मे भीषण युद्ध होता रहा । तत्पश्चात अर्जुन ने एक पैने बाणद्वारा दुर्योधन की छाती बीध डाली और उसे घायल कर दिया । तभी दुर्योधन के अग रक्षक वीर चारो ओर से टूट पड़े परन्तु अर्जुन ने सभी मुख्य मुख्य योद्धाओ को मार भगाया । " योद्धाओ को भागतेदेख दुर्योधन ने सभल कर आवाज लगाई - "वीरो । भागते क्यो हो ? ठहरो में अभी ही इस दुष्ट को ठिकाने लगाता हू । ठहरो, हम सब मिल कर इसे मार भगायेंगे ।" तभी अर्जुन ने एक दिव्यास्त्र छोड़ा जिससे चारो ओर घुआ ही धुआं छागया ! इस अद्भुत पराक्रम को देख कर कौरव वोरो के और भी पाव उखड गए और वे दुर्योधन को चिल्लाता छोड कर अपने प्राणो की रक्षा के लिए भागते ही रहे । तब दुर्योधन ने अपने को अकेला पाया और उसी समय अर्जुन ने एक ऐसा अस्य प्रयोग किया कि आग की लपटे तर T Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० जैन महाभारत बरसने सी लगी। दुर्योधन ने भी, तब तो अपने वीरों का अनुकरण श्रेयस्कर समझा और वह भी वहा से निकल भागा। अर्जुन ने देखा कि दुर्योधन घायल हो गया है और वह मुह से रक्त वमन करता बड़ी तेजी के साथ भागा जा रहा है। तब उसने युद्ध की इच्छा से अपनी भुजाए ठोक कर दुर्योधन को ललकारते हुए कहा--- 'धृप्टराष्ट्रनन्दन । युद्ध मे पीठ दिखा कर क्यो भाग रहा है? अरे, इस से तेरी विशाल कीर्ति नष्ट हो जायेगी। तेरे विजय के बाजे कैसे बजेगे? तूने जिन धर्मराज युधिष्ठिर का । गज्य छीन लिया और अपनी इस कपट पूर्ण विजय पर फूला नहीं। समाता, उन्ही का आज्ञाकारी यह माहयम पाण्डव, तो इस ओर खडा है, तनिक मुह तो दिखा। राजा के कर्तव्य का तो स्मरण कर। तुझे डब मरने को कदाचित उधर कोई ताल न मिले, आ मैं मौत का रास्ता दिखाऊ ! - ... अरे, तू तो भागा ही जा रहा है। हां, तेरा कोई रक्षक नही रहा, जल्दी भाग, मेरे हाथो क्या मरता है।" कह कर अर्जुन ने एक व्यग्य पूर्ण अट्टहास किया। इस प्रकार युद्ध मे अर्जुन द्वारा ललकारे जाने पर दुर्योधन को बडी लज्जा आई। उसके सम्मान को धक्का लगा था जिसे वह यूही सहन नही करने वाला था। वह चोट खाये हुए नाग का भाति पीछे लौटा। अपने क्षत विक्षत शरीर को किसी प्रकार संभाल कर वह अर्जुन के मुकाबले पर पाया और उस ने अपने वारा को पकार कर कहा-कौरव वीरो। तुम्हे अपने पौरुष की सौगंध । आज अर्जुन का गर्व चूर्ण किए विना गए ता तुम्हे जीने का कोई अधिकार नही। लौटा और युद्ध करो। दुर्योधन का जा भा मित्र, सहयोगी अथवा साथी हो, पाड़े समय पर काम आने का इच्छा रखता हो, यदि वह अभी तक जीवित है तो आये और ना साथ दे ।" इस पुकार को सुन कर युद्ध भूमि से दूर विश्राम करता, कण दुर्योधन की सहायता के लिए दौड़ पड़ा। उत्तर की ओर से * Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्योधन की पराजय देख, पश्चिम दिशाविशति और भी गए। इपर जल को आते देख, पश्चिम दिशो से भीष्म जी धनुष चढाये लौट पडे । द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, विविंशति और दु.शासन भी अपने अपने धनुष लिए दुर्योधन की रक्षार्थ युद्ध भूमि मे आ गए। इन सभी ने चारो ओर से अर्जुन को घेर लिया और जसे मेघ गिरि पर जल बरसाते है, इसी प्रकार यह सभी अर्जुन. पर बाण तथा दिव्यास्त्रं बरसाने लगे। अर्जुन अपनी रक्षा के लिए अपने दिव्यास्त्रो को तीव्र गति से प्रयोग करने लगा और अन्त मे, यह समझ कि उन सभी का, जो प्राणो का मोहत्याग कर अपनी सम्पूर्ण शक्ति से अाक्रमण कर रहे है, ऐसे ही सफल सामना दुर्लभ है, उस ने तुरन्त कौरवो को लक्ष्य करके सम्मोहन नामक अस्त्र प्रकट किया, जिसका निवारण होना कठिन था। उसी समय उस ने अपने हाथो मे भयकर आवाज करने वाले अपने शख को थाम कर उच्च स्वर से बजाया उसकी गभीर ध्वनि मे दिशा-विदिशा, भूलोक तथा प्राकाश गूज उठे उस समय बहत सभलते संभलते भी कौरव वीर मूछित होगए, उनके हाथो से धनुप और बाण गिर पड़े तथा वे सभी परम शात-निश्चेष्ट हो गए। तव उसे अपनी उस घोषणा का ध्यान आया, जो उसने राजकुमार उत्तर की ओर से रनिवास की स्त्रियो के सम्मुख की थी, और जिसका समर्थन स्वयं राजकुमार उत्तर ने अपनी गौरव पूर्ण मुस्कान से किया था। अत. उत्तर से कहा-"राजकुमार ! जब तक कोरच वीर सचेत नही हो जाते, तुम इनके बीच से निकल जागो और द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण, अश्वस्थामा तथा दुर्योधन आदि प्रमुख वीरों के ऊपरी वस्त्र उतार लो। मैं समझता हू कि पितामह भीष्म सचेत है क्यो कि वे इस सम्मोहनास्त्र का निवारण करना जानते हैं अत. उनके घोडों को अपनी बायीं ओर छोड़ कर जाना, क्योकि जो होश मे है, उन से इसी प्रकार सावधान होकर चलना चाहिए।" .. .. और हा दुर्योधन तथा कर्ण के वस्त्र भी ले आना" अर्जुन के ऐसा कहने पर राजकुमार उत्तर घोडों की बागडोर छोड कर रथ से उतर पडा और कौरव वीरो के वस्त्र उतार लाया । उन दिनों प्रथा के अनुसार वस्त्र हरण करना जीत का चिन्ह - Treat StI Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * इक्कीसवां परिच्छेद * *** ** पाण्डव प्रकट हुए पाराडवप्र 444444444 जब राजा विराट चार पाण्डवों की सहायता से विगत-राज मुशर्मा को परास्त करके नगर मे वापिस आये तो पुरवासियो ने उनका बडी धूमधाम से स्वागत किया। सारा नगर सजा हुआ था, जिधर से सवारी निकली पुप्प तथा मुद्राओ की वर्षा हुई। लोगो ने जय जयकार मनाई। विरुदावली गाई गई। अन्त.पुर मे तो उनका बहुत ही उल्लासपूर्ण स्वागत किया गया। पर जब उन्होने गजकुमार उत्तर को वहा न पाया तो उस के बारे में पूछ नाछ क । स्त्रियों ने बताया कि राजकुमार कौरवो से लडने गए है। उन स्त्रियों की प्राखो मे तो गजकुमार उत्तर कौरव सेना की कौन कहे सारे विश्व पर विजय पाने योग्य था, और इसी लिए वडे उल्लास से उन्होने राजा को यह शुभ समाचार सुनाया था परन्तु राजा तो इस समाचार को सुन कर ही एक दम चौंक पड़ । उनके विशेष पूछने पर स्त्रियो ने सारा वृत्तात, कौरव सेना का आक्रमण, गाए चुराना, ग्वालो की टेर, और वहन्तला को सारथा वनावर राजकुमार उत्तर का युद्ध के लिए जाना यह सभी कुछ वताया। राजा चिन्तित हो उठे। दुखी होकर बोले - "राजकुमार उत्तर ने एक हीजडे को साथ लेकर यह बड़े दुस्साहस का कार्य किया है। इतनी बडी सेना के सामने पाखं मूद कर ही कूद Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाण्डव प्रकट हुए २५५ 4-+ पढा। कहा कौरवो की विशाल सेना, उसके यशस्वी रणकुशल वीर सेनानी और कहा मेरा सुकोमल प्यारा पुत्र ? अब तक तो वह कभी का मृत्यु के मह में पहुंच चुका होगा। इस मे कोई सन्देह ही नही है ।"-कहते कहने बूढे राजा का कण्ठ रु ध गया। स्त्रियो को यह देख कर बडा ही आश्चर्य हुअा । राजा ने अपने मत्रियो को आज्ञा दी कि सारी सेना ले जाय और यदि राजकुमार जीवित हो तो उसे सुरक्षित यहा ले आये । मन्त्रियो ने तुरन्त आदेश का पालन किया। सेना चल पड़ी, राज कुमार को खोजने : राजा का हृदय पुत्र प्रेम मे फटा जाता था, वे बडे बेचैन थे। उन्होने कहा-"हाय । दुख एक साथ किस प्रकार टूटा है कि उधर सुशर्मा ने आक्रमण किया और इधर कौरवो ने। मैं तो किसी प्रकार वच आया पर हाय मेरा पुत्र मेरे हाथों से गया।" इस प्रकार शोकातुर होते देख कर सन्यासी वेष धारी कक ने उन्हे दिलासा देते हुए कहा- “आप राजकुमार की चिन्ता न करे। वृहन्नला सारथी बन कर उन के साथ गई हुई है। उसे आप नही जानते, मै भलि भाति जानता हू। जिस रथ की सारथी बृहन्नला . होगी, उस पर चढ कर कोई भी युद्ध मे जाय, उसकी अवश्य ही जीत होगी। इस लिए आप विश्वास रक्खे, राजकुमार विजेता होकर ही लौटेंगे। इसी बीच सुशर्मा पर आपकी विजय का समा-- चार पहुंच गया होगा, उसे सुन कर भी कौरव सेना मे भगदड़ मच.. गई होगी। आप चिन्ता न करें।" ___"नही, कक ! मेरा बेटा अभी बडा कोमल है, वह इतने वीरो के सामने भला क्या कर सकता है। और बृहन्नला कुछ भी क्यो न हो, है तो हीजडा ही। उस के बस की क्या बात है।" राजा ने कहा। "पाप क्या जाने ? बृहन्नला कितनी रणकुशल है ?" .. Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ जैन महाभारत - कितनी भी हो अवेला चना-क्या भाड- फोडेगा?" इसी प्रकार कक तथा राजा के मध्य वार्ता चल रही थी कि उत्तर का भेजा हुआ समाचार मिला-"राजन् । आप का कल्याण हो। राजकुमार जीत गए। कौरव सेना भाग गई। गाये छुडा लो गई।' यह सुन कर विराट पाखे फाड कर देखते रह गए। उन्हे विश्वास ही न होता था कि अकेला उत्तर सारो कौरव सेना को जीत सकेगा। वह अपने पुत्र के वास्तविक बल को जानते थे। 'और उन्हे यह भी विश्वास था कि जिस सेना का संचालन जगत विस्मात रण विद्या शिक्षक गुरू द्रोणाचार्य, देवता स्वरूप महान तेजस्वी भीष्म, साहसी रण कुशल कृपाचार्य महाबली दुर्योधन और असीम साहस के धारणकर्ता दानवीर कर्ण के हाथो में हो उसे परास्त करना, असम्भव को सम्भव कर दिखलाने के समान है। वे जानते थे कि यह वीर अर्जुन के अतिरिक्त और किसी के बस की बात नहीं है परन्तु उन्होने अपने कानो से ऐसी बात सुनी थी, जिस पर कदाचिन कोई विश्वास न करेगा। इस लिए उन्हे अपने कानो पर अविश्वास होने लगा। __ पूछ बैठे-"क्या कहा ? क्या मेरे पुत्र उत्तर ने कौरव वीरो को परास्त कर दिया ? क्या यह सही है ?" -दूत बोला "जी महाराज! आप के राजकुमार ने कौरव सेना को मार भगाया। युद्ध मे भीष्म, द्रोणाचार्य, कर्ण, विकर्ण, दुर्योधन विविंशति, दु शासन, दुसह आदि सभी महारथी बुरी. तरह घायल हुए। उन्हो ने जितनी गौए हाक ली थी, सभी छुडा ली गई और अव राजकुमार कौरव वीरो के वस्त्र हरण करके विजय पताका फहराते हुए नगर लौट रहे है ." राजा विराट इस समाचार को पुन सुन कर मारे उल्लास के उछल पड़े और अपने मन्त्रियो को सम्बोधित करते हए वोलेजायो राजकुमार के स्वागत के लिए सारा नगर दुल्हन की भाति सजवा दो। निर्धनो को मुह मांगा दान दो। जेलो मे सड़ रहे Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाण्डव प्रकट हुए बन्दियो को मुक्त कर दो। नगर वासियो से कहो कि वे दीप राज प्रसाद का शृंगार कराओ और मालिका का उत्सव मनाए । राजकुमार का अभूत पूर्व स्वागत करो।" २५७ मन्त्रियों ने ग्राज्ञा पाकर समस्त प्रबन्ध कर दिया । कक ने उस समय कहा - 'राजन् । देखिये मैंने कहा था ना, कि राजकुमार के साथ बृहन्नला है तो फिर आपको चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं है। बृहन्नला के होते कौरव वीरों की क्या मजाल कि जीत सके । श्राप नही जानते राजन् । कि बृहन्नला रण कौशल मे कितनी प्रवीण है। वह तो शत्रुओ के लिए पराजय का सन्देश समझिए ।" किन्तु विराट तो अपने लाडले के पराक्रम पर गर्व कर रहे थे, उन्होने कहा - " कक, बृहन्नला तो नपुंसक है, उसे रण कौशल .. की क्या तमीज और यदि वह कुछ जानती भी हो तो भो उसे तो रथ ही हाकना था, युद्ध तो राजकुमार ने ही किया होगा । विजय मे बृहन्नला का क्या हाथ है ? इस . " राजन् ! मैं फिर कहता हू बृहन्नला के सामने तो देवराज इन्द्र तथा श्रीकृष्ण के सारथी भी नही ठहर सकते 1 और यदि कही युद्ध मे उसके मुकाबले पर देवता भी उतर श्राये तो भी विजय बृहन्नला की हो। उसी महाबली बृहन्नला के कारण आपके पुत्र की विजय हुई - " कक ने बृहन्नला को विजय का श्रेय देते हुए जोरदार शब्दों मे कहा । "नही, नही. शिशु सिह उत्तर का मुकाबला अब कोई नही कर सकता, यह प्रमाणित हो गया- “राजा विराट ने कहा और तभी एक दासो को बुला कर उन्होने कहा - "आज हम बहुत प्रसन्न हैं। यह समझ मे नही आता कि हम अपनी प्रसन्नता को कैसे प्रकट करें । जाम्रो जरा चौपड़ की गोटे तो ले आओ, इस खुशी मे कक से दो दो हाथ ही हो जायें I आज खुशी के मारे मैं पागल हुआ जा रहा हू । " दासी ने तुरन्त श्रादेश का पालन किया। दोनों खेलने बैठ गए Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " २५८ जैन महाभारत और खेलते समय भी बाते होने लगी । विख्यात कौरव वीरो को " देखा, राजकुमार का गौर्य ? अकेले मेरे बेटे ने ही परास्त कर दिया । भीष्म, द्रोण, कृप, कर्ण और दुर्योधन, अहा, हा, हा सब की वीरता, ख्याति तथा निपुणता धरी की धरी रह गई - विराट ने कहा । 1 " नि. सन्देह आप के पुत्र भाग्यवान है. नही तो उन्हे वृहन्नला . जैसी सारथी कैसे मिलती ? राजकुमार की वीरता, और उस पर भी वृहन्नला जैसी सारथी का साथ, दोनो ने मिल कर कौरवो का अभिमान भंग कर डाला - "कक बोले | विराट भुला कर बोले - " ब्राह्मण | आपने भी क्या बृहन्नला वृहन्नला की रट लगा रखी है ? मै अपने महावीर राज कुमार की बात कर रहा हू और आप हैं कि उस हीजडे के सारथीपन की बड़ाई कर रहे हैं ।" कक ने गम्भीरता पूर्वक धीरज से कहा - " राजन् | आपको सत्य के मानने मे कोई आपत्ति नही होनी चाहिए। बृहन्नला को प्राप साधारण सारथी न समझे वह जिस रथ पर बैठेगी उस पर कोई साधारण से साधारण रण योद्धा चाहे क्यो न सवार हो, पर विजय उसी की होगी। आज तक उसके चलाए रथ पर युद्ध मे जाकर कोई विजय प्राप्त किये लौटा ही नही । यह उसके शुभ कर्मों, ज्ञान तथा निपुणता का प्रभाव है, जिसे वे सभी मानते हैं जो उसकी वास्तवि-कता से परिचित है।" कक की बात पर राजा विराट को बहुत क्रोध आया और उसने अपने हाथ का पासा कक (युधिष्ठिर) के मुह पर दे मारा और बोला -कक 1 खबरदार जो फिर ऐसी बाते की । जानते हो तुम किस से बाते कर रहे हो ? - ܕܕ पांसे की मार से युधिष्ठिर के मुख पर चोट आई और खून बहने लगा । सौरन्ध्री उस समय वहा उपस्थित थी, उस ने जब कक (युधिष्ठिर) के वदन से रक्त बहते देखा तो दौड़कर अपनी साड़ी से उसे माफ करने लगी । पर साडी का वह कोना, जिस से रक्त Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाण्ड470 पोछा गया था, रक्त से तर हो गया। तब पास ही मे रक्खे एक सोने के प्याले मे उस ने रक लेना प्रारम्भ कर दिया, ताकि रक्त की धारा फर्श तथा कपडो को न खराब करदे। यह देख राजा विराट ने प्रावेश मे आकर कहा "सौरन्ध्री। यह क्या कर रही है । सोने के प्याले मे रक्त भर रही है ? क्यो ?” । - सौरन्ध्री बोली- “राजन् । आप नहीं जानते कि आप ने -कितना भयकर अनर्थ कर डाला। जिनके बदन से रक्त बह रहा है, वे कितने महान व्यक्ति हैं, आप को नही मालूम। यह इसी योग्य है कि इनका रक्त सोने के प्याले में लिया जाय । राजा विराट को सौरन्ध्री की बात अच्छी न लगी। वे दात पीसने लगे। उस समय एक दूत ने पाकर सूचना दी कि राजकुमार उत्तर रण भूमि से वापिस पागए हैं। और उसी समय राजा ने स्वय राजकुमार के स्वागत मे वजा रहे मागलिकवाद्य यत्रो की ध्वनि सुनी। जय जयकार की ध्वनि गंज रही थी। और बाजों के स्वर चारो ओर सुनाई दे रहे थे। राजा उल्लास पूर्वक अपने बेटे का स्वागत करने के लिए उठ और बाहर चल दिए, परन्तु उसी समय राजकुमार उत्तर वहां पहुच गया। उसने पिता को सादर प्रणाम किया। राजा ने उसे अपनी छाती से लगा लिया। राजकूमार की दृष्टि कक की ओर गई। उनका मह लहलुहान देख कर उस ने कहा-"पिता जी ! इन्हे क्या हया? "वेटा! तुम्हारी विजय की सूचना पाकर जब हम अपना हादिक उल्लास प्रकट कर रहे थे, उस समय यह महाशय बार वार बृहन्नला 'की प्रशसा के पुल बाध रहे थे। इन का विचार था कि विजय बृहन्नला के कारण हुई, इस मे तुम्हारी वीरता का कोई हाथ नही। जव यह बात सुनते सुनते मेरे कान पक गए तो मैंने इनकी जबान बन्द करने के लिए आवेश मे आकर इनके मुहापर पासा फेक दिया। बस उसी से रक्त चह निकला। और कोई बात नहीं है ."-राजा ने कहा । । पिता की बात सुनकर राजकुमार उत्तर भय के मारे कांप उठा। उसकी चिन्ता की सीमा न रही। क्योकि वह तो जानता Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० . जैन महाभारत था कि कक वास्तव मे कौन है। बोला-पिता जी! आपने इन धर्मात्मा के साथ यह व्यवहार करके घोर पाप कर डाला। ऐसा - पाप किया है आप ने कि इसका फल आपको क्या भोगना होगा, मैं नही जानता कि यह दास रूप मे आज भले ही है,पर वह हैं:एक महान आत्मा। आप अभी ही इनके पैर पकड़ कर क्षमा याचना कीजिए, अपने किए पर पश्चाताप कीजिए, वरना ऐसे शुभ कर्मों वाले महा पुरुष के साथ अन्याय करने के फल स्वरूप, सम्भव है हमारा वश ही समाप्त हो जाये।" पुत्र की बात सुन कर राजा को बडा आश्चर्य हुआ ! अपने से कंक के प्रति ऐसी पुत्र की भावना का रहस्य उनकी समझ मे न आया । बोले-"तुस कैसी बातें कर रहे हो। मेरी तो समझ मे कुछ नहीं आता। कक भले ही विद्वान हो पर इस का यह अर्थ तो नही कि अपने स्वामी की बातो को झटलाए और तुम जैसे वीर के शौर्य को एक हीजड़े के सामने नगण्य सिद्ध करे।" । "पिता जी! आप नही जानते कि कंक कौन है। जब • आप जानेंगे तो स्वयं लज्जित होंगे। आप मेरे कहने से ही इन से क्षमा याचना करें।" उत्तर की बात सुनकर राजा सोच में पड़ गए। परन्तु जब से उन्होंने राजकुमार की कौरव वीरो पर विजय का समाचार सुना • था तभी से वे राजकुमार का हृदय से आदर करने लगे थे. इस लिए जब वार वार उत्तर ने आग्रह किया तो उन्होने कक से क्षमा याचना - को। __ रोजा विराट ने बड़े प्रेम तथा आदर से उत्तर को अपने पास विठा लिया और बोले - "वेटा ! अब तुम बताओ कि तुमने कोरव वीरों के साथ कैसे युद्ध किया? उन्हे कसे परास्त किया ? युद्ध म क्या क्या हया? मैं तुम्हारी वीरता की सारी कथा सुनने की लालायित हूं।" उत्तर ने कहा-"पिता जो! वास्तविकता यह है कि मन Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाण्डव प्रकट हुए २६१ कोई सेना नही हराई। मैंने कोई गौ नही छुड़ाई। राजकुमार की बात सुन कर राजा की आँख फैल गई। "क्या कह रहे हो तुम?" "ठीक ही कह रहा हू पिता जी।" "तो फिर कौरव सेना को किस ने मार भगाया ?" "वह तो किसी देव कुमार का चमत्कार था। उन्हो ने हो कौरव सेना को तहस नहस करके गौए छुडा ली। मैं तो बस देखता ही रहा।" बडी उत्कठा के साथ राजा ने पूछा-"कौन था वह देव कुमार ? कहा हैं वह ? उसे अभी ही बुला लाओ। मैं उस के दर्शन कर अपनी आखें धन्य करना चाहता हू, जिसने मेरे पुत्र को मृत्यु के मुह से बचाया और मेरे शत्रु को परास्त कर के हमारा गौधन उन से मुक्त करा लिया। मुझे बतायो वह कौन है। मैं स्वय उसके दर्शन करूगा ।" "पिता जी! वह महान अात्मा अचानक प्रकट हुए और अपना चमत्कार दिखा कर अनायास ही अतद्धान होगए। सम्भव है शीघ्न ही पुन यही प्रकट हो।"- राजकुमार बोला। उस ने यह वात इस लिए कही कि अर्जुन ने उस से उसके बारे मे कुछ न बताने का वचन ले लिया था। राजकुमार की विजय के उपलक्ष मे राज्य मन्त्रियो ने एक विशेष उत्सव का आयोजन किया, जिस मे राजा के सभी प्रमुख ' व्यक्तियो, सेना के मुख्य नायको और मुख्य कर्मचारियो को निमनि१ त्रत किया। उस विशेष दरबार मे राज्य के कोने कोने से प्रसिद्ध । प्रसिद्ध कलाकार निमन्त्रित किए गए थे। सभास्थल बहुत ही मनमोहक एव आकर्षक ढग से सजाया गया था। नृत्य तथा अन्य कला प्रदर्शनो का भी प्रबन्ध था। वह उत्सव राज्य के इतिहास मे Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत अभूतपूर्व ही था। नगर के मुख्य व्यक्ति अपने अपने लिए नियुक्त आसनो प विराज मान थे कि कक, बल्लभः ततिपाल, ग्रथिक और बृहन्नल ने सभा स्थल में प्रवेश किया। सभी उपस्थित लोगो की दृष्ि उन पाचो की ओर गई। वे सभा मे उपस्थित लोगों, नगर प्रमुख व्यक्तियो, राज्य कर्मचारियो, सेना, नायको तथा अर उपस्थित प्रतिष्ठित लोगो के बीच से निकलते हुए राजकुमारो । -नियत आसनो पर जा बैठे। इस बात को देख कर सभी उपस्थि सज्जनो मे खलबली सी मच गई। यह एक अनहोनी घटना थी कहा सेवक और कहा राज कुमार ? राजकुमारो के यासन प सेवको के वैठ जाने से सभी का आश्चर्य स्वभाविक ही था। सः आपस में कानाफूसी करने लगे। कोई उनकी आलोचना कर रह था तो कोई कह रहा था- “भई, इन लोगो की सेवाओ से राज वहुत प्रसन्न होगे। क्या पता सुशर्मा को परास्त करने मे इन । मिले सहयोग तथा युद्ध मे इनकी वीरता से प्रसन्न होकर राजा उन्हे इस आसन पर बैठने की अनुमति दे दी हो। राजाओ क क्या है जिसको सम्मानित करना हो उसे किसी प्रकार भी मम्मा , दे सकते है।" परन्तु उन पाँचो के इस प्रकार निर्भय होकर राजकुमारा' स्थानो पर बैठ जाने से सभी उपस्थित व्यक्ति उनके विषय में कुछ न कुछ चर्चा अवश्य ही करने लगे। पर वे थे कि अपने आमन पर ठाठ से बैठे थे। मानो वे उन पर बैठने के पूर्ण रुपेण अधि कारो हो। कुछ ही देर बाद चोवदारों ने आवाज लगाई - "सावधान ''अनुशासन, मत्स्य राज्य के नरेश यशस्वी, कर्मवीर, न्यायी, प्रताप. विराट महाराज पधार रहे है।' सभी उपस्थित व्यक्ति उनके सम्मान में सिर का कर खडे होगए। राजा पाये और उपस्थित सज्जना का अभिवादन स्वीकार करके अपने लिए नियतं उच्च आसन पर विराजमान हए। समस्त लोग अपने अपने ग्रासनो पर बैठ गए। सजा ने चारो ओर विराजित निमश्रित व्यक्तियो पर दृष्टि डाला। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाण्डव-प्रकट हुए २६३ और जब उनकी नजर उन पाचो (पाण्डवो) पर पडी। उन के कोष का ठिकाना न रहा। रोम रोम मे चिनगारिया जल उठी। डो कठिनाई से वे अपने को नियन्त्रित कर पाये। जी मे आया के वे उन से इस धष्टता के लिए सारे दरवार के सामने ही उत्तर सागे और दण्ड स्वरूप धक्के देकर वहा से निकलवा दे। पर उसी पमय उन्हे उन पाचो की सेवायो का ध्यान आया। उन्हे सुशर्मा के मुकाबले पर इनका पराक्रम'स्मरण हो आया। इस लिए वे स्वय अपने पासन से उठे और उनके पास जाकर पूछा आप लोग जानते है कि यह आसन किन के लिए है ?" भीमसेन बोल उठा--"जी।" "तो फिर आप लोग इन आसनो पर कैसे आ बैठे ?" क्यों कि यह हमारे जैसो के लिए ही हैं।" -भीम ने उत्तर दिया। "क्या आप लोग नहीं जानते कि यह राज कुमारो के बैठने का स्थान है ?" 'ज्ञात है ." __ "तो फिर आप का यह साहस कैसे हुआ कि सेवक होकर राज कुमारो का स्थान ग्रहण करे " "क्यों कि हमे इन स्थानो पर बैठने का अधिकार है।" वह कैसे ?"-आवेश में आकर राजा ने पूछा। "हम राजकुमार जो ठहरे "-भीम बोला। "दिमाग तो खराब नही हुआ ?" 'दिमाग खराव हो हमारे शत्रुओं का। हम तो अपना स्थान स्वय पहचानते है।" "मैं आप लोगो की सेवायो से सन्तुष्ट है। इस लिए आप को Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत इस धृष्टता के लिए क्षमा करता हू और आदेश देता हूं कि आप तुरन्त यह स्थान रिक्त करले ।" "और यदि हम ऐसा न करे तो... .. राजा दात पीसने लगा। क्रुद्ध न होइये। आप यह बताइये कि यदि कोई अपना उचित स्थान स्वय ग्रहण करले, तो क्या वह अपराध करता है ?" "लेकिन आप लोग सेवक है राजकुमार नही ।" "आप की सेवा करते रहे तो इसका यह अर्थ तो नहीं कि हम राजकुमार ही नही रहे ।" . . . "अच्छा प्राप,ऐसे नही मानेगे?" "देखिये आप हमे सेवक समझना ही छोड दे तो अच्छा है।" - "तो क्या समझू आप को?", ", .. "यही कि हम पाँचो राजकुमार है।" "भाँग तो नही खाली है ?" "यदि यही प्रश्न कोई आप से करे ?" । "तो उसका उत्तर बल पूर्वक दिया जायेगा। आप लोग मुझे । वल प्रयोग के लिए विवश न करे।" ___ इस प्रकार वातो-बातों में ही झझट खडा होते देख युधिष्ठर (कक) ने बीच में हस्तक्षेप करना आवश्यक समझा और वे वोले---राजन् ! आप रुष्ट न हों। भीमसेन ठीक कहता है।" भीम का नाम सुन कर राजा विराट आश्चर्य चकित रह गए। बौले--"भीमसेन कौन ? "पाप भीम सेन को नही जानते ?" Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाण्डब प्रकट हुए "क्यो नही ? परन्तु क्या यह भीमसेन है ?" "जी हा।" भीमसेन ने कक की ओर सकेत करके कहा--"और यह है महाराज युधिष्ठिर ।" फिर तो महाराज युधिष्ठिर ने अपने सभी भ्राताओ का परिचय दिया और यह भी बता दिया कि इतने दिनो सेवको के रूप मे वे सब क्यो रहे - अर्जन ने फिर सारी सभा को अपना परिचय दिया। जब । लोगो को पता चला कि सेवको के रूप मे पाण्डव हैं तो सारी सभा मे कोलाहल मच गया। सभी के चेहरे खिल उठे। चारो ओर आनन्द एव उल्लास छा गया। पाण्डवो की जय जयकार मनाई गई। राजा विराट का हृदय कृतज्ञता, आनन्द तथा प्राश्चर्य से तरगित हो गया वे सोचने लगे, पाचो पाण्डव और राजा द्रुपद की पूत्री मेरे यहा सेवा टहल करते हए अज्ञात होकर रहे, इन्हो ने मेरे तथा मेरे पूत्र के प्राणो की रक्षा की, मैंने उन्हे साधारण सेवको की भाति रक्खा, फिर भी कभी भी उन्हो ने मेरी अवज्ञा न की मैं कैसे इन सबका बदला चुकाऊ? मैंने महाराज युधिष्ठिर के मुह पर पासा फेक कर मारा, फिर भी वे आज्ञाकारी सेवक की भाति सहन कर गए; द्रौपदी के साथ कीचक तथा उपकीचको · ने . अन्याय किया, पर मैंने उस की सहायता न की और फिर भी पाण्डव सब कुछ सहन कर के आज्ञाकारी सेवक बने रहे, इन सव वातो के लिए कैसे उन के प्रति कृतज्ञता प्रकट करू? यह सोच कर राजा विराट का जी भर आया। वे युधिष्ठिर से वार वार ', गले मिले और गद गद होकर कहा- मैं आप का ऋण कसे चुकाऊ ? मेरा यह सारा राज्य आपका है। मैं आपका अनुचर उई वन कर कार्य करूगा। यदि मुझ से कोई भूल होगई हो तो क्षमा करें। युधिष्ठिर ने प्रेम पूर्वक कहा--"राजन् । मैं आपका बहुत Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन महाभारत आभारी हं। राज्य तो आप ही रखिये। आप ने पाडे समय पर हमें जो आश्रय दिया, वही लाखो राज्यो के बरावर है।" विराट ने कुछ सोचने के बाद अर्जुन से आग्रह किया कि आप राजकन्या उत्तरा से विवाह करले । अर्जुन ने उत्तर दिया--"राजन् ! आप का बड़ा अनुग्रह है। परन्तु मैं आप की कन्या को नाच तथा गाना सिखाता रहा हू अतः वह तो मेरे लिए बेटी के समान है। अतएव मेरे लिए यह उचित नही कि अपनी शिष्या के साथ विवाह करू।" लेकिन मैं तो चाहता हु कि अपनी कन्या का विव आप ही। के परिवार मे सम्पन्न करके एक भार से मुक्त हो जाऊ, आप के परिवार से एक सशक्त सम्बन्ध स्थापित करके धन्य हो जाऊ और आपको सेवा करके अपने को कृत्य कृय करल "राजा विराट ने विनीत भाव से कहा। अर्जुन कुछ देरी के लिए विचार विमग्न हो गया और अन्त मे कहा--"यदि आप की यही इच्छा है तो आप अपनी कन्या को मेरे पुत्र अभिमन्यु की सहर्धामणी बना सकते हैं। इस सम्बन्ध को मैं सहर्ष स्वीकार कर लूगा।" __राजा विराट ने अर्जुन का प्रस्ताव सहर्ष स्वीकार कर लिया और इस के लिए हार्दिक आभार प्रगट किया। अभी यह बातें हो ही रही थी कि एक चोवदार ने प्रवेश किया राजा तथा पाण्डवो का अभिवादन कर के उसने कहा-'महाराज ' हस्तिना पुर नरेश दुर्योधन की ओर से एक दूत कोई विशेष सन्देश लेकर आया है। और महाराज युधिष्ठिर से मिलना चाहता है।" ___ "उसे सादर व ससम्मान यहा ले आयो " युधिष्ठिर न । आज्ञा दी। दूत ने आकर राजा विराट तथा पाण्डवों को प्रणाम किया। युधिष्ठिर ने पूछा--"काहये, आप कहा से पधारे ?" "मुझे महाराज दुर्योधन ने एक सन्देश लेकर भेजा है।'उसने कहा। Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाण्डव प्रकट हुए २६७ _ 'क्या सन्देश है "? “गाधारी पुत्र ! महाराज दुर्योधन का कहना है कि आप को प्रतिज्ञा के अनुसार १२ वर्ष बनवास तथा १ वर्ष अज्ञावास करना था। पर उतावली के कारण प्रतिज्ञा पूर्ति के पहले ही अर्जुन पहचाने गए हैं। अतएव शर्त के अनुसार आप को बारह वर्ष के लिए और बनवास करना होगा।" दूत की बात सुन कर महाराज हस पडे और बोले- "आप शीघ्र ही वापिस जाकर दुर्योधन से कहे कि वे पितामह भीष्म और ज्योतिष शास्त्रों के जग्नकारों से पूछ कर इस बात का निश्चय करे कि अर्जुन जब प्रकट हुआ तब प्रतिज्ञा की अवधि पूर्ण हो चुकी थी अथवा नही। मेरा यह दावा है कि तेहरवा वर्ष पूर्ण होने के उपरान्त ही अर्जुन ने गाण्डीवं धनुष की टंकार की थी।" आज्ञा पाकर दूत हस्तिनापुर की ओर लौट पडा। राजा विराट ने सभी उपस्थित व्यक्तियो को सुनाकर घोषणा की कि वास्तव मे कौरव सेना का विजेता वीर अर्जुन है और यह उत्सव उसी हर्ष के उपलक्ष में मनाया जायेगा। फिर क्या था, मर्च पर चुने हुए कलाकार आये। उन्हों ने अपनी कला का प्रदर्शन प्रारम्भ कर दिया। उल्लास पूर्ण गीतों त्तथा नूपुरो की ध्वनि गूंज उठी और हर्ष का वातावरण मस्ती से झूम उठा। तथा नपल का प्रदर्शन र चुने हुए कलाकार AAR प Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *बाईसवां परिच्छेद * , ... ★rttatttttttti परामर्श Xxxxxxxx अज्ञात वास की अवधि पूर्ण हो चुकने के कारण पाचो पाण्डर द्रौपदी सहित प्रकट रूप में रहने लगे। एक दिन युधिष्ठिर ने अपर सभी भ्राताओ को अपने पास बुलाकर कहाः हमारी प्रतिज्ञा कभी की पूर्ण हो चुकी। शर्त के अनुसार अब हमे हमारा राज्य मिल जाना चाहिए। परन्तु लक्षण वता रहे हैं कि दुर्योधन सीधी तरह से हमे राज्य वापिस नही देने वाला। उसने हम से १३ वर्ष तक बनवास व अज्ञात वास करवा लिया, पर अव भी उसकी इच्छा हमे राज्य हीन रखने की 'ही है। ऐसी दशा मे अव हमे सोचना है कि क्या करे ? श्राप सभी विचार कर कि भावी कार्यक्रम क्या हो ?" अर्जुन ने कहा-"धर्मराज ! हम तो सदा आप के आज्ञाकारी रहे हैं। पूज्य पिता जी के उपरान्त आप ही हमारे सरक्षक है। आप ने जुआ खेला, हम चुप रहे। आप ने राज्य हार दिया, हम कुछ न वोले। द्रौपदी का अपमान हुआ हम खून का घूट पी कर रह गए। आप ने वनवास और अज्ञात वास की शर्त माना हम ने उसे स्वीकार कर लिया। जो जो विपदाएं हम पर अ.इ, हम ने सहर्ष सहन किया। और अब भी आप ही की इच्छा के दास हैं। हम तो पहले ही अनुभव करते थे कि १२ वर्ष का बनवास तथा एक वर्ष का अज्ञात वास तो दुष्ट दुर्योधन का एक बहाना है । Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ J वरना वह हमे टरकाना हो चाहता है पर आप ठहरे धर्मराज। आप ने अपनी जबान की भाति ही उसकी जबान को समझा और उसकी पर वह चाहता था कि १२ वर्ष तक तो हम चुप वास की अवधि मे अज्ञात 2 वात मान ली । चाप बनों मे पडे रहे और एक वर्ष की वह हमारा पता लगा कर १३ वर्ष के फिर एक वर्ष का अज्ञात वास करें और करते रहे । परन्तु उस की वह योजना सफल नही हुई, अब उस के पास राज्य देने से इन्कार करने के सिवाय और कोई चारा नहीं है । इस लिए अब जो कुछ आप आज्ञा दे हम वही करे ।" परामर्श 1 1 भीमसेन बोला- “भैया अर्जुन ठीक कहते है । तेरह वर्ष पश्चात भी हमारे सामने वही एक मात्र रास्ता है; राज्य पाने का कि हम अपने बाहुबल का प्रयोग करे । दुष्ट बुद्धि दुर्योधन इस प्रकार नही मानने वाला । इतना भला मानुस होता तो जुए मे कपट से राज्य न छीनता ।" ܀ बोले युधिष्ठिर जानते थे कि उनके भाइयो का मत ग्रक्षरशः सत्य - है, फिर भी बे धर्म नीति का उल्लघन न कर सकते थे, " अभी से युद्ध की ही बात सोच लेना भूल है। हम ने जो कुछ किया उस से हमारा पक्ष दृढ हुआ और दुर्योधन को अन्यायी सिद्ध करने में अब सारा संसार हमारे पक्ष का समर्थन करे हम सफल हुए । गा। इस लिए किसी निष्कर्ष पर पहुचने से पूर्व हमे अपने सहयोगियो, मित्रो तथा सम्बन्धियो से परामर्श करना चाहिए। बिना कुछ कर भी तो नही सकते ।" - महाराज हम उनकी सहायता युधिष्ठिर ने कहा । 1 आप ठीक कहते हैं राजन् हमें सहयोगियों से मंत्रणा करनी चाहिए " > लिए और बनो मे भेज दे । इसी प्रकार हम जीवन भर अपने स्नेही मित्रों तथा नकुल वोला । सहदेव ने भी उस समय अपनी राय प्रकट करते हुए कहा C मेरा विचार है कि अब समय नष्ट करने से कोई लाभ नही हमे अपने सभी मित्रो - कृपालु सहयोगियो विचारवान तथा विद्वान सम्बन्धियो को बुला कर परामर्श करना चाहिए और वे जो कुछ कहें वैसा ही करना उचित है । ' Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० जैन महाभारत इस प्रस्ताव को सभी ने स्वीकार किया और निश्चयानुसार अपने भाई बन्धुप्रो एव मित्रों को बुलाने के लिए दूत भेज दिए गए। ___+ + + + + + x भाई वलराम, अर्जुन की पत्नी सुभद्रा तथा पुत्र अभिमन्यु और यदुवंश के कई वीरों को लेकर श्री कृष्ण पान्डवों के निवास स्थान पर आ पहुचे। उनके आगमन का समाचार पाकर पाण्डवो तथा राजा विराट ने उनका हार्दिक स्वागत किया। इन्द्र सेन, काशी राज. और वीशव्य भी अपनी अपनी सेनाओं के मुख्य नायको सहित वहां पहुंच गए। पांचाल राज द्रुपद के साथ शिखण्डी और द्रौपदी का भाई धृष्टद्युम्न तथा द्रौपदी के पुत्र भी वहा आ पहुचे। और भी कितने ही राजा अपनी अपनी सेनएं लेकर युधिष्ठिर के पास आगए। सर्व प्रथम विधि पूर्वक अभिमन्यु के साथ उत्तरा का विवाह किया गया। इस के पश्चात विराट राजा के सभा भवन मे सभी आगन्तुक राजा लोग एकत्रित हुए। विर ट राजा के पास श्री कृष्ण तथा युधिष्ठिर बैठे, द्रुपद के पास बलराम तथा सात्यकि। और द्र पद के पुत्र, अन्य पं.ण्डव तथा पाण्डवो के पुत्रं स्वर्ण जटित सिंहासनो पर जा बैठे। समस्त . प्रतापी राजाओ के अपने अपने आसनो पर विराज मान होने के उपरान्त श्री कृष्ण युधिष्ठिर से कुछ बातचीत करने के पश्चात उठे और कहने लगे . "सम्मान्य वन्धुग्रो तथा वीर मित्रो | सबल पुत्र शनि ने कपट द्यूत मे हराकर महाराज युधिष्ठिर का राज्य जिस प्रकार हथिया लिया और उन्हें बनवास तथा अज्ञात वास के नियम में बाध दिया. यह सब तो पापको ज्ञात ही है। पाण्डवो ने अपनी प्रतिज्ञा निभाने के लिए कितने प्रकार की दुसह कठनाईयो को झेला, श्रार तेरह वर्ष तक कैसे कैसे दारूण दुख भोगने पडे, इसे बताने का आवश्यकता नहीं है। पाण्डव उस समय भी अपना राज्य वापित लेने मे समयं थे, परन्तु वे सत्यनिष्ठ थे, उन्हे वल से अधिक धम Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७१ परामर्श घोखा दिया। उनका भला न्याय प्रियता, तो युधिष्ठिरत नहीं । ति का पालन किया। अब हम यहा इस लिए एकत्रित हुए हैं कि छ ऐसे उपाय सोचे, जो युधिष्ठिर तथा राजा दुर्योधन के लिए लाभ चद हो, कर्मानुकल हो और कीर्तिकर हो, न्यायोचित हो और जिन से पाण्डवो एव कौरवो का सुयश बढे। जिसकी वस्तु है उसे मिल जाये, क्योकि अधर्म के द्वारा तो धर्मराज युधिष्ठिर देवतायो का राज्य भी नही लेना चाहेगे। यद्यपि धृतराष्ट्र के पुत्रो ने उन्हे घोखा दिया और भाति भाति की यातनाए पहुचाई, फिर भी युधिष्ठिर तो उनका भला ही चाहते हैं। आप को कौरवो के अन्यायो तथा प.ण्डवो को न्याय प्रियता, दोनो पर ही ध्यान देना है। हों, धर्म न्याय तथा अर्थ से मुक्त हो तो युधिष्ठिर को एक गाँव का आधिपत्य भी स्वीकार करने मे कोई आपत्ति नही। परन्तु यह सर्वविदित है कि जिम राज्य को इनसे छीना था, वह इन के परम प्रतापी पिता और स्वय इनके वाहबल के द्वारा विजित हुप्रा था। यह लोग दुर्योधन से अपना हक माँगते है ! इसलिए इनकी मॉग सर्वथा धर्मानुकूल है। आज लोग यह भी जानते ही हैं कि कौरव बाल्यकाल से हो पाण्डवो के विरूद्ध भिन्न भिन्न प्रकार के षडयन्त्र रचते रहे है। और उन्ही षडयन्त्रा की एक कडी थी जुए की बाजी। जुए मे युधिष्ठर को हराया गया और हारी हुई सम्पत्ति को पुन. प्राप्त करने के लिए जो शर्त रक्खी गई। उसे पाण्डवो ने पूर्ण किया। इसलिए दुर्योधन को अव शर्त के अनुसार इनकी सम्पत्ति लौटा देने मे कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए । पर चूंकि इस समय दूसरे के पक्ष के विचारो का पता नहीं है। इसलिए सबसे पहले, मेरे अपने विचार से एक ऐसे व्यक्ति को दूत बनाकर भेजना होगा, जो धर्मात्मा, परिभचित्त, कुलीन, सावधान और सामर्थ्यवान हो। ताकि वह दुर्योधन को समझा बुझाकर उसके कर्तव्य का बोध करा कर उसकी इच्छा जान सके दुर्योधन को राय जानने पर ही कोई कार्यक्रम स्वीकार किया जाना चाहिए। आप सभी नीतिवान, विद्वान, न्याय प्रिय लोग यहाँ उपस्थित है, अत इस सम्बन्ध मे दोनो पक्षो के गुणो को ध्यान मे रखकर सोचिए कि अधिकारी को उसका अधिकार दिलाने के लिए क्या किया जाना चाहिए।" यह थी श्री कृष्ण की वह वात जिसके आधार पर उस दिन Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ जैन महाभारत की मत्रणा होनी थी। श्री कृष्ण ने अपना वक्तव्य समाप्त करके बलराम की ओर देखा । तब बलराम उठे और बोले-"कृष्ण ने जो मत व्यक्त किया वह मुझे न्यायोचित लगता है और राजनीति के अनुकूल भी श्री कृष्ण ने जो मत व्यक्त किया वह जैसा धर्मराज के लिए हितकर है, वैसा ही कुरूराज दुर्योधन के लिए भो है। वीर कुन्ती पुत्र प्राधा राज्य कौरवो के लिए मांगते हैं। अत. यदि दुर्योधन इन्हे आधा राज्य दे दे तो वह बडी आनन्द से रह सकता है। विना किसी युद्ध के , सन्धि से, शान्ति पूर्ण ढग से ही यह समस्या सुलझ जाये तो उससे न केवल पाण्डवो की ही बल्कि दुर्योधन और उसकी सारी प्रजा की भी भलाई होगी। सब सूख चैन से रह सकग और व्यर्थ का रक्तपात भी बच जाएगा। क्योकि मैं इस बात का मानने वाला हूं कि अहिंसा के सिद्धान्त से जो मिलता है, कल्याण उसी से होता है। यदि केवल एक राज्य के लिए निरपराधी मनुष्यों का रक्त बहे तो यह हम सभी के लिये बडे कलक की बात होगी। अत. इसके लिए यह प्रावश्यक है कि महाराज युधिष्ठिर की ओर से कोई नीतिवान दत जाये और वह यधिष्ठिर का विचार वहाँ जाकर सुनाये तथा महाराज दुर्योधन का विचार सुने । वहा जो दूतजाए उसे. जिस समय सभा मे भीम, धृतराष्ट्र, द्रोण, अश्वस्थामा विदुर, कृपाचार्य शकुनि कर्ण तथा शास्त्र प्रार शास्त्रो मे पारगत दूसरे धतराष्ट्र पुत्र उपस्थित हो और जब सव वयोवृद्ध तथा विद्या वृद्ध पुरवासी भी वहाँ आ जाए, तब उन्ह प्रणाम करके वे बातें कहनो चाहिए जिन से महाराज युधिष्ठिर के पक्ष का प्रतिपादन हो और दुर्योधन को अपने कर्तव्य का ज्ञान हो। किसी भी अवस्था में कौरवो को कुपित नही करना चाहिये। उस बड़ी नम्रता से अपनी बात कहनी होगी और चाहे कैसा भी उत्तेजना का अवसर प्राये पर वह क्रोध मे न आये। ज़रा झुकने से जो काम आसानी से निकल आता है वह तनने से कठिनाई से ही निकलता है। हमें यह याद रखना चाहिए कि दुर्योधन ने सबल होकर ही इन का राज्य छीना था। युधिष्ठिर की जुए मे आसक्ति थी, यह धम विरुद्ध लत के शिकार थे। जिन भाषित धर्म के प्रतिकूल चल कर इन्हो ने जुग्रा खेला था, फिर यदि शकुनि ने इन्हे जुए मे हरा दिया Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७३ परामर्श । केवल इसी बात से उसे अपराधी नहीं ठहराया जा सकता। बुधिष्ठिर स्वय जानते हैं कि स्वय इनके भाइयों ने ही उन्हे जुना खेलने से रोका था और इन्हे पहले से ही मालूम था कि शकुनि एक मजा हुया खिलाडी है और वे उनके सामने खेल मे ठहर नही सकते। शनि की निपूणता और अपने नौसिखये पन को ध्यान में रखते हए और अपने भ्राताओं के मना करने पर भी युधिष्ठिर ने जूना खेला और अपना राज्य हार गए। यह तो पाखों देखे अपने पैरो पर स्वय हो कुल्हाडी चलाना था। इस लिए दुर्योधन के पास युधिष्ठिर का राज्य चला जाना, दुर्योधन का अन्याय पूर्ण कार्य नहीं कहा जा सकता। अब तो उस खोये हुए राज्य को प्राप्त करने के लिए बहुत नम्रता पूर्वक ही कहा जा सकता है। एक ही रास्ता है राज्य वापिस लेने का, कि बहुत ही कुक कर प्रार्थना की जाये। इस लिए दूत बन कर जाने वाला व्यक्ति मदु भाषी हो, युद्ध प्रिय न हो। उस का उद्देश्य किसी न किसी प्रकार समझौता करना ही हो। यह बात आप को स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि पाण्डवो ने जो दु सह, दारुण दुख भोगे है, वे महाराज युधिष्ठिर के धर्म के प्रति कुल कार्य के कारण ही भोगने पडे। इस लिए हे राजा गण | दुर्योधन की मीठी वातो से ही समझाने का प्रयत्न कीजिए। शाति पूर्ण ढग से जो सम्पत्ति मिल जाये वही सुख प्रद होगी। युद्ध चाहे जिस उद्देश्य से किया जाये, उस मे अन्याय तथा हिंसा होती ही है और इस की हिंसा से जहा तक बचा जा सके उतना ही अच्छा है। यद्यपि गृहस्थाश्रम मे रह कर विरोधी हिंसा से बचना असम्भव है, राष्ट्र तथा धर्म के लिए ऐसी हिंमा करनी पड़ती है, फिर भी जान बूझ कर युद्ध करना और हिंसा तथा निरपराधियो का रक्त बहाना, अधर्म हैं। युद्ध के द्वारा न्याय की स्थापना होना असम्भव है। वैर से वैर निकालने से वैर बढता है। तीर्थरो का उपदेश है कि हिंसा दूसरी हिसाओ की जननी होती है। हिसा किसी भी समस्या का पूर्ण समाधान नही कर सकती। पाण्डवो ने स्वय अपनी आत्मा के साथ अन्याय किया है और दुर्योधन यदि शांति वार्ता के द्वारा समस्या नही सुलझाता तो वह स्वय अपनी आत्मा के के साथ अन्याय करेगा। केवली भगवान ने कहा है कि एक पाप भारण ही भोगने माने का प्रयत्न होगी। युद्ध ना ही है और न Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ जैन महाभारत दूसरे पाप को जन्म देता है जो धर्म के प्रति कूल कार्य करते है वे विपदामो मे फसते है। इस लिए दुर्योधन को अन्यायी बताने से पहले हमे अपने पक्ष की त्रुटियो को भी अपने सामने रखना चाहिए और वही उपाय अपनाना चाहिए जिस से शाति स्थापित हो।" बलराम के कहने का सार यह था कि युधिष्ठिर ने जात वूझ कर अपनी इच्छा से जुआ खेल कर राज्य गवाया है। यह ठीक है कि शर्त के अनुसार उन्होने १२ वर्ष और एक वर्ष का अज्ञात वाम भी भोग कर अपना प्रण निभा दिया । इस से वे दासता से मुक्त होकर स्वतन्त्र रहने के अधिकारी हो गए और खोये हुए राज्य के वापिस भी माग सकते है. परन्तु इसका अर्थ यह नही कि दुर्योधन यदि उन्हे राज्य वापिस न दे तो वे वल पूर्वक उसे वापिस लेने क उन्हे अधिकार हो गया। क्योकि राज्य वापिस करने की दुर्योधन से याचना की गई थी और उसने एक शर्त रख दी थी, अव दुर्योधन का अपना कर्तव्य है कि वह राज्य वापिस करे। पर इस का या अर्थ नही हो जाता कि यदि वह स्वेच्छा से राज्य वापिस न करे त उसे ऐसा करने के लिए बाध्य किया जाय। हा, हाथ जोड के उस से अपना वचन पूर्ण करने की प्रार्थना की जा सकती है। जुन खेलना अधर्म है और जान बूझ कर अपनी सम्पत्ति को उस ' गवाना बहुत ही बडी नादानी है, लेकिन ऐसी नादानी करी वाले को यह अधिकार कदापि नही है कि वह अपनी भूल सुधार के लिए वल प्रयोग करे। इस के अतिरिक्त एक ही वश के लोगो का आपस मे लर मरना भी बलराम को अच्छा न लगा। वलराम की राय थ कि युद्ध अनर्थ की जड होता है। उस से कभी भलाई नहीं है सकती। परन्तु बलराम की बातो को सुन कर पाण्डवो का हितप मात्यकि आग बबूला हो गया। उस से न रहा गया। उठ क कहने लगा-"बलराम जी की बात मुझे तनिक भी तर्क सगत प्रतार नही होती। वाक पटता से उन्होने अपने विचार को न्यायोचिर भले ही सिद्ध करने का प्रयत्न किया हो, पर न्याय को अन्याय सिद Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परामर्श . रने का उनका प्रयास मुझे तनिक भी अच्छा नहीं लगा। हर किसी त का सुन्दरता से समर्थन किया जा सकता है और शब्द जाल के रो अन्याय को न्याय सिद्ध करने की चेष्टा भी की जा सकती है। कन्तु जो स्पेष्ट अन्याय है वह कदापि न्याय नहीं हो सकता, न अधर्म धर्म ही हो सकता है। बलराम जी की बातो का मैं जोरो से विरोध करता ह। क्यो कि यह ठीक है कि धर्म राज जुआ खेलना नहीं जानते थे और शकुनि इस क्रिया मे पारंगत था। किन्तु इनकी उस मे श्रद्धा नही थी। ऐसी स्थिति में यदि उस ने इन्हे जुए के लिए निमन्त्रित कर के, जब कि यह उस निमन्त्रण को राजायो की रीति के अनुसार अस्वीकार नहीं कर सकते थे, इन की सम्पत्ति को जीत लिया तो वह धर्मानुकल जीत नही हो जाती। अजी | कौरवो ने तो इन्हे जुए के लिए कपट पूर्वक बुलाया था, फिर उनका यह कार्य न्यायोचित कैसे हो सकता है ? कौन नहीं जानता कि खेल मे बारम्बार महाराज युधिष्ठिर को ललकारा या। और खेल मे हारने के पश्चात दुर्योधन ने राज्य वापिस करने के लिए एक शर्त रक्खी। वह शर्त धर्मगज ने पूर्ण करदी। अब दुर्योधन की ओर से चीख पुकार हो रही है कि अर्जुन १३३ वर्ष की अवधि पूर्ण होने से पहले ही प्रकट हो गया। उन की यह बात सरासर झूठ है। बात यह है कि दुष्ट दूर्योधन वास्तव मे हर प्रकार से अन्याय पर अडा हा है। वह नीच बिना बल प्रयोग के मानेगा ही नहीं। एक नही हजार दूत भेजिए वह दुरात्मा तो तभी मानेगा जब वह और उस के भाई युद्ध में मेरे तोरो के सामने अपने को मृत्यु का ग्रास होते पायेगे। मै युद्ध मे अपने चाणो से उस नीच को वाध्य कर दुगा कि वह धर्म राज के चरणो मे सिर रख कर अपने अन्यायो के लिए क्षमा याचना करे और यदि ऐसा नही होता तो उसे, उसके मन्त्रियो सहित यमपुरी पहुचा दूगा । उस दुष्ट को शात्ति की वार्ता से अकल नही पायेगी, उसकी बुद्धि तो युद्ध मे ही ठिकाने आयेगी। भला ऐसा कौन है जो मग्राम भूमि मे गाण्डीव धारी अर्जन, चक्रपाणि श्री कृष्ण, दुर्धर्ष भीम, धनुर्धर नकुल, सहदेव, वीरवर विराट, द्रपद तथा उन के पुत्रों, अभिमन्यु आदि पराक्रमी वीरो का वेग महन कर सके। मैं अकेल ही अपने बाणों मे कौरवो के होश ठिकाने लगा दूगा। धर्म राज Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत । युधिष्ठिर भिख मंगे नहीं हैं जो दुर्योधन से याचना करते फिरें। - वे अपने राज्य के अधिकारी हैं, उनकी यही कृपा काफी है कि उन्होने अपने साम्राज्य के दो भाग सहन कर लिए। उनकी यही धर्मनिष्ठा तथा न्यायप्रियता पर्याप्त है कि वे अपनी प्रतिज्ञा पूर्ति के लिए इतने कष्ट उठाते फिरे । तेरह वर्ष तक बनो को खाक छानना और सेवक बन कर दूसरो की चाकरी करना हसी खेल नहीं है । यदि पाण्डवों ने यह स्वीकार कर लिया तो इसका यह अर्थ नही होगया कि कौरव कुल कलकियों के सामने माथा रगडते फिरें । ठीक है एक ही वृक्ष की दो शाखाएं होती हैं एक फलो से लदी होती है और दूसरो पर फल आता ही नही एक ही कोख से जन्मे दो व्यक्ति भी इसी प्रकार दो भिन्न मनो वृति के होते हैं। अब आप श्री कृष्ण तथा बलराम को ही ले, आपस मे भाई भाई हैं, पर एक न्याय का पक्ष पाती है तो दूसरा अन्याय का । परन्तु हम लोग जो यहा इकट्ठे हुए है, दुर्योधन के अधर्म के पक्षपाती नही । हम धर्म राज को उनका अधिकार दिलाने पर विचार करने आये हैं, इस लिए हमारा धर्म है कि हम न्याय के पक्ष मे कोई भी पग उठाने से न घबराये । तलवार लेकर सामने श्राये शत्रु से लडना अधर्म नही है । अन्यायी को उसके अपराध का दण्ड देनाश्रधर्म नही है । और कपट से जुए मे हरा कर किसी की सम्पत्ति को हड़प जाने वाले की प्रशंसा करना धर्म नही है। मेरा विचार है कि अब बिलम्व करने से कोई लाभ नही होगा हमे तुरन्त रणभेरी बजाने को तैयार होना चाहिए और धृतराष्ट्र के बेटो को उन के अन्याय का मजा चखा देना चाहिए ।" ३७६ सात्यकि की दृढता पूर्ण और जोर दार बानो से राजाद्रुपद बड़े प्रसन्न हुए वे अपने ग्रामन से उठे और बोले " मात्यकि ने जो कहा वह बिल्कुल ठीक है मैं उस का समर्थन करता हू । जिम व्यक्ति की आखो पर लोभ की पट्टी बाधी जाती है, वह न्याय तथा धर्म नीति की बातें पहचान हा नही सकता । दुर्योधन को ग्राधा राज्य मिला, वह उस से ही मन्तुष्ट न हुग्रा, उस ने पडयन्त्र करके पाण्डवों का समस्त राज्य छीन लिया । ग्रव वह किसी भी प्रकार मीठो मोठी वातो से मानने वाला नही । 5 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पगमर्ग २७७ लातो के भूत बातो से नहीं माना करते , दुर्योधन से महाराज युधिष्ठिर को उनका अधिकार दिलाने के लिए युद्ध करना ही होगा। पाण्डवो और कौरवो का फैसला रण भूमि मे ही होगा। फिर भी मेरे कहने का यह तात्पर्य कदापि नही है कि सन्धि बार्ता चलाई ही न जाय। हमे पहले अपने दूत शल्य, धृष्ट केतु, जयत्सेन, केकय, आदि मित्र राजानो के पास भेज देने चाहिए; ताकि वे युद्ध की तैयारी करने लगे और दूसरी ओर सधि वार्ता के लिए निपुण विद्वान दूत भेजना चाहिए। जो हर प्रकार से दुर्योधन को समझाये और उसे सन्धि के लिए तैयार करे। यदि दुर्योधन फिर भी सन्धि के लिए तैयार न हो फिर रण के लिए ललकारना चाहिए। आप चाहें तो मेरे दरबार मे रहने वाले एक विद्वान शास्त्रज्ञ, नीतिवान राजा पुरोहित को दूत बना कर भेजदै। आप जो कहेगे उसी के अनुसार वे कार्य करेगे। इस प्रकार जिस तरह भी हो हमे महाराज युधिष्ठिर को उनका राज्य दिलाने का भरसक प्रयत्न करना चाहिए । मेरी यही सम्मति है।" ___ राजा द्रुपद की बात समाप्त होने पर श्री कृष्ण उठे और कहने लगे:-- - "सज्जनो। पांचाल राज ने जो सलाह दी है वही ठीक है। - वह राज नीति के भो अनुकूल है, उसी पर चलना चाहिए। ठीक = है दुर्योधन की प्रकृति तथा स्वभाव को देखते हुए उस से यह आशा = करना कि वह सन्धि के लिए तैयार हो जायेगा और शाति पूर्वक इस समस्या को सुलझाने का प्रयास करेगा, व्यर्थ है। हमे प्रत्येक मम्भव तथा धर्मानुकूल उपाय करने के लिए तैयार रहना चाहिए, तो भी नीति करती है कि हम सर्व प्रथम अपनी ओर से शाति पूर्वक सन्धि वार्ता करने का प्रयास करे। महाराज युधिष्ठिर { की ओर से एक दून जाना ही चाहिए। कौन शक्ति इस के लिए ५ उपयुक्त है और उसे क्या बाते वहा जाकर कहनी चाहिए, किम ' प्रकार सन्धि बार्ता उमे चलानी चाहिए, इस सम्बन्ध मे राजा द्रपद ही निर्णय करले. जिमे वे उपयुक्त समझे उमे हो वे स्बय समझा बुझा कर भेज दे। दुर्योधन के दरबार मे जिन सुलझे हुए तथा । वयोवृद्ध लोगो के सामने हमारे दूत को अपनी बाते रग्वनी हैं, उन - Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ जैन महाभारत सभी के साथ बाल्य काल में पांचाल राज खेले है : द्राण तथा भीष्म आदि सभी के स्वभाव तथा गुणो से वे परिचित ही है और हम लोग तो उन के शिष्य वत है। अत: इस सम्बन्ध मे उनका प्रत्येक कार्य हमे मान्य होगा। अब हमे आज्ञा दी जाय कि अपनी अपनी राजधानियो को लौट जाय। क्योकि हम तो अभिमन्यु के विवाह मे ही विशेष रूप से शामिल होने आये थे। पाचाल राज इस सम्बन्ध मे जो करे और अन्तिम निश्चय जो हो, उस मे हमे सूचित कर दिया जाय ।' ___इस अवसर पर महाराज युधिष्ठिर बोले-"मैंने अब तक मभी सम्मानित वन्धुरो तथा हित पियो की बाते सुनी। आप सभी के उदगार सुन कर मुझे अनुभव हुआ कि आप सभी हमारी महायता के लिए तैयार हैं। बलराम जी ने जो भी मत व्यक्त किया, उस से हमे कोई खेद नही हया। यदि आप सभी यह अनुभव करते हो कि हमे राज्य वापिस मांगने का कोई अधिकार नही है तो हम प्रसन्नता पूर्वक अपना अधिकार छोड़ने के लिए तैयार है। परन्तु यदि आप हमारे पक्ष का समर्थन करते है तो मेरी इच्छा है कि यह मामला सन्धि वार्ता द्वारा ही मुलझ जाये। यदि दुर्योधन हम कुछ भी देने को तैयार हो तो हम युद्ध नही करेगे। फिर भी इस सम्बन्ध मे आप सभी जो निर्णय करेगे हमे स्वीकार होगा।" अन्त मे सभी उपस्थित मज्जनो ने अपने अपने विचार प्रकट करके एक ओर सन्धि के लिए दूत भेजने और दुमरी ओर युद्ध का तैयारिया करने की राय दी। और इस कार्य क्रम का संचालन राजा उपद को सौपा गया । निश्चय हो जाने के पश्चात श्री कृष्ण अपने माथियो महिन द्वारिका लौट गए। विराट, द्रुपद, युधिष्ठिर आदि युद्ध का तयाग्यिा करने लग गए। चारो और दूत भेजे गा। नव मित्र गजात्रो को लेना एकत्रित करने और अस्त्र शस्त्र तैयार रखने के सन्देश भेज दिए गए। सन्देश मिलते ही पाण्डवो के पक्ष के राजा गण अपनी अपनी मेना मज्जित करने लगे। Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परामर्श २७९ इधर पाण्डवो के समस्त सहयोगी युद्ध की तैयारियों मे लगे उधर दुर्योधन को अपने गुप्तचारो द्वारा पाण्डवो को तैयारियो का पता लग गया और उसने भी जोर शोर से तैयारिया प्रारम्भ कर दी। उसके सहयोगी भी जी जान से तैयारियो मे लग गए। अपने मित्र राजाप्रो के पास दुर्योधन की ओर से सन्देश भेजे गए और सेनाए इकट्ठी की जाने लगी। इस प्रकार सारा भारत खण्ड युद्ध के कोलाहल से गूजने लगा। राजा लोग इधर से उधर दौरे करते। सैनिकों के दल के दल जगह जगह आते जाते । सेनाओ मे वीर पुरुषो की भर्तिया खुल गई। कारीगर शस्त्र तैयार करने मे जुट गए। रथ. हाथी और घोडो को तैयार किया जाने लगा। दुर्योधन ने अपनी सेनायो का बकाया वेतन चुकना कर दिया और सैनिको को प्रसन्न करने के लिए वेतन मे वद्धि करने के साथ साथ अन्य प्रकार की सुविधाए दी जाने लगी। सारे देश मे उथल पुथल मच गई और प्रजा को यह समझते देर न लगी कि एक भयकर युद्ध का सूत्रपात हो रहा है। चारो ओर सेनाओ की भीड लग गई और पृथ्वी भिन्न भिन्न प्रकार के अस्त्रो के परीक्षणो मे काप उठी। + + + + + + + द्रुपदा राजा ने अपने महा मत्री पुरोहित को बुला कर कहा"विद्वानो मे श्रेष्ठ | आप पाण्डवो की ओर से दूत बन कर दुर्योधन के पास जाए । पाण्डवों के गुणो से तो आप परिचित है ही और दुर्योधन के गुण भी आप से छिपे नही। आप को यह भी ज्ञात है कि किस प्रकार कपट पूर्वक दुर्योधन ने अपने मित्रो के सहयोग से और वृतराष्ट्र की सम्मति से पाण्डवो को जुए के लिए निमत्रित करके उनका राज्य छीन लिया। विदुर ने तो न्याय की बात कही थी, किन्तु दुर्योधन ने उसकी एक न सुनी। राजा दुर्योधन का धृतराष्ट्र पर अधिक प्रभाव है। आप वहा जाए और धृतराष्ट्र को नीति की बातें समझाए। विदूर से भी आप बातें करें। वे तो हमारे पक्ष मे रहेगे ही, सन्धि वार्ता को वे पसन्द करेंगे। भीष्म द्रोण, कृप, कर्ण ग्रादि से अलग अलग वात करके प्रत्येक को सन्धि Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत के लिए तैयार कर । इस प्रकार सम्भव है कि भीष्म, द्रोण, कूप, आदि दुर्योधन के हितैषियो, मन्त्रियों तथा सेना नायको मे परस्पर मतभेद होजाय । यदि उस विषय मे उन सभी में मतभेद हो जाये तो उनमे फिर एकता होना कठिन है। एकता यदि हुई भी तो उस में काफी समय लगेगा। इस समय मे उनकी तैयारिया शिथिल पड जायेगी और पाण्डव युद्ध की काफी तैयारी कर लेंगे । आप सन्धि की वार्ता इस प्रकार करे कि दुर्योधन यादि उत्तेजित न हो सके और सन्धिवार्ता में काफी समय लग जाये । इस प्रकार यदि सन्धिवार्ता सफल भी न हुई तो हमे यह लाभ पहुचेगा कि उम सम मे हम अपनी तैयारिया पूर्ण कर लेगे और दुर्योधन सन्धि वार्ता मे लगा होने के कारण अधिक न कर सकेगा। यह जानते हुए भी दुर्योधन समझौते को तैयार न होगा, हमारे शांति दूत के जाने से हमे काफी लाभ होगा ।" २८० 7 राज । महा मंत्री ने द्रुपद की सारी बाते सुनी और बोला - "महा आप विश्वास रक्ख, मैं धनराष्ट्र तथा उसके सहयोगिय को समझौता करने के लिए रजा मन्द करने में अपनी पूरी शक्ति लगा दूंगा और यदि वे समझौते के लिए तैयार न भी हुए तो उन दरार तो पड़ ही जायेगी ।" गया द्र ुपद राजा ने इस प्रकार अपने महा मंत्री को समझा बुभ कर हस्तिनापुर भेज दिया और स्वयं युद्ध की तैयारियों में ल समझौते के लिए इस प्रकार दूत भेजना और इस समझौत वार्ता की आड मे युद्ध की तैयारिया करना तथा शत्रु की तयारिय को मन्द कर देने की कूट नीति ऐसी थी जिसका अनुसरण ग्राज युग मे भी होता है। फिर भी धर्मराज युधिष्ठिर समझौते के लि हार्दिक रूप मे इच्छुक थे । Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * तेईमवां परिच्छेद * * * ********* %%%%%%% * * श्री कृष्ण अर्जुन के सारथी * * 8888888888 ने युद्ध की तैयारिया करने की सहायता प्राप्त पाण्डवो से सम्ब गातिचर्चा के लिए दूत भेज देने के उपरान्त पाण्डवो की ओर से युद्ध को तेयारिया जोर शोर से होने लगी। सभी मित्र राजाओ, को युद्ध की तैयारिया करने का सन्देश भेजा जा चुका था, परन्तु श्री कृष्ण जैसे त्रिखण्डा नरेश को सहायता प्राप्त तरने के लिए केवल सन्देश ही पर्याप्त न था। क्योकि श्री कृष्ण जितने पाण्डवो से सम्बन्धित थे, उतने ही कौरवौ से। दोनों पक्ष ही उनसे सहायता माग सकते थे, अतः अर्जुन स्वय ही सहायता मागने के लिए द्वारिका पहुंचा। थी और उसे यहोकर द्वारिका व उन से सहासुनते ही द्वारिका । दूसरी ओर दुर्योधन को पाण्डवों की तैयारी का समाचार मिल चुका था और उसे यह भी पता लग चुका था कि श्री कृष्ण उत्तरा के विवाह से निवत होकर द्वारिका लौट आये हैं। इस लिये वह ! भी इस विचार से कि कहीं, पाण्डव उन से सहायता का वचन न है लेले, श्री कृष्ण के द्वारिका पहुचने का समाचार सुनते ही द्वारिका की ओर चल पडा। सयोग की वात कि जिस दिन दुर्योधन द्वारिका पहुचा उसी. दिन अर्जुन भी वहा पहुच गया। श्री कृष्ण के भवन १ मे दोनो एक साथ ही प्रविष्ट हुए। द्वारपाल ने बताया कि श्री कृष्ण उस समय विश्राम कर रहे है। दोनो ही श्री कृष्ण के निकट सम्बन्धी होने के कारण उनके शयनागार मे भो पहुच जाने का अधिकार रखते थे। इस लिए दुर्योधन तथा अर्जुन दोनो हा Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ जैन महाभारत शयनागार मे चले गए। आगे दुर्योधन था, पीछे अर्जुन । उस समय । श्री कृष्ण सो रहे थे। दुर्योधन जाते ही उनके सिरहाने रक्खे एक , ऊचे आसन पर जा बैठा, परन्तु अर्जुन जो पीछे था, श्री कृष्ण के पैताने ही हाथ जोडे खडा रहा। कुछ देर बाद श्री कृष्ण की निद्रा भग हुई, तो सामने खड़े अर्जुन को देखा। उठ कर उसका स्वागत किया और कुशलं पूछी। बाद मे घूम कर आसन पर बैठे दुर्योधन को देखा तो उसका भी स्वागत किया कुगल समाचार पूछे। उसके बाद दोनो स उन के आने का कारण पूछा। . . . . . दुर्योधन शीघ्रता से पहले बोल उठा--"श्री कृष्ण ! ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे तथा पाण्डवो के बीच जल्दी ही कोई महा युद्ध छिड ज येगा। यदि ऐसा हुआ तो मै आप से. प्रार्थना करने पाया है कि ग्राप मेरी सहायता करें।'' श्री कृष्ण बोले . परन्तु मेरे लिए तो पाण्डव-तथा कौरव दोनो ही स्नेही है।" "यह ठीक है कि पाण्डव तथा कौरव दोनों पर ही आपका समान प्रेम है- दुर्योधन ने कहा-और हम दोनो को ही आप से सहायता प्राप्त करने का अधिकार है। परन्तु सहायता की याचना करने पहले मैं आया। पूर्वजा से यह रीति चली आई है कि जो पहले भाये,उसी का- काम पहले हो। और आज भी सभी सद्बुद्धि प्रतिष्ठित सज्जन इसी रीति पर अमल करते हैं । औरआप सज्जनो,मे श्रेष्ठ है. अत बडो की चलाई रीति के अनुसार आप को पहले मेरी प्रार्थना स्वीकार करनी चाहिए।" श्री कृष्ण ने अर्जुन की ओर देखा। . . अर्जुन बोला - "दुर्योधन जिस उद्देश्य को लेकर यहां पधार है, मैं भी उसी उद्धेश्य से आया है। यदि दुर्योधन ने शाति वार्ता स्वीकार न की तो युद्ध होगा, उस में आप हमारी सहायता करें। दुर्योधन ने कहा-"श्री कृष्ण ! प्राप को पहले मेरी याचना Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कृष्ण अर्जुन के सारथी २८३ स्वीकार करनी होगी ।" यह सुन श्री कृष्ण दुर्योधन की ओर देख कर बोले -- "राजन् ! यह हो सकता है कि आप पहले आये हो । पर मेरी दृष्टि तो कुन्ती आप पहले पहुचे जरूर, पर मैंने पुत्र अर्जुन पर ही पहले पडी । तो पहले अर्जुन को हो देखा। वैसे मेरी दृष्टि में आप दोनो ही आयु में समान हैं । इस लिए कर्तव्य भाव से मैं प्राप दोनो की समान रूप मे सहायता करूंगा। पूर्वजो की चलाई प्रथा यह है कि जो छोटा हो पहले उसे ही पुरस्कार देना चाहिए। अर्जुन श्राप से छोटा है, इस लिए मैं सब से पहले उसी से पूछता है कि वह क्या चाहता ? 1 पं और अर्जुन की ओर मुड कर वे बोले - "पार्थ । मुनो कौरव' तथा पाण्डव मेरे लिए दोनो समान है। दोनो ही मेरे पास सहायता के लिए आये हैं। इस लिए मैंने निश्चय किया है कि दानों एक ओर मेरे परिवार के वीर हैं, जो रण की सहायता करू । कौशल मे मुझ से किसी प्रकार कम नही । जो बड़े साहसी और वीर है । उनकी अपनी एक सेना भी हैं और सभी यादव चोरों को एकत्रित करके उनकी एक बडी सेना बनाई जा सकती है। यह सब एक मोर है और दूसरी ओर मैं स्वय हूँ । अकेला ही । और मेरी प्रतिज्ञा है कि पाण्डवो तथा कौरवो के बीच होने वाले किसी युद्ध मे शस्त्र नही उठाऊंगा। अर्थात मे निशस्त्र हू तुम इन दोनो मे जिसे अपनी सहायता के लिए मागना चाहो, माग सकते हो। तुम मुझे निःशस्त्र को चाहते हो अथवा मेरे बम वालो की सेना को ?” अब " " 2 - 4 बिना किसी हिचकिचाहट के अर्जुन बोला- "आप स्त्र ठावें या न उठावें, आप चाहे लडे अथवा न लड़े, मैं तो आप को चाहता हू" 5 "दुर्योधन के आनन्द की सीमा न रही उसने हर्षचित होक कहा - " बस, मुझे आप अपने वश के वीर तथा अपनी सेना 'दीजिए 1" 1 Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ जैन महाभारत __ श्री कृष्ण ने स्वीकृति देते हुए कहा- "अर्जुन ने मुझे मागा है, इस लिए मेरे वश के वीर तथा मेना आप की सहायता के लिए शेष रह गए। आप निश्चिन्त रहिए।" दुर्योधन मन ही मन बहुत प्रसन्न हुआ। वह सोचने लगा"अर्जुन निरा मूर्ख निकला, वह बहत वडा धोखा खा गया। नि: शस्त्र कृष्ण को लेकर वह क्या कर सकेगा? लाखो वीरो से भग भारी भरकम सेना सहज ही मे मेरे हाथ लग गई। यह सोचता और पुलकित होता वह बलराम जी के पास गया। हर्षातिरेक मे झूमते दुर्योधन को देख कर बलराम ने उस के आनन्द का कारण पूछा। उस ने श्री कृष्ण के पास जाने और पाण्डवो को नि शस्त्र श्री कृष्ण तथा कौरवो को विशाल सेना मिलने की बात सुनाई। ध्यान पूर्वक मारी बात सुनने के बाद बलराम ने पूछा-"आप इस बात से बडे प्रसन्न हैं, यह खुशी की बात है। अब आप मुझ से क्या चाहते है ?" "पाप तो श्री कृष्ण के वश के वीर ठहरे, और है मेरे पक्ष पाती। आप भीमसेन की टक्कर के योद्धा हैं, आप तो हमारी प्रोर रहेगे ही।-“दुर्योधन ने कहा। . , .. ___"मालूम होता है कि उत्तरा के विवाह के अवसर पर मैंने जो बात कही थी, उसकी सूचना आप को मिल गई। , मैने तो कई वार कृष्ण से कहा कि पाण्डव तथा कौरव दोनों हमारे बराबर के सम्बन्धी हैं, मैंने तुम्हारे सम्बन्ध में भी बहुत कुछ कहा। पर कृष्ण तो मेरी सुनता ही नही। अच्छा होता कि आप लोग आपस मे मिल कर रहते। पर आप लोग लडेगे ही, यह दुख की बात है। हां. मैंने निश्चय कर लिया है कि मैं इस युद्ध मे तटस्थ रहूगा। क्यों कि जिधर कृष्ण न हो उधर मेरा रहना ठीक नहीं और म सम्पति के लिए व्यर्थ का रक्त पात ठीक नही ममझना। में जुए को भी धर्म के प्रनिकल ममझता हू और एक ही वश के दो पक्षा का रण क्षेत्र मे उतरना भी अच्छा नहीं समझता। इस कारण : तुम्हारी महायता नही कर सकता। मेरा तटस्थ रहना ही उचित ह Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८५ श्री कृष्ण जी अर्जुन के सारथी -"बलराम ने दुर्योधन को समझाते हुए कहा।" दुर्योधन बोला-"आप तटस्थ रहने की बात कह कर मुझे निराश कर रहे है, जब कि आप किसी को निराश नहीं किया करते।" "दुर्योधन तुम निराश क्यो होते हो। तुम तो उस वश के हो जिसे राजा लोग पूजते है। साहम से काम लो, तुम्हे कमी किस बात की है। तुम्हारे पास इतनी विशाल सेना है। द्रोणाचार्य, कृपा र्य, कर्ण और भीष्म पितामह जैसे रण कुशल वीर है। जाओ तत्रियोचित रीति से युद्ध करो।-"बलराम बोले। "किन्तु आप मेरी सहायता न करे यह दुख की बात है।" मेरी सहायता तो शाति वार्ता मे ही मिल सकती है। मेरे विचार से युद्ध से कोई समस्या हल नहीं होती। और यदि मुझे युद्ध मे जाना ही पडे तो मैं कृष्ण के विरोध मे नही जा सकता। बलराम का उत्तर सुन कर दुर्योधन मौन रह गया। बलराम . ने फिर उसे प्रोत्साहित किया। हस्तिना पुर को लौटते समय दुर्योधन का दिल बल्लियो उछल रहा था। वह सोच रहा था अर्जुन खूब बुद्ध बना। निःशस्त्र श्री कृष्ण को माग बैठा। कितना सौभाग्य शाली हू मैं। द्वारिका की विशाल सेना अब मेरी है और वलराम जी का स्नेह मुझ पर ही है। फिर किस बात की कमी है। बेचारे निःशस्त्र श्री कृष्ण मेरे विरुद्ध क्या काम आयेगे? इसी प्रकार अपने मन मे लड्डू फोड़ता हुआ वह अपनी राजधानी जा पहुचा। दूसरी ओर दुर्योधन के चले जाने के उपरान्त श्री कृष्ण ने पूछा-"सखे अजुन ! एक बात बतायो। तुम ने मेरी इतनी विशाल सेना की | अपेक्षा मुझ नि शस्त्र को क्यो पसन्द किया ?" Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ . जैन महाभारत, । अर्जुन बोला-'भगवन् ! मैं भी, आप ही की भाति यदा प्राप्त करना चाहता हूँ। आप त्रिखण्ड के स्वामी बने. क्योकि प्राप मे इतनी शक्ति है कि इन तमाम राजाओ को युद्ध में परास्त कर सकते हैं आप ने अपने बल से जरासिन्ध जैसे त्रिखण्ड पति को कुचल डाला। इधर मुझ मे भी इतनी शक्ति है कि अकेला ही इन सभी, को-हरादूं। मेरी चिरकाल से यह इच्छा थी कि अाप को सारस्थी बना कर अपने शौर्य से इन सभी राजाओ पर विजय प्राप्त करू । आज मेरी वह इच्छा पूर्ण हो रही है। अब मैं आप को साथ लेकर आपके समान यश प्राप्त कर सकूगा।"; . . . श्री कृष्ण के अधरों पर मुस्कान उभर आई। बोले"अच्छा, तो - यह बात है, मुझ से ही होड करने के लिए, मुझे ही मांगा ? खैर यह तुम्हारे सद्भाव के अनुकल ही है।" 1. इस के पश्चात कुछ और बाते हुई और अन्त मे श्री कृष्ण ते।। अर्जुन को बड़े ही प्रेम से विदा किया। . , . Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * चौबीसवाँ परिच्छेद ** मामा विपक्ष में इस प्रकार श्री कृष्ण ने अर्जुन का सारथी बनना स्वीकार किया और पार्थ सारथी की पदवी पाई । मद्र देश के राजा शल्य नकुल तथा सहदेव कीं मा माद्री के भाई थे । उन्हें एक सन्देश वाहक के द्वारा समाचार मिला कि उन के भानजे पाण्डव उप्पलव्य नगर ( विराट की राजधानी के निकट ) मे अपना खोया राज्य वापिस लेने के लिए युद्ध की तैयारिया कर रहे हैं तो उन्होने एक बड़ी भारी मेना एकत्रित की और उसे लेकर पाण्डवो की सहायता के लिए उसे नगर की ओर चल पडे, जहाँ पाण्डव युद्ध की तैयारिया कर रहे थे । । ? कहा जाता है कि शल्य की सेना इतनी बडी थी कि रास्ते मैं चलते हुए वे जहा कही भी पडाव डालते, उनकी सेना का पडाव एक योजन से कुछ अधिक (लगभग मील) तक लम्वा फैल जाता । - इतनी विशाल सेना के यात्रा करने का 'समाचार दूर दूर तक फैल गया । यह बात दुर्योधन तक भी पहुंची। वह सोचने लगा. इतनी विशाल सेना का पाण्डवों के पक्ष में चला जाना संकट का कारण * बन सकता है । इस लिए किसी प्रकार शल्य को अपनी ओर मिला Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत २८९ लेना चाहिए। अपने मित्रो से विचार विमर्श करने के उपरान्त उस ने अपने कुशल कर्मचारियो को आदेश दिया कि जहा कही भी शल्य की सेना डेरे डाले, वही पहुच कर उसे समस्त प्रकार की सुवि. धाए पहुचाई जाये। किसी प्रकार का कष्ट सेना तथा राजा शल्य को न होने पाये। साथ हो रास्ते मे जहा तहा विशाल मण्डप बनवाये गए। सारा रास्ता, जिस से सेना को गुजरना था, बहुत ही आकर्षक ढग पर सजवा दिया गया। जहाँ भी पडाव पडता राजा शल्य और उसकी सेना का बहुत ही सुन्दर ढग से सत्कार किया जाने लगा। राज्य के समस्त साधन शल्य तथा उनकी सेना को प्रसन्न करने मे लगा दिए गए। खाने पीने की वस्तुप्रा का सुन्दर प्रवन्ध कर दिया गया। प्रत्येक पडाव पर उनकी सेना, तथा उन के मन बहलाव के लिए भी अच्छे कलाकारो को नियुक्त किया जाता। रहने, खाने पीने और मनोरजन का इतना सुन्दर प्रबन्ध देख कर राजा शल्य मन ही मन बहत प्रसन्न हए। और जब इस सुप्रवन्ध को उन्होने प्रत्येक पड़ाव पर पाया तो वे चकित रह गए। इतनी विशाल सेना के लिए इतना सूप्रबन्ध किया जाना वास्तव में बहुत कठिन था मद्रज ने सोचा कि उनके भानजे युधिष्ठिर न इस दशा मे होते हुए भी इतना शानदार स्वागत करके दिखाया है कि वह उनका कितना आदर करता है । एक बार एक पड़ाव पर उन्होने आदर सत्कार में लगे कम. चारियो को बुला कर कहा-'हमारी सेना और हमारा इतना खातिर दारी करने वाले लोगो को हम जितनी भी प्रशसा कर कम ही है। इस अभूत पूर्व सत्कार तथा अतिथ्य के लिए हम प्रवन्धका के हृदय से प्राभारी हैं। हम इस सत्कार के प्रवन्धको को अपना ओर से उनकी कार्य कुशलता, निपुणता तथा परिश्रम के लिए पुरस्कृत करना चाहते हैं, आप लोग कुन्ती पूत्र युधिष्ठिर से हमारा ओर से कहे कि वे इस के लिए बुरा न माने और हमे अपनी सम्मात कर्मचारी चाहते थे कि वे उसी समय मद्रराज का भ्रम नित्रा रण हेतु बता दें कि उनका सत्कार दुर्योधन की ओर से किया जा रहा है, पर वे उस समय चुप रहे क्यो कि उन्हे ऐसी कोई आज्ञा दुयाघर Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मामा विपक्ष मे अत उस समय वे चुप रहे और यह की ओर से नही मिली थी। दुर्योधन गुप्त रूप से मद्र राज की सेवा बात दुर्योधन से जा कही जब दुर्योधन ने उक्त के साथ साथ चल रहा था, ताकि उचित अवसर पाकर वह मद्र राज से अपनी सहायता का वचन ले सके । बात सुनी तो उसकी बाछे खिल गई। समाचार देने वालो को उसने अच्छा पुरस्कार दिया । X ' X X X X X महाराज को उसके निजि मन्त्री ने आकर बताया- "महाराज हस्तिनापुर नरेश दुर्योधन श्रापके दर्शन करना चाहते है ।" दुर्योधन के अनायास ही आ टपकने का समाचार सुनकर गल्य को बहुत आश्चर्य हुआ। फिर भी उन्हो ने तुरन्त आदेश दिया - " उन्हे ससम्मान ले आओ ।" ज्यों ही दुर्योधन को उन्हो ने अपने सामने देखा उन्हो ने परिवारिक सम्बन्धी होने के कारण उससे स्नेह प्रदर्शित करते हुए बैठाया । बोले-'दुर्योधन ! अनायास 1 ही तुम कैसे या घमके ? " "मुझे ज्ञात हुआ कि आप अपने सत्कार के प्रबन्ध से बहुत प्रसन्न हुए हैं ! इसे अपना सौभाग्य समझकर आप की प्रसन्नता के लिए अपना प्रभार प्रकट करने के लिए ही मैं चला आया । यह है कि आप के सेना सहित उपालब्य नगर की ओर जाने बस जल्दी मे जो कुछ हो का समाचार मुझे अनायास ही मिला । सका किया । अहो भाग्य कि आप उस से सन्तुष्ट है । सुना है आप सत्कार के प्रबन्धको को पुरस्कृत करना चाहते हैं, यह हमारे लिए बहुत ही प्रसन्नता की बात है फिर भी आपकी प्रसन्नता ही हमारे लिए पर्याप्त है, इस सत्कार का इस से बडा और पुरस्कार क्या हो सकता है कि आप ने प्रशंसा कर दी । - दुर्योधन ' ने अपनी बातो द्वारा अपने कार्य को जिस पर अभी रहस्य का प्रावरण पडा था, निरावरण कर दिया । दुर्योधन की बात सुन कर शल्य आश्चर्य चकित रह गए जिस के विरुद्ध लड़ने के लिए चे पाण्डवो के पास इतनी विणा Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० जैन महाभारत सेना लेकर जा रहे हैं। दुर्योधन ने यह जान कर भी इंती सुन्दर सत्कार किया, यह कितना वडा एहसान कर दिया. दुर्योधन ने यह जान कर वे बड़े असमजस - मे पड़े। वे सोचने लगे कि यह जानते हुए भी कि उक्त सारी सेना उसी के विरुद्ध काम प्रायेगी यह सेना उसके नाश का कारण भी बन सकती है इस सेना के बल पर उस मे राज गद्दिया छीनी जा सकती है दुर्योधन ने इतना शानदार स्वागत सत्कार किया इतनी उदारता का होना सचमुच एक वडी बात है। मोचते सोचते अनायास ही उन के हृदय में दुर्योधन के प्रति आदर तथा स्नेह की भावना जागृत हो गई प्रसन्न होकर बोले-"राजन । तुमने जो कुछ किया उम के भार से मैं दबा सा जाता है। तुम्हारा यह ऋण मैं कैसे चुकाऊ ? दुर्योधन बोला-“महाराज ! यह एहसान की तो कोई बात. नही यह तो मेरा कर्तव्य था। आप जैसे युधिष्ठर के लिए- वैसे मेरे लिए। मैंने तो कुल रीति अनुसार आप को मामा समझ कर ही यह सत्कार किया । ____फिर भी तुम्हे यह तो ज्ञात ही होगा कि हम अपनी सेना सहित पाण्डवो की सहायता के लिए जा रहे है। मद्र राज बोले।" "आप मेरे विरोध मे भी जाते हो फिर भी आप का-सत्कार करना तो मेरा कर्तव्य है ही।" दुर्योधन ने अपने मन की बात छिपाते हुए कहा। "जो भी हो हम तुम्हारे, इस भार से कैसे मुक्त हो सकते हैं, यही मेरे सामने प्रश्न है।" "आप वास्तव मे मुझ से इतने ही प्रसन्न है तो कृपया आप अपनी सेना सहित मेरी सहायता करें।" -दुर्योधन ने उपयुक्त प्रवसर समझ कर मन की बात कही। "बडो जटिल समस्या या गई । विचारो मे डुवे मद्रराज Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मामा विपक्ष मे - २९१ छोले । दुर्योधन ने अपनी बात पर जोर देते हुए कहा - "आप युद्ध प्रारम्भ होने पर मेरी ओर से अपनी सेना सहित लडे, मैं बस यही प्रत्युपकार चाहता हूं । सुन कर भद्र राज सन्न रह गए । शल्य को असमजस में पड़े देख कर दुर्योधन बोला"आप के लिए जैसे पाण्डव वैसे ही कौरव । प्राप से हम दोनो का बराबर ही नाता है इसी लिए मैने आप से प्रार्थना की है। यदि प्राप हम दोनो को सम्मान दृष्टि से देखते हैं और केवल कौरवो को इस लिए नही ठुकराते कि हम माद्री की सन्तान नही हैं, तो श्राप को हमारी ओर से लड़ने मे क्या आपत्ति है ? दुर्योधन के उपकार से मद्रराज अपने को कुछ दबा सी अनुभव कर रहे थे. उन्होने विवश होकर कहा - "तुम ने अपनी उदारता से मुझे जीत लिया है। अच्छा ऐसा ही होगा ।" शल्य ने दुर्योधन द्वारा किए गए श्रादर सत्कार का बोझ तलें अपने को दबे हुए अनुभव करके ऐसा कहने को कह तो दिया, पर उनका मन अशांत हो गया । उन पर दुर्योधन की उस चाल का कुछ इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि वे अपने पुत्रो के समान प्यार करने योग्य भानजो- पाण्डवो की सहायता को जाते समय अपनी निश्चय बदल कर दुर्योधन की सहायता का वचन दे दिया । पर कुछ देर तक वे मन ही मन ग्लानि अनुभव करते रहे । कई बार उन्हे अपने पर लज्जा आई । परन्तु वे अपने दिए वचन से लौट भी तो नहीं सकते थे । फिर वह सोचने लगे कि अब वह प्रागे जाये या पीछे लोटे | मन में एक विचार उठा - "कैसे जायेंगे पुत्रवत पाण्डवो के सामने ? किस मुह से कहेंगे कि उन्होने आदर सत्कार के मूल्य पर अपने निर्णय तथा पाण्डवो के प्रति प्रेम को बेच डाला? कैसे बताये उन्हें कि दुर्योधन के द्वारा किए प्रदर के बदले में उन्होने अपने Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ जैन महाभारत पाण्डवो के प्रति प्रेम को तिलाजलि देकर पक्ष परिर्वतन कर लिया ?" फिर एक विचार मन में उठा-'दुर्योधन को वचन तो दे ही दिया परन्तु युधिष्ठिर में बिना मिले लौट जाना इस से भी अधिक भयकर भूल होगी।" "राजन | मै तुम्हें वचन तो दे चुका, और उसे निभाऊंगा भी, परन्तु जाने से पहले युधिष्ठिर से भी मिल लेना आवश्यक समझता हू । अतः अभी मुझे विदा दो।" दुर्योधन जानता था कि शल्य जैसे क्षत्रिय राजाओं का वचन झूठा नही हो सकता, इस लिए उसने उन की बात स्वीकार करते हुए कहा- "आप चाहते हैं तो अवश्य ही मिलिए । परन्तु ऐसा न हो कि प्रिय भानजो को देख कर वचन ही भूल जाये।" दुर्योधन की इस बात से शल्य तिलमिला उठे। उन्हें क्रोध आया, पर अपने प्रावेश को रोकते हुए कहा "नही, भाई यह शल्य का वचन है । जो कह चुका वह असत्य सिद्ध नहीं होगा। तुम निश्चिन्त होकर अपने नगर लौट जायो ।' दुर्योधन ने इस के बाद उनसे विदा ली और शल्य उपलव्या की ओर प्रस्थान कर गए। __ x x x x x x x - उपप्लव्य नगर बहुत ही आर्कषक ढग पर सजा था । द्वार पर गहनाइया बज रही थी। स्त्रिया गीत गा रही थी चारो ओर भिन्न भिन्न भाति की सुगन्ध विवेरी जा रही थी और पाण्डवो की मेना, कर्मचारी, मित्र, महयोमी, बन्धु वान्धव सभी शल्य के स्वागत मे खड़े थे। ज्यो ही गल्य की सवारी नगर के द्वार पर पहची अम्म गस्त्रो से रग बरगी। पुप मालाए अाकाश की ओर फेंकी गई जो वापस मद्र राज के ऊपर पाकर गिरी । गानो तथा नफीरी की मधुर स्वर लहरी गुज उठी वाजों के द्वारा स्वागत गान गाया गया सेना ने Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __-मामी विपक्ष में सलामी दी। पाडण्वो ने चरण रज ली मद्रराज ने सभी पाण्डवी को प्रेम पूर्वक छाती से लगा लिया। हर्षातिरेक और स्नेह के कारण मद्रराज की पलके भीग गई मामा को सामने देख कर नकुल और सहदेव के आनन्द की तो सीमा ही नहीं रही। जब मद्रराज विश्राम कर के पाण्डवो से मिले तो सर्व प्रथम उन्होने पूछा- “युधिष्ठिर ! १३ वर्ष कैसे बीते ? '' इस के उत्तर मे पाण्डवों ने १३ वर्ष तक उठाई विपताओ का वृतांत कह सुनाया। सुन कर मद्रराज बोले-.-"मनुष्य को अपने ही कर्मों का फल कैसा कैसा भयकर भीगना पड़ता है यह तुम लोगों की बातो से ज्ञात हुआ । शास्त्रों की शिक्षाप्रो के प्रतिकूल कार्य करके, जुआ खेल कर, तुम लोगो को जो फल भोगना पड़ा, प्राशा है भावी सन्ताने इस से कुछ शिक्षा ग्रहण करेंगी।" इन बातो के पश्चात भावी युद्ध की बातें चलीं। तव महाराज ने द्रवित होते हुए कहा-"धर्मराज! मैं तुम्हे यह दुखद समाचार किस मुंह से सुनाऊ । कि मैं कौरवो के पक्ष मे रहने का वचन दुर्योधन को दे चुका है।" यह बात सुनते ही पाण्डवों के हृदय पर बज्रापात सा हुआ वे मन्न रह गए । बोले कुछ नहीं एक बार सब के चेहरों पर छाई गम्भीरता को देख कर शल्य स्वय दग्वित हुए और वह सारी प्राप बीती सुनाई जो यात्रा मे गुजरी थी। मद्रराज की बात सुन कर महाराज युधिष्ठिर मन ही मन सोचने लगे जो हमा, वह हमारी ही भूल के कारण । हा शोक दुर्योधन इस बात से भी हम से बाजी मार गया । अपने निकट के रिश्तेदार समझ कर इनकी ओर मे हम - लापरवाह रहे और इनकी कोई खबर न ली, इसी का यह परिणाम महाराज युधिष्ठिर को इस बात में बहुत बड़ा धक्का लगा था, परन्तु उन्होने अपने मन की व्यथा को प्रकट नही किया। अपन Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -जैन महाभारत मन की भावनाओं को दबा कर बोले-"मामा जी । आपने दुर्योधन के स्वागत सत्कार के कारण उसे जो वचन दिया है आप उसे पूर्ण करे । परन्तु मै बस इतनी ही बात आप से पूछना चाहता हूं कि आप रण कौशल में बहत निपुण है, अवसर आने पर कर्ण आप को अपना सारथी बना कर अर्जुन का बध करने का प्रयत्न करेगा मैं यह जानना चाहता हूँ कि उस समय आप अर्जुन की मृत्यु का कारण बनेगे या अर्जुन की रक्षा का प्रयत्न करेगे ? मैं यह प्रश्न उठा कर आप को असमंजस मे नहीं डालना चाहता था, पर पूछने को मन कर आया तो पूछा लिया।" मद्रराज बोले- "बेटा युधिष्ठिर ! मैं धोखे में प्राकर दुर्योधन को वचन दे बैठा, इस लिए युद्ध तो उनकी ओर से ही करूगा। पर एक बात बताए देता है कि यदि कर्ण अर्जुन का बध करने की इच्छा से मुझे अपना सारथी बनायेगा तो मेरे कारण उस को तेज नष्ट हो जायेगा और अर्जुन के प्राणो की रक्षा हो जायेगी। चिन्ता न करो जुए के खेल में फंसकर तुम्हे और द्रौपदी को जो कष्ट झेलने पड़े अव उनका अन्त आ गया समझो। तुम्हारी कल्याण होगा । इस समय की भूल के लिए मुझे क्षमा करना । Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * पचीसवाँ परिच्छेद * . - सन्धि- वार्ता पाचाल नरेश के महामत्री जब हस्तिनापुर पहुचे तो एक गजदूत की भाति उनका आदर सत्कार किया गया वे वहा जाकर अतिथि हो गए और ऐसे अवसर की खोज मे रहे जब कि दरवार मे भीष्म, धनगाट, द्रोण विदर कल्प, आदि आदि सभी वयोवृद्ध विद्वान, राजनितिज्ञ तथा प्रभावशाली व्यक्ति उपस्थित हो । एक दिन जब उन्हे पता चला कि कौरव वश के सभी प्रमुख व्यक्ति-मभामे उपस्थित हैं, और हस्तिनापुर के राज्य के समस्त सहयोगी तथासरक्षक दरवार मे बिराजमान है तो वे वहां पहुचे। यथा विधि सभी को प्रणाम करके तथा कुशल समाचार कहने तथा पूछने के उपरान्त उन्होने पाण्डवों की ओर से मन्धि प्रस्ताव प्रस्तुत करते हुए कहा "अनादि काल से जो धर्म तत्व, रीति तथा नीति प्रचलित है, उससे आप सभी परिचित हैं । आप लोगो के धर्म सम्बन्धी ज्ञान ' के विद्वान, नीति सम्वन्धी धरन्धर और विश्व के सलझे हए गुरुजन विद्यमान हैं । आप न्याय के रक्षक है और रीति रिवाजो के मानने वाले है । राजकुल की यह.रीति रही है कि पिता की सम्पत्ति पर पुत्रो का समान अधिकार होता है । यह राज्य. सिंहासन जिस पर प्राज महाराज दुर्योधन विद्यमान है, कभी इसे पाण्डु नरेश सुशोभित करते थे। उन्होने अपने बाहुबल तथा पराक्रम से हस्तिनापुर राज्य का Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत दूर दूर तक विकास किया और भारत खण्ड मे इस खण्ड की इतनी सीमाएं बढाई कि इस क्षेत्र मे सभी इस राज्य से प्रभावित हुए। किसी की भी शक्ति नही हुई कि इस राज्य को चुनौती दे सके । उन के पच महाव्रती मुनि बाणा स्वीकार करने के उपरान्त पाण्डवो का अधिकार था. और पाण्डवो मे भी ज्येष्ठ धर्मराज युधिष्ठिर का कि वे इस राज की बागडोर को सम्भाले परन्तुं पाण्डव रस समय बाल्यवस्था मे थे और विवश होकर पाण्ड नरेश को राज्य सिंहासन धृतराष्ट्र को सौपना पडा। लेकिन विल्कुल इसी प्रकार सिहासन सौपा गया, जैसे पाण्डवो का हाथ उन्होने धृतराष्ट्र के हाथ मे दे दिया था। एक अमानत थी जो धृतराष्ट्र को सौंपी गई। जब उस अमानत के वास्तविक अधिकारी व्यस्क हुए तो धृतराष्ट्र को चाहिए था कि वे उस सिंहासन को उन्हें सौंप देते, जिन कि वह सम्पत्ति थी। परन्तु ऐसा नही हुआ,कौरव पाण्डवो के अधिकार की चुनौती देने लगे और बुद्धिमान धृतराष्ट्र ने पूज्य भीष्म पितामह और महान आत्मा विदुर की सलाह से हस्तिनापुर राज्य को दो भागो मे विभाजित कर के एक भाग्य दर्योधन को और दूसरा पाण्डवो दे दिया पाण्डवो के दिल पर तनिक भी मैल नही आया। उन्होने उजडे हुए खाण्डव प्रस्थ का जीर्णोद्धार किया। किन्तु वे अभी अपने राज्य के कारोवार को सम्भाल ही पाये थे कि उन पर दूसरी आपत्ति आ पड़ी और हस्तिनापुर के पराक्रमी नरेश पाण्डू की सन्ताने वनकी खाक छानने के लिए भेज दी गई । इस शर्त पर कि १२ वर्ष के बनवास और एक वर्ष के अज्ञातवास वे उपरान्त वे अपनी खोई हुई सम्पत्ति को वापिस लेने के अधिकारों होगे । उन्होने इसी विश्वाम पर कि उक्तशर्त ममस्त मुलझे हुए तथा माने हुए वयोवद्ध नथा नीतिवान लोगों के सामने रखी गई है, जो पूर्ण होगी. वह राजा दुर्योधन का एक वचन . वह था एक क्षत्रिय राजा का वचन । क्षत्रिय वीरो ने क्षत्रिय राजा के वचन पर विश्वास किया और ज्यो त्यो विभिन्न कण्ट उठा . कर उन्होंने १३ वर्ष व्यतीत कर लिए । फिर वह अधिकारी हो गए कि शर्त व वचन के अनुसार अपना राज्य वापिस ले ले लेकिन ऐसा लगता है कि नीतिज्ञो तथा शास्त्रज्ञो के समक्ष दिया गया वचन पूर्ण नहीं होगा। यदि ऐसा है तो यह कहा का न्याय है कि धृतराष्ट्र को मन्लाने तो सम्पूर्ण राज की अधिकारी बने और पाण्डु नरेश की Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्धि वार्ता सन्तान दर दर को ठोकरे खाती फिरेक्षत्रिय राजापो का वचन यदि इस प्रकार तोडा गया तो यह कोरच वश पर ही नही वरन समस्त चीगे के लिए कलक की बात होगी । यदि कोरच राज के दरबार मे विगजमान धर्मात्माओ के रहते यह अन्याय हुआ तो इस कलक की उत्तर द यित्त्व उन पर भी होगा । पाण्डव सम्पूर्ण राज्य नहीं चाहते वे चाहते है वहीं आधा भाग जो स्वय धृतराष्ट्र ने दिया था। यदि उन्होने जुआ खेलने को भूल की थी तो उस भूल का इतना कठोर दण्ड किन १२ वर्ष तक राज्य विहीन होकर मारे मारे फिरे, एक वर्ष तक नौकर च कर होकर उन्होने विराट नरेश की सेवा की, वहत ही काफी, है बल्कि अधिक है। इस समय कौरव कुल की प्रतिष्ठा का सवाल है। समस्त क्षत्रिय वीरो की प्रतिष्ठा का प्रश्न है। पाण्डव राज्य पाने केलिए युद्ध नहीं चाहते क्योकि युद्ध मे जो भयकर रक्तपात होगा उसका मूल्य पाण्डु नरेश के राज्य के आधे भाग्य के मूल्य से सहस्त्र गुना अधिक होगा। महाराज युधिष्ठिर नही चाहते कि एक ही कुल को सन्ताने अ.पस मे शत्रु बन कर रण क्षेत्र मे उतरे । वे इस बात के विरुद्ध है कि भाइयो के परस्पर विवाद के लिए भरतखण्ड के करोडो योद्धा एक दूसरे के रक्त के प्यासे बन कर हिंसक पशुओ की भाँति एक दूसरे पर झपटे । यदि युद्ध हुआ तो इतना भयकर होगा कि इस महायुद्धमे पता नही कितने अनगिनत वीर काम आये। कितनी माताओ की गोद खाली हो और कितनी बहनो के सुहाग युद्ध की ज्वाला मे भस्म हो जायें, कितने लाख बालक अनाथ बन जाये। इतने भयकर महायुद्ध को टालना अब आप के हाथ मे है । महाराज युधिष्ठिर की हादिक कामना है कि इस विवाद को शाति वार्ता के द्वारा सुलझा लिया जाये । इस लिए न्याय तथा वचन के अनुसार उन का राज्य उन्हें लौटा दिया जाये । मैं यही सन्देश लेकर आया हूं कि महायुद्ध को टालने के लिए आप अपनी ओर से उनकी मांग स्वीकार करने में विलम्ब करे । यदि समझौते के द्वारा उन्हे उन का भाग लौटा दिया गया तो फिर इस कुल की सन्तानो मे परस्पर सहयोग तथा स्नेह की धारा चल निकलेगी।" इतना कह कर दूत ने समस्त उपस्थित नीतिज्ञों की ओर दृष्टि उठाई। सभी के चेहरो पर पाते उतार चढ़ाव को परखने के उपरान्त Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ जैन महाभारत द्र पद राज के महामत्री ने अन्त में भीष्म पितामह के मुख पर नजरें। गडा दी। भीष्म पितामह उनकी प्रश्न वाचक दृष्टि के उत्तर में बोले - "पाप के द्वारा यह जानकर मुझे प्रसन्नता हई कि पाण्डव सकुशल हैं, वे आज शक्ति सम्पन्न हैं. कितने ही पराक्रमी राजा उन की सहायता को तत्पर है कितनी ही विशाल सेनाए उनकी ओर से से युद्ध मे उतरने के लिए तैयार हो रही है इतनी शक्ति बटोर लेने उपरान्त भी पाण्डव युद्ध नहीं चाहते, वे समझौते के उत्सुक हैं, इस बात को जान कर मुझे बहुत सन्तोष हुआ। और इस बात को दृष्टि मे रखते हुए मुझे यही न्यायोचित जंचता है कि उन्हे उनका राज्य वापिस दे दिया जाय तथा परम्पर मैत्री भाव की नीव डाली जाय। यही कल्याणकारी मार्ग है 1. मै समझता हू कि . अन्य लोग भी ... . . . .. अभी भीष्म पितामह की वात 'पूरा नहीं हो पाई थी कि कर्ण बीच मे बोल उठा उसे भीष्म पितामह की बात बडी अप्रिय लगी। बडे क्रोध के साथ वह बोला- विद्वान सज्जन ! आप ने जो बात कही, उस मे कोई नई बात नहीं है कोई नया तर्क आप ने प्रस्तुत्त नही किया प्रत्युतवही राम कहानी वाच रहे है जो पहले भी पाण्डवों की ओर से कही गई और आज कल कही ही जा रही है। युधिकिर दुर्योधन को यह घोंस देकर अपना राज्य वापिस लेना चाहते है कि उन की और मत्स्य राज तथा पाचालराज की बड़ी भारी सेनाए है परन्तु उन्हे याद रखना चाहिए कि किसी प्रकार की धौस के द्वारा वे अपना राज्य वापिस नहीं ले सकते उन्होंने अपना राज्य जुए मे हारा था- हारी हुई वस्तु को वापिस मांगने का आज तक किसी को अधिकार नहीं हुआ और न किसी ने ऐसा साहस ही किया। वे एक ओर शर्त शर्त गाते हैं और दूसरी ओर अपना अधिकार जमाते है। दोनो साथ साथ नहीं चल सकती। जहा तक शर्त का प्रश्न है, तेहरवे वर्ष के समाप्त होने से पूर्व ही अर्जुन पहचान लिया गया, इस लिए शर्त के अनुसार उन्हें पुन १२ वर्ष के वनवास और १ वर्ष के अज्ञात के - बाम के लिए जाना चाहिए। उसके उपरान्त शर्त की बात साठये Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 f सन्धि बार्ता और जहा तक अधिकार की बात है स्पष्ट है कि हारी हुई सम्पत्ति पर उन्हे कोई अधिकार नही है । आप उन्हें बता दीजिए कि कौरव किसी धौस मे नही आने वाले । " २ २९९ - कर्ण के इस प्रकार बात काट कर बीच ही मे बोल उठने से भीष्म को बडा क्रोध आया। वे बोले - "राधा पुत्र ! तुम व्यर्थ की । बातें करते हो । यदि हम युधिष्ठिर के दूत के कहे अनुसार सन्धि-न करें ता महायुद्ध छिड जायेगा और मैं जानता हू कि महायुद्ध हुआ तो उस मे दुर्योधनं श्रादि सब को पराजित हो कर मृत्यु का ग्रास बनना होगा। इस लिए भावावेश मे ऐसी आग मत भडकाश्रो जो कौरवो को जला कर भस्म कर डाले। तुम यदि कौरव राज के हित चिन्तक हो तो डीगे हाकनी छोड कर समय की आवश्यकता और वास्तविकता को परखो | याद रखो कि युद्ध कभी भी लाभ दायक नही होता । मत्सय राज्य पर आक्रमण की घटना याद करो और अपने को बुद्धिमान सिद्ध करो । फँ भीष्म पितामह की बात कर्ण को बडी कडवी लगी। वह कुछ बड बडाने लगा । दुर्योधन भी पेंचोताव खाने लगा। द्रोणाचार्य भी कुछ कहने लगे । इस प्रकार सभा मे खलबली मच गई। यह देख कर धृतराष्ट्र बोले 1 " पांचाल राज्य के महामंत्री । मुझे यह जानकर बडी प्रसन्नता है कि मेरे प्रिय भतीजे कुशल हैं और कौरवो से सन्धि के इच्छुक है । ठीक है हमे शांति भग नही होने देनी चाहिए। मैं स्वय भी युद्ध के विद्ध हू । श्राप के द्वारा प्राप्त सन्देश का उत्तर मैं अपने समस्त वुद्धिमान परामर्श दाताओ के साथ मंत्रणा करने के उपरान्त मजय द्वारा भेज दूँगा । आप युधिष्ठिर से जा कर कहे कि शीघ्र ही हमारा राजदूत उन की सेवा मे उपस्थित हो कर सारी बातें करेंगा | आप अनुभवहीन युवको की बात पर न जायें । कौरव वंश के वृद्ध बुद्धिमान लोग अपनी ओर से युद्ध रोकने का पूर्ण प्रयत्न । करेंगे।" 1 इभी बीच दुर्योधन बोल पडा - विहट्टर ! श्राप जाकर यह C Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० जैन महाभारत अवश्य कह दे कि घमण्ड मे आकर मेरे पौरुष को न ललकारे। उन्हे मुझ से अपने जीवन यापन हेतू कुछ याचना ही करनी है तो याचको की भाति आय परन्तु राज्य पर उन का कोई अधिकार नहीं। हम किसी की धौंस सहन करने वाले नहीं है। रण भूमि मे उतरेंगे तो हम उन्हें दिग्वा देगे कि दुर्योधन की टक्कर लेना तुम जैसे लोगो के बस की बात नहीं है। दूसरो की सहायता पर गज्य जीतने का स्वप्न देखता छोड दे।" द्रोणा बोले-'दर्योधन । अपने वृद्धजनो के विचार का खले दरबार में विरोध करते हए तुम्हें लज्जा आनी चाहिए। युद्ध की चुनौती दे कर नाश को निमन्त्रित करना बुद्धि मानी नहीं है।" कर्ण फिर भावावेश मे बोला- "हम अभी बूढे नही हुए। हमारा रक्त अभी तक जवान है। हम अपनी मर्यादा पर आच पाने देना नहीं चाहते। राज्य की भीख धौंस देकर मांगनेवालो को हम मुह तोड जवाव दंगे।" बात पुन. विगडती देख विदुर जी बोले- "शाति पूर्वक जो विवाद हल हो जाता है वह झगडे से नहीं। यद्ध किसी भी समस्या का मानवीय हल नहीं होता। हम सब जिस धर्म के अनुयायी है, अहिंसा तथा शाति उसकी आधार शिलाए है। इस लिए हमे जा कुछ करना है वह ठण्डे दिमाग से सोच समझ कर। पाण्डवो के प्रस्ताव का हम स्वागत करते हैं और मैं ममझता हू धृतराष्ट्र का उत्तर इस सम्बन्ध मे न्यायोचित तथा उपयुक्त ही है।" · धृतराष्ट्र को सहारा मिला और उन्होने पुनः अपनी बात दोहराई और राजदूत को विदा कर दिया गया। धृतराष्ट्र ने विदर तथा भीष्म जी को बुला कर मत्रणा की। उन दोनो ने ही पाण्डवो को प्रशसा और दुर्योधन व कर्ण की नीति की निन्दा की और अपनी ओर मे सजय को समझौता वार्ता चलाने के लिए भेजने का समर्थन किया। तब धृतराष्ट्र ने सजय को वुलाया और बोले "मंजय । वस्तुस्थिति क्या है तुम भनि भाति जानते हो। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्धि वार्ता और तुम्हे यह भी ज्ञात है कि पाण्डव बड़े पराक्रमी हैं अपने पिता , के समान ही वे प्रतापी है। उन्होने अपने बाहबल से राज्य का जो विस्तार किया, वह भी मुझे ही सौप दिया था। मैंने उन मे दोष ढूढने का प्रयत्न किया परन्तु कोई दोष न मिला। युधिष्ठिर तो धर्मराज है। उसकी बुद्धिमत्ता, न्यायप्रियता तथा धार्मिकता के आगे तो मेरा सिर भी झुक जाता है। युधिष्ठिर ने दुर्योधन की सारी कुटिलताओ को क्षमा किया । वाल्यकाल से दुर्योधन ने उन्हे मिटाने के षडयत्र रचे, फिर भी पाण्डव मुझे पाण्डु के स्थान पर मानने रहे । अब उन्होने दर्योधन की शर्त पूर्ण कर दी और चे अपने खोए राज्य को पुन प्राप्त करने के अधिकारी हो गए। परन्तु दुर्योधन और कर्ण जीते जी उनके राज्य को लौटाना नहीं चाहते जब कि पाण्डवो के साथ एक बड़ी शक्ति है । श्री कृष्ण जैसा प्रकाण्ड विद्वान गजनीतिज्ञ, कटनीतिज्ञ तथा योद्धा सहायक है। राजा विराट उनका भक्त हैं । पाचाल नरेश और उसकी समस्त शक्ति, सात्यकि व उमकी समस्त विशाल सेना, कितनी विशाल शक्ति है पाण्डवो की ओर । जव कि स्वय पाण्डव ही एक महान शक्ति है । अर्जुन अकेला ही दिग्विजय कर सकता है । उस अकेले ने ही मत्स्य राज्य पर कौरवो के आक्रमण के समय समस्त कौरव वीरो को मारभगाया था। जो कर्ण आज बढ बढकर बातें करता है वह स्वय अर्जुन के हाथों मुह की खा चुका है। भीम मे तो अमीम वल है उमकी टक्टर का अब पृथ्वी पर एक हो वीर है, वह है बलराम। नकुल सहदेव आदि भी सुलझ हुए योद्धा है । और युधिष्धिर तो अपने पुण्य शुभ प्रकात वथा शुद्ध विचारो के कारण इतनी महान शक्ति है कि वे चाहे तो सारे कौरवो को भस्म कर डाले। मुझे युधिष्ठिर से भय लगता है। ऐसी दशा मे कोई भी यद्ध का छिडना हमारे नाश का ही कारण वन मकता है अत तुम महाराज युधिष्ठिर के पास जाओ और उन के सहयोगियो मे भी मिलो और जिस प्रकार भी हो मन्धि की वार्ता चलायो । प्रयत्न करना कि वे इधर से कुछ मिले या • न मिले, पर मन्धि को तैयार हो जाए। यह भी मालूम करो कि मन्धि कम से कम किन शर्तों पर हो सकती है। सजय ने उत्तर दिया- "राजन । आप का विचार बहुत ही Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ ठीक है आप यह कार्य मेरे ऊपर छोड़ रहे है तो विश्वास रखिये कि मैं अपना पूर्ण प्रयत्न करूगा कि किसी प्रकार समझौते का रास्ता निकल ग्राये" जैन महाभारत धृतराष्ट्र ने सारी बाते समझाकर सजय को उपप्लव्य नगर भेज दिया । X X X उपप्लव्य नगर पहुचते ही सजय का पाण्डवो की ओर से बहुत आदर हुआ । युधिष्ठिर ने सर्व प्रथम उस मे हस्तिनापुर का समाचार पूछा । उसके पश्चात सजय बोला "राजन् बडे सौभाग्य की बात है कि आज आप अपने सहयोगियो के साथ सकुशल है । राजा धृतराष्ट्र ने आपकी कुशलता पूछी है सत्य व्रत का पालन करने वाली राजकुमारी द्रोपदी तो सकुशल है न ?" X X - "अर्हन्त भगवान की कृपा दृष्टि से हम सभी कुशल हैं । और . मारे कौरव कुल की कुशलता की कामना करते है 'युधिष्ठिर वो इसके उपरान्त युधिष्ठिर ने सजय से उपप्लव्य नगर के पधारने का कारण पूछा । मजय बाला - "मुझे महाराज धृतराष्ट्र ने आपकी सेवा में एक सन्देश पहुंचाने के लिए भेजा है।" कहिये उनका क्या सन्देश है ?" + वे उनका विचार है कि "युद्ध किसी भी दशा मे मानव समाज के कल्याण का साधन नहीं बन सकता। इस लिए चाहे जो हो , - आप युद्ध की कामना न करें । - संजय बोला महाराज धृतराष्ट्र का यह सन्देश हम शिरोधार्मय करते है और साथ ही यह भी कह देते है कि हम स्वयं युद्ध करने के इच्छुक नही है । परन्तु अपने ऊपर हो रहे अन्याय का प्रतिकार भी चाहते है | यदि किसी प्रकार भी दुर्योधन सन्धि के लिए तैयार हो जाए तो हम युद्ध नहीं करेंगे। युद्ध हमारा उद्देश्य नहीं सावन हा मक्ता है ।" - युधिष्ठिर बोल | Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्धि वार्ता २०३ मंजय ने फिर कहा-"महाराज धनराष्ट म्वय अपन पत्रा को हेठ से दुखी है। वास्तव मे धनगष्ट्र के पुत्र निरे मूर्ख हैं। वे न अपने पिता की बात पर ध्यान देते है और न वे भीष्म पितामह को हो- सुनते है । ये तो अपनी मूर्खता की धुन मे ही मम्न है। फिर भी आप तो धर्मराज है, मबृद्धि है अाप को उनकी मूर्वतारो मे उत्तेजित नहीं होना चाहिए। क्योकि यदि युद्ध छिडा तो एक ही वश की सन्ताने मारी जायेगी। ग्राप यद्ध के द्वारा च'हे पहाड़ी से लेकर मागर तक का राज्य भी जीत ले, पर तलवार तथा धनुष बाण जैसे अस्त्र शस्त्रों. मे वद्धावस्था तथा मृत्यु पर विजय नहीं- 'म सकते। त्याग ही सुख की प्राप्ति का साधन है। इस लिए पाप जसे धर्म बुद्धि व्यक्ति को कभी भी यद्ध की बात नही करनी चाहिए। हठ वादी दुर्योधन अपनी मुर्खता के कारण चाहे एक बार आप को गज्य देने से भी क्यो न इन्कार करदे, फिर भी आप युद्ध की बात-न-करे। - धृतराष्ट्र आy की बुद्धि पर विश्वास करते है। उन्ह ग्राप पर पुत्र वन प्रेम है और आप के प्रति उन्हे दर्योधन से अधिक विश्वास है। इस लिए वे चाहते हैं कि आप युद्ध का विचार त्याग कर धर्मानुकूल जीवन बिता कर समार मे यश प्रात करे । यदि दुर्भाग्यवश युद्ध छिड गया तो सब मे अधिक -दुख धृतराष्ट्र को होगा क्योकि रक्त चाहे कौरवो का वहे चाहे कुन्ती नन्दनो-का उनके लिए एक ही बात है। इस लिए मैं बार बार कह रहा हू उसका तात्पर्य यह है कि पाप राज्य से अधिक धर्म को चिन्ता करे " सजय की बात सुन कर युधिष्ठिर वोले - "सजय । सम्भव है । आप की ही बात सच हो। और यह बात तो बिल्कुल सच है हो कि हमे राज्य से अधिकं धर्म की चिन्ता होनी चाहिए। क्यों कि केवली प्रभु का भी यही कथन है कि धर्म ही मनुप्य का कल्याण करता है, यही एक मात्र सहारा है। धर्म से ही मनुष्य को वास्त. विक सुख प्राप्त होता है। राज्य तथा धन सुख प्राप्ति के साधन नही। फिर भी हम यह समझ कर अन्याय को बढते रहने. या फूलने फलने के लिए नही छोड सकते। हम न्याय के रक्षक है। जब तक गृहस्थ्य धर्म मे हैं तब तक अन्याय को रोकना तथा न्याय Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ जन महाभारत के लिए लड़ना हम अपना कर्तव्य समझते है। हा इस सम्बन्ध मे यह अवश्य ही समझते है कि यदि दुर्योधन किमी भी गर्त पर हम मे मन्धि करने को तयार हुग्रा तो हम मन्धि करना ही अच्छो समझेगे। हम अपने पुरे राज्य को वापिस लेने की जिद नहीं करते। और अन्त मे निर्णय श्री कृष्ण पर छोडते है वे दोनो ही पक्ष के हितचिन्तक हैं और धम के मर्म का भी समझते है " श्री कृष्ण उस समय वहा विराजमान थे ! बोले "ठीक है जहा मैं पाण्डवो का हितचिन्तक हू वही कोरवो को भी मुखी देखना चाहता हू। परन्तु समस्या इतनी जटिल हो गई है और दुर्योधन उसे इतना जटिल बनाता जा रहा है, कि इसे मुलझाने के बारे में एक दम कुछ नहीं कहा जा सकता ।'' "फिर भी श्राप किमी प्रकार इमे सुलझाने का तो प्रयन्त करे। ही।"-सजय बोला। “धत राष्ट्र गाति चाहते है। हम सन्धिवार्ता के लिा पहले हो दूत भेज चुके हैं। और हमे ज्ञान, हुआ है कि भीम जी तथा विदुर जी दोनो ही शाति व सन्धिं के पक्ष मे है। फिर तो समस्या मुलझ जानी चाहिए। श्री कृष्ण जी स्वय ही एक वार प्रगल कर के क्यो न देख ले ।"-युधिष्ठिर ने कहा । श्री कृष्ण कुछ मोचने लगे। थोड़ी देर मभी चुप रहे अन्त में उस चुप्पी को भग करते हुए श्री कृष्ण ने कहा-"मेरा विचार यह है कि मुझे एक बार स्वब ही हस्तिनापुर जाना होगा। पर दूसरी ओर मैं यह भी समझता है कि भीम , विदुर तथा धृतराष्ट्र की इच्छा सन्धि के लिए हो सकती है, परन्तु दुर्योधन अपने हठ वादी तथा मूर्व परामर्श दाताओ की कृपा से सन्धि के लिए कभी तैयार हो सकता है इस मे सन्देह है। फिर भी एक बार मैं उसे अवश्य ही समभाऊगा। प्रयत्न करूगा कि यह महायुद्ध छेड़ कर अपनी मृत्यु और अपने परिवार के नाश को निमन्त्रित न करें।" Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्धि वार्ता ३०५ - - सजय ने श्री कृष्ण की बात सुनी। उसने अनुभव किया कि श्री कृष्ण को बात में कौरवो के लिए एक धमकी भी छिपी है और उन्हें विश्वास हैं कि महायुद्ध में पराजय कौरवो की ही होगी । कुछ सोच कर सजय बोला -- "आप हस्तिनापुर आकर यदि समझाने का प्रयत्न करेंगे तो सम्भव है आप के कहने व समझाने बुझाने से दुर्योधन मान जाय । . परन्तु एक बात का ध्यान आप अवश्य ही रक्खे कि दुर्योधन के मूर्ख सलाह कार उसे भडकाते रहते हैं इस बात को आधार बना कर कि देखा, पाण्डवो की श्रोर से घमकी दी जा रही है। और दुर्योधन को अपनी शक्ति पर अभिमान है इस लिए आप किसी भी प्रकार दुर्योधन के सहयोगियो का उसे उत्तेजित करने का अवसर न दें ।" श्री कृष्ण सजय के परामर्श पर मुस्करा दिए । युधिष्ठिर ने कहा - "श्री कृष्ण जी ! आप जाकर जिस तरह भी हो सन्धि का उपाय खोजे यदि दुर्योधन हमे हमारा पूर्ण राज्य भी न दें तो हम केवल ५ गाँव तक ले कर भी सन्तुष्ट हो सकते हैं . ग्राप चाहे तो यह न्यूनतम माग उस से स्वीकार करा कर युद्ध टाल सकेंगे ।" V श्री कृष्ण ने युधिष्ठिर की उदारता की भूरि भूरि प्रसा की । अन्त मे बोलें युधिष्ठिर ! इतनी शक्ति होने और इतनी विशाल सेनाओ का सहयोग प्राप्त कर चुकने के पश्चात भी इतनी न्यूनतम शर्त पर सन्धि करने को तैयार होकर आप ने जो उदारता न्याय प्रियता, धर्म प्रियता और शान्ति प्रियता दर्शाई है, उसको कदाचिन आप के अतिरिक्त प्राज के युग मे किसी से भी आशा नही की जा सकती। आप की ओर से इतनी छूट देने पर तो संन्धि हो जानी चाहिए। परन्तु यदि इस दशा में भी सन्धि न हुई तो फिर आप का रणभेरी बजा देना पूर्ण तथा न्यायोचित होगा ।" - ! सजय को युधिष्ठिर की बात सुन कर बहुत ही सन्तोष हुआ और मन ही मन उस ने युधिष्ठिर की बहुत प्रशसा की 1 मन हो मन वह युधिष्ठिर की उदारता के प्रति तनमस्तक हुआ और प्रत्यक्ष रूप मे कहने लगा--''धन्य धन्य राजन् ! ग्राप वास्तव मे धर्म 4 Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत यात्म सजे है। आप जैसे उच्च विचारों और शेर्भ वादी व्यक्ति की कभी पराजय नहीं हो सकती।" -- -- ..... - . प्रात्म प्रशसा सुनने के बाद भी युधिष्ठिर गम्भीर ही रहे। उन्हो के चेहरे पर प्रसन्नता का एक भाव भी द्रवित न हुअा ठीक है महाँ पुरुष ने अपनी प्रशंसा,सुन कर प्रसन्न होते और ने अपनी आलोचना से खिन्न हो। वे गम्भीरतापूर्वक बोले-"सजय ! आप के द्वारा प्राप्त धृतराष्ट्र के सन्देश से अपार प्रसन्नता हुई है आप उन से जाकर मेरी ओर से कहे कि हमे उन पर विश्वास है हम ने अपने स्वर्गवासी पिता जी के स्थान पर माना है। उन्ही की कृपा से हमे प्राधा राज्य मिला था और आज यदि वे चाहे और हृदय से प्रयल करे तो व्यर्थ का रक्त पात बच - सक्ता है। यदि दुर्योधन हमे जीवन यापन के लिए पाच ग्राम भी देना स्वीकार कर ले तो हम धृतराष्ट्र की सेवा करते हुए अपना जीवन निर्वाह कर लेंगे। धृतराष्ट्र हमारे लिए सदा आदरणीय रहे हैं और रहेंगे। उन्ही की कृपा से १२ वर्ष के बनवास व ५ वर्ष अज्ञातवास की शर्त पर हमे राज्य वापिसी का आश्वासन मिला था। यदि वह वचन वे पूर्ण करादे तो अहो भाग्य। हम रण भूमि में उनके पुत्रो के शत्रु रूप मे पाने की इच्छा नहीं रखते, परन्तु हमे ऐसा करने को विवश किया जा रहा है। श्री कृष्ण जी उनके पास पहचेंगे। वे दृढता पूर्वक अपने मनोबल को प्रयोग कर के सन्धि का मस्ता खुलवा दें। हम जीवन भर उनके आभारी रहेगे।" __ "आप भीष्म पितामह से जाकर कहे कि पाण्डवो को उनकी न्याय प्रियता पर पूर्ण विश्वास है। उन्हो ने हमारे दूत के साथ जो सौजन्यता दाई है हम उस के लिए आभारी है। हम जानते है। कि वे शाति के कितने बडे समर्थक है । वे { न्याय प्रिय है। वे यदि चाहे तो हम जीवन भर य ही बनों में भटकते फिरने के लिए भी तैयार है परन्तु उनके रहते कौरव पक्ष ' की ओर से अपने वचन का उल्लघन हो यह उन के लिए भी लज्जा की बात है। हमे चाहे किसी रूप में भी रहना पड़े पोर चाहे अन में दुर्योधन को हल ने विवश होकर शत्रु स्प मे भी रण भूमि Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्धि वार्ता १७ मे आना पड़े। फिर भी भीष्म- हमारे लिए पूजनीय हैं। हम चाहते हैं कि वे इस अवसर पर कौरवो तथा पाण्डवो दोनो के हित के लिए कार्य करे। - "दुर्योधन से-जाफर कहे कि हम उसके भाई है यदि केवल राज्य के लिए हम भाई भाई आपस मे लडे तो सारा ससार हम पर थूकेगा। हम उस वश के लोग हैं जो राजकुलों मे पूजनीय रहा है। दुर्योधन ने राज्य के दो भाग कराये, तो भी हमने प्रसन्नता पूर्वक उसे स्वीकार कर लिया। उस ने हमे जुए के लिए निमंत्रित किया, हम ने भाई की भाति स्वीकार कर लिया। उस ने हमें बनवास दिया, हम बनो में चले गए। उस ने ५ वर्ष के अज्ञात वास की इच्छा प्रकट की, हमने राजकुमार होते हुए विराट के दरबार मे सेवा टहल करते हए अज्ञात वास किया . एक बार जब गन्धवा ने उसे बन्दी बना लिया था तो हम ने भाई होने के नाते उसे उन से छुडवाया। मत्स्य राज्य पर आक्रमण के समय अजून चाहता तो उस का बध भी कर सकता था, पर भाई के नाते उस ने ऐसा नहीं किया। अब समय आया है कि वह हमारे प्रति भ्रातृत्व का प्रदर्शन करे और हमे अपना भाई समझ कर हमारे साथ न्याय करे। राज्य चाहे कितना विशाल हो, वह आदमी की आत्मा को महान नहीं बनाता, मनुष्य सम्पत्ति अथवा उच्चासन के कारण उच्च श्रेणी प्राप्त नहीं कर सकता और धन धान्य सच्चिदानन्द की प्राप्ति के लिए व्यर्थ है। मनुष्य की महानता उनके शुभ कर्मों मे उस के चरित्र में निहित है। इस लिए वह उदारता का परिचय दे। मनुष्य को कभी अपनी शक्ति पर ग्रहकार नहीं होना चाहिए। अतः उसे हमारे साथ सन्धि कर के इस समस्या को सुलझा लेना चाहिए । न्याय ही राजा का प्राभूषण होता है। मित्र, सहयोगी, सेना, सम्पत्ति, बन्धु बान्धव कोई भी अन्त समय मैं आत्मा का साथ नहीं देता काम आता है तो अपना धर्म। मनुष्य योनी में आकर भी अपनी आत्मा के कल्याण के लिए धर्म का मार्ग न अपनाया तो मनुप्य जन्म व्यर्थ चला गया समझो मत्य का क्या ठिकाना, कब पाकर ढोल बजादे। इस लिए अहकार को छोड़ कर उसे सन्धि के लिए तैयार हो जाना चाहिए और हमे अवसर देना चाहिए कि Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत भविष्य में भी किसी श्राडे समय पर हम उसके काम आ सके । यदि वह नहीं चाहता कि हमाग छीना हुआ भाग पूरा का पूरा हमे वापिस मिले तो केवल पांच गांव ही हमे दे दे। हम उसी से मन्तुष्ट हो जायेगे । दुर्योधन को मेरा यही सन्देश सुना देना। और अन्न में कहना कि वह अपनी उदारता का परिचय दे, मैं तो सन्धि के लिए भी तैयार हूं और आवश्यकता पडने पर युद्ध के लिए भी ।" ३०८ संजय ने युधिष्ठिर का सन्देश सुन कर एक वार पुन उनकी धर्म बुद्धि की प्रशंसा की और उनके सन्देश को अक्षरशः पहचाने का वचन देकर हस्तिना पर की ओर प्रस्थान कर दिया। परन्तु जाते समय अर्जुन से उनका भेंट हो गई। अर्जुन ने रोक कर कहा "क्या आप सन्धि का सन्देश लेकर आये थे ?" “हाँ।" : • "तो क्या रहा । " " प्राप की ओर से सन्धि की पूर्ण तथा कामना है।" "क्या दुर्योजन भी तैयार है।" "अभी तो नही ।" "तो फिर आप दुर्योधन मे जाकर कहें कि मेरा गाण्डीव धनुष युद्ध के लिए लालायित हो रहा है। तरकश के वाण स्वय उछल उछल कर पूछ रहे है "कत्र ? कब ?" अर्थात को यमलोक पहुचाने के लिए हमे कब प्रयोग करोगे ? मेरे सारथी होगे तब हम दोनों मिल कर उसे धूल चटा रहेंगे। ऐसा मालूम होता है कि दुर्योधन के नाश के दिन मारहे है, " दुर्योधन श्री कृष्ण कर ही निकट Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *"छवीमा परिच्छेट * ****** । * *888 ६ 448 弟弟弟弟弟弟 दुर्योधन का अंहकार । का %%%%$张 के । 张器強強強強強张张免费参张张张 उधर सजय ने हरितनापुर मे प्रस्थान किया. इधर धृतराष्ट्र उसकी वापिसी की बेचैनी में प्रतीक्षा करने लगे। रात्रि को उन्हें नीद भी न पाई। बिस्तर पर पडे पडे वे करवट बदलते रहे। जब किसी प्रकार भी उन को मानसिक विकलता शात न हुई तो उन्होंने विदुर को बुलाया। बोले - "सजय तो शाति दूत बन कर गा है, पर मेरा मन बहुत विकल है। मैं सन्धि व शाति चाहता हूँ। तुम भी बताओ कि क्या होना चाहिए। दुर्योधन तथा कर्ण तो मन्धि की बात भी सुनना गवारा नहीं करते। क्या किया जायर की बात भार क्या होना। मैं सन्धित गत बन कर विदुर जी ने धतगप्ट को समझाते हए कहा-"गजन् ! नीति तो यही कहती है कि पाण्डवो को राज्य वापिस देना ही उचित है। यदि धर्म से घणा है तो कुट नीति और युक्ति का भी यही तकाजा है क्यों कि स्पाट है, श्री कृष्ण चाहे नि.शस्त्र हो कर भी पाण्डवो के साथ है, और मत्स्य तथा पांचाल की सेनाएं पाडवों की और से युद्ध मे उतर रही है तो भी हमारा पाण्डवो पर विजय पाना असम्भव है। इस लिए आप किसी भी प्रकार दुर्योधन को समझाए कि वह हठ न करे। सन्धि करले, यदि वह बडा राज्य ही चाहता है, तो अपने बाहुबल से अपने राज्य का विस्तार करे।" इसी प्रकार विदुर जी गई रात तक धृतराष्ट्र को समझाने Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० जैन महाभारत 44 रहे । दूसरे दिन म जय भी आ गए। दरबार लगा था, कौरव कुल के सभी विवेक शील एव अविवेकी व्यक्ति उपस्थित थे। सजय ने आकर युधिष्ठिर तथा श्री कृष्ण से हुइ चर्चा को सविस्तार कह सुनाया। और अन्त में दुर्योधन को सम्बोधित करते हुए कहा विशेषतया दुर्योधन को चाहिए कि अर्जुन की बात ध्यान पूर्वक सुनें।" ----- ---- - बीच ही मे दुर्योधन आवेश मे आकर बोला- "क्या कहा है अर्जुन ने ?"--उस समय दुर्योधन का मुह तमतमा रहा था। - सजय बोले. - "अर्जुन ने कहा है कि इस मे कोई सन्देह नही कि मैं और श्री कृष्ण दोनो मिल कर दुर्योधन और उन के साथियो का नाश कर के ही रहेगे मेरा, गाण्डीव धनुष युद्ध के लिए लालायित है। धनुष की डोरी आप ही आप टकार कर उठती है। तरकस के तीरें स्वय उछल रहे है वे तरकश मे झाक कर पूछ लेते है कि हमे दुर्योधन को मारने के लिए कब प्रयोग करोगे? दुर्योधन का विनाश काल निकट अा गया है इसी लिए वह हमे युद्ध के लिए विवश कर रहा है:" - . मुनने ही दुर्योधन की प्रांखो मे खून वरमने लगा।. परन्तु भीम-जी-बोले- 'दुर्योधन ! निम्मुन्देह अर्जुन तथा श्री कृष्ण दोनों मिल कर- युद्ध करं- तो उनके मामने देवता भी नहीं जीत सकते । जब वे दोनों एक साथ मिल कर तुम्हारे विरुद्ध लड़ने लग जायेंगे तो तुम्हाग पता भी न लगेगा ,'' - कणं को बड़ा झोध पाया। वह गरज कर बोला--"जय मै उम अर्जुन नामक छोकरे की प्रगमा मुनता हूँ तो मेग रक्त बोलने लगता है। जिसे आप देवताओं से भी अधिक समन, रहे Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्योधन का अंहकार हैं, और उसके साथी श्री कृष्ण जिनकी प्रशसा करते पोप नही अघाते, वह बेचारे तो कल परसो ढोर चराया करते थे। वे क्या जाने लडने की सार। मेरे सामने उन , दोनो मे से एक भी नहीं ठहर सकता और मेरी बात की सच्चाई आप को रण भूमि में ज्ञात हो जायेगी। आप दुर्योधन को भय विह्वल करने की चेप्टा, न करें।" - कर्ण की यात्म प्रशंसा का उत्तर उसे ही न देकर भीष्म जी धृतराष्ट्र से बोले- "राजन ? सूत्र पुत्र कर्ण बार बार यही दम भर रहा है कि मैं पाण्डवो को रण भूमि मे खत्म कर दंगा। किन्तु मैं कहता हूं कि पाण्डवों की शक्ति का सोलहवां भाग भी उस मे नहीं है ! - तुम्हाग युत्र उसी की बातों पर युद्ध के लिए तैयार हो रहा है, और स्वयं अपने नःश का आयोजन कर रहा है। वरना उसमे कितनी शक्ति है यह तो मत्स्य देश पर किए आक्रमण के समय ही ज्ञात हो गया था। यदि उस मे अर्जुन जैसे वीर को परास्त करने की शक्ति है तो मत्स्य देश की चढाई मे उसे क्या हो गया था ? अर्जुन के सामने से दुम दबा कर -क्यो भागा था। इस काण्ठ से पहले भी तो एक बार गन्धर्वो के सामने कर्ण ने मुंह की खाई है - उस अवसर पर कणं दुर्योधन को शत्रुओ के चगुल में फसा छोड कर हा भाग आया था परन्तु उन्ही अपार शक्ति वान गन्धर्वो में अजुन ने ही दुर्योधन को मुक्त करा दिया था। जब दो बार कर्ण अजुन से मात खा चुका और दुर्योधन दो बार रण क्षत्रो मे पराजित हो चुका, फिर किस बल बूते पर कर्ण दुर्योधन को उकसाता है और दुर्योधन उसकी मुर्खता पूर्ण उत्तेजक वाती पर विश्वास कर हा है " धृतराष्ट्र को भीष्म जी की बात जम गई। बड़े सन्तप्त होकर दुर्योधन को समझाने लगे- "भीष्म जी जो कहते हैं वही तर्क संगत, युक्ति सगत,. न्यायोचित और करने योग्य जान पडता . है। हमे सन्धि कर ही लेनी चाहिए। इस से हम अपने राज्य को वचा लेगे और व्यर्थ ही सकट मोल लेने से बच जायेगे। परन्तु तुम्हे तो न जाने क्या होगया है कि मेरी सुनते ही नही। जिन मे विवक है और जिन्हें अनुभव है तुम उन्ही की बात कर रहे हो। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ,३१२ जैन महाभारत - मेरी मानो और पाण्डवो से सम्मान पूर्वक समझोता करलो।" दुर्योधन ने कहा- "पिता जी । आप तो व्यर्थ ही भय विह्वल हो रहे हैं मानो हम सब कमजोर है देखिये हमारे पास ग्यारह अक्षौहिणी सेना है जब कि पाण्डवो के पास केवल अक्षौहिणी सेना ही है। फिर ग्यारह अंक्षौहिणी सेना के मामने पाण्डवो की ७ अक्षौहिणी सेना भला क्य। कर सकती है। हमारी इतनी विशाल सेना और कर्ण आदि वीरो के बल से ही तो पाण्डव -घबरा गए है और पहले आधा गज्य मागते थे, तो अब भय विह्वल होकर केवल पाच गाव ही मागने लगे । . क्या, पाच गाव वाली माम से यह सिद्ध नहीं होता कि उन्हे अपनी पराजय का निश्चय हो गया है और इसी कारण सन्धि व शाति का ढोग रच कर वे कुछ न कुछ ले मग्ने के चक्कर में है। इतने पर भी आपको हमारी विजय पर मन्देह हो तो आश्चर्य की बात है।" धृतराष्ट्र ने पुन समझाने की चेष्टा की-"वेटा! जब पाच गाव देकर ही युद्ध टल सकता है और हम एक भयकर सकट मे बच सकते है तो वाज आयो युद्ध में। पाच गांव देने में तुम्हे क्या आपत्ति हैं। तुम्हारे पाम तो पूरा का पूरा गज्य रह हो रहा है। यह मौदा सर्वथा लाभप्रद है। अव हठ न करो। मान जानी।" धतराष्ट्र का जब इम उपदेश का दुर्योधन पर उलटा ही प्रभाव पड़ा। वह चिढ गया और क्रुद्ध हो कर बोला- "मैं तो मूई की नोक बराबर भी भूमि पाण्डवी को नहीं देना चाहता। आप की जा इच्छा हो करे। पाण्डवो मे शक्ति है तो रण भूमि मे या कर निर्णय करे ।" यह बहता हुया दुर्योधन उठ ग्वडा इया और मभा भवन के नोट - ग्रान कल जैसे विभिन्न दलो को मिला कर सेना में एक डिविजन बनता है, वैसे ही उन दिनो कई विभाग मिला कर एक अक्षौहिणी बनती थी। एक अक्षौहिणी मे २१,८७० रथ पोर मी हिसाव मे हाथी. घोडे, पैदल प्रादि की संख्या होती थी। Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्योधन का अहकार ३१३ द्वार की ओर चल पडा । उस समय भीष्म जी बोले-"जद चीटी के पर निकल पाते हैं तो समझो कि उसकी मृत्यु निकट प्रा गई। दुर्योधन के प्रकार की हद हो गई। विनाश काले विपरीत दुद्धि।" कर्ण भभक उठा और सभा मे खलबली मच गई। : भिन्न भिन्न प्रकार की आवाजे उठी और सभा भग होगई। GRANATIMIT Instar Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -the *+ .. * सताईसवां परिच्छेद कृष्ण शान्ति दूत बने F युधिष्ठिर विचार मग्न बैठे थे। अभी अभी विराट उनसे कुछ परामर्श लेकर उठे थे। कमरे मे पूर्ण शांति थी और दूर से अस्त्र शस्त्रो तथा सैनिकों के परीक्षण की ध्वनिया श्रा रही थी । उसी समय श्री कृष्ण ने प्रवेश किया। विचार मग्न युधिष्ठिर की दृष्टि ज्यो ही श्री कृष्ण पर पडी, वे ग्रभिवादन के लिए उठ खड़े हुए । 4 प्रणाम के उपरान्त युधिष्ठिर ने उन्हे ससत्कार आसन दिया । श्री कृष्ण वोले- “राजन् ! कौरव पाण्डव दोनो के हित के लिए मैं शांति का दूत बन कर हस्तिनापुर जा रहा हू | आप कुछ श्रीर कहना चाहे तो मुझे बता दीजिए ।" युधिष्ठिर बोले - "आप हमारे लिए जो कष्ट उठा रहे है हम उस से कभी उऋण नही हो सकते। परन्तु कल से मैं आपके हस्तिनापुर जाने के सम्बन्ध मे ही सोचता रहा हू और अब में यह समझ रहा हू कि ग्रापकी हस्तिनापुर यात्रा से समस्या सुलझेगी नही ।" धर्मराज युधिष्ठिर के मुह से श्रनायास ही ऐसी बात सुन कर श्री कृष्ण को बड़ा आश्चर्य हुआ। पूछा - " आपके ऐसा अनुमान लगाने का क्या कारण हो सकता है ?" Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण गात दूत बने ३१५ . "वासुदेव ! सजय को धृतराष्ट्र का-ही प्रति रूप समझना चाहिए। उन से जो बाते हुई उन्ही के कारण मैं इस निष्कर्ष पर पहच रहा हू-युधिष्ठर कहने लगे. पहले तो सजय की मीठी २ तथा धर्मानुकल बाते सुनकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई थी और मुझे ऐसा महसूस होने लगा था- कि सन्धि के लिए उपयुक्त वातावरण बनने की सम्भावना है, पर अन्त मे सजय के मुख से, जो निकला उस से मुझे यह सन्देह हो रहा है कि धृतराष्ट्र चाहते हैं कि यदि दुर्योधन हमे कुछ भी न दे तो भी हम युद्ध न करे बल्कि शाति तथा धर्म के नाम पर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे। धृतराष्ट्र ने हमारे साथ. हा काण्ड मे जो भूमिका निभाई है उस से स्पष्ट है कि वे मनो बल, के सम्बन्ध मे वहुत ही कमजोर आदमी है। वे अपने बेटे दुर्योधन के मोह मे न्याय को भी तिलाजलि दे सकते है। सजय ने कोई. बात अपने मन की नही कही जो कही वह धृतराष्ट्र की बात थी।, इस लिए मैं तो इस परिणाम पर पहुच.रहा हूं कि दुर्योधन सन्धि के लिए तैयार नही है और न उस के तैयार होने, की प्राशा ही है इस सम्बन्ध मे वृतराष्ट्र भी निराश hth ' .E: "क्या पांच ग्राम की माग होने पर भी दुर्योधन नहीं माने क्या गा?- श्री कृष्ण ने पूछा । . . - "हा, दुष्ट वुद्धि दुर्योधन इस न्यूनतम माग को भी स्वीकार नहीं करेगा, बल्कि सम्भव है कि इस न्यूनतम - माग से उस का अहकार और बढ जाये। इस लिए अब मैं आपका हस्तिना पुर जाना भी उचित नही समझता।"-युधिष्ठिर ने कहा। "राजन् ! हमारा.कर्तव्य है कि शाति तथा सन्धि के लिए अपने अन्तिम प्रयत्न कर ले..ताकि कोई यह न कह सके कि हम युद्ध के जिम्मेदार हैं। यदि हमारे इस प्रयत्न से भी सन्धि वार्ता :: सफल नहीं होती तो फिर रण क्षेत्र में उतरना हमारे लिए न्यायोचित होगा।"-श्री कृष्ण बोले ।. "एक शा मे रे मन अन्दर ही अन्दर कचोट रही है कि Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत प्राज कल दुर्योधन के सिर पर अहकार मवार है। कर्णादि ने उस को उत्तेजित करे रक्खा है। वह अब आपको भी अपना शत्रु समझने लगा है। क्यो कि व्यक्ति गत रूप से प्रीप हमारी और प्रोगए है। इसलिए शव के पास आप का अकेला इम प्रकार जाना ठीक नहीं है। कही अहकार में अन्धे हो रहे दुर्योधन में आप के साथ कुछ अनुचित बाते करदी या अपने दरबार को ही रण क्षेत्र समझ लिया तो फिर बहुत बुरा होगा !"युधिषिहरे ने अपने मन की बात कही। " - बात सुन कर श्री कृष्ण के अधरो पर मुस्कान खेल गई, बोले-"राजन् ! आप की चिन्ता व्यर्थ है। मैं दुष्ट बुद्धि दुर्योधन और उसके सहयोगियों तथा परामर्श दातानो के स्वभाव से परिचित हूँ। शत्रु पक्ष ऐसे अवसर पर क्या क्या कर सकता है। यह मुझे ज्ञात है। मैं स्वयं सावधान रहगा। परन्तु मैं किसी के लिए यह कहने का अवसर नहीं देना चाहता कि जब कौरव व पाण्डवों के बीच युद्ध ठन रहा था तो कृष्ण ने जो उन दोनों के समान हितैपी थे, जो दोनों के सम्बन्धी थे, उस समय अपने कर्तव्य को निभाने मे कोई.कसर उठा रक्खी। मैं आप की ओर से शांति व सन्धि को सन्देश ले जा रहा हूँ। हर प्रकार से, प्रत्येक सम्भव उपाय प्रयोग कर के दुर्योधन को समझाऊगा। और यदि उसने तथा उस के सहयोगियो ने कुछ षड़यन्त्र रचना चाहा या अपमान किया तो मैं उनकी सभा में ही उन्हे मौत के घाट उतार दूगो। आप विश्वास रखिये कि उन आतताईयो के किसी जाल मे भी .फसने वाला नही - - ." . . . . . __"पाप की इच्छा को मैं समझ रहा हू-आप अपनी पोर से कोई कसर नहीं चाहते। अपनी अन्तिम कोशिशे करना चाहते है, परन्तु शत्रु को नीति को ध्यान में रख कर ही कुछ करना चाहिए। आप उन से मांवधान रहे, यही मैं कहना चाहता था, पर लंगता है कि जो बात मैं आप से कहना चाहता था, वह पापं पहले ही से जानते है। फिर भी पाप जाही रहे है तो मैं हृदय से कामना करता ह.कि प्रापको अपने उद्देश्य में सफलता प्राप्त हो । आप हम भाइयों Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्ण शाति दून बने मे सन्धि करा दे तो यह काम उस सफलता से सहस्त्र गुना अधिक मूल्यवान तथा हितकारी होगा, जो पार की सहायता से रण क्षेत्र मे ३.१७ मिलेगी।" - उसी समय भीम वहा पहुंच गया। जब उसने सुना कि श्री कृष्ण शाति दूत बन कर हस्तिना पुर जा रहे हैं, तो अपने स्वभाव के अनुसार वह कुछ नही हुआ. इस ने कहा - "सम्पूर्ण राज्य महा युद्ध के द्वारा प्राप्त हो तो भी वह उस से अधिक कल्याण कारी नही हो सकता जो कि राज्य का कोई अंश भी सन्धि के द्वारा प्राप्त होने से । आप मन्धि करा दे तो अहोभाग्य ।" .. .. - अर्जुन को जब श्री कृष्ण के हस्तिना पुर जाने का समाचार मिला, तो वह भी उनके दर्शन करने वहा पा गए और श्री कृष्ण का अभिवादन कर के बोले - "मधुसूदन । हमें युद्ध नहीं सन्धि चाहते है आप वहा जाकर जैसे भी हो सन्धि वार्ता को सफल बनाने का प्रयत्न कोजिए और विश्वास रखिए कि आप जो भी करा देंगे हमें स्वीकार होगा ! --- . -- - : कुछ देर से द्रौपदी हूँ वडो वडो यह मब बाते मुन रही थी, उमे यह बाने पसन्द' न पाई। उसके मन मे तो प्रतिशोध की ज्वाला धधक रही थी। जब अर्जुन ने भी सन्धि को ही सराहा तो उस से न रहा गया सामने आ गई और श्री कृष्ण से बोली,-"मधुसूदन ! खुले हुए केश देख और श्री कृष्ण से की ही सराहा तो उस श्री कृष्ण समझ गए कि वह क्या कहना चाहती है, तो भी उन्होने द्रौपदी के प्रश्न का ही उत्तर दिया- "हां दोपदी आज से जही १३ वर्ष पूर्व जब तुम वनाम के लिए गई थी तब भी मैंने इन खले हुए केशो को देखा था।' - . .--- .-- - .. . ..."वस-हस्तिना पुर जाने मे-पूर्व मेरे इन विखरे वालों को तानक ध्यान से देम्वो-। इन विखरे- हए केशो-में मेरे अपमान की कथा छिपी हुई है। इन...को दृष्टि मे-रखो फिर जो उचित जचे करा मधुसूदन ! आज भीम सेन, और धनुर्धारी कीर धत्तजय मेरे या को देखा था वनवास के लिहा दौपदी" तो भी Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जैन महाभारत इन केशो की कहानी भूल मकते है । दुशासन के पापी हाथो में हुआ मेरा अपमान वे भुला सकते है और उन पापियों से मेरे अपंमान का प्रतिशोध लेने की उन की प्रतिज्ञा कदाचित उन्हे याद ने रही झे, पर आज भी इन बिखरे केशो से मुझे उस पापी के हाथो को गंध आती रहती है। अर्जुन तथा भीम भले ही युद्ध न करें, पर मेरे पिता, जो यद्यपि बूढ़े ही हैं, फिर भी मेरे पुत्रों को साथ लेकर युद्ध मे कद पडेंगे । यदि किमी कारण वा पिता जी भी युद्ध करने न साये तो न सही, सुभुद्रा का पुत्र अभिमन्य तो है । उसी को सेना पति बना कर मेरे पाचो बेटे कौरवों मे लडेंगे। परन्तु किसी न किमी भाति दुष्टो से मेरे अपमान का बदला अवश्य लेंगे। मेरे हृदय मे प्रतिहिंसा को जो आग धुप्रा दे रही है, उसे धर्मगज की खातिर मैने १३ वर्ष तक दबाये रक्खा भड़कने न दिया। परन्तु अब मुझे मे सहा नहीं जाता। जिन के कारण मैंने घोर अप्-- मान सहे. ~जिन के कारण मैंने दासी बन कर एक वर्ष तक मेवा दहल-की, आज जव नेरे अपमान का बदला लेने का प्रश्न प्राया नो वे मन्धि की बात करने लगे। आज वे दुष्ट पापो उन के भाई हो गए जिन्होंने मुझे भरी सभा मे नगा करने का प्रयत्न किया था, यह भाई भाई तो पुन: भाई भाई का राग अलापने लगे परन्तु जब मेरे ऊपर अन्याय हो : रहा था, तब क्या था ? इम लिा मधुसूदन मेरी-प्रतिज्ञा की लाज रखना ।.एक पतिव्रता के ऊपर हुए अन्यायो को न भूलना । - क्या में जीवन भर इन केशों को यू ही विखरा रहने दूंगी?" - इतना कहते कहते द्रोपदी की आखें डब इबा भाई । उमका गला रध गया । द्रौपदी को इस प्रकार दुखी देख कर धी कण बोल- "शेश्रो मत, बहन ! रोने का तो कोई कारण हो नही । मानि स्थापना की मो मैं शर्ते रक्खूगा, उन्हे धृतराष्ट्र के बेटे मानेंगे नहीं, फलत युद्ध हो कर ही रहेगा। रण म्धल में पड़ी कौरवों की ल में कृत्ती और मियागं को प्राहार बनेगी । पाताईयो का रक्त भूमि पर गन्दे पानी को , भांति इलता फिरेगा। उनका सर्व नाश हो जाएगा। और पाण्डव ‘पुनः राजमिहामन के स्वामी बनेंगी। तुम्हारे ऊपर हुए अत्याचार का बदला अवश्य लिया जायेगा। नम हम बात मे निचिल Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ............... कृष्ण-शांति दूत बने - इतना कह कर श्री कृष्ण ने पाण्डवो तथा द्रौपदी से विदा ली। . श्री कृष्ण के शांति दूत के रूप में प्रागमन की सूचना जब धृतराष्ट्र को मिली तो उन्हो ने सारा नगर सजाने की आज्ञा दी। पौर विदुर जी से बोले-“वासुदेव के लिए हाथी, घोडे रथ आदि उपहार भेंट मादि करने का प्रबन्ध करो। और भी अनेक उपहार उन्हे भेट करने का प्रबन्ध किया जाय ऐमी मेरी कामना है, वे प्रसन्न हो जायें। कुछ ऐसा करो। जन्हे भेट कर आदि करने का वासुदेव के लिएर सजाने की प्रचना जब - विदूर जी बोले-"राजन । आप का विचार ठीक नहीं। वे ऐसे व्यक्ति नहीं जो प्रलोभनों के वश में प्रा जार्य अथवा शल्य की भाति वे चक्कर मे आ कर आप के पक्ष में आ जाये। वे तो गज दूत बन कर रह रहे हैं, उन्हें प्रसन्न करने का तो एक ही उपाय हैं कि वे जो सन्धि वार्ता चलाने पा रहे है आप उसे स्वीकार कर धृतराष्ट्र को विदुर की बात ठीक जची और उन्होने उपहारों का प्रबन्ध करने का विचारत्याग दिया । परन्तु जब दुर्योधन को श्री कृष्ण के आगमन का ममाचार मिला उसने सोचा कि श्री कृष्ण का मन्धि वार्ता के लिए आगमन उस के लिए कुछ अच्छा सिद्ध नही होगा क्यो कि उन के आने से कोरडी के समस्त विवेकगील सरक्षक, तथा सहयोगी श्री कृष्ण के प्रभाव में आकर सन्धि को तैयार हो जायेंगे ।...यह भी सम्भव है क.श्री कृष्णा के कारंण कौरव वीरो में दो पक्ष बन जाये। एक सन्धि चाहने वाला और दूसरा युद्ध चाहने, वाला कौरव वीरो दो भागों मे .. विभाजित हो जाने से जो दगा उत्पन्न होगी. वह Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन महाभारत .. . . . . . . . . ---- युद्ध में पाण्डवों की विजय के लिए सहायक सिद्ध होगी। . तब क्या । किया जाय? दुर्योधन यही सोच रहा था कि कर्ण पागया । बोला-"राजन् । -श्री कष्ण तुम्हारे पक्ष में दरार डालने के लिए आ रहे हैं। वे बड़े कूट नीतिज्ञ है और आप इस प्रकार मुह लटकाए बैठे हैं ?" "क्या करू मित्र श्री कृष्ण का यहां सन्धि वार्ता करने के लिए आगमन हमारी युद्ध को योजनाओ पर कही पानी न फेर दे। यही-मैं सोच रहा हूं "-दुर्योधन ने कहा । . . .. " - "श्री कृष्ण तो अब शो के पक्ष में है। उन्होने पाण्डवो को सहायता देने का वचन दिया है। और हैं वे प्रमुख व्यक्ति ज़िन के विपक्ष में होने से प्राप को भयानक हानि उठानी पड़ेगी। एक शत्रु सेनानी आप के यहां आ रहा है प्राप श्री कृष्ण के आगमन. को इस दृष्टि मे लें।"-कर्ण ने कहा। " बात सुनते ही न जाने दुर्योधन के मन में क्या ग्राई कि एक हर्ष की रेखा उसके मुखं पर खिंच गई। श्री कृष्ण का हस्तिना पुर मे अभूत पूर्व स्वागत किया गया। वे हस्तिना पुर पहुच कर सब से पहले वृतराष्ट्र के भवन में गए। वहां उनका .राजोचित सत्कार किया गया । उम के उपरान्त व अन्य कोरव वीरों से मिले। और अन्त मे दुर्योधन के . भवन में गए । दुर्योधन ने श्री कृष्ण का शानदार स्वागत किया । कुछ बात चीन हुई और जब वे चलने लगे तो दर्योधन ने उन्हे उचित प्रादर-सत्कार सहित-भोजन-का निमत्रण दिया। परन्तु-जब-तक वे. दुर्योधन-से बात करते रहे उन्हें यह अनुभव होगया कि दुयोधन मन्धि सम्बन्धी--कोई बात नहीं करता, बल्कि मन्धि चर्षा को वह कानों पर टाल-जाता है और अनेक बातें वह दिखावटी प्रशंसा की उनके लिए कर रहा है। . इस लिए दुर्योधन की बातो से- उन्ह । किसी पड़यन्त्र की दू. आई और, वे वोने-"राजन् ! मै अब राज दूत बन कर पाया है। राज दूतों का यह नियम होता है कि जब का सम्बन्धी-कोहरत रहे उन्हें Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्ण शाति दूत बने • तक उनका कार्य सफल न हो जाय तब तक भोजन न करे। जिस उद्धेश्य को ले कर मैं यहा आया हू वह पूरा हो जाय तब मुझे भोजन का निमत्रण दीजिए।" - दुर्योधन और उसके भाइयो ने बहुत हठ किया परन्तु वे न माने और तुरन्त विदुर जी के निवास स्थान की ओर चल पड़े। जहा जा-कर उन्हें कुन्ती, माता मिली। श्री कृष्ण को देखते ही माता कुन्ती को अपने पाचो पुत्रो की याद आ गई। उन से न रहा गया और जी भर आया। आखो से प्रासू उमड पडे । श्री कृष्ण ने पाण्डवों की कुशलता का समाचार सूना कर और प्रत्येक ढग से धैर्य बैंधा कर कुन्ती को मान्त्वना दी। " . . ---- .x श्री कृष्ण ने बिदुर जो के यहा ही भोजन किया और फिर उनसे सन्धि के सम्बन्ध में वार्ता की। विदुर जी तो सन्धि के पक्ष मे थे ही, उन्होंने सन्धि के लिए दुर्योधन की डकार की रहस्य बताते हुए कहा कि दुर्योधन मदाध हो गया है। उस के मित्रो ने उमे चढा रक्वा है। इस लिए मन्धि वार्ता की सफलता में मन्देह है। फिर भी यदि युद्ध हुंग्रा तो विजय पाण्डवो की हो होगी। ____ x . - x 7 . xx. : __कौरव दरबार लगा था। श्री कृष्ण जी पहुंचे, उन का प्रांदर सत्कार करने के पश्चात उन्हे उचित आसन दिया गया। श्री कृष्ण ने अपने प्रागमन'का कारण बताया और धर्म तथा नीति 'सम्बन्धी बातें बता कर सन्धि करने के लिए जोर डाला। उन्हो ने एक एक करके पाण्डवो पर किए गए दुर्योधन के 'अत्याचार गिनाए जिन्हे सुन कर दुर्योधन ऋद्ध हो गया और आवेश मे आकर बाला--'आप सन्धि की वार्ता करने नही मुझे अपमानित करने के लिए - प्राये हैं। और मै अपमान सहन करने का आदी नहीं है। यदि आप मुझे आतताई और अन्यायी ही समझते है तो जाइये मुझे पकी कोई बात स्वीकार नही। रण क्षेत्र मे ही हमारा और पाण्डवो का फैसला होगा।":-: . : : ... ... . Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ - जैन महाभारत. श्री कृष्ण ने गॉति पूर्वक कहा-"दुर्योधन आप जानते है मै आप दोनों का रिश्तेदार है। यदि आप मे युद्ध हुप्रा तो मसार कहेगा कि पाण्डव तथा कौरव यदि युद्ध के मतवाले हो गए थे -तो कृष्ण तो धर्म मार्ग को समझते थे, वे तो उन दानो मे शाति करा सकते थे। उन्होने उन दोनो को क्यो नही समझाया। इस लिये मै फिर से कहता है कि यदि आप प्राधा राज्य वापिस नही करना चाहते तो उन्हे पाँच गाव ही दे दो, वे पांच भाई उसी से अपनी गुजर कर लेगे। पांच गांव की भी आप ने खूब कही। क्या उनका मुझ पर कोई ऋग है जो मैं अदा करता -फिरू ?"- दुर्योधन बोला। क्या यह मम्भव नहीं कि आप अपने राज्य के कोई से निकृष्ट पाँच गाव देकर सन्धि करल । -"श्री कृष्ण ने कहा। याप अपने हाथ की निकृष्ट सी उ गली काट कर किमी की दे सकते हैं ! नही । मेरे राज्य का प्रत्येक ग्राम, चाहे वह निकृष्ट हा हो, मेरे लिए, उतना ही मूल्यवान है, जितनी कि मेरी राजधानी । और गज्य कभी भीख मागने मे नही मिला करता । गज्य भिक्षा में नहीं दिए जाया करते । यदि पाण्डवो में शक्ति है तो वे रणभूमि में लडकर गज्य ले मकने है ।" दुयोधन ने प्रावेश मे आकर कहा। उस समय दुर्योधन की बाने मुनकर भीष्म पितामह, विदुर और धृतराष्ट्र निलमिला उठे। परन्तु कर्ण बहुत प्रसन्न हो रहा था. श्री कृष्ण बोले. 'राजन ! नुम शक्ति तथा मैन्य बल के मद में प्रकार के शिकार हो गए हो। पाच गाव देने पर भी यदि तुम्हें आपत्ति है तो फिर बनायो कि युद्ध को टालने के लिए पाण्डवी को कुछ देने के लिा भी रजामन्द हो सकते हो अथवा नही ?" . .. दुर्याधन प्रावेश में प्रापर बोला-"श्री कारण इस समय पार मेरे दस्वर में गजदूत के रूप में पाये है। मेरे दितेदार के रम में .नही . इस लिए मैं ग्राम से यह वान मष्टतया कहने पर विवश है कि पाण्डव पाच गाव की बात बग्ने है, पाप जन में जाकर कह दे Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्ण ज्ञाति दूत बने L कि मैं उन्हें सूई की नोक जितनी भूमि घेरती है, उतनी भूमि भी देने को तैयार नहीं। यदि आप को पाण्डवो के जीवनयापन की इतनी ही चिन्ता है तो आप अपने राज्य मे से ही दो चार ग्राम क्यो नहीं दे देते।' ३२३ 1 श्री कृष्ण इस अवसर पर दुर्योधन के ग्रहकार को सहन नहीं कर पाये । बोले-''दुर्योधन ! तुम्हे अपनी शक्ति का बड़ा घमण्ड है । पर यह मत भूलो कि तुम्हारा वास्ता रण में उसने अर्जुन से पड़ेगा जिसका मुकाबला तुम तो क्या देवता तक भी नही कर सकते। उसके गाण्डीव के पराक्रम को तुम मत्स्य राज पर की चढ़ाई के अवसर पर देख चुके हो। रखो कि तुम्हारी हट, सारे परिवार के नाश का कारण बनेगी । मैं तुम्हारे हितचिन्तक के नाने समझाता IMG कि मान जाओ । वरना फिर पश्चाताप करोगे । गधारी जंमी सत्यवती को निपूती मत बनाओ ।" स्मरण हम चेतावनी को सुन कर दुर्योधन के तन में श्राग मी लग गई और वह उबल पड़ा - "राजदूत ! मैंने भी पृथ्वो को पाण्डव विहीन करने की शपथ खा ली है । यदि गाण्ड की ओर से देव राज इन्द्र भी युद्ध करने आया तो वह भी बच कर न जायेगा । उन भिख मगो पाण्डवको कह देना कि दुर्योधन खैरान वाटने के लिए नहीं राज्य करने के लिए उत्पन्न हुआ है ।" इतना कह कर वह राज सभा से बाहर चला गया। उस के साथ कर्ण, दुशासन यादि भी चले गए । सभा में गड़बड मच गई। भीष्म, धृतराष्ट्र तथा विदुर सन्न रह गए सभी विवेकशील व्यक्ति दुर्योधन के व्यवहार की आलोचना करने लगे । वर दुर्योधन ने अपने मित्रो के साथ मिल कर श्री कृष्ण को गिरफ्तार कर लेने का षडयन्त्र रचा। श्री राज सभा चागे ओर से घेर ली गई श्री कृष्ण पहले ही मावधान थे। उन्होने उसी समय अपना विराट रूप प्रदर्शित किया अर्थात छुपे हुए अस्त्र सम्भाल लिए चक्र प्रस्त्र को विशेषतया उन्होंने सम्भाला । उनका Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . जैन महाभारत मुख लाल अगारे की भाति हो गया। उन के इस रूप को : देर । कर -सैनिक घबरा गए और जब श्री कृष्ण द्वार से निकलने लगे, किसी का साहस न पडा कि उन्हे रोक सके ।- वे निकले हुए चले गए और सीधे विदुर जी के निवास स्थान पर गए । जहाँ कुन्ती ने उन मे राज सभा मे हुए वार्तालाप के परिणाम को पूछा और जब श्री कृष्ण ने बताया कि सन्धि वार्ता असफल रही तो वीर क्षेत्राणि कुन्ती का रोम रोम'जल उठा उस ने श्री कृष्ण से कहाँ - "तों मधु मूदन ! आप मेरे पांचो सिंह समान पुत्रो से जा कर कह दे कि वे युद्ध के लिए तैयार हो जाय । न्याय के लिए वे अपने प्राणों का भी मोह छोड कर युद्ध करे और विजयी हो कर आये। वे मेरी कोख को न लजाए और प्रांतताइयो को दिखलाद कि कुन्नी की मन्तान कायर नहीं है।" S HAINTINE - - Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 * अठाईसवां परिच्छेद * **** ******** ******* *************** कुस्ती को कर्ण का वचन = ******* **** 4 देने से कुन्ती को जब ज्ञात हुआ कि शांति प्रयत्न असफलं हो गए है और कुल नाशी युद्ध की आग भड़कने वाली है, व्याकुल हो उठी। एक बार तो उसे भी क्रोध आया दुर्योधन ने उस के बेटो को सूई की नोक बराबर भी भूमि इकार कर दिया। परन्तु जब उस ने उस भयकर युद्ध पर विचार किया जो छिडने वाला था, तो उसका रोम रोम सिहर उठा । वह सोचने लगी- " राज्य और सम्पत्ति का मोह भी कितना भयानक होता है कि उस के लिए एक ही कुल के परम प्रतापी वीर एक दूसरे के रक्त के प्यासे हो गए है। कुल-वृद्ध भी नाश लीला को अपनी माखो उभरते देख रहे है समर भूमि की ओर उमड़ रहे हैं विदुर तक सन्धि कराने में असफल रहे कुरुक्षेत्र मे धधकने वाली है, जो कुल के कर डालेगी ।" और शीघ्र ही वह आग 1 तमाम भरत खण्ड के वीर 1 गगा नन्दन भीष्म और नीतिज्ञ तेजस्वी सपूतो को भस्म - ******* **** तो वह था कि यह बात सोचते ही वह कॉप उठी। जी चाहता था कि वह इसे रोकने के लिए अपने पाचों पुत्रो को श्रादेश दे कि वे युद्ध से बाज़ प्रायें । पर वह अपने पुत्रों को कैसे कहे कि अपमान का कडवा घूट पी कर वे रह जायें और युद्ध न होने दे ? यदि वह ऐसा कहे भी तो क्या उस के महावली व स्वाभिमानी पुत्र मानने Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत एक ओर क्षत्रियो का राष्ट्र धर्म है तो एक ओर दुर्योजन को हठ के को तैयार हो जायेंगे ? दूसरी ओर युद्ध की विभीषिका है । कारण क्रोध है तो दूसरी ओर कुल के नष्ट हो जाने का भय। जब वश का ही नाश हो जायेगा तो फिर इस राज्य का क्या लाभ तबाही के परिणाम स्वरूप कही लाभ होता है ? कुन्ती सोच मे पड गई - " हा देव ! यह भी कैसी दुविधा है ? इस से बचू तो कैसे ?" १ ३२६ T माता कुन्ती के मन में ममता एवं वीरता के बीच खेचातानी हो रही थी । मन मे एक हूक सी उठती । वह अपने पुत्रो के भविष्य के सम्बन्ध मे सोचने लगी- "भीष्म द्रोण और कर्ण जैसे अजेय महारथियों को मेरे पुत्र कैसे परास्त कर पायेंगे ? इन तीनो महावलियो का विचार करते ही मन सिहर उठता है । यह तीन ही दुर्योधन के पक्ष मे ऐसे महारथी हैं जो पाण्डवों के प्राण हारी बन सकते है । हां, द्रोण अर्जुन को अपने पुत्र प्रश्वस्थामा मे भी अधिक चाहते है । सम्भव है रणांगण में अर्जुन के प्रति उनका स्नेह अर्जुन को मारने से रोक दे । भीष्म के सम्बन्ध मे भी यही बात है । " वे भी युधिष्ठिर और अर्जुन आदि को चाहते हैं। सम्भव है उनके बाणों की चार स्नेह के कारण कुण्ठित 'हो जाये । पर कर्ण तो रण में पहुच कर पाण्डवों के प्राण लेने से भी कभी न चूकेगा। वह दुर्योधन के मोह के कारण और अर्जुन द्वारा भरी सभा में अपमानित हो चुकने की वजह से, अर्जुन और उस के भाइयो पर बुरी तरह खार खाये बैठा है। पाण्डव उसे फूटी प्राखों नही भाते। साथ ही वह दानवीर है । उस में उस के सचित 1 . पुण्य कर्मों के कारण महान शक्ति है। वह अपनी दानवीरता के कारण अजेय है । इस लिए वह पाण्डवो के लिए प्राण हारी सिद्ध होगा । मेरा ज्येष्ठ पुत्र ही मेरे पुत्रों के प्राणो का प्यासा बना है, पर मेरे हो पाप का तो फल है। यदि मे उस के जन्म की बात को छिपा कर रखती तो क्यो आज कर्ण अपने ही भाइयों का बं बनता ? मोह ! अब क्या हो ? क्या कर्ण अपने भाइयों का वध किए विना न छोडेगा ?" 3 1 • यह विचार मन में श्राते ही वह बहुत परेशान हुई। सोचन Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुन्ती को कर्ण का वचन ३२७ लगी ऐसे उपाय को जिस से वह कर्णं के मन में पाण्डवो के प्रति करुणा जागृत कर सके। उस ने सोचा कि यदि कर्ण यह जान जाय कि जिन्हे वह शत्रु समझ बैठा है, वे उस के सगे भाई है तो अवश्य हो वह अपने मन से वैर भाव को निकाल देगा। पर यह हो तो कैसे? कौन बताये उसे यह रहस्य। तभी उस ने निश्चय किया कि वह अपनी भूल को सुधार कर पाण्डवो के प्राणो की रक्षा करेगी। . . X X X X : :कर्ण ने देखा कि सामने माता कुन्ती खडी है। उस ने उन का अभिनन्दन करते हए कहा- "राधा पुत्र कर्ण आप को करबद्ध होकर प्रणाम करता है। कहिए माता जी-आप ने कैसे कष्ट किया ।" - कुन्ती के मन में ममता. जाग गई। करुणा की खान कुन्ती की पलकें भीग गई। उन का निचला होठ काप गया। बोली"बेटा-! अपने को राधा, पुत्र कह कर मुझे लज्जित क्यो करते हो। मैं अपनी भूल को सुधारने आई हू।", . आश्चर्य चकित रह गया कर्ण। उसने कहा-"प्राज़ श्राप कैसी बाते कर रही हो? मेरी तो कछ समझ मे नही आया।" - "बेटा ! मैं तम्हे अपने हृदय से लगा कर एक बार मातृत्व को बलवती इच्छा को पूर्ण करना चाहती है। पर आज तक अपनी ही एक भूल के कारण अपनी कामना को पूर्ण न कर सकी। में अपने ही पुत्र को अपना न बता सकी। बेटा ! में भाज तुम से __अपनी भूल के लिए क्षमा याचना करने पायी हू।"-कुन्ती ने कहा। . "मैं अब भी नही समझा। कि आप..........। .."बेटा! तुम मेरे पुत्र हो। में तुम्हारी मां हूं। एक लम्बे प्रस से विसं रहस्य पर परदा पड़ा रहा, मैं उसी को बताने आई हूं।" -कुन्ती गदगद स्वर में बोली। - । Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ . जैन महाभारत . तो क्या मैं राधापुत्र नही हू?" कर्ण ने आश्चर्य विमूढ़ हो कर पूछा। . "नही बेटा, तुमने मेरी कोख से जन्म लिया है। तुम पाण्डवो के ज्येष्ठ भ्राता हो.। उन.के.जिन के प्राणो के तुम शत्रु बन गए हो । मैं ही तुम्हारी वह अभागिन माँ हू, . जो-तुम्हे-जन्म देने के पश्चात भी तुम्हे कभी अपना पुत्र न कह सकी। क्योंकि महाराज पाण्डू के साथ विधिवत विवाह होने से पूर्व ही तुमने जन्म लिया। मैंने तुम्हारे परम.प्रतापी पिता को निशानी के स्वरूप कुण्डल पहनाकर नदी मे बहा दिया था। पर शोक कि हमारी योजना पूर्ण नही हुई और तुम्हारे पिता के बजाये तुम्हे रथवान ने पकड़ लिया और ससार ने तुम्हें उसी की सन्तान जाना।"-सारा रहस्य बताते हुए कुन्ती ने गदगद स्वर से कहा। । परन्तु कर्ण में कुन्ती की आशा के अनुसार उत्साह जागृत नहीं हुप्रा । उस ने कुछ सोच कर कहा-"तो तुम्ही हो वह अन्यायी मां जिसने मुझे जन्म देकर नदी की लहरो मैं फेक दिया था। तुम ही हो वह पापिन जिसने अपने पाप को छुपाने के लिए मुझे मौत के मुह में फेंक दिया था। तुम ही वह हो जिस के कारण मैंने अर्जन द्वारा अपमान के कड़वे घुट पिये। यदि यही है तो फिर अब क्यो मेरे पास अपने अन्याय का बखान करने आई हो?" कर्ण के इन तीक्ष्ण शब्दो से कुन्ती का हृदय विध गया। उस ने कहा- बेटा। मुझे क्षमा कर दो। हां में ही वह पापिन हूं जिसने कि निदोष होते हुए भी लोक निन्दा के डर से तुम्हे तुम्हारे पिता जी की आज्ञानुसार नदी में इस लिए बहा दिया था ताकि वें. तुम्हें नदी से निकाल कर पुत्रवत तुम्हारा पालन-पोषण करें। तुम्हारे नाना जी उनके साथ मेरा विवाह नहीं करना चाहते थे क्योंकि उन के प्रति भ्रम था कि वे पाण्डु रोग में पीड़ित है । परन्तु मैंने उन्हें अपना सिर-ताज. मान लिया था। . वास्तव में, मैंने कोई पाप नहीं किया था। '. "तो आज तक तम ने अपने बेटे पर ईम, रहस्य को क्यों नहीं खोला ? जब भरो मभा में अर्जुन मेग अपमान कर रहा था नर Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुन्ती को कर्ण का वचन ३२९ तुम ने क्यो नही बताया कि मैं रथवान का पुत्र नहीं बल्कि पान्ड नरेश की सन्तान हू? तुम ने लोक निन्दा के भय से मुझे सदा अपमानित होते देखा। तुम ने अपनी प्रतिष्ठा के लिए मेरी प्रतिष्ठा की बलि दी। तुम कैसी मा हो? मैने आप ही तुम्हारा मातृवत् अादर किया है। पर आज तुम से मुझे घृणा हो गई है। माँ के उच्चादर्श को तुम ने कलकित कर डाला है।" कर्ण ने आवेश मे आकर कहा। उस समय वास्तव मे उस के हृदय में घृणा ठाठे मार रही थी। कुन्ती तिलमिला उठी। उस के नेत्रो से अश्रु आ रहे थे । वह घुटनों के बल बैठ गई और बडी करुणापूर्ण मुद्रा मे बोली-"बेटा ! मैं जो भी हू तुम्हारे सामने हूँ। मैं तुम्हारी दशा को देखकर सदा मन ही मन अपने को धिक्कारती रही । परीक्षा के समय जब अर्जुन ने तुम्हारा अपमान किया था, तो मेरा हृदय चीत्कार कर उठा था। जब तुम दोनो मे उन गई थी तो मै मूछित होकर गिर पड़ी थी। मैं तुम्हे सदा ही अपनी गोद में लेने के लिए तडफती रही । मैं मन ही मन आंसू पीती रही। मैंने सारा जीवन तुम पर हुए प्रन्याय के प्रायश्चित स्वरूप हादिक दुःख, पीड़ा और शोक मे व्यतीत किया है। सोचो तो उस मा के मन मे क्या गुजरती होगी, जिस का लाल अपने वाहुवल और आत्मवल से सारे ससार पर छा रहा हो, जिसकी दानवीरता के कारण देवता भी उसके आगे नतमस्तक हो, पर मा उसे अपना पुत्र कहने का भी अधिकार न रखती हो । बल्कि वह एक परम प्रतापी महाराज की सन्तान होने के पश्चात भी अपने भाइयो के द्वारा ही पग पग पर धिक्कारा जाता है । अपमानित किया जाता हो। यह भी सोचो कि उस समय मेरे हृदय मे कितनी हूक उठती होगी जब मैं अपने सामने ही अपने पुत्रो को अज्ञानवश एक दूसरे का शत्रु, एक दूसरे के प्राणो का प्यासा देखती हू । वेटा ! यह सभी कुछ मुझे अपने पाप का दण्ड मला है । तुम्हारी मां, अव तुम्हे अपना प्यार समर्पित करने पाई है । तुम से अपनी भूल की क्षमा याचना करने आई है। मेरे लाल ! थूक दो अब अपना क्रोध और मेरी भूल से हो रही अपनी भूल को सुधारने का प्रयत्न करो।" Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० जैन महाभारत कर्ण के मन मे भो करुणा जागृत हो गई। पर एक और भी दु.ख उसके मन मे उठ खडा हआ था, वह था यह कि परम पराक्रमी पाण्डु की सन्तान होने पर भी वह ससार मे रथी की सन्तान कहलाया गया और राजानो ने उसे नीच समझ कर सदा ही उस का अपमान किया। अपने माता पिता के कारण उसे सदा ही अपमान व निरादर के कडवे घुट पीने पडे। उसने कहा- "मा! तुम ने कोई पाप नही किया। मेरे साथ जो कुछ हुआ, कौन जाने वह मेरे ही कर्मो का फल हो। क्षमा की बात कह कर मुझे लज्जित क्यो करती है। मुझे तो आज अपने पर गर्व होना चाहिए कि मैं उस सन्नारी सती की कोख से जन्मा हू जिसकी रग-रग को कोर छ भी नही पाता। फिर भी मै एक स्वाभिमानी व्यक्ति हू । मुझे खेद है तो इस बात का कि.आज से पूर्व तुमने कभी मुझे सच्चाई में अवगत न होने दिया। यही बात रह-रह कर मेरे हृदय मे शूल की , भाति चुभ रही है।" . "वेटा । जैसे तैसे मैं अपने हृदय पर पाषाण शिला रखते हुए सब कुछ सहती रही। मैं लोक निन्दा के भय से मौन रही। पर जब पानी फिर से ऊपर पहुच चुका तो तुम्हे यह रहस्य बताने आई हूँ। मैं तुम्हे बताना चाहती हू कि तुम जिन्हे अपना शत्रु समझ रहे हो, जिसके प्राणो के तुम प्यासे हो, वह तुम्हारे ही भाई है।"कुन्ती ने कहा। उस समय कर्ण के हृदय मे पाण्डवो के प्रति विद्वप की भावना धूधू कर के ज्वाला की भांति जल उठी। उसने आवेश मे पाकर कहा-'तो मा में यह समझने पर विवश हू कि तुम मुझे इस रहस्य को बताने के लिए नही पायी कि तुम ममता और पुत्र स्नेह को रोक नहीं पाई। या तुम्हारे हृदय में अपने परित्यक्त पुत्र के प्रति सहानुभूति का ऐसा तूफान आया जिसे तुम्हारे हृदय पर छाया लोक निन्दा का भूत भी रोक न पाया। बल्कि तुम्हारे मन म पाण्डवों के प्रति भरे हए असीम स्नेह ने जोर मारा है। तुम मेरे बल से भयभीत हो गई हो और जवकि सिर पर आ गया है तुम अपने प्रिय पुत्री के प्रति मेरे हृदय में भ्रातत्व उत्पन्न कर के उनका काना चाहती हो। पवन्य ही यह वात तम्हारे पाण्डवा में Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुन्ती को कर्ण का वचन लिए घोर पक्षपात पूर्ण है । आज भी तुम्हारे हृदय मे कर्ण के प्रति न ममता है न सहानुभूति बल्कि उसके आक्रोश से अपने प्रिय पुत्रो को बचाने की भावना है ।" ३३१ वेटा ! पाण्डव तुम्हारे ही भ्राता है। तुम उन के ज्येष्ठ भ्राता हो। मैं यह कैसे सहन कर सकती हूँ कि तुम भाई भाई ही श्रापम मे एक दूसरे का नाश करने के लिए लडो । मैं यह कैसे देख सकती हू कि मेरे प्रिय पुत्र ही आपस मे शत्रुओ के रूप मे रागन मे जाये । तुम चारो के शरीर मे मेरा ही रक्त है। मुझे तुम से भी उतना हो प्रेम है जितना युधिष्ठिर से अथवा अर्जुन या भीममेन से ।" - कुन्ती ने ग्रार्त स्वर में कहा । कर्ण ठहाका मार कर हम पडा । पर वह ठहाका बडा ही व्यग्य पूर्ण था । कहने लगा- " मा तम आज भी उन तीन पुत्रो के लिए उतना ही प्रेम रखती हो, जितना तुम ने उन के प्रति पहले * से रखखा है। श्राज भी तुम्हे मुझ से कोई प्रेम नही है । तुम्हे प्रेम है तो उन तीनो से और तुम्हे भय है कि कही मै उन के प्राण नल लू मा ! तुम्हारी रंगो मे कितना पक्षपात है? तुम ने मुझे जन्म दिया, फिर भी क्यो मेरे प्रति मातृत्व नही दर्शा पाती ? क्या रथवान की गोद में पलने के कारण मुझ से तुम्हे तनिक भी सहानुभूति नही ? नही, नहीं मा । तुम ने मुझे कभी भी प्रेम पूर्ण दृष्टि से नहीं देखा । ग्राज भी तुम्हारी ग्राखो पर युधिष्ठिर, अर्जुन और भीमसेन के मोह की पट्टी बधी है । अभी अभी तुम श्रपनी भूल का प्रायश्चित करने को तैयार नही हो ।" 1 उम ने रोकर कुठारा घात न श्राज जब रण कुन्ती के नेत्रो से पुनः अश्रुधार फूट पडी । कहा - "बेटा । यह बात कह कर मेरे हृदय पर करो। मैं अपना हृदय चीर कर कैसे दिखाऊ ? की तैयारियां हो रही है । मैं इस रहस्य को बताने केवल इसी लिये ग्राई कि मुझे उन तीनो के प्रति अधिक प्रेम है । बल्कि श्राई हूँ इस लिए कि मैं तुम मे से किसी को भी अपने किसी भ्राता का बंध करते नहीं देख सकती। में नही चाहती कि अर्जुन जो अभी तक वास्तविकता को न जानने के कारण तुम्हारा भ्रम वा ग्रपमान Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ जैन महाभारत करता रहा. रण मे तुम्हें मारने के लिए अपना अस्त्र प्रयोग करे अथवा तुम उसको मार डालो। मेरे लिए तुम सभी समान हो। तुम मेरे पुत्र ही नही. बल्कि मुझे तो माद्री की सन्तान भी अपनी ही सन्तान लगती है। मैं तुम छ से समान ही स्नेह रखती है।" "नही, नही तुम नही जानती हो कि कर्ण को मार मकना अर्जुन के बस की बात नही। इस लिए तुम मेरे लिए भयभीत नही हो। यदि होती तो अवश्य ही पहले अपने लाडले अर्जुन से जाकर इस रहस्य को बताती। तुम मुझे बताने पाई हो तो इस लिए कि तुम पाण्डवो के भविष्य के प्रति सशकित हो।' कर्ण ने कहा। "बेटा कर्ण । यदि ऐसा भी है तो मुझे तुम से तुम्हारे भाइयो के प्राणो की रक्षा, उन के लिए अभयदान लेने का अधिकार है। मैं तुम से विनती कर सकती हू कि तम दुष्ट दुर्योधन के लिए अपने भाइयो के प्राण न लो। तुम उसी महा पराक्रमी स्वर्गवामी पान्डु की सन्तान हो, जिसकी सन्तान को दुर्योधन ने राज्य च्युत करके दर दर की ठोकरे खाने को बाध्य किया। तुम उसी पाण्डु की सन्तान हो जिस के उत्तराधिकारी अपना अधिकार मांग रहे है। तुम उन के भाई हो, और हो तुम न्याय प्रिय। तुम्हारा कर्तव्य है कि जिस स्थान पर तुम्हारे छोटे भाईयों का पसीना गिरे वहा तुम अपना रक्त बहाने को तैयार रहो । तुम्हारे लिए यह शोभा नहीं देता कि तुम यह जानकर भी पाण्डव तुम्हारे भाई है, दूसरे के कारण उनके शत्रु के रूप में युद्ध में जानो। मैं तुम भाईयों को एक ही शिवर में देखना चाहती हूँ।"~कुन्ती ने अपने मन की बात कह दी। "मां! तुम ने और तुम्हारे पत्रो ने मेरे साथ जो भी व्यवहार किया हो, पर मैं तुम्हारे आदेश के आगे अवश्य ही मिर भुका देता । मैं तुम्हारे चरणो मे मिर रख कर कहता कि बोलो मां, तुम क्या चाहती हो । पर अब वहत देर हो चुकी है। तुम बहुत देर मे जागी, मैं दुर्योधन के पक्ष में है और उमी की ओर से लड़ने का वचन दे चुका है। दुर्योधन ने मेरी उस समय महायता को धी जव Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुन्ती को कर्ण का वचन ३३३ मुझे अपमानित किया गया था। उसने बिना किसी प्रकार का सौदा किए ही मुझे अपने राज्य का एक भाग दे दिया था। उसने सदा मेरा आदर किया । तुम जिसे नदी मे फैक पाई थी, उमे दुर्योधन ने कूड़े के ढेर से उठा कर सिहासन पर बैठाया । मैं उसका उपकार कभी नहीं भूल सकता . मैं भ्रात प्रेम के कारण जिन के साथ विश्वासघात नहीं कर सकता। मै क्षत्रिय हू और हू महा पराक्रमी राजा की सम्मान । मै अपने वचन को नहीं तोड सकता । मुझे क्षत्रिय रीति को तोड़ने के लिए न कहो।"-कणं ने उत्तर देते हुए कहा। "दुर्योधन की मित्रता का कारण तुम्हारे प्रति उसका स्नेह नही । वरन वह तुम्हे अर्जुन को मारने के लिये अस्त्र बनाना चाहता है। बेटा ! तुम्हे शत्रु को चाल ममनना चाहिए।"-कुन्ती ने कहा। ___ "नही मा, मैं यह नही मान सकता। रण नो अाज हो रहा 6. है. पर मेरे प्रति स्नेह का प्रदर्शन उसने उम दिन किया था जब किमी को यह भी पता नही था कि कौरव और पाण्डव एक साथ । न रह सके। उसने उन दिनो मेरा आदर किया था जिन दिनो मेरे भाई पाण्डव मुझे सूत पुत्र कहकर मुझ मे घृणा किया करते थे। मै इस अवमेर पर अपने परम प्रिय का साथ नहीं छोड़ सकता मैं क्षत्रिय धर्म को कलकित नही करूगा।"-कर्ण ने जोर देकर कहा - माता कुन्ती.ने बहुत समझाया पर कर्ण ने साफ कह दिया कि वह जिसे वचन दे चका उसी के साथ रहेगा। उसके निश्चय को कोई भी नहीं बदल सकता । विवश होकर कुन्ती ने कहा -"बेटा । यदि तुम पाण्डवो के पक्ष मे भी. नही पा सकते तो यह वचन तो 2) मुझे दे ही सकते हो कि पाण्डवों मे से किमी का वध भी तुम्हारे हाथो नही होगा।" - . "हा, ऐसा वचन दे सकता था परन्तु .......... ... "परन्तु क्या?" ' ' . . Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत परन्तु मैं अर्जुन का वध करने का निश्चय कर चुका हू । हा, तुम मेरी मा हो, श्राज पहली बार तुम मुझ से कुछ मना रही हो । तुम्हे मै निराश नहीं करूंगा । वचन देता हू कि अर्जुन के अतिरिक्त अन्य किसी अपने भाई को मैं न मारूंगा ।" "तो क्या अर्जुन के प्राणो को तुम न बख्शोगे ?" "नही " "यदि मैं इस का दान मांगू तो.........?” ३३४ "तुम याचक बनकर नही मा बनकर आई हो ।" "तुम मा की आज्ञा का उल्लघन करोगे ? " "क्षत्रिय धर्म को कलकित करने वाला आदेश कोई भी हो, किसी का भी हो मैं नही मानूंगा ।" इस प्रकार कितनी ही बार घुमा फिरा कर कुन्नी ने चाहा कि कर्ण अर्जुन को भी न मारने का वचन दे दे पर कर्ण न माना । कर्ण ने अन्त मे कहा - "मा मुझ क्षमा करना कि मैं पाण्डवों के विरुद्ध लड़ने और अर्जुन के प्राण लेने के अपने व्रत को तुम्हारी इच्छा के बाद भी नही तोड पा रहा। क्योकि मैने तुम्हारी कोम से जन्म लिया है । हम क्षत्रिय अपने धर्म को किसी दशा मे नही छोडने । मुझे ग्राशीर्वाद दो कि में धर्म पर अडिग रहू ।" कुन्ती ने कर्ण को अपने गले से लगा लिया। उस से कुछ न बोला गया, गला रुव गया और आंखो से प्रांसुश्री की धारा बह चली। उस ने कुछ देर बाद सम्भल कर कहा- बेटा तुम्हारा कल्याण हो । तुम्हारे यश में वृद्धि हो ।" कर्ण को इस प्रकार ग्राशीर्वाद देकर कुन्ती वापिस चली आई | वर्ण अपने जीवन और परिस्थितियों की विडम्बना पर मोचता रह गया | Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * उन्नतीसा परिच्छेद * सेनापतियों की नियुक्ति श्री कृष्ण निराश होकर उप्लव्य नगर लौट आये। सभी पाण्डवो के समक्ष उन्होने हस्तिनापुर की चर्चा का हाल सुनाया। अन्त मे वे बोले : "जो भी कह सका। सभी कुछ कहा। सत्य और हित के अनुकूल सारी बातें बताई। किन्तु सब व्यर्थ हया। दुर्योधन ने न नेरी सुनी और न अपने वृद्ध जनो की ही बात मानी।" "अव क्या किया जाये ?" युधिष्ठर ने प्रश्न उठाया। "अब बस दण्ड से ही काम चलेगा।"~-श्री कृष्ण बोले । "एक ही रास्ता है कि हम इस धूर्त को अपने बाहुबल से समझाए। लातो के भूत बातो से नही माना करते।"-भीमसेन ने आवेश मे आकर कहा। युधिष्ठिर भी बोले-"हा अब शाति की आशा नहीं रही। सेना सुसज्जित करो और रण भूमि मे जा डटो।" श्री कृष्ण ने कहा-"बस यही एकमात्र उपाय है। आप लोग अपनी सेनाए तैयार कीजिए।" पाण्डवो की विशाल सेना को सात भागो में विभाजित किया Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत गया । द्रपद, विराट, धृष्टद्युम्न, शिखण्डी, सात्यकि चेकितान, भीम । सेन, सात महारथी. इन सात सैन्य-दलो के नायक बने । अब प्रश्न उठा कि सेनापति किसे बनाया जाये ? सभी की राय ली गई। युधिष्ठिर ने सब से पहले सहदेव की राय मागी, बोले-.. महदेव ! इन सात महारथियो मे से किसी एक सुयोग्य वीर को सेनापति बनाना होगा । हमाग सेनापति रण-कुशल हो। शत्रु-संन्य को दग्ध करने वाला हो ! क्सिी भी विकट स्थिति में सामन त्यागे, जो व्यूह रचना में निपुण हो और भीष्म जैसे महान तेजस्वी का सामना कर सके । तुम बताओ कौन है इन सातो मे शूरवीर, सुयोग्य महारथी ?" . सहदेव सव से छोटा था, इस लिए पहले उससे राय ली गई। क्योकि बडो का आदर करने के कारण छोटे अपने बडो की गय का अनुमोदन कर दिया करते हैं, इससे उनकी अपनी राय का ठीक ठीक पता नही चलता और न उन में प्रात्मविश्वास ही सचार होता है। सहदेव ने कहा--"अज्ञातवास के समय हम-ने जिन का प्राश्रय लिया था और जिनकी सहायता से हम यह सारा सैन्य-दल एकत्रित कर सके । जो अनुभवी और वद्ध हैं। जिनकी अनगिनत कृपाए हम पर रही है. उन्ही राजा विराट को हमे सेनापति बनाना चाहिए। फिर नकुल से पूछा गया। उसने अपना मत व्यक्त करते हुए कहा"मुझे तो यही उचित लगता है कि पाचाल राज द्रपद जो आयु मे, बल में, बुद्धिमता और अनुभव आदि मे सब से बडे है उन्हे सेनापति बनाया जाय । क्योकि उन्होने द्रोणाचार्य के साथ साथ अस्त्र विद्या ग्रहण की है। द्रोणाचार्य को परास्त करने की कामना उनके मन मे बरसों से ममायी हुई है। वे द्रौपदी के पिता भी है उनके मन पर द्रौपदी के अपमान में जो ठेम पहुंची है उससे उनकी रगो में कौरवों के प्रति क्रोध भर गया है । वे भीम और द्रोण का मुकावला भी कर सकते है।" इस के बाद अर्जुन में पूछा गया। वह बोला "जो जितेन्दिय हैं, होण का वध ही जिन के जीवन का उद्देश्य है वार धृष्टद्युम्न हमारे मनापति बने तो ठीक होगा। Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सैनापतियों की नियुक्ति भीम से जब पूछा गया तो उस ने कहा- भैया अर्जुन की बात ठीक है, पर हमारे लिए द्रोणाचार्य से भी अधिक समस्या भीष्म जी की है हमे अपना सेनापति ऐसा बनाना चाहिए जो उन्हे मार सके । शिखण्डी का जन्म ही भीष्म जी के वध के लिए हुआ है । अतः शिखण्डी को ही सेनापति क्यो न बनाया जाय ?" ३३७ अन्न मे युधिष्ठिर ने श्री कृष्ण से पूछा । वे बोले – “इन सब ने जिन जिन महारथियों के नाम लिए, सभी सुयोग्य हैं और सेनापति बनने योग्य हैं। पर अर्जुन की राय मुझे ठीक जंचती है । घृष्टद्युम्न को ही सेनापति बनाया जाये | जिस वीर ने स्वयं द्रौपदी से अर्जुन का परिणग्रहण कराया था, जो राज्य सभा मे हुए द्रौपदी के घोर अपमान और उस पर किए गए घोर अत्याचार की कल्पना मात्र से ही भडक उठता था, अपनी बहन के अपमान का कौरवो से बदला लेने की प्रतीक्षा मे जिस ने तेरह वर्ष बडी बेचैनी से व्यतीत किए थे, जो महान रण योद्धा था, उसी पांचाल राजकुमार धष्टद्युम्न को सेनापति बनाना सभी ने स्वीकार कर लिया और फिर उसका विधिवत अभिषेक कर दिया गया। उस समय वीरों की सिंह गर्जना, भेरियो के भैरी नाद, शखों की तुमुल ध्वनि, दुंदुभी के गर्जन यादि से प्राकाश गूज उठा। अपने कोलाहल से पृथ्वी को कपाती और दिशाओ को गुजाती हुई पाण्डव सेना कुरुक्षेत्र के मैदान मे जा पहुंची । दूसरी ओर कौरवों की ओर से युद्ध की घोषणा हो चुकने के बाद कौरव सेना को ग्यारह भागों में विभाजित किया गया। उस के बाद प्रश्न श्राया कि सेनापति कौन बने । दुर्योधन ने अपने सभी उद्दण्ड परामर्श दाताओ को अपने पास बुला कर विचार विमर्श किया। शकुनि ने कहा- "मेरे विचार से भीष्म पितामह को हो सेनापति रखा जाय । सेनापति होने के कारण उन्हें पाण्डवो के विरुद्ध डटकर युद्ध करना पडेगा । उनका सामना कर सकने वाला पाण्डवो मे कोई भी नही । भीष्म जो पाण्डवो से स्नेह रखते है । बस पाण्डवो और भीष्म जी को टकरा देने का एक यही उपाय है ।" Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. जैन महाभारत - शकुनि की बात सभी ने स्वीकार कर ली और 'दुर्योधन पितामह के पास जाकर बोला- "पितामह ! आपकी कृपा ने सभी तैयारिया पूर्ण हो गई हैं। अब आप ही हमारे सरक्षक हैं। सभी महारथी चाहते है कि आप हमारी सेना के सेना नायक बने । प्राप के नायकत्व मे हमारी विजय अवश्य होगी।" " . पितामह कहने लगे - "तुम ने युद्ध की घोषणा करते समय हम से कोई परामर्श नही लिया । फिर तुम्हारे मित्र कर्ण को हमारे ऊपर सन्देह है कि हम पाण्डवों के पक्षपाती है। ऐसी दशा मे यही अच्छा है कि तुम कर्ण को ही अपना सेनापति बनाओ। मैं तुम्हारी ओर से लड़ गा अवश्य पर कर्ण जैसे उद्दण्ड और अभिमानी के रहते मैं सेनापतित्व स्वीकार नहीं कर सकता। मुझे सन्देह है कि मेरे सेनापति होने पर वह मेरी आज्ञाओ का पालन भी करेगा।" . "पितामह | आपके सहारे पर तो हम ने युद्ध ठाना है। आप ही ऐसो बात करेंगे ती कैसे काम चलेगा। आप कर्ण को भूल आइये और सेनापतित्व स्वीकार कीजिए ."-दुर्योधन ने विनती की। "तुम पहले कर्ण से बात करो। मैं जानता हूं कि तुम मेरे परामर्श से अधिक कर्ण की बात मानते हो। उसके रहते मैं कोई उत्तर नहीं दे सकता।"-भीष्म पितामह ने दो टूक उत्तर दिया। दुर्योधन चुपचाप वहा से वापिस चला गया और कणं से सारी वात प्राकर कही। उसे क्रोध हो पाया, बोला-"पितामह सदा ही मेरा अनादर करते रहते है। मै भी व्रत लेता हूं कि जब तक पितामह जीवित है तब तक मै रण मे भाग नही लूंगा और जब रण मे उतरूगा तो अर्जुन के अतिरिक्त और किसी पाण्डव का वध नहीं करूगा।" कर्ण की बात सुनकर दुर्योधन बड़ा चिन्तित हुप्रा। पर तीर हाथ से छूट चुका था अब कर्ण का निश्चय वदलवाना सम्भव नहीं था। वह विवश होकर पुनः पितामह के पास गया और कर्ण । बत की बात कह सुनाई। पितामह बोले-"वेटा ! उस अभिमाना Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेनापतियो की नियुक्ति mrem..... ३३९ के व्रत से तुम चिन्तित क्यो होते हो। यदि वह मेरे रहते रण मे भाग नही लेगा तो मै सेनापतित्व स्वीकार करता है। पर यह साफ बताए देता है कि पाण्डु पुत्रो का बध करने की इच्छा से मै आगे वढकर युद्ध न करूगा। मै जानबूझ कर उनका वध नही करूगा । पर लड़ गा पूर्ण शक्ति से।" बेचारे दुर्योधन के पास अब क्या चारा था? कोई दूसरा उपाय भी तो नही था। उसने पितामह की बात मन से स्वीकार कर ली और विधिवत उनका अभिषेक कर दिया गया. पितामह के नायकत्व' मे कौरव सेना सागर की भाति लहरे मारती हुई कुरुक्षेत्र की ओर प्रवा हत हुई। । " JATRI Sunni Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसवां परिच्छेद +31px ne हे कृष्णोपदेश शांति और दोनो ओर की समझौते की सेनाए रण हो चुकी थी । भारत के दुर्भाग्य ने प्रगडाई ली। वार्ताएं सफल हो चुकी थी और ग्रव स्थल में जा पहुची थी । दोनो ओर से व्यूह रचना कौरवो की छाती अभिमान के मारे फूल रही थी। उन्हे कुरुक्षेत्र में सजी खड़ी सेना को देख देख कर अपने पर गर्व हो रहा था और बाट देख रहे थे उस समय की जब कि दोनो सेनाओ की भिड़न्त होगी और वे अपनी विशाल सेना के बल पर पाण्डवो को परास्त कर के अपनी विजय पताका फहरा देंगें और "न रहेगा वास न बजेगी वासुरी" की लोकोक्ति अनुसार राज्य के लिये झगडने वालो को समाप्त कर सदैव के लिए निश्चित होकर राज्य करने का अवसर प्राप्त कर लेंगे । पर कौरवों का यह स्वप्न कोरी कल्पना पर श्राधारित है, अथवा इस में कोई सच्चाई भी है इस का पता तो युद्ध की समाप्ति पर चलेगा । हा ! दुर्योधन की प्रांखे चमक रही हैं। दुःशासन ने मुख पर उल्लास है, और अन्य भ्राताओ की भुजाए फड़क रही हैं। इस समय कोई उनकी दशा देखे तो कदाचित उसे यह विश्वाम करने देर न लगे कि कौरवों को अपनी विजय का पूर्ण विश्वास है । - परन्तु वह समय आयेगा या नहीं, जिसकी कल्पना उन्होने की है, यह बात भविष्य के गर्भ में छुपी है। अभी तो कोरवों की Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ f कृष्णोपदेश श्रात्म परीक्षा का समय कुछ दूर है ।" १० Ti - A क्योंकि युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व, अभी एक बात और भी होनी है। वह है युद्ध के नियमो की रचना। ऐसे नियमो की जिन पर युद्ध की रीति-नीति श्राधारित होगी। उन दिनो की रीति के अनुसार दोनो ओर के सेना नायक मिले और समझ बूझकर सर्व सम्मति से कुछ नियम निश्चित किए । वे थे "" T 2 है -1 ३४१ प्रतिदिन सूर्यास्त के उपरान्ते युद्ध बन्द हो जायेगा ।" "युद्ध की समाप्ति के उपरान्त दोनो पक्ष के लोग आपस मे मिल : समाने वालों में ही टक्कर हो । अनुचित और अन्याय पूर्ण ढंग से कोई लंड नही सकताः । क 2 - }-- · 1. ki î * अस्त्रों का प्रहार से, घुड सवार घुड सवार से तथा सेना से दूर हट जाने वालों पर बाणो या न हो। रथी, रथी से हाथी सवार हाथी सवार सवार मे, और पैदल पैदल से, विमान- सवार विमान विकट गाडी विकट गाडी से ही लडे । शत्रु पर विश्वास करके जो लडना बन्द कर दे उस पर या डर कर हार मानने या सिर झुकाने वाले पर शस्त्र का प्रयोग नही होना चाहिए। दो योद्धा आपस मे युद्ध कर रहे हो तो, उन को सूचना दिए बिना, या. सावधान किए बिना, तीसरे को उन पर या किसी एक पर शस्त्र नहीं चलानी चाहिए। निशस्त्र असाबधान, पीठ दिखा कर भागने वाले या कवच से रहित को शस्त्र चला कर नही मारना चाहिए । शस्त्र पहुचाने या ढोने वालो, अनुचरो, भेरी बजाने वालो और शख फूकने वालो पर भी हथियार नहीं चलाया जायेगा । , 15 ' - 1 उपरोक्त नियमो को देख क्या कोई कह सकता है कि इन नियमो को मान कर लडने वाले कोई असम्य या अनुचित कार्य करने वाले लोग थे ? इन नियमो को बनाते समय वृद्ध ग्राचार्यो और धर्म राज युधिष्टर ने विशेष तौर पर अपने धर्म अपनी मर्यादा और अपने कर्तव्य को खण्डित न होने देने का प्रयत्न किया था । क्या आज के युग मे कोई भी युद्ध इतनी मानवीय कर किया जाता है। वास्तव में यह नियम चीख शर्तों को मान चीख कर कह ? Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत रहे है कि चाहे युद्ध का कारण कुछ रहा हो और चाहे कोई भी अन्यायी या न्यायी हो पर दोनो ही पक्षो का नेतृत्व सुलझे हुए धर्म ध्यानी और कर्तव्य निष्ठ लोगो के हाथ में थे। .... -- -तो युद्ध के नियमों को दोनों पक्षो के महारथियों ने प्रतिज्ञा पूर्वक स्वीकार किया। दुर्योधन ने व्यूहरचना युक्त पान्डवो की सेना को देख कर और द्रोणाचार्य के पास जाकर प्रणाम करते हुए कहा-"माप के बुद्धिमान शिष्य द्रुपद पुत्र धृष्ट द्युम्न द्वारा.व्यूहाकार -खडी-की-हुई पाण्ड पुत्रो की इस बडी भारी सेना को देखिये। इस सेना मे बड़े बड़े धनुषो वाले तथा युद्ध मे भीम और अर्जुन के समान- शूरवीर, सात्यकि, और विराट तथा महारथी राजा द्रुपद, धृष्ट केतु और चेकितान तथा बलवान काशीराज, पुरुजित. कुन्तो भोज और मनुष्यो में श्रेष्ठ शैब्य, पराक्रमी युधामन्यु तथा उत्तमौजा, सुभद्रापुत्र अभिमन्यु एव द्रौपदो के पाचो पुत्र यह सभी महारथी हैं ।" - द्रोणाचार्य ने दुर्योधन की बात सुन कर गम्भीरता पूर्वक कहा-"सामने खडी सेना की शक्ति को मैं समझता हूँ।- रण क्षेत्र मे आकर यह मत देखो कि कौन बडा योद्धा है, बल्कि यह सोचो कि कौन किस की टक्कर का है। दुर्योधन ! पोखली मे मिर देकर मूमलो से डरने की बात मत करों।" . दुर्योधन गरज उठा-'प्राचार्य जी ! पाप के पाशीर्वाद से हमारी ओर इतनी शक्ति है कि पाण्डव सारे ससार को ला कर भी विजयी नही हो सकते। मुझे तो गवं है अपनी शक्ति पर । प्रोग्वली मे सिर तो पाडवो ने दिया है। ग्राप मुझे गलत न समझिए।" उमो समय दुर्योधन के हृदय मे हर्ष, उल्लास और विचित्र उत्साह भर देने के लिए वृद्ध परम प्रतापी भोप्म ने उच्च स्वर से सिंह गर्जना कर के गब बजाया। और उसी समय शख नगारे, टाल मृदग तथा नरसिंगे ग्रादि बाजे एक साथ ही बज उठे। बदा भयकर शब्द हुमा वह् । ' Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्णोपदेश देश.............३४३ दूसरी ओर से भी इस भयंकर ध्वनि का उत्तर उतनी हा भयकरता से दिया गया। सफेद घोडो से युक्त उत्तम रथ मे बैठे हुए श्री कृष्ण तथा अर्जुन ने भी अपने अपने अलौकिक शख बजाए । श्री कृष्ण के पाच जन्य, अर्जुन के देवदत्त, कर्मवीर भीमसेन के पौण्ड नामक शखों की ध्वनि ने सारे वातावरण को कम्पित कर दिया। और उन शख ध्वनिनों के साथ ही कुन्ती पुत्र धर्म राज युधिष्ठिर ने अनन्त विजय नामक, नकुल तथा सहदेव ने सुद्योष तथा मणि पुष्पक नामक शंखों से भयकर ध्वनि की। इतनी भयकर थी वह ध्वनि को एक बार दु.शासन तथा शकुनि आदि का हृदय कांप उठा। जैसे यह ध्वनि न होकर यमलोक से आ रही मृत्यु की ध्वनि हो। वज्रपात होने का सन्देश हो । - युद्ध प्रारम्भ होने वाला था, महानाश का बवडर उठने वाला था भारत के अनगिनत वीर पुरुषों के सिर पर मृत्यु मण्डराने वाली थी कि धनुर्धारी अर्जुन ने श्री कृष्ण को सम्बोधित करते हुए कहा"तनिक इन सब योद्धाओं को जो दोनों ओर से रण स्थल मे अपने अपने हाथ दिखाने आये हैं, देख तो लं। कृपा कर मेरा रथ दोनों सेनाओं के बीच मे ले चलिए। मैं उन के मुखों को देख कर जानना चाहता हूं कि इस समय उन के हृदय मे कैसे कैसे भाव उठ रहे है। क्या सेनाप्रो के सजने के बाद भी भयकर युद्ध की अशका से दुर्योधन और उस के सहयोगियो के हठवादी हृदय पर कोई चोट नही पहुची ?" श्री कृष्ण तो उस समय द्वारिका नरेश न होकर सारथी मात्र थे, अर्जुन की प्राज्ञा पाकर उन्हों ने रथ दोनो सेनाओ के बीच में ले जाकर खड़ा कर दिया। और बोले-"पार्थ । युद्ध कालिए जुटे हुए इन कौरवों को देखो। यह सब तुम्हारे शोर्य को देखने और पराजित होने के लिए खड़े हैं। इन्हे अपनी विशाल सना पर गर्व है; पर इन में से कितने ही सदबुद्धि वृद्ध हैं जो मन ही मन युद्ध के परिणाम के प्रति सन्दिग्ध हैं। उन्हे तुम्हारे धनुष का जोहर मालूम हैं। वे तम्हारे भ्राताओं और तुम्हारे अन्य सहयोगियों के प्रसीस बल से परिचित हैं। और स्वय समझते हैं कि सिह के सामने असख्य भेडों की भीड भी कुछ नही कर पाती।" Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ जैन महाभागत श्री कृष्ण ने अर्जुन को उत्साहित करने के लिए ही उक्त शब्द कहे थे । अर्जुन ने श्री कृष्ण की बात: तो सुनी पर उस को दृष्टि थी कौरवो की सेना की ओर। जिस-मे उस के गुरु, आदरणीय वृद्ध, परिवार के अन्य सदस्य, तथा कितने ही रिश्तेदार मौजूद थे। अर्जुन ने दोतों सेनाओ पर, दृष्टि पात किया । इस की जिधर दृष्टि गई:धर ही स्वनन दिखाई दिए.+ सेनाओं मे स्थित, ताऊ चाचों को, दादों परदादों, गुरुपो को, मामाओं को, भाईयो को, पुत्रों को, मित्रों को, - ससुरो और सुहृदों को भी देखा उसने देखा कि दोनो ओर उसका पूरा परिवार कौरव कुल ही खड़ा है। महाराज शान्तनु के वशज, दोनों ओर एक दूसरे के शत्रु रूप में, एक दूसरे का काल बनने के लिए खडे हैं। उस ने अनुभव किया कि करो? वीर रण बाकुरे अपने प्राणो का मोह त्याग कर हाथो में शस्त्र-अस्त्र लिए भयंकर संग्राम करने खडे है। अर्जुन के मन में उसी समय एक भाव उत्पन्न हुआ, वह था करुणा का भाव । भरत खण्ड के चुने हुए योद्धा इस युद्ध में पागए है। अभी ही कुछ देरी में युद्ध प्रारम्भ हो जायेगा और रक्त को नदिया वह जायेंगी सारी पृथ्द्री का गौरव रक्त रजित हो जाये गा ! यह वीर, जिनके भाल पर तेज विद्यमान है, यह विद्वान जिनकी संसार को आवश्यकता है ताकि मुझ जैसे कितने ही अन्य अर्जुन उत्पन्न हो सकें यह क्षत्रिय कुल गौरव, यह नरेश और यह सौम्य मूर्तियाँ, मभी तो इस रण भूमि में एक दूसरे के लिए यमदूत का काम करेगे और न जाने इस युद्ध के कारण इस धरती पर कौन जोवित रहे, कौन न रहे ? । अर्जुन का मन काप उठा, यह सोच कर कि रण भूमि में उसके गुरु और भीष्म पितामह तक उपस्थित हैं; क्या 'मुझे अपने गुरुदेव पर ही वाण उठाना होगा? मैं तो सदा भीष्म पितामह के चरणो को पूजता रहा हूं, क्या उन पूजनीय भीष्म जी को मुझे ' ही अपने शन्त्रों से मार डालना होगा?-प्रोह क्या इन गुरुया और वृद्ध जनो को उनकी कृपाओं का यही बदला दे सकता हूं। नही नही यह पूर्णतया कृतघ्नता है। मैं जिनकी गोद मे पला है. जिनके प्रताप से मैं धनुर्धारी हुया हूं, जिनकी कृपा में मुझे विद्या Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्णोपवेश ३४५ दान मिला है, मै उन के प्राण भला कैसे हर सकता हू ? वीर होकर कृतघ्न कैसे हो सकता हूं। उसी समय उसके मन में यह बात भी आई कि यदि में अपने पूजनीय लोगो से भी युद्ध करने से बच जाऊ तो भी मुझे व्यर्थ का रक्तपात तो करना ही होगा। यह जो असख्य वीर पुरुष खड़े है, जो जीवन यापन करने के लिए सेना मे भरती हुए है, जो अपने स्वजनो का पेट भरने के लिए दुर्योधन की सेना में सम्मिलित हो गए हैं, इन बेचारों ने मेरा क्या बिगाडा है। मेरे बाणो से हा, कितनी ही वहनो का सुहाग लुट जायेगा, कितने बालक अनाथ हो जायेगे, कितनी ही माताओ की गोद खाली हो जायेगी। मेरे द्वारा कितने ही निरपराधी बालको, बहनों और माताओ की अाशाए, कल्पनाए और सुखद स्वप्न धूल धूसरित हो जायेगे। इन के जीवन की ज्योतियां बुझ जायेगी और मेरे कारण रण भूमि मे रक्त और घरो में पासुग्रो की धाराए 'फूट पड़ेगी। में भी पृथ्वी के वीर रहित कर दिए जाने का दोषी हो जाऊगा। यह सोचकर अर्जुन का शरीर शिथिल हो गया । उस का मन शोक सन्तप्त हो गया। अर्जुन की यह दशा देखकर श्री कृष्ण समझ गए कि पार्थं युद्ध के प्रति उदासीन हो रहा है। पूछ बैठे-पार्थ | क्या सोच रहे हो?" ___अर्जुन ने श्री कृष्ण का प्रश्न सुना पर बोला कुछ नही। उस के मस्तिष्क मे जिन भाषित धर्म की शिक्षाए जागृत हो गई। वह साचने लगा कि हिंसा तो भयंकर पाप है। ऋषभ देव जी ने तो फरमाया है कि किसी प्राणी को दुख देना या उसका वध करना महापाप है। भगवान ने तो कहा है - समे जीवैपिणो जीवा न मत्यु कश्चिदहिते। इतिज्ञात्वा बुधा. सर्वे न कुर्युजवि हिंसनम् ।। (श्री मद् गौ० गी० ४६) सम्पूर्ण प्राणी जीना चाहते है। मरना कोई भी नहीं चाहता, लिए किसी भी बुद्धिमान को जीव हिंसा नही करनी चाहिए । जिन भापित धर्म की शिक्षानो का ध्यान आना था कि Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ जैन महाभारत भगवान के उपदेश एक के बाद एक उसके मन मे उठने लगे। उसे ध्यान आया निस्पृहः साधको नित्यं जागृति प्राणिनोऽखिलान् । आत्मवत्सर्व मालोच्य नहि वैरायते क्वचित् ।। निम्पृह साधक संसार में सब प्राणियो को आत्मवत् समझ कर किसी भी प्राणी के साथ कभी भी वैर नहीं करता। यह धर्म शिक्षा स्मरण होते ही अर्जुन को ऐसा लगा मानो उससे कोई बड़ा पाप हुआ हो । उसका मन उसे धिक्कारने लगा। धनुष बाण की पकड ढीली हो गई और खडा न रह सका बैठ गया। श्री कृष्ण ने यह दशा देखी तो उन के मन में एक विचित्र आशका उठी। उन्होने फिर वही प्रश्न उठाया 'पार्थ! तुम क्या सोच रहे हो? तुम तो रण भूमि मे आकर सदा शत्रुओ पर बिजली की भांति टूट पड़ने के आदा थे। तुम्हारे धनुप.की टकार से ही शश्रुओ . के दिल दहल जाते हैं। पर आज जव कि कौरव सेनामो का सामना हुआ और तुम ने इतनी विशाल सेना को देखा तो तुम्हारे चेहरे का रग क्यो उड़ गया? गाण्डीव तुम्हारे हाथो से क्यो छुट गया और रण भूमि मे आकर कायरो की भाति कसे बैठ गए ?" अर्जुन ने कहा- "मैं कायर नहीं। श्री कृष्ण जी मैं पथभ्रष्ट हो गया था, इस रण भूमि में आकर मेरी आंखे खुल गई।" अर्जुन के उत्तर से श्री कृष्ण को बडा आश्चर्य हुआ। पूछा"पथ भ्रष्ट कसे ? अांखें खुलने से तुम्हारा क्या तात्पर्य है ?" "स्वामिन् ! श्राप देख रहे है कि सामने शत्रु रुप मे शस्त्र लिए कौन कौन बड़े हैं ?" अर्जुन ने कहा "कौरव और उनकी सेना " "इन मे मेरे आदरणीय व पूजनीय गुरुदेव तथा पितामह भी 1. " "हो. हैं तो हा क्या?" Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्णोपदेश "और यह भी आप देख ही रहे है कि भरत खण्ड के कितने ही वीर रण वाकुरे, जिन्हो ने हमे कभी कोई हानि जान बूझ कर पनी इच्छा से नही पहुचाई, हमारे विरोधी बनकर रण मे उतरे ?” है "पूरी बात तो बताओ। देखने को तो मैं सब कुछ देख रहा हू ।" डूबता है । "तो महाराज ! आप ही बताइये कि क्या इन आदरणीय जनो और निरापराधो का रक्त भला क्यो बहाऊ धर्म का अनुयायी हूं उस ने तो मुझे आज्ञा दी है कि मैं किसी निर्दोष प्राणी का वध न करू । फिर में यह रक्तपात करके अपने लिए नरक ? मैं जिस क्यो मोल लूँ ? – नही मुझ से यह पाप न हो सकेगा ?" अर्जुन का उत्तर सुनकर श्री कृष्ण को कुछ हसी आई उन्होने गम्भीरता पूर्वक कहा - " पार्थ ! ऐसे समय भी तुम्हे धर्म शिक्षा का ध्यान आया, अहोभाग्य ! तुम प्रशसा के पात्र हो । तुम धन्य हो । पर जिन भाषित धर्म की आड़ लेकर अपनी कायरता को मत छिपाओ । A " " कायरता - कैसी कायरता ? मैं ससार की किसी भी शक्ति के सामने घुटने नही टेक सकता । पर वीरता का तो यह अर्थ नही कि अपने बाहुवल को पापयुक्त कर्मो में लगाता फिरू । " - अर्जुन ने उत्तर दिया । “पार्थ ! तुम ने जिन भाषित धर्म का तो उल्लेख किया पर पता भी है कि भगवान ने कहा क्या है ?" ३४७ "हां, मुझे ज्ञात है कि उन्होने जीव वध को पाप बताया है । मनुष्य को अहिंसक होने का उपदेश दिया है। हिंसा को भयकर पाप कहा है ।" अर्जुन ने उत्तर दिया । "पार्थ ! तभी तो कहा है कि अधूरा ज्ञान व्यक्ति को ले Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ जैन महाभारत 'नीम हकीम खतरे मे जान' । तुम ने तीर्थजारों की शिक्षा तो याद रक्खी पर उसका मर्म नही समझ " F श्री कृष्ण की बात से अर्जुन तिलमिला उठा। कहने लगाक्या मै कही भ्राति का शिकार हो गया हू ?" . "हा, ऐसा ही है।" "कैसे ?" "अर्जुन ! तुम भूलते हो। भगवान ने अहिंसा के सम्बन्ध में जो उपदेश दिया है वह इस.प्रकार है .-- , “सब्वे जीवा वि इच्छति, जोविउ न मरिज्निउ। - तम्हा पाणिवह घोर, निग्गथा वज्जयति ण ॥ .. - अर्थात्-सभी जीना चाहते हैं मरना कोई भी नही चाहता। इस लिए निर्ग्रन्थ मुनि महाभयावह प्राणिवध का सर्वथा त्याग करते हैं। - इसका अर्थ स्पष्ट है कि निर्ग्रन्थ (जैन) मुनि ही भगवान की इस आज्ञा का कि किसी जीव का बध न करो। पालन करते हैं। गृहस्थी से यह आशा नहीं की जा सकती । ग्रथो में साफ़ साफ़ माना गया है कि : समया सव्वभूएसु, सत्तुमित्तेसु वा जगे। पाणाइवाय विरई, जावज्जीय वाय दुक्कर ।। जीवन पर्यन्त ससार के सभी प्राणियो पर, फिर भले ही बह । शत्रु हो अथवा मित्र, समभाव रखना तथा सभी प्रकार की हिंसो । का त्याग करना बड़ा ही दुष्कर है। - ता सव्व जीव हिंसा, परिचती अत्तकामेहि ॥ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___कृष्णोपदेश ३४९ इसी लिए आत्मार्थी महापुरुषो ने (ही) सर्वथा हिंसा का परित्याग किया है। सो; अर्जुन ! तुम जो कि एक सद्गृहस्थी हो उन नियमो का पालन नहीं कर सकते जो महाव्रती मुनिगण के लिए बताए गए हैं । तुम्हे गृहस्थ मे रहना है तो भगवान के कथनानुसार केवल स्थूल हिंसा से ही बच सकते हो।" । श्री कृष्ण के उपदेश को सुनकर अर्जुन ने कहा-"पर आखो देखे, पाप को करना तो भूल है। जब कि मैं जानता हूं कि मैं जो कुछ करने जा रहा है उससे भयकर हिंसा होनी है तो फिर जानबूझ कर पाप के गड्ढे मे क्यो गिरू?' श्री कृष्ण वोले-"पार्थ ! अभी तक तुम्हारे मस्तिष्क पर भ्रान्ति का परदा पड़ा है। भगवान के द्वारा बताये गए श्रावक धर्म के नियमो का स्मनणे करो। यदि तुम जानबूझ कर हिंसा करना पाए समझते हो तो फिर मुनिव्रत धारण क्यो नही करते ?-अर्जुन रसा चार प्रकारतो फिर मुनिव्रत यदि तुम जानताये गए श्रावक पर (१) सकल्पी हिंसा-अर्थात् निरापराधी को जानबूझ कर मारना सताना। (२) आरम्भी हिंसा-खाने पीने आदि में जो जीव हत्या . होती है उसे आरम्भी हिंसा कहते है। (३) उद्योगी हिंसा-देश की उन्नति के लिए कृषि करने, ' । उद्योग धन्धो आदि मे जो हिसा होती __ है उसे उद्योगी हिंसा कहते हैं। (४) विरोधी हिंसा-देश, सतीत्व, मान, मर्यादा, निपराधी की रक्षा, न्याय, धर्म आदि ' की रक्षा करने के लिए आक्रमणकारी को अपराध करने से रोकने मे जो हिंसा होती है वह विरोधी हिंसा कहलाती Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० जैन महाभारत इन चार प्रकार को हिसायो मे से गृहस्थी से सकल्पी हिंसा का ही त्याग हो सकता है। तीर्थड्रो ने श्रावक को उपदेश दिया है कि वह किसी निरापराधी जीव को जानबूझ कर, वध करने के उद्देश्य मात्र से ही न मारे। और शेष तीन प्रकार की हिंसाए मर्यादा बाध कर करने पर गृहस्थी विवश है। प्रारम्भी हिंसा, उद्योगी हिंसा और विरोधी हिंसा की मर्यादा के भीतर रह कर करते रहने वाले गृहस्थी के गृहस्थ नियम सुरक्षित रहते हैं। यदि कोई व्यक्ति पागल हो जाये । ता उसे काबू मे रखने और कोई अनुचित कार्य करने से रोके रखने के लिए उसे बाधकर रखना तथा अन्य कड़े नियन्त्रणो को आवश्यकता होती है। तो क्या कोई यह कह सकता है कि पागल को इस लिए नियंत्रण मे न रक्खो कि तुम्हारे कठोर व्यवहारो से हिंसा होगी। नही ? ऐसा तो करना ही होगा और करना पडता है स्वय पागल के हित के लिए। राम और रावण का युद्ध ही लो। क्या राम ने रावण के विरुद्ध खड्ग उठाकर कोई सा पाप किया था जो किसी गृहस्थी के लिए अनुपयुक्त है। नही ? उस समय रावण के विरुद्ध युद्ध करना आवश्यक था। रावण के अन्याय के विरुद्ध राम चन्द्र का युद्ध विरोधी हिंसा थो । इसो प्रकार तुम्हारा युद्ध विरोधी हिंसा-होगी। इस लिए तुम्हे भ्राति नही होनी चाहिए। उठो और जिस उत्साह के साथ रण स्थल मे आये थे उसी उत्साह पूर्वक शत्रुप्रो का मान मर्दन करो।" श्री कृष्ण की युक्ति पूर्वक बात का अर्जुन पर काफी प्रभाव पडा । पर अभी वह शका रहित न हुए थे । कहने लगे- 'महाभाग ! आप की यह बात मान लू तो भी मैं सोचता हू कि राम और रावण का युद्ध तो दो विरोधो नरेशो का युद्ध था। जिनमे रक्त का कोई सम्बन्ध नहीं था। परन्तु मैं जिनके विरुद्ध लडने आया 'हू वे तो मेरे अपने है। स्वजनो के विरुद्ध लडना भला कैसे उचित हो सकता है !" और हे केशव ! मैं रण क्षेत्र मे स्वजनो का बध करने में अपना कल्याण नही देखता। मैं न तो ऐसी विजय चाहता हू और न राज्य तथा वैभव को ही, जिसके लिए मुझे अपने प्रिय बन्धुप्रो । Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्णोपदेश ३५१ और माननीय वृद्धजनो पर तलवार उठानी पडे । हमे नही चाहिए ऐसा राज्य जिसके लिए मेरा अपना परिवार ही नष्ट हो जाय । ऐसे राज्य से भला क्या लाभ ? हमे जिनके लिए राज्य भोग और सुखादि अभीष्ट हैं वे ही ये सब धन और जीवन की आशा को त्याग कर युद्ध मे खडे हैं। गुरुजन, ताऊ चाचे, लड़के और उसी प्रकार दादे, मामे, ससुर नाती, तथा और भी सम्बन्धी लोग है। मधु सूदन ! चाहे, यह सब लोग मुझे मिल कर मौत के घाट उतार दें परन्तु मैं तीनो लोको के राज्य के लिए भी इन सब को मारना नही चाहता। फिर पृथ्वी के लिए तो कहना ही क्या ? जनार्दन धृत राष्ट्र के पुत्रो को मार कर भला हमे क्या प्रसन्नता होगी। इन आतताइयों को मार कर भी हमे पाप ही लगेगा। और अपने परिवार को मारकर भला हम कैसे यश प्राप्त कर सकते है।" -- रण भूमि मे शोक से उद्विग्न मन वाला अर्जुन इस प्रकार कह कर धनुष बाण एक ओर रख कर नीचा सिर कर के "बैठ गया। श्री कृष्ण समझ गए कि जब तक अर्जुन शंका रहित नही होगा, तब तक रण के लिए उद्यत नही हो सकता। उसे परिवार का मोह सता रहा है। वह मोह जाल मे फस कर विजय को भावी पराजितो के चरणो मे सौप देना चाहता है। इस समय आवश्यकता इस बात की है कि अर्जुन को ऐसा पाठ पढाया जाय कि वह परिवार के मोह को त्याग कर के उत्साह पूर्वक गाण्डीव उठाले। इस लिए श्री कृष्ण ने अर्जुन को समझाते हुए कहा-"जिन भाषित धर्म की दुहाई तो तुम देते हो पर इतना भूल गए कि मोह असंख्य प्रकार दुष्कर्मों तथा पापो को जन्म देता है। मोह ही जग वैतरणी सपार नही उतरने देता। तुम क्षत्रिय हो। तुम्हे इस प्रकार की वात शोभा नहीं देतीं। अर्जुन यह सामने जितने जीव खडे हैं उन्ह किसी न किसी दिन मरना अवश्य है। जिस प्रकार पतझड आन पर पत्तै स्वयमेव ही टूट कर भूमि पर गिर पडते है, इसी कार का सन्देश मिलने पर जीव मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। जिन्हें तुम आज मृत्यु से बचाना चाहते हो, वह किसी न दिन अवश्य मृत्यु को प्राप्त होगे और तुम उनकी कोई सहायता न कर सकोगे। प्रात्मा तो नित्य है। किसी की मृत्यु Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ जैन महाभारत से घबराकर यदि तुम अपने कर्तव्य से गिर जाते हो तो वह भी एक महा पाप हो जाता है। तुम यहा न्याय प्रतीक हो कर अन्याय की रोक थाम के लिए पाए हो और तुम्हारा सामना करने आये लोग चाहे वह 'तुम्हारे कोई भी हो, इस समय अन्याय और अधर्म के पक्ष पाती है। धर्म कहता है कि तुम अन्याय को सहन न करो। अन्याय को सहन कर लेना भी अन्यायियो को सहयोग देने के समान ही है। क्षत्रिय का कर्तन्य है कि वह अपने देश, न्याय, धर्म, मान मर्यादा आदि की रक्षा के लिए अन्यायी का सामना करे और या तो वीर गति को प्राप्त हो अथवा विजय पताका फहरो कर न्याय का बोल बाला करे। यदि आज तुम ने अन्यायियो को अपने परिवार के कारण अन्याय करते रहने को छोड दिया तो सोचो कि यह मोह, यह पक्षपात, अन्याय की बृद्धि मे सह्योगी नही होगा ?' क्या तुम भी उसी पाप के भागीदार नही होगे जो आज कौरव कर रहे है ?" - . . अर्जुन ने कहा-"आप की बात ठीक भी हो तो भी मैं कैसे रण भूमि मे अपने वाणो से भोष्म पितामह और गुरुदेव - द्रोणाचार्य के विरुद्ध लड़गा?" ... . . . "पार्थ ! तुम भूलते हो,- श्री कृष्ण बोले-जो लोग यह जानते हुए भी कि तुम उनके अपने हो। उन के साथ तुम उचित व्यवहार करते हो। तुम ने कभी शिष्टाचार अथवा धर्म के प्रतिकूल कार्य नही किया, यह जानते हुए भी तुम्हारे गुरुदेव तथा पितामह तुम्हारे विरुद्ध अन्यायी के पक्षपाती होकर आये है, तो स्वजन के प्रति चलने वाले शिष्टाचार तथा कर्तव्य को तो उन्हो न ही भग कर दिया। इन लोगो का यहा तुम्हारे विरुद्ध पानी इनकी . अशुभ प्रकृति का द्योतक है। अब तुम्हे उन के विरुद्ध धनुष उठाने मे कोई आपत्ति होनी ही नहीं चाहिए। यदि पितामह और गुरुदेव . तुम्हारे विरुद्ध शस्त्र प्रयोग कर सकते हैं तो फिर तुम्हे. शस्त्र प्रयोग करने में कोई हिचक नही होनी चाहिए। जैसी किसी की प्रकृति होती है उस के सामने वैसी ही प्रकृति आ जाती है। . "हे गिरधारी । मैं उसी पाप को करने को क्यो तैयार हो Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्णोपदेश ३५३ जाऊ जो उन्हो ने किया है ? अर्जुन ने कहा-पाप यदि बडो द्वारा किया जाता हो तो भी वह धर्म तो नहीं हो जाता।" . 'ठीक है, परन्तु क्षत्रिय देश धर्म की रक्षा करता हुआ लडता है। क्षत्रियो के लिए धर्म युक्त युद्ध से बढ कर तो दूसरा कोई कल्याण कारी कर्तव्य नही है। यदि तुम इस अवसर पर कायरता और मोह के पचड़े मे फस जाओ तो विश्वास रक्खो कि आने वाली सन्ताने तुम पर थूकेगी। और स्वधर्म को होकर अपकीर्ति प्राप्त करोगे "श्री कृष्ण बोले। अर्जुन ने पुन. प्रश्न किया-"तो क्या अधर्म से हो कीर्ति मिलती है।" ___"नही, कदापि नही,-श्री कृष्ण ने शका समाधान करते हुए कहा-तुम जिसे अधर्म समझ बैठे हो वह अधर्म तो है ही नहीं, वरन तुम्हारा कर्तव्य है जिस से तुम विमुख होना चाहते हो । धर्म क्या है पहले उसे समझो। धर्म तो आत्मा के स्वभाव को कहते हैं। कर्तव्य का दूसरा नाम धर्म है। माणिणिहिज्जवीरिय अपनी वीरता को मत छपामो अन्याय करना तो पाप है किन्तु अन्याय सहन करना दूसरों पर अन्याय, होता हो तो उसे चुप चाप देखते रहना दोनो परिस्थितियो मे वलवीर्य अतराये कर्म का वधन होता है अतः शक्ति हो तो अन्याय का प्रतिकार करो यदि शक्ति न हा तो अन्यत्र प्रस्थान करो किन्त खड़े खड़े अन्याय का अवलोकन मत करो तथा शने शनैः शक्ति प्राप्त कर अन्याय को नष्ट करने का पूर्णत: सफल प्रयत्न करो। यदि तुम ने इस समय गाण्डीव न सम्भाला तो नोच द.शासन जैसो का दाव चल जायेगा और संमार मे प्राततइयों की बन आयेगी। फिर तो न्याय पर अन्याय की विजय के लिए रास्ता खुल जाएगा। यह युद्ध जो तुम करने वाले हो, केवल तम्हारे अपने हित मे ही नही है । इसका प्रभाव सारे मंसार पर पड़ने वाला है। और तुम र वार स्वजन की बात उठाते हो तो अपने शास्त्रो को उठा Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत कर देखो कि वे क्या कहते हैं । कहा है कि. - ३५४ नाल ते तब ताणाए वा सरणाए वा तुमपि ते सि नाल ताणाए वा सरणाए वा स्वजन सम्बन्धी लोग पाप के फल भोगने के समय तुम्हारी रक्षा नही कर सकते, न तुम्हे शरण दे सकते है, तुम भी उन के एव शरण के लिए समर्थ नही हो । त्राण 1 'जब तुम्हारी आत्मा पर कोई आपत्ति आयेगी तो तुम्हारी रक्षा न तुम्हारे गुरुदेव कर सकते हैं और नांही पितामह, कौरवो की तो बात ही क्या है ? न तुम्हारे पाप मे भाग बटा सकते हैं। तुम्हारी अपनी आत्मा स्वतन्त्र है, तुम्हारे वन्धु तथा अन्य स्वजन तो तुम्हारी मोह वृति से ही तुम्हारे है, वरना प्रत्येक अपने अपने कर्मो का फल भोगता है मोह को छोड़ कर तुम्हें अपने कर्तव्य पघ पर अग्रसर होना चाहिए ।" 1 " हे गोविन्द ! आप यह तो बताइये कि यदि मैं इस रण मे भाग न लूं तो मेरी आत्मा पर क्या प्रभाव होगा ? मैं गाया पाप ? " - अर्जुन ने पूछा ! पुण्य कमाऊ "हे पार्थं । जो अपने कर्तव्य से पीछे हट जाता है उस का कभी कल्याण नही होता । तुम्हारी आत्मा पर तुम्हारे भावो और कार्यों का अवश्य ही प्रभाव पडना है । 'जो कम्मे सूरा, ते धम्मे सूरा, अर्थात जो कर्म मे शूर होता है वह धर्म मे भी शूर होता है। तुम रण स्थल से चले जाओगे तो मोह के कारण श्रीर महाराज युधिष्ठिर की प्रतिज्ञा को अधूरा छोड़ कर । इसलिए तुम स्वय सोच लो कि इस कर्तव्य विमुखता और विश्वास घात का तुम पर क्या प्रभाव होने वाला है ।" श्री कृष्ण ने उत्तर दिया । - कृष्ण के उत्तर को सुन कर अर्जुन सोच मे पड़ गया। कुछ देर विचार करने के उपरान्त वह फिर बोला - "परन्तु एक. परिवार ही केवल एक राज्य के लिए लड़े या रक्त पात करे यह कहा तक उचित है ?" 氨 "केवल राज्य की ही बात होती तो मैं तुम्हे कभी युद्ध Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्णोपदेश ३५५ लिए प्रेरित नही करता।- श्री कृष्ण कहने लगे-परन्तु यह तो । प्रश्न है न्याय तथा अन्याय का। इस युद्ध मे यह निश्चय होना है । कि न्याय की विजय होती है अथवा अन्याय की। तुम्हे न्याय का सिर नीचा कराना है तो तुम युद्ध से भाग सकते हो" "फिर भी मुझे बार बार अपने स्वजनो का ध्यान आता है" - अर्जुन ने कहा। __ "अर्जुन | तुम उनके शरीर का आदर करते हो या आत्मा का?" "शास्त्र कहता है:जह नाम असी कोसा, अन्नो कोसो असीवि खलु अन्नो। ___ इह मे अण्नो जीवो अन्नो देहुति मन्निज्जा ॥ जैसे म्यान से तलवार और तलवार से म्यान भिन्न होती है, इसी प्रकार मेरा यह जीव शरीर से भिन्न और शरीर जीव से भिन्न है। ऐसा सोचकर शरीरक ममत्व दूर करे । धीरे णवि मरियव्व, काउरिसेणवि अवस्स मरियव्व तम्हा अवस्स मरणे, वरं खुधीरत्तणे मरिउ ॥ वीर पुरुष को भी मरना पड़ता है और कायर पुरुष के लिए भी मरना आवश्यक है। जब अवश्य ही मरना है तव धीर की प्रशस्त मौत से मरना ही श्रेष्ठ है। इस लिए हे पार्थ । शकाए छोड कर वीरगति या विजय इन दोनो मे एक प्राप्त करने को तैयार होजा। उठ ! तेरे बाण से कोई अात्मा समाप्त होने वाली नही। शरीर नश्वर है, वह मिटना ही है। तुम उसकी चिन्ता क्यो करते हो। मेरा विश्वास है कि विजय तुम्हारी ही होगी।" श्री कृष्ण के इतना समझाने पर भी जब अर्जुन को रण का उत्साह नहीं हुया तव श्री कृष्ण ने गरज कर कहा.-"पार्थ। यदि रण भूमि में जा कर कौरवो की भारी सेना को देख कर तुम अपने साहस को जीवित नही रख सकते थे तो फिर हमे जो केवल तुम गों के कारण ही वैठे विठाए युद्ध मे चले पाए है क्यो मूर्ख बनाना Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ जैन महाभारत था? तुम दोनो पक्ष वाले तो आपस मे स्वजन होने की बात लेकर आज एक दूसरे के हुए जाते हो, पर हम लोगो को बीच मे डाल कर क्यो व्यर्थ ही दुर्योधन का विरोधी बनवाया, क्यो' व्यर्थ ही दुर्योधन को हमारा शत्रु बनवाया? हम ने आखिर-तुम्हारा क्या बिगाडा था ? __नही, नहो, हे गोबिन्द ! ऐसी कोई बात नही, आप गलत समझे मेरा मतलब........." अर्जुन की बात को बीच मे ही काट कर श्री कृष्ण बोल उठे-"नही पार्थ ! बात बनाने का प्रयत्न न करो। मैं अव तुम्हारी वास्तविकता को समझा। तुम उतने वीर नहीं हो जितना मैं समझता हू। तुम कौरवो की सेना देख कर घबरा गए हो और स्वजन का बहाना बनाकर युद्ध टालना चाहते हो । वरना यदि स्वजन का ही सवाल था तो राजकुमार उत्तर को साथ लेकर तुम अपने स्वजनो के साथ. क्यो लडे थे। तुम्हे उस समय कौरव अपने भाई क्यो नही लगे? क्यो न तुम ने यह. कह कर उत्तर के साथ युद्ध मे जाने से इंकार कर दिया था कि गौए चुरा कर ले जाने वाले मेरे भाई हैं, मैं उन के विरुद्ध वाण न उठाऊ गा। और यदि यह तुम्हारे स्वजन ही थे तो क्यो न तुम ने उनकी दासता स्वीकार कर के राज्य के झगडे को समाप्त कर लिया? क्यो हम सभी को युद्ध मे घसीट लाये ?" “महाराज आप मेरी बात का गलत अर्थ न निकालिए मेरे सामने तो सवाल है रक्त पात से बचने का।"-अर्जुन ने कहा। "तो क्या तुम कह सकते हो कि तुम ने कभी भी रक्त पात नही किया ? -श्री कृष्ण ने उवलते हए प्रश्न किया। तुम ने कितने ही युद्ध लडे । क्या उन मे वीर सैनिको का वध नही हुआ तुम्हारा सारा जीवन युद्धो से भरा पडा है। तुम्हारे अपने हाथो से कितने ही योद्धा धाराशायी हुए हैं। तुम्हारे वाणो से कितनों की ही हत्याए हुई है। यदि वास्तव मे तुम विरोधी हिसा तक से बचना चाहते थे तो उस समय जब तुम पुन युद्ध में उतरा करते थे, तुम्हारा ध्यान इस ओर क्यो नही गया? नहीं, नही. मैं समझ गया कि तुम अभी तक अपने को नपुसक की दशा Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्णोपदेश - मे रखने को उत्सुक हो । हाँ, मुझे याद आया कि तुम एक वर्ष I तक विराट नरेश के रनिवास मे स्त्रियो को नाच गाना सिखा चुके हो । अब तुम्हारे हाथो मे गाण्डीव उठाने की क्षमता कहा, - तुम्हे तो चूडिथा चाहिए । तुम द्रौपदी के खुले हुए केशो को भूल गए । तुम दुःशासन द्वारा भरी सभा मे द्रौपदी को वस्त्र हीन करने के नोचता पूर्ण प्रयास को भूल गए । तुम्हे भीम को विष देकर मार डालने का षड्यन्त्र याद नही रहा । और तुम्हे यह भी याद नही रहा कि तुम्हारे इन स्वजनो ने ही तुम्हें, और तुम्हारी माता व भाईयो को लाख के महल में जला डालने का षडयन्त्र रचा था । तुम्हें यह भी याद नही रहा कि इसी तुम्हारे अन्यायी भाई दुर्योधन ने जिसका तुम्हें मोह सता रहा है, महाराज युधिष्ठिरं को फसा कर जुए मे हराया था और तुम्हे बन बन भटकने को निकाल बाहर किया था। तुम कदाचित यह भी भूल गए कि जब मैं तुम्हारा दूत बन कर गया था, इन्ही तुम्हारे स्वजनों ने मुझे मार डालने की योजना बनाई थी। तुम कदाचित यह भी भूल गए हो कि तुम्हारे बाहुबल के ग्रासरे पर सती द्रौपदी ने दुष्टो से बदला लेने की प्रतीज्ञा की थी। हा, तुम्हे यह सारी बाते क्यों याद रहने वाली है तुम तो रण क्षेत्र से भाग जाने के लिए उपयुक्त बहाने खोज रहे हो। पार्थ ! यदि यह वात नही तो बताओ कि जो वाते तुम्हे इस समय सूझ रही है, रण भूमि मे आने से पहले तुम्हे क्यों न सूझी। जहा तक तुम्हारे गुरुदेव तथा भीष्म जी से युद्ध का प्रश्न है, यदि इनकी दृष्टि मे भी तुम्हारा इतना ही मान होता जितना होना चाहिए था तो फिर बतानो वे दुष्ट दुर्योधन के साथ क्यों जाते ? नही, नही! तुम कायरता दिखा रहे हो, तुम पाण्डु नरेश के नाम को कलकित कर रहे हो तुम कुन्ती माता की कोख को बट्टा लगा रहे हो ।" हो - ३-५७ श्री कृष्ण के शब्दो के प्रभाव से क्रुद्ध सिंह की नाई अर्जुन गडाई लेकर उठा । उसने गाण्डीव सम्भाला और कड़क कर बोला ---"श्री कृष्ण जी ! आप मुझे कायर कहकर क्रुद्ध न कीजिए । मुझे अपनी शक्ति पर पूर्ण विश्वास है। कौरव चाहे कितनी ही विशाल सेना क्यो न ले आयें, मैं अपने गाण्डीव के द्वारा उन्हे रक्त 418 Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत चटा दूंगा। मैं उनके समस्त अन्यायो का बदला लेने की क्षमता रखता हूं। मैं द्रोपदी के आसुप्रो की लाज रखगा। मैं दुष्टों की सेना में विद्युत की भाति टूटूगा। मैं जिधर से निकलुगा, गाजर मूलियो की भाति उनके वीरो का सफाया करता हुग्रा निकल जाऊगा। मैं अपने को कायर कहलाने के लिए कदापि तैयार नही है। पर हा, इतना अवश्य कहूगा कि इस संसार से मुझे घृणा होती जाती है। इस युद्ध के समाप्त होने पर मैं तीर्थड्कारो द्वारा बताए गए मार्ग का अनुसरण करके प्रायश्चित करू गा और अपनी आत्मा के कल्याण के लिए तपस्या करूगा ।" अर्जुन ने पुनः गाण्डीव सम्भाल लिया। यह देखकर श्री कृष्ण ने उन्लासातिरेक मे पाच जन्य की ध्वनि की और उनकी ध्वनि का अनुसरण करते हुए पाण्डवो की सेना के सभी मुख्य सेना नायको ने शख ध्वनि की। जिस से सारा वातावरण गूंज उठा। अभी अभी जिस वीर ने राज्य के प्रति विरक्ति प्रगट करके स्वजनो पर बाण न चलाने की बात सोचो थो, उसकी धमनियी मे गरम गरम लोहू ठाठे मारने लगा और वह एक विजयी सिंह की भाति छाती ताने गर्व से दोनो ओर की सेना पर दृष्टि डालने लगा। अबकी बार उसने चारो ओर देखकर अपने मन ही मन मे कहा"विजय हमारी होगी। अन्यायियो का पक्ष दुर्वल है।" . दूसरी ओर से शख ध्वनियो के उत्तर मे तीन शख ध्वनिया की गई। भीष्म पितामह ने कौरवो की सेना को उत्साहित करने के लिए कहा-वीरो! तुम सब क्षत्रिय कुलो की सन्तान हो। क्षत्रियो का कर्त्तव्य है रण स्थल में जाकर अपनी वीरता दिखाना । विजय पाना अथवा वीर गति को प्राप्त होना। तुम ने यदि वीर गति पाई तो स्वर्ग के द्वार तुम्हारे लिए खुल जायेगे और विजय पाई तो धरा पर ही स्वर्ग के सुख तुम्हे प्राप्त होगे। इस लिए पूरी शक्ति से मुकाबला करना। स्मरण रक्खो तुम यशस्वी क्षत्रिय हो । रण भूमि तुम्हारे जौहर के प्रदर्शन का मैदान है। साहस तुम्हारा अनन्य सहयोगी है।" Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * इक्कतीसा परिच्छेद * आशीर्वाद प्राप्ति यह महाभारत की कथाप्रो मे एक महत्व पूर्ण घटना है। जो हमे यह समझने पर विवश कर देती है कि महाभारत युग मे भारत वासियों का चरित्र कितना उच्च था। क्या इस घटना की पुनरावृत्ति आज के युग मे सम्भव है? कदाचित आप का उत्तर होगा कि-"नहीं।" हा वास्तव मे महाभारत की इस घटना की पुनरावृत्ति फिर कभी नही हुई।-और न कदाचित होगी ही। -तो जिस घटना का हम उल्लेख करने जा रहे हैं वह उस समर भूमि मे घटो जिस मे कौरवो और पाण्डवो की सेनाए ससार को प्रमुख विश्व युद्ध लड़ने को प्रामने सामने तैयार खड़ी थी। भयकर सहारक अस्त्र दोनो दलो के पास थे और पृथ्वी पर उन दिनो विद्यमान समस्त योद्धा और शूरवीर किसी न किसी ओर अपना स्थान ग्रहण किए हुए थे। उन दिनो वर्तमान युग की भाति घाख का युद्ध नहीं होता था, उन दिनो वल तथा बुद्धि, बाहुवल तथा आत्मवल दोनो का मुकावला होता था। विज्ञान का अपना एक स्थान था, कितने ही वैज्ञानिक अस्त्र महाभारत में प्रयोग हुए थे। Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० जैन महाभारत अर्जुन आवेश मे पाकर युद्ध के लिए तैयार होगया था और श्री कृष्ण महाभारत में इसे अपनी पहली विजय समझ कर प्रफुल्लित थे, वास्तव में मानना ही पड़ेगा कि उस समय जव कि महाभारत का मुल्य योद्धा, अर्जुन ही उदासीन था और उस युद्ध को 'पाप' समझ वैठा था, श्री कृष्ण न होते तो कदाचित सेनाए सजी ही रह जाती, अथवा युद्ध का परिणाम ही दूसरा होता 1. जो भी हो,' श्री कृष्ण का उस समय का उपदेश काम कर गया। अव जब कि अर्जुन युद्ध के लिए तैयार था। अनायोस ही युधिष्ठिर ने कदच उतार दिया, शस्त्र रथ मे रक्खे और हाथ जोड कर तेजी से पूर्व की ओर, जहा शत्रु सेना खडी थी, पैदल ही चल पडे । महाराज युधिष्ठिर के इस प्रकार अनायास ही शत्र सेना की ओर विना अस्त्र गस्त्र के रण वाणो के बिना पैदल चल देने पर पाण्डुओं की सेना में खल- वली मच गई। सभी हत प्रभ होकर उस विचित्र वात को देखने लगे। महाराज युधिष्ठिर को इस प्रकार जाते देख कर अर्जुन भी ' रथ से कूद पड़े और उन के साथ ही भीम, नकुल और सहदेव भी रथ से नीचे आ गए। श्री कृष्ण तथा अन्य प्रमुख नरेश भी अपनी अपनी सवारियो से नीचे उतर आये और यह सारे लोग महाराज युधिष्ठिर के पीछे पीछे चल पडे। किसी की समझ मे ही न पाता था कि यह हो क्या रहा है । __ अर्जुन ते पूछा-"महाराज! आप का क्या विचार है। आप अचानक रण वाणा उतार कर नि शस्त्र हो शत्रु सेना की ओर क्यो जा रहे हैं ?" "............"महाराज युधिष्ठिर कुछ न बोले। वे चलते रहे । ___भीमसेन से न रहा गया, पूछ बैठा-"राजन | शत्रु पक्ष को सेना कवच धारण किए, शस्त्रो से लैस युद्ध के लिए तैयार खड़ी है और आप इस प्रकार हाथ जोडे उघर जा रहे हैं। आखिर आपके दिल में क्या आगई ? कही आप, ......" Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशीर्वाद प्राप्ति नकुल वीच ही मे बोल उठा- 'महाराज! आप हमारे बडे भाई है, आप की आज्ञा से ही हम रण भूमि मे आये हैं आपके ही आदेश पर इतनी विशाल सेना सगठित की गई है। आप हमे छोड कर विना बताए शत्रुनो की ओर इस प्रकार क्यो जा रहे सहदेव भी चुप न रह मका-"राजन । क्षमा कीजिये। हमे यह तो बत'ते जाईये कि आखिर आप ने निश्चय क्या किया महाराज कहाँजा हुए कहा-आपर उठ रहे भीमसेन फिर बोला--"आप शत्रो की ओर अपने भाईओं को विना कुछ बताये चले जाये यह अच्छी बात नही है।" तभी श्री कृष्ण के अधरो पर मुस्कान खेल गई। क्यो कि उन्होने देख लिया कि महाराज युधिष्ठिर के पग किस ओर उठ रहे हैं उन्होंने चारो को सम्बोधिक करते हुए कहा--आप घबरायें नही। मुझ से पूछे कि महाराज कहां जा रहे है ? . चारो पाण्डवो के नेत्रो मे प्रश्नवाचक चिन्ह झूल गया। श्री कृष्ण बोले-"महाराज युधिष्ठिर धर्मराज है ना। वे गुरुदेव द्रोणाचार्य कृपाचार्य तथा भीष्म पितामह आदि से आज्ञा लिए विना युद्ध प्रारम्भ नही करेंगे। उन्हीं से प्राज्ञा लेने जा रहे है आप लोग सन्तुष्ट रहें। आप यह भी विश्वास रक्खे कि जो अपने गुरुपों तथा वद्धजनो की आज्ञा तथा अनमति से, उनका अभिवादन करने के उपरान्त युद्ध करता है उसकी विजय असदिग्ध हो जाती है शास्त्र यही कहते है ।" । इधर श्री कृष्ण तो उन को समझा रहे थे उधर महाराज युधिष्ठिर को इस दशा मे देख कर कौरवो की सेना मे बडा कोलाहल हाने लगा। कुछ लोग दा रह कर चुप चाप खडे रह गए। दृयोधन के कुछ संनिको ने महाराज यधिष्ठिर को इस प्रकार प्राते पास कर पापम मे कहना प्रारम्भ कर दिया-"यो हो! यही पुलपुलड्न, युधिष्ठिर है। देखो, अव इसे कौरवा की शक्ति का Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत पता चला । भय के मारे केसे अपने भाईयो सहित भीगी बिल्ली बना हुआ भीष्म पितामह की शरण मे या रहा है ।" ३६२ कोई बोला - "अरे ! जिसकी पीठ पर अर्जुन भीम, नकुल, सहदेव, श्री कृष्ण आदि रण बाकुरे हो उसे इतना भय ! बिना लड ही पीठ दिखाना प्रारम्भ कर दिया " एक बोल उठा - " तुम लोग अपनी अपनी हांक रहे हो, तनिक देखो तो सही क्या होता है भई, यह ठहरे राजनीतिज्ञ, इन का क्या पता किस समय क्या पैंतरा बदले । वह देखो महाराज युधिष्ठर भीष्म जी के पास जा रहे हैं। देखना है क्या कहते हैं ।" सक्षेप मे यह कि जितने मुह उतनी ही बातें के सैनिक युधिष्ठिर की इस दशा से बहुत प्रसन्न थे। लड ही पान्डवो की पराजय की कल्पना कर रहे थे । पर कौरवों और विना होकर भीष्म लगे - " अजेय । महाराज युधिष्ठिर शत्रुओ की सेना के बीच में जी के पास पहुचे और उनके चरण स्पर्श करके कहने पितामह ! मैं आपको शत शत प्रणाम करता हू कि आज हमे आपके विरुद्ध युद्ध करने आना पड़ा। ग्राप जैसे कृपालु पितामह के विरोध मे हमे आना पड़ रहा है । पर जो कुछ होना है वह ता होगा ही । ग्राप से प्रार्थना है कि हमे युद्ध की आज्ञा दे और साथ ही अपना बहुमूल्य शुभ आशीर्वाद भी । " xx मुझे खेद है हा, शोक कि ग्रव भीष्म पितामह महाराज युधिष्ठिर के हृदय की विशालता देखकर प्रसन्न हो गए। गदगद कण्ठ से कहा- 'युधिष्ठिर । यदि तुम इस प्रकार मेरे पास न प्राते तो मुझे आश्चर्य होता । परन्तु व तुम ने अपने गुणो के अनुरूप पर ससार के लिए विचित्र जा दृष्टात प्रस्तुत किया है, इस से मुझे अपने कुल पर गर्व होता है । ग्राज मुझे यह अनुभव हो रहा है कि तुम मुझ से भी अधिक महान हो। तुम जैसे उच्चादर्श के पालन कर्त्ता को युद्ध मे कोई पराजित नही कर सकता | विजय तुम्हारी ही होगी ।" युधिष्ठिर को इस ग्राशीर्वाद से कितनी प्रसन्नता हुई होगी Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशीर्वाद प्राप्ति यह सहज मे ही अनुमान लगाया जा सकता है। उन्होने अपने उल्लास को प्रगट करते हए प्रश्न किया-"यदि आप मुझ से वास्तव मे प्रसन्न हैं और हृदय से मेरी विजय की आशा व कामना करते है तो आप मेरे विरोध मे क्यो है । यद्यपि मैं पाप से यह प्रार्थना करने कदापि नही पाया कि आप पक्ष बदल ले तो भी. अपनी घृप्टता की क्षमा चाहता हुआ आप से अपनी शका के समाधान के लिए पूछता हू" यधिष्ठिर के प्रश्न का उत्तर उन्होने गम्भीरता पूर्वक दिया। कुछ क्षण तक मौन रहे और बोले-"धर्म राज ! तुम अपनी धर्म बुद्धि से कभी कभी मुझे परेश नी मे डाल देते हो यह प्रश्न तुम ने मुझ से ऐसे समय किया जव मैं यह नहीं चाहता कि मैं अपने को स्वय ही दोपी मान वैलूं जब कभी मनुष्य को यह विश्वास हो जाता है कि उसका निर्णय अथवा निश्चय गलत है तो वह पूर्ण उत्साह तथा प्रात्म विश्वास के साथ उस पर अमल कर ही नही पाता। फिर भी जब तुम ने पूछा ही है तो मैं केवल इतना ही कह सकता हूं कि कभी कभी मनुष्य को जीवन में कुछ कडबी बातें भी करनी होती है, ऐसे कार्य भी करने पड जाते है, जिन्हे करते हुए मनुष्य को स्वय लज्जा आती है। जब पूज्य पिता जी ने अपना दूसरा विवाह, रचाया था तो मैं ने प्रतिज्ञा की थी कि मैं अपनी नई मा की सन्नानो. और उनके वंशजो का साथ दूगा। दूसरे यह पुरुष अर्थ का दास है, अर्थ किसी का भी दास नहीं, यही सत्य है औह इसी अर्थ मे ही कौरवो ने मुझे बाध रक्खा है। इसी से मैं तुम से नपुसको जैसी वात कर रहा हूं।" युधिष्ठिर ने तुरन्त पितामह के चरण पकड लिए और करुण । शैली से वोले - "पूज्य पितामह ! आप ने अपने लिए यह शब्द प्रयोग करके मुझे क्यो पाप मे धकेल दिया मेरा तात्पर्य आप को लज्जित करना नही था। आप चाहे जिस ओर रहे हमारे लिए आदरणीय है। मैं तो श्राप से केवल युद्ध की प्राज्ञा लेने आया था।" पितामह की आखो मे स्नेह तथा दया के भाव उमड पाये। Fउन्हाने स्नेहपूर्ण शब्दो मे कहा-"राजन! तम्हारी जितनी प्रशसा Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत की जाये कम ही है। तुम आज्ञा चाहते हो, उससे जो स्वय तुम्हारे विरुद्ध सेना लेकर पाया है। रण भेरी मेरी ओर से बजे तो तुम्हारे लिए आज्ञा ही है। इस अवसर पर तुम जो चाहे वरदान मागो। कदाचित तुम्हे कोई वरदान देकर ही मेरी आत्मा सन्तुष्ट हो सकती है। कदाचित वही मेरा प्रायश्चित भी हो हा, बस मेरे सिवाय तुम कोई भी वर माग सकते हो।" "आप से अब भला मैं क्या मागं। मुझे जिस बहुमूल्य वस्तु की आवश्यकता हो सकती थी वही मेरे लिए निषिद्ध हो गई।"युधिष्ठिर बोले। "नही, मुझे सन्तुष्ट करने के लिए ही सही कुछ न कुछ अवश्य मागो "- भीष्म पितामह ने हठ करते हुए कहा आप हमारे दादा हैं, जिन्हे आप जैसे दादा मिले हो, उस सन्तान को क्यो- न अपने पुरखो पर गर्व होगा-युधिष्ठिर कहने लगे |--आप ने अपनी ओर से जो प्रस्ताव किया है उसके बोझ से मेरी गरदन झुकी जा रही है आप कुछ देना ही चाहते है तो मैं कहता हूं। आप अजेय हैं, और आप है विपक्ष मे फिर जब आप को कोई जीत ही नहीं सकता, तो फिर हमारी विजय कसे होगी, हम कैसे जीत सकेगे ? आप का आशीर्वाद कैसे पूर्ण होगा? बस इतना बता दीजिए।" - . भीष्म बोले कुन्ती नन्दन ! दुखती रगे पकडते हो। तीर निशाने पर मारते हो .. ठीक है सग्राम भूमि मे जो मुझे ऐसा कोई दिखाई नहीं पडता अन्य पुरुष तो क्या स्वय इन्द्र मे भी ऐसी शक्ति नही है इस के अतिरिक्त मेरी मृत्यु का भो कोई निश्चत समय नही है। इस लिए किसी दूसरे समय तुम मुझ से मिलना।" भीगम पितामह की आज्ञा और आशीर्वाद प्राप्त कर लेने के पश्चात युधिष्ठिर उन्हे प्रणाम कर के प्राचार्य द्रोण की ओर चले। उन्हे प्रणाम कर के वोले-"गुरुदेव.! सर्व प्रथम मैं आप से क्षमा याचना करता हूँ क्यो कि आप के विरुध मैं युद्ध करने आया Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाशीर्वाद प्राप्ति ३६५ है। तदुपरान्त मैं हादिक खेद के साथ निवेदन करता हूं कि मुझे विवश होकर आप से युद्ध करने आना पड़ा है। परन्तु धर्म नीति के अनुसार मैं बिना आपकी आज्ञा के आप से नही लड सकता, अतएव कृपया आज्ञा दीजिए कि मैं आप के विरुद्ध युद्ध करू 1 जिस से कि मैं अपने गुरुदेव से लड़ने के पाप से बच जाऊं। आप यह भी बताने को कृपा करे कि मैं शत्रुनो को किस प्रकार जीत सकूगा ।" ओह ! कितना गम्भीर प्रश्न था यह। प्रश्न कर्ता के साहस को देखिये और अब आचार्य द्रोण के उत्तर को सुनिए। कहते है- 'राजन् ! तुम्हारे इस व्यवहार ने कुछ हद तक मुझे युद्ध से पूर्व ही जीत लिया। तुम ने यहा पधार कर अपने चरित्र में चार चाद लगा लिए। मैं बहुत प्रसन्न हूँ। मुझे तुम जैसे शिष्य पर गर्व है। और तुम जैसे स्थिर स्वभाव वाले व्यक्ति की विजयकामना किए बिना नही रह सकता। तुम युद्ध करो. तुम्हारी विजय होगी। मैं तुम्हारी इच्छा पूर्ण करू गा, बताओ तुम्हारी क्या इच्छा है ? इस स्थिति में अपनी ओर से युद्ध करने के सिवा तुम्हारी जो भी इच्छा हो कहो। मैं क्यो इधर हू इसका उत्तर यह है कि अर्थ किसी का गुलाम नही होता, परन्तु मनुष्य ही अर्थ का दास होता है। और इस अर्थ से कौरवों ने मुझे बाध लिया है । में इस स्थिति में युद्ध तो कौरवो की ही ओर से करू गा और किसी को रियायत भी नही कर सकता. फिर भी विजय तुम्हारी हो चाहता हूं।" गुरुदेव का उत्तर सुन कर यधिष्ठिर ने कोई वादविवाद नही किया। न खिन्न ही हए. न किसी प्रकार का प्रावेश ही पाया, ने उलझन मे ही पडे। सुर्शिष्य की भांति नम्र स्वभाव से कहा"गुरुदेव ! आप कौरवो की ओर से यद्ध करे। किन्तु आप मुझ वर ही देना चाहते हैं तो वस इतना ही दें कि विजय मेरी ही चाहे मार मुझे समय समय पर उचित परामर्श देते रहे ।" द्रोणाचार्य को यधिष्ठिर के इन शब्दो से अपार प्रसन्नता १६. उन्होंने अपनी मनोदशा को छपाते हुए कहा, मनोदशा इस Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत लिए छुपाई कि जी चाहता था युधिष्ठिर को छाती से लगा लें, पर । रण स्थल मे उन्होने इसे उस समय उचित न समझा "तुम्हारे परामर्शादाता तो श्री कृष्ण जैसे विज्ञान राज नीतिज्ञ है। उन के रहते मेरे परामर्श की तुम्हे आवश्यकता नही है। श्री कृष्ण जैसे चतुर राज नीतिज्ञ जिधर हैं उधर ही विजय है। और जहा विजय है वही श्री कृष्ण है। तुम निश्चित रहो । कुन्तो नन्दन । अब तुम जाओ और युद्ध करो हा, यदि और कुछ पूछना चाहो तो पूछ सकते हो।" युधिष्ठिर ने साहस पूर्वक कहा-'विद्वान आचार्य जी। आप को प्रणाम कर के मैं यही पूछना चाहता हूं कि आप को अपने रास्ते से हटाने का क्या उपाय है ?" युधिष्ठिर ने कैसा चुभता हा प्रश्न किया था, कितना कटु और कितना मामिक, क्या उसे सुन कर कोई व्यक्ति उद्विग्न हुए विना रह सकता था ? हां, द्रोणाचार्य के मुख पर इस प्रश्न के उपरान्त भी कोई चिन्ता, रोष तथा आवेश के चिन्ह नही दिखाई दिए। उन्होने अपनी स्वाभाविक गम्भीरता पूर्वक उत्तर दिया"राजन् । सनाम मे रथ पर आरूढ होकर जब मैं क्रोध मे भर कर वाण वर्षा करूंगा. उस समय मुझे मार सके, ऐसा तो कोई शत्रु दिखाई नहीं देता।" "तो फिर ?" ___ "हा, जब मैं शस्त्र छोड़ कर अचेत सा खड़ा रहू उस समय कोई योद्धा मुझे मार सकता है, यह सत्य है। एक और सच्ची वात तुम्हे बताता हूँ कि जब किसी विश्वास पात्र व्यक्ति के मुख से मुझे अत्यन्त अप्रिय वात सुनाई देती है तो मैं संग्राम भूमि मे अस्त्र त्याग देता हूं।" द्रोणाचार्य ने इतने से ही अपनी मृत्यु का उपाय बता डाला " था। पर इस प्रकार से जैसे उन्होने कोई साधारण बात कही हो युधिष्ठिर ने वारम्बार उन्हें प्रणाम किया और फिर आगे कृपाचार्य के पास गये। उन्हे प्रणाम कर के वही बात जो उन्हों से भीष्म Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशीर्वाद प्राप्ति ३६७ 7 तथा द्रोणाचार्य से कही थी। अर्थात युद्ध की आज्ञा मागी * और आशीर्वाद चाहा। उत्तर मे कृपाचार्य ने प्रसन्न होकर कहा-राजन ! तुम्हारे सम्बन्ध मे जो सुना था, तुम्हे वैसा ही पाया। शत्रु सेना मे खड़े अपने सम्मानित वृद्धजनो से तुम्हारा रण भूमि मे भी वही व्यवहार रहेगा जो साधारणतया रहता है, ऐसी तो केवल तुम से ही आशा की जा सकती है। मैं बहुत प्रसन्न हू। युद्ध की आज्ञा देता हू और प्रसन्न होकर तुम्हे कोई भी बात पूछ लेने या इच्छा प्रगट करने का वर देता हू" युधिष्ठिर बोले-'गुरुदेव ! आप प्रति दिन प्रातःकाल उठ कर मेरी विजय की कामना किया करे बस मुझे यही चाहिए।" "इसका तो तुम विश्वास रक्खो ।- कृपाचार्य बोले-~-"और कुछ मागना चाहो तो माग सकते हो बस मुझे अपने पक्ष के लिए मत मागना क्योकि मे दुर्योधन को वचन दे चुका हूं।" ___यदि आप मुझ पर इतने प्रसन्न हैं। तो कृपया अपने परास्त होने का उपाय बता दीजिए।” युधिष्ठिर ने पूछा। कृपाचार्य बोले-"धर्मराज | मैं तुम्हारी विजय की कामना किया करूगा, इतना ही तुम्हारी विजय के लिए पर्याप्त है । तुम मेरी चिन्ता न करो । विश्वास रक्खो कि तुम्हारी विजय के रास्ते में आने वाली रुकावटें किसी न किसी प्रकार दूर हो जावेगी । अन्त मे विजय पताका तुम्हारे ही हाथ मे होगी।" कृपाचार्य की वातो से सन्तुष्ट होकर युधिष्ठिर ने उन्हे प्रणाम किया और महाराज शल्य के पास गए। उन्हे प्रणाम करके कहा-राजन् ! आप मेरे मामा लगते है। आप से बिना आज्ञा लिए में आप के विरुद्ध भला कैसे लड सकता है। अतएव ग्राप प्राज्ञो दें ताकि मैं इस पाप से बच जाऊ।" गल्य बोले-"राजन् ! जब मैं स्वयं ही तुम्हारे विरुद्ध Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत मैदान मे आ गया तो तुम्हे युद्ध से भला कैसे रोक सकता है । जाओ प्रसन्नता पूर्वक युद्ध करो । हा, तुम ने जो इस समय इस दशा मे मेरे सामने आकर अपनी महानता दर्शाई है उस से मैं बहुत प्रसन्न हं । चाहे जैसे भी हो मैं हूं दुर्योधन के साथ ईमानदारी से उसकी अोर से लङगा। पर तुम मेरे भानजे हो, और हो ऐसे कि मुझे तुम्हारा मामा कहलाते अपने पर गर्व होगा, अत तुम्हे वचन देता हूं कि तुम जो चाहो मांग सकते हो, हा मुझे अपनी सहायता के लिए मत मागना। वोलो, तुम्हे क्या चाहिए।" __"मामा जी ! मै सैन्य सग्रह के समय भी आप से एक बार प्रार्थना कर चुका हू. बस वहीं प्रार्थना, है, वही मेरा वर है। कर्ण से युद्ध होते समय आप उसके तेज का नाश करते रहे। आप अपने शुभ कर्मों के फलस्वरूप ऐसा कर सकते हैं। "युधिष्ठिर ने अपना मनवाछित वर मागते हुए कही। शल्य बोले-"अपने वचन के अनुसार मैं तुम्हारो यह मनोकामना पूर्ण करूगा । जाओ निश्चिन्त रहो।" इस प्रकार अपने गुरुग्रो तथा आदरणीय वृद्धों तथा सम्माननीय बुजुर्गो से अाज्ञा तथा आशीर्वाद प्राप्त करके महाराज युधिष्ठिर अपने भाईयो सहित उस विशाल वाहिनी के बाहर आ गए । इस प्रकार उन्हो ने युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व ही अपने शिष्टाचार द्वारा कौरवो की सेना के वृद्ध अनुभवी तथा अजेय सेनानियो को सहज मे ही जीत लिया। मन जीत लिया तो तन जीतने में क्या रक्खा है। वह भी जीत ही लिया जायेगा। इस दश्य को देख कर कौरवो को सेना के उन सैनिको की कल्पनाए धूलि मे मिल गई जो युधिष्ठिर के इस प्रकार शत्रु सेना नायको के पास जाने मे उनकी पराजय समझ रहे थे , जिस ने उन की वार्ता सुनी, वही युधिष्ठिर का प्रशसक बन गया। दोनो ओर असख्य सैनिक जीवन की आशा छोडे प्रथम विश्व युद्ध के लिए सजे हुए खडे थे। रण की भेरी बज चुकी थी पर यधिष्ठर अपनी बुद्धि तथा धर्म नीति द्वारा महानतम शिष्टाचार के सहारे युद्ध मे अपनी दिजय का प्रथम परिच्छेद पूर्ण कर रहे थे। Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशीर्वाद प्राप्ति नम्र भाव इसी बीच श्री कृष्ण दानवीर कर्ण के पास गए । से बोले- मैंने सुना है भीष्म जी मे द्वेष होने के कारण तुम युद्ध नही करोगे । यदि ऐसा है तो जब तक भीष्म जी नही मारे जाते तुम पाण्डवो की ओर आ जाओ । जब भीष्म जी न रहे गे और - तुम्हे दुर्योधन की ही सहायता करना उचित जान पड तो पाण्डवो का साथ छोड कर कौरवो की ओर आ जाना | कोई आपत्ति न होगी." उस दशा मे हमे ! ३६९ कर्ण इस प्रस्ताव को सुन कर चकित रह गए। बोलेकेशव । क्या पाण्डव इतनी छूट देने के लिए तैयार हो सकते है ? प्रोर क्या कोई व्यक्ति दो और भी लड सकता है ?" - 1 'हा, अवश्य दुर्योधन और यधिष्ठिर मे वडा अन्तर है । मुधिष्ठिर ग्राप को, थोडे समय के लिए ही सही मित्र बनाने मे ड े प्रसन्न होगे । रही दो ग्रोर से लडने की बात सो इस के लिए तुम्हें कौन रोक सकता है ?" श्री कृष्ण ने उत्तर दिया 1 उत्तर सुन कर श्री कृष्ण निरुत्तर होगए । श्री कृष्ण का उत्तर सुन कर कर्ण ने अपने दृढ निश्चय को दोहराते हुए कहा 'मैं युधिस्टिर की इस नीति का ग्रादर करता परन्तु मैं दुर्योधन का ग्रप्रिय किसी दशा मे नही कर सकता । 'मुझे प्राण पण से दुर्योधय का हितैषी समझे।" प्रीप T L महाराज युधिष्ठिर के वापिस आते ही पाण्डवो की सेना में रंग के बाजे बज उठे 1 महाराज युधिष्ठिर ने सेनाओ के बीच मे खडे होकर उच्च स्वर मे कहा - "शत्रुग्रो की सेना मे सम्मिलित जो वीर हमारा साथ देना चाहे, J ग्रपनी सहायता के लिए में उसका इस समय भी हार्दिक स्वागत करने को तैयार हूं । जो वोर शत्रु की ओर ही रहना चाहे वह शत्रु सेना मे होते हुए भी हमारा मित्र ही है." Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत युधिष्ठिर की इस घोषणा से कौरवो के सैनिको पर महाराज युधिष्ठिर का मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ा । युयत्सु ने जब घोषणा सुनी, वह बहुत प्रसन्न हुआ । उस से न रहा गया, पाण्डवो की की ओर देख कर उस ने धर्मराज से कहा - "महाराज ! यदि ग्राप मेरी सेवा स्वीकार करे तो मैं इस महायुद्ध में आप की ओर से अपने भ्राताओं से लडूंगा ।" ३७० यह एक ऐसा प्रभाव था जिसे सुन कर साधारण व्यक्ति कभी विश्वास न करता कि युयुत्सु की प्रार्थना सत्य हृदय से की गई है। वह उसे सन्देह की दृष्टि से देखत परन्तु विशाल हृदय धारी धर्मराज युधिष्ठिर के मुखमण्डल पर हर्ष की रेखा उभर आई उन्होने अपनी दोनो भुजाएं आगे बढ़ा कर उल्लास पूर्वक कहा" युयुत्सु ! श्राश्रो ! ग्राम तुम्हारा स्वागत करता हू । हम सब मिल कर तुम्हारे पथ भ्रष्ट भाईयो से युद्ध करेंगे, तुम हमारी ओर से सग्राम करो मालूम होता है कि धृतराष्ट्र की सन्तान मे तुम ही एक सद्बुद्धि न्याय प्रिय तथा धर्मं बुद्धि वीर हो, तुम ही से उनका वश चलेगा ।" । युयुत्सु इस प्रकार के उत्साह वर्धक स्वागत से प्रसन्न होकर कोरवो का साथ छोड़ कर पाण्डवो की ओर चला आया महाराज युधिष्ठिर ने उसे छाती से लगा लिया और अपनी ओर से कवच दिया, अस्त्र शस्त्र देकर उस को उचित स्थान पर नियुक्त कर दिया । परन्तु दुर्योधन का हृदय जल उठा। मारे क्रोध के उस की आँखें लाल हो गई । वह ग्राक्रोश में न जाने क्या क्या बडबडाने लगा । सभी अपने अपने रथों पर ग्रारूढ हुए । सैंकडो दुन्दुभिय का घोष होने लगा तथा यौद्धा अनेक प्रकार से सिंह नाद करने लगे । Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * बत्तीसवां परिच्छेद * ®®®®®®®®®® %%%%%%% युद्ध होने लगा %%$#%%% 強強強強強強強強強強強強強強強強 दोनो अोर के योद्वा अस्त्र-शस्त्रो से लैस थे, सेना नायक अपनी अपनी सेनामो को अन्तिम आवश्यक आदेश तथा उपदेश दे चुके । दोनो ओर के सेनापतियो ने अपनी अपनी सेनाओ को अपनी विजय का पूर्ण विश्वास दिलाया,स्वर्ग के सुख भोगने का लोभ दर्शाया और क्षत्रियोचिय वीरता दिखलाने के लिए आव्हान किया। इस के पश्चात दुर्योधन जो अपनी विशाल सेना के बल पर म्भ में चूर था भीष्म जी के पास जाकर कहने लगा-"पितामह । व देरी काहे की है । आक्रमण कीजिए।" भीष्म जी बोले-"दुर्योधन । तुम चाहते हो इस लिए में युद्ध - तो प्रारम्भ किए देता हूँ पर मुझ ५ - पाण्डवो को ही प्राप्त होगी।" । ये हमारे शत्रु है या "पितामह ! श्राप सेना नायक होकर ऐसी बात कहते है ? डवा के मोह मे युद्ध के प्रारम्भ होते समय ऐसी बात मुह से न नकालिए । इस समय पाण्डवों को परास्त करना हमारा कत्तव्य है। सार शत्रु है और हमारी अपार शक्ति के सामने उन के लिए 'टिकना भी असम्भव है।"दुर्योधन ने कहा । ____पितामह ने उत्तर दिया- वेटा! शत्र की शक्ति को कम पारने वाले कभी विजयी नही हया करते।" यधिन ने कहा के सामने उन पर Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ जैन महाभारत "पाप सेना को आगे तो बढाईये। हाथ कागन को आरसी क्या। अभी ही पता चल जाता है।'-दुर्योधन ने कहा। भीष्म पितामह के नेतृत्व मे दुर्योधन, अपने भाईयो और सैनिको सहित आगे बढा। दुन्दुभिया का विपुल नाद हुआ। तो । दूसरी ओर से पाण्डवो की सेना भी भीमसेन के नेतृत्व मे रण भेरी वजाती हुई पागे बढ़ी। पान्डवो मे उत्साह था. कुछ कर गुजरने की अकाक्षा थी। फिर दोनो सेनायो मे भयकर युद्ध होने लगा। द्वन्द्व युद्ध तथा “साकल युद्ध" दोनो ही होने लगे। सांकल युद्ध से अभिप्राय उस युद्ध से है जो हजारो सैनिको के एक साथ दूसरे पक्ष के हजारों सैनिको पर टूट पड़ने से होता है। दोनो ओर से ऐसा भीषण शब्द हो रहा था कि सुनकर रोगटे खड़े हो जाते थे। उस समय महाबाहु भीमसेन सांड की भाति गरज रहा था। उसकी गर्जना से कौरव सेना का हृदय दहल जाता था। जैसे सिंह की दहाड सुन कर जगल के कुछ जानवरो का मलमूत्र निकल पड़ता है. इसी प्रकार की गर्जना से कौरव सेना के कुछ सैनिको का मूत्र ही निकल गया और भीमसेन की भयानक चिघाड को सुनकर कभी हाथी घोडा तर्क काप उठते । भीमसेन विकट रूप धारण करके वज्र की भांति कौरव सेना पर टूट पडा। जिसमे कौरवो की सेना मे खलबली मच गई। दुर्योधन ने जब यह देखा तो अपनी सेना का साहस बढाने के लिए अपने भाईयो को सकेत किया और भीमसेन पर मेघ वर्षा की भाँति वाण वर्षा होने लगी यहा तक कि वाणो की वर्ग में भीममेन उमो प्रकार छप गया जैसे मेघ खण्डो मे रवि छुप जाता है उस समय दुर्योधन, दुर्मुख, दु सह, शल्य, दुःशासन. दुर्मर्पण, विविंशति. चित्रसेन, विकर्ण पुरुमित्र जय, भोज और सोमदत्त फा आत्मज भूरि श्रवा, यह सभी अपने बड़े वडे धनुषो पर तेज वाण चढाकर विपधर सर्पो के समान बाण चला रहे थे। और दूसरा योर से सुभद्रा के पुत्र अभिमन्यु, नकुल, सहदेव और धृष्टद्युम्न अपने वाणो से कौरवो की बाण वर्षा का उसी वीरता से उत्तर रहे थे। उस समय प्रत्यन्चाओ की भीषण टकार आकाश मे तडपता Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युद्ध होने लगा ३७३ तडित का सा भयकर शब्द कर रही थी। दोनो ओर के सैनिक एक दूसरे को अपनी पूर्ण शक्ति लगाकर पछाडने का असफल प्रयत्न कर रहे थे। उधर शान्तनु नन्दन भीष्म अपना काल डण्ड समान धनुष लेकर अर्जुन की ओर झपटे। उस समय श्री कृष्ण ने भीष्म पितामह के रथ की ओर अर्जुन का रथ हाकते हुए अर्जुन को सम्बोधित करके कहा-"पार्थ ! देखो पितामह सबसे पहले तुम पर ही बल प्रदर्शन करना चाहते हैं। इस समय दादा और पौत्र नही, दो शत्रु सेनाप्रो के मुख्य योद्धाओ का सग्राम होना है। लो अपना रण कौशल अब दिखाओ।" वीर अर्जुन ने सम्भल कर अपना गाण्डीव उठाया और ज्यो ही भीष्म की ओर से उनके धनुष की पहली टकार हुई तेजस्वी अर्जुन ने अपने जगत विख्यात गाण्डीव की हृदय भेदी टकार की और भीष्म जी पर टूट पडे । वे दोनो कुरुवीर एक दूसरे का वीरता से उत्तर देने लगे। भीष्म ने अर्जुन को वीध डाला। उनके वाण ठोक निश ने पर जाते, वीर अर्जुन प्रहार से बचने का प्रयत्न करते और अपने बाण से भीष्म जो भो अपने बचाव की चिन्ता मे डाल देते। परन्तु न तो भीष्म और न अजून ही सन्नाम में एक दूसरे को विचलित कर सके। दूसरी ओर का हाल भी देखिये सात्यकि ने कृतवर्मा पर आक्रमण कर दिया है वे दो सिंह आपस मे जूझ रहे है। उन्हे किसी की चिन्ता नही, रण भूमि मे क्या हो रहा है। भीषण और गेमाचकारी युद्ध मे वे एक दूसरे को परास्त करने के लिए पूरी शक्ति लगा रहे है। और इधर महान धनुर्धर कोसल राज वृहदल से छोटा, सभ' पाद्धात्रा में कम पायुका, एक प्रकार से बालक, चचल वाल योद्धा आभमन्यु भिडा हुआ है। उन दोनो के भीषण युद्ध मे एक बार कोमल राज का दाव चल गया तो उसने अभिमन्यु के रथ की ध्वजा फा काट गिराया और उस के सारथी को भी मार गिराया। फिर या था अभिमन्यु सिंह की भाति विफर उठा। उस ने क्रुद्ध होकर ५ . Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ जैन महाभारत अपने धनुष से एक के पश्चात एक विद्युत गति से बाण छोड़ने आरम्भ किए और अपने नौ बार्गों से हो बृहद्वल को बीघ दिया तथा दो तीखे बाण छोड कर उसकी ध्वजा धाराशायी कर दी और सारथी व चक्ररक्षक को मार गिराया। कोसल राज को भी क्रोध आ गया और वह भी तुरन्त क्रुद्ध हो कर अभिमन्यु पर टूट पडा। कुछ दूरि पर ही भीमसेन से दुर्योधन भिड रहा था। दोनो ही वीर रणाङ्गण मे एक दूसरे पर बाणो की वर्षा कर रहे थे। उन दोनों वीरों के भीषण युद्ध को देख कर सभी को विस्मय हो रहा था। उसी समय दु शासन महाबली नकुल से सनाम रत था और दुर्मुख ने सहदेव पर आक्रमण कर रखा था। दुर्मुख अपने बाणो के प्रहार से सहदेव को प्रहार करने का होश ही नहीं लेने देता था। बहुत देरि तक यही गति रही। अन्त मे सहदेव को जोश आया और एक बार दुर्मख के प्रहार को काट कर एक ऐसा तीखा बाण मारा कि दुर्मुख का सारथी तडप कर गिर पड़ा। दुर्मुख सहदेव से बदला लेने के विचार से अधिक तीव्रता से लड़ने लगा। स्वय महाराज युधिष्ठिर शल्य के सामने आये। मामा भानजे का युद्ध दर्शनीय था। मद्रराज शल्य व युधिष्ठिर कितनी ही देरि तक एक दूसरे को प्रहारो को काटते रहे। परन्तु एक बार अनुभवी शल्य ने अपने तीक्ष्ण वाण से महाराज युधिष्ठिर के धनुप ही टुकडे टुकडे कर डाले। धर्मराज ने तुरन्त ही दूसरा धनुष लेकर मद्रराज को वाणो से आच्छादित कर दिया। इस गति को देख कर एक बार तो शल्य के रोगटे खड़े हो गए। यह विचित्र बल देख कर उन्हो ने समझ लिया कि धर्मराज को यूंही परास्त नही किया जा सकता। फिर दो योद्धा आपस मे बराबर की टक्कर : वाले पहलवानो की भाति भिड गए। आईये, द्रोणाचार्य के युद्ध पर भी एक दृष्टि डाले । धृष्ट द्युमन द्रोणाचार्य के सामने अडा हुआ है। कितनी ही देरि तक आचार्य द्रोण तथा वीर धृष्ट घूमन के मध्य वाणों की वोछार हेती रही। प्राचार्य जी के सर्वे हुए अनुभवी हाथो से कितने ही वाण वरसे पर एक भी धृष्ट द्युमन का कुछ न विगाड़ पाया। इस पर धृष्ट Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युद्ध होने लगा ३७५ धुमन ने कहा- "गुरुदेव ! कोई चमत्कार तो दिखाईये।" इस चुनौती को आचार्य द्रोण ने अपना परिहास समझ कर कुपित हो ऐसा वाण मारा कि धृष्ट द्युमन के धनुष के तीन टुकडे हो गए। ज्यों ही धृष्ट द्युमन ने शीघ्रता से दूसरा धनुष सम्भाला द्रोण.चार्य ने ऐसा काल दण्ड समान बडा भीषण बाण मारा कि वह धृष्ट द्युमन के शरीर मे जा घुसा परन्तु योद्धा धृष्ट धुमन को तो जैसे कुछ हुआ ही नहीं, यदि कुछ हुआ तो इतना कि उसकी रगो वहते रक्त मे तूफान मा गया और उसने विद्युत गति से तडातड़ वाण वर्षा प्रारम्भ करदी अपने चौदह बाणो से द्राण चार्य को बीध डाला। इस पर द्रोणाचार्य को भी काध आना स्वाभाविक था, उन्होंने भी बिफर कर तुमुल युद्ध प्रारम्भ कर दिया । पर वीर धृष्ट घूमन तनिक सा भी विचलित न हया। वह उसी प्रकार वीरता से लडता रहा। वीर शव भी दूसरी ओर युद्ध रत है। उस ने सोमदत्त के पुत्र भूरिश्रवा पर धावा किया। भूरिश्रवा भी कुछ कम न था, उस ने शख के धावे का उत्तर तीक्षम वाणो से दिया। क्रुद्ध होकर शख ने भूरिश्रवा को ललकार कर कहा-"खडा रह ! तुझे अभी बताता हूं। शख तेरी मृत्यु बन कर आया है।" उधर भूरिश्रवा ने भी चेतावनी दी-"मैं मृत्यु से टकराना हसा खल समझता हू। शंख का काम ही ध्वनि करना, चीखना है. शस्त्र वेचारा करता क्या है। कही स्वय अपनी ही मृत्यु का सन्देश तो नही ले आया ?" इतनी बात पर शख का खन खोलने लगा। तिल मिलाकर उस ने बड़ा भयकर युद्ध आरम्भ कर दिया और एक अवसर पाकर उसको मूजा घायल कर दी। तव भूरिश्रवा प्रति शोध की भावना सात प्रोत हो गया, उस ने शख के गले तथा कंधे के बीच की हडो को लक्ष्य बना कर वाण वर्षा की। और शख घायल हो गया । पर दोनो ही उन्यत्त योद्धाओं मे भयकर युद्ध होता रहा। अन्य योद्धानों की भांति राजा बाह्नीक भी अपना धनुष ले १९ युद्ध में उतर पड़ा। चेदिराज घट केतु उस के सामने प्रा डटा। Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत फिर क्या था ? दोन। वीर भयकर गर्जना करते हुए एक दूसरे से युद्ध करने लगे सिंह समान गर्जना करते हुए चेदिराज धृष्टकेतु ने नौ बाण छोड कर राजा बाह्लीक को वीध डाला। इस पर ब' लीक से न रहा गया । क्रुद्ध रणोन्मत्त हाथी की तरह बुरी तरह धृष्टकेतु पर पिल पडा और दोनो मे भीषण सग्राम होने लगा । ३७६ 1 - राक्षसराज अलम्बुष के साथ क्रूरकर्मा घटोत्कच भिड गया देर दोनो था । दोनो एक दूसरे की टक्कर के दिखाई देते थे । कुछ एक दूसरे को अपने अपने हाथ दिखाते रहे। फिर जब इस प्रकार हाथ दिखाने का कोई परिणाम न दिखाई दिया तो घटोत्कच ने धड घड बाण वर्षां श्रारम्भ की, जिस से अलम्बुष को अवकाश ही न मिला और वह उन बाणो से छिद गया । पर भला अलम्बुष यह कैसे सहन कर सकता था कि शत्रु उसको छेद कर बिना कुछ घाव खाये रह जाये । उसने भी कुपित होकर तीव्र वाण वर्षा आरम्भ की। और झुकी नोक वाले वाण विशेषतया चलाए जिस से घटोत्कच के शरीर मे कई स्थानो पर रक्त चूने लगा । उधर शिखण्डी ने जो था तो नपुंसक, वीरो से कम न था, द्रोण पुत्र ग्रश्वस्थामा पर अश्वस्थामा तो उसे नपुंसक जान कर अपने गिराने का दम भरता था, पर जब सामना हुआ तो भ्रम टूट गया और कुछ ही देर के युद्ध से यह बात खुल गई कि शिखण्डी की टक्कर झेलता बच्चो का खेल नही है । परन्तु अवस्थामा सोचने लगा कि यदि नपुंसक भी उसे परास्त करदे तो फिर वह मुह दिखाने योग्य भी न रहेगा, इस लिए अश्वस्थामा क्रुद्ध होकर अपने पूर्ण रण कौशल को दिखलाने लगा और उस ने देखते ही देखते अपने तीरो से वीध कर शिखण्डी को ग्रधीर कर दिया । इस से शिखण्डी की भुजाओ का वल भी अगडाई लेकर जाग उठा और उसने भी बड़ी तीखी चोटें करनी प्रारम्भ कर दी। इस प्रकार यह दोनो वीर संग्राम भूमि मे भिन्न भिन्न वाणो का प्रयोग कर भीषण युद्ध करते रहे । सेनानायक विराट महावीर भगदत्त के मुकाबले पर थे उन परन्तु वीरता मे दूसरे आक्रमण कर दिया । बाये हाथ से मार Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युद्ध होने लगा दोनो के मध्य भी घोर युद्ध हो रहा था। जिस प्रकार मेघ पर्वत पर जल बरसाता है, इसी प्रकार विराट ने भगदत्त पर वाण वर्षा को परन्तु भगदत्त ने भी ईट का जवाब पत्थर से दिया, उस ने उस ने भी अपने बाणो से विराट को ऐसे ही ढक दिया जैसे मेघ सूर्य को प्राच्छादित कर देते है । इस प्रकार दोनों ओर से ही डट कर युद्ध होता रहा। प्राचार्य कृप (कृपाचार्य) ने केकयराज बृहत्क्षत्र पर आक्रमण किया। वृहत्क्षत्र भी ताल ठोक कर मुकावले पर आगया। और दोनो एक दूसरे से जूझने लगे। कृपाचार्य ने इतने बाण चलाये कि एक बार तो केकयराज बाणो की छाव मे खो से गए। तब केकय राज ने अपना शौर्य दर्शाया और उन्हो ने कृपाचार्य को वाण वर्षा मे विलीन कर दिया। दोनो योद्ध। एक दूसरे का मान मर्दन करने के लिए जीवन का मोह त्याग कर बडे वेग से युद्ध करने लगे और कुछ ही देर मे दोनो ने एक दूसरे के सारथो तथा अश्वो को मार डाला। तब विवश होकर दोनो, रथहीन ही, आमने सामने के युद्ध के लिए खडग लेकर आ गए। दोनो मे बडा ही कठोर तथा भीपण युद्ध होने लगा। राजा द्रपद ने जयद्रथ को घेर रखा था। दोनो वीरो मे भीपण युद्ध हो रहा था। जयद्रथ के तीन बाण द्रपद को घायल करने में सफल हो गए तब तिल मिला कर द्रपद ने ऐसे तीक्ष्ण वाण चलाये कि जयद्रथ भी विंध गया। और फिर दोनो एक दूसरे से बदला लेने के लिए युद्ध करने लगे। विकर्ण ने सुतसोम पर आक्रमण कर दिया दोनो मे युद्ध ठन गया। तब विकर्ण वोला"मुनसोम! क्या तुम्हारी मृत्यु मेरे ही हाथो होनी है ? पहले दिन ही मरने का इरादा है ?" सुतसोम ने गरज कर उत्तर दिया- "मुझे मार डालने की समता तुम जैसे प्रातताईयो मे नही है। हा. यदि तुम्हे मृत्यु इतनी ही प्रिय है तो लो मै तुम्हारा काल बन कर सामने आगया।" फिर क्या था, दोनों एक दूसरे पर पिल पडे। अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगा कर एक दूसरे को मार डालने के लिए तुल गा । न कोई कम हो तो दाव भी चले। अस्त्र शस्य सारे जो उनके पास Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ जैन महाभारत थे प्रयोग किए जाने लगे। पर दोनो मे से किसी एक ने भी पीछे पैर न हटाया। __ महारथी चेकितान सुशर्मा पर चढ़ आया। परन्तु सुशर्मा ने भीषण वाण वर्षा द्वारा उसे आगे बढ़ने से रोक दिया। तब क्रुद्ध होकर चेकितान ने अपने वाणो की वर्षा से सुशर्मा को ढाक दिया। और सुशर्मा ने उसके बाणो को तोड कर उस पर आक्रमण करना प्रारम्भ कर दिया। दोनो एक दूसरे को पराजित करने के विचार से जी तोड कर लडने लगे। शकुनि ने पराक्रमी प्रतिविन्ध्य को घेर लिया। परन्तु युधिष्ठिर पुत्र प्रतिविन्ध्य ने अपने कौशल से शकुनि के घेरे को छिन्न-भिन्न कर डाला। पुत्र श्रुत कर्मा ने काम्बोज मह, । "ण पर दावा सुदक्षिण ने उसे अपने पै.' व डाला। युद्ध से डिगा नही । । भर कर ।' को विदीर्ण सा कर छ करने Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ V युद्ध होने लगा चेदिराज ने उलूक पर धावा बोला और बाणो की सावन भादो जैसी भड़ी लगा कर उसे पीडित करने लगा । इस के जवाब मे उलूक ने भी अपनी वीरता दर्शाई । गरज कर बोला- “उलूक का सामना करना लोहे के चने चबाना है, तनिक होश सम्भल कर लडो ।” ३७९ चेदिराज ने सिंह गर्जना करते हुए कहा - "उलूक | यह दिन है दिन अभी रात्रि का अधकार नही हुआ । तुम्हे रात्रि मे ही चहकना शोभा देता है ।" T "वस समझ लो कि तुम्हारे सिर पर उल्लू ही वोल गया ।" ' ऐसी बात है तो श्रा जानो ।” तथा खडगों की कट कट व खट खट की ध्वनि, धनुषो की टकारों, वो तथा हाथियो की चिंघाडे सब मिल कर इतना शोर वन गई थी कि दूर से कोई नही समझ सकता था कि क्या हो रहा है। वीर प्रापस मे इस तरह से लड रहे थे कि उन्हे अपने अतिरिक्त अन्य किसी का पता ही नही था । दूसरी ओर विकट गाडियो, वायुयानो के द्वारा एक दूसरे की सेना को भस्म कर डालने की चेष्टाए हो रही थीं. शतब्ती ( तोपे) लगी हुई विकट गाडिया शत्रुओ के वायुयानो को गिरा रही थी । गज सवार से गज सवार, प्रश्व सवार से श्रश्व सवार, पैदल से पैदल सैनिक लड रहे थे । इस प्रकार दोनो सेना का बडा दुर्धर्षं तथा घमासान युद्ध हो रहा था । इस प्रथम महायुद्ध को देखने के लिए देवता भी दौड प्राये थे और ऐसा विचित्र भयकर तथा प्रभूत पूर्व युद्ध देख कर रोमांचित हो रहे थे । सग्राम भूमि मे लाखो पदाति मर्यादा छोड कर संघर्ष कर रहे थे । वहा कोई अपना पराया न देखता था कोई एक दूसरे को पहचानता तक न था । शत्रु चाहे भाई ही क्यो न हो, पर उस के प्राण हरने की ही कोशिश की जा रही थी। पिता पुत्र की ओर और पुत्र पिता की ओर न देखता था । इसी प्रकार भाई भाई की, भानजा मामा की, मामा भानजे की और मित्र मित्र तक की परवाह न करता था। ऐसा जान पडता था मानो वे पूर्व जन्म से ही एक दूसरे के शत्रू रहे होगे जिन्हें ग्राज दिल के वलवले निकालने का अवसर मिला है । Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० जैन महाभारत जब युद्ध यौवन पर पाया और मर्यादा हीन तथा अत्यन्त भयानक होगया तो भीष्म के सामने पडते ही पाण्डवो की सेना थर्रा उठी। महाराज युथिष्ठिर ने गरज कर कहा- "हम क्षत्रिय हैं । न्याय के लिए लड़ रहे हैं एक वार अवश्य ही मरना है। तो फिर मृत्यु से क्यो घबराना। हमे क्या तो प्राण देकर वीर गति को प्राप्त होना या विजय प्राप्त करनी है वीरो आगे बढो। विजय हमारी ही होगी। आज रण भूमि में दिखा दो कि पाण्डव और उन के सहयोगी किसी आतताई के आगे घुटने टेकना नहीं जानते। वह देखी विजय श्री वर माला लिए तुम्हारी प्रतीक्षा मे खडी है " युधिष्ठिर की इस उत्साह वर्धक घोषणा से पाण्डवों की सेना का आत्म बल बढ गया और उन्होने वैर्य से भीष्म जी के नेतृत्व मे लडने वाले योद्धाओ का सामना करना प्रारम्भ कर दिया। और इस महायुद्ध के प्रथम दारुण दिवस ही अनेको रणबाकुरे वीरो का भीषण सहार हो गया, अनेक बहनो का सुहाग कौरवो की हठ की वेदी पर बलि चढ़ गया। अनेक शिशु अनाथ हो गए। अनेक माताए निपूती हो गई । फिर भी पाण्डवो की सेना के पैर न उखडें पाण्डव बिना इस वात की चिन्ता किए कि कितने उन के संनिक मौत के घोट उतर गए घमासान युद्ध कर रहे थे तव दुर्योधन की प्रेरणा से दुर्मुख कृतवर्मा, कृपाचार्य, बिविशति पितामह भीप्म के पास चले गए। और इन पांच वीर अतिरथियों से सुरक्षित होकर वे पाण्डवो की सेना मे घुसने लगे। यह देख कर क्रोधातुर अभिमन्य अपने रथ पर चढा हुआ इन पाचो से रक्षित अपने परम आदरणीय दादा भीष्म जी के सामने आ डटा। और आते ही अपने एक ही पैने बाण से उन के रथ पर फहराती ताड़ के चिन्ह वाली ध्वजा काट कर गिरा दी और फिर इन सभी के साथ युद्ध छेड़ दिया। ओह ! कितना रोमांचकारी दृश्य था वह। एक ओर अजेय भीष्म पितामह और उन के रक्षक पाच छटे हुए सिद्ध हस्त अनुभवी । , वीर, और दूसरी ओर एक सोलह वर्षीय कुमार। वच्चा सा वीर विजली की तरह छो योद्धाओ पर टूट पड़ा। वह जानता था १ क किन से टक्कर ले रहा है, पर उसे किसी प्रकार की चिन्ता न Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युद्ध होने लगा थी। वह अपनी पूरी शक्ति लगा कर प्रहार कर रहा था। और थोडी सी ही देरि मे कृतवर्मा को एक बाण से, शल्य को पाच वाणो से, और पितामह को नौ बाणो से बीध दिया। जिस समय भीष्म पितामह के शरीर मे प्राकर अभिमन्य के तीर चुभे। कृपाचार्य को और शल्य को बडा क्रोध आया। शल्य ने कहा- 'देखते ही पितामह ! यह कितना नटखट है, दम्भ मे अन्धा हो गया है। हम बालक समझ कर युद्ध कर रहे है तो यह सिर पर ही चढा आता है मालूम होता है चोटो अपने पख निकाल रही है।" परन्तु भीष्म पितामह को अभिमन्यु के बाणों से कदाचित कोई पोडा न हुई थी, उन्होने मुस्करा कर कहा - "तुम बालक की शरारत पर क्रुद्ध हो गए ? - अरे ! मेरे हृदय से पूछो, मुझे कितनी प्रसन्नता हा रही है। आज मेरा नन्हा पौत्र हम छ योद्धाओ का इस वीरता से सामना कर रहा है, है ससार मे किसी और कुल के पास ऐसा बाल वीर रण वाकुरा ? मैं चाहता हू अभिमन्यु का साहस इसी प्रकार वढे, यह अद्वितीय बलवान हो। चिरजीवि हो।" दुर्मुख बोला- 'पितामह ! आप युद्ध करने आये है बालको का साहस बढाने नही । देखिये इस संपोलिए का मुह न कुचला गया तो यह अनर्थ कर देगा। हम सब को मार गिरायेगा " . गम्भीरता पूर्वक भीष्म बोले-“दुर्मुख ! विश्वास रक्खो म रण भूमि मे कभी किसी को रियायत नही किया करता। पर किसी वीर की शक्ति का गलत मूल्याकन भी नहीं करता। मैं और तुम सभी तो अभिमन्यू के विरुद्ध पूर्ण शक्ति से लड़ रहे है, पर क्या करे इस वीर में अलौकिक शक्ति है।" उसी समय अभिमन्यु ने एक वाण भीष्म पितामह के चरणो गराकर दूसरा झुकी नोक वाला इस युक्ति से मारा कि दुर्मुख ! क सारथी का सिर धड़ से अलग करता हा निकल गया। कृपाचार्य ने कुपित होकर अपने विशाल धनुष पर तीक्ष्ण वाण चटाया, पर अभी धनुष की डोरी खीच ही रहे थे कि अभिमन्यु ने एक एसा वाण मारा कि कप के धनष को दो टक करता हुआ उनके । म गिर गया। सहसा भीष्म पितामह हस पड़े और फिर Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ जैन महाभारत तुरन्त ही गम्भीर होकर ग्रावेश मे पाये और कई प्रकार के बाण । चलाने प्रारम्भ कर दिए। पर रणागण मे नत्य सा करते हुए वीर अभिमन्यु ने सभी मुख्य वीरो पर वार किए और सभी के पैने बाणो से अपनी रक्षा की। कई वार तो स्वय भीम जी तथा कृपाचार्य को अपने पर लज्जा आने लगी। वीर अभिमन्यु का ऐसा हस्तलाघव देखकर देवता लोग भी दातों तले उगली दबा कर रह गए। वे पाखे फाडू फाड़ कर इस अद्भुत युद्ध को देख रहे थे और उनकी सहानुभूति स्वयमेव ही अभिमन्यु के प्रति हो गई थी। स्वय भीष्म जी अनुभव कर रहे थे कि वीर अभिमन्यु अपने धनुर्धारी पिता अर्जुन से किसी भी प्रकार कम नही है। इतने मे कृपाचार्य, शल्य तथा कृतवर्मा ने एक साथ मिलकर अभिमन्यु पर तीरो की अवाध गति से भयकर वर्षा की। जिससे अभिमन्यु का शरीर कई जगह छिप गया परन्तु वह वीर भेनाक पर्वक के समान रण भूमि मे तनिक भी विचलित नही हुआ तथा कौरव वोरो से घिरु होने पर भी उस वीर ने उन पाचो अति रथियो पर बाणो की झडी लगा दी और उनके असख्य बाणो से अपनी रक्षा करते हुए उसने भीष्म जी पर वाण मारते हुए भीषण सिंह नाद किया। जिसे सुनकर शल्य के रथ के अश्व विचलित हो गए और भीम जी के अश्व काप उठे। यह देख भोष्म पितामह चितित हो गए और वीर अभिमन्यु को परास्त करने की इच्छा से उन्होने उस समय कितने ही अद्भुत और भयानक दिव्यास्त्र सम्भाले और एक के पश्चात एक को प्रयोग करने लगे। कभी अग्नि की लपटे निकलती तो कभी सर्वत्र धुए का वादल छा जाता और कभी पानी सा बिखरने लगता । यह उनका वडा ही भयानक प्रहार था। परन्तु फिर भी वीर अभिमन्यु के मुख पर चिन्ता अथवा भय का भी चिन्ह सग्राम भूमि से दूर ले गया। श्वेत कुमार ने छ वाण चढ़ाकर महारथियो की ध्वजाए तोड डाली और फिर उनके घोडो व सारथियो को भी वीध डाला। फिर नम्बर पाया उन महारथियो का । एक भीपण सिंह नाद करके श्वेत कुमार ने उन पर अाक्रमण किया। तडातड वाण बरसा के Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ युद्ध होने लगा ३८३ उन्हे भो घायल कर दिया और फिर तेज़ी से शल्य की ओर बढा। इसे देखकर कौरवों की सेना मे बडा कोलाहल मच गया। तब श्वेत को इस प्रकार वढते देख दुर्योधन सेनापति भीष्म जी को आगे करके सारी सेना सहित श्वेत के रथ के सामने आ गया और मृत्यु के मुह मे पडे शल्य को भययुक्त किया और तब क्या हुआ, बस वणन से बाहर की बात है। बडा ही भयकर युद्ध होने लगा तथा भष्म पितामह, अभिमन्यू भोमसेन, सात्यकि, केकय राज कुमार, वृष्ट घुम्न, द्रुपद और भेदि तथा मत्स्य देश के राजानो पर बाणो की भयकर वर्षा होने लगी। चारो ओर से मारो मारो' की ध्वनि अाने लगी। धनुप की टकारों, चीत्कारो. चिंघाडों आदि की ध्वनि से भीषण वातावरण उपस्थित हो गया। तब लाखो क्षत्रिय वीर राजकुमार श्वेत की रक्षा में लग गए। उन्होने भीष्म जी के रथ को चारो ओर से घेर लिया । वडा हा घनघोर युद्ध होने लगा। भीम जी का मुख मण्डल लाल अगारे का नाई हो गया और उन्होने मारकाट मचाकर अनेक रथ सूने कर डाले। उस समय उनका पराक्रम वडा ही अद्भुत था। इधर राजकुमार श्वेत ने भी हजारो रथियो को गाजर मूली की भाति काट डाला । और अपने पैने वाणो से हजारो के सिर काट दिए। इस भयकर युद्ध को देखकर और श्वेत द्वारा मारकाट के वीभत्स दृश्य से घबराकर सजय अपना रथ छोडकर रण भूमि से चले गए आर उन्होने सारा वृतात धतराष्ट्र से जा सुनाया। इस भाषण करा-करी और मारकाट मे भीष्म पितामह ही निश्चल मेरु पर्वत समान खड़े थे। वे अपने दुस्त्यज प्राणो का मोह त्याग कर निर्भीक भाव से पाण्डवों की सेना का सहार कर रहे थे। जव उन्होने देखा कि श्वत कुमार वडी तीव्रता व मुस्तैदी से कौरव सेना का सफाया कर . रहा था, तो वे स्वय ही उस के सामने आ पहुचे। परन्त श्वेत ६ पुमार ने अपने वाणों की वर्षा से एक बार तो भीम जी को पूर्ण तया ढक लिया। इस के उत्तर मे भीष्म जी ने भी भीपण वाण वपी की। उस समय यदि भीष्म जी ने रक्षा न की होती तो श्वेत कुमार कौरवों की सारी सेना को नष्ट कर देता और यदि श्वेत न हाता तो ऐसा लगता था मानो भीम जी एक दिन मे ही सारी सेना Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ जैन महाभारत को नष्ट-भ्रष्ट कर डालते। जव पाण्डवो ने देखा कि श्वेत ने नीप्म जी का मुह फेर दिया है तो वे बडे प्रसन्न हुए। परन्तु दुर्योधन चिन्तित हो गया । अत्यन्त क्रोध मे भर कर अनेको राजापो सहित सारी सेना ले कर वह पाण्डवो पर टूट पड़ा और अपने वीरो को ललकारा-"क्या हो गया है तुम्हे गौरव शाली क्षत्रिय वीरो। पाण्डवो को गाजर मूलियो की भाति सफाया करदो। यह तुम्हारे सामने है ही क्या ?" दुर्योधन की इस ललकार से प्रेरित होकर कौरव वीर पाण्डवो पर भूखे सिंहों की भाति टूट पडे । उस की प्ररणा से कृपाचार्य, दुर्मुख, कृतवर्मा और शल्य आदि भीष्म जी की रक्षा करने लगे। परन्तु कुपित श्वेत कुमार ने भयकर युद्ध किया, उस के साथ अन्य पाण्डव पक्षीय वीर भी जी जान तोड कर युद्ध कर रहे थे। इस भयानक युद्ध मे देखते ही देखते हजारो वीर सो गए। असख्य रथो के धुएँ उड गए। हजारो की संख्या मे हाथी और घोडे ढेर हो कर गिर पड़े। श्वेत कुमार ने दुर्योधन की सेना की धज्जिया उडा दी और उसे तितर बितर कर के भीष्म जो पर ही वार कर दिया। इस से दोनो मे घमासान युद्ध होने लगा। राजकुमार श्वेत ने फिर भीष्म जी के रथ की ध्वजा काट कर गिरा दो। भोण्म जी ने कुपित हो श्वेत के रथ के घोडो और सारथो को मार गिराया। तव श्वेत ने अपना शक्ति नामक अस्त्र भीष्म जी पर चलाया परन्तु भीष्म जी ने अपने वागो से उस का अस्त्र वीच ही मे रोक दिया। इस पर तश्वे ने भारी गदा उठा कर जोरो से घुमाई और भीष्म जी के रथ पर जोरो से दे मारी। देखते ही देखते भीष्म जी ने रथ से कूद कर अपने प्राणो की रक्षा की श्वेत की गदा के प्रहार से भीष्म जा का रथ चकनाचूर होगया। भीम जी क्रोध के मारे आपे से वाहर हो गए और एक दिव्य वाण खीच कर श्वेत को जोरों से मारा। उस वाण के लगते ही विराट कुमार धाराशायी होगया, उस के वाण पखेरु उड़ गए। यह देख दु.गासम ने वाजे वजवा दिए और हर्ष के मारे नाच उठा। परन्त भीष्म जी का हाथ रुका नही उन्हो ने श्वेत की मृत्यु के बाद पाण्डवों की सेना Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युद्ध होने लगा ३८५ H - में प्रलय मचा दी। पहले रोज की लड़ाई मे पाण्डव सेना बहत तग आ गई। धर्मराज युधिष्ठिर के मन मे भय छा गया। दुर्योधन आनन्द के मारे झूम रहा था। सूर्य की यात्रा पूर्ण हई। पश्चिम के सूर्य के अन्तिम चरण लाल वादलो के रूप मे प्रगट हुए और युद्ध बन्द होने के बाजे बज गए। दोनो सेनाए अपने अपने डेरो मे चली गई। पाण्डव घबराहट के साथ श्री कृष्ण के डेरे मे गए और युद्ध की चिन्ता जनक स्थिति से पार उतरने का उपाय सोचने लगे। __ श्री कृष्ण ने धैर्य बन्धाते हुए कहा-"पाप व्यर्थ ही चिन्ता करते है, पाप पांचो के रहते, पाचाल तथा मत्स्य देश की विशाल सना के होते हुए आप की पराजय हो जाये, यह असम्भव है। आप विश्वास रखिये कि विजय आप की ही होगी। युद्ध मे तो ऐसा होता ही है कि कभी शत्रु आगे बढता है, कभी पीछे हटता है। आप चिन्तित न हों।" . ... "परन्तु भीष्म जी के रहते हमारी विजय कैसे हो? वे तो प्रकले ही हमारी समस्त सेना का मुकाबला कर रहे है ।"-धर्म राज ने कहा! '.: श्री कृष्ण ने अपनी बात पर जोर देते हए कहा- "भीष्म नाभा सदा नहीं रहेगे। आप लोग यह क्यो भूलते है कि शिखण्डी भीष्म जी को मारने के लिए ही पैदा हुआ है।" ... वात चीत के उपरान्त दूसरे दिन के युद्ध की योजना बनी। Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * तेतीसवां परिच्छेद । " . . . * दूसरा दिन पहले दिन जो पाण्डव सेना की दुर्गति हुई थीं, उससे सबक लेकर पाण्डव सेना के नायक धृष्ट द्युमन ने दूसरे दिन बड़ी सतर्कता से व्यूह रचना की और सैनिको का साहस बधाया। युद्ध आरम्भ होते ही कौरव सेना ने भीष्म पितामह के सेना पतित्व मे पुनः पाण्डव सेना पर आक्रमण किया। भीषण युद्ध होने लगा। एक बार के भयकर आक्रमण से पाण्डवो की सेना तितर बितर हो गई। बडा हाहाकार मच गया। असख्य वीर 'मौत के घाट उतारे जाने लगे। र यह देख अर्जुन ने श्री कृष्ण को अपना रथ भीष्य जी की ओर ले चलने की आज्ञा दी। अर्जुन का रथ ज्यो ही भीष्म जी के रथ के सामने पहुचा, दुर्योधन की आज्ञा से कौरव सेना के प्रमुख वीरो ने भीष्म जी की रक्षा के लिए उन के रथ को चारो ओर से घेर लिया। भीष्म जी ने अर्जुन के ऊपर भयकर बाण वर्षा की। परन्तु अर्जुन को तनिक भी चिन्ता न हुई। उस ने बड़े वेग से , आक्रमण किया और कुछ ही देर में भीष्म जी के चारो मोर की , रक्षा पंक्ति को तोडता हुआ भीष्म जी के सन्मुख पहुच गया। यह देख कर दुर्योधन का भीष्म जी पर से एक वारगी विश्वास उठ गया। भय विह्वल होकर वह बोला-"प्रतीत होता है कि आपके और द्रोणाचार्य के जीते जी अर्जुन सारी कौरव सेना को मौत के Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा दिन ३८७ घाट उतार देगा। महारथी कर्ण ने, जो मुझ से स्नेह रखता है, आप ही के कारण हथियार न उठाने का प्रण कर रक्खा है । जान पडता हैं उस की अनुपस्थिति में मुझे निराशा का ही सामना करना होगा। आप की शक्ति कहा गई। कोई उपाय बताइये, कुछ कीजिए। किसी भांति अर्जुन को मौत के घाट उतारिये।" , इन कटु वचनो से भीष्म को बडा क्रोध आया और जोश में आकर उन्होने अर्जुन पर भयकर आक्रमण कर दिया। उस समय भोम तथा अर्जुन मे ऐसा भयकर युद्ध हया कि आकाश मे स्वयं देवता उसे देखने के लिए एकत्रित हो गए। दोनो वीरो में तुमुल युद्ध हो रहा था। सभी प्रकार के अस्त्र शस्त्र चल रहे थे। दोनो के रथ इस प्रकार आपस मे युद्ध रत थे कि केवल ध्वजा को पहचान कर ही जाना जा सकता था कि कौन कहा है। भीम जी के कुछ धाण श्री कृष्ण के लगे और उन के श्याम बदन से रक्त वह निकला। इस से अर्जुन कुपित हो गया और भीष्म जी पर बुरी तरह टूट गया। इधर द्रोणाचार्य से धष्ट द्युमन लड रहा था। दोनो मे भयकर संग्राम हो रहा था। द्रोणाचार्य के वारो से धृष्ट धुमन तनिक न घबराया तव झझला कर द्रोणाचार्य ने उस के सारथी को मार डाला। इस से घष्ट धमन को वहत क्रोध पाया और भारी गदा लकर द्रोणाचार्य के रथ पर टट पड़ा। परन्तु द्रोण ने अपने वाणो कप्रहार से धृष्ट द्युमन का गदा का वार ही न ठीक बैठने दिया। तब धृष्ट द्युमन ने तलवार सम्भाली और द्रोण पर झपटा। द्रोण - इतने वाण मारे कि धष्ट धमन के शरीर मे अनेक घाव लगे भार वह चलने योग्य भी न रहा। यह देख भीमसेन उसी समय पहा पहुंचा और धष्ट वूमन को अपने रथ मे बिठा लिया और पुरन्त वडे वेग से द्रोणाचार्य पर आक्रमण कर दिया। इस प्राग्रामण कारण द्रोणाचार्य थोड़ी देर के लिये अपने स्थान पर रुक गए। म अपन रथ को लेकर रण भूमि से वाहर चलने लगा। दुर्योधन 7 उन दर लिया . तो कलिंग देवा की सेना को उस ने भीमसेन पर आक्रमण का मादेश दिया। जब कलिग मेना ने ग्राममण किया ता भीममेन ने उस के उत्तर में ऐमा प्राकामण किया कि योगी हो Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत आ क देर मे कलिंग सेना में हाहाकार मच गया और सैनिक यह कहने लगे कि कही यमराज ही तो भीम सेन के रूप मे नही आगए एक बार सेना में निराशा छा जाने से सारी सेना भाग खडी हुई। यह देख भीष्म जी अर्जुन के मुकाबले से हट कर भीम सेन की प्रोर बढ़े। सात्यकि, अभिमन्यु आदि पाण्डव वीर उस समय भीमसेन की रक्षा को दोड़ पड़े और भयंकर युद्ध हाने लगा । जिस के कारण कौरव सेना का साहस टूट गया और सैनिक पश्चिम की दिशा मे देखने लगे और सूर्य के अस्त होने की कामना करने लगे । निर्दय सूर्य अस्त हुआ । सन्ध्या हुई । तो भीष्म द्रोणा चार्य से बोले - "आचार्य ! अब युद्ध रोकना ही होगा। आज हमारी सेना का साहस टूट गया है ।" ३८८ युद्ध बन्द होगया और अर्जुन आदि पाण्डव वीर विजय के बाजे बजाते हुए अपने डेरो में बिले गए । कल पाण्डव सेना मे जो आतक छाया था वह ग्राज कौरव सेना मे छा गया । Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । * चौतीसवां परिच्छेद * तीसरा दिन - युद्ध का समय होने पर भीम जी ने अपनी सेना की गरुड के आकार मे व्यूह रचना की और उसके अगले सिरे का बचाव दूर्योधन के जिम्मे किया। कल हई क्षति को ध्यान मे रखकर ग्राज की व्यूह रचना सतर्कता से की गई थी। शत्र सेना की व्यूह रचना देखकर पृष्ट द्युम्न ने अपनी सेना की व्यूह रचना अर्ध चन्द्र के प्राकार पर का। एक सिर पर अर्जुन तथा दूसरे पर भीमसेन रक्षा के लिए खडे हो गए। , व्यूह रचना के उपरान्त युद्ध प्रारम्भ होने का बाजा बजा और फिर दोनो सेनाए एक दूसरे पर आक्रमण करने लगी। आज पाना आर की सैनिक टुकड़िया इस प्रकार एक दूसरे से गुथ गई आर उनमे इस प्रकार भीषण सग्राम होने लगा कि रथो, घोडो और हाथियों के तेज चलने के कारण इतनी धूल उड़ी कि गर्द के मारे आकाश मे दीप्तिमान सर्य भी न दिखाई देता था। अर्जुन ने शत्रु ना पर भयकर आक्रमण किया फिर भी वह शत्रु सेना का घेरा नताह सका। दूसरी ओर से कौरवो ने भी एक साथ मिलकर अजुन पर आक्रमण किया । टिडी दल की भाति अपनी ओर आती कारव सेनाओं को देखकर अर्जन ने बडे वेग से वाण बरसाये और चारापोर वाण वरसा कर अपने चारो ओर वाणो ही बाणो का एक घरा सा बांध दिया जिससे कौरव सेनामो के द्वारा चलाए गए Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत भीषण शस्त्र अस्त्रो का प्रहार वीच ही मे कट गया। उधर दूसरी ओर शकुनि को भारी सेना सहित पाण्डवो की ओर बढते देखकर अभिमन्यु और सात्यकि उसके मुकाबले पर जा डटे। शकुनि ने बडी रण कुशलता दिखाई और सात्यकि का रथ तहस नहस कर दिया तव सात्यकि बड़े जोश में आ गया और अभिमन्यु के रथ पर चढकर शकुनि की सेना पर भयकर आक्रमण करके उसकी सेना को नष्ट कर डाला। युधिष्ठिर जिस सेना का संचालन कर रहे थे उस पर भीष्म और द्रोणाचार्य एक साथ टूट पड़े। यह देख नकुल तथा सहदेव दोनो युधिष्ठिर की सहायता के लिये दौड पडे और बाणो का भयकर प्रहार कर दिया। भीम तथा घटोत्कय ने एक साथ दुर्योधन पर आक्रमण किया। घटोत्कय के रण कौशल के सामने भीमसेन की चतुराई तथा रण कौशल भी फीके पड गए भीमसेन के एक बाण से दुर्योधन धक्का खाकर बेहोश हो गया। यह देख सारथी ने सोचा कि यदि कही कौरव सेना को दुर्योधन के मूच्छित होने का पता चल गया तो सेना मे खलबली मच जायेगी, इस लिए वह शीघ्र ही दुर्योधन के रथ को रण क्षेत्र से दूर ले गया। परन्तु जव कौरव सेना ने दुर्योधन का रथ न पाया तो सेना समझी कि दुयोधन रण से भाग गया, इस लिए सारी सेना मे हाहाकार मच गया और सेना तितरबितर हो गई। भय विह्वल होकर रण से भागते कौरव सैनिको का भीमसेन ने पीछा किया और उन्हे बाण मार कर बहुत ही परेशान किया। - भागती सेना को भीष्म तथा द्रोणाचार्य ने बड़ी कठिनाई से रोका और उसे एक चित करके पुन व्यूह रचना की। इतने मे दुर्योधन की मूळ भग हो गई और उसने पुन रण स्थल पर पाकर परिस्थिति को सम्भालने मे सहयोग दिया। जब जरा शाति हुई और सेना व्यवस्थित हो गई तो दुर्योधन पितामह भीष्म के पास गया और इन्हे जली कटी सुनाने लगा। बोला - "पाप और आचार्य जी करते क्या है आप लोग अपनी सेना को भी व्यवस्थित नहीं रख पाते । जब भयकर आक्रमण होता है Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा दिन तो आप की सेना की व्यवस्था भग हो जाती है और आप से कुछ करते नही बनता ? आप के अन्दर इतनी शक्ति है कि आप चाहें नो पाण्डबो को एक दिन मे भगा सकते हैं, परन्तु आप से कुछ होता ही नही। इस का मतलब है कि आप पाण्डवो से स्नेह रखते है और वह स्नेह ही आपको हृदय से लड़ने नही देता। यदि यही बात थी तो अाप ने पहले ही क्यो न कह दिया कि मैं पाण्डवो से नहीं लड सकता। एक तो आप के कारण कर्ण युद्ध मे नही उतर रहा । दूसरे श्राप और द्रोणाचार्य, जब कि चाहे तो पाण्डवो को मार भगा सकते हैं पाण्डव हमारी सेना को मारे डाल रहे हैं । आप को जी लगा कर युद्ध करना चाहिए।" दुर्योधन की बात सुनकर भीष्म जी को बडा क्रोध आया और वे बोले-'मैंने अपनी बात छिपाई ही कहा है ? मैंने तो पहले ही कहा था कि तुम पाण्डवो से नही-जीत सकते। पर तुम ने मेरी सुनी भी हो। मैं बूढा हो गया है फिर भी तुम्हारी ओर से जी जान तोडकर लड रहा है। पर पाण्डवो की शक्ति के सामने कुछ बन नही पा रहा इसमे मेरे पाण्डवो के प्रतिस् नेह को बिल्कुल दखल नहीं।' इतना कहकर भीष्म ने पुनः युद्ध आरम्भ कर दिया। इधर दिन के पहले भाग मे कौरव सेना तितर बितर हो जाने से पाण्डवो मे हर्ष छाया था। सारी सेना आनन्दित थी। पाण्डवों का विचार था कि आज भीष्म पुनः कौरव सेना को एकत्रित करके भयंकर रूप मे न लड पायेंगे। परन्तु जब भीम जी ने कौरव सेना व्यवस्थित करके पुनः आक्रमण किया और क्रोध मे आकर भयकर रूप मे लहे तो पाण्डवो को अपने भ्रम का ध्यान पाया। जो वीर भाम जी के सामने पाया, वही ढेर हो गया। भीम जी जिधर स निकलते मारकाट करते चले जाते । पाण्डव सेना की व्यवस्था भग हो गई और श्री कृष्ण, अर्जुन तथा शिखण्डी भी अपने प्रयत्नों क बावजूद सेना मे अनुशासन तथा व्यवस्था न रख सक । ... यह देख श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा-"पार्थ ! अब तुम्हारी परक्षा का समय आ गया। तुम ने शपथ ली थी न कि भीम द्रोण प्रादि गुरु जनों, मियों और सम्बन्धियो का सहार करूंगा। अब Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत स.ग्य आ गया है कि अपनी शपथ को पूरा कर दिखायो। हमारी सेना इस समय भय विचलित हो रही है . उन के पांव उखड रहे है, यही समय है कि भीष्म पर जोर का आक्रमण कर के अपनी सेना का साहस बधाो और उसे नष्ट होने से बचाओ।" . अर्जुन ने यह सब देखा और श्री कृष्ण की बात सुन कर बोला-"माधव । आप रथ को भीष्म जी की भोर कर लीजिये.।" अर्जुन को अपनी ओर आता देख भीष्म जी ने भयकर वेग से बाण वर्षा आरम्भ करदी। परन्तु अर्जन ने अपने वाणों के द्वारा ही उन बाणो से अपनी रक्षा की और अन्त में तीन बाण ऐसे मारे कि भीष्म जी का धनुष टूट गया उन्होने ज्यो ही दूसरा धनुष लेकर उसकी डोरी चढानी चाही कि अर्जुन ने पुनः दो बाणों से उन के हाथ के धनुष को तोड डाला। तब भीष्म जी ने शीघ्रता से तीसरा धनुष लेकर अर्जुन पर तडातड़ तीन बाण चलाये परन्तु अर्जुन ने उन्हे बीच ही मे काट दिया। फिर भीष्म जी की ओर से बाणो की वर्षा होने लगी अर्जुन अपनी रक्षा तो करता रहा, परन्तु उसकी ओर से कोई आक्रमण कारी बाण न छूटने के कारण श्री कृष्ण को सन्देह हुआ कि अर्जुन के हृदय मे भीष्म जी के प्रति जो असीम श्रद्धा है, उसी के वशी भूत हो कर वह अपनी पूरी शक्ति से नहीं लड़ पा रहा। उधर भीष्म जी के कई ऐसे तीखे वाण आये जो श्री कृष्ण को चोट पहुचा गए यह देख श्री कृष्ण ने इस "प्रकार रथ फो घुमा फिरा कर हाको कि भीष्म जी का कोई भी तीर अर्जुन अथवा उन्हे न लगे। कितनी ही देर तक यह चलता रहा पर अर्जुन अपने वाणो का प्रयोग आत्म रक्षा मे ही कर पाया। यह देख क्रुद्ध होकर श्री कृष्ण सुदर्शन चक्र लेकर रथ से कूद पडे और शीनता से भीष्म जी की प्रार दौडे ! भीष्म ने जब श्री कृष्ण को प्राक्रमण करने आते देखा, वे तनिक भी विचलित न हुए। 'परन्तु जब अजुन ने उन्हे देखा तो वह रथ स कूद पड़ा और दौड कर उन्हे रोक लिया। कहा-'मधु सूदन । आह अपनी प्रतीज्ञा क्यो भग करते है आप अस्त्र क्यो उठाते है ?" श्री कृष्ण ने कहा- "हटो अर्जुन : तुम युद्ध मे अपने - बडो का आदर करते हुए लड नहीं पा रहे तो क्या मैं भी पाण्डव सेना को Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा दिन ___अर्जुन ने विनीत भाव से कहा-"मधुसूदन | मुझे क्षमा कीजिए, मैं अपनी सुस्ती पर बहुत लज्जित हू। पाप रथ पर चलिए, 'व आपको कोई शिकायत नहीं रहेगी। अर्जुन के बार बार आश्वासन देने पर श्री कृष्ण लौटकर रथ पर आ बैठे और सतर्कता से रथ हाकने लगे। अर्जुन पूरे वेग से युद्ध करने लगा। उसने ऐसा आक्रमण किया कि कौरवो की सेना तितर बितर हो गई। सूर्यास्त होते होते कौरव सेना थक कर चूर हो चुकी थी और अर्जुन ने कुछ ही देर मे हजारो शूरवीरो को मार गिराया था। Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * पैतीसवां परिच्छेद * 88888888888 * %%%%%%% चौथा दिन पौ फटी और भीष्म ने कौरव सेना का पुनः न्यूह रचा। द्रोण, दुर्योधन आदि भी उन्हे घेरकर खड़े हो गए। जब सेना की व्यवस्था ठीक हो गई तो भीष्म जी ने सेना को आगे बढ़ने का आदेश दिया । उधर अर्जुन कपि की ध्वजा वाले रथ से भीष्म जी की समस्त गतिविधियो को देख रहा था, उसने भी अपनी सेना को ठीक किया और आगे बढा । युद्ध आरम्भ हो गया। अश्वस्थामा, भूरिश्रवा, शल्य, चित्रसेन, शल-पुत्र आदि पाच वीरो ने अभिमन्यु को एक साथ घेर लिया और भीषण वार करने लगे। परन्तु अर्जुन पुत्र बालक वीर अभिमन्यु तनिक भी विचलित न हुआ और आक्रमण का वीरता पूर्ण दृढता के साथ मुकाबला करने लगा। मानो एक सिंह गावक हाथियो के झुण्ड का मुकाबला कर रहा हो। अर्जुन ने जब यह देखा तो उसे बडा क्रोध आया और तुरन्त ही अभिमन्यु की रक्षा के लिए पहुंच गया। अर्जुन के पहुंचते ही युद्ध मे गम्भीरता आ गई। इतने मे धृष्ट द्युम्न भी भारी सेना लिए वहां आ पहुंचा। शल का पुत्र मारा गया, यह सूचना पाते ही शल और शल्यः उम स्थान पर जा पहुंचे और धृष्ट द्युम्न पर वाणों की वर्षा करन लगे और उन्होने उसका धनुष काट डाला। यह देखकर अभिमन्यु धृष्ट द्युम्न की सहायता के लिए पहुंच गया और उसने जाते ही शल्य पर तीक्ष्ण वाणो की वर्षा कर दी। फिर क्या था शल्य भा . Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा दिन उबल पडा। वह बड़े ही भयंकर रूप मे युद्ध करने लगा, इस से अभिमन्यु को क्रोध आ गया और उसने जो तीक्ष्ण बाण वर्षा करके भयानक युद्ध छेडा तो शल्य के प्राणो पर प्रा बनी। यह देख कौरव वीरो को चिन्ता हुई। दुर्योधन और उसके भाई शल्य की रक्षा के लिए पाये और शल्य को चारो ओर से घेर कर पाण्डव वीरो से लड़ने लगे। तभी भीमसेन आ निकला और उसने भीषण संग्राम प्रारम्भ कर दिया। दुर्योधन को भीमसेन पर बड़ा क्रोध आया और उसने हाथियो की भारी सेना लेकर उन्मत गज समान भीमसेन पर आक्रमण कर दिया। भीमसेन उसी समय एक लोहे की भारी गदा लेकर रथ से कूद पड़ा और भीमसेन की गदाओ की मार से हाथी विगड खड़े हुए और आपस मे ही लड़ने लगे। वह दृश्य वड़ा ही वीभत्स हो गया। हाथियो की यह दयनीय दशा देखकर पाण्डवो ने उन पर वाण वर्षा कर दी जिससे हाथी और भी भयभीत हो गए। और लोग हाथियों की इस दशा को देखकर ही काप जाते. परन्तु भीमसेन गदा लिए हुए उन हाथियों के बीच ही युद्ध कर रहा था। अनेक हाथी भीमसेन के हाथो मारे गए और पहाड़ों की भाति रण भूमि मे गिर पडे । बचे खचे हाथी अपने प्राण लेकर भागने लगे और इस प्रकार कौरवो की सेना का ही नाश करने लगे। . अपनी इस दुर्गति का कारण भीमसेन को समझ कर दुर्योधन ने अपनी सेना को ललकार कर आदेश दिया कि सभी मिलकर एक साथ भीमसेन पर आक्रमण कर दो। सेना ने प्राज्ञा का पालन किया, परन्तु भीमसेन मेरु पर्वत के समान डटा खडा रहा । सेना उसका कुछ न विगाड सकी, उल्टे कितने ही कौरव वीर भीमसेन के हाथो मारे गए। इधर दुर्योधन ने कुछ वाण ऐसे मारे कि भीमसेन के ऊपर -६ पा लगे । इस से भीमसेन कपित हया और दुर्योधन तथा उसके माझ्या पर प्राक्रमण करने हेत पन... रथ पर मा चढा ओर आक्रमण कर दिया। फिर इतना भयकर यद्ध किया कि दुर्योधन के पाठ भाई मारे गए। उधर घटोत्कच ने जब देखा कि कौरव वीर इकट्ट होकर । Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत - भीमसेन को घेर लेना चाहते हैं, उत मे भीष्म जी भी है, तो वह क्रुद्ध होकर अपने दिव्यास्न चलाता हुआ उनके सामने जा अड़ा 1 भीष्म जी ने कितना ही भयंकर युद्ध किया पर वे घटोत्कय से छुटकारा न पा सके । बल्कि भीष्म जी के साथ साथ रहने वाले कुछ कौरव भ्राता मारे गए। -- 5 सारे दिन कौरव वीर- पिटते ही रहे और भीमसेन तथा घटोत्कय दोनो ही प्रमुख पाण्डव वीर थे, जिन्होने कौरवो को होश न लेने दिया । - " जब सूर्यास्त हुआ, तो दुर्योधन ने सुख की सास ली। थका माँदा- अपनी सेना लेकर अपने कैम्प की ओर चला गया। रात्रि को वह अकेले ही भीष्म पितामह के पास चला गया और बडी नम्रता के साथ उनसे जाकर कहा- "पितामह ! यह तो सारा संसार जानता है कि आप, द्रोण, कृप, अश्वस्थामा, कृत वर्मा, भूरिश्रवा, विकर्ण, भगदत्त आदि साहसी वीर मृत्यु से भी नही डरते ! इस मे भी कोई सन्देह नही...कि श्राप लोगो की शक्ति और पराक्रम के सम्मुख पाण्डवो की सेना भी कुछ नही है । आप में से एक एक के विरूद्ध पाच पाण्डव भी इकट्ठे होकर जुट जाए, फिर भी जीत उनकी नही हो सकेगी। इतना होने पर भी क्या कारण है कि कुन्ती पुत्र प्रतिदिन हमें हराते ही जाते हैं। रहस्य है, क्या है ? कृपया उसे मुझे बताईये । " -T ज़रूर इसमें कोई ३९६ " ने भीष्म जी ने शात. भाव से कहा- "बेटा दुर्योधन । मैंने तुम्हे कई बार समझाया, पर तुम मेरी एक न मानी। मैं फिर कहता हूं पाण्डवो से सन्धि कर लो। पाण्डवो के मुकाबले पर एक बार यदि देवतागण भी ग्रा जाए तो भी वे परास्त नही हो सकते । क्योकि वे अपनी शुभ प्रकृति और धर्म नीति के कारण प्रजेय हैं। वे न्याय की ओर है और तुम्हारा पक्ष अन्याय का है। श्री कृष्ण वासुदेव उनके साथ है । धर्मराज युधिष्ठिर के शुभ कर्मो का फल उन्हें अवश्य ही मिलेगा । तुम सन्धि करके थोडा सा उनका राज्य लोटा दो तो वे तुम्हारे भाई हो रहेगे. तुम फिर भी राजा ही रहोगे और सर्वनाश से बच जाओगे । एक कुल के लोग होकर क्यों लड़ते हो । धर्मराज तथा श्री कृष्ण के मुकाबले हम जीत ही नही सकते। उनकी रक्षा उनका धर्म कर रहा है । वस यही रहस्य है । उस दिन दुर्योधन को त्रोध नही आया। शांत होकर अपने शिविर मे चला गया । पलंग पर लेटा हुआ वडी देर तक अपने विचारो मे ड्वा रहा । उसे नीद नही आई | Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 3 * छत्तीसवां परिच्छेद 7 3 2 A A • पांचवां दिन अगले दिन प्रात' होने पर ही फिर दोनो सेनाए युद्ध के लिए सज्जित हो गई। भीष्म जी ने आज और भी अच्छी तरह अपनी सेना की व्यूह रचना की । इधर युधिष्ठिर ने पाण्डव सेना की कुशलता पूर्वक व्यूह रचना की। सदा की भाति आज पुन भीम सेन को लागे रक्खा गया । शिखडी, धृष्टद्युमन और सात्यकि भीमसेन के पीछे सेना लेकर खड़े हुए। सब से पिछली पक्ति मे युधिष्ठिर नकुल और सहदेव थे । " ***** शंख ध्वनि के साथ लडाई हुई । भीष्म ने धनुष उठा कर पहली टकार की और वार्ण वर्षा कर के पाण्डव सेना का नाकों दम कर दिया। सेना में हाहाकार मच गया यह देख कर धनजय ने कई बाण भीष्म जी पर मारे और उन्हें बहुत तंग कर डाला । ग्राज भी अपनी सेना को भीम तथा अर्जुन के वाणो के हत प्रभ होते देख दुर्योधन ने द्रोणाचार्य को बहुत बुरा भला कहा । रुष्ट होकर द्रोण चोले -- * , "तुम पाण्डवो के पराक्रम से परिचित ही नही हो और व्यर्थ हो मे चक झक किया करते हो। मैं अपनी ओर से युद्ध मे कोई कसर नहीं रखता तुम निश्चय जानो ।" यह कह कर द्रोणाचार्य पाण्डवों की सेना पर टूट पडे । यह देस सात्यकि ने भी शक्ति पूर्वक उस आक्रमण का जवाब दिया 1 Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत भयानक युद्ध छिड गया। सात्यकि भला द्रोणाचार्य के सामने कब तक टिकता। सात्यकि की बुरी गत होते देख भीमसेन उस की सहायता को दौड़ आया और द्रोणाचार्य पर पाते ही भयकर बाण वर्षा आरम्भ करदी। इस पर युद्ध और जोर पकड़ गया। द्रोण, भीष्म और शल्य तीनों भीमसेन के मुकाबले पर आगए। यह देख शिंखडी ने भीष्म तथा द्रोण दोनो पर तीक्ष्ण बाणो की वर्षा प्रारम्भ कर दी शिखडी के मैदान मे आते ही भीष्म रण भूमि छोड़ कर चले गए। क्योकि उनका कहना था कि शिखण्डी जन्म से ही पुरुष न होकर स्त्री है इस लिए उसके साथ लडना क्षात्र-धर्म के विरुद्ध है। जब भीष्म भी मैदान छोड गए तो द्रोणाचार्य ने शिखंडी पर आक्रमण कर दिया। महारथी होते हए भी शिखंडी द्रोणा चार्य के सामने अधिक देर न टिक सका। दोपहर तक भीषण सकूल युद्ध होता रहा। दोनों ओर के सैनिक आपस में गुत्थम-गुत्था होकर लड़ने लगे। दोनों ओर से असख्य वीर इस युद्ध की बलि चढ़ गए। तीसरे पहर दुर्योधन ने सात्यकि के विरुद्ध एक भारी सेना भेज दी। पर सात्यकि ने उस सेना का सर्वनाश कर दिया और भूरिश्रवा को खोज कर जा कर उस से भिड गया। परन्तु भूरिश्रवा भी कोई कम वीर न था. वह भी डटा रहा और अन्त मे सात्यकि के सभी साथी थक कर अलग हो गए। अकेला सात्यकि डटा रहा। यह देख कर सात्यकि के दसों पुत्र भूरिश्रवा पर टूट पड़े । परन्तु भूरिश्रवा तनिक भी विचलित नही हुआ। उन की एक साथ की गई बाण वर्षा से वह अपनी रक्षा करता रहा और अन्त मे अपने बाणों से उन सभी के धनुष तोड़ डाले और अचानक ही एक ऐसा भयकर अस्त्र प्रहार किया कि दसो कुमार मारे गए। वे दसों भूमि पर ऐसे गिरे जैसे वन गिरने पर पेड़ धाराशायी हो जाते हैं। अपने दसो पुत्रो को इस प्रकार मृत देख सात्यकि मारे गोक व क्रोध के प्रापे से बाहर हो गया और भूरिश्रवा पर टूट पडा, दोनों के रथ आपस मे टकराकर चर हो गए। तब दोनो ढाल तलवार लेकर भूमि पर लडने लगे। इतने मे भीमसेन तेजी से रथ लेकर आया और सात्यकि को बलपूर्वक रथ मे बैठाकर रण भूमि Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाचवा दिन ३९९ से बाहर ले गया। भूरिश्रवा तलवार का धनी था, उसके सामने खडग युद्ध मे किसी का टिक पाना दुर्लभ ही था, भीमसेन को यह बात ज्ञात थी, इसीलिए वह सात्यकि को रणक्षेत्र से बाहर ले गया। सन्ध्या होते होते अर्जुन ने हजारो कौरव सैनिको का जीवन समाप्त कर दिया। जितने वीर दुर्योधन ने अर्जुन से लड़ने भेजे वे वेचारे सभी बेबस होकर मरे जैसे आग मे कीड़े। यह देखकर पाण्डव सेना ने अर्जुन को चारों ओर से घेर लिया और जोर का जय जयकार कर उठे। उधर सूरज डूब गया और भीष्म ने युद्ध बन्द कर देने की आज्ञा दे दी। SAVI" NARAYA Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * सैतीसवां परिच्छेद *. . छटा दिन महाभारत के युग मे सैन्य व्यूहो के नाम पशु अथवा पक्षी के नाम पर होते थे। आप जानते ही होगे कि व्यायाम के जो आसन प्रचलित है उनके नाम भी पशु पक्षियो के नाम पर ही होते है, जैसे मत्स्यासन. गरुडासन आदि। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रासनो के उक्त नाम भी उसी युग की यादगार है। हा सैन्य शक्ति की व्यूह रचना आजकल उस युग के समान नहीं होती, युग बदल गया है और विज्ञान के नवीन चमत्कारो के साथ साथ युद्ध प्रणाली और सैन्य व्यवस्था मे भी बहुत परिवर्तन आ गया है। उन दिनो किसी व्यूह विशेष की रचना करते हुए यह ध्यान रखा जाता था कि सेना का फैलाव कैसा हो ? विभिन्न सेना विभागो का विभाजन किस प्रकार-हो- किस स्थान पर कौनसा भाग किस के नेतृत्व मे रक्खा जाये ? कौन कौन से सेना-नायक किन-किन मुख्य स्थानो पर सन्य सचालन को ? किस की सहायता के लिए अवसर आने पर कौन जा सकता है ? इत्यादि । इन सब वातों को खूब सोच विचार कर और शत्र सेना के योद्धाओ तथा उनके आक्रमण आदि का विचार करके आक्रमण तथा बचाव दोनों प्रकार की कार्रवाइयो की कुशल व्यवस्था करना ही व्यूह रचना कहलाती थी। जिस व्यूह का आकार गरुड के आकार का होता वह गरुड व्यूह कहलाता और जो मगरमच्छ के आकार का होता उसे मकर-व्यूह कहते थे। युद्ध के सचालक जिस दिन जो उद्देश्य Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छटा दिन ४०१ लेकर युद्ध करते. उसकी पूर्ति के लिए आवश्यक प्रबन्ध करते और पहले ही योजना बनाकर व्यूह रचना करते थे । 1 - तो उस दिन ज्यो ही रात्रि का घूंघट उठा और सूर्य की रूपहली किरणो का मुखडा दिखलाई दिया, दुर्योधन अपने शिविर से निकल कर भीष्म जी के शिविर की ओर बढ़ा। उसके मुख पर चिन्ता की रेखाए स्पष्ट थी, वह कुछ सोच रहा था और उसके भारी नेत्रों को देखकर यह स्पष्ट हो जाता था कि वह रात्रि को सो नही पाया है। विचारो मे डूबा हुआ वह चला जा रहा था, कभी उसके चेहरे पर शोक एव दुःख के भाव झलक प्राते तो कभी क्रोध तथा आवेश उसके बदन पर प्रतीत होता । विभिन्न भावनात्रों के ज्वार भाटे मे डूबता उछलता दुर्योधन भीष्म जी के पास पहुचा । पितामह दैनिक कार्यो से निवृत होकर अपनी सैन्य पोशाक पहन रहे थे । ज्यो हो मुह लटकाए दुर्योधन को अपने सामने पाया चोले - "ग्राज प्रात ही दुखित मुद्रा लिए ग्रा रहे हो क्या बात है ?" "दादा जी । ग्राप मुझ से ऐसा प्रश्न कर रहे है, मानो आपको कुछ पता ही नही है । आप मेरे मन की व्यथा को जानते हुए भी ऐसा युद्ध कर रहे हैं। इतना कटु परिहास न कीजिए । "दुखित होते हुए दुर्योधन ने कहा । komand भीष्म जी ने दुर्योधन की बात सुनी तो वे स्वयं ग्राश्चर्य चकित रह गए। श्राश्चर्य चकित इस लिए कि गत दिनो हुई कौरवों की हार से दुर्योधन का मन इतना कथित हो जायेगा. धीरज बिल्कुल छोड़ देगा, वह इसकी उन्हे श्राशा ही न थी । फिर उनके विचार से विगत ५ दिनो मे ऐसी तो कोई बात नही हुई थी जिससे यह प्रगट होता है कि पाण्डव विजय के पथ पर अग्रसर हो रहे है और कौरव बिल्कुल ही डूब रहे हे । श्रत' वे बोले - "बेटा ! अभी तो युद्ध होते पाच ही दिन हुए हैं। इन पाच दिनो मे तुम्हे कोई ऐसी तो क्षति नही पहुंची जिसके कारण तुम इतने दुखित हो । हा १ हमारे जो वीर मारे गए, उनका शोक किया जा सकता है । परन्तु दतने भयकर और महा युद्ध मे वीरों की वलि न हो, यह तो सम्भव है। हमे तो न जाने कितने महान योद्धाओ का विछोह भी सहन करना होगा । इस युद्ध में विजय यही तो नहीं मिलने वाली । फिर जैसा साहसी अभी से दिल तोडे बैठे, धीरज वो देगा तो तुम Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ जैन महाभारत फिर कैसे काम चलेगा।" दुर्योधन ने दीर्घ विश्वास छोडा और बोला - "पिता यह, मुझे अपने प्यारे वीरो के विछोह का इतना गम नही जितना शोक इस बात का है कि, जवकि आप के पास इतनी विशाल एव भयानक सेना है, और उसकी व्यूह रचना भी वडी सावधानी से की जाती है, फिर भी पाण्डव महारथी उसे तोडकर हमारे वीरो को मार डालते हैं। हमारे दुर्गम मकर व्यूह तक को उन्होने तोड डाला और जवकि व्यूह मे मेरा ऐसा सुरक्षित स्थान होता है कि शत्रु का दहा तक पहुचना असम्भव होना चाहिए, फिर भी भीमसेन ने अपने मृत्यु दण्ड के समान प्रचण्ड वाणो से मुझे तक घायल कर डाला। दादा जी ! कल तो भीमसेन की रोष पूर्ण मूर्ति को देखकर मेरा कलेजा काप गया। पाण्डव जब जयघोष करते युद्ध से लौटते हैं उस समय मेरे मन पर क्या बीतती है, बस कुछ न पूछिये । हमारे पास उन से सेना अधिक, आप जैसे महारथी हमारे पास, और फिर भी राज्य विहीन पाण्डव हमारे सामने से अकडते व फुफकारते तथा । विजय घोष करते निकलें, यह मुझ से नही देखा जाता। मैं तो आप की कृपा से पाण्डवो का काम तमाम करने के स्वप्न देखा करता था।" दुर्योधन की बात भीष्म पितामह ने धीरज से सुनी और वे मुस्करा दिए। जैसे उनके मन मे यह भाव जमा हो कि- "मूर्ख ! वस इतनी सी बात पर घबरा गए।"-- किन्तु भीष्म जी ने कदाचित अपने भावो को छुपाते हुए कहा-"दुर्योधन ! मैं तो अधिक से अधिक प्रयत्न करके पाण्डवो मे घुसता हूं और जो सामने पड जाता है उसे ही यमलोक पहुचाने मे अपने प्राणो तक की बाज़ी लगा देता हूं। भविष्य मे भी मैं अपने प्राणों का मोह त्याग कर पाण्डवो को परास्त करने के लिए जी जान तोडकर लड़गा। तुम विश्वास रक्खो कि मैं तुम्हारी ओर हूं तो शत्रु की ओर से देवता भी क्यो न आ जाये, उन्हे भी मारने मे न चूकगा। परन्तु जव शत्रु की शक्ति पर मैं पार नहीं पा सकू तो मैं क्या करूं?" "दादा जी ! आप कुछ ऐसा कीजिए कि मेरे हृदय पर रक्खा यह भारी वोझ किसी प्रकार हटे । मैं वड़ा चिन्तित हू।"दुर्योधन बोला। Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छटा दिन ४०३ राजन् ! दुःख त्याग कर साहस से काम लो । जाओ अपनी सेना को तैयार होने का आदेश दो। मैं तुम्हारे लिए प्राण तक दे सकता हू ' इस से अधिक और क्या कर सकता हूं ।" भीष्म जी की बात सुनकर दुर्योधन को कुछ सान्त्वना मिली । क्योंकि उसके मन मे यही खटका रहता था कि कही भीष्म पितामह पाण्डवों के आगे ढोले न पड जाय, और जब वह भीष्म जी से यह सुनता कि वे पूर्ण शक्ति से युद्ध कर रहे है तो उसे बहुत प्रसन्नता होती और यह आशा हो जाती कि फिर तो उसकी विजय निश्चित X x X X सेना को तैयार करने के लिए बिगुल बजा दिया गया । कुछ ही देर बाद सैनिको के झुण्ड के झुण्ड अपने अपने शिवरो से निकल कर मैदान मे ग्रा गए। उस दिन भीष्म जी स्वय सेना के श्रागे गए और उचित हिदायते करके स्वयं व्यूह रचना में लग गए । उन्होने भिन्न भिन्न प्रकार के अस्त्र शस्त्रों से लैस कौरव सेना को मण्डल व्यूह की विधि से खडा किया । उस मे प्रधान प्रधान वीर गजारोही. अश्वरोही, पदाति और रथियो को बहुत ही सोच समझ कर उपयुक्त स्थानो पर खड़ा किया । और स्वयं ने ऐसा स्थान लिया कि देखने से प्रगट होता, मानो सारी कौरव सेना भीष्म जी की रक्षा के लिए हो और भीष्म जी अकेले समस्त सेना की रक्षा के लिए तैनात हो । उस दिन व्यूह के सभी जोड़ों और प्रथकन् पक्ति मे विकट गाडियो, तोप व गोला बारूद से भरी जहाज रूपी गाडियो को खड़ा किया | पश्चिम की ओर को इस दुर्भेद्य व्यूह का मुख रक्खा गया । दूसरी ओर युधिष्ठर ने जव भीष्म जी द्वारा रचित मण्डल ग्रह की व्यवस्था देखकर अपनी सेना को वज्रव्यूह के रूप मे खडा किया और उसके द्वार पर भयकर विकट गाडिया लगा दी ! पाण्डव वीरो ने मुख्य मुख्य स्थानो पर अपने अपने रथ रक्खे और जब सारी व्यवस्था हो चुकी तो महाराज युधिष्ठर ने अपने समस्त वीरो को पुकार कहा- “वोरी ! पाच दिन से आप सभी का पराक्रम शुभ के सीने पर वज्राघातो का काम कर रहा है । हम मन्या में कम है, पर साहस, उत्साह, बल और शौर्य हमारे पास Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ जैन महाभारत शभुमो से सहस्त्र गुना अधिक है। हमारे साथ वासुदेव श्री कृष्ण जैसे महान योद्धा ओर सर्व शक्तिमान कुशल कूट नीतिज्ञ है उनका प्रताप और आप वीरो का साहस हमारी विजय की गारंटी है। इस लिए आज पुन दिखा दो कि न्याय तथा धर्म के सामने दत्यो को शक्ति नहीं ठहर सकतो ।" धर्मराज के प्राव्हान को सुनकर मदोन्मत वीरो ने सिंह गर्जना की। प्रमुख वीरो ने उत्साह पूर्वक शख ध्वनि की और पदाति वीर धर्मराज युधिष्ठर के जयनाद करने लगे कौरव वीरो ने भी उत्तर मे भयकर सिंह नाद किए और युद्ध के लिए उतावले होकर पाण्डवों के व्यूह को तोडने के लिए आगे बढे ।। भीष्म जी की शख ध्वनि सुनकर सर्वप्रथम विकट गाडियो द्वारा गोले बरसाये जाने लगे। कौरवो की ओर से हो रही गोलो की वर्षा से भयानक ध्वनि होने लगी । जिसे सुन कर सेना के हाथी और घोडे विचलित हो गए और हाथियो की चिंघाड तथा घोडो की हिनहिनाट ने भीषण वातावरण बना दिया, कान पडी आवाज भी उस शोर में सुनाई न देती। पाण्डवो की ओर से भी विकट गाडियों ने आग उगलनी प्रारम्भ कर दी । और जब कौरवो की विकट गाडियो से सैनिको की ओर मुह करके गोले बरसाये जाने लगे तब पाण्डवो की ओर से कुछ ऐसे गोले दागे गए जिन के फटते ही चारो ओर वुओ फैल गया । कौरव सेना सारी की सारी धूए के वादलो मे घिर गई और कौरवो के विकट गाडियो पर तैनात सैनिको को कुछ देरि के लिए यह भी पता न चला कि पाण्डव वीर क्या कर रहे है और वे हैं किघर । उनके गोलो की वर्षा रुक गई। उचित अवसर देख पाण्डव वीर कौरवो के व्यूह को तोडने के लिए तीब्र गति से आगे बढे और ज्योही धुएं के वादल साफ हुए तो द्रोणाचार्य सामने राजा विराट, अश्वस्थामा के आगे शिखण्डी, दुर्योधन के सम्मुख धृष्टद्युम्न और शल्य के सामने उनके भानजे नकुल तथा सहदेव युद्ध के लिए आ डटे दिखाई दिए । अवन्ति नरेश विन्द और अनुन्दि ने इरापना को और भीम सेन ने कृतवर्मा तथा कर्ण विकर्ण आदि को घेर लिया । अर्जुन ने शेष समस्त राजाओं को और उसके पुत्र अभिमन्यु ने दुर्योधन के दूसरे Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छटा दिन ४०५ भाईयो को घेर कर युद्ध प्रारम्भ कर दिया। घटोत्कच ने परम ज्योतिष नरेश भगदत्त पर आक्रमण कर दिया। अलम्बुष रणोन्मत्त सात्यकि और उसकी सेना के साथ युद्ध रत होने पर विवश हुआ । घृष्ट केतु भूरिश्रमा पर टूट पडा और धर्मराज युधिष्ठिर श्रुतायु ने, वेकितान कृपाचार्य से और अन्य सब भीष्म जी से युद्ध करने लगे। . अर्जुन को अनेक राजानो से पाला पडा। वे विभिन्न प्रकार के अस्त्र शस्त्र लेकर अर्जुन को घेर रहे थे। अर्जुन के बाणो के उत्तर मे समस्त कौरव पक्षी राजा चारो ओर बाण वर्षा करने लगे और जब अर्जुन का वेग उन से दूर न हुआ तो वे विभिन्न अस्त्रों का प्रयोग करने लगे। उस समय अर्जुन बुरी तरह घिरा हुआ था। परन्तु श्री कृष्ण इस प्रकार से रथ को हांक रहे थे कि रथ का इधर उधर घूमना ही शत्रुओ के तीरो के लिए अर्जुन की ढाल बना हुआ था। चारो ओर से घिरे अर्जुन को देखकर देवताओं को भी आश्चर्य हो रहा था और गन्धर्व जिनकी अर्जुन से सहानुभूति थी, वे तो विस्मित होकर युद्ध को देख रहे थे। अर्जन को एक बार वडा क्रोध आया और उसने आव देखा न ताव एचास्त्र का वार किया जिससे शत्रुनो के सभी वाण व्यर्थ हो गए, फिर क्या था अर्जुन के सामने जो भी पाया वह घायल हए विना न रहा । यहा तक कि हाथी घोडे आदि भी बुरी तरह घायल होने लगे। अर्जुन ने एक वाण ऐसा मारा कि आग की लपटें सी निकली और हाथी घबराकर गरजने लगे। यहां तक कि सारथियों के हज़ार सम्भालने पर भी घोडे बेकाबू हो गए। तब शत्र राजाओ ने अपने को असफल जानकर भागकर भीम जी की शरण ली। जैसे डूबता हुआ व्यक्ति तिनके का सहारा लेने के लिए हाथ पाव मारता है, ठीक उसी प्रकार अपनी ताव अजून के रण कौशल और दिव्यास्त्रो रूपी सागर मडूबते देख शत्रु राजानो ने भीष्म जी रूपी महान जहाज़ की गरण में भाग कर जाने का प्रयत्न किया। शरणागत राजापो की रक्षा करने और अर्जुन के प्रचण्ड अाक्रमणो से कौरव सैनिको तथा पादानो को बचाने के लिए भीम जी ने दूसरे विरोधी को छोड कर मजुन की ओर अपना रथ हकवाया और बड़ी फुर्ती से आकर अर्जुन से युद्ध करने लगे। इधर द्रोणाचार्य ने वाण मारकर मत्स्यराज विराट को घायल Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ जन महाभारत कर दिया। परन्तु शरीर से रक्त की धारा फूट निकलने के उपरान्त । भी विराट युद्ध भूमि मे डटे रहे। उन्होने द्रोणाचार्य पर कुपित होकर ऐसे तीक्ष्ण दिव्य बाण मारे कि वे तिलमिला उठे और प्रारम रक्षा करना उनके लिए एक समस्या बन गई। उस समय विराट ने चेतावनी देते हुए कहा । -"प्राचार्य जी । यहाँ आपकी विद्वता के प्रति श्रद्धा हमारे पाडे नही पा सकती। आपके कौशल को दुर्योधन के अन्याय का ग्रहण लग गया है।" द्रोणाचार्य इन शब्दो से चिढ गए और उन्होने कुछ ऐसे बाण प्रयोग किए, जिनको रोक सकने मे विराट सफल न हो सके और देखते ही देखते बाणो से विराट के रथ की ध्वजा गिर गई । जो अभी तक हवा मे बडी शान से लहरा रही थी, अब धूल मे रुलने लगी। और फिर विराट का सारथि घायल होकर लुढक गया। अश्व भी घायल हो गए। तब विवश होकर विराट अपने पुत्र शख कुमार के रथ पर जा चढ़े और पिता पुत्र दोनो द्रोणाचार्य के ऊपर वार करने लगे। दोनो ओर से बाणो की झड़ी लगी थी। एक वार तो वाणो की एक ऐसी रेखा सी बन गई जो कही टूटती ही - प्रतीत नही होती थी। शख कुमार ने कुछ देरि बाद ऐसे बाण चलाए जोकि द्रोणाचार्य के धनुष पर चढते वाणो को छूटने से पहले ही गिरा देते। तब द्रोणाचार्य पर यह स्पष्ट हो गया कि जब तक शख है, उनका एक भी वार विराट का कुछ न बिगाड़ सकेगा। इस लिए उन्होने अपना एक विशेष बाण निकाला और विद्युत गति से उसे धनुष पर चढाकर मारा। बाण एक विषैले सर्प की भाति शख की ओर बढा उसकी नोक से चिनगानिया सी छूट रही थी और एक विशेष प्रकार की गध आ रही थी। इस विचित्र वाण को देखकर विराट काप उठे और जब वह वाण आकर शख कुमार की छाती पर लगा, तो क्रोध के मारे विराट पागल से हो गए, उन्होने क्षण भर मे ही अनेको वाण द्रोणाचार्य पर मारे जिनसे वे घायल हो गए। पर ज्यो ही शख कुमार लोहू लुहान हुआ चीखता . हुआ रथ से पृथ्वी पर गिरा तो विराट का रोम रोम सिहर उठा। उन्होने अपने प्रिय युव के शव को विह्वल होकर वे रथ से कूद पड़े और पुत्र के शरीर को उठाकर रथ मे रख रण भूमि से बाहर चल पड़े। Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छटा दिन ४०९ उधर विकट गाडिया आपस में टकरा रही थी इधर विसरे नरेश के युद्ध भूमि से जाते ही द्रोणाचार्य पाण्डवो की सेना पर टूट पडे और अनेक स्थानो पर से पाण्डव सेना की पक्तिया उन्होने भग कर दी। इस प्रकार पाण्डवो की विशाल वाहिनी अकेले द्रोणाचार्य के ही कारण सैंकड़ों हज़ारो भागो मे विभक्त हो गई। शिखण्डी अश्वस्थामा के सामने डटा हुआ था। दोनो ही बड़े वीर थे, एक दूसरे की टक्टर के भी थे। कितनी ही देरि तक जब दोनो ओर से वार होते रहे और फिर भी कोई न गिरा, या किसी को कोई क्षति भी नही पहूची तो शिखण्डी. ने ललकार कर कहा"वढे वीर बनते थे । अपने शौर्य का कुछ चमत्कार भी दिखाओगे या यूही।" अश्वस्थामा गरज कर बोला- "चमत्कार देखकर ठहर नही सकोगे।" इतना सुन कुपित होकर शिखण्डी ने एक ऐसा बाण मारा कि अश्वस्थामा की भकुटी के बीच में चोट लगी। रक्त बह निकला। इस बात से अश्वस्थामा को बडा क्रोध आया और उसने कुछ दिव्यास्त्र प्रयोग करके शिखण्डी के रथ की ध्वजा तोड डाली, और फिर सारथी तथा घोडों को भी मार गिराया। तव शिखण्डी ढाल तलवार लेकर मैदान मे प्रा डटा । परन्त अश्वस्थामा तो रथ पर सवार था उसने अपनी स्थिति का लाभ उठाते हए तीक्ष्ण वाणी कद्वारा महावली शिखण्डी को अपने रथ की ओर बढने से रोक दिया और फिर कुछ ऐसे वाण प्रयोग किए जिनसे उसके खड़ग और दाल को तोड डाला। बाज की भाति वडे वेग से झपटते शिखण्डी क हाथो के शस्त्र नप्ट हो जाने के कारण अब उसके पास एक ही चारा था कि वह पुनः रथ पर सवार होकर युद्ध करे। वरना अवस्थामा को वाण वर्षा से वह स्वय भी ढेर हो सकता था। पिण्डो ने ऐसा ही किया और वह दौड़ कर सात्यकि के रथ पर चट गया। वीरवर सात्यकि राक्षस वशी अलम्बूष के सामने डटा हुआ था। क सहस्यों वारणो की मार से अलम्बुष घायल हो गया। नपारण वह ग्रोध के मारे जलने लगा और एक बार अध कार वाण मारकर उसने सात्यकि का धनुप ही तोड़ डाला और Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ जैन महाभारत कर दिया तक कि सात्यकि दूसरा धनुष उठाए, अलम्बुष ने अनेक भी भाण मार कर उसे भी घायल कर दिया। उस अवसर पर, जब कि । सात्यकि के शरीर से अनेक स्थानों पर रक्त धारा बह रही थी, उसका बडा ही विचित्र पराक्रम देखने को मिला । तीखे तीखे बाणों की चोट खाने पर भी सात्यकि के मुख पर घबराहट का कोई चिन्ह न था, इसके विपरीत उसने शीघ्र हा एक दूसरा धनुष सम्भाला। अलम्बुष ने उस समय राक्षसी माया प्रयोग करके तीक्ष्ण तथा अतिसहारक बाणी की झडी लगा दी थी परन्तु बाणो से चोट पर चोट खाते हुए भी सात्यकि ने अर्जुन से मिला ऐन्द्रास्त्र चढाया और अपनी सश्पूर्ण शक्ति से उसे मारा। फिर क्या था अस्त्र के प्रभाव से समस्त राक्षसी माया भस्म हो गई । और तत्काल ही वाणी की वर्षा इतने वेग से की कि अलम्बुष का साहस टूट गया और उसे ऐसा हुआ कि कुछ देरि इसी प्रकार महा पराक्रमी सात्यकि बाण बरसाता रहा तो वह मारा जायेगा। यह सोचकर उसने रण भूमि से भाग जाने में ही अपना कल्याण समझा और देखते ही देखते सायाक का सामना करना छोडकर बड़े वेग से रण भूमि से भाग खडा हा । अलम्बुष के हटते ही सात्यकि ने दुर्योधन के भाईयो' पर आक्रमण किया और एक अस्त्र प्रयोग करके उनके धनुष तोड डाले, बेचारे कौरव भ्राता कुछ भी न कर पाये और रण भूमि से भाग जाना ही उन्होने श्रेयस्कर समझा । विकट गाडिया एक दूसरे पर गोले बरसा रही थी, बडी भयकर आवाज हो रही थी कि दिल दहल जाता था और इधर द्रुपद के पुत्र महाबली धृष्ट घुम्न ने अपने तीक्ष्ण बाणो से दुर्योधन को ढक दिया था। वाणो की छाया मे रहकर भी दुर्योधन भयभीत न हुआ और किसी प्रकार रथ को इधर उधर घुमा फिराकर कुछ ऐसा अवसर प्राप्त कर लिया कि वह स्वय भी बाण चला सके । तडातड़ ९० बाण क्षण भर मे ही मारे जिनसे धृष्ट द्युम्न का कवच कई स्थानों पर कट गया फिर क्या था धष्ट धम्न ने कुपित होकर दुर्योधन के सारथि और घोडो तक को मार डाला। कदाचित फिर दुर्योधन के मरने का ही नम्बर आता, परन्तु वह दौडकर शकुनि के रथ पर जा चढा और इस प्रकार धष्ट धम्न के हाथो से बच नकला। Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छटा दिन दुर्योधन को परास्त करके धृष्ट द्युम्न कौरव सेना के दूसरे वीरो पर टूट पड़ा और बडी फुर्ती से सहार करने लगा। उसी समय महारथी कृतवर्मा का दाव लगा और उसने भीमसेन को वाणो से आच्छादित कर डाला। भीमसेन कृतवर्मा के इस वेग पूण प्रहार को देखकर हसा और मुस्कराते हुए ही उसने अपने बाणो की झडी लगा दी। देखते ही देखते कृतवर्मा के सारथि और घोडो को धाराशायी कर दिया और कृतवर्मा स्वय भी बुरी तरह घायल हुआ । वचने का और कोई उपाय न देख वह दौडकर धृतराष्ट्र के साले वृषक के रथ पर चढ गया और भीमसेन के सामने जो भी पडा वही वाणो से घायल होकर या तो मर गया अथवा भाग खडा हुआ। दूसरी ओर अवन्ति नरेश विन्द और अनुविन्द इरावान से टक्कर ले रहे थे। उनमे बडा ही रोमाचकारी युद्ध छिडा हुआ था। दानी ओर से तीक्ष्ण बाण चल रहे थे । परन्तु अकेला इरावान दोनो जाताओ को होश न लेने दे रहा था। एक बार दोनो भ्राताओ ने इरावान के ऊपर भीषण प्रहार किया। कुपित होकर इरावान ने दिव्य वाणो का प्रयोग किया और अनविन्द के सारथि तथा उसके रथ के चारो घोडो को मार गिराया। अनुविन्द तब अपने भाई विन्द के रथ पर चढ गया और उसी रथ पर से दोनो भाई बाण १पा करने लगे। ऋध इरावान ने देखते ही देखते उनके सारथि मार गिराया। वाणों की भीपण वर्षा के मारे रथ के घोडे चर्चाक कर रथ को इधर-उधर लेकर भागने लगे और बेचारे अनुविन्द व विन्द को अपने रथ घोडो को काबू में करने की एक समस्या उत्पन्न हो गई। परन्तु ऐसी जटिल समम्या में फसे विन्द तथा अनुविन्द को इरावान ने छोडकर और दूसरे कौरव सैनिको से भिड गया। अब आप अपनी दष्टि उधर भी उठाईये, जिधर भीम पुन पटात्कच भगदत्त के साथ भयकर यद्ध कर रहा है। दोनो ओर में पाणी को वर्षा हो रही है और तेजी से उधर से उधर भागते व पूमत ग्थो के कारण धन के बादल में उठ रहे हैं। वर देखिय पानवर घटोत्कच ने एक बार विद्यत गति में वाणो की भदी लगा दापौर भगदत्त उम वाणो की छाया में किन्युन हुप 21 Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ जंन महाभारत दिया और कुछ अन्य राजाओं के साथ उसे चारों ओर से घेर लिमच तथा बाण वर्षा प्रारम्भ कर दी। अर्जुन ने एक क्षण में ही उण्डी धनुष तोड डाले और उसके बाणो की मार से उनके कवच तार करने हो गए। कुछ ही देरि में उनके तडपते शव धूल में लुढकने 'अपना अपने साथियो के मारे जाने पर सुशर्मा दूसरे राजाओं तथा सैमी को को लेकर पार्थ से युद्ध करने लगा। अर्जुन पर चारो ओर से ने देख राजाओं के आक्रमण को देखकर शिखण्डी सहायता के उिस समय पडा और विभिन्न प्रकार के अस्त्र शस्त्र लेकर वह राजाम रहा था और अजयदतग्था दुर्योधन भी आकर अर्जन से पावोर सूर्यास्त के नाम पर युद्धबन्दी की बाटण गाह' थे पाचाल राजकुमार धृष्ट द्युम्न और महारथी सात्यकि शक्ति तथा तोमार आदि की वर्षा करके कौरवो पर मृत्यु मण्डराने लगे। कौरव सेना में हाहाकार मच गया। उधर शिखण्डी अनेक योद्धाओं को मार कर अर्जुन के निकट गया। अर्जुन में कितने ही वीरों को मार गिराया था कितन ही रणागण से विदा ले रहे थे। वे दोनो ही फिर भीम जी के सामने जा डटे। उसी समय सूर्य देव अस्ताचल के शिखर पर पहुच कर प्रभाहीन हो रहे थे और ज्योति समाप्त होकर अन्धकार का आगमन होने लगा था । युद्धवन्दी का बिगुल वज उठा, बिगुल सुनकर पाण्डव वीरो ने भयकर सिंह नाद किया और महाराज युधिष्ठिर के नेतृत्त्व मे अपने शिवरो के लिए प्रस्थान कर दिया। भीम जी की आज्ञा से कौरव सेना भी अपनी छावनी में चली गई । घायल हुए व्यक्तियों ने अपनी अपनी छावनियों में पहुंच कर औषधियो का सेवन किया । और फिर दोनों पक्ष के लोग भोजन आदि से निवृत होकर आपस मे मिलकर एक दूसरे की वीरता की प्रशसा करने लगे। Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अठत्तीसवां परिच्छेद * सातवां दिन RATEEKAR । रात्रि भर दोनो पक्ष के वीरों ने विश्राम किया और पौ फटते हो दोनो ओर चहल पहल प्रारम्भ हो गई। रण की पोशाके पहन ली गई और विगुल बजते ही पाण्डव पक्ष की सेना छावनी से निकल कर तैयार हो गई। दूसरी ओर कौरव सेना भी अपने अपने उरा को छोडकर वाहर आ गई और सूर्य की किरणों का स्वरूणिम स्वय सफेदी मे वदलते ही दोनों ओर की सेनाए युद्ध भूमि की ओर चल पडी। उस समय महासागर की गम्भीर गर्जना की भाति महान कोलाहल होने लगा। चारो ओर विभिन्न प्रकार के अस्त्र शस्त्र चमक रहे थे। दुर्योधन, चित्रसेन, विविंशति, भीष्म और द्रोणाचार्य ने अपनी समस्त सेना को एकत्रित करके सागर समान व्यूह का निर्माण किया। सागर व्यूह की तरग मालाएं हाथो, घोड़े आदि वाह्न थे। समस्त सेना के आगे भीष्म जो थे उनके साथ मालवा, दक्षिण भारत तथा उज्जैन के योद्धा थे। इसके पीछे कूलिन्द, पारद, क्षुद्रक तथा दानाचार्य थे। द्रोण के पीछे मगध और कलिग प्रादि देशो के योद्धा पजिनका नेतत्व राजा भगदत्त के हाथ में था। इनके बाद राजा बृहद्वल था जिसके साथ मेकल तथा करुविन्द आदि देशो के योद्धा । वृहदल के पीछे था भिगतराज सुशर्मा, और उसके पीछे पावस्थामा और सबसे पीछे दर्योधन अपने भाईयो सोहत था। चारों और प्रग रक्षक की भाति सैनिक थे। और निको तथा Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०१८ जैन महाभारत योद्धाओ के महासागर में तूफान सा आया प्रतीत होता था। हज़ारो पदाति, गजरोहो और अश्वरोही वीरो के हाथों मे खडग, भाले, गदाए और धनुष बाण चमक रहे थे। कौरवों के सागर समान व्यूह की रचना को देखकर धृष्टद्युम्न ने ३ पाण्डवों की सेना को श्र गाठक व्यूह के रूप मे व्यवस्थित किया। उस व्यूह की रचना होने पर वह बहुत ही भयानक प्रतीत होने लगा। और कौरवों के व्यूह को तोड डालने मे समर्थ दिखाई देता था, उसके दोनों अङ्गों के स्थान पर भीमसेन तथा सात्यकि स्थित थे उनके साथ कई हजार रथ, घोडो और हाथियों पर सवार व पदाति सेना थी। उन दोनों के मध्य मे अर्जुन, नकुल और सहदेव थे। इनके पीछे दूसरे राजागण थे, जो अपनी विशाल सेनाप्रो के साथ व्यूह को पूर्णतः भेट कर रहे थे। उन सबके पीछे अभिमन्यु, महारथी बिराट, द्रौपदी के पुत्र और घटोत्कच आदि थे। इस प्रकार व्यूह रचना समाप्त करके युधिष्टिर ने अपने संनिको का आह्वान किया-"वीर योद्धाओ । तुम्हारे रण कौशल से बडे वड. दिग्गज धनुर्धारी, अनुभवो और जगत विख्यात शूरवोर भी थरों रहे है। तुम्हारी वीरता के सामने शत्रुनो की विशाल सेना का नाको दम है। आज फिर उन्ही से टक्कर है जो पिछले दिनो में परास्त होते चले आये हैं। वढो और अपना जौहर दिखा कर वता दो कि न्याय का सिर कभी नीचा नही होता।" उधर दुर्योधन अपने वीरो को ललकार रहा था-"रण बांकुरो | शत्रुओ की सेना हम से बहुत कम है। हमारे पास भीम पितामह और द्रोणाचार्य जैसे अनुभवी महान सेनानायक हैं, देवता भी जिनका लोहा मानते है । विजय हमारी ही होगी। और विजय के साथ साथ यश कीर्ति और ऐश्वर्य के द्वार तुम्हारे लिए खुल जाये गे। बढो और शत्रुग्रो को दिखा दो कि कौरवो के पास विजया शूरवीरो की कमी नही, हम सारे जगत से टक्कर ले सकते है।" रणभेरी वज उठी। शखनाद होने लगे। ललकारने और ताल ठोकने और ज़ोर ज़ोर से पूकारने की आवाजें आने लगा। दोनो ओर से चुनौतियां दी जाने लगी और इस तुमुल नाद से दो दिशामो गूज उठी। सेनाए वढी और कौरव तथा पाण्डवो के पक्ष Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : सांतवां दिन ४१२ -EU८. के बोर भिन्न भिन्न प्रकार के अस्त्र शस्त्रों को लेकर एक दूसरे और टूट पडे। तलवारो से तलवारें टकराने लगी, धनुषों की टकारे विजली टूटने की ध्वनि की भाति सूनाई देने लगी। भाले भालो से टकरा गए। गज सवार गजसवारो पर, अश्वारोही अश्व सवारो अर, पर्दाति पदातियों पर और रथ सवार रथ सवारो पर टूट पड । थों की घर घराहट से दिशाए गूजने लगी। वीर क्षत्राणियों के सपूत वीरांगनाओ का सुहाग लूटने लगे और कितनी ही जवानियों चाणों से निकलती लपटो मे ध्वस्त होने लगे। रात्रि भर जो भाईयो की भांति रहे अब वे एक दूसरे के प्राणो के ग्राहक बन गए। सामने से भीष्म जी अपने धनुष की टकार करते, योद्धाओ' को मौत की नीद सुलाते पाण्डव सेना की ओर बढ़े। यह देख घृष्ट द्युम्न, आदि महारथी भी भैख नाद करते हुए भीष्म जी से टक्कर लेने दोड़े। जो हाथ प्रणाम के लिए उठा करते थे, वे वाणों के द्वारा भीष्म जी के प्राण हरने के लिए बड़े वेग से चलने लगे। फिर तो दोनों सेनाओं में भीषण युद्ध छिड़ गया। भीष्म जी का मुख मण्डल क्रोध तथा तेज के मारे तप रहा श्या और जैसे पूर्ण यौवन पर पाये तपते सूर्य की ओर देख सकता काठन हो जाता है उसी प्रकार भीष्म जी की ओर देख सकना कठिन हो रहा था। भीष्म जी के बाणो के प्रहार से सोमक, सृज्जय, पांचाल राजाओं को मार गिराने लगे, पर वे भी प्राणो का मोह त्यागकर भीष्म जी पर टूट पडे। उन के अग रक्षक, सहयोगी भार साथी योद्धा भी भीष्म जी पर प्रहार करने लगे। परन्तु भीष्म जाके बाणों की मार से कितने ही अश्वारोहियो के सिर कट कट कर धरा पर लुढ़कने लगे, कितने, ही पहाड़ो के समान उन्नत हाथी पाराशायी हो गए। कितने ही रथ योद्धा हीन होकर रह गए। उस कामय यदि कोई. था जो निर्भय होकर भीम जी के सामने टिका भाया तो वह-शा भीमसेन जो पूरे वेग से भीष्म जी से टक्कर ले पाउन के प्रहार को रोकता और स्वयं प्रहार भी कर समय भी हो गएलगे, कितने ही अश्वारोहियाग। परन्तु भागी भीमसेन के प्रहारों से अन्त में भीम जी भी तंग आ गए इस दुर्योधन अपने भाईयो सहित उनको रक्षा के लिए प्रागया। Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० जैन महाभारत उसी समय भीमसेन ने एक ऐसा तीक्ष्ण बाण मारा कि भीष्म जी का सारथी पृथ्वी पर लुढक गया और वाणो को वर्षा से तग ग्राकर घोडे भीस्म जी के रथ को लेकर रणभूमि में इधर उधर भागने लगे। घोडे बिगड गए थे, इस लिए भोऽम जी को युद्ध जारी रखना असम्भब हो गया । और इस से पहले कि वे अपने घोडो को नियंत्रित करे घोड़े रथ लेकर भाग गए। तब तो भीमसेन चारों ओर मार करता हुआ घूमने लगा, जो भी सामने आया उसे ही मार गिराया । अनायास ही घृतराष्ट्र पुत्र सुनाय भीमसेन के सामने आ गया और वह तत्काल ही मारा भी गया, तब तो धृतराष्ट्र के सात वेटे अमर्प से भर गए और आपे से बाहर होकर वे भीमसेन पर टूट पड़े । और एक रण कुशल धृतराष्ट्र पुत्र ने अपनी रण कुशलता से भीमसेन की एक भुजा को घायल कर दिया। परन्तु मदोन्मत्त गज समान युद्ध रत भीमसेन के रण कौशल मे कोई कमी न पाई । उस ने वाणो की वर्षा जारा रक्खी और उस घायल करने वाले कौरव का सिर एक ही वाण से उडा दिया, दूसरे की छाती तोड दी. तीसरे का मस्तक धूल की तरह उड़ा दिया, चौथे को कई बाणो से लुढका दिया और अन्त मे उन सभी को मार डाला। आठ भ्राताओं को मृत देख कर अन्य कौरव भ्रातागो का हृदय काप उठा। वे सोचने लगे कि भीमसेन ने 'भरी सभा में कौरवो को मार डालने की जो प्रतिज्ञा की थी, आज वह उसे पूर्ण कर देगा। यह सोच कर वे अपने प्राण लेकर भाग पड़े। भाईया के मरने से दुर्योधन भी शोक विह्वल हो गया. उस ने अपने सैनिका को आज्ञा दी कि-'भीमसेन को चारो ओर से घेर लो और मार हालो ।" सैनिक तो पहले से ही यमराज का रूप धारण किए हुए भीमसेन के भय से कांप रहे थे, इस लिए आज्ञा पाते ही कुछ के ता प्राण सूख गए, किसी के हाथो से शस्त्र ही छूट गए और कुछ रण जी की । भूमि से भागने लगे। यह स्थिति देख कर दुर्योधन को विदुर जा का बातें याद आ गई। वह सोचने लगा- वास्तव में विदुर जी बड़ बुद्धिमान और दूर्दशी है, उन्होने ठीक ही कहा था कि भीमसन अपनी प्रतिज्ञा अवश्य हो पूर्ण करेगा, इस लिए उस के कोप से बचन का एक मात्र उपाय यह है कि रण का संकट मोल न लो।-पर अव Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवा दिन ४२१ क्या हो ? अब तो मृत्यु सिर पर मण्डरा रही है।" __ दौडा दौडा दुर्योधन भीष्म जी के पास गया और वडे दुख के साथ फूट फूट कर रोने लगा दुर्योधन की यह दशा देख कर भीष्म जी भी बड़े दुखित हुए। उन्होने पूछा- "बेटाअश्रुपात का क्या कारण । रणभू म मे होकर तुम्हारी आखो मे आसू ??" "पितामह ! भीमसेन ने मेरे पाठ भ्रातायो का बध कर डाला और अब वह हमारे अन्य शूरवीरो का सहार कर रहा है। हा शोक मेरे परिवार का नाश हो रहा है और पाप तो जैसे मध्यस्थ से हो गए है आप कुछ करते ही नही ! मैं मिट रहा है। और आप हमारी उपेक्षा कर रहे है। मेरे भाई मरते रहे और आप की यह उपेक्षा नीति चलती रहे तो मेरी आखो मे आँसू न आयेगे क्या ?"दुर्योधन ने दुखित होकर कहा । बात कटु थी, पर उस के शोक विह्नल होने के कारण भीष्म जो का गला भर पाया। बोले-'वेटा । मैंने, द्रोणाचार्य और विदुर जी ने तुम से बहुत कहा, गान्धारी ने तुम्हे कितना ही समझाया पर तुम ने हमारी एक न सुनी। हम ने चाहा कि तुम हमे युद्ध में न डालो, पर तुम हठ पर अड गए। अब उसी का यह परिणाम है कि तुम्हारे नेत्रो मे ऑसू हैं। यह हमारी उपेक्षा के कारण नही, तुम्हारे प्रारब्ध के कारण हैं। अव तो तुम्हे परलोक में ही सुख पाने की इच्छा से युद्ध करना चाहिए। हम जहा तक हो गा, तुम्हारे लिए लड़ेगे।" फिर भीष्म जी दूयोधन को सन्तोप वन्धाते हए भीषण युद्ध करने लगे यह देख युधिप्टर की आज्ञा से उनकी सारी मेना क्रोध मे भरकर भाम जी के ऊपर टूट पड़ी। धष्ट द्यम्न, शिखण्डी, सात्यकि, समस्त सोमक योद्धाओ के साथ राजा द्रोपद और विराट, केकय फुमार धृष्ट केतु और कुन्ती भोज सभी ने भीष्म जी पर आक्रमण किया। अर्जुन, द्रौपदी के पुत्र और चेकितान आदि दुर्योधन के भज राजानो से युद्ध करने लगे। तथा अभिमन्यू, घटोत्कय और माम सेन ने यूद्ध से अपने प्राण वचाने की चेष्टा करते कोरवों पर घावा किया। इस प्रकार पाण्डव और उनकी मेना तीन भागों में विभक्त हो कर कोरवों का संहार करने लगी और कौरव पाण्डवों के Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत सहार के लिए जी जान तोड कर लडनेलगे। द्रोणाचार्य ने क्रुद्ध होकर सोमक और सज्जयो पर आक्रमण किया और उन्हे यमलोक भेजने पर उतारू हो गए। उस समय सज्जयो मे हाहाकार मच गया। दूसरी ओर महाबली भीमसेन कौरवो पर मृत्यु देव की भाति टूट रहा था। दोनो अोर के सैनिक एक दूसरे को मारने लगे। रक्त की नदी बह निकली। उस घोर संग्राम मे कितने ही सुन्दर वीरवर धूल मे लुढकने लगे। बडे बडे योद्धामो के शरीर धोडो तथा हाथियो के पैरो से रौंदे जा रहे थे। भीष्म जी घोर सलाम कर रहे थे उनके बाणो से कितने ही घोडे और हाथी पृथ्वी पर लुढक रहे थे। उधर नकुल और सहदेव कौरवो के अश्वारोहियो और उनके घोडो को बुरी तरह मार रहे थे भीमसेन अपनी गदा लेकर कौरवो के हाथियो पर टूट पडा था, भेरु समान हाथी क्षण भर मे गदारो की मार से पृथ्वी पर ढह जाते थे। अर्जुन ने कितने ही राजायो का सिर धड़ से अलग कर डाला था, जो सिर किसी के सामने नही झकते थे अर्जुन के कारण घोडो की ठोकरो मे पडे थे। उस समय का युद्ध सागर मे आते जवारभाटे की भाति चल रहा था जब भीष्म द्रोण, कृप और अश्वस्थामा एक साथ मिल कर कद्व हो युद्ध करते तो पाण्डवो की सेना का सहार होने लगता और जब अर्जुन, भीम, विराट, अभिमन्यु आदि कुपित होकर टूटते तो कौरव सेना का संहार होने लगता। इस प्रकार दोनो ओर की सेना का रक्त मिट्टी मे मिल रहा था। फिर भी बेचारे दुर्योधन को बडी चिन्ता थी। भास्कर का रथ अपने निचित पथ पर अग्रसर हो रहा था। पंप काफी तेज हो गई थी। और यद्ध की गरमी भी बढती जा रही थी। वीरो का विनाश करने वाला भीपण युद्ध · अधिकाधिक भीषण रूप धारण करता जाता था कि शकुनि ने पाण्डवो पर धावा किया । अाक्रमणकर्तायो मे कृत दर्मा भी एक बडी सेना सहित था। जव पाण्डवो का व्यूह तोड कर शकुनितथा गाधार देश के अन्यान्य वीर अन्दर धस गए और पाण्डव वीरो का संहार करने लगे तो इरावान से न रहा गया। इरावान अर्जुन का पुत्र था। उसन अपने साथी वीरो को ललकार कर कहा-“वीरो! देखते क्या हो इन “दुप्टो को चारो ओर से घेर कर मार डालो। देखो, कोई बच कर Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवा दिन ४२३ न जाने पाये"। इराव न की ललकार सुन कर मनिको ने उन्हे चारो ओर से घेर लिया और भीषण युद्ध करने लगे। जव कौरव पक्षी योद्धा पाण्डव पक्षी वीरो के द्वारा मारे जाने लगे तो सुबल के पुत्रों से न रहा गया और वे दौड़ कर उनकी सहायता के लिए पहुच गये। उन्हो ने जाते ही इरावान को चारो ओर से घेर लिया अकेला इरावान उन सभी का डटकर मुकाबला करने लगा, फिर क्या था कुपित तो दूर सुवल पुत्र इरावान पर टूट पडे और आगे पीछे, और दायें वार्य से इरावान पर बाणो की वर्षा होने लगी। परन्तु वह फिर भी किचित मात्र न घबराया। उसके शरीर पर अनेक जगह घाव या गए। लाल लाल लहू की धाराए वह निकली, किन्तु वह उसी प्रकार युद्ध कर रहा था, जसे कि स्वस्थ अवस्था मे करता था। बल्कि इस से उस को क्रोध चढ गया और उसने अपने तीखे बाणो से सभी को वीध डाला घायल हो कर वे मुछित हो गए। तब उसने चमकती तलवार हाथ मे सम्भाली और सुवल पुत्रो की हत्या करने के उद्देश्य से आगे बढा। परन्तु जब तक वह उनके पास पहुचता, उनकी मुर्छा भग हो गई। और कोध मे भर कर इरावान पर टूट पड़े। साथ ही उसे बन्दी बनाने का प्रयत्न करने लगे। परन्तु ज्यो ही वे निकट आये. इरावान ने तलवार के एसे हाथ दिखाये कि उनकी भुजाए कट गई और वे भुजाहीन हो कर पृथ्वी पर गिर पड़े। उन मे से केवल वृषभ नामक राजकुमार ही जीवित बचा। __ इरावान का यह पराक्रम देख घबराया हुया दुर्योधन विद्याधर (रायस) अलम्बुष के पास गया और बोला-"महावली अर्जुन का पुत्र इरावान हमारी सेना का सहार कर रहा है, उसने सुवल पुत्रो का मार डाला है और यदि उसका वेग न रुका तो न जाने वह क्या कर गुजरे। तुम जानते ही हो कि भीमसेन ने तुम्हारे साथी विद्याधर वकासुर का वध किया था, उसका बदला लेने का उचित अवसर है। तुम तो बड़े बलवान और मायावी हो. चाहो तो भरावान का सहज ही मे वध कर सकते हो। कुछ ऐसा कगे कि राचान धाराशायी हो जाये, ताकि सवल पूनो के वध का बदला गिल जाये और हमारी सेना का सहार रुक जाये । " विनय भाव से की गई प्रार्थना को स्वीकार करके अलम्बुप Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत सिह् के समान गर्जना करता हुआ इरावान के पास गया और वडी - ही भयायक दहाड़ के साथ चेतावनी दी - इरावान ! ठहर अभी तुझे यमलोक पहुचाता हूं। " इतना कह कर वह भयानक विद्याधर इरावान पर टूट पड़ा। किन्तु इरावान साहस पूर्वक उसका मुकाबला करने लगा । जब इरावान इस प्रकार बस मे न श्राया तो अलम्बुष ने मायावी बाण मारे परन्तु इरावान उनके बस मे भी न आया । उसने भी ऐसे बाण मारे जिस से विद्याधर की मायाकी काट हो जाती । इसी प्रकार बहुत देर तक युद्ध होता रहा। एक बार अलम्प ने मोहिनी अस्त्र मारा जिस से इरावान मूच्छित हो सकता था, पर इरावान के पास भी अर्जुन के दिए हुए अस्त्र थे उसने मोहिनी अस्त्र का खण्डन कर डाला तब विद्याधर एक भीषण अस्त्र छोडकर दौडा | इरावान ने उस माया को काट डाला और के अलम्बुष पीछे दौड़ा । प्रलम्बुष के पास एक ग्राकाशगामी बायुदान था, वह उस में सवार होकर अस्त्रों का प्रयोग करता हुआ आकाश की ओर इरावान ने उस का पीछा जारी रक्खा। और अपने माया अस्त्रों से अन्तरिक्ष मे उडते श्रलम्बुष मोहित करके वाणो द्वारा उसे वीधता जाता । परन्तु विद्याधर के पास कुछ ऐसी बूटियां थी जिनके स्पर्ग मात्र से रक्त बहना बन्द हो जाता था और घाव अच्छे होने लगते थे। वह अपने ग्रस्त्रो का प्रयोग कर के इरावान का परेशान करता और उसके आक्रमणों से अपनी रक्षा करता हुग्रा हुआ अन्तरिक्ष मे जला जा रहा था। विद्याधर ने अपनी विद्याग्रो का बार बार प्रयोग किया, पर इरावान भी कोई कम न था । उसने अर्जुन के साथी गांधर्वों और विद्याधरो से बहुत कुछ सीख रखा था त प्रत्येक विद्या का वह काट जानता था । उड चला। ४२४ किन्तु एक वार विद्याधर अलम्बुष ने एक ऐसा माया मयी माण मारा कि उसके छूटते ही इराबान की आखो के सामने अधकार छा गया और बहुत प्रयत्न करने पर भी वह आगे न देख सका । तव अवसर पाकर अलम्बुप ने एक ऐसा वाण मारा कि इरावाप की खोपडी को काटता हुआ निकल गया । खोपडी कट कर भूमि पर गिर गई और फिर इरावान का शरीर भी अन्तरिक्ष से नीचे गिर गया । इरावान का शरीर रण भूमि मे आकर गिरा और उसे देख कर कौरव सैनिक उल्लास के मारे उछल पडे । जय नाद होने "" Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवा दिन ४२५ से पसीना बार वे भय के को सुनकर कुछ को गया. साकच क्रोध के सभी सैनिको कर काँपने लगे। लगे, शखनादो से सारा रण स्थल गज उठा।। इरावान मारा गया, यह देखकर भीमसेन के पुत्र घटोत्कच ने बडी भीषण गर्जना की। उसकी आवाज से सारा रण स्थल गज उठा इस भयानक गर्जना को सुनकर कुछ कौरव संनिको को काठ मार गया और वे भय के मारे डर कर कॉपने लगे। उनके अगों से पसीना छूटने लगा। सभी सैनिको की दशा अत्यन्त दयनीय हो गई। घटोत्कच क्रोध के मारे प्रलयकालीन यमराज की भॉति हो गया. 'उसकी प्राकृति वहत हो भयानक बन गई। उसके साथ विद्याधरी की एक विशाल सेना थी, जो भयानक अस्त्र शस्त्र लेकर चल रहे थे। स्वय घटोत्कच के हाथ में एक जलता हुआ त्रिशूल था। वह वार वार गर्जना करता चल रहा था-"वीरो। दुष्ट कौरवो का सहार कर डालो । देखो, तुम्हारे भय से शत्रु हवा के वेग के कारण कापते पीपल पतो की भाति थर-थर कम्पित हो रहे हैं ।" . घटोत्कच का ऐसा सिंह नाद सुन कर और अपने सैनिकों । मुखो पर हवाईयो उडता देख, दुर्योधन गजारोही सैनिको की परी भीड को लेकर घटोत्कच के मुकाबले के लिए चला । जब घटात्कच की दृष्टि एक भारी सेना सहित आते देख दुर्योधन पर पहा तो वह कुपित होकर गजारोही सेना की ओर बढा और जाते है। रामाचकारी आक्रमण कर दिया। दुर्योधन अपने प्राणो का मोह त्याग कर बडी फुर्ती से विद्याधरो से लडने लगा। उसने कुपित होकर कितने ही विद्याधरो को मार डाला यह देख घटोत्कच क्रोध के मारे जलन लगा और लपक कर दुर्योधन के पास पहुच गया । जति ही गरज कर बोला -"अरे नोच । जिन्हे तुम ने दोर्घ काल तक वनोमे मटकाया और अपनी नीचता से दारुण दुख दिए, उन्ही माता ताक ऋण से उऋण होने के लिए ग्राज तम्हे मोन के घाट उतार दृगा ।" इतना चेतावनी देकर त्रिशल छोड घटोत्कच ने अपने हाथ विशाल धनुप सम्भाला और भीपण वाण वर्षा कर के दुर्योधन वाणो के प्रावरण से ढक दिया। तब अपने प्राणो पर सकट देय पाचन पूरा शक्ति बटोर कर उस पर आक्रमण करने लगा। उस ग वाणी से घटोत्कच घायल हो गया और कोई चारा न देख एक महागक्ति अस्त्र को दुर्योधन पर फेकता, वह शक्ति पर्वत विदाण कर सकती। ज्यो ही शक्ति का प्रहार ग्रा, बंगाल Seण वाणात बटोरक दिया। तब सभी विदीन कर मनाता Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ जैन महाभारत के राजा ने दुर्योधन के प्राणो की रक्षा के लिए तुरन्त ही अपने हाथी हकवा दिए और दुर्योधन का रथ हाथियो की ओट में आ गया। जिस से शक्ति का प्रहार हाथियो पर ही हुआ और वे धाराशायी हो गए । हाथियो के चिंघाड मारकर धाराशायी होते ही दुर्योधन की साथी सेना मे बडा कोलाहल मचा। हाथी तक भयभीत होकर बिगड उठे और पीछे की ओर भागने लगे। सैनिक सिर पर पर रख कर भागे। यह दशा देख दुर्योधन को बडा धक्का लगा, पर वह क्षमियोचित धर्म अनुसार वही स्थिर भाव से खडा रहा और कालाग्नि समान बाणो की बर्षा आरम्भ कर दी। परन्तु रण कौशल मे प्रवीण घटोत्कच ने सभी वार काट दिए और एक ऐसा - भैरव नाद किया कि बचे खुचे कौरव सैनिक भी थर्रा उठे। यह । देख कर भीष्म पितामह ने अन्य महारथियो को दुर्योधन की सहायता के लिए तत्काल ही भेज दिया। द्रोणा, सोमदत्त, बाहीक जयद्रथ, कृपाचार्य, भूरि श्रवा , गल्य,उज्जैन के राजकुमार, वृहद्वल, । अश्वस्थामा विकर्ण, चित्रसेन, विदिशाति और उनके पीछे चलने वाले कई सहस्त्र रथी, दुर्योधन की सहायता के लिए पहुंच गए। इतनी विशाल सेना के आने पर भी मैनाक पर्वत के समान स्थिर भाव से घटोत्कच खडा रहा। उसके साथ उसके सगी साथी विद्याघर थे। फिर तो दोनो पक्षो मे भीषण सग्राम होने लगा। Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * उन्तालीसवां परिच्छेद * न। आठवां दिन । सभी जानते है कि रण क्षेत्र में उतरने पर किसी को कुशलता अनिवार्य नहीं है। वल्कि रण मे उतरने वाले अपने सिर पर कफन वाध कर जाते है । ऐसा समझा जाता है। और क्षत्रिय वीर के रण में काम आने पर वीरगति को प्राप्त हया माना जाता है। महाभारत मे तो भरत खण्ड के सभी शरवीर किसी न किसी ओर से लड़ रहे थे। एक ओर ग्यारह अक्षौहिणी सेना थी तो दूसरी ओर मात। परन्तु सात अक्षौहिणी सेना वालो पाण्डवो की स्वय की शक्ति इतनी अधिक थी कि ग्यारह अक्षौहिणो सेना वाले कौरव भी उनका सामना करते समय अपनी विजय के प्रति आश्वस्त थे, ऐसा नहीं माना जा सकता। इतनी भयानक टक्कर में कोई वीर काम प्रा जाये तो न आश्चर्य की ही बात हो सकती हैं और न रण वीरो को वीरगति को प्राप्त हए वीर पर अश्रपात करना हो सोभा देता है । फिर भी मोह हो तो ससार चक्र और आवागमन के चक्र को चलाते रहने का कारण है। गृहस्थ्य व्यक्ति मे मोह न हो तो गृहस्थ्य ही क्या रहे, उसे तो विरक्त हो जाना चाहिए। इस लिए अर्जुन को ' यम का मर्म ज्ञात होने और आत्मा के विभिन्न जन्म धारण करते -', 'हन का रहस्य मालम होने पर भी और रण मे काम प्राये वीर पर ग्रासू बहाना व्यर्थ समझते हए भी, इरावान की मृत्यु का नगर सुन कर बहुत दुःख हुया। कुछ देर के लिए वह मन्न सा या। उन के हृदय पर बड़ा प्राघात लगा। उस का मन कार कर उठा। श्री कृष्ण से कहने लगा-मधु सूदन । मन Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ जैन महाभारत पहले ही कहा था कि इस युद्ध से हमे कोई लाभ नही होने वाला। सुना आप ने मेरा लाडला बेटा इरावान ससार से चला गया।" कृाण बोले-पार्थ बेटे की मृत्यु पर इतना दुःख क्यो प्रगट करते हो। उसे तो एक न एक दिन जाना ही था। ससार मे अमर कौन है ? इरावान वीरगति को प्राप्त हुआ है। यह दुख की तो वात नही । कई कौरव भी तो तुम्हारे हाथों मारे गए।" श्री कृष्ण कौरवो की बात कह कर अर्जुन को सान्त्वना देना चाहते थे । पर अर्जुन के मन पर गहरा घाव हुआ था। कहने लगा -"गोविन्द ! कौरव भी मारे गए और इधर कुछ हमारे वीर काम आये । यह सब कुकर्म धन के लिए ही तो हो रहा है। धिक्कार है ऐसी सम्पति को जिसके लिए इस प्रकार वन्धु-बान्धवो का विनाश हो । भला यहा एकत्रित हुए अपने भाईयो और अपने पुत्रो का वध करके या कराके हमे क्या मिलेगा ?" अर्जुन के शब्दो मे युद्ध के प्रति उदासीनता थी। ऐसी बात देख कर श्री कृष्ण को शका हुई कि कही अर्जुन पुन' युद्ध से हाथ न खीच ले । वोले-"पार्थ | यह जो कुछ हो रहा है पापी दुर्योधन शकुनि और कर्ण के कुमन्त्र से ही तो। उन के षडयन्त्र से हो रहा है विवश रोकना उदासीनता से तो सम्भव नहीं। क्या द्रौपदी के अपमान की बात भूल गए। तुम्ही ने तो प्रतिज्ञा की थी कि उस सतो के साथ अन्याय करने वालो को तुम अपने गाण्डीव से दण्ड दोगे ? वीर पुरुष मोह वश युद्ध से पैर पीछे नही हटाया करते।" अर्जुन बहुत देरि तक इरावान को याद कर के दुःख प्रगट करता रहा और अन्त मे जव श्री कृष्ण ने कहा- 'धनजय । इरावान से तुम्हे कितना प्रेम है, तुम्हारे हृदय पर उनकी हत्या से कितनी चोट पहुंची है, इसका पता कल युद्ध में चलेगा। तुम्हारे गाण्डीव म छूटे बाण कल को इरावान के हत्यारो के लिए यमदूत बन जान चाहिएं । वीरो से स्नेह प्रगट करने का यही सर्वोत्तम उपाय है।" अर्जुन के रक्त मे क्रोध तथा उत्साह सचार हुआ और उसकी मुठ्ठियां वध गई। मुख मण्डल "दृढ हो गया और पाखो मे अरुणाइ दोड गई। आवेश मे आकर कहा-"गोविन्द ! कल को मैं इरावान के हत्यारो पर विजली बन कर टूट पड़ेगा। विश्वास रखिये। अपने बेटे की हत्या का बदला अवश्य लूगा।" Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवा दिन ४२९ श्री कृष्ण मन ही मन मुस्कराये। उन्होने अर्जुन के जोग को और हवा दी। इधर अर्जुन को श्री कृष्ण प्रोत्साहित कर रहे थे उधर दुर्योधन भीष्म पितामह के पास अपना रोना रो रहा था ।वह कह रहा था--- "पितामह । पाण्डवो को जैसे श्री कृष्ण का सहारा है, वैसे ही आप का आश्रय लेकर हमने पाण्डवो से युद्ध ठाना है। मेरे साथ ग्यारह अक्षौहिणी सेना है। आप जैसे कुशल सेनापति है। ससार के सर्व श्रेष्ठ योद्धा मेरे पक्ष मे है। फिर भी पाण्डवो की सात अक्षौहिणी सेना ही हमारा नाक में दम किए हुए है। कुछ तो भीम पुत्र घटोत्कच के मुकाबले पर मेरी जो पराजय हुई उसे देख कर मैं प्रात्म ग्लानि के मारे मरा जा रहा हूं। पितामह । जो कुछ हो रहा है उसे देखते हुए मैं विक्षब्ध हो उठा ह। आप कल को कुछ ऐसा को जिए कि उस चचल कुमार घटोत्कच से मैं अपना वदला ले सक । यदि वह जीवित रहा तो न जाने हमे कितनी क्षति उठानी पड़े। मेरे भाईयो का वध हो जाना, इतनी शक्ति के होते हुए, मेरे लिए डूब मरने की बात है। पितामह ! आप कदाचित न समझ पाये कि उस समय मेरे दिल पर क्या बीत रही है।" पितामह । गम्भीरता पूर्वक सारी बातें सुनते रहे और दुर्योधन ने जब अपनी चात समाप्त कर ली तो वोले--"बेटा । पाण्डव म्वय इतने बलवान है। कि तुम्हारे पास दो तीन अक्षौहिणी सेना और भी होतो तो भा सहज मे हम जीत न पाते। उनके सामने हम सव उहर पा रहे हैं यही बहुत है।" पितामह की बात सुन कर दुर्योधन जल उठा। ग्रावेश में आकर वोला--" पितामह । पाप की बातो से मुझे पाण्डवो की प्रशसा की गन्ध पा रही है। आप इस तरह की बाते करते है मानो में कुछ भी नहीं है। आप के मन में ऐसा ही था तो आपने युद्ध प्रारम्भ होने से पहले ही क्यो नही कह दिया, मै युद्ध हो न पाता। अब जब कि हम रणागण मे प्रा डटे आप ऐसी बाते कह कर मुझे हतोत्साह कर रहे हैं।" . "ग्रावेश में प्राकर कुछ नही हो सकता-पितामह शानि धूचना बोले-तुम्हें सत्य कटु नहीं लगना चाहिये। शभु की गति । एक कम प्राकना भारी भूल होगी। मेरे कहने का तो अर्थ यह Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० जैन महाभारत है कि तुम्हे अपनी क्षति की चिन्ता न करके उत्साह पूर्वक युद्ध करना चाहिए। यदि घटोत्कच से तुम पराजित हो भी गए तो ऐसी क्या बात है कि तुम आत्म ग्लानि के मारे खिन्न हो। " । "पितामह । मेरे मन को तो शाति तभी मिलेगी, जब कल को उस धूर्त का सिर काट लू गा। आप मेरी सहायता कीजिए।" दुर्योधन ने कहा। "बेटा । घटोत्कच को जाकर तुम ललकारो यह तुम्हे शोभा नहीं देता--भीष्म पितामह ने कहा-तुम राजा हो। तुम्हे युधिष्ठर भीम, अर्जुन और नकुल महदेव से युद्ध करना ही उचित है । घटोत्कच जैसो के लिए मैं, कृपाचार्य, द्रोणाचार्य, अश्वस्थामा, कृतवर्मा, भूरिश्रवा और दु शासन आदि है। और कोई नहीं तो राजा भगदत्त ही उस से युद्ध करने जाये" दुर्योधन को यह सुन कर बडा सन्तोष मिला । वह बोला"आप की ऐसी ही राय है तो फिर भगदत्त को ही घटोत्कच को लल- : कारना चाहिए। मेरे विचार से घटोत्कच उन के सामने नही ठहर ' सकता ।" "हा | मेरी भी यही राय है।" बस वात निश्चित हो गई और दुर्योधन अपने शिविर मे लौट प्राया। X X X X रणागण मे दोनो ओर की सेनाए जा खडी हुई। दोनो ओर के सेनापतियों ने अपनी अपनी सेनामो की व्यूह रचना की और अन्तिम, आवश्यक हिदायते देकर रण की तैयारी के विगुल बजाये। तमाम रणक्षेत्र शख ध्वनिया और सिंहनादो से गूज उठा। सेनापति की प्राज्ञा पाकर शूर भगदत्त सिंहनाद करता हुआ वडे वेग से शत्रुनो की ओर चला। उसे अपनो ओर पाते : देख पाण्डवो के महारथी भी ममेन. अभिमन्यु , घटोत्कच, द्रौपदी के पुत्र सहदेव , चेदिराज, वसुदान, और दशणराज क्रोध मे भर कर उसके सामने जा डटे। भगदत्त ने भी सुप्रतीक हाथी पर सवार होकर इन महारथियों पर धावा बोल दिया। तदनन्तर पाण्डवो का भगदत्त में भीषण सग्राम छिड़ गया। दोनो ओर से रण-कौशल के विचित्र Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ दिन विचित्र पराक्रम प्रदर्शित किए जाने लगे। वाणी की वर्षा से सावनभादो मे लगी मेघ वर्षा का दृश्य उपस्थित हो गया। शूर भगदत्त ने पहले भीमसेन को अपने वाणो का लक्ष्य बनाया। परन्तु भीमसेन अपने ऊपर हो रही वाण वर्षा से तनिक भी विचलित नही हुआ । उस ने बार बार सिंहनाद किए, जिन्हे सुनकर भगदत्त हाथी के परो की रक्षा करने वालो सेना के वीरो का उठता भीमसेन कुपित होकर पहले उन्ही पर टूट पडा भगदत्त के बाणो से अपनी रक्षा करना दूसरी ओर हाथी को मारना, यह क्रम उस ने इस प्रकार बांधा कि देखते ही से अधिक गज रक्षक यमलोक सिधार गए और भीमसेन भी वीका न हुआ । । T ४३१ · के लडाकू हृदय काप एक ओर के रक्षको देखते सौ का बाल यह देख भगदत्त कुपित हो गया । उसने अपने हाथी को भीमसेन के रथ की ओर बढाया । निकट था कि भगदत्त का खूनी हाथी भीमसेन के रथ को अपनी सूण्ड से तोड देता, पाण्डव वीरो ने झट से उसे चारो ओर से घेर लिया । और गजराज व भगदत्त पर वाण वर्षा श्रारम्भ कर दी। चारो ओर से घिरे होने पर भी वह किंचित मात्र भी भयभीत न हुआ । अप पूर्वक अपने हाथी को पुनः आगे की ओर चलाया । भगदत्त के श्रङ्क ुश और पैर के अंगूठे का सकेत पाकर गजराज उस समय प्रयल कालीन अग्नि के समान भयानक हो उठा और सामने पढने वाले रथो व पदाति सैनिको को रोदना आरम्भ कर दिया । पाण्डव वीरो के वाणो को परवाह किए बिना हिसक मदोमन्त हाथी छोटे हाथियो को सवारो महित घोडों को उन पर श्रारूढ सैनिको सहित और पदाति सनिको को उसके शस्त्र-अस्ती नहित कुचलता व रौद्रता चला जा रहा था। एक दिन गजराज के इस भीषण प्रहार से कोलाहल मच गया । कही हाथियो के चीत्कार कही घोड़ो के प्रार्तनाद और कही सैनिको की हा हाकार सुनाई देती थी चारो थोर प्रन्नय का मा दृश्य प्रस्तुत हो गया ! की सेना में प्रातंक छा गया गया । यह देव घटोत्कच ने न रहा गया। उस ने उस खूनी हाथी का वध करने के लिए कुपित होकर एक चम चमाता हम्रा त्रिशूल चनाया | भगवन ने घटोत्कच के के त्रिशूल को देख कर समझ लिया कि उसकी मानसा कर पाण्डवां Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ जन महाभारत गजराज मृत्यु को प्राप्त हो जायेगा। इस लिये उसने तुरन्त ही एक अर्ध चन्द्राकार बाण चला कर घटोत्कच के त्रिशूल को काट डाला। और शिखा के सामन प्रज्जवलित एक शक्ति घटोत्कच के ऊपर फैकी! अभी वह शक्ति आकाश मे ही थी कि घटोत्कच ने उछल कर उसे पकड़ लिया और दोनो घुटनो के बीच मे दबा कर तोड डाला, यह अद्भुत बात थी। भगदत्त पाखें फ़ाड फाड कर इस अद्भुत घटना को देखता रह गया। आकाश मे देख रहे देवता, गन्धर्व, और विद्याधरो को भी घटोत्कच के विचित्र पराक्रम पर आश्चर्य हुआ पाण्डवो ने इस विचित्र व आश्चर्य जनक पराक्रम को देख कर बडा ही हर्ष प्रगट किया और घटोत्कच की जय जय कार करने लगे। पाण्डव-सेना मे पुन स्फूति आ गई और भोपम सग्राम छिड गया। . भगदत्त पहले तो आश्चर्य से देखता रहा, परन्तु जब उस ने घटोत्कच के जय कार और पाण्डव वीरो के सिंह नाद- सुने तो उससे सहा नही गया खीन्न हो कर उसने पाण्डव महारथियों पर वाण बरसाना प्रारम्भ कर दिया। वह कभी भीमसेन को अपने बाणो का लक्ष्य बताता, तो कभी अभिमन्यु को, और कभी केकय राज कुमारो को भीमसेन को उस के एक बाण ने घायल कर दिया, अभिमन्यु पर तीन वाण लगे। केकय राजकुमारो को पाच बाणो से उस ने बीध दिया। एक प्राण से क्षुत्रदेव की दाहिनी भुजा काट डाली । पांच वाणो से द्रौपदी के पांचो पुत्रो को घायल किया । यह देख कर भीमसेन आग बबूला हो कर भगदत्त पर टूट पड़ा। परन्तु कुपित शूर भगदत्त ने उसके घोड़ो को मार गिराया, सारथि भी काम पाया । और अन्त मे भीमसेन को अपनी रक्षा करनी मुश्किल हो गई । परन्तु भीमसेन शत्रु के बाणो को खाकर गात होने वाला नही था । तुरन्त गदा ले कर रथ मे कूद पड़ा और भगदत के हाथों की ओर ऋध होकर बढा। भीममेन के कन्धे पर रखी गदा और उसकी लाल लाल आखे देखकर कौरव सैनिक मे कुहराम मच गया। मानो यमराज ही उनके सामने आ रहे हो । Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां दिन ४३३ दूसरी ओर हवा से बात करते हुए घोडो को श्री कृष्ण ने उस ओर बढाया। अर्जुन के गाण्डीव की टकार ने सभी का ध्यान - अपनी ओर खीच लिया। अर्जुन को कौरव सैनिको की ओर बढ़ते देखकर कौरव-महारथियो मे खलबली मच गई। और तुरन्त भीष्म, कृप, सुशर्मा आदि अर्जुन के वेग को रोकने के लिये आ गए । भगदत्त भी वीर अर्जुन की ओर वढा । राजा अम्बप्ठ ने अभिमन्यु को ललकारा, कृतवर्मा और बाल्हीक ने सात्यकि को घेर लिया। अन्य वोर अर्जुन से भिड गए और भीमसेन ने जब धृतराष्ट्र के पुत्रो को अर्जुन की ओर बढते देखा तो भगदत्त का पीछा छोडकर वह उन्ही की पोर बढ गया। अपने एक रथ को पास बुलाकर रथारूढ़ हुग्रा और वाणो की वर्षा आरम्भ कर दी। धृतराष्ट्र के पुत्रो ने भीमसेन को चारो ओर से घेर लिया और अपने अपने रण कौशल का परिचय देने लगे। पर भीमसेन के वारी को रोक पाने की क्षमता किसी मे नही थी। देखते ही देखते कई कौरव लुढक गए। अपने कई भाईयो को इस प्रकार मारे जाते देखकर अन्य कौरव भयभीत हो गए और उस यमराज रूपी भीमसेन से अपने प्राण बचाने के लिए भाग खड़े हुए। भीमसेन ने एक भयकर अट्टहास किया । आरचयजनक बात यह थी कि जिस समय भीमसेन धतराष्ट्र पुत्रो को यमलोक पहुचा रहा था, उस समय द्रोणाचार्य कौरवो की रक्षा के लिए उस पर वाण वर्षा कर रहे थे। किन्तु भीमसन एक ओर द्रोणाचार्य के वाणो को निष्फल कर रहा था, दूसरी ओर कौरवो का मार रहा था । 'अन्त मे कौरवो को भागते देखकर भीमसन ने द्रोणाचार्य को लक्ष्य करके कहा-"प्राचार्य । इन कायरो की रक्षा कर रहे थे प्राप, पीठ दिखाकर भाग जाना जिनका स्वभाव है ." द्रोणाचार्य मन ही मन लज्जित हुए। दूसरी ओर भीम, भगदत्त और कृपाचार्य ने अर्जुन को लनकारा और वे दोनो महाबली उसका रास्ता रोक कर खड हा गा। अति रथी अर्जुन ने पहले पितामह के चरणों की वन्दना वाणा द्वारा की और एक बार सिंह गर्जना करके तीनो पर टूट वाण-युद्ध प्रारम्भ हो गया। पीर उमले वाद विचित्र विनिन प्रस्ना प्रहार होने लगे।। परन्त अति ग्यो अर्जुन ने मभी अस्मा का अपने अस्यो नेव्यर्थ कर दिया और दावोगे अपनी रक्षा Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ जैन महाभारत करते करते ही कौरव महाबलियों के अंगरक्षको में से कितने ही प्रमुख वीरो को यमलोक पहुचा दिया। अभिमन्यु ने राजा अम्वष्ठ के रथ के घोडो को मार डाला . उसके सारथि को यमलोक पहुचा दिया। क्रुध होकर राजा अपने हाथ मे तलवार लेकर अभिमन्यु की ओर चला परन्त बाणो की मार से तंग होकर राजा को कृत वर्मा के रथ में शरण लेनी पड़ी। तव कही उसके प्राण बचे। धृष्ट घुम्न आदि अन्य वीर दूसरे कौरव वीरो से भिड़े थे। पदाति पदाति सैनिको से; अश्वारोही अश्वारोहियो से, गजारोही गजारोहियो से और रथी रथियो से लड रहे थे। गदाओं के वार हो रहे थे। कही तलवारे लटक रही थी। कही भाले चल रहे थे। रुधिर की धारा बह रही थी। वीरो, घोडो और हाथियो के शवों से रास्ते रुक गए थे। कही चीत्कार सूनाई देते तो कहीं सिंह नाद । मरने पर अश्रपात करने वाला कोई नही होता था और भागते पर वार करने वाला न होता। कोई अपने पराये की चिन्ता नही । करता। सभी शत्रु रूप में आये वीर को मार डालने के लिए प्रयत्नशील होते। कौरवो की सेना मे सर्वत्र भय छा गया था। अर्जुन ने भीष्म तक के मुकाबले पर हार नही मानी थी। वह वहादुरी से लडता रहा था। कौरवो के कितने ही प्रमुख वीर मारे जा चुके थे। इस लिए बार वार पश्चिम दिशा की ओर देखते थे। इतने में हो सूर्य अस्त हो गया और थके हुए कौरव सैनिको की इच्छा पर भीष्म जी ने युद्ध बन्द करने के लिए शखनाद किया। तलवारे रुक गई । भाले हाथो मे रह गए और धनुषो को डोरियाँ उतार दी गई। दोनो सेनाए अपने अपने शिविर मे चली गई। Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P rer * चालीसा परिच्छेद * ******* नौवां दिन ****** ते . आठवे दिन का युद्ध समाप्त करके दुर्योधन ने अपने दैनिक धों से निवृत होकर दुःशासन, शकुनि और कर्ण को अपने शिविर म बुलाया। वह चिन्तित था। उदास भी। सभी उसकी चिन्ता का रहस्य समझते थे। फिर भी साहस बढाना अपना कर्तव्य समझ कर शकुनि ने कहा--"युद्ध की दशा देखकर चिन्तित होने से क्या लाभ ? हमे विश्वास है कि रण मे विजय हमारी ही होगी। परन्तु सापक गुल होने के समय एक बार बडे जोरो से भडकता है, मृत्यु क पजे मे आया प्राणी पूरी शक्ति से छटपटाता है, बस यही दशा हो रही है पाण्डवो की। वरना हमारी ग्यारह अक्षौहिणी सेना के सामने उनकी शक्ति ही क्या है। तुम व्यर्थ हो चिन्तित हो रहे हो।" ___ "नही मेरी चिन्ता व्यर्थ नही है। आठ दिन के युद्ध का विश्लेषण करो तो यही परिणाम निकलेगा कि इन दिनो मे ही हमे बहूत क्षति हुई है। स्वय मेरे अपने भ्रातायो की भी वलि हुई है । पर भगदत्त आज घटोत्कच को मारने में असफल रहे। भीष्म, कृत पमा आदि मिलकर, भी अर्जुन को न रोक पाये, बल्कि उल्टे उसने - मार हा योद्धाओ को मार गिराया। ऐमो दशा मे मै चिलित न हूं नागा वुशी मनाऊ?"-दुर्योधन ने कहा । दुशासन कहने लगा-"पाण्डव युद्ध आरम्भ होने से पूर्व तो ह भयभीत भो थे, पर अब तो उनका हौस्ना ही बढ़ गया है। प्रकला प्रजुंन पितामह और द्रोणाचार्य को खदेड़ देना है।" Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत दुर्योधन ने उसका समर्थन करते हुए कहा-'आश्चर्य की : बात तो यह है कि पितामह और द्रोणाचार्य भी मिलकर एक अर्जुन का वध नहीं कर पाते।" कर्ण ने अपनी चिन्ता व्यक्त करते हुए कहा-"दुर्योधन । तुम्हे अच्छी लगे या बुरी मुझे तो ऐसा लगता है कि पितामह दिल से लड ही नही रहे। वरना कहा पितामह और कहां अर्जुन । वह तो पितामह के एक प्रहार का शिकार है। मेरा विचार तो यह कि पितामह पहले से ही पाण्डवो से स्नेह रखते हैं । वे है तो तुम्हारे पक्ष मे पर दिल उनका पाण्डवो के पक्ष मे है। तब तुम्हारी विजय हो तो कैसे ?" ___ "लेकिन, पितामह के लडने के तरीके से तो ऐसा नही लगता -शकुनि ने शका प्रकट की। कणं दृढतापूर्वक बोला-"मामा जी । आप भी कैसी बच्चो जैसी बाते करते है। भला भीष्म अपनी पूर्ण शक्ति से युद्ध करें और । पाण्डव जीवित वच जायें? वे तो महाबली हैं। महान तेजस्वी और वाल ब्रह्मचारी हैं। उनकी शक्ति का डका तो सारे समार में वज रहा है। पर यदि वे हथियार रख दे तो मैं ही पाण्डवो के लिए काफी है। अकेला ही उन दुष्टो को यमलोक न पहुचा दू तो तब कहना।" दुर्योधन के मन मे आगा का संचार हुआ, उसे कुछ हिम्मत वन्धी। पर पश्चाताप सा करता हया वोला- "कर्ण ! तुम्हार हा गौर्य के बल पर तो मेने युद्ध ठाना है। मुझे विश्वास है कि अन्त समय मे तुम ही काम प्रायोगे । पर पितामह के रहते तुम रण म उतरोगे नही और पितामह ऐसे पीछा छोडेंगे नहीं। कर ती क्या ?" शकुनि बोला-"यही बात है तो तुम पितामह से साफ से क्यो नहीं कहते ?" "हां, हां आप को पितामह से साफ साफ बात करनी चाहिए। कर्ण ने शीनता से कहा-उन से कह दो ना कि वे लडते हैं ता मन लगा कर लडं, वरना यदि उन्हे पाण्डवो मे स्नेह है और अपने स्वह के कारण वे लड नही पाने तो अस्य रन्व दें। क्यों व्यर्थ में हमार Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौवा दिन वीरो को मरवा रहे है। यह युद्ध है युद्ध, लज्जा की तो मारे जाओगे ।" ४३७ कर्ण की बात दुर्योधन की समझ मे ग्रागई और वह आवेश मे आकर पितामह के शिविर की ओर चला । X X X X पितामह दूसरे दिन के युद्ध की योजना पर विचार कर रहे थे तभी दुर्योधन पहुचा । पितामह ने उसे आव भगत से बैठाते हुए कहा- "कैसे आना हुआ ? क्या कोई विशेष बात है ?” अपना रोष प्रगट करते हुए दुर्योधन ने कहा - "पितामह ! रोज रोज की पराजय और अपने भ्राताम्रो व वीरो की हत्या से मैं तग गया हूं । आप को न जाने क्या हो गया है । आप है तो हमारी ओर | चढ जा बेटा सूली पर भला करेंगे भगवान कह कर आप ने हमे सूली पर टांग दिया और स्वयं पाण्डवो के स्नेह मे दुबले हुए जा रहे है । कुन्ती नन्दनो से इतना ही मोह है तो लोक दिखावे के लिए हमारी ओर से लडने की ही क्या आवश्यकता है ?" प्रवेश मे कहे गए दुर्योधन के वचन पितामह को तीरो की भाति चुभे । पर शांत भाव से बोले – बेटा ! बडे प्रवेश मे हो । क्रोध मे यह भी ज्ञान नही रहा कि कह क्या रहे हो ? भगवान ने कहा है कि क्रोध अनर्थो का मूल है ।" तभी तो ' "पितामह । " श्राप मेरी बातो को टालने की चेष्टा न करे - दुर्योधन ने जली कटी सुनाते हुए कहा - मैं जो कह रहा हू सच है । यह वात न होती तो क्या पाण्डव आप के होते हुए ठहर सकते थे? आज तक तो उन का पता भी न चलता। उस दिन घटोत्कच से मैं पराजित हुआ पर आप पर उसका कोई प्रभाव ही न हुआ आज अर्जुन को ही ग्राप नही रोक पाये । इस बात पर विश्वास करने के लिए भला कौन तैयार हो सकता है कि अर्जुन को रोकना आप के बस की बात नहीं। आप तो अकेले ही सारे पाण्डवो को काफी हैं। मैंने आप पर गर्व किया और आप के कारण ही मेरा प्रिय वीर कर्ण युद्ध से अलग है। वह अकेला ही पाण्डवो को मार सकता है। मैंने आपको अपनी सेनाका सेनापति बनाया तो इस लिए नही कि आप पाण्डवो के मोह मे मुझ परास्त कराते रहे । अब मैं Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ जैन महाभारत सन्तोष करू तो कैसे ?" दुर्योधन के वाग्वाणो से पितामह बहुत ही व्यथित उन्होने कोई कड़वी बात नही कही । क्योकि वे तो इस मानने वाले थे कि - त्रिकाल मिठे वचन ते बसीकरण एक मंत्र है, सुख उपजे चहुं ओर । तज दे वचन कठोर ॥ हुए. किन्तु सिद्धान्त को उसके बाद अपने को अपने वाग्वाणो से मेरे शक्ति लगा कर युद्ध कर तुम्हारा मनोरथ पूर्ण ! वे बहुत देर तक दीर्घश्वास लेते रहे। नियत्रित करते हुए उन्होने कहा - "बेटा मन को क्यो वेधते हो ? मैं तो अपनी पूरी रहा हू और तुम्हारा हित करना चाहता हूँ। करने के लिए मैं अपने प्राण तक होमने को तयार हू । पर पाण्डव मिट्टी के ढेले तो नही । वे भी तो शूरवीर है। याद करो उन के पराक्रम के दृष्टातो को । गन्धर्व जब तुम्हे पकडे लिए जा रहे थे और कर्ण ग्रादि सभी पीठ दिखा कर भाग गए थे, यही अर्जुन था जिस ने अकेले ही गधव से तुम्हे मुक्त कराया था। विराट नगर की चढाई के समय अकेले अर्जुन ने ही तो हम सब को परास्त कर दिया था । और अपनी वीरता को डीग हॉकने वाले कर्ण आदि के वस्त्र उतार कर उसने उत्तरा को भेंट स्वरूप दिए थे । यह भी तो पाण्डवो की वीरता का ही प्रमाण है। भला जिसके रक्षक त्रिखड पति वासुदेव श्री कृष्ण हो, जो कि अर्जुन के मारथी है, उसे रण मे परास्त करना खिलवाड नही है । में कितना ही चाहू उसे परास्त करना मेरे लिए असम्भव नही तो कठिन ग्रवश्य है । फिर भी विश्वाम रक्खो कि मैं हर सम्भव उपाय अपना कर तुम्हे विजयी बनाने की चेष्टा करूगा । सिवाय गिखन्डी के मैं सब पाण्डवो और उन के सहयोगियो से टक्कर लगा। शिखण्डी को मैं स्त्री मानता हू उस पर शस्त्र नही चलाऊगा यदि तुम्हे मेरे युद्ध सचालन से कोई शिकायत हो तो सेनापतित्व तुम सम्भाल लो और शिखण्डी के अतिरिक्त अन्य किसीके भी मुकाबले पर मुझे डटा दिया करो मे अन्त समय तक लड़ता रहूंगा तुम निश्चित रहो। मैं कल और भो भोषण संग्राम करके तुम्हे सन्तुष्ट करने का प्रयत्न करुगा । पर इतना श्रवय्य ही ध्यान रखना कि अब मैं बूढ़ा हो गया हू । अब वह शक्ति तुम 1 S मुझ मे नही है जो जवानी मे थी और यह भी कि तुम्हारे वाग्वाण Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौवा दिन ४३९ अर्जुन के गान्डीव से छूटे बाणो से अधिक घातक है।" दुर्योधन पितामह को उतेजित ही करना चाहता था। जव उस ने देखा कि वे दूसरे दिन भीषण युद्ध करने का वचन दे चुके तो वह कुछ शात हो गया और बोला-"पितामह ! आप को मेरी बातें कटु लगी होगी पर जब मैं पाण्डवो की तनिक सी भी विजय देखता हू तो मेरी छाती पर सांप लोट जाता है। आप यदि भीषण सग्राम करेंगे तो कल ही पाण्डवो के छक्के छूट जायेगे।" पितामह ने उसे सन्तुष्ट करने के लिए अपने वचन को दोहराया और अन्त मे वोले-"बेटा | अपने पक्ष वाले लोगो पर विश्वास रक्खो। अब समय अधिक हो गया। जाम्रो निश्चित होकर विश्राम करो।" x xxx नवें दिन पितामह ने सर्वतो भद्र व्यूह की रचना की। कृपाचार्य, कृतवर्मा, गैव्य, शकुनि, जयद्रथ सुदक्षिण और धृतराष्ट्र के पुत्र पितामह के साथ अग्रिम पक्ति मे खडे हए। द्रोणाचार्य, भूरिश्रवा, शल्य और भगदत्त व्यूह की दाहिनी ओर नियुक्त किए गए। अश्वस्थामा, सोमदत्त और अवन्ति राजकुमार अपनी विशाल सेनाओ सहित बायी ओर खडे हुए। भिगर्तराज के वीरो और उसकी सेना से रोक्षत दुर्योधन व्यूह के बीच मे था। महारथी अलम्बुष और श्रुतायु सारी व्यह वद्ध सेना के पीछे थे। इस प्रकार सनापति की आनानुसार सभी ने अपने अपने स्थान ग्रहण किए और कौरव सेना युद्ध के लिए तैयार हो गई। दूसरी ओर पाण्डवो की सेना भी व्यूह में खड़ी हुई। युवाप्ठर, भीमसेन, नकुल और सहदेव व्यूह के मुहाने पर थे। तथा वृष्ट घुम्न विराट, सात्यकि, शिखण्डो, अर्जुन, घटोत्कच, चेकितान, कुन्ता भोज, अभिमन्यु, द्रपद, युधामन्यु और केकय राजकुमारयह सभी वीर कौरवो के मुकाबले पर अपना व्यूह बनाकर खड़े हुए। सेनापति ने इन सब के स्थान निश्चित कर दिए थे। जव पाण्डवो की सेना का व्यूह तैयार हो गया तो युद्ध के लिए तैयार होने की सूचना के रूप मे शंखनाद किए गए । पाण्डवो के गखनादो को मुनकर कोरवो का रण का वाजा बजने लगा और भीष्म पितामह Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ............... जैन महाभारत ४४० के नेतृत्व मे कौरव-बीर आक्रमण हेतु आगे बढे । दोनो ओर से युद्ध प्रारम्भ हो गया। दोनो ओर के वीर एक दूसरे की ओर दौडकर युद्ध करने लगे। उस समय दोनो ओर वीरो के आगे वढने, धनूपो की टकारों और हाथियो व घोडो ने शोर की ध्वनि से पृथ्वी डगमगाने लगी। चमचमाते अस्त्र निर प्राये। गदाए टकराने लगी। हाथियो की चिघाडो का शो' गया। तभी दूसरी ओर से जगल मे से गीदडो की पावाले दिन मे गीदों की आवाजे कुछ विचित्र सी लग रही थीकुत्तो ने एक साथ मिलकर प्रार्त्तनाद किया। आकाश उल्काए पृथ्वी की अोर गिरने लगी। इन कुशुभ र दोनो सेनापो के हाथियो और घोडो की अावाजे ई और सिंहनाद, गदाग्रो के टकराने से निकलने धनुपो की टकारे बडी ही भयानक प्रतीत होने / अभिमन्यु कौरव सेना के बीच मे / बहुत चाहा कि उसे मार्ग न मिले पर वह और वह सैन्य समुद्र मे घुसते हुए अपने वाणो. सैनिको के प्राण हरने लगा। अपने बाणो से ७. हाथियो का सिर और कितने ही घोडो का शरीर . / डाला । जयद्रथ, द्रोणाचार्य, अश्वस्थामा और कृपाचार्य जैर. रथियो को चक्कर देता हया वह बडी ही चतुरता और सफा रणागण मे चक्कर लगा रहा था। अपने प्रताप से शत्रुयो को सन्त५ करते देख कर राजापो को ऐसा प्रतीत होता था मानो रण मे दो अर्जुन उतर आये है। अपने पैने वाणो से उस ने कितने ही अश्वारोही, कितने ही गजारोही और कितने ही रथी व पदादि यम लोक पहचा दिए और कुछ ही देर मे उस के सामने आई हुई कारव सेना के पैर उखड गए। कोरव सैनिक अभिमन्य से ग्रातकित होकर घोर पात नाद कर रहे थे, जिसे सुन कर दयोधन ने अलम्बप से कहा-"महावाहा अभिमन्य अपने पिता के समान ही पराक्रम दिखा रहा है इस समय तुम ही एक ऐसे वीर हो जो उस मुर्ख का सर कुचल सको। क्याकि तम सभी विद्यायो मे पारगत हो। गोत्र जाप्रो और उर्म यमलान लगे। पर अभिमन्यु और इस पर अस कर वह अपने बहतेरा Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौवा दिन पहुचा दो। हम सब भीष्म पितामह शीघ्र ही सात्यकि के समीप कि उसे घायल कर पृथ्वी V को घेरते हैं । पर दुर्योधन की आज्ञा पाकर अलम्बुष वर्षात्यकि की ध्वजा काट घोर गर्जना करता हुग्रा अभिमन्यु की ओर भी आच्छादित कर सुन कर पाण्डवो की सेना मे खलबली मच गई। कर द्रोणाचार्य अपने को सम्भाल ही न पाये। अपनी गर्जना से पाण्ड सात्यकी को मन्यु के साथ वाली सेना को कापते देख अलम्बुष पहले उसे डाला पडा । उस के भोषण आक्रमण को पाण्डव सेना सहन न कर सैनिक तितर बितर हो गए। पर ज्यो ही वह द्रौपदी पुत्रो के सार पहुंचा, उसे जबरदस्त सग्राम का सामना करना पडा । पाचो द्रौपदो पुत्र उस पर टूट पड़े और उन के बाणो से उसका कबच कट गया । वह घायल होगया और उसे एक बार ऐसा बाण लगा कि वह अचेत हो गया पर कुछ ही देर मे चेतना लौट आई और श्रमर्ष पूर्वक उसने उन पाँचो पर भीषण आक्रमण कर दिया । अब की बार आक्रमण का मुकावला द्रौपदी पुत्र न कर पाये। उन के घोड और सारथी मारे गए । निकट था कि वे भी मारे जाते, कि तत्काल अभिमन्यु वहाँ पहुच गया ! फिर तो दोनों ही एक दूसरे के लिए प्रलयाग्नि की भांति हो गए। भयकर टक्कर हुई । अभिमन्यु के मारे बाणो ने उस के नाको दम कर दिया । उसके मर्मस्थलो पर बाण घुस गए। जिस के उत्तर मे उस राक्षस ने भी भथकर बाण वर्षा की जब इस से भा कुछ न हुआ तो उस ने माया अस्त्र प्रयोग किए। एक ऐसा अस्त्र चलाया कि चारो ओर अधकार ही अधकार फैल गया । पाण्डव सनिको को न तो अभिमन्यु ही दिखाई देता था और न अपने अथवा शत्रु पक्ष के सैनिक ही सुकाई देते थे । उस भीषण अधकार को देख कर अभिमन्यु ने भास्कर नामक अस्त्र का प्रयोग किया। जिस के छूटते ही अधकार विदीर्ण हो गया । चारो ओर उजाला ही उजाला फैल गया। कुपित होकर अलम्बुष ने एक ऐसा अस्त्र चलाया कि सैनिको को चारों ओर ऊपर से पहाड़ टूटते दिखाई दिए, तभी अभिमन्यु ने एक ऐसा ग्रस्त्र चलाया कि हवा का तूफान सा चलने लगा और आखो के श्रागे से लुप्त हो गए। श्रलम्बुष ने अभिमन्यु के अस्त्र के जवाब में एक ऐसा ग्रस्त्र प्रयोग कियाकि चारो ओर ग्रगारे से बरसने तब ४४३ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत के नेतृत्व मे कौरव-बीर अाक्रमणभास्त्र से वरफ गिरानी आरम्भ करदी र माया अस्त्र व्यर्थ हो गए। तब धवरा दोनो ओर से युद्ध य ग स्थल से छोड कर भाग पडा। अभिमन्यु दूसरे की ओर दौडकर . रहा, पर उस ने पीछे घूम कर भी न देखा। वीरो के आगे वढने, आय घोष करने लगी। और अभिमन्यु उस की साथी गोर की ध्वनि । आये। गदा ' पडा। अलम्बुष के भागने से कौरव सेना मे भय छा "इस लिए वह अभिमन्यु के प्रहार को क्या सहन करती। गया । संनिक भागने लगे। चारो ओर भागो-भागो।" का दिन होने लगा। - अपनी सेना को भागते देख कर भीष्म जी अपने साथी महारथियो सहित बालक अभिमन्यु से जा भिडे । परन्तु वीर बालक ने भीष्म जी का वीरोचित स्वागत किया और हस कर बोला-'आईये दादा जी । आप का रण कौशल सर्व विख्यात है। मैं भी तो आप के पराक्रम को देखू ।"-और उस ने उस पर बाण वर्षा प्रारम्भ कर दी कुछ ही देरि मे अपने पिता व मामा सदृश पराक्रम दिखा दिया। भीष्म जी ने उस के पराक्रम का समुचित उत्तर तो दिया। पर अभिमन्यु का वे कुछ न विगाड सके। तभी अर्जुन अपने पुत्र की रक्षा के लिए कौरवो का सहार करता हुआ उधर आ निकला। भीष्म जी की रक्षा के लिए कौरव महारथी जुट गए और अर्जुन को सहायता के लिए पाण्डव पक्षोय महारथी प्रागए। कृपाचार्य ने अर्जुन पर बाण वर्षा को, जब कि अर्जुन भीम जी के वाणो को वीच ही मे तोड रहा था और कृपाचार्य के बाणों से भी अपनी रक्षा कर रहा था। सात्यकि तुरन्त ही कृपाचार्य पर टूट पड़ा। और अपने कई बाणो से उस ने कृपाचार्य को घायल कर दिया। ज्यो ही घायल होकर कृपाचार्य रथ के पिछले भाग की पोर झके सात्यकि अश्वस्थामा से जा भिड गया। पर अश्वस्थामा ने अपनी चतुरता से उस के धनुप के दो टुकडे कर दिये। परन्तु सात्यकि ने तुरन्त ही दूसरा धनुष सम्भाला और साठ बाण अश्व. स्थामा पर चलाये। जिन्होने उसकी छाती और भुजाओ पर चाट की। इस से घायल होकर अश्वस्थामा को मी आ गई और अपना ध्वजा के डण्डे का सहारा लेकर अपने रथ के पिछले भाग में वह गया। Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौवा दिन जब अश्वस्थामा सचेत हुना, शीघ्र ही सात्यकि के समीप पहुचा और जाते ही नाराच छोडा। जो कि उसे घायल कर पृथ्वी में जा घुसा। एक दूसरे बाण से उस ने सात्यकि की ध्वजा काट डाली। पर सात्यकि ने बाण वर्षा करके उसे भी आच्छादित कर दिया। अश्वस्थामा को वाणो से आच्छादित देख कर द्रोणाचार्य पुत्र रक्षा के लिये दौड पड़े और अपने पैने बाणों से सात्यकी को बोध डाला। उस ने भी बीस बाणो से आचार्य को बीध डाला। उसी समय परम प्रतापी वीर अर्जन ने ऋद्ध होकर द्रोणाचार्य पर अांक्रमण कर दिया। तीन ही बाणो से उसने आचार्य को घायल कर दिया और बडे वेग से बाण वर्षा कर के उन्हे ढक दिया। इस से आचार्य की क्रोधाग्नि एक दम भडक उठी और उन्होने ऐसी तीव्र गति से बाण चलाए कि एक बार तो अर्जुन भी बाणो के परदे मे छुप गया। दुर्योधन ने तभी सुशर्मा को द्रोणाचार्य की सहायता के लिए भजा। अपने पिता को अर्जुन के मुकाबले पर जाते देखकर सुशर्मा पुत्र को भुजाए भी फडक उठी और उसने शखनाद करके अपने पिता का अनुकरण किया। भिगत्तं राज ने और उसके पुत्र ने जाते हा अपने लोह-बाणो का भयकर प्रहार किया, परन्तु वीर अर्जुन ने उन दोनो के वाणों को अपने बाणों से व्यर्थ बना दिया और अपनी आर से इस प्रकार की बाण वर्षा की कि भिगर्त राज व उसका पुत्र आये थे प्रहार करने, स्वय उन्हे आत्म रक्षा की चिन्ता पड गई। यह देखकर पाण्डव पक्षीय सैनिक ठहाका मारकर हसने लगे। मिगत राज के रक्त ने उबाल खाया और वह प्राणो का मोह त्याग कर अजुन पर बाण वर्षा करने लगा। परन्तु वीर अर्जुन ने उस अवसर पर ऐसे रण कौशल का परिचय दिया कि देखने वाले, चाहे व पाण्डव पक्षीय थे अथवा कौरव पक्षीय, उसको मुक्त कण्ठ से प्रशसा करन लग। आकाश मे यूद्ध देख रहे देवता भो अर्जुन का हस्तालाघव देखकर "धन्य धन्य कहने लगे। भिगर्त्त राज और उसके पुत्र ने आवेश मे आकर पूनः एक भयकर आक्रमण किया, जिनसे कुपित होकर अर्जुन ने कौरव सेना के अग्र भाग मे खडे भिगर्त वीरो पर पायव्यास्य छोड़ा। जिससे आकाश मे खलबली मच गई और ऐसा प्रचण्ड पवन प्रगट हुया कि कौरव वीरों को अपने रथो पर जमे Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४४ जैन महाभारत रहना दूभर हो गया। पताकाओ की धज्जियां उडने लगीं। सैनिक हाथियो पर से नीचे लुढक गए और किसी का तरकश उड गया तो किसी का मुकुट। कोई रथ ही भूमि पर लुढ़कने लगा। यह दशा देखक र द्रोणाचार्य ने शैलास्त्र छोडा । जिससे वायु रुक गई और सब दिशाए स्वच्छ हो गई। परन्तु पाण्डु पुत्र अर्जुन के सामने टिके रहने का साहस भिगर्त राज व उसके पुत्र मे न रहा। उनसे भागते ही वना। उधर सूर्य अपनी मजिल के अर्व भाग को पूरा करके सर पर पहुंच गया। मध्यान्ह हो गया। दुर्योधन और उसके पक्ष के वीरो ने गगानन्दन भीष्म जी को पुकारा !-"पितामह ! अर्जुन के प्राणहारी वाणो से रक्षा करो वरना कौरव सेना उसके पैने वाणो से नष्ट हो जायेगी।" पितामह ने अपने तीक्ष्ण बाण सम्भाले और टूट पडे पाण्डवसेना पर। जैसे दावानल सूखे बन को नष्ट करता है, उसी प्रकार गगानन्दन के वाण पाण्डव-सेना का सहार करने लगे। सैकडो सैनिक मौत के घाट उतर गए। तव धृष्ट द्युम्न, शिखण्डी, विराट और द्र पद भीष्म जी के सामने आये और वाण वर्षा करने लगे। परन्तु पितामह ने धृष्ट घुम्न, विराट और द्रपद आदि सभी महारथियों को घायल कर दिया। वाण खाकर उनका पौरुष भयकर रूप से प्रगट हुआ और शिखण्डी जिस पर कि पितामह ने वाण नही चलाए थे, कुपित होकर उन पर टूट पड़ा। साथ दे रहे थे अन्य द्रुपद व विराट आदि महारथी। पितामह भी घायल हो गए। परन्तु वे अपने वाणो से शिखण्डी के अतिरिक्त अन्य सभी को पीडित करत रहे। उस समय भीमसेन, सात्यकि यादि भी मुकावले पर आगए। यह देख कौरव महारथी भी जा भिडे । फिर तो बड़ा ही घमासान युद्ध होने लगा। पदाति से पदाति, गजारोही से गजारोही हा और रथी से रथी भिड़ गया था। भालो, तलवारों, कटारों, गदाग्री और धनपो से वार हो रहे थे। रक्त की धाराए वह निकली थी। वीरों के शवो पर रथ दौड रहे थे। गदारो के टकराने से विजला टूटने सा शब्द होता था। दूसरी ओर अर्जुन के मुकावले पर भिगर्त राज के महारषा Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौवा दिन ४४५ आ डटे थे। द्रोणाचार्य तो अपनी पूर्ण शक्ति से युद्ध कर ही रहे थे परन्तु भिगर्त्त राज के महारथियो के एक साथ टूट पडने से युद्ध मे और गरमी आ गयी। अर्जुन ने उस समय कुछ दिव्यास्त्र प्रयोग किए जिनके सामने रुक सकना भिगर्त महारथियो क बस की बात नही थी। यदि उनकी रक्षा के लिये द्रोणाचार्य न होते तो कदाचित वे सभी यमलोक सिधार जाते । पर आचार्य की कृपा से कुछ की जान बच गई और वे रण छोडकर भाग निकले। कितने योद्धा तो अपने हाथियों, घोडो और रथो पर से कुद कर भाग गए और हाथी, घोड और रथ इधर उधर भागने लगे। कौरव-सैनिको मे चिल्लयो मच गई। यह देखकर दुर्योधन तत्काल भीष्म जी के पास पहुचा और घबरा कर बोला-"पितामह ! अर्जुन हमारी सेना को डस रहा है। महारथी भाग रहे हैं।" पितामह तुरन्त उस ओर चले । दुर्योधन ने अपनी सेना को उनके पीछे लगा दिया। परन्तु सात्यकि, द्रपद, विराट आदि भी अर्जुन की रक्षा मे लग गए । गगा नन्दन ने अपने बाणो से पाण्डवो का सेना को आच्छादित करना आरम्भ कर दिया। सात्यकि कृतवर्मा से भिड गया और अपने कुछ ही वाणो से उसे बीध डाला फिर कौरव सेना के बीच जाकर यद्धा करने लगा। राजा द्र पद ने द्रोणाचार्य को घेर लिया और स्वय उन्हे तथा उनके सारथि को बुरी तरह घायल कर दिया। भीम सेन बाल्हीक को घेरा हुआ था । उसने कुछ ही देर मे उनको बीध डाला और विजय की सूचना के रूप में बड़ा ही उत्साहपूर्ण सिंह नाद किया। चित्रसेन ने यद्यपि अभिमन्यु को घायल कर दिया तथापि वह रण मे डटा रहा और उ चित्रसेन को उसने घायल कर दिया ओर नौ बाणो से उसके चारों घोडो को मार गिराया। . प्राचार्य द्रोण, द्रुपद के बाणो से हार्दिक रूप से भी घायल हुए थे, अतं उनका क्रोध उवल पडा और वे अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगा कर युद्ध करने लगे। 5 पद का सारथि और उसके घोड उन की कोपाग्नि मे भस्म हो गये। और अत्यन्त व्याथित होकर द्रुपद को रण भूमि छोडनी पडी। दूसरी ओर भीमसेन ने राजा वाल्हीक क घोडों और सारथि को मारकर उसके रथ को भी नष्ट कर काला। इस लिये वे तुरन्त ही लक्ष्मण के रथ पर चढ गए। सात्यकि Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४६ जैन महाभारत ने कृतवर्मा को बडा परेशान किया और जब वह पीडित होकर " निष्क्रय सा हो गया तो सात्यकि सीधा पितामह भीष्म के सामने जा डटा। दोनो ओर से वाण वर्षा होने लगी। पर कुछ देरि तक दोनो ही डटे रहे। किसी को कुछ हानि न पहुची तव परेशान होकर पितामह ने एक शक्ति अस्त्र चलाया। लोहे की वह शक्ति बडी भयकर थी। सात्यकि उसकी भीषणता समझता था, उसने बड़ी हा चतुराई से पैतरा बदला और गक्ति का वार खाली गया वह भूमि में जा घुसी। सात्यकि ने तुरन्त ही अपनी ओर से एक शक्तिअस्त्र प्रयोग किया परन्तु पितामह ने उसे अपने पंने बाणो से वीच हो मे काट डाला और सात्यकि की छाती को अपने बाणो का लक्ष्य बनाया। पाण्डव पक्षीय महारथी तव सात्यकि की रक्षा के लिए पहुंच गए। और उन्होने पितामह का रथ चारो ओर से घेर लिया। बस, फिर क्या था, बडा ही घमासान युद्ध होने लगा। राजा दुर्योधन ने तब दुशासन को बुला कर कहा-"देख रहे हो दु शासन | पितामह घिर गए है। वे सकट मे है। जल्दी दौडो उनकी सहायता करो।" आदेश मिलना था कि दु शासन अपनी विशाल वाहिनी से भीष्म जी को घेर कर खडा होगया। शकुनि एक लाख सुशिक्षित घड सवारो को लेकर नकुल और सहदेव की सेना के सामने प्रा डटा था और दुर्योधन ने दस हजार सैनिक युधिष्ठिर की सेना के मोच पर भेज दिए। परन्तु पराक्रमी पाण्डवो ने रक्त की होली खेलनी प्रारम्भ कर दी। कौरव-सनिको के सिर कट कट कर भूमि में ऐसे गिर रहे थे मानो वृक्षो से पके फल गिर रहे हो। घोडो के शवों का ढेर लग गया था और चारो ओर रक्त व मास के मारे क.. सी हो गई थी। रेत लाल कीचड मे परिवतिन हो गया था। अपनी सेना को पराजित देख कर दुर्योधन को वडा दुख हुआ उसने मद्रराज से कहा - "राजन् ! वह देखिये नकुल आर सहदेव हमारी विशाल सेना को नष्ट किए डाल रहे हैं। आप चाह तो यह सेना नष्ट होने से बच सकती है। श्राप शीघ्र ही उस का रक्षा करे।" मद्रराज शल्य रथ सवार सेना लेकर युधिष्ठिर के मुकाबले Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौवां दिन पर जा डटे। उनकी सारी सेना एक साथ युधिष्ठिर पर टूट पडी। परन्तु धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने वाणो के प्रबल वेग ने शल्य की सेना को रोक दिया और उनकी छाती पर दस वाण मारे यदि मजबूत कबच न होता तो शल्य यमलोक सिधार गए होते। पर वे वच गए और दोनो ओर से भीपण युद्ध होने लगा नकुल और सहदेव भी उन के मुकाबले पर आगए। अब दिन अपने अन्तिम अध्याय मे प्रवेश करने लगा। और गगानन्दन भीष्म जी ने बडे वेग से पाण्डवो पर आक्रमण किया। ताकि वे अपने वचनानुसार पाण्डवो की सेना को नष्ट करके दुर्योधन को सन्तुष्ट कर सके। उन्हो ने वारह बाण भीम पर, नौ सायकि पर, तीन नकुल पर, सात सहदेव पर और बारह युधिष्ठिर पर वरसाये। और वडा ही भयकर सिंहनाद किया। पाण्डव वीर वडे ही पीडित हुए और कुपित होकर उन्होन पितामह पर बाण वर्मा करदी । नकुल ने बारह, सात्यकि ने तीन, धृष्टद्युम्न ने सत्तर, भीमसेन ने सात और विष्ठिर ने वारह वाणो से पितामह को घायल कर दिया । पितामह को सकट में मे आया देख द्रोणाचार्य ने इन वीरो को अपने वाणो का निशाना बनाया। और सात्यकि व भीमसेन को पांच पांच वाण लगे। तभी उन के तीन तीन वाण द्रोणाचार्य को चोट पहुंचाने में सफल हो गए। इस के बाद पाण्डवो के महारथियो ने पुन. चारो ओर से पितामह को घेर लिया। परन्तु गगानन्दन ने उस समय वडे ही अद्भुत पगत्रम में काम लिया। उनकी प्रत्यचा की बिजली की कडक के समान व्ङ्कार सुन कर सव प्राणी काप उठे। वे बाणो का तूफान लाते हा पाण्डव सेना को विध्वस करने लगे। सहस्त्रो सैनिक यम लोक निधार गए। उन के वाण जिसे लगते, उसी के कवच को चोन्ने हर गरीर मे प्रवेश कर जाते और एक चीत्कार निकलती, और सैनिक के प्राण पखेरू उड जाते । सैकड़ो रथ, हाथी और घोडे मनवान हो गए। उन के अमोघ वाणो की वर्षा से पाण्डव सेना में हर मत्र गया और उस समय तो सर्वत्र घबराहट फैल गई द्रदि,कायी, और करुद देश के चौदह हजार महारथी जो रण देने को तैयार रहते थे, परन्तु पीछे पग रखना उन के स्वभाव कही प्रतिकूल था, भीष्म जी के बाणो से अपने रथ, घोडो और.. h Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ जैन महाभारत हाथियो सहित नष्ट हो गए। पाण्डवो की सेना इस भीषण सहार से प्रार्तनाद करती हुई भागने लगी । यह देख कर श्री कृष्ण ने अपना रथ रोक कर कहा" कुन्ती नन्दन | तुम जिसकी प्रतिक्षा मे थे, वह अब समय आ गया है । इस समय तुम यदि माह ग्रस्त नही तो भौष्म जी पर भीष्ण वार करो। तुम ने विराट नगर मे सजय के सामने कहा था ना कि मैं भीष्म द्रोणादि कौरव महारथियों को उन के अनुयायिो सहित मार डालूंगा, लो अब अपना वह कथन पूर्ण कर दिखाओ तुम क्षात्र धर्म का पालन कर के अव युद्ध मे अपना पूर्व कौशल दिखलाओ । वरना तुम्हारी सेना परास्त हो जायेगी । } --- श्री कृष्ण की वात सुन कर अर्जुन ने कहा- "मधुसूदन ! जैसी आपकी आज्ञा । अच्छा आप मेरे रथ को पितामह की ओर ले चलिए । मैं अजेय भीष्म जो को अभी ही पृथ्वी पर गिरा दूगा !” अर्जुन ने यह शब्द कहे तो पर उसके शब्दो में उत्साह नहीं था उसने बेमन से कहा था। जैसे विवश होकर कह रहा है। सफेद घोडो वाले रथ को श्री कृष्ण ने भोष्म जी की ओर हाक दिया। अर्जुन को उस ओर जाते देख युधिष्ठिर की विशाल वाहिनी पुनः लौट प्राई । पर ज्यो ही अर्जुन सामने पहुंचा. भोग्म जी ने वाणों की तीव्र गति से वर्षा की और अर्जुन को सारथि तथा घोडो सहित वाणों से ढक दिया । इतने वाण चलाये कि अर्जुन रथ सहित इसी प्रकार छुप गया, जैसे बादलो मे भास्कर छप जाता है । परन्तु श्री कृष्ण तनिक भी नही घबराये वे वाण वर्षा मे ही अपने रथ को हांकते रहे। और अर्जुन को डाटते हुए वोले - "क्या कर रहे हो पार्थ ?" अर्जुन ने अपना दिव्य धनुष उठा कर पैने वाण चला कर भीष्म जी का धनुष काट कर गिरा दिया तव उन्होने तत्काल दूसरा धनुष उठाया, पर अर्जुन ने उसे भो काट डाला । इस कौशल को देख कर भोष्म जी कहने लगे - "वाह महा वाहू. श्रर्जुन ! शावाश कुन्ती नन्दन शाबाश ।" श्रीर दूसरा धनुष सम्भाल कर अर्जुन पर वाणों की । झड़ी लगादी पर उस समय श्री कृष्ण ने कुछ Mp Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौवा दिन ૪૪૨ • इस प्रकार घुमा फिरा कर घोड़े हांके, कि भीष्म जी के बाण व्यर्थ समय घोडे हाकने की अद्भुत हो गए, वास्तव मे श्री कृष्ण ने उस कला का प्रदर्शन किया । परन्तु अर्जुन की ओर से वैसा ही रण कौशल न दिखाया जाता देख श्री कृष्ण क्षुब्ध होगए। भीष्म जी इधर अर्जुन को पीड़ित कर रहे थे तो दूसरी ओर युधिष्ठर की विशाल वाहिनी के महारथियो को मार रहे थे । अर्जुन की गति मे कोई ऐसी बात नही थी कि श्रीकृष्ण को सन्तोष हो सकता । पितामह प्रलय सी मचाते जा रहे थे और अर्जुन मन्द गति से बाण चला रहा था। श्री कृष्ण से यह न देखा गया। बार बार अर्जुन को ललकारा - "क्या कर रहे हो धनजय ? तुम्हारा यह रण कौशल क्या हुआ ? " पर अर्जुन को गरमी न आयी वह उसी प्रकार लड़ता रहा । तब रोष पूर्वक कृष्ण बोले - "पार्थ ! भीष्म जी को रोको। तुम्हे क्या होगया है ?" अर्जुन की ओर से फिर भी ऐसा कुछ नही हुआ, जिससे भीष्म जी की गति रुक सकती । तब आवेश मे आकर श्री कृष्ण घोडों की रास छोड कर रथ से कूद पड़ े और सिंह के समान गरजते हुए चाबुक होकर भीष्म जी की ओर दौडे। उनके पैरों की धमक से मानो पृथ्वी फटने सी लगी उनकी आखे क्रोध के मारे लाल हो रही थी । उस समय कौरव सेना मे कोलाहाल मच गया - "अरे कृष्ण आये, कृष्ण आयें। बचाओ भीष्म जी को ।" - की प्रावाज उठने लगी । श्री कृष्ण रेशमी पिताम्बर धारण किये हुए थे। उस से उन का नील मणि के समान श्याम सुन्दर शरीर विद्युल्लता से सुशोभित श्याम मेघ के समान प्रतीत होता था । जिस प्रकार सिंह हाथो पर टूट पड़ता है, इसी प्रकार श्री कृष्ण गर्जना करते हुए भीष्म जी की ओर लपके। कमल नयन श्री कृष्ण को अपनी ओर आते देख पितामह ने प्रसन्नता प्रगट करते हुए कहा- "गोबिन्द ! श्राईये प्राईये, आपका स्वागत है । आज श्राप रण मे उतर रहे हैं अहोभाग्य ।" तभी अर्जुन ने पीछे से आकर श्री कृष्ण को अपनी भुजाओ मे भर लिया और पीछे की ओर खीचने लगा। परन्तु श्रीकृष्ण भागे हो बढते रहे, वे अर्जुन को भी घसीट ले गए। कहते जाते थे Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत . - "धनजय ! तुम पितामह का मोह करते हो। तुम प्रवश्य ही उनके हाथो पाण्डव सेना का नाश करादोगे । छोड़ दो मुझे। मैं अपने चाबुक से गंगानन्दन को यमलोक पहुंचा दूंगा। तुम कुछ नही कर सकोगे ।" 1 ४५० + तब अर्जुन दौड़ कर उनके सामने जा खड़े हुए और बोले" आप ने तो युद्ध न करने की प्रतिज्ञा की है । अपनी प्रतिज्ञा को क्यों भग करते हैं लोक आपको मिथ्यावादी कहेंगे ।" "तुम भी तो अपनी प्रतीज्ञा भंग कर रहे हो ? तुम ने भी तो पितामह का वध करने की प्रतिज्ञा की थी। पर तुम तो पितामह का आदर करते हो उन पर तुम से वाण चलाये ही नही जाते । तो क्या में पाण्डव-मेना जा सहार देखता रहू । क्यो रोकते हो मुझे । तुम जैसे व्यक्ति का सारथि बन कर मुझे मिथ्यावादी बनना न पडे गा तो क्या बनना पड़ेगा। तुम सभी की नाक कटादोगे ।" - श्री कृष्ण ने गरज कर कहा । " गोविन्द ! मेरी भूल क्षमा करदे। मैं विश्वास दिलाता हूं कि पितामह का वध करूंगा। मैं वही करूंगा जो आप चाहेगे। लौट चलिए ।" - श्रर्जुन ने ग्राग्ग्रह करते हुए कहा । - - श्री कृष्ण तो चाहते ही यह थे कि अर्जुन को प्रवेश आये । वे अपनी प्रतिज्ञा तोड़ना नही चाहते थे अर्जुन को प्रोत्साहित करके वे शान्त हो गए । जब अर्जुन ने बार बार कहा तो श्री कृष्ण लौट गए और रथ पर अपना स्थान ग्रहण करते हुए बोले - " भीष्म इस समय तुम्हारे पितामह नही वरन शत्रु हैं। वे तुम्हारा नाश कर रहे हैं। चलायो वाण " पितामह ने आवेश मे ग्राकर दोनो पर ही वाण वर्षा आरम्भ कर दी। और साथ ही दूसरे पाण्डव पक्षीय महारथियों और वीरो पर भी बाण चलाते रहे। सैकड़ो वीर पृथ्वी पर लुढ़क गए। अर्जुन ने अपनी भी बहुत की । सम्पूर्ण शक्ति लगा कर वह बाण चलाता रहा। परन्तु भीष्म जो मध्यान्ह के समय चमकते सूर्य की भाति हो रहे थे उनकी ग्रोर पाण्डव सेना देख भी नही पाती थी सैकडो वीर मारे गए। चोटी को भाति पाण्डव सैनिकों को भीष्म जी • Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौवां दिन मसलते रहे। पाण्डव-सेना में हाहाकार मचता रहा श्री कृष्ण रह रह कर अर्जुन को जोश दिलाते रहे। अर्जुन तीक्ष्ण बाण चलाया रहा। पर जैसे भयकर बाढ के आगे छोटे छोटे वाध ठहर नही पाते इसी प्रकार प्रलय मचाते भीष्म जी के प्राणहारी वाणो की बाढ के आगे अर्जुन के तीक्ष्ण बाण कुछ न कर पाते । पाण्डव-सेना में हाहाकार मच गया और सैनिक अपने प्राण लेकर भागने लगे।' अजुन के साथ भीमसेन भी आ गया और उसने भी अपने रणकौशल के सहारे भीष्म जी के तूफान को रोकने की चेष्टा की। पर पव ध्यर्थ । ऐसा लगता था मानो आज भीष्म जी पाण्डवों का वध्वस करके रहेगे। कौरवो की सेना में सिंहनाद और शखनाद हाने लगे और युधिष्ठिर के मंह पर हवाईया उड़ने लगी। श्री कृष्ण बार बार अर्जुन को ललकारते रहे। सात्यकि, धृष्टद्युम्न, विराट पार द्रुपद. नकुल व सहदेव के साथ अपनी सम्पूर्ण शक्ति से भीष्म ना के साथी महारथियो पर वार करते रहे पर पाण्डव सेना का साहस टूट रहा। धडो म सर कट कट कर गिर रहे थे। कही. थयों को विधा सूनाई देती तो कहो संनिकों के चीत्कार । रणस्थल, मे घोडो. हाथियो और मनुष्यो के शबो का ढेर लग गया। पावाप्रो के रथ शवो पर होकर निकल रहे थे। ... तभा पश्चिम दिशा मे भास्कर डूब गया और अधकार ने सपना हरा डालना प्रारम्भ कर दिया। पाण्डवो की ओर से युद्ध न्दि होने का शख बज गया और भोम जी को प्रलय का परिच्छेद न्दि करना पड़ा। कौरवों की सेना ने विजय घोष किए। पाण्डवो र लटक गए। दोनो सेनाए अपने अपने शिविरो की ओर, रल पड़ी। . Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * इक्कतालीसवां परिच्छेद * * ****** **** ** मत्यु का रहस्य 1 .. घोर तिमिर की प्रवनिका वमू-धुरा पर निश्चेष्ट पडी थी। कुरुक्षेत्र में निस्तब्धता व्याप्त थी, रण भूमि मे. कौरवो की हठ को वेदी पर बलि चढे रण योद्धाओ के शवो के अग प्रतिरंगो को गीदह तथा अन्य जगली पशु लिपट रहे थे। और कभी कभी मानव शरीरों के मांस से क्षधा पूर्ति कर के तथा मानव रचित नाश की लीला पर मुग्ध होकर गीदड मिलकर अपना हर्ष नाद करते, हयाऊ, हमाऊ मे क्षेत्र की निस्तब्धता भग हो जाती। दूसरी ओर रण क्षेत्र के किनारे अंधकार को भेदती कुछ दीप ज्योतिया व मगालों अधकारपूर्ण प्राकाश मे टिम टिमाते सितारो की बारात का दिखाई दे रहे थे। परन्तु हजारों की संख्या में खडे इन हरा कनिकट चल कर देखा जाता तो यह स्पष्ट हो जाता उन डंगे में जिनमे भरत खण्ड के परम प्रतापी यशस्वी शूरवीर विश्राम कर रहे थे, अभी तक आपस मे उन वोरो के रण कौशल की प्रशमाए पर रहे थे जिनके विरुद्ध वें सारे दिन पूरी शक्ति से लडते रहे है । प्रतएव वे डेरे सजीव थे। अपने अंक में सहस्त्रों जीवन ज्योतियों को श्रम दिए हुए थे। कुछ डेरों में दिन में घायल हए रण वीरो की चिकित्सा का जा रही थी। ऐसी प्रोपधियो के लेप किए जा रहे थे. जिनके सेवन से रायि भर में वे योद्धा दूसरे दिन युद्ध करने योग्य हा जाय", Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृत्यु का रहस्य जो दिन मे घावो के कारण अर्ध मृत तक के समान हो चुके थे। कोई कोई घायल ऐसा है कि जिसका समस्त शरीर बाणो से छलनी हुआ हैं, पर ज्यो ही गहरे घावो पर औषधियो का लेप हुआ, तत्काल ही उसकी पीडा लुप्त हो गई और निद्रा का लिगन कर वह सुखद स्वप्नो मे खो गया, कुछ घण्टो बाद जब प्राची लाल हो उठेमो, वह घायल पुणतया स्वस्थ होकर उठ बैठेगा और फिर · शत्रुना के सम्मुख उनके लिए एक समस्या बन कर खडा हो जायेगा।। थके मान्दे योद्धामो के शरीरो पर भी औषधि मिश्रित जले व तेलो का लेप कर दिया गया है, जिससे उन्हे विशेष रूप से सुख । प्राप्त हो रहा है और अब वे आपस मे हस बोल रहे है। इस समय उनकी बातें यह प्रगट करती है कि दिन भर वे जिनसे जूझते रहे, वास्तव में वे उनके श्रद्धाल भक्त अथवा प्रगमक और अपने हैं। उनके प्रति इनके हृदय मे असीम स्नेह व आदर है। यदि कोई नही जानता कि यह युद्ध के क्षेत्र मे क्यो आये है तो यह जानकर कि जिनको वे प्रशसा कर रहे है दिन भर उन्ही के प्राणो के वे भूख । रहे. उसे अमीम पाश्चर्य से, बल्कि इस बात पर उसे विश्वास ही न हो। . सेना शिविर के पास ही अश्व, हाथि अादि पशुमो के लिए विश्राम लय बने है, जिनमे सेवक लोग उनकी उत्साह तथा जम्मदारी से सेवा कर रहे है उन्हे पौष्टिक पदार्थ खिलाए जा रहे है और अभी २ उन्हे मालिश करके थकान से युक्त किया गया है । · · एक पहर रात्रि जा चुका है और कौरव तथा प ण्डव वीर अपना अपना शय्या रर पहुच गए है कुछ जो बहुत थके थे. खर्राट भरने लगे और कुछ सोने का प्रयास कर रहै है । परन्तु एक शिविर ह, पाण्डव सनिक छावनी मे जिस मे से अभी भी बातचीत की ध्वनिपा रही है। कोई कह रहा है । • "केशव । नौ दिन हो गए पर पूर्ण शक्ति मे लडने.पर , भी हम कौरव सेना को पछाड नही पाये। उलटे, हमे अपने कितने ही वीगे से हाथ धोने पडे स्वय मैं अपने पुत्र ईरावान को भी खो चुका जिस समय मुझे उस वोर को याद आती है, तो आखें बरबस बरस पड़ने को उतावली हो जाता है हृदय घटने लगता है मधु सूदन ! कभी कभी तो घोर निराशा के वादेल मेरे मानस नभ पर छा जाते Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४. जन-महाभारत है। कुछ मुझाई ही नहीं देता।" स्पष्ट है कि बोलने वाला बीर अर्जुन है, जिसकी आवाज़ कुछ थकी सी है। ऐसी कि प्रतीत हाता है मानो कोई थका मादा पधिक कह रहा हो 1. .. . - - " मधु मूदन बोले -"पार्थ! युद्ध मे जहां शौर्य, रण कौशल भुज अल और 'सैन्य बल की आवश्यकता होती हैं, 'वहीं प्रात्म विश्वास और साहम भी नितान्त परमावश्यक है। यह युद्ध जो तुम कर रहे हो समार के सभी, युद्धो मे भयानक और महान है। भरत क्षेत्र के समस्त योद्धा एक दूसरे के विरोध मे.ग्रा डटे है विश्व के , प्रमिद्ध रग कौशल प्रवीण, धूरधर धनुर्धारी, रण विद्या के आचार्य, महान वीरवर और परम-प्रतापी, अनुभवो, दिग्गज योद्धा लड रहे है। अमख्य वोगे के इस युद्ध मे विजय प्राप्त करना आसान नहीं - है फिर भी विश्वाम रक्खो कि विजय तुम्हारी हो होगी क्योकि न्याय कभी परास्त नही हमा। अन्यायी शुभ प्रकृत्तिवान विद्यावानो के प्रताप से अभी तक टिके हुए है। परन्तु जैसे मेघ. खडो से. ज्योतिवान सूर्य भी छप जाता है, इसी प्रकार अशुभ प्रकृति में कौरवो के अण्यायो के कारण उन शुभ कर्म वाले योद्धाओ का भी ह्रास हो जायगी, जो शुद्ध विचारों के लिए प्रसिद्ध हैं। धैर्य से काम लो। योग से हो मदा किसी महान वस्तं की प्राप्ति होती है। न्याय के लिए एक पुत्र तो क्या सहस्त्र पुत्रो की भी बलि दी जा मकती है।" - श्री कृष्ण की बात सुन कर अर्जुन के टूटते माहस को कुछ वन मिला, फिर भी उसे निरामा मे पूर्णतया मुक्ति न मिली।' पूछा "परन्तु केशव | मुझे ऐमा लगता है कि पितामह जैसे धुराय वान और परम प्रतापी शूरवीर के रहते हमारः विनये असम्भव है । नौ दिन में अकेले वही कोरवो की नौका की डूबने से बचाते रहते है। जब जब हमारे भयकर प्रहार से कौरव सेना का साहम टूटा, तब तव भीम जी ने प्राकर- उन्हे पुनजीवित कर डाला और उनके पने बाणो मे हमारे सैनिकों का सहार हुया इस लिए कोई युक्ति ऐसी बताई जिस से हमार रास्ते मे खडा यह मेरू पर्वत हट जाये । "" .. .... . .. __: 'प्रश्न- बड जटिल था, कुछ देर के लिए पूर्ण निस्तब्धता बा Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृत्यु का रहस्य ४५. गई। अन्त मे श्री कृष्ण बोले-"पार्थं ! ससार में कोई ऐमो समस्य नही जिसको सुलझाने का उपाय न हो। उपाय है।' "तो फिर आप बताते क्यों नहीं ?" _केशव के अधरो पल्लवो पर मुस्कान उभर आई। .. "हा, हाँ मधु सूदन ! भीष्म पितामह को रास्ते से हटाने का उपाय बताना ही होगा।" • . अर्जुन के जोर देने पर श्री कृष्ण बोले - “देखता हं भीष्म जो की उपस्थिति अब तुम्हे बुरी तरह खलने लगी है। मैं यह जानते हुए भी कि उनको रास्ते से केबल तुम्हारे ही पैने बाणो से हटाया जा सकता है और उस सहारे तक तुम्हारी दृष्टि नही जा रही, जो, तुम्हे उप्लब्ध है, चाहता ह कि ऐसे अवसर पर तुम अपने पितामह की महानता के दर्शन करो। तुम जानो और पितामह मे ही यह प्रश्न उठाओ।" ... . . . अर्जुन सोच मे पड गया। उसे यह बात अच्छी न लगौ । धर्मराज युधिष्ठिर जो अभी तक मौन धारण किए बैठे थे और स्वय 'उस प्रश्न पर, विचार कर रहे थे उत्सुकता वश इस विषय मे परामर्श लगे और कुछ देर बाद वे भीष्म पितामह के शिविर की ओर चल पड । . । अभी अभी दुर्योधन परामर्श करके भीष्म पितामह के शिविर से निकला था कि धर्मराज पहच गए। पितामह का सुख कमल खिल उठा । अभिवादन स्वीकार कर के तुरन्त पूछ बैठे- 'राजन् ! आप अपने भ्रातागो सहित सकुशल तो हैं ?" । ' "पितामह ! आपकी कृपा से अभी तक तो जीवित है.... .. "पितामह त सकुशल तो परन्त पूछ बैठे "तो क्या भविष्य के प्रति सशक हो" ___ "हाँ, पितामह । लगता है कि आप के वे बाण जो माता कुन्ती और माद्री की सन्तानो के लिए मृत्यु का सन्देश लेकर पहुंचने वाले हैं अभी समय की प्रतीक्षा कर रहे हैं।" धर्मराज ने स्वाभाविक मुद्रा मे कहा। उस समय न तो उनके Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ जैन महाभारत ने मुख पर चिन्ता के लक्षण थे और न हास्य के हो । परन्तु इन शब्दों ने वह काम किया जो कदाचित धर्मराज के बाण भी न कर पाते । बोले: - * राजन् ! ऐसी बात मुह से निकालते समय यह सोच लेते तो अच्छा था कि मैं आपको सफलता की कामना कर चुका हू और श्राप जैसे धर्मनिष्ठ व्यक्ति को परास्त करने की शक्ति स्वय देवराज इन्द्र में भी नही हैं ।" "पितामह ! जब तक प्राप है तब तक हम विजय का स्वप्न भी नही देख सकते । फिर में श्राप की कामना मे परिणत होने की आशा करू तो क्यो कर ?" ने पूछा । "यह बात मैं स्वीकार करता हू पर में अजय तो नही, न अमर ही हू " - पितामह बोले । को क्रियात्मक रूप धर्मराज युधिष्ठिर "तो फिर पितामह । आप हमे यह तो बताने की कृपा करे कि आप जो हमारे रास्ते मे मेरू पर्वत के समान प्रा खडे हुए है, किस प्रकार रास्ते से हटाए जा सकते हैं ? ग्राप को याद होगा कि ने युद्ध ग्रारम्भ होने से पूर्व मुझे इस प्रश्न को समय आने पर पूछने की प्राज्ञा दो थी ।" आप युधिष्ठिर की बात सुनकर भी पितामह के मुख पर कोई चिन्ता या विषाद के भाव न प्राये । वे उसी प्रकार बोले- "हा, मैंने कहा था । तो क्या वह समय आगया ?" . "हा, पितामह ! अव गौर नही महा जाता ।' पितामह चुप हो गए। इस चुप्पी से युधिष्ठिर के नेत्र चंचल हो उठे। उनके मुह पर चिन्ता पुत गई। पितामह कुछ क्षण मौन रहे और फिर बोले "बेटा ! मेरी मृत्यु तुम्हारे पक्ष में विद्यमान है । द्रुपद की प्रतिज्ञा याद है ना ! शिखण्डी तो है ही । में उस के ऊपर कभी ग्रस्त्र शस्त्र प्रयोग नहीं कर सकता । बस उसी की आड लेकर घनजय मुझे जीवन मुक्त कर सकता है। इस उपाय के प्रतिरिक्त और कोई उपाय ही नही है कि मुझे रण क्षेत्र से हटा सको । कोई शक्ति ऐसी नही कि मेरे हाथों के चलते रहने पर मुझे परास्त कर सके ।" । Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृत्यु का रहस्य ४५७ ___ धर्मराज युधिष्ठिर ने तुरन्त पितामह के चरणो मे सिर रख दिया, स्वार्थ पूर्ति कर देने के कारण आभार प्रदर्शन के लिए नही, वरन इतने उच्च आदर्श के कारण ही। इस के उपरान्त ही कुछ और बाते हुई। पितामह ने अर्जुन के रण कौशल की प्रशसा की और इरावान के मारे जाने पर दुख प्रकट किया। धर्मराज ने उनके कौशल की प्रशसा की और अन्त मे प्रणाम करके वापिस चले आये। Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૬૬ मुख पर चिन्ता के लक्षण थे और न हास्य के हो । परन्तु इन पैने शब्दों ने वह काम किया जो कदाचित धर्मराज के वाण भी न कर पाते 1 बोले: ' जैन महाभारत < राजन् ! ऐसी बात मुह से निकालते समय यह सोच लेते तो अच्छा था कि मैं आपको सफलता की कामना कर चुका हू और आप जैसे धर्मनिष्ठ व्यक्ति को परास्त करने की शक्ति स्वय देवराज इन्द्र में भी नही हैं ।" "पितामह ! जब तक ग्राप है तब तक हम विजय का स्वप्न भी नही देख सकते। फिर मैं आप की कामना को क्रियात्मक रूप मे परिणत होने की आशा करू तो क्यों कर ?" धर्मराज युधिष्ठिर ने पूछा । "यह बात मैं स्वीकार करता हू पर मै अमर ही हू " - पितामह बोलें । "तो फिर पितामह । आप हमे यह तो बताने की कृपा करे कि आप जो हमारे रास्ते मे मेरू पर्वत के समान श्रा खडे हुए हैं, किस प्रकार रास्ते मे हटाए जा सकते हैं ? आपको याद होगा कि आप ने युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व मुझे इस प्रश्न को समय आने पर पूछने की ग्राज्ञा दी थी।" प्रजय तो नही, न युधिष्ठिर की बात सुनकर भी पितामह के मुख पर कोई चिन्ता या विपाद के भाव न आये। वे उसी प्रकार बोले- "हा, मैंने कहा था । तो क्या वह समय आगया ?" . "हा, पितामह! अव और नही महा जाता।" पितामह चुप हो गए। इस चुप्पी से युधिष्ठिर के नेत्र चचल हो उठे। उनके मुह पर चिन्ता पुत गई। पितामह कुछ क्षण मौन रहे और फिर बोले- "बेटा ! मेरी मृत्यु तुम्हारे पक्ष मे विद्यमान है । द्रुपद की प्रतिज्ञा याद है ना ! शिखण्डी तो हैं ही। मैं उस के ऊपर कभी ग्रस्त्र शस्त्र प्रयोग नही कर सकता । बम उसी की आड़ लेकर धनजय मुझे जीवन मुक्त कर सकता है। इस उपाय के प्रतिरिक्त और कोई उपाय ही नहीं है कि मुझे रण क्षेत्र से हटा सको । कोई शक्ति ऐसी नहीं कि मेरे हाथों के चलते रहने पर मुझे परास्त कर सके।" Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृत्यु का रहस्य धर्मराज युधिष्ठिर ने तुरन्त पितामह के चरणो मे सिर रख दिया, स्वार्थ पूर्ति कर देने के कारण आभार प्रदर्शन के लिए नही, वरन इतने उच्च आदर्श के कारण ही । इस के उपरान्त ही कुछ और बाते हुई । पितामह ने अर्जुन के रण कौशल की प्रशंसा की और इरावान के मारे जाने पर दुख प्रकट किया। धर्मराज ने उनके कौशल की प्रशंसा की और अन्त मे प्रणाम करके वापिस चले आये । " ४५७ Audible Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * बैतालीसवां परिच्छेद * *** भीष्म का विछोह ** जागृत हुए रथ तैयार हा में कोलाहल । ज्यो ही पृथ्वी पर से अधकार का घूघट उठा और सूर्य मुख दृष्टिगोचर हुआ कुरुक्षेत्र के एक सिरे पर पडी छावनियो मे सोये सिंह जागृत हुए । बिगुल बज उठे। वीरो ने कमरकसी। रण की पोशाकें पहन ली गईं। रथ तैयार हो गए और हाथियो पर होदे रख दिए गए। दोनो ओर की सेनाप्रो मे कोलाहल होने लगा। घोडे हिनहिनाए और हाथियो ने चिंघाड मारनी आरम्भ कर दी। .. ... . और कुछ ही देरि मे दोनो ओर की सेनाए दूसग विगुल बजते ही छावनियों से निकल कर अस्त्र शस्त्रो से लैस होकर मैदान मे आ डटी। अश्वारोही सेना अश्वो पर, गजारोही हाथियो पर और पदाति भाले, वी. खडग और गदाए लिए आ डटी। भीष्म पितामह ने कौरव सेना को खड़ा किया और एक अभूत पूर्व गर्जना के साथ पाहवाहन क्यिा-कौरव गज के बहादुर साथियो ना दिन तक युद्ध मे डटे रह कर तुमने अपनी वीरता की धाक जमा दा । नो दिन तक जिस साहस और रण कौशल का तुमने परिचय दिया, उसके लिए तुम बधाई के पात्र हो परन्तु अव यह स्पष्ट हो गया है कि प्रत्येक २४ घण्टे बाद यूद्ध उत्तरोतर भयकर होता जा रहा है। इस लिए प्रत्येक क्षण तम मे उत्साह और वीरता की वृद्धि का आवश्यकता है। किसी एक वीर के सहारे पर ही युद्ध की हार जात निर्भर रहना ठीक नही है किसी एक के रण कौशल को युद्ध का निर्णायक समझ बैठना भी भूल है और किसी विशेष व्यक्ति के Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . भीष्म का विछोह ४५९ सहारे पर बैठे रहना भी उचित नही हैं। यह युद्ध है, कभी भी कोई भी हम से छिन सकता है। हम यहाँ प्राणो का मोह त्याग कर आये हैं, इस लिए किसी व्यक्ति के प्रति मोह भी ठीक नही । मैं तुम मे से प्रत्येक मे अपूर्व शौर्य के साथ अपना पराक्रम दिखाकर अपने हाथ से विजय पताका फहराने को आकाक्षा देखना चाहता हूं। मुझे अनुभव हो रहा है कि आज का युद्ध बडा विकट होगा। इस लिए आज पूरी शक्ति से शत्रु का मुकाबला करने की शपथ लो।" पितामह की इस चेतावनी के बाद ही कौरव राज की सेना का राष्ट्र गीत रण के बाजे बजाने लगे। संनिको ने दुर्योधन और भीष्म पितामह की जय जयकार की। सभी कौरव पक्षी महारथियो ने शख नाद किए और फिर पितामह के आदेशानुसार व्यूह रचना की जाने लगो। भीष्म पितामह ने उस दिन बड़ी कुशलता से सेना को खडा किया और व्यूह की रक्षा के लिए चारो ओर विकट गाडिया लगा दी गईं। मुख्य द्वारो पर विकट गाडियो के पीछे महारथी खडे किए गए जिनकी रक्षा के लिये सहस्त्रो सैनिको को, जिन मे गजारोही, अश्वारोही पदाति और रथी सभी प्रकार के सैनिक थे, नियुक्त किया गया । स्वय भीष्म पितामह बीच मे थे और उनकी रक्षा के लिए चुने हुए वोर अपनी अपनी सैनिक टुकड़ियों के साथ थे। यह व्यूह बिल्कुल उसी प्रकार था मानो किसी कलाकार ने एक उलझी हुई पहेली की रचना की हो, जिसमे प्रवेश करके उसके केन्द्र तक पहुचना असम्भव प्रतीत होता हो । सेना की अपूर्व व्यवस्था देख कर दुर्योधन जो सब से पीछे था, पितामह के पास पहुंचा और गदगद स्वर मे बोला-"पितामह आज आप ने जो कौशल दर्शाया है, उस से मुझे आशा हो गई कि अव आप के पराक्रम से शत्र सेना की पराजय निकट आ गई है। "मुझ अव अपने उन शब्दो पर लज्जा पा रही है. जो मैंने आप को 'उदासीन समझ कर प्रयोग किए थे । आप मुझे क्षमा करदे ।" पितामह मुस्करा उठे, बोले-"आज तुम सन्तुष्ट हो, यह जान कर मुझे अपार हर्ष होरहा है। परन्त तम यह मत भूलो कि मैने जव से रणभूमि मे पग रक्खा है अपनी शक्ति भर रण कोशल दर्शाया है । मैंने अपनी बुद्धि से सर्वोत्तम व्यूह रचनाएं की हैं परन्तु जव Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० जैन महाभारत दुर्भाग्य का तूफान आता है तो बड़े बड़े विशेषज्ञो द्वारा निर्मित शक्ति शाली वांघ भी रेत के महल की भांति ठह जाते है ।" .. 'वस पितामह ! मेरे कान यह बाते सुनना नहीं चाहते। आप कभी तो मेरी मन चाही बात भी कह दिया करे।"-दुर्योधन ने कहा । -- - . । -पितामह ने हसते हए कहा-"वेटा । विजय कौन नही चाहता पराजय की प्राशका से किसका हृदय नही कापता, फिर भी होता वही है जो होना होता है। पराजय किसी की विराट शक्ति से नही, बल्कि उसके विराट शक्ति शाली शुभ कर्मों से होती है।" दुर्योधन पितामह की बात सुन कर तिलमिला उठा, उसने बात झुटलाने का साहस न कर टालने का प्रयत्न किया, बोला"पितामह ! आप से अधिक शुभ प्रकृति व्यक्ति कौन होगा। आप युद्ध का संचालन करें, फिर आप देखे कि शत्र सेनाएं कितने पाना मे है ?" पितामह ने एक अट्टाहाम किया और तदुपरान्त अपनी सेना को सावधान करने के लिए भयकर सिंह नाद किया। घाड विचलित होगए और हाथियो ने अपनी सड ऊपर उठा कर अभिवादन किया। . . दूसरी ओर धृष्टद्युम्न ने अपनी सेना की ऐसी व्यूह रचना की जो कि पितामह के व्यूह रचना को तोड सके । युधिष्ठिर बार अर्जुन विशेष रूप से उसकी रचना में सहयोग दे रहे थे और भाम सेन अपने साथियो की पीठ ठोक रहा था। जब सारी सेना की व्यवस्था होगई तो श्री कृष्ण ने अर्जुन को सम्बोधित करते हुए कहा ~~"पार्थ! पितामह की कुशल व्यूह रचना देख रहे हो ? चारा 'ओर विकट गाड़ियां ही विकट गाडिया हैं और उन के महारथी उन के पीछे हैं, उम के वाद है सैनिक और सैनिक टकडिया भी मिला जुली हैं, पग पग पर गजारोही, अश्वारोही पदाति और रथा मैनिको से पाला पड़ेगा. तब कही जाकर पितामह का रथ मिलगा इम प्रकार पितामह का मुकावला तुम इन सहस्त्रों दीवारो काताई कर ही कर सकते हो। और इन दीवारो को तोड़ना महन नहीं है. अर्जुन ने दात समझते ही अपने सहयोगी गंधर्वो और विद्या Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीष्म का विछोह ૪૬ ! घरो को बुलाया और उनसे उस दिन के लिए वायुयानो की व्यवस्था करने को कहा। कुछ ही देर मे आकाश मार्ग से युद्ध करने की योजना पूर्ण हो गई और विकट गाड़ियो को विशेष रूप से मोर्चे पर लगा दिया गया। तभी युधिष्ठिर पहुंचे और धृष्ट द्युम्न से कुछ बाते करने के उपरान्त अर्जुन शिखन्डी को बुला कर उन्होने आदेश दिया - "आज द्रुपद राज की प्रतिज्ञा पूर्ण करने के लिए तुम्हे अर्जुन के ग्रागे रहना है। अर्जुन तुम्हारी आड लेकर भीष्म पितामह पर प्रहार करेगा और तुम स्वय अपने पराक्रम का प्रदर्शन करोगे तभी द्रपद महाराज की प्रतिज्ञा पूर्ण हो सकती है ?" शिखन्डी ने आदेश का पालन करने का वायदा करते हुए कहा - " मेरे द्वारा पिता जी की प्रतिज्ञा की पूर्ति हो, इस से बढ़ कर और मेरे लिए प्रसन्नता की क्या बात हो सकती है ?" r वह अर्जुन के आगे होगया, यह देख श्री कृष्ण का मुखमण्डल [र्ण यौवन पर आये सूर्य की भाँति तेजमान हो गया, उन्हे अपार हर्ष हुआ और वे बोले – “पार्थ ! लो श्राज तुम्हारे रास्ते की मेरु पर्वत समान दीवार गिर जायेगी। शर्त यह है कि उस समय तुम्हारे हाथो मे कम्पन्-न्- आये," - → अर्जुन ने कहा- "मधुसूदन । माता कुन्ती की कोख की सौगन्ध मैं रण क्षेत्र मे अपनी किसी भी भावना को आड़े न आने दूंगा और सम्पूर्ण शक्ति लगा कर युद्ध करूगा ।" "ज्यों ही युद्ध आरम्भ किए जाने की सूचना के लिए भीष्म पितामह ने रणभेरी बज्रवाई; कौरवो की विकट गाडियां प्राग के गोले बरसाने लगी, जिसके उत्तर मे पाण्डवो की ओर से धुआँधार गोलों की वर्षा होने लगी । सारे रण क्षेत्र मे धूनां श्रौर आग की लपटें उछलने लगी । कुछ देर तक इसी प्रकार शतध्वी चलती रही । भयकर श्रावाजों से घोडे उछलने लगे। हाथियो की चिघाडो का शोर सारे रण में छा गया | ast भयंकर वातावरण हो गया । नभी धृष्टद्युम्न के संकेत पर गधर्वो व विद्याधरी ने एक स किया और आकाश से गोले बरसाये जाने लगे। जिन के कारण ौरव सेना मे कोलाहल मच गया। बहुत से सैनिक आंख फाड़ फाड आकाश से आते अग्नि गोलो को देखते, कुछ चचल घोड Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ जैन महाभारत इधर उधर भागने लगे। कुछ पदाति नौसिखये सैनिक मल मूत्र व्यागने लगे और एक घण्टे की गोलावर्षा से ही कौरव सेना के छक्के छूट गए। कौरवो को अपनी विकट गाडियो को बन्द करना पड़ा और कौरवो की ओर से गोलो का वर्षां बन्द होते ही पाण्डवो की गोला वर्षा बन्द होगई । भीष्म पितामह ने अपनी सेना को आगे बढ़ने का आदेश दिया और पाण्डवो की सेना भी अपने सेनापति का आदेश पाकर आगे बढ़ी। दोनो सेनाए एक दूसरे के निकट पहुंचते ही. परस्पर भिड़ गई। दोनों ओर के महारथी एक दूसरे को परास्त करने के उद्धेश्य से अपने भीषण अस्त्र शस्त्रो का प्रयोग करने लगे। भोमसेन गदा लेकर गजारोही सेना पर टूट पडा। जिस हाथी की सूण्ड पर उसकी गदा पडती, वही चिंघाड मार कर भाग पडता। जिस हाथी पर दो तीन गदारो के प्रहार हो जाते वह पहाड़ की भाति ढह जाता कुछ ही देरि मे कौरवो को गजारोहो सेना मे हा हा कार मच गया। सात्यकि अपने धनुष के जौहर दिखा रहा था और भूरिश्रवा तथा भगदत अपने अपने पराक्रम का प्रदर्शन कर रहे थे। परन्तु अर्जुन का रथ अपने सामने आने वाले वीरों का सहार करता आगे बढ़ रहा था, शिखण्डो तथा अर्जुन के बाणो के सामने कौरवो की सेना का जो भी दल पडता, वही या तो मुकाबला करता करता धाराशायी हो जाता; अथवा पने बाणों की ताबन लाकर भाग खड़ा होता। अर्जुन के साथ शिखण्डी को देख कर ही कौरव वारा का साहस जवाव देजाता, कितने हो सैनिक दुरि से देख कर ही दुम दवा कर भाग पड़ते और जो सामने आते, वे मानो प्राणो के साथ खिलवाड़ करते, मत्यु दान लेने अथवा पराजय का प्रसाद लेने भर को। उस दिन परम प्रतापी धनुर्धारी वीर अर्जुन के साथ शिखन्हा के हो जाने से कौरव सेना में तहलका मच गया और इस वातावरण से लाभ उठाते हए श्री कष्ण रथ को तेजी से भीष्म पितामह का ओर बढाते जाते थे। वे भीष्म जो असंख्य वीर दलों से राक्षत थे और जो तारागण के बीच गौरव पूर्ण ढग पर दीप्तिमान चन्द्रमा के समान चमक रहे थे, जो नौ दिन के युद्ध में कौरवो की नौका । एक मात्र सफल तथा वीर केवट बने हए थे, जिन पर कौरव सना Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीष्म का विछोह को गौरव आधारित था, अर्जुन की गति को रोकने के लिए तयार बड़े थे । ज्यों ही उन्होंने सामने को सेना में भगदड़ मचती देखी, वे बोल उठे "मालूम होता है धनजय आ रहा है ।" ४६३ दुर्योधन, जो अपनी सेना में मचे कोलाहल और भगदड़ से चिन्तित हो उठा था, दौड़ कर पितामह के पास पहुंचा और घबरा कर बोला- "पितामह ! देख रहे हैं हमारी सेना का साहस टूट रहा है, भीमसेन की गदाभो की चोट के सामने हाथी नही ठहर पा रहे और दूसरी ओर न जाने क्यों पदाति, अश्वारोही और रथी सेना मे हाहाकार मच गया है। जाने कौन सहारक आ गया है। जैसे वायु के प्रबल प्रहारो व तूफान के सामने मदोन्मत हाथियो की भाति भूमते मेघ उड़ जाते हैं, हमारे रणेण्मत्त वीर महारथी तक किसी पाण्डव योद्धा के बाणों से उड़े जा रहे हैं। लगता है अर्जुन श्रा गया है । कुछ कीजिए पितामह ! वरना मैं कही का न रहूगा ।"-- दुर्योधन की घबराहट भीष्म पितामह को न सुहाई । वे भय से घृणा प्रकट करते हुए बोले- "इतनी जल्दी तुम घबरा जाते हो, क्यो ? भय किस बात का । रण क्षेत्र में श्राये हैं, हम अपने प्राणों का मोह त्याग कर, फिर चाहे कोई भी क्यों न आये लड़ना ही तो है, कापने से क्या होगा ? जाओ अपना मोर्चा सम्भालो । में " जानता हूं श्री कृष्ण रथ ला रहे हैं और अर्जुन के बाण प्रलय मचा A 1 17 पितामह की बात मे एक ललकार थी, डपट भी, दुर्योधन का मह, उतर गया, वह कांपता हुआ अपने स्थान पर चला गया और पितामह ने अपने बाण सम्भाले । अर्जुन ने सामने पहुंचते ही एक बाण पितामह के चरणों मे फेंका। पितामह ने अपने चरणों में पड़े बाण को देखा और फिर एक बाण निकाल कर धनुष पर चढाया, ज्यों ही डोरी को उन्हों ने कान तक खीच कर सामने निशाना बांधा, दृष्टि सामने गई, तो वे सन्न रह गए। अंग अंग शिथिल पड़ गया, उत्साह जाता रहा । उन्होने देखा कि सामने है शिखण्डी । वह शिखण्डी, जो ६ · M उनको मृत्यु का साधन वन कर उत्पन्न हुआ है, जिस के लिए द्रुपद तपस्या की थी । यह वही शिखण्डी है जो पुरुष होते हुए M Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेन महाभारत भी स्त्री के समान है। नपुसक का सामना है। उन के मस्तिष्क में प्रश्न उठा कि क्या उन जैसे महावलो के लिए नपुसक से लडना उचित है ? क्या अपुरुष पर शस्त्र चलाना क्षत्रियोचित धर्म के अनुसार उचित है ? नही, वे प्रतिज्ञा कर चुके है कि किसी भी नारी शरीर धारी मानव या नपुंसक पर अस्त्र नही उठायेंगे और नपुंसक से लडना उनकी मर्यादा के विरुद्ध है। । परन्तु शिखण्डी को उनके तथा अर्जुन के बीच दीवार बन कर खड़े हुए शिखण्डी की उपस्थिति से पितामह का मुख मण्डल क्रोध के मारे तपते सूर्य की भांति जलने लगा। लगता था मानो अभी अभी उनके नेत्रो से ज्वालाएं निकल पड़ेगी और शिखण्डी ज्वाला वाणों से भस्म हो जायेगा। उनकी आखे लाल अगारो की भाति दहक रही थी। उनका मुख मण्डल अगारे की नाई लाल हो उठा था। उनके हाथो की मुठ्ठियाँ बध गई। और जब. अर्जुन ने तडातड़ वाण वर्षा जारी की, तो पितामह के क्रोध का ठिकाना न रहा। यह क्रोध था शिखण्डी और- अपनी विवशता पर। किन्तु पितामह ने अपने को नियत्रित किया और गम्भीर हो गए। उनका मुख कठोर होगया। निष्क्रिय खडे देख कर शिखण्डी ने भी पितामह पर वाणों की वर्षा की और अर्जुन तो वाण चला ही रहा था। पितामह शिखण्डी के बाणों का कोई भी प्रतिरोध नहो कर रहे थे। इस से शिखण्डी का साहस और भी बड़ा और वह तीव्र गति से बाण वपा करने लगा। अर्जुन ने भी उस समय तनिक जो कडा करके पितामह के मर्मस्थलों पर वाण मारने प्रारम्भ कर दिए। उस समय पिता. मह पास खड़े दुःशासन को सम्बोधित करते हुए बोले- "देखो यह वान अर्जुन के है, जैसे केकड़ी के बच्चे ही उसके शरीर को विदाण कर डालते हैं. इसी प्रकार अर्जुन ही मेरे शरीर को बीघ रहा है। उस समय जब कि एक अोर से घडाघड वाण चल रहे थे। और दूसरी ओर पितामह निश्चल. व गांत खडे थे, बल्कि अजुन के बाणों की चोट से भी उनका मुख तनिक भी मलिन नहीं हुआ। यह दृश्य देख कर उस अवसर पर उपस्थित सभी योद्धा आश्चम चकित रह गए। कौरवो ने शोर मचाया-"पितामह ! बाण Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्य का विछोह ४६५ चलाईये ।' परन्तु वे तो समझ गए थे कि अब जीवन संध्या का समय श्रागया और कुछ ही देर बाद उसकी इहलीला समाप्त होने वाली | वेशात रहे और सहर्ष वाण सहते रहे । अर्जुन का एक एक बाण उनके किसी मर्मस्थल को वीधता । परन्तु पितामह के मुख से न ग्रह निकलती और न क्रोध या पश्चाताप की ही बात | वे खड़े मुस्करा रहे थे, बल्कि कभी कभी यही कह उठते कि - " अर्जुन ! पर मुझे गर्व है कि उसके बाण ही मुझे चिरनिद्रा सुलाने मे सफल होगे ।" दुःशासन ने चीख कर कहा - " पितामह ! कीजिए युद्ध । वरना हम कही के न रहेंगे । देखिये अर्जुन किस प्रकार आक्रमण कर रहा है । पितामह ! ' अपनो रक्षा कीजिए ।" "दु शासन । अब तो जीवन सध्या हो चुकी । अब मेरी चिन्ता छोडो | अपनी चिन्ता करो ।" - पितामह बोले । उसी समय सारे कौरवो मे खलबली मच गई। और सब मिल कर पितामह से आत्म रक्षा की प्रार्थना करने लगे । क्यो कि वे स्वयं उस भीषण बाण वर्षा को रोक सकने मे असमर्थ थे । शान्तनुनन्दन फिर भी निष्चेष्ट खड े थे बल्कि उस समय वे जिन प्रभु की आराधना कर रहे थे । उन के मुख पर लेश मात्र भी चिन्ता न थी । कमल की नाई दमकता उनका मुख मण्डल शात था । वाणो से उनका कबच छिद गया और शरीर से लाल लौहू की धाराए स्थान से बह निकली । श्रजुन के बाण उनके शरीर को वेध कर दूसरी ओर निकल जाते । तभी एक कौरव चिल्लायाअरे ! पितामह तो अर्जुन के मोह मे स्वयं अपना नाश करेंगे और हमे भी पराजित करादेगे । " इस चीख पुकार को सुन कर पितामह से न रहा गया वे अर्जुन की गति को रोकने की इच्छा से हाथ मे खडग व ढाल लेकर रथ से उतरने को हुए कि उसी समय श्री कृष्ण ने उस ओर इगित किया और अर्जुन ने मन को दृढ कर के ऐसे तीखे बाणो की मार की कि देखते ही देखते पितामह की ढाल टूटकर गिर गई और वे खडग के लिए रह गए। अब क्या था, अर्जुन ने पितामह को गिराने के लिए और भी वेग से वाण चलाए और थोड़ी सी ही देर मे पितामह का Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ जैन महाभारत सारा शरीर छिद गया। उस सयय शांत खडे पितामह को देखकर आकाश मे युद्ध देख रहे देवबानो को बड़ा आश्चर्य हुआ और वे भी पितामह की महानता की श्रद्धापूर्वक प्रशसा करने लगे। कुछ ही देरि मे पितामह का सारा शरीर बिंध गया और वे अपने रथ से लुढक पडे । जैसे पर्वत के गिरने से उस के आश्रित सभी वक्ष आदि दब जाते हैं, इसी प्रकार पितामह का गिरना हुआ कि कौरवो का मान भी ढह गया और वे सभी हा हा कार करने लगे। क्षण भर मे कोहराम मच गया। पितामह का गिरना था कि मन्द मन्द समीर छोटी छोटी वून्दै बरसाने लगी, जैसे आकाश गे उठा हो। चारों ओर शोक छा गया। कौरव रो पड़े और पाण्डव महारथियों ने विजय के शख नाद किए। पितामह गिरे तो पर उन का शरीर पृथ्वी से न लगा, बल्कि अर्जुन के उन बाणों के सहारे ऊपर ही रुका रहा, जो पितामह का शरीर भेद कर दूसरी ओर निकल गए थे उस विलक्षण शस्श्ध्या पर पडे भीष्म जी के शरीर से एक अनूठी अाभा फुट रही थी। अभी तक ' उनके मुख पर शाति विराजमान थी अभी तक उनके ब्रह्मचर्य का तेज अनूठी शोभा दशी रहा था। अभी तक उस महावली का सुर्य समान मुख मण्डल पर बला का तेज था। पितामह के गिरते ही युद्ध बन्द होगया और दोनों ओर क राजागण शूरवीर पितामह के अन्तिम दर्शन करने हेतु दौड पड। पाण्डव और कौरव पक्षी राजागण और पितामह के परिवार के तारागण चारो ओर से उन्हे घेर कर खड़े हो गए। सभी के हाथ जड गए थे। सभी अभिवादन कर रहे थे। सभी गम्भीर थे प्रार आपस में मिले हए इसी प्रकार खडे थे जैसे आकाश में दीप्तिमान चन्द्रमा के चारों ओर उन के परम शिष्य तथा प्रिय पुत्र तारागण । उस समय वे सभी पितामह के चारो ओर खडे अपनी अपनी हादक श्रद्धाजलि अर्पित कर रहे थे। तभी सभी को लक्ष्य करके पितामह वाले-"मेग सिर नीचे लटक रहा है। उसे ऊपर उठाने के लिए कोई सहारा तो लायो। कोई वीर मेरे सिर के नीचे वीरोचित तकिया लगा दे ।" Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोम का विछोह ४६७ पितामह की बात सुनते ही पाण्डव तथा कौरव पक्षीय कई राजा गण अपने अपने डेरो की ओर दौडे। नरम गदगदे तकिए लेने के लिए और कुछ ही क्षण बाद वहा अनेक रेश्मी, नरम तथा सुन्दर तकिए गए। चारो ओर से राजागण पितामह के सिरहाने अपना अपना तकिया लगाने के लिए प्राय। पर पितामह ने उन सभी के तकियो को देखकर इकार कर दिया किसी का भी तकिया स्वीकार न किया। प्रत्येक निराश होकर रह गया। तव पितामह ने अर्जुन से कहा-"बेटा ! मेरा सिर नीचे लटक रहा है, इससे मुझे बड़ा कष्ट हो रहा है। तुम ने शय्या तो दी, पर तकिया नही । कोई उचित सहारा तो सिर के नीचे लगा दो " पितामह ने यह बात उसी अर्जुन से कही, जिसने अभी अभी प्राणहारी बाणो से पितामह का शरीर बीध डाला था । जो पितामह के वध के लिए कुछ ही देर पहले बडी चतुराई से बाण वर्षा कर रहा था। एक आज्ञाकारी शिष्य तथा पौत्र की भाति अर्जुन ने आज्ञा शिरोधार्य की और अपने तरकश से तीन तेज़ बाण निकाले । आर पितामह के सिर को उनकी नोक पर रख कर उन्हे भूमि पर गहा दिया। इस प्रकार महावली भीष्म पितामह के लिए उपयुक्त f तकिया बना दिया गया । . पितामह प्रसन्न होकर बोले-"बेटा अर्जुन ! तुम्हारी तीक्ष्ण बुद्धि और वीराचित धर्म तथा कर्तव्य का तुम्हारा ज्ञान तुम्हे अपूर्व यश अरजन करने का कारण बनेगा। अन्तिम समय भी तुम मुझे अपनी वीरता की प्रशसा के लिए बाध्य कर रहे हो। मुझे तुम पर गर्व है।" राजागण ने विनयपूर्वक निवेदन किया-"पितामह ! इस समय "पका दशा देखकर हम सभी व्यथित हैं और यह सहन कर रहे हकि जब आप जैसे धर्म योद्धा के सामने भी मृत्यु हाथ पसारे खडी ९. हम जसो की क्या विसात है। एक दिन यह अबसर हमारे - सामने भी आना है। ऐसे समय कुछ उपदेश कीजिए।" "प्रिय वन्धुओ! नेरे प्रति तुम्हारी इतनी श्रद्धा होने का कारण जो है उसे मैं समझता ह। पर मैं वद्ध होने के कारण इतना महान नही कि धर्मोपदेश कर सक। और रणक्षेत्र मे किसी के राम्या पर पड़े हुए यह सम्भव भी नही, फिर भी आप लोग Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ जेन महाभारत कुछ सुनना ही चाहते हैं तो मैं बस यही कहना चाहता हूं कि - परस्पर बैर नाश का कारण बनता है। युद्ध से कभी कोई समस्या . हल-नही होती शुभ प्रकृति वाले व्यक्ति मनुष्य रूप मे भी देवता । समान ही है उन्हे परास्त करना असम्भव है। और जिन प्रभु का वताया मार्ग ही सच्चिदानन्द की प्राप्ति का एकमात्र साधन है।। अव मेरा गला सूखता जा रहा है। बेटा दुर्योधन मुझे पानी चाहिए।"~-इतना कह कर पितामह मौन हो गए। "पितामह ! अभी ही लाया" कह कर दुर्योधन वहा स पानी लेने चला। तभी पितामह की बाणी गजी।-"ठहरा ! रण क्षेत्र मे बाणो की शय्या पर पड़े व्यक्ति के लिए उस जल का आवश्यकता नही । मेरी बात तुम नही समझोगे।" दुर्योधन चक्कर में पड़ गया, वह पितामह का आशय न समझ पाया। हतप्रेम होकर बोला -"पितामह ! फिर कैसा जल चाहिए आपको ?" . . . दुर्योधन के प्रश्न का उत्तर न देकर, पितामह अर्जुन को लक्ष्य करके बोले-"हा वेटा ! तुम ही मुझे जल भी पिला सकते हो । म सारा शरीर तुम्हारे वाणो की चोटो से जल रहा है। इस उष्णता का तुम्ही शान्त कर सकते हो " । " अर्जुन ने तुरन्त गाण्डीव पर एक तीक्ष्ण बाण चढाया आर पितामह की दाहिनी बगल मे पृथ्वी पर सम्पूर्ण शक्ति लगा कर ली मारा। और वाण लगते हो विजली टूटने की सी अावाज आ पृथ्वी दहल गई और एक जल स्रोत वडे वेग से फूट नि मानो शान्तनुनन्दन भीष्म की मा गंगा के स्तन से दुग्ध धारा हो। अमृत समान मधुर तथा शोतल जल पीकर पितामह वड . हुए बारम्बार अर्जुन को आशीर्वाद दिया, पर वह भार न युद्ध मे उस की विजय की कामना का था और न का वृद्धि का, वल्कि था धर्म निष्ठ होने का। दुर्योधन को इस से वडी प्रसन्नता हुई। वह मोचन पितामह वहत हो शुभ प्रकृति के महापुरुष हैं, कही युद्ध में 3" को विजय का प्रागीर्वाद दे देते तो कौरवो का ढेर हो जाता। . उस समय सूर्य का रथ अपनी मजिल की अन्तिम अध्याय का प्रारम्भ कर रहा था, जैसे भास्कर अन्तिम सांसे ले रहे पृथ्वा र का था और न कीर्ति की Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीष्म का विछोह स्कर के गम मे डूबने 'जा रहा हो। दुर्योधनं हाथ जोड कर घुटनो के बल बैठ गया और अश्रुपात करते हुए बोला-"पितामह ! अब आप के पश्चात हमारा क्या होगा, आप तो हमे बीच मझधार मे ही छोड़े जा रहे हैं " पितामह की आवाज थक गई थी, बोले “बेटा दुर्योधन ! तुम्हें सद्बुद्धि प्राप्त हो यही मेरी कामना है . देखा तुमने ? अर्जुन ने मेरे सिर को तोकया कैसे लगाया, उस ने मेरी प्यास कैसे बुझाई? यह वात क्या और किसी से सम्भव है ? यह सब उसके पुण्य, प्रताप तथा शुभ कर्मो का फल है और है उसकी न्याय प्रियता, ताण बुद्धि तथा पराक्रम के कारण । अब भी समय है। विलम्ब न करो। इनसे सन्धि करलो।" दुर्योधन को यह वात भला कैसे पसन्द आ सकती थी, बोला तो कुछ नही पर मन ही मन कुढता रहा । तब अर्जुन ने हाथ जोड कर विनय पूर्वक पूछा-"पितामह! भाप ने जो आज्ञा दो, मैंने पूर्ण की। अब आपकी अन्तिम कामना ना हो वह भी बतादे, ताकि उसे पूर्ण करके मे अपने को धन्य समझू आप चाहे जिस ओर भी रहे, पर हमने सदा ही आप का आदर या है और आज आप को खोकर हमारे कुल को जो क्षति पहुच । ह, उसका उत्तर दायित्व मेरे ही ऊपर है। यह धष्टता मुझ से में इसका अपराधी है। कृपया मुझे क्षमा कर दीजिए।" पितामह अपने जीवन की अन्तिम घडिया गिन रहे थे, तो मा अजुन की बात सुन कर उनके अधरो पर मुस्कान खेल गई, बोले वटा । तुम ने जो कुछ किया, वह गहस्थ धर्म के प्राधीन आता मन अपना कर्तव्य निभाया । तुम युद्ध मे इस लिए तो नही आय कि अपने कुल या वश की रक्षा करे। बल्कि इस लिए आये हो अन्याय के पक्ष पातियों को, जिस प्रकार भी सम्भव हो, परास्त भार न्याय की रक्षा के लिए शत्र के प्राण हरण करने में भी न । म जानता हूं कि तुम मेरा बघ इस लिए नही करना चाहते म बुरा आदमी हूं। बल्कि मैं तुम्हारे शत्रयो का सेनापति था या वह तुम्हारे लिए उचित ही था। रही बात अन्तिम तो यह प्रश्न दुर्योधन पूछे तो अच्छा हो।" तुमने जो किया वह तुम्हारे लिए उचित Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० जेन महाभारत दुर्योधन को बात खटको, फिर भी उस समय उपस्थित लोगों की लज्जा वश वह बोला - "हां पितामह बताईये ना। मैं तो आप का सेवक हू।" "मेरी कामना यही है कि यह युद्ध मेरे साथ ही समाप्त हो जाये। बेटा ! मेरी आत्मा को सन्तुष्ट करने के लिए तुम पाण्डवो से अवश्य ही सन्धि करलो।"-पितामह ने कहा । वह वात दुर्योधन के तीर सी लगी, मन ही मन वह विलबिला उठा । परन्तु मुख से उसके कुछ भी न निकला, धीरे धीरे सभी राजा पितामह को अन्तिम प्रणाम कर के अपने अपने शिविर में चले आये। दानवीर कर्ण को जव ज्ञात हुआ कि पितामह भीष्म रणभूमि मे पड़े अन्तिम स्वाँसे ले रहे है, यह तुरन्त दर्शनार्थ दौड पड़ा। पितामह बाणो की शय्या पर लेटे थे, कर्ण पहुचा और घुटनो के वल पैरो की ओर बैठ कर उसने हाथ जोड़ दिये-"पूज्यकुलनायक ! सर्वथा निर्दोष होने पर भी सदा आप की घृणा का जो पात्र वना रहा, वही सूत पूत्र कर्ण पाप को सादर प्रणाम करता है । स्वीकार करे।" पितामह ने पाखे खोली. उन्होने देखा कि विनय पूर्वक प्रणाम करके कर्ण कुछ भयभीत सा हो गया है। यह देख उन का दिल भर आया, निकट बुलाया और बोले - "वेटा । तुम राधा पुत्र नही बल्कि कुन्ती पुत्र हो मैंने तुमसे कभी द्वं ष नही किया और न कभी घृणा ही की। वल्कि पाण्डवो के ज्येष्ठ भ्राता होते हुए भी तुम ने केवल दुर्योधन को प्रसन्न करने के लिए सदा अन्याय का पक्ष लिया, इमी से मेरा मन मलिन हो गया। वैसे तुम जैसा दानवीर आज पृथ्वी पर कोई नही, तुम्हारी दानवीरता के सामने मैं नतमस्तक तक होता है तुम्हारी वीरता, शूरता भी प्रशसनीय है, श्री कृष्ण तथा अर्जुन के अतिरिक्त कौन है जो तुम्हारा मुकाबला कर सके। । परन्तु ठण्डे दिल से सोचो कि इस भयंकर युद्ध की बुनियाद म तुम्हारा क्रोध और दुर्योधन के प्रति अति मोह व पाण्डवों के प्रति तुम्हारा वर भाव कितना है। प्राज मैं बाणो की शय्या पर पड़ा दम तोह रहा हूं, मेरी वीरोचित मृत्यु हो रही है, तुम्हारी हो कृपा में। Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीष्म का विछोह ४७१ क्योकि दुर्योधन के घमण्ड का एक मात्र कारण तुम्ही थे । . ...... अस्तु-जो कुछ हुआ सो हुआ, अब मैं चाहता हूं कि मेरे जीवन का अन्त होने के साथ साथ पाण्डवो के प्रति तुम्हारा वैर भाव समाप्त हो जाये। तुम अपने भाईयो की ओर रहो, तो कदाचित दुर्योधन सन्धि के लिए विवश हो जाये और यह भयकर युद्ध समाप्त हो जाये।" __कर्ण ने पितामह की बात सुनी तो वह वडे असमजस मे पड़ गया, फिर भी बोला- "पितामह ! मैं माता कुन्ती का पुत्र हू, यह मुझे ज्ञात हो गया है। परन्तु मैं दुर्योधन की ओर रहने को बाध्य हूं क्योंकि जब दुर्योधन ने मुझे सम्पत्ति दी थी तो मैं ने प्रतिज्ञा की थी कि उसके लिए मैं अपने प्राण तक दे दूगा। अतएव, मुझे कृपया कौरव पक्ष की ओर से लडने की आज्ञा दीजिए।" "जैसी तुम्हारी इच्छा।" पितामह बोले । कर्ण की बातो को सुन कर पितामह सदा ही उसे ललकारा करते थे, इसी लिए कर्ण समझता था कि पितामह उससे घृणा करते है । एक बार आवेश मे आकर युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व कर्ण ने प्रतिज्ञा की थी कि वह तब तक युद्ध मे नही उतरेगा जब तक भीष्म का बध नही होजाता। अब चूकि पितामह ससार से जा रहे थे, इस लिए उस ने पूछा-"पितामह आप ही कौरवो का सहारा थे। आप के बलबूते पर ही दुर्योधन ने युद्ध ठाना था, अब आप जा रहे हैं। अब तो कौरवो को बडी विपत्तिया पडेंगी कृपया बताईये कि युद्ध का सचालन कैसे हो?" "कर्ण ! तुम पर दुर्योजन को गर्व है और उसे मुझ पर सदा ही क्रोध प्राता रहा कि क्यो नही मैं, जो कर्ण के रास्ते में दीवार वनकर खडा हो गया हू, समाप्त हो जाता। तुम योग्य हो, धुरन्धर धनुर्धारी हो, तुम्हारे पास विद्याए है, अस्त्र-शस्त्र है, वल है और बुद्धि है। इसी के साथ दानवीरता के कारण तुम्हारे पास अपने पुण्य का भण्डार है। साहस पूर्वक रण मे उतरो। अव कौरवो की नोका की पतवार तुम्ही हो। कौरव सेना को अपनी सम्पति समझ कर उसकी रक्षा करो।" भीष्म पितामह की आशीष पाकर कर्ण बहुत प्रसन्न हुआ, पितामह के चरण छुए. बारम्बार प्रणाम किया और रथ पर चढकर हैं। अब तलबूते पर ही पतामह आप Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ जैन महाभारत रणक्षेत्र मे जा पहुचा। शोक विह्वल दुर्योधन ने जब कर्ण को रण. क्षेत्र मे आते देखा, उसका मन मयूर नृत्य कर उठा। उसकी आशाए पुनर्जीवत हो गई। उसका चेहरा खिल उठा। उसने एक शखनाद किया, वह पितामह की मृत्यु को भूल गया और दौडकर कर्ण को छाती से लगाकर बोला- "कर्ण ! तुम आगए तो मानो विजय मेरे शिविर में आगई। तुम हो तो मेरी सारी चिन्ताए दूर हो गई।" "मैंने कहा था ना-कर्ण बोला-कि जब पितामह नही रहेगे मै अपने प्राणो को भी तुम्हारे लिए बलि देने आ जाऊगा। मैं आ गया और अब देखो मेरा रण कौशल ।" दुर्योधन ने बार बार शख ध्वनि की। सभी कौरव चौक पडे। जब उन सभी ने तेजस्वी कर्ण को देखा, उछल पड़े और कर्ण की जय जयकार करने लगे। ज्यों ही सूर्य इवा, भीष्म रूपी भास्कर भी अस्त हो गया। अब हाड मास का एक ढाँचा था जो बाणो पर रक्खा था। तेज तथा आभा मुखमण्डल से विलीन हो गई और वह शरीर जिसको देखकर अच्छे अच्छे बीर कांप जाया करते थे, अव मिट्टी के समान सो गया। चारो ओर अधकार छा गया, और उधर जव धृतराष्ट्र ने भीष्म पितामह के बध का समाचार सुना तो उनके मन मे जत रहो आशा दीप वुझ गया, अधकार छा गया, महलों मे अधेरा हो गया। इधर दुर्योधन के शिविर मे समस्त कौरव भ्राता उपस्थित थे। सभी गम्भीर और चिन्तित दिखाई देते थे। कर्ण को भी वही बुला लिया गया। इतनी अधिक संख्या में लोग उपस्थित होने के उपरान्त भी कोई शब्द सुनाई नही दे रहा था, जिसका यह अर्थ सहज ही मे लगाया जा सकता है, कि अन्दर बैठे सभी लोग विचार मग्न हैं, किसी गम्भीर समस्या पर सोच रहे हैं। तभी शिविर को निस्तब्धता को भग करते हुए दुर्योधन बोल उठा-"तो हाँ कणं ! कुछ सोचा, किसे सेनापति नियुक्त किया जाय ? कर्ण ने कोई उत्तर न दिया। Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ भीष्म का विछोह दुर्योधन पुन. बोला - "तुम्हारे शौर्य पर मुझे बहुत विश्वास है और मुझे आशा है कि तुम सेनापति पद के लिए उपयुक्त हो । पर इस विषय में मैं तुम्हारी राय को महत्त्व दूगा क्योकि तुम मेरे ऐसे अन्तरंग मित्र हो जिसकी बात पर मैं प्रख मीचकर विश्वास कर सकता हूं तुम जो राय दोगे वह अवश्य ही मेरे हित मे होगी ।" ४७३ 1 तब कर्ण ने उत्तर दिया, बडी शात मुद्रा मे, गम्भीरता पूर्वक - "राजन् | आप के लिए मैं अपना सर्वस्व न्यौछावर कर सकता हूं। और मुझे स्वय अपनी शक्ति का विश्वास है । तो भी मेरी राय मे भीष्म पितामह के बाद हमारे पास द्रोणाचार्य और कृपाचार्य जैसे शस्त्र विद्या के गुरु विद्यमान है। हमारी सेना के वीरो की अधिकतर सख्या उनकी ही शिष्य है। वे शस्त्र विद्या मे तो प्रवीण हैं ही, व्यूह रचना और युद्ध सचालन मे भी पारगत हैं अतः इन दो महानुभावो मे से किसी एक को यह कार्य सौपा जाये तो प्रत्युत्तम होगा । मैं द्रोणाचार्य को अधिक उपयुक्त समझता हू יין सभी कौरव एक स्वर से कह उठे - "ठीक है, पितामह के बाद द्रोणाचार्य ही सेनापति बनने चाहिए ।" दुर्योधन बोला- “ द्रोणाचार्य पर मेरी भी दृष्टि गई थी, अब सबकी राय मिल गई तो बात निश्चित ही समझिए । एक प्रकार से कर्ण का प्रस्ताव सर्व सम्मति से स्वीकार हुआ । तव दुर्योधन की प्राज्ञा से दो कौरव गए और द्रोणाचार्य को वहा ले आए। दुर्योधन ने विनीत भाव से कहा- प्राचार्य जी ! जाति, कुल, शास्त्र ज्ञान, वय, बुद्धि, वीरता, कुशलता आदि सभी वातो मे आप श्रेष्ठ है । पितामह के बाद एक श्राप ही हैं जिनके सहारे पर हम गर्व कर सकते हैं । अव हमारा भाग्य आप ही के हाथो मे है । यदि आप हमारी सेना का सचालन कार्य सम्भाल ले और सेनापतित्व स्वीकार कर लें तो मुझे आशा है कि हम शत्रुओ को परास्त करने मे सफल होगे । हम सबका निर्णय यही है ।" द्रोणाचार्य गम्भीर हो गए, उनके मनोभाव जो उनके मुख मण्डल पर उभर आये थे, साफ बता रहे थे कि वे विनती तो स्वीकार कर लेंगे, परन्तु दुर्योधन की आशा पूर्ण होगी इसमे उन्हे Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ जैन महाभारत सन्देह था। मौन की स्वीकृति का लक्षण जानकर सभी कौरव विपुलनाद कर उठे। उठने से पहले द्रोणाचार्य बोले- "आप जो कार्य मुझे सौंपेंगे, वह मुझे करना ही होगा, पितामह की इच्छा पूर्ण हो जाती तो अच्छा था।" "क्षत्रिय आगे बढा पग पीछे नहीं हटाया करते-दुर्योधन वोला-युद्ध के लिए आये हैं तो तलवार की धार पर हो हमारा फैसला होगा।" कर्ण उस अवसर पर चुप न रह सका, बोला- "प्राचार्य जी! अव सन्धि की बाते उठाने से कोई लाभ नहीं हम दुर्योधन की इच्छा से रण क्षेत्र मे आये हैं और उसी की इच्छा से कार्य करना हमारा कर्तव्य है।" acte १५ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * तैतालीसवां परिच्छेद * Auttttttttta ** दुर्योधन का कुचक्र 444uuuuuut244 द्रोणाचार्य के चले जाने के उपरान्त अन्य कौरव भी उठ कर अपने अपने शिविर की ओर चल दिए, पर दुर्योधन, कर्ण और दुशासन वही बैठे रहे। वे तीनो आपस मे मन्त्रणा करने लगे। यह मन्त्रणा थी युद्ध मे विजय प्राप्त करने के लिए किसी षडयन्त्र की रूप रेखा के सम्बन्ध मे। ...तीनो घुल मिल कर आपस में बात चीत करते रहे और अन्त म दुयोधन गद गद होकर गोला-'तो बस यही ठीक है। क्यो न इसो समय चल कर द्रोणाचार्य से वचन ले लिया जाये।" ___ "हा. हा. आचार्य चाहे तो यह उनके लिए बाये हाथ का खेल है।"-कर्ण ने प्रोत्साहित करते हुए कहा । तीनो उठे और द्रोणाचार्य के शिविर की ओर चल पड़े। आचार्य सोने की तैयारी कर रहे थे कि तीनो महारथियो को सामने देख कर उन्हे पाश्चर्य हुआ। विस्मित होकर पूछा - "क्या 'कोई विशेष बात है ?" ..'हां आचार्य जी , एक विनती लेकर आये हैं।"- दुर्योधन द्रोणाचार्य समझ गए कि कोई विशेष बात है, तीनो को बैठा कर स्वय भी सावधान होकर बैठ गए और धीरे से पूछा-"क्या वात है ?" ने बैठते हुए कहा। Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत " किसी भी उपाय से आप युधिष्ठिर को जीवित ही कैद कर के हमे सौंप दें तो बहुत ही अच्छा हो । इस भयंकर युद्ध की अन्तेष्टि हो जाये इस से अधिक हम आप से कुछ अधिक नही चाहते ।" - दुर्योधन ने कहा । कर्ण स्वर मे स्वर मिला कर तुरन्त बोल पडा - "इम् कार्य को आप यदि सफलता पूर्वक पूरा करदे तो फिर काम बन जाये गा और महाराज दुर्योधन, मैं और हम सभी उनके साथी सन्तुष्ट हो जाये गे और मैं यह जानता हू कि यह काम आप के लिए कठिन नही है । · ४७६ कर्ण की बात समाप्त होते ही दुःशासन ने कहना आरम्भ कर दिया- 'आप की बात पर हम सभी विचार कर ही रहे थे कि तभा हमे शीघ्र ही युद्ध समाप्त कर देने के लिए यह उपाय सुझा है । बस ग्राप इकार न करें 1 इस काम को तो कर ही डालें । यही हमारी विजय है, जिसका श्रेय आप को हो प्राप्त होगा। बल्कि जो काम पितामह न कर पाये. वह आप के हाथो पूर्ण हो जायेगा ।" आचार्य ने तोनो की बाते सुन कर एक दृष्टि उन के मुख पर डाली और इस विनती का रहस्य उन्होने अपने अपने विचारो के अनुरूप समझा वे युद्ध मे तो अवश्य हो पाण्डु पुत्रो का मारने के पक्ष में नही थे वल्कि मन ही मन यह सघर्ष चल रहा था कि धर्मराज युधिष्ठिर को मारना धर्म तो नहीं है । वे अर्जुन को अपने वेटे से भी अधिक प्यार करते थे, जब उसे अपने विरुद्ध रण मे लडते देखने तो उन का मन चीत्कार कर उठता। वे नही चाहते थे कि इतने भले व यशस्वी पाण्डवो का वध उनके हाथों हो । अतः दुर्योधन के प्रस्ताव से वे बड़े प्रसन्न हुए । शरीक हो गए थे, पर । I बोले - ' दुर्योधन । क्या तुम्ह री यही इच्छा है कि युविष्ठिर के प्राणो को रक्षा हो जाये ? तुम्हारा कन्याण हो । वास्तव में युधिष्ठिर धर्मराज है. उसका वध होना ठीक है भी नही। और जब तुम ही ने यह समझ लिया कि धर्मराज युधिष्ठिर के प्राण न लिये जाये तो फिर युधिष्ठिर वास्तव मे प्रजात शत्रु है । लोगों ने 'शत्रु रहित' की जो उसे उपाधि दी है वह ग्राज सार्थक हुई प्रसन्नता की बात है कि तुम्हीं ने उसको सार्थक किया। जब तुम ही उसे Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्योधन का कुचक्र ४७७ बध न करके जीवित पकड लेने के पक्ष मे हो गए तो युधिष्ठिर धन्य है, जिसका कोई शत्रू नही। आज मुझे तुम्हारा प्रस्ताव सुन कर बही ही प्रसन्नता हुई " द्राणाचार्य की बाते सुन कर दुयौवन और उसके साथियो के मुह पर जो भाव आये थे, यदि उस समय प्राचार्य की दृष्टि उस ओर होती तो वे चौक जाते पर वे तो कुछ सोचने लगे थे। नीची दृष्टि किए सोचते रहे और अन्त मे गरदन उठा कर बोले-"बेटा ! मैंने जान लिया कि युधिष्ठिर को जीवित पकडवाने से तुम्हारा क्या उद्देश्य है। तुम्हारा यही उद्देश्य तो है कि युधिष्ठिर को बन्दी बना कर पाण्डवो पर अपनी विजय की धाक जमा दे और फिर युधिष्ठिर से सन्धि करके, उन्हे छोड दे। युद्ध समाप्त हो जाये और बात भी रह जाये। इसके अतिरिक्त और क्या उद्देश्य हो सकता है युधिष्ठिर को पकडने का" । यह कहते कहते द्रोणाचार्य की प्राखो से प्रसन्नता व प्रफुलता उबलने लगी, वे गद गद हो उठे और सोचने लगे-"बुद्धिमान धर्म पुत्र का जन्म सफल है. कुन्ती नन्दन बड़े भाग्य शाली है, जिण्हो ने अपने शील स्वभाव से शत्रु तक को प्रभावित कर दिया है।" वे बार बार यही सोचते और धार्मिक जीवन की विजय पर असीम सन्तोष तथा प्रसन्नता अनुभब करने लगे। फिर यह सोच कर कि अपने भ्राताओ के प्रति दुर्योधन के मन मे कुछ प्रेम तो है ही, भ्रातृ स्नेह ने जोर तो मारा ही, उन्हे वडी ही प्रसन्नता हुई। उन का मन खिल उठा। . "तम धन्य हो दुर्योधन । तमने अपने भाईयो के लिए जो कुछ सोचा वह तुम्हारी महानता का प्रतीक है "- द्रोण बोले । दुर्योधन बडी कठिनाई से अपने को नियन्त्रित कर पा रहा था, फिर भी अवसर को देख कर उसने अपने को काबू मे रक्खा, परन्तु अन्तिम बात तो उसके कलेजे मे छुरी की भाति चुभ गई। वह अपनी आवाज को सयत करते हए, परन्तु आवेश मे आकर वाला--"प्राचार्य जी! आप को तो न जाने क्या हो जाता है, कभी कभी पाण्डवो की आवश्यकता से अधिक प्रशसा करके उन्हे पृथ्वी से उठा कर आकाश पर रख देते हैं। मैं युद्ध जीतने के लिए उपाय कर रहा है और आप समझ रहे हैं कि मैं युधिष्ठिर के उच्चादर्श के Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ जैन महाभारत ४७८.... सामने नतमस्तक हो रहा हूं." द्रोणाचार्य को दुर्योधन की बात से ठेस लगी। फिर भी अपनी . स्थिति कोसमझ कर उन्होने शात भाव से पूछा-"तो फिर साफ साफ बतायो न अपना उद्देश्य ।" । "बात यह है प्राचार्य जी ! --दुर्योधन ने आचार्य जी को अपना वास्तविक उद्देश्य बताते हुए कहा-“यदि आप युधिष्ठिर को जीवित पकड लें तो वे हमारे बन्दी हो जायेंगे और इससे पाण्डवो की हार हो जायेगी। फिर युधिष्ठिर हमारे हाथ मे होगा, जो चाहे करेंगे। रण क्षेत्र से तो मामला समाप्त हो जायेगा। घर जाकर देखा जायेगा।" आचार्य सशंक हो उठे। बल्कि जो शका उनके मन मे जागृत हुई उससे सिहर उठे। विस्मित होकर पूछा-"तो क्या इरादा है तुम्हारी । साफ साफ बताओ।" उनको वाणी मे कठोरता आ गई थी कर्ण ने उसे भाप लिया, धीरे से दुर्योधन को कुहनी मारी। दुर्योधन ने सम्भलते हुए कहा"पाप गलत न समझे। हम युधिष्ठिर को बन्दी बनाकर राज्य का थोडा सा भाग पाण्डवो को देने की बात करके सन्धि कर लेगे । और फिर ... " द्रोणाचार्य एक दम प्रसन्न हो उठे-उनके भाव वदल गए । तेजी से बोले- ''और फिर भाईयो की भांति रहने लगेंगे।" "नही आचार्य जी, श्राप फिर भ्रम मे पड़ गए-दुर्योधन को कर्ण ने वहुत सकेत किया कि वह उस समय कुछ न कहे, पर वह विना कहे न रह सका-"युधिष्ठिर तो क्षत्रिय राजाओ की रीति नीति के पालन में तनिक सो भी भूल नहीं करते। हम पुनः उन्ह जुए के लिये निमन्त्रित करेंगे।" "और पुनः राज्य ले लेंगे-बीच ही मे दु.शासन बोल उठाइम युद्ध से पाण्डवो को भी यह प्रतीत हो ही गया होगा कि युद्ध के द्वारा राज्य ले लेना दुर्लभ है, अत' पूनः वे युद्ध के लिए तयार न होगे। और राज्य हमारा ही रहेगा।" "क्या मैं पूछ सकता है कि इस कुचक्र के रचने की अावश्यकता क्यो अनुभव हुई ?"-द्रोणाचार्य ने पूछा। उस समय उनका Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीष्म का विछोह ४७९ चेहरा कठोर था। परन्तु न तो दुर्योधन ने उनके चेहरे को परखा और न उनके शब्दों पर ही ध्यान दिया, वह तो अपनी बनाई योजना पर फूलकर कुप्पा हो रहा था और ऐसे कह रहा था जैसे इस सर्वोत्तम योजना के लिए उसे कोई पुरस्कार मिलने वाला है, अपने सेनापति के नाते अपने षडयन्त्र की सारी बाते उनके आगे खोलते हुए उसने कहा-''प्राचार्य जी । हम तीनो ने यह अनुभव किया है कि युद्ध की जो गति चल रही है, यदि यही गति रहे तो सम्भव है कि कौरव और पाण्डव सभी रण क्षेत्र मे पितामह भीष्म का अनुसरण कर जाए। पर कृष्ण तो फिर भी शेष रह जायेंगे। न द्रौपदी तथा कुन्ती आदि का ही बध होगा। इस लिए सम्भव है कृष्ण हमारा राजपाट कुन्ती या द्रौपदी को दे दें और इस प्रकार पाण्डवों के परिवार को ही राज श्री प्राप्त हो जाये। समस्या का अन्धकार पूर्ण पहलू यही है। इस लिए हम तीनो ने बड़ें विचार के उपरान्त इस अन्धकारपूर्ण व दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति से बच निकलने का यही मार्ग सोचा है। आज पितामह की मृत्यु के समय युधिष्ठिर के मुख पर जो भाव आ रहे थे वे इस बात के द्योतक हैं कि वह अपन कुल का नाश नही देखना चाहता और दुबारा युद्ध के लिये किसी प्रकार तैयार न होगा।" सारी बात सुनकर द्रोणाचार्य उदास हो गए। वे सोचने लगे कि व्यर्थ ही वे कल्पना करने लगे थे कि दुर्योधन का दिल अच्छा है, उसमे भ्रात स्नेह जागत हो सकता है। वे मन ही मन दुर्योधन को निन्दा करने लगे। फिर भी अपने को यह कहकर उन्होने सान्त्वना दी कि चलो, जो भी हो, युधिष्ठिर के प्राण न लेने का कोई न कोई तो बहाना मिला ही। . कर्ण ने द्रोणाचार्य के मुख पर गहरी दृष्टि डाली और पूछा"क्यो आचार्य जी क्या हमारी योजना आपको पसन्द न आई।" "आप लोगो ने समस्या के अन्धकार पूर्ण पहलू को देखकर अपनी योजना बनाई और मुझे आपकी योजना पसन्द आ सकती है तो उसके प्रकाश पूर्ण पहल को देखकर। द्रोण ने कहा। "वह क्या ?" "वह यह कि आपकी योजना से युधिष्ठिर के प्राणो की रक्षा हो जायेगी, हम धर्मराज के बध करने केपाप से बच जायेंगे और यह Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० जैन महाभारत महा युद्ध बन्द हो जायेगा ." --द्रोण ने बताया। दुर्योधन और कर्ण प्राचार्य की बात से सन्तुष्ट न हुए। पर उन्हे तो अपनी योजना मान लिए जाने से मतलब था। अत: कर्ण बोला-"जैसे भी हो आप इस योजना को सफल बनाने में तो सहयोग देंगे। इसकी सफलता का भार तो आप ही पर है।" "हां, प्राचार्य जी आपको कल युधिष्ठिर को जीवित पकड कर देना है।"---दुर्योधन ने जोर देकर कहा । 'मैं पूर्ण प्रयत्न करूंगा।" द्रोणाचार्य के कण्ठ से निकला दुर्योधन, कर्ण और दुःशासन के हर्ष का ठिकाना न रहा। उन्होने आचार्य जी को धन्यवाद दिया। रात्रि बहुत हो गई थी, आचार्य सोना चाहते थे, उन्हे जम्हाई आने लगी, यह देख तीनो वहा से उठ खडे हुए परन्तु चलते चलते दुर्योधन ने कहा - "तो मुझे आशा है कि आप युधिष्ठिर को जीवित पकडने की प्रतिज्ञा कर रहे है।" अनायास ही, न चाहते हुए भी, द्रोण के मुह से निकल गया -~-"हां, हा, तुम विश्वास रक्खो, मै युधिष्ठिर को जीवित ही पकडूगा।" __ कर्ण ने उस अवसर पर द्रोणाचार्य की प्रशसा करदी"राजन् । आप द्रोणाचार्य की बात पर किसी प्रकार की शका न करें। वे अपनी बात के बडे धनी है, जो एक बार मुह से निकल गया बस पत्थर की लकीर होगया।" कदाचित उस समय प्राचार्य को दुर्योधन तथा कर्ण की नीति का भेद खुला होगा और सम्भव है अपने वचन पर उन्हे कुछ खेद भी हुआ हो। सारे पाण्डव युधिष्ठिर के शिविर मे उपस्थित थे। आगे युद्ध चलाने की योजनाए बन रही थी और शत्रो की योजना की जानकारी की प्रतिक्षा हो रही थी, तभी एक गुप्तचर ने प्रवेश किया । - "कहो, क्या समाचार लाये ?',--यह अर्जुन का प्रश्न था । "द्रोणाचार्य, सेनापति चने गए। और कल को महाराज युधिष्ठिर को जीवित पकडने की योजना बनी है। दुर्योधन ने द्रोणा. चार्य से वचन लिया है कि वे महाराज युधिष्ठिर को जीवित पकड Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीष्म का बिछोह कर देंगे।"- गुप्तचर ने कहा। ४८१ 'पीर कुछ ?', "दुर्योधन, कर्ण, तथा दुःशासन ने यह पडयन्त्र दुर्योधन के शिविर मे बैठ कर रचा है " गुप्तचर की बाते सुन कर सारे पाण्डव चिन्ताग्नहस्त हो गए। वे द्रोणाचार्य की अद्वितीय शूरता, एवं शस्त्र विद्या के अनुपम ज्ञान से तो भलि भाति परिचित ही थे । अतः जब द्रोणाचार्य द्वारा दुर्योधन को महाराज युधिष्टिर के जीविन पकड कर उन्हें सौप दिए जाने के वचन की बात सुनी तो वे भयभीत भी हुए। अर्जुन ने 'कहा--"अब तो किसी भी प्रकार महाराज युधिष्ठिर की रक्षा का पूरा पूरा प्रवन्ध किया जाना चाहिए। कही शत्रु अपनो योजना.मे सफल हो गए तो हम कही के न रहेगे।" . - भीम ने कुछ दृढ होकर कहा-'हम सबको अपनो सेना सहित महाराज के चारो ओर रक्षार्थ रहना चाहिए।" 'नकुल तथा सहदेव ने भी भीमसेन का समर्थन किया। अर्जुन ने भी समर्थन कर दिया, पर अन्तं मे इतना और कह दिया-"कल का दिन हमे बडी सावधानी से व्यतीत करना है । शत्रु की प्रत्येक चाल को समझ कर युद्ध करना होगा। तनिक सी भी भूल हमे ढेर कर देगी।" युधिष्ठिर ने उसे सन्तुष्ट करते हुए कहा-"भयभीत होने की आवश्यकता नही । कल हम अपनी व्यूह रचना इस प्रकार करगे कि शत्रु का उद्देश्य पूर्ण हो हो न सके। हा. यदि हमे उनके पडयन्त्र का पता न चलता तो सम्भव था वे सफल हो जाते।" थोडी देर बाद सभी अपने अपने शिविर मे चले गए । और छावनियो पर निस्तब्धता छा गई। छावनियोडी देर बाद वा वे सफल हो जाते में उनके पड Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܐ ד * चौतालीसवां परिच्छेद * **** ********* passage युधिष्ठिर को जीवत पकड़ने की चेष्टा FEL. ************************ ****** द्रोणाचार्य ने जान बूझ कर श्रेपनी सेना की व्यूह रचना 'इस प्रकार की कि वे अन्य कौरव पक्षीय वीरो को एक एक पाण्डव महारथी के सामने छोडते हुए वय युधिष्ठिर को स श्रीर अर्जुन श्रादि अन्य पाण्डव वीर कौरव वोरो से उलझ कर रह जाय । युधिष्ठिर उनके पजे से आ जाये । उस दिन जव द्रोणाचार्य को कौरव वीरो ने सेनापति के रूप मे देखा तो उत्साह पूर्वक उनका अभिनन्दन किया और कर्ण को उनके साथ देखकर तो संनिक कहने लगे - " अव पाण्डवो की पराजय निश्चित है । पितामह तो पाण्डवो से स्नेह रखते थे श्रुत. वे स्वयं ही अर्जुन के सामने निष्क्रिय होकर खड े रहे और मारे गए, पर कर्ण तो किसी को रियायत नहीं करने वाला " कौरव पक्षीय वीरो ने कर्ण के स्वागत मे बार बार शख नाद किए और द्रोणाचार्य के अभिनन्दन मे जय जयकार की ! 3 1 उधर चूकिं पाण्डवो को दुर्योधन की योजना ज्ञात हो गई थी इस लिए धृष्टद्युम्न ने पाण्डव पक्षीय सेना की व्यूह रचना इस प्रकार की कि सारी सेना एक प्रकार से महाराज युधिष्टिर की रक्षा मे हो गई । c -1 , सूर्य का रथ श्राकाश पथ पर बढ़ रहा था । किरणें ताप वर्षा करने लगी और पाण्डवो के सेनापति धृष्टद्युम्न ने अपना शख् बजाया। समस्त शूरवोर सेनापति की ओर किसी प्रदेश के सुनने की इच्छा से देखने लगे । सबका ध्यान उसी ओर ग्राकपित होगया । सेनापति एक हाथी पर खड़े हो गए और समस्त सेना को Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युधिष्टिर को जीवित पडने की चेष्टा ४८३ सुनाकर बोले-“वीर सैनिको ! आज का युद्ध बाज और मैंना का युद्ध है । हमे अपने महाराज की रक्षा द्रोणाचार्य रूपी वाज से करनी है। आज हमे शत्रु को पराजित करने के लिए नही वरन अात्म रक्षा धर्मराज की रक्षा के निमित्त युद्ध करना है । हमे शत्रु के पडयन्त्र को विफल करना है। इस लिए अपने सर्वस्व की बाजी लगाकर भी महाराज को बचाना है। आप सब आज आक्रमणी न होकर धर्मराज के अग रक्षक हैं । विजय हमारी होगी।" ... समस्त सैनिको ने मिलकर धर्मराज की जय जयकार की । महारथियो ने सेनापति के आदेश का स्वागत करने के लिए शख नाद किए। हाथी चिघाड उठे और अश्वो ने हिनहिनाकर अपना उत्साह प्रदर्शित किया। दूसरी ओर. सेनापति द्रोणाचार्य के शख नाद को सुनकर कर्ण ने अपना शख बजायो और अन्य कौरव वीरो ने उसके शखं नाद के उत्तर मे अपने अपने शख बजाये ।, समस्त कौरव वीरो ने एक बार "महाराज दुर्योधन की जय' के नादो से, आकाश गुजा दिया । सेनापति के आदेश पर-रण के बाजे वज उठे और कौरव सेना व्यूह के रूप में प्रागे वढी । द्रोणाचार्य आज अपने वचन को पूर्ति के लिए मन ही मन योजना बना रहे थे । ज्यो ही दोनो सेनाओ मैं मुकाबला आरम्भ हुग्रा, विकट गाडियो ने आग उगलनी प्रारम्भ कर दी । और पदाति से पदाति, रथी से रथी, अश्वारोही से अश्वारोही तथा गजारोही से गजारोही जूझने लगे . तलवारो की खनाखन, धनुपो का टकार, हाथियो की भीषण चिंघाड, नारकाट, गदारो के परस्पर टकराव और रथो के दौड़ने से ऐसा भीषण ध्वनि हो रही थी कि पान फटे जाते थे । प्रत्येक अपनी अपनी रक्षा और अपने अपने मुकावले के शत्रु को परास्त करने के लिए प्रयत्नशील था, फिर भी पाण्डवा की सेना को महाराज यधि प्टिर का विशेष रूप से ध्यान ' जस पुप्प काँटो से रक्षित होता है, उसी प्रकार धर्मराज विराट मेना से रक्षित थे। . - युद्ध का ग्यारहवां दिन था और याज कौरवो की ओर से मुख्य योद्धा थे द्रोणाचार्य । वे जिधर से निकलते संनिको के जमघट साई को भांति साफ करते चले जाते । जसे अग्नि सूखे वन को Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ , जैन महाभारत जलाती हुई फैलती है, ठीक उसी प्रकार पाण्डव सेना को भस्म करते हए आचार्य द्रोण चक्कर काट रहे थे । उनके बाण जिस अभागे पर पड जाते, वही त्राहिमान त्राहिमान करता हुआ; यमलोक सिधार जाता। कितने ही रथ खाली हो गए, और अश्व विना सवार के अनाथ की भाति भयभीत होकर भागने लगे। ऐसा भयकर सग्राम हो रहा था कि किसी को यह भी पता नही चल रहा था कि द्रोण है किस मोरचे पर । वे विद्युत गति से अपना स्थान बदल रहे थे, कभी इस ओर तो कभी उस ओर, कभी इस दिशा मे नारकाट मचाई तो कभी दूसरी दिशा मे जहा देखो द्रोण ही द्रोण दिखाई देते। पाण्डव सैनिकों को भ्रम होने लगा कि कही-द्रोण अनेक शरीर, तो धारण करके नही आ गए। धृष्टद्युम्न जिस मोरचे पर था, उस पर कौरव महारथियों ने मिलकर आक्रमण कर दिया । और सग्नाम होने लगा और द्रोण तथा कर्ण के भीपण' रूप धारण करके पाण्डव सेना पर यमराज की भाँति टूट पड़ने से प्रोत्साहित होकर कौरव महारथो भीषणं मारकाट मचाने लगे। जैसे उन्हे आशा हो कि वें अब हुए विजयी | कुछ ही देरि बाद पाण्डवो का व्यूह उस मोरचे पर टूट गर्या और पाण्डव तथा कौरव वोरो के बीच द्वन्द्व युद्ध छिड़ गया। माया युद्ध में निपुण शकुनि सहदेव से युद्ध करने लगा भयकर दानव के रूप मे शकुनि टट कर पंडा पर सहदेव ने भी कच्चो गोलिया नही खेली थी। उसने ईंट का जवाब पत्पर से दिया । 'शकुनि के माथे पर पसीना छलक आया और सहदेव की आखें चमकने लगी । तव शकुनि को सन्देह हुआ की कही सहदेव विजय तो नहीं हो जायेगा, उसने सम्पूर्ण साहम बटोर कर आक्रमण किया और दोनो तुरी यरह जूझने लगे। इस भयकर युद्ध मे दोनो के रथ टूट गए। तवं दोनों बीर अपने अपने रथो से गदा लेकर कूद पड़े । दोनो को भारी गदाए टकराने लगी। ऐसी भीपण ध्वनि होती थी मानो दो पहाड सप्राण होकर आपस मे टकरा रहे हो। __ इधर भीमसेन और विविगति आपस में टकरा रहे थे। भोम- ) मेन ने वाणो को मार से विविंगति के रथ की ध्वजा गिरा दी, फिर सारथि को मार डाला। कुपित होकर विविंशति ने भी भीम को खूब छकाया, कुछ ही देरि मे दोनो के रथ टूट गए और वे तलवार व बाल सम्भाल कर नीचे उतर पाये । सूर्य किरणा क Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युधिष्ठिर को जीवित पकड़ने की चेष्टा ४८५ प्रभाव ने दोनो तलवारे ऐसी चमक रही थी मानो तडित रेखा प्राकाश के वजाये पृथ्वी पर पाकर बार बार चमक रही हो। शल्य ने अपने भानजे नकुल को अपने मुकाबले पर आते देख कर कहा-"नकुल , मैं नहीं चाहता कि तुम्हारा बध मेरे हाथों हो। मरना ही है तो यह सेवा किसी और कौरव वीर से जाकर लो।" नकुल को मामा की बात बडी कड़वी लगी, गरज कर बोला -"मुझे लगता है कि आप को अपने भांजे के हाथो ही अपनी मुक्ति करानी है, अब आपका मस्तिष्क फिर गया है । मरते हुए लोगो की आखे फिरती हैं पर आपका मस्तिष्क भी फिर गया है, इसलिए सिंह को ठोकर मार कर जगा रहे-हो।" शल्य को बड़ा क्रोध आया. कहा-"रे मूर्ख ! मुझे क्रोध दिला कर अपनी मृत्यु को निमन्त्रिक कर रहा है । तो ले अपने कर्मो का फल भोग।" । ~और भीषण बाण वर्षा करदी। बाणो से अधिक चोट लगी नकुल को मामा के शब्दो . उसमे दांत भीच कर ऐसे तीक्ष्ण बाण चनाए कि मामा के रथ की ध्वजा धुल मे आ रही, रथ की छतरी घोड़ो के पैरो मे लुढकने लगा और शल्य का रथ टूट फूट गया । मामा वडे चिन्तित हुए । वे हतप्रभ होकर कुछ करने की सोच ही रहे थ, कि नकुल ने विजय का शख वजा दिया, शत्य हाथ मलत रह गए। कृपाचार्य का पाला पड़ा धृष्टकेतु से । दानो मे भीषण युद्ध हुपा, पर कृपाचार्य के सामने धप्टकेतु अधिक देरि न ठहर सका। पायाकार कृतवर्मा तो दो भयानक जगलो पशयो को भाति एक दूसरे पर झपट रहे थे । और उधर विराट राज कर्ण से भिड़े थे। कर्ण को तो अपने पौरुष व रणकौशल पर अभिमान था, पर विराट राज के मुकाबले पर आकर उसे ज्ञात हो गया कि किसी वीर योद्धा का रण भूमि मे आकर परास्त करना हसी खेल नहीं है। अभिमन्यु अर्जुन का ही दूसरा रूप है। वह जिधर जाता है, अजुन को भाति अपना पराक्रम दिखा कर शत्रुओ को चकित कर देता है। बल्कि यद्ध के दस दिन से हो उसका इतना दव दवा वठ गया है कि जब कौरव सैनिक उस बालक के रथ को प्राते देखत है तो चीख चीख कर कहने लगते हैं-"अरे अर्जुन पुत्र अभिमन्यु या Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ जैन महाभारत । गया. सावधान. सावधान!" जब ऐसी आवाजें अर्जुन के कान मे पड़ती हैं तो उसे अपने पुत्र पर गर्व होने लगता है। परन्तु-अभिमन्यु अपने बाणो से प्रलय मच ता हुआ चीखते हुए कौरव सैनिको को खदेड देता है. । -उसने अकेले ही पौरव, कृतवर्मा जयद्रथ, शल्य आदि चार महारथियो का मुकावला किया। और चारो महारथियो के डट कर मुकाबला करने पर भी अभिमन्य ने उन्हे परास्त कर दिया। - इसके बाद भीम और शल्य के बीच गदायुद्ध छिड़ गया भीमसेन जब भीषण सिंहनाद करके झपटता तो दूर खड़े 'कौरव सैनिको का दिल काप जाता . शल्य ने कितनी ही देर तक भीमसेन की गदा का मुकावला किया । जव सूर्य सिर पर आ गया और आकाश से अग्नि वाण बरसाने लगे, शल्य पसीने से तरबतर होकर हापने लगा, पर भीमसेन वार पर वार किए जा रहा था। अन्त में शल्य का साहस जाता रहा और उसे रण क्षेत्र छोडते हो वना। शल्य की रण क्षेत्र से भागते देख और भीमसेन को पीछा करते हुए कौरव सनिक पर वज्र की भाति टूटते देख कर कौरव सेना में खलबली मच गई । सैनिको का साहस डगमगाने लगा। 'भागो, भागो' की ध्वनि गूज उठी और कौरव सनिक भीमसेन की गदा से बचने के लिए पीठ दिखा कर भागने लगे। द्रोण ने यह देखा तो सैनिको का साहस बढाने के लिए उन्हो ने अपने सारथि को आदेश दिया- 'मेरा रथ तीव्र गति से उस पोर ले चलो जहां युधिष्टिर है। " द्रोण के रथ मे सिन्धु देश के वार फुरतीले और सुन्दर घोड़े जुते थे, सारथि ने चाबुक मारी और घोड़ कितने ही सैनिको को कुचलते, तीव्र गति से युधिप्टर की ग्रोर बढ़ने लगे, घोडे हवा से वाते कर रहे थे इतनी तीव्र गति से द्रोण के रथ को अपनी ओर आते देख कर युधिष्टिर ने बाज़ के पर लगे हुए तीक्ष्ण वाणो की वर्षा उस ओर प्रारम्भ कर दी, ताकि द्रोण की गति अवरुद्ध हो सके ! परन्तु वाणों की वर्षा भी द्रोण की गति को न रोक पाई । उन्होने क्रुद्ध होकर युधिष्टिर के वाणो के उत्तर मे ऐसे दाण चलाए कि युधिष्टिर को यात्म रक्षा कर सकना दुर्लभ हो गया । एक वाण ऐसा लगा कि धर्मराज का धनुष टूट गया । युधिष्टिर सम्भले और दूसरा धनुप लेकर युद्ध करे, इस से पहले ही द्रोणाचार्य वडे वेग से Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युधिष्ठिर को जीवित पकडने की चेष्टा ४८७ उनके निकट पहुच गए। धृष्ट द्युम्न ने द्रोण को रोकने की हजार चेप्टा की पर किसी प्रकार भी द्रोण को न रोक पाये । उनका प्रचड वेग किसी के रोके नही रुकता था। ___ कौरव पक्षीय वीरो ने द्रोण को युधिष्ठिर के निकट पहूचते हुए देखकर ही शोर मचा दियायुधिष्ठिर पकडे गए, युधिष्ठिर पकडे गए। . इस आवाज से सारा कुरुक्षेत्र गूज उठा। भागते हुए कौरव सनिक रुक गए । पाण्डव वीरो की गति मन्द पड़ गई। भीमसेन की भुजाए शिथिल सी पड गई । इतने ही में अनायास ही अर्जुन उधर आ पहचा। द्रोणाचार्य द्वारा बहाई रक्त की नदी को पार करता, हडियो और शवो के ढेरो को लाघता और तीव्र गति से पृथ्वी को कपाता हुआ अर्जुन का रथ वहा आ खडा हुआ। श्री कृष्ण ने ललकारा-"देखते क्या हा धनजय । चलाओ वाण । द्रोण तुम्हारे गुरु नही इस समय मुख्य शत्रु हैं।" ।। द्रोण देखते ही तनिक देरि के लिए तो सन्न रह गए। श्री कृष्ण को ललकार सुनकर अर्जुन ने आवेश मे आकर जो गाण्डीव धनुष से वाणो की वर्षा प्रारम्भ की है, तो देखते ही देखते बाणों की बौछार हो गई। इतनी तीव्र गति से बाण चल रहे थे कि यह पता ही नहीं चलता था कि अर्जुन कब तीर चढ़ाता है, और कब घाड देता है। बाणो के मारे द्रोण के प्रागे अधेग सा छा गया। उसा समय अर्जुन ने एक ऐसा अस्त्र प्रयोग किया कि जिसके छूटते हा चारो ओर धुए और अधकार का बादल सा फैल गया, द्रोणाचार्य अपने शिष्य के इस भीषण मात्रमण के मारे पीछे हट गए। र अर्जुन आगे बढ़ता रहा, तभी द्रोण की रक्षा के लिए कई कारव महारथी या डटे। अर्जुन सभी को एक साथ हटाता रहा। उस सेवा दिन समाप्त होने वाला था पश्चिम दिशा में लाली फैल हा था, सूर्य किरणे पथ्वी से विदा ले रही थी और अर्जुन के बाणो:: "आग कोरव वीरः पीछे हटने पर विवश थे, बल्कि वार वार प्राकाश की ओर देखते थे। द्रोण ने युद्ध की समाप्ति का बिगुल बजवा दिया। और पाण्डवो ने विजय के वाजे बजाते प्रारम्भ कर दिए। कौरव सेमा ५९ भय छा गया। परन्तु पाण्डव पक्षीय सैनिक बड़ी शान से अपने अपने शिविर को लौट चले। सब से पीछे थे कृष्ण और अर्जुन । Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * तालीसवां परिच्छेद * . . htttttttttaxx बारहवां दिन ★★★★★★ - ग्यारहवें दिन का युद्ध समाप्त करके लौटे तो रण बाण उतार कर, कुछ खा पी कर दुर्योधन सीधा द्रोणाचार्य के शिविर मे पहुची ।' पीछे पीछे भिगर्त नरेश सुशर्मा भी पंहुचं गया। दुर्योधन का मुह लटका हुआ था, वह चिन्ता मग्न था। उस के मनोभाव को पढे करें द्रोणाचार्य बोले- 'मैं जानता हू तुम चिन्तित और दुखित हो क्यों कि मैं अपना वचन पूर्ण न कर सका। परन्त इसका कारण है धनजय श्री कृष्ण जिस के सारथि हैं, उस के सामने आने पर यधिष्ठिर को पकड पाना दुर्लभ है । इस बात को भी तुम समझ लो।" " परन्तु प्राचार्य जी ! विना युधिष्ठिर को बन्दी बनाए हमारी विजय असम्भव है।" साफ जाहिर था कि उस दिन के युद्ध से दुर्योधन का मनोबल बहुत टूट गया था। उस के शब्द उसके विचार को प्रगट कर रहे थे। ' द्रोण बोले-"तुम्हारी योजना की पूर्ति के लिए मनोवल का सक्षक्त होना आवश्यक है। अधीर क्यो होते हो।" "प्राचार्य ! ग्यारह दिन मे मैं ने जो खोया है, उसे देखकर में सिहर उठता हूं। अव सान्त्वना तथा धैर्य चन्धाने से काम न चलेगा।" दुर्योधन ने अपने मनोदश्म प्रगट करते हुए कहा । "वस एक ही उपाय है-गम्भीरता पूर्वक द्रोण कहने लगे-यदि किसी - प्रकार अर्जुन को कही - उलझा दिया जाय। उलझाया भी ऐसा. Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - बारहवां दिन. " जाये कि वह अवकाश न ग्रहण कर सके मेरे निकट पहुचने का तो - युधिष्ठिर को बन्दी बनाया जा सकता है। इतनी बडी योजना बनाई है तो ऐसी भी योजना बनाओ कि अजुन का मुझ से मुकाबला हो और वह युधिष्ठिर की रक्षा को श्रा हो न सके।" ܢ ★ -भला ऐसा उपाय क्या हो सकता है ? मेरी समझ मे तो नही श्राता ।" + - "यदि कुछ बीर अपने प्राणो की आहुति देने को तैयार हो जाय तो यह भी सम्भव है । " " जानबूझ कर प्राण खोने को भला कौन तैयार होगा ?" "कुछ भी हो जब तक कुछ वीर संशप्तक व्रत धारण कर के अर्जुन को युद्ध के लिए नही ललकारेंगे, और अपने प्राणों का मोह "छोड कर यमलोक जाने की तैयारी करके अर्जुन के मुकाबले पर नही जायेंगे तब तक काम न चलेगा " द्रोणाचार्य ने सोचकर बताया । 'ऐसे वीर कौन हो सकते हैं ? आप ही बताए ।" ४५९ दुर्योधन के प्रश्न पर अभी द्रोणाचार्य विचार कर ही रहे थे कि सुशर्मा वहां से उठ गया। विचार मग्न द्रोण तथा दुर्योधन को इस का आभास भी न हुआ । - कुछ देर तक दुर्योधन तथा द्रोणाचार्य मे विचार विमर्श होता रहा, पर उन्होंने संशप्तक व्रत धारन करके युद्ध करने के लिए तैयार हो सकने वाले वीरो को न खोज पाये । रात्रि यौवन की ड्योढी पर पग रखने वाली थी, दिन भर युद्ध करने के कारण सभी थके हुए थे फिर भी द्रोण तथा दुर्योधन का नीद कहा, वे तो युद्ध की योजना बनाने और अपनी योजना की सफलता का उपाय खोजने मे तल्लीन थे । सुशर्मा ने कुछ देर बाद शिविर मे पग रखा । सुशर्मा चाहर से आते देखकर कदाचित तब द्रोण को मान हुआ कि सुशर्मा बिना कुछ कहे सुनें ही वहा से चला गया था । सुशर्मा ने विनीत भाव से कहा - ""गुरु देव ! आपको चिन्तित रहने की श्रावश्यकता नहीं । मैंने आपकी समस्या हल कर दी हैं । मेरे देश के वीर संशप्तक-व्रत धारण करके कल अर्जुन Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैिन महाभारत को युद्ध के लिए ललकारेंगे और आत्म आहुति देकर भी उस का बध करेंगे | अब आप निश्चित होकर युधिष्ठर को बन्दी बनाने की बात सोचें ।" ४९० सुशर्मा की बात सुनकर दुर्योधन एक दम उसने आत्म सन्तोष के उसे पार हर्ष हुआ। सच ?" 1 "हाँ, राजन ! मैं आपकी ओर से युद्ध करने के लिए आया हू, अपने वीर साथियो अथवा अपने प्राणो की रक्षा करने नहीं । मैंने आप दोनो को चिन्ता मग्न देखा और जाकर अपने भाईयो से मंत्रणा की। मुझे प्रसन्नता है कि ऐसे वीर शूरो की एक टोली मैंने तैयार कर ली है, जो आपकी श्राज्ञा मिलते ही सशप्तक-व्रत की - दीक्षा ग्रहण कर लेगी ।" सुशर्मा ने उल्लास पूर्वक कहा । उसे बहुत सन्तोष था कि वह दुर्योधन के प्रति अपनी वफादारी को सिद्ध कर पा रहा है। बल्कि वह ऐसे कार्य को सम्पन्न कर रहा है, जिसे पूर्ण करने के लिए कोई मिला ही नही । To م द्रोणाचार्य को कोई प्रसन्नता हुई या नही यह नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वे उसी प्रकार शात वठे रहे, अपनी ओर से कुछ कहना आवश्यक जानकर वे बोले "भिगतं नरेश ! अपनी तुम उस सैनिक टोली को संशप्तक-व्रत की दीक्षा दिलाओ। मरणसन्न पर पड़ लोगों के लिए जो दान-पुण्य आदि आवश्यक समझे जाते हैं, वे सभी सम्पन्न कराओ । प्रातः उसे टोलो को अपने प्राणो का मोह छोड़ कर अर्जुन के सामने जाना है ।" x प्रसन्न हो उठा। पूछा - "क्या लिए - दुर्योधन को लक्ष्य करके उन्हों ने कहा - "बेटा | रात्रि "बहुत जा चुकी, अब श्राराम करो । कल फिर मैं अपने वचन को पूर्ण करने का भागीरथ प्रयत्न करूगा । " L X + X X ज्यो ही पूर्व क्षितिज को मांग सिन्दूरी हुई। एक भारी सेना ने संशप्तक-व्रत की दीक्षा ली । सब ने घास के बने वस्त्र धारण - किए। जिन भापित धर्म के अनुसार उन्होने प्रभु वन्दना की और फिर सामारिक मोह तथा परिग्रह आदि का त्याग करके, सभी से Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वारहवां दिन क्षमा याचना करने के उपरन्ति शपथ ली कि हम लोग युद्ध में धनजय'का बध किर बिना नही लौटेगे। यदि भय के कारण पीठ दिखाकर भाग आये तो हमें महापाप का दोष प्राप्त हो। हम प्राणों तक का उत्सर्ग करने को प्रस्तुत रहेगे । शपथ लेने के पश्चात् वे संशप्तको ने दान-पुण्य किए। अपने गुरुप्रो, बन्धु बाधवो को अन्तिम प्रणाम किया और अस्त्र शस्त्र सम्भाल कर तैयार हो गए। दोनो ओर की सेनाए सज गई। रण क्षेत्र में जाने से पूर्व दोनो ओर के सैनिक एक दूसरे से बन्धुओं की भाति मिलते जुलते थे, घायलो की खबर लेते थे। इसी प्रकार दोनो ओर के वीर परस्पर मिले और जब युद्ध का समय हो गया, सेनापतियो ने रण क्षत्र की ओर जाने के लिए अपना शख बजाया, दोनो भोर के सैनिक अपनी अपनी सेना मे आकर अपने अपने स्थान पर खडे हो गए। सेनापतियो ने उस दिन के युद्ध के लिए अवश्यक सूचनाएं तथा हिदायतें दी और फिर दोनो सनाए रण क्षत्र की ओर चल दी। . • सूर्य एक बास ऊपर चढ़ चका था, दोनो ओर से व्यूह रचना हो चुकी थी। तभी कौरवो की ओर से भिगर्तराज की सशप्तको को टोली ने पुकार पुकार कर अर्जुन को युद्ध के लिए ललकारा। इस टोली को प्रात्मघाती सैनिक टोली भी कहा जा सकता है। इस प्रकार की सैनिक टोलियो का आजकल भी रिवाज है। कि सेना की काई विशेष टुकडी किसी मुख्य कार्य को पूर्ण करने की शपथ लेकर जाती है और कार्य पूर्ण किए बिना नहीं लौटती। इसी प्रकार की थी वह भी भिगर्त देश की सेना, जिसकी ललकार को सुनकर अर्जन तडप गया। उन दिनो क्षत्रियो मे यह प्रथा थी कि यदि रण क्षेत्र मे किसी विशेष व्यक्ति को युद्ध की पुनाता दी जाती है तो वह विना किसी का वहाना किए ही युद्ध न क लिए प्रा डटता । उसी रीति के अनुसार जब अजन ने एक वशेष सैन्य-दल को, जो सशप्तको के वेश में था, युद्ध की चुनौती इत हुए देखा. तो युधिष्टिर के पास जाकर बोला-"राजन् । देखिए १ लोग सशप्तक व्रत लेकर मुझे ललकार रहे हैं। आप तो जानते ही है कि मेरी प्रतिज्ञा है कि यदि कोई मुझे, यद्ध के लिए ललकारेगा Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत तो मैं उस से युद्ध अवश्य करूगा। वह देखिये, सुशर्मा और उसके साथी आज मुझे ही युद्ध की चुनौती दे रहे हैं। इसलिए मै तो जा रहा हूं और उनका विनाश 'करके ही लौटूंगा। आप मुझे इसकी प्राज्ञा दीजिए।" . युधिष्ठिर ने सारी परिस्थिति पर विचार किया और बोले"बडी विकट समस्या आ गई है। मेरी प्राज्ञा की बात जाने दो। तुम्हें दुर्योधन का इरादा मालूम ही है। द्रोणाचार्य का वचन भी • ज्ञात है और यह भी जानते हो कि द्रोणाचार्य बड़े बली हैं, शूर हैं। कृष्ट-सहिष्ण, शस्त्र विद्या मे पारंगत, बुद्धिमान और पराक्रमी है और अपने वचन को पूर्ति के लिए हर सम्भव उपाय अपना सकते । हैं। उनके प्रण और उनकी सामर्थ्य को ध्यान में रखते हुए तथा .. शत्र की चाल को समझ कर अपनी मर्यादा का ध्यान रखकर जो - तुम उचित समझते हो करो." - . अर्जन भी सोच में पड़ गया, तभी भिगतं देश के वीरो ने ललकारा-"अर्जुन | कहां छप गया है। यदि वह जीवित है तो पाये और हम से लोहा ले हम या तो उसका बध कर देंगे अथवा - अपने प्राणो का उत्सर्ग कर देंगे। अन्य किसी दशा मे नही लौटगे।" अर्जुन यह सुनकर उद्विग्न हो गया। बोला-"राजन् ! वह देह फिर शत्रयो ने मुझे ललकारा।, मुझे जाना ही होगा। आपकी रक्ष पांचाल राज पुत्र सत्याजित करेगे। जब तक वे जीवित रहेगे तव तक आप पर किसी प्रकार का सकट नही आ सकता।" . __ सत्यजित को बुलाकर अर्जुन ने कहा- मैं अपने महाराज को तुम्हे सौंपता हूँ। मेरी ही तरह उनकी रक्षा करना और शत्रु तुम्हारे शव पर ही उतरकर हम तक जा सके। बस यही में चाहता हूं।" सत्यजित ने विश्वास दिलाया कि प्राणो की आहुति देकर भी वह युधिष्ठर की रक्षा करेगा। और अर्जुन सशप्तको की ओर ऐसे लपका जैसे भूखा शेर शिकार पर ल-कता है। श्री कृष्ण अर्जन से कह रहे थे-"धनजय। यह सब तम्हारे ही वाणों की प्रतीक्षा मे खडे हैं । प्राणों के भय , कारण तो उन्हे रोना चाहिए था, पर व्रत के नशे में यह वड उत्साह नधा उल्लास के साथ खडे है। सनिक इन्हें अपना रण काशल Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां दिन खाकर इनका नशा तो चूर कर दो।" । इधर पाण्डव तथा कौरव सेनाएं एक दूसरे को परास्त करने लिए भीषण संग्राम कर रही थी और उधर अर्जुन ने भिगर्त शवासी सैनिको पर इतना भयकर आक्रमण किया कि देखते ही खते उनके सिर पर चढा, व्रत का भूत हवा हो गया । अर्जुन के तीक्ष्ण बाणो से भिगतों का सारा उत्साह भग हो गया ।' एक वार जो अर्जुन ने. अग्नि बाण मारा. और उसकी लपटे . जो विशले विषधरो की लपलपाती जिव्हारो की भाति लपलपाई, भिगर्तदेशीय सशप्तक विचलित हो गए। सभी के मुह पर घबराहट नृत्य कर गई । अपने संनिको को भयभीत देखकर सुशर्मा ने ललकारा - "शूरवीरो। याद रखो। तम ने क्षत्रियो की भरी सभा मे शपथ खाकर व्रत धारण किया है। घोर प्रतिज्ञा कर चुकने और प्राणो का मोह त्याग चुकने के बाद भय-विह्वल होना. तुम्हे शोभा नहीं देती। तुम कही मैदान से यू ही बापिस चले गए, तो लोग - तुम्हारी हसी उडायेंगे। कोई तुम्हे पास भी न बैठायेगा। डरो नहीं। आगे बढो। तुम इतना बडी संख्या मे हो और शत्रु अकेला है। आगे बढो और प्राणो की वलि चढ़ा दो। या शत्रु का वध कर डालो। अरे. यदि तुम-अर्जुन को बाटने बैठो तो एक एक बोटी भी एक एक के भाग मे न पड़े। ' यह कहकर सुशर्मा ने शख:नाद किया, फिर सैनिक भी एक दूसरे को-प्रोत्साहित करने लगे। कितने ही शख एक साथ वज उठे और फिर भयानक युद्ध प्रारम्भ हो गया। , दोनो ओर से बाण वर्षा होती रही, पर भिगर्त नरेश के संशप्तक सैनिक हटे नही, तब अर्जुन ने श्री कृष्ण से कहा-"मधु सूदन ! लगता है सुशर्मा की चेतावनी नव स्फूर्ति प्रदान करने मे सफल हो गई। अब जब तक, इनके तन मे प्राण हैं यह हटेंगे नहीं, इस लिए आप भी तनिक उत्साह में आ जाईये । हमे झिझकना नहीं है, इन्हे यमलोक पहुंचाना ही होगा।" . श्री कृष्ण पूर्ण कुशलता से रथ चलाने लगे। उस समय उन्हो ने ऐसी अद्भुत कुशलता का परिचय दिया कि शत्रु भी दातों तले उगली दबाते रह गए और अर्जुन के गान्डीव का कमाल तो देखने Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत ही लायक था उस ने पूर्ण चतुराई का परिचय दिया । अर्जुन विद्युत गति से अपने स्थान बदल लेता था, जल्दा हो बाणो का रुख बदल जाता और प्रत्येक संशप्तक को अर्जुन अपने ही सामने प्रतीत होता। घोर सग्राम हो रहा था, एक वार-क्रुद्ध होकर संशप्तको ने इतनो घोर वाण वर्षा की कि अर्जुन का रथ वाणो से ढक गया, उस समय श्री कृष्ण ने कहा-"अर्जुन ! कुशल तो है ?" अर्जुन श्री कृष्ण की बात समझ गया और 'हा' कह कर भिगों के वाणो से छाये अधकार में हो गाण्डीव से एक ऐसा अद्भुत वाण मारा कि भिगत्तों की वाण वर्षा विल्कुल ऐसे ही हवा में उड गई जैसे प्रांधी से मद्यखण्ड । उस समय रणभूमि का दृश्य इतना भयानक था मानो प्रलय के समय सदृश की नृत्य भूमि का दृश्य हो। सारे क्षेत्र मे जहा तक दष्टि जाती, सिर विहीनं धड, भुजा विहीन धड, टूटे हाथ पैर, कटे सिर आदि ही दिखाई देते। स्थान स्थान पर मास पिंड और रक्त की धाराएं सी बहती दिखाई देती। ज्यो हो अर्जुन भिंगर्त देशीय सशप्तको से युद्ध करने के लिए गया, द्रोणाचार्य ने अपनी सेना को प्राज्ञा दी कि पाण्डवो के व्यूह पर उस पोर अाक्रमण करो जहां पर युधिष्ठिर की पताका लहरा रही है। अाझा पाने की देरि थी कि सेना ने उसी ओर अभियान कर दिया । . द्रोणाचार्य को एक विशाल सेना सहित अपनी पोर पाते देख युधिष्ठिर उनका मन्तव्य समझ गए और उन्होने धृष्ट द्युम्न का सचेत करते हुए कहा-"वह देखो ब्राह्मण वोर प्राचार्य द्रोण अपन वचन की पूति के लिए मेरी ओर आ रहे है। ऐसा न हो कि अजुन के दूसरी ओर होने का लाभ वे उठा जाये। शीघ्न ही उनको प्रगति रोकने का प्रयत्न करो।" धृष्ट द्युम्न ने कहा-"प्राप निश्चित रहिए । में द्रोण को प्राप के पास तक पहुचने का अवसर ही न दूगा।" Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाहरवां दिन और एक विशाल सेना लेकर, द्रोण के पास ग्राने की प्रतीक्षा किए बिना ही, घृष्ट द्युम्न आगे बढ़ा बीच ही मे जाकर वह उन्हें घेर लेना चाहता था। जब द्रोणाचार्य ने विशाल सेना 'सहित घृप्ट द्युम्न को अपनी ओर आते देखा तो उन्हे द्रुपद राज की प्रतिज्ञा और तपस्या तुरन्त याद आ गई, जो उनकी विस्भृत्ति के गर्भ मे सुरक्षित थी । उसी समय उन्हें पितामह की मृत्यु और शिखन्डी की याद आई। उनका मन कह उठा - " शिखण्डी का जन्म पितामह के वध के लिए हुआ, वह सार्थक हो गया, और धृष्ट 'द्युम्न नेरी मृत्यु का कारण बनेगा, यह बात भी सत्य ही सिद्ध होगी ।" इतना मन मे आना था कि वे वृष्टद्युम्न के तेजमयी मुख को देख कर सिहर उठे | उन्हे वह साक्षात यमदूत प्रतीत हुआ । और शीघ्रता से उन्होने अपने रथ का रुख द्रुपद की ओर घुमवा दिया। - 1 ४९५ द्रपद द्रोणाचार्य से भिड गये । भयकर युद्ध होने लगा । क्षण भर मे ही रक्त धारा बह निकली। दोनो ओर से सैनिक 'आह' करके गिरने लगे । तनिक तनिक देर बाद महमाती जीवन ज्योतियां बुझ जाती। शवो के ढेर लग गए । वे सुन्दर युवा शरीर जो किसी परिवार के रक्त थे, रथो के नीचे, घोड़े और हाथियों के पैरों में कुचल जाते । पर दो सिंह, द्रोण तथा द्रुपद उसी प्रकार डटे हुए थे । फिर द्रोण ने अपना रथ पुनः युधिष्ठिर की ओर वढवा दिया। आचार्य को अपनी ओर श्राते देख कर युधिष्ठिर अविचलित भाव से गुरुदेव पर वाण वर्षा करने लगे। पहले तीन वाण जा कर श्राचार्य के चरणो मे गिरे और फिर दूसरे वाण उन को क्षति पहुचाने लगे । पर आचार्य के बाणो की भी झड़ी लग गई। यह देख कर सत्यजित द्रोणाचार्य पर टूट पडा । भयानक युद्ध छिड़ गया । उस समय द्रोण साक्षातं काल का रूप ग्रहण कर गए। उनके बाण पाण्डव पक्षीय वीर सैनिकों के प्राण हरने लगे। पाचाल राज कुमार वृक के प्राण उन के वाणो ने हर लिए और सत्यजित का भी वही हाल हुआ । यह देख कुपित होकर विराट पुत्र शतानीक द्रोण पर झपटा। पर दूसरे ही क्षण शतानीक का कुण्डलो वाला सिर युद्ध भूमि पर लुढकने लगा । इसी बीच केदम नामक राजा द्रोणाचार्य के सामने आया, उसने भीषण वाण वर्षां आरम्भ की, पर इस से पूर्व कि वह Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९६ जैन महाभारत द्रोण का कुछ विगाड़ -पाता, उस के ही प्राण पखेरु द्रोणे के बाणो से उड़ गए। - ., द्रोण आगे बढते ही चले गए। उनके प्रवल वेग को रोकने केलिए साहस कर के वसुधान आया और वह भी यमलोक पहुंचा। यधामन्यु, सात्यकि, शिखण्डी, उत्तमौजा, आदि कितने ही महारथियो को तितर बितर करते हुए द्रोणाचार्य युधिष्ठिर के निकट पहुच गए। उस समय अपने प्राणों का मोह त्याग कर द्रुपद राज का एक और पूत्र पाचाल्य विजली की भांति द्रोण पर टूट पड़ा। वह कितनी ही देरि तक भीषण संग्नाम करता रहा। पर अन्त मे वह विल्कुल उसी प्रकार अपने रथ से नीचे लुढक गया, जसे आकाश से कोई तारा टूटता है। ." उस समय द्रोणाचार्य का अद्भुत रण कौशल देख कर दुर्यो घन को अपार हपं हुआ। वह कर्ण से वोला-'कर्ण द्रोणाचार्य 'का पराक्रम तो देखो। पाण्डवो की सेना को कैसे मूली गाजरो की भांति काटते हुए आगे बढ रहे हैं। सारे क्षेत्र मे जो शव ही शव दिखाई देते हैं और रक्त की जो नदी सी बह रही है, वह सब द्रोणा चार्य का ही प्रताप है। मैं कहता हू अव पाण्डव अवश्य ही परास्त 'हो जायेंगे।" इधर दुर्योधन ने यह बात कही, उधर भीमसेन, सात्यकि, युधामन्यु, उतमौजा, द्रुपद, विराट, शिखडी, धृष्टकेतु, आदि बहुत से वीर द्रोणाचार्य के सम्मुख आगए और बडा ही भयकर आक्रमण कर दिया। उधर कर्ण दुर्योधन की बात का उत्तर देते हुए बोला"दुर्योधन ! पाण्डव यूं ही हार मानने वाले नही। वे इतनी जल्दी रण से पीछे हटने चाले । वे कभी उन यातनापो को नही भूल सकते • जो उन्हें विष से, आग से और जुए-के खेल से पहुंची थी। वनवास और अज्ञात वास मे हुए उन के हृदय में घाव अभी तक रिस रहे होगे। वे उन सब यातनाओं को भूलने वाले नही। वे अन्तिम क्षण तक मुकाबला करेंगे। और भीमसेन तथा नकुल सहदेव अपने प्राणा की आहुति देकर भी युधिष्ठिर की रक्षा करेंगे। वह देखो पाण्डत "-पक्षीय कितने ही वीरो ने एक साथ मिल कर द्रोणाचार्य पर आक्रमण कर दिया है, वे द्रोण के आगे लोहे की दीवार बन गए हैं । Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाहरवां दिन प्राचार्य कितने भी बलिष्ट और शास्त्र विद्या में पारगत सही, पर सहन करने की भी एक सीमा होती है। हमे ऐसे समय पर चलकर उनकी सहायता करनी चाहिए।" । " इतना कह कर कर्ण द्रोणाचार्य की सहायता को आगे बडा और उस के पीछे पीछे ही दुर्योधन का रथ चल पड़ा। द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर को जीवित पकड़ने की कितनी हीचैप्टा की, पर द्रुपद, भीम, सात्यकि और विराट आदि उनके आड़े आये और वे लाख प्रयत्न करने पर भी युधिष्ठिर को न पकड पाये। तव दुर्योधन ने एक भारी गज-सेना भीम की ओर बढ़ा दी । भीम सेन ने रथ पर से ही हाथियो पर बाणो की ऐसी वर्षों की कि समस्त हाथी बिलबिला उठे। बाणो की बौछार से उन की बुरी दशा होगई। और हाथियों के शरीर रक्त-प्रपात वन गए । भीमसेन को ज्ञात था कि गज सेना को उसके सामने भेजने का उदण्डता किस धूर्त ने की है, अतः गजारोही सेना को निष्काम कर के उसने दुर्योधन के रथ को अपने बाणों का निशाना बनाया। उस के अद्ध-चन्द्र वाणों के प्रहार से दुर्योधन के रथ की ध्वजा काट कर गिर गई और धनुष भी टूट गया। दुर्योधन की यह दुर्दशा होते पख कर अग नामक एक नरेश साथी पर सवार होकर भीमसेन के भार्ग जा डटा। उस से कुपित होकर भीमसेन ने नाराच वाणों की कपा की। जिससे कृछ ही देरि में अग का हाथी रक्त से लथ पथ गया और एक नभ स्पर्शी चिंघाड मार कर रण क्षेत्र से भाग पडा चारा अग वहुत प्रयत्न करने पर भी जव हाथी को न रोक पाया निराश होकर रण भूमि से जाने में ही अपना कल्याण समझ वठा । उसे रण क्षेत्र से भागता देख सारी कौरव सेना भाग पडी। जा शूरवीर अपने प्राण हथेली पर रख कर रण क्षेत्र में आये थे। इस प्रकार भाग रहे थे मानो भेड के झपड पर किसी भेडिये ने प्राक्रमण कर दिया है। हाथियो की सेना का भागना था कि अश्व भी कांप गए और १ मा हाथियों का अनुसरण करते हए भागने लगे। फिर नम्वर मा का प्राया। इस भाग दौड़ मे पदाति सैनिक कूचले जाने लगे। Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .४९८......... ४९८ जैन महाभारत हाथियो व घोडो के पैरो तले सैकडों न रमुण्ड कुचले गए। बाहि त्राहि और चीख पुकार से सारा क्षेत्र भर गया और ऐसा प्रतीत होने लगा मानो प्रलय आ गई है। .. यह देख कर दुर्योधन पक्षीय भगदत्त नरेश से न रहा गया उस ने सेना को रोकने के लिए शख नाद किए। शोर मचाया। गला फाड़ फाड कर चिल्लाया -- "रुक जायो, रुक जायो, भागो मत, तुम्हे माता के दूध की सौगध।" . . . . परन्तु वहा कौन मुनता था, सब को अपने अपने प्राणो की पड़ी थी, यह देखकर वह अपने सुप्रतीक हाथी पर सवार होकर, भीम सैन की ओर झाटा। वह हाथो बहुत ही हिंसक प्रकृति का था। ऐसे अवसरो के लिए हो शूर भगदत्त ने उसे पाल रखा था। . हाथी ने जाते ही अपनी सूण्ड गदा की भाति बडे जोर से घुमाई और क्षण भर मे ही उस ने भीमसेन के रथ को चूर चूर कर दिया। रथ के घोडो को सूण्ड मे दवा दवा कर दूर फेक दिया। विवश होकर भीमसेन रथ से कूद पडा और गदा सम्भाल कर उस दुष्ट हाथी की अोर झपटा। वह हिंसक हाथी, भीमसेन को गदा लिए अपनी ओर आते देख कर और भी कुपित हो गया और भीमसेन को अपनी सूण्ड मे दवोच कर मार डालने के लिए दौडा। परन्तु उस समय भीमसेन को एक. उपाय सूझा। गदा घमा कर उस ने हाथी के मस्तक पर फेक कर मारी और स्वय दौड़कर हाथो के पैरो के पास पहुंच गया उसे हाथियो के मर्मस्थलो का तो पूर्ण ज्ञान था ही, जाते ही घूसों से हाथी के नीचे के मर्मस्थालो पर चोट करने लगा। वज्रकाय भीमसेन के घुसो की मार से हाथी विलबिला उठा। पर टाँगो से सटे होने के कारण हाथी उसका कुछ न विगाड सकता था। वह उसे पकड़ने और चूंसो की मार से वचने के लिए कुम्हार के चाक की भांति चक्कर खाने लगा। पर भीमसेन भी उसे बुरी तरह चिपटा था, वह भी घूमता रहा। घूमते घूमते अचानक उस हिंसक गज ने भीमसेन को अपनी सूण्ड मे कस लिया और उठा कर दूर फेक दिया। चोट तो लगी पर क्रोध के मारे भोमसेन जल उठा। दौड कर पून. हाथी के पीछे से उसकी टांगों में घुस गया और लगा मर्म स्थलो पर चोटे करने। आखिर हाथी बेचारा उसके चूंसो से तग आगया। Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाहरवां दिन - ४९९ भीमसेन को आशा थी कि शोघ्र ही कोई गजारोही पाण्डव पक्षीय उधर पा निकले गा और भीमसेन को उस के सहारे इस खूख्वार हाथी से छुटकारा मिल जाये गा, पर किसी का ध्यान इस भोर हो तो कोई आये भो। कितनी ही देरि तक हाथी और भीम सेन के वीच पाख मिचौली का खेल सा चलता रहा। और इधर जव किसी ने भीमसेन को कही न पाया तो पाण्डव पक्षीय सेना मे शोर मच गया-"अरे ! भामसेन को भगदत्त के हाथी ने मार डाला।" इतनी अावाज उठनी थी कि सारी पाण्डव पक्षीय सेना मे कोलाहाल मच गया। यह शोर सुनकर युधिष्ठिर ने भी समझ लिया कि सचमुच ही भीमसेन मारा गया होगा। यह सोच कर उन्हें जितना शोक हुया उस से अधिक भगदत्त पर क्रोध पाया। उन्हो ने अपने जवानो को आदेश दिया कि चलो तुरन्त भगदत्त पर अाक्रमण कर दो। भीमसेन के हत्यारे को उस की धृष्टता का फल चखा दो।' दशार्ण देश के राजा ने अपने लडाक हाथी पर सवार होकर अपने सगी साथी संनिको सहित भगदत्त पर भीषण आक्रमण कर दिया । दशार्ण के हाथी ने वडे जोर से युद्ध किया, फिर भी सुप्रतीक के आगे वह अधिक देर न ठहर सका | सुप्रतीक ने अपने दातो से उस हाथों की पस्लिया तोड डाली। और देखते ही देखते वह भूमि पर लुढक गया । उसी समय भीमसेन को अवसर मिला और वह सुप्रतीक की टागो के बीच से निकल भागा। इघर दशार्ण के सैनिक और युधिष्ठिर के भेजे सनिक एक साथ सुप्रतीक पर टूट पड़े। उन के बाणो, भालो, गदायो और तलवारो की मार से सूप्रतीक व भगदत्त की बूरी दशा हो गई तो भी भगदत्त ने हिम्मत न हारी। भगदत्त और सुप्रतीक घायल हो चुत थे, फिर वूढ भगदत्त का कलेजा दावानल की भाति जल रहा था। अपने चारो अर पडे सनिको की कोई चिन्ता न कर के, उस ने अपने हाथी को सात्यकि की ओर बढा दिया। क्रुद्ध हाथी ने जात ही सात्यकि के रथ पर यात्रमण कर दिया और रथ को उठा कर फर दिया। सात्यकि फूरती से रय से कूद गया, वरना कदाचित वह स्वय भी अपने रथ के साथ साथ नष्ट हा जाता। परन्तु सात्यकि Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० जैन महाभारत का सारथि बडा कुशल था, ज्यो ही रथ दूर जा गिरा, उस ने दौड कर रथ को सीधा किया, घोडो को पकड कर पुनः जोडा और सात्यकि के पास ले आया। परन्तु रथ की कील कील हिल गई थी, वह युद्ध के काम का न था. आश्रय लेने के लिए सात्यकि उस पर चढ गया अवश्य पर दूर लेजा कर वह उतर गया और दूसरे रथ पर चढ गया। सुप्रतीक का क्रोध शात न हुआ था, उसने दूसरे पाण्डव पक्षीय सनिकों को मारा, रथ तोडे और घोडो को धाराशाही कर दिया। जो पदाति सामने पडता हाथी उसे ही उठा कर गेद की भाति फेक देता, जो रथ सामने आ जाता, उसे हो तोड डालता। इस प्रकार उसने नाश का ड का वजा दिया, चारो ओर तबाही सी आ गई। पाण्डव पक्षीय सैनिको मे भय मा छा गया। भगदत्त शान से हाथी पर बैठा पाण्डवो के नाश की इस लीला पर गर्व कर रहा था, मानो इन्द्र अपने ऐरावत गज पर विराजमान होकर असुरों का नाश कर रहे हों। इतने ही मे भगदत्त ने देखा कि सामने से बाण वरसाता भीमसेन का रथ उसको पोर बढ़ता पा रहा है। भीम अपने घनुप से पने बाणो की वर्षा कर रहा था। भगदत्त ने अपना हाथी उसी ओर बढ़ा दिया, स्वय बाण वर्षा करनी श्रारम्भ कर दी। सुप्रतीक ने जब अपने वरी को रथ पर सवार देखा उसकी आखो मे खून उतर आया। जाते ही रथ पर सूण्ड को गदा की भाति मारने लगा, कुछ ही देरी में रथ की बुरजी तोड डाली और इतने ज़ोर की चिघाड़ मारी कि उसे सुनकर भी भीमसेन के रथ के घोडे भयभीत होकर भाग पड । उस समय इतनी धूल उड़ रही थी कि आकाश की ओर पृथ्वी से बादल से उटते प्रतीत होते। बार बार सुप्रतीक की कलेजे को कम्पित कर डालने वाली चिंघाडे उठ रही थी. यह चिंघाडे सशप्तको का मुकाबला करते हुए अर्जुन के कान मे भी पड़ी। सुन कर वह स्तब्ध रह गया। इधर देखा और श्री कृष्ण से वोला"मधु सूदन ! रण क्षत्र मे धूल ही धूल उड़ रही है। हाथियो की चिधाड़ सुनाई दे रही है। ऐसा प्रतीत होता है कि शूर भगदत्त ने अपने मुप्रतीक हाथी पर सवार होकर भयकर आक्रमण कर दिया Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाहरवां दिन है । युद्ध के खूंख्वार हाथियों को चलाने में भगवत्त जैमा समार मे और कोई नही है । मुझे डर है कही भगदत्त हमारी सेना को तितरवितर करके हमें हरा न दे ।" कृष्ण बोले- “भीमसेन तो वहाँ है ही । और तुम ठहरे 'संशप्तको के मुकाबले पर, तुम कर ही क्या सकते हो ।" "मधुसूदन । मैं काफी सशप्तको को मौत के घाट उतार चुका । काफी सेना को परास्त कर चुका अब इस मोर्चे को जोडकर पहले मुझें उनकी खबर लेनी चाहिए। देखिये वहा चलना बडा आवश्यक है जहां द्रोणाचार्य युधिष्ठिर से लड रहे हैं ।" ---अर्जुन वोला । ५०१ श्री कृष्ण ने अर्जुन की बात मान ली और रथ उसी ओर घुमा दिया जिधर भीमसेन और भगदत्त के हाथी का युद्ध हो रहा था । पर सुशर्मराज और उसके भाई सशत्तक उसके रथ का पीछा करने लगे और चिलाने लगे-''ठहरो ठहरो जाते कहा हो ।” 1 यह देख अर्जुन बड़ी दुविधा मे पड़ा क्षण भर के लिए किकर्त्तव्यविमूढ़-सा होकर सोचने लगा कि "क्या करू ? सुगर्मा इधर ललकार रहा है। उधर उत्तरी मोर्चे पर सेना व्यूह टूट रहा है, सकट आ गया है, उधर जाऊ तो सुशर्मा समझेगा कि अर्जुन डर 'कर भाग गया है । यदि यही डटा रहूं और उधर तुरन्त मदद न पहुची तो किया कराया सब चौपट हो जायेगा और पराजय हो "जायेगी ।" ने अर्जुन भी इसी सोच विचार मे पड़ा था कि इतने मे सुशर्मा एक शक्ति प्रस्त्र अर्जुन पर छोडा और एक तोमर श्री कृष्ण पर । सचेत होकर तुरन्त हीँ अर्जुन ने तीन बाण मारकर सुशर्मा को ईंट का जवाब पत्थर से दे दिया और श्री कृष्ण को तेजी से भगदत्त की प्रोर रथ दौड़ा ले चलने को कहा । अर्जुन के पहुंचते ही पाण्डवो की सेना मे नवीन उत्साह का सचार हुआ । सव जहां के तहां रुक गए और आक्रमण करने के लिए तैयार हो गए। कौरव सेना पर भीषण ग्राक्रमण करके प्रर्जुन भगदत्त के हाथी की ओर वढा । सुप्रतीक बुरी तरह अर्जुन के रथ पर झपटा पर श्री कृष्ण की कुशलता के कारण हाथी रथ का कुछ न बिगाड सका । भगदत्त ने श्री कृष्ण और अर्जुन पर भीषण चाण Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत वर्षा आरम्भ कर दी । परन्तु अर्जुन ने पहले अपने वाणो से सुप्रतीक के कवच को तोड डाला, इस से वाणो का प्रभाव हाथी के शरीर पर होने लगा । गाण्डीव से छूटे वाणों की मार से सुप्रतीक नाचने सा लगा । भगदत्त को वडा क्रोध आया उसने श्री कृष्ण पर एक शक्ति फेंकी परन्तु धनुर्धारी अर्जुन ने शक्ति को अपने वाणो से तोड डाला। तब भगदत्त ने एक तोमर ग्रर्जुन पर चलाया! जो जाकर अर्जुन के मुकुट पर लगा। उसने ग्रपना मुकुट तो सम्भाल लिया, पर कुपित होकर गर्जना की- "भगदत्त लो, अब इस संसार को अन्तिम वार अच्छी प्रकार देख लो ।” ५०२ pe कहते कहते अपना गाण्डीव तान लिया । क्रुद्ध भगदत्त के बाल पक गए थे, चेहरे पर झुरिया पडी हुई थी, भौहो का चमडा आखो की ओर लटक गया था, उसे देख कर सिंह का रुमण हो आता था, फिर भी वृद्ध सिंह भगदत्त अपने शील स्वभाव तथा प्रताप के लिए बड़ा प्रसिद्ध था, लोग उसे इन्द्र का मित्र कहा करते थे, अर्जुन की गर्जना सुन कर भी उसने हिम्मत न हारी, वाण चलाता ही रहा । पर गाण्डीव से छूटे बाणो के कारण उसका धनुष टूट गया, तरकश टूट कर दूर जा गिरा। अर्जुन ने भगदत्त के मर्म स्थानो को छेद डाला । अस्त्र शस्त्र विद्या सिखाते समय उन दिनों यह भी सिखाया जाता था कि कवच धारी के शरीर को वीघने के लिए कहाँ प्रहार करना चाहिए। अर्जुन अपने गुरु द्रोणाचार्य से यह सभी कुछ सीख चुका था, इस लिए उस ने वही वाण जहां वाणो से शरीर विध जाता था । उस ने भगदत्त के सभी अस्त्रो को भी काट डाला । भगदत्त का शरीर लहुलुहान हो गया । अन्त मे उस ने हाथी का कुश ही अभिमन्त्रित कर के अर्जुन पर इस प्रकार मारा कि यदि उस समय श्री कृष्ण अपनी कुशलता से रथ को दूसरी ओर न मोड़ देते नो अर्जुन का सिर कट गया होता। हां, अर्जुन तो उम ग्रस्त्र से बच गया, परन्तु वह श्रभिमन्त्रित ग्रकुश जो प्राणहारी ग्रस्त्र वन गया था, श्री कृष्ण की छाती पर था कर लगा। परन्तु श्री कृष्ण का यह ग्रस्त्र कुछ न बिगाड़ सका। यह सब उन की शुभ प्रकृति का ही प्रभाव समझिए । कुछ लोग इस बात को इस प्रकार मानते है कि वैष्णवस्त्र ने अभिमन्त्रित होने के कारण श्री कृष्ण · Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाहरवा' दिन की छाती पर लगते ही वह शक्ति बन-माला सी बन कर श्री कृष्ण की शोभा बढाने लगो। - - - - - . . . । अर्जुन के अभिमान को इस घटना से । बडी ठेस लगी। वह श्री कृष्ण से बोला-जनार्दन! शत्रु द्वारा चलाया हुया 'अस्त्र अपनी छाती पर लेना क्या आप के लिए उचित था जब आप ने प्रतिज्ञा को है कि महाभारत मे आप रथ हाँकने के अतिरिक्त और कुछ न करेंगे तो फिर जब धनुष लिए तो मैं खंडा हूँ, और वार आप सह रहे हैं, यह कहां का न्याय है?". , श्री कृष्ण हस कर बोले--"मैं युद्ध मे तो भाग नहीं ले रहा, पर यदि शत्रु का वार मेरे ऊपर होता है तो फिर क्या इस लिए कि में युद्ध नहीं कर रहा, उस से किसी प्रकार बंच सकता हूं। मैं सारथि हू इस लिए मेरा धर्म है कि रथ इस प्रकार हाक कि रथ पर सवार योद्धा को कम से कम हानि हो । -- ---- - . अर्जुन कुछ न बोला, बल्कि भगदत्त के उस वार का उत्तर दृढता से देने के लिए एक तीक्ष्ण बाण गाण्डीवं की डोरी को कॉर्न तक खींच कर इस प्रकार मारा कि सुप्रतीक हाथी के मस्तक को काटता हुश्रा वह वाणं इस प्रकार निकले गया जैसे सांप अपने बिल म जाता है बाण का लगना था कि हाथी के मुंह से चिंघाडे के रूप में एक भयकर चीत्कार निकला। और वह वही पृथ्वी पर बैठ "या। भगदत्त ने अपने हाथी को वहत उकसाया, वडी डोटा डपटा, परिवार उसे सहलाया. पर हाथी जब बैठ गया तो वैठ गया, वह उठा। पीड़ा के मारे उस का बुरा हाल था, वह रह रह कर चिघाड रहा था वेहाल होकर और पीडा से परेशान होकर वह अपने दांतों से धरती कुरेदने लगा और थोड़ी ही देर बाद उस पिपल वाण की मार से ही पीड़ित होकर पैर पटक पटक कर उसने प्राण छोड दिये। . यह देख कर अर्जुन को मानसिक दुख हुया, क्योंकि वह हाथा को मारना नही चाहता था, वह यदि मारना भी चाहता था, " भगदत्त को, पर भगदत्त बच गया था, उसे देख कर अर्जुन कर व्याकुल हो उठा। उस ने समझ बूझ कर एक ऐसा बाण मारा जिससे भगदत्त के सिर पर वधी रेशमी पंट्री कट गई। वह पट्टी इस लिए बंधी थी कि भौगों पर की खाल जो बुढ़ापे के कारण लटक Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ जैन महाभारत गई थी, उसे पट्टी ऊपर रोके रहती थी। वह खाल ऐसी थी कि उस के लटक जाने पर भगदत्त की अांखें पूरी तरह न खलती थी। पट्टी का कटना हुआ है कि खाल पुन. आखो के आगे ना गई तब वेचारा भगदत्त अर्द्ध चक्षु हीन होगया ओर उस की आंखो के आगे अवकार छा गया, तभी गाण्डीव से छूटा एक वाण और आया जो उसकी छाती को चीरता हुआ निकल गया। सोने की माला पहने हुए भगदत्त हाथी पर से नीचे लुढ़क गया। और अभी कुछ देरि पहले जो शूरवीर पाण्डव सेना के लिए काल रूप घर कर आया था, जिस के हाथी ने कोहराम मचा दिया था, वही भगदत्त मिट्टी में लुढकने लगा। और उस के रक्त से दो हाथ मिट्टी लाल कीचड की नाई हो गई। भगदत्त के मरते ही पाण्डव सेना में उत्साह छा गया, विजय के शंख वजने लगे। अर्जुन की जय जयकार होने लगी। कौरवं की सेना मे शोक छा गया। परन्तु शकुनि के भाई वृपक और अचल तव भी विचलित न हुए और वे जम कर लडते रहे। उन दोनों में से एक ने आगे से और दूसरे ने पीछे से अर्जुन पर वाण बरसाने प्रारम्भ कर दिये। अर्जुन को कुछ देरि तक तो उन सिंह-शिशुओं ने खूब तग किया। पर अन्त में अर्जुन से न रहा गया, उस ने भयकर बाण वर्षा की और उन दोनों को मार गिराया। अपने दोनो सुन्दर तथा चवल भाईयों के मरने पर शकुनि के क्षोभ और क्रोध का ठिकाना न रहा। उसने अर्जुन के विरुद्ध माया युद्ध आरम्भ कर दिया और वे सभी अस्त्र तथा उपाय प्रयोग करने लगा जिनमे उसे कुशलता प्राप्त थी। परन्तु अर्जुन भी किसी बात में कम न था, उसने शकुनि के प्रत्येक अस्त्र को अपने अस्त्र से काट डाला। एक बार शकुनि ने ऐसी शक्ति प्रयोग की जिसस अर्जुन की ओर धुएं का बादल सा उमड पडा। अर्जुन ने उसके उत्तर मे ऐसा अस्त्र प्रयोग किया, जिससे वह धुएं का वादल घूमकर शकुनि की ओर बढने लगा और फिर वेचारे शकुनि को उसस पीछा छुड़ाना मुश्किल हो गया। अन्त मे अर्जुन के बाणों से शकुनि बुरी तरह घायल हो गया। निकट था कि अर्जुन के वाण उसक प्राण लेते कि शकुनि बच कर रण क्षेत्र से भाग निकला। रण से भागते सैनिक पर वीर पुरुष अस्त्र प्रयोग नहीं किया करते । इस Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०५ बाहरवां दिन लिए अर्जुन ने उसे निकल जाने दिया। भगदत्त के मारे जाने और शकुनि के भाग जाने के उपरान्त Tो पाण्डव सेना मे असीम उत्साह आ गया और वह द्रोणाचार्य की सेना पर टूट पडी मार काट होने लगी। असख्य वीर खेत रहे। कितने ही योद्धा घायल हो गए । रक्त की धाराए बह निकलीं। रण क्षेत्र की भूमि गारे की भाति हो गई। शवों से क्षेत्र पट गया। महारथियो के कवच टूट गए । घोडो की जिव्हा बाहर निकल आई। कौरव सेना का साहस टूट गया, त्राहि त्राहि मच गई। उधर आकाश में सूर्य प्रात्मत्सर्ग की तैयारी कर रहा था। अपना ताप सूर्य ने समेट लिया था और रात्रि के आगमन के लक्षण साफ होते जा रहे थे। इधर कौरवो की सेना की दुर्दशा देखकर पाण्डवो को सेना को और भी प्रोत्साहन मिला। उसने कौरवो के हाथों घोडो को भी धाराशाही - करना प्रारम्भ कर दिया। द्रोणाचाय से भो उस समय कुछ करते न बना। इस दशा को देखकर कुछ कौरव महारथी तो मानसिक सन्तुलन तक खो बैठे।। ___ ज्योहो सूर्य अस्त हा द्रोणाचार्य ने विनाश के उस अध्याय को स्थगित कर देने मे ही कल्याण समझा। युद्ध के समाप्त करने लिए शव बजा दिए गए। पाण्डव विजय नाद करते हुए अपने शिवरी की ओर चले और कौरव मह लटकाए हए वापिस हए । वारहवे दिन का युद्ध इस प्रकार समाप्त हो गया । Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * छयालीमा परिच्छेद * . 8989009988888... तेहरवां दिन : 09088859006658 . • ज्योही रात्रि का साम्राज्य समाप्त हया और सूर्य की किरणे पृथ्वी को आलौकिक करने लगी, दुर्योधन क्रोध मे भरा हुआ प्राचार्य द्रोण के शिविर मे गया। उस समय कुछ संनिक भी वहा उपस्थित थे और सेनापति द्रोण युद्ध का वाणा पहन रहे थे. जाते ही दुर्योधन ने प्राचार्य को प्रणाम किया और सैनिको की उपस्थिति का परवाह किए विना ही वरस पडा:- .. "प्राचार्य ! युधिष्ठिर के निकट पहुंच जाने पर भी आप कल उसे पकड़ न सके। इस का अर्थ मैं क्या लगाऊ ? यदि सच मुच आप को हमारी रक्षा की चिन्ता होती और अपने वचन का पूर्ति के लिए आप प्रयत्न शील होते तो मुझे विश्वास है, कल जा कुछ हुआ, वह न होता।" प्राचार्य ने शांत मुद्रा मे ही कहा-"कल जो कुछ हुआ उस का उत्तर दायित्व मुझ पर तो नही है शत्रु वल के सामने हमारा न चले, तो इस मे मेरा क्या दोष ?'' "नही, नही, यदि आप युधिष्ठिर को जीवित ही पकड़ने का दृढ़ संकल्प किए होते, तो फिर किस में इतनी शक्ति है कि जो आप को इच्छा पूर्ण होने से रोक सके ? आप को अपने वचन का चिन्ता ही नहीं। आप तो ब्राह्मण है न, श्राप के वचन भी ऐसे ही होते हैं।"-उस समय दुर्योधन का मुख क्रोध के मारे लाल हो रहा था। Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०७ तेहरवा दिन दुर्योधन के इन शब्दो से द्रोण को बड़ी चोट लगी। सैनिकों की उपस्थिति मे बात कही गई था, इस लिए उन्हे और भो असहय हो गई। वह उत्तोजित होकर बोले-"दुर्योधन ! तुम्हारी यह वाते बता रही हैं कि तुम मानसिक सन्तुलन खो बैठे हो। मैंने तो पहले ही कह दिया था कि जब तक अर्जुन हस्तक्षेप करता रहेगा, तुम्हारा उद्धेश्य पूर्ण नही होगा। कल भी ठीक समय पर अर्जुन वहा पहच गया। फिर मैं क्या कर सकता था, अपना सा प्रयत्न मैंने बहुत.क्यिा। और भविष्य में भी करता रहूंगा । क्षत्रिय कुल मे उत्पन्न होकर भी तुम्हारे मुह से ऐसी बाते निकलतो हैं कि आश्चर्य होता है।" - क्रोध तो द्रोण को भी बहुत आया था, परन्तु वे क्रोध को पी गए, अपने को उन्होने शांत कर लिया। दुर्योधन उत्तर मे कुछ कहना ही चाहता था कि द्रोण बोल उठे-"युद्ध का समय-होने वाला है। मुझे तैयार हो लेने दो। बातो से काम नही चले गा। युद्ध मे शस्त्र नौर वल चाहिए। दुर्योधन चुप होकर वापिस चला गया। Amrta Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ $$$安安安安安安安安安安安 - कर्ण का दान 年晚安染法染姿***邱晓华 , । रात्रि का प्रथम पहर था। भोजन करके सैनिक विश्राम कर रहे थे। परन्तु अर्जुन के नेत्रों से तो निद्रा सठी हुई थी। वह कभी शैया पर करवटे बंदलता, तो कभी व्याकुल होकर उठ पडता और शिविर मे इधर से उधर टहलने लमा। पर उसे शाति किसी भी प्रकार न मिलती। कोई समस्या उसके मस्तिष्क को मथे डाल रही थी। जब किसी भी प्रकार चैन न आया तो वह अपने शिविर से निकल कर श्री कृष्ण के शिविर की ओर चला। उसने देखा कि मधुसूदन भी शैया पर पडे करवटे वदल रहे है. जसे शैया पर शूल विछे हो और उनके कारण उन्हे चैन न पडती हो । श्री कृष्ण की व्याकुलता देखकर वह सोचने लगा-"मधुसूदन ! तो स्वय ही चिन्ताकुल है। इस समय 'उनसे कुछ पूछना ठोक न होगा, जो स्वयं व्याकुल है वह दूसरे की व्याकुलता कैसे दूर कर सकेगा?- नही, इस समय उनसे कुछ कहना ठीक नहीं।"-यह सोचकर वह जैसे आया था वैसे ही उल्टे पैरो लौटने लगा। उसी समय श्री कृष्ण ने पुकार कर कहा-"अर्जुन । क्यों आये थे और क्यो वापिस चल दिए ?" अर्जुन के पर रुक गए, जैसे किसी ने श्रखलाएं डाल दी हो। वोला-"महाराज ! एक समस्या का समाधान कराने पाया था। पर यहां देखा कि आप स्वय व्याकुल है। कोई जटिल समस्या प्रापक हृदय से शूल की भाति खटक रही है। फिर एक व्याकुल दूसरे को Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०९ कणं का दान व्याकुलता केसे हरेगा ? यही सोचकर मैं वापिस लौट रहा है।" "नही, मुझे ऐसी कोई बात नही है। मेरी व्याकुलता का कारण तुम्हारा ही भविष्य है । मैं तुम्हारे ही वारे मे सोच रहा था। वोलो, तुम क्यों व्याकुल हो?" - श्री कृष्ण ने पूछा। "रहने दीजिए, मधुसूदन | अप्प जव निश्चित होगे, तभी पूछूगा।"-यह कह कर अर्जुन ने जाने का उपक्रम किया। "अर्जन | तुम यो चले जानोगे, तो मुझे एक और चिन्ता आ घेरेगी । बोलो क्या बात हैं ?'-मधुसूदन ने आग्रह करते हुए . अर्जुन को रुकना पड़ा। वह श्री कृष्ण के पास बैठ गया, वोला-"आज मुझे नीद ही नही पाती, बार-बार मेरे सामने यही प्रश्न या खडा होता है कि द्रोणाचार्य को कैसे मारा जाये। वे जब तक जीवित हैं, तव तक हमारी सेना के लिए कालरूप धारण किए रहेगे। हमारी सफलता के लिए उनका बध होना आवश्यक है। पर हम मे से कोई ऐसा नही दीख पडता, जो उन्हें मार सके । आप से यही जानना चाहता ह कि द्रोण को मारने का क्या उपाय है ?" श्री कृष्ण के अधरो पर मुस्कान खेल गई वे बोले-"पाथ ! द्रोणाचार्य को मैदान से हटाना कोई बड़ी बात नही है परन्तु मैं साच रहा हूँ कि करण का क्या होगा? उसे कैसे मारा जायेगा?" "अोह । बस कर्ण के बारे मे आप चिन्तित हैं ?--अर्जन ने उतावलेपन से कहा-वह तो मेरे एक बाण का भक्षण है। आप व्यर्थ ही चिन्ता कर रहे है।" "धनजय ! कर्ण न तेरे वाण का भक्षण है न मेरे। उसे न तुम मार सकोगे न मैं । वह वास्तव मे विकट वीर है, हमारे लिए वही विकट समस्या है।"- श्री कृष्ण ने कहा। अर्जुन को बडा आश्चर्म हया उसने कहा-"मधुसूदन! आप नजाने कर्ण को क्या समझ वंठे हैं ? मेरे विचार से तो उसका वध करना साधारण सी बात है।" "नही, कणं जहाँ महावली है, वहीं इस युग मे सब से श्रेष्ठ निवार है। उसके पूर्व सचित पूण्य के प्रभाव से उसे मार डालना ।। के बस की बात नही , वह अपनी शुभ प्रकृति के कारण अजेय ९। भार उस समय तक वह अजेय है, जब तक उसके पास देवी । है। और उस समय तक १६ Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० जैन महाभारत कवच, कुण्डल है। जब तक उसके शरीर पर देवता द्वारा दिये गए कवच,त्तथा कुण्डल है, तब तक तुम्हारा कोई अस्त्र भी उसका वध नहीं कर सकता "श्री कृष्ण ने कर्ण को अपराजिता का कारण बताते हुए कहा ! -:. . . . . . . . : .. ... .यह सुनकर अर्जुन को भी चिन्ता हो गई। उसने पूछा-"तो गोविन्द उसके शरीर से कुण्डल उतरवाने की युक्ति ही सोचिए।" " , - - "वस इसी जटिल समस्या को सुलझाने के लिए मैं व्याकुल हू1",-श्री कृष्ण-वोले । .---." -:-, : देवी कवच कुण्डल कर्ण को कैसे मिले ? यह जाने विना कर्ण की कथा अधूरी ही रह जायेगी, इस लिए यहां हम उसे भी बता देना आवश्यक समझते हैं। . . . . . . . । युद्ध से बहुत दिनो पूर्व की बात है। ' · कर्ण की दानवीरता की चर्चा सारे संसार में होने लगी। कोई याचक उसके द्वार से खाली हाथ नहीं लौटता था। कर्ण की प्रतिज्ञा थी कि याचक यदि प्राण भी मागे तो भी वह उसे निराश न करेगा। धन तथा सम्पत्ति दान में देना तो उस के दैनिक कार्य क्रम की बात थी। ' आखिर यह चर्चा देवताओं तक भी पहुंच गई और स्वय इन्द्र ही कर्ण के प्रशसक हो गए। एक दिन समस्त देवता गण उपस्थित थे। इन्द्र अपने सहासन पर.' विराजमान थे। मृत्यू लोक की वात चल पडी इन्द्र बोले - "भरत खण्ड के दानवीर कर्ण जैसा दानवीर न आज तक कोई हुग्रा, न है और कमचित भविष्य मे कोई हो भी न ।' वह किसी याचक को इकार करना ही नहीं जानता। उसकी प्रतिज्ञा है कि कोई उस के प्राण भी मांगे तो वह 'प्रसन्नता पूर्वक दे देगा। सारा ससार उसका प्रशंसक हो गया है।" । एक देवता को शंका हो गई। बोला-"महाराज! मुझ । इस बात मे सन्देह है। सम्भव है वह धन आदि दान मे दे देता हा, इसी से नाम हो गया हो, पर किसी याचक को वह इंकार नहीं । करता; यह गलत बात है।" - "तुम्हे सन्देह है तो तुम जाकर परीक्षा ले लो।" 'इन्द्र बोले । Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ण का दान ५११ - - -- है "पाप की आज्ञा हो तो मैं परीक्षा लू।" ! "हा; हां, तुम्हे पूर्ण स्वतन्त्रता है।" इस प्रकार इन्द्र की प्राज्ञा पा कर देवता कर्ण की परीक्षा को चला और उस ने जाते ही चम्पा पुरी पर जो कर्ण की राजधानी थी, मूसलाधार वर्षा करनी प्रारम्भ कर दी । लगातार वर्षा होती रही वह ऐसी वर्षा थी कि चम्पापुरी के इतिहास मे उस वर्षा से पूर्व कभी ऐसी घोर वर्षा का उदाहरण मिलता ही न था। वह घोर वर्पा लगातार सात दिन तक होती रही। नागरिको को रोटी के लाले पड़ गए। क्योंकि लकडियां भीग गई यो । जो कुछ सूखी थी, उन से चार पांच दिन तक रोटिया पकाते रहे। पर फिर तो चल्हे मे आग जलाना असम्भन हो गया। एक दो दिन तो बेचारो ने किसी प्रकार पुजारा किया, पर जब वर्षा ने रुकने का नाम ही न लिया, तो वे चिल विला उछे। अपने बच्चों को रोटी के लिए रोते चहा हा कार करते देख कर उनका हृदय चीत्कार कर उठा। सब लोग लग आ गए और अन्त मे विचश होकर च एकत्रित हो कर कर्ण के पास गए। और जाकर दुहाई मचाई। कर्ण ने उनकी बात सहानुभूति पूर्वक सुनी और उन की विपदा को दूर करने के लिए उस ने अपने भण्डार की सारी लकड़िया नागरिको मे वितरित करदी। . एक दो समय उन से नागिरको ने काम लिया. पर वर्षा तो रकने का नाम ही न लेती थी। वह देवता जो इतनी भयकर वर्मा करा रहा था, सोचने लगा कि परीक्षा का समय तो अब आने वाला है। देखता हूं अब नागरिको को कर्ण क्या देता है। उस ने वर्षों और भी तीघ्र करदी। नागिरक पून. कर्ण के पास गए और दुहाई मचाई । एक ही सवाल था कि- “महाराज लकड़ियां चाहिए । वरना । हमारे बालक भूखों मर जायेमे।" कर्ण ने उनकी बात सुनी और वोला- "प्रजा जन ! घचराम्रो नही। जब तक मेरे पास लकड़ी का एक भी टुकड़ा रहेगा, में देता रहूगा । तुम्हारे चालको को मैं भूखो नही मरने दूगा।" मोर इतना कह कर उस ने धनुष उठाया, चल पड़ा शुद्ध चन्दन से निमित अपने राज प्रसाद को गिराने के लिए। कर्ण का Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ जैन महाभारत महल बहुत ही विशाल था, जो शुद्ध चन्दन की लकड़ियों से बनाया गयो था उस चन्दन की सुगन्ध ५२ कोस तक जाती थी। चारो ओर बावन कोस तक कर्ण का महल महकता रहता था। करोडो रुपये की लकडी उस मे लगी थी, वर्षों मे वह तैयार हया था पर कर्ण ने अपने बाणो से गिरा दिया और सारे महल की लकडिया नागरिको मे बाट दो। जहा विमाल महल था, वहां उजाड-स्थान रह गया पर कर्ण के मुख पर पश्चाताप अथवा खेद का तनिक सा भाव भी नही आया, बल्कि वह बहुत प्रसन्न था कि उस के द्वार' से याचक खाली वापिस नहीं लौटे। वह सन्तुष्ट था और जिन प्रभुके प्रति बार वार कृतज्ञता प्रगट कर रहा था कि उनकी कृपा से वह अपने नागरिको को विपदा से उबार पाया। यह देख देवता को बड़ी प्रसन्नता हुई और वह कर्ण के पास पहुचा। उस ने कहा-"धन्य, धन्य दानवीर कर्ण, तुम धन्य हो।" ___"क्या तुम्हे भी कुछ चाहिए। बोलो क्या चाहते हो।" देवता को याचक समझ कर कर्ण ने कहा। "नही राजन् ! मैं तो देवलोक से आपकी परीक्षा के लिए आया था। देवराज इन्द्र ने जो कहा था. वही सत्य निकला । श्राप वास्तव मे महान दानवीर है। मैं आप से बहुत प्रसन्न हू।"-देव ने कहा। फिर कर्ण को उस वर्ग का रहस्य ज्ञात हुआ। देवता द्वारा प्रशसा होने पर भी कर्ण को गर्व न हुआ। उस देवता ने कर्ण से प्रसन्न होकर कबच तथा कुण्डल दिए और बोला कि जब तक तुम्हारे शरीर पर यह रहेगे, तुम्हे कोई भी शत्रु न मार सकेगा। तभी से कर्ण के पास वह कवच और कुण्डल थे। xxxx श्री कृष्ण ने कवच तथा कुण्डल कर्ण से लेने की एक युक्ति सोची। उन्होंने किसी प्रकार दोनो पक्षो को तीन दिन तक युद्ध स्थगित रखने के लिए रजामन्द कर दिया और स्वय तेला धारण करके बैठ गए। तीन दिन तक अखण्ड तपस्या की। जिसके कारण स्वयं देवराज इन्द्र को वासुदेव के पास ग्राना पड़ा। उसने आते ही पूछा- "मधु सूदन ! बतलाईये, कसे याद किया?'' Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ण का दान ५१३ श्री कृष्ण बोले- "युद्ध तीन दिन के लिए स्थगित कराकर मेने आपको बुलाया है। समझ लीजिए कोई महत्त्व पूर्ण कार्य ही होगा।" ____ "हा, यह तो मैं समझता हूँ। अब बताईये भी कि मुझ से प्राय क्या चाहते हैं ?"-इन्द्र ने तूछा।। "बस आप से इतना ही चाहता हूँ कि याचक का रूप धारण करके जाईये और कर्ण से देवी कवच कुण्डल मांगकर ला दीजिए।" --श्री कृष्ण अपने उद्देश्य को प्रगट करते हुए बोले । "कर्ण के कवन और कुण्डल से- आप क्या लाभ उठाना चाहते हैं?".-इन्द्र ने पूछा। . "बात यह है कि कणं पर जब तक देवी कवच कुण्डल रहेंगे, वह किसी प्रकार भी नहीं मारा जा सकता। और विना कर्ण के मरे पाण्डवों की विजय नही हो सकती. सम्भव है कर्ण के हाथो अर्जुन हा माग जाये इस लिए दुष्ट दुर्योधन को पराजित करने के लिए कर्ण से कवच कुण्डल ले पाने की आवश्यकता है।"-श्री कृष्ण गम्भीरता पूर्वक बोले। "मधु सूदन | आप भी ऐसे उपाय अपनाकर शत्रु को पराजित करना चाहेगे, यह तो श्राशा नही थी।"-विस्मित होकर इन्द्र बोले । ___ "मैं न्याय के पक्ष में हैं। सूद की बात है कर्ण इतना महान व्यक्ति होते हुए भी परिस्थितियो वश दुष्ट दुर्योधन की पोर है, उम नीच को परास्त करने के लिए मुझ सखेद कर्ण का वध कराने की योजना करनी पड़ रही है।'-श्री कृष्ण ने कहा। . "लेकिन । कर्ण से धोखा देकर कवच कुण्डल लेना तो अन्याय है। मैं ऐसा कैसे करू ? कर्ण महान व्यक्ति है। मुझे उसके चरण छूने चाहिए। उस बसा दानवीर ससार मे और कौन है : फिर भाप हो वताईये इतने पुण्यवान से धोखा करना कहा तक उचित है"- इन्द्र ने श्री कृष्ण की आज्ञा का पालन न कर सकने की अपनी विवशता को दर्शाते हुए कहा । "कर्ण ! इतना दानवीर है कि वह यह जानते हुए भी कि कवच कुण्डल क्यो मांगे जा रहे हैं, वह सहर्ष दे देगा । नाप निश्चित राहए कि इससे आपकी महानता पर प्राच नहीं आने वाली । क्योकि पाप जो कुछ करेंगे वह धर्म व आपकी रक्षा के लिए ही करेंगे और Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ जैन महाभारत आपके कार्य से अधर्म तथा अन्याय का पक्ष कमजोर होगा ।" - T श्री कृष्ण ने समझाते हुए कहा । "क्या आप इस कार्य की किसी दूसरे के द्वारा नहीं करा सकते ? कर्ण यह थोड़े ही देखता है कि याचक छोटा है बडा । कोई साधारण व्यक्ति भी यदि उक्त याचना करेगा, तो उसे निराश वह नही लोटाएगा ।" - इन्द्र ने कहा 1 "वात इतनी सी ही होती तो आपको कष्ट नहीं दिया जाता - श्री कृष्ण ने कहा - सवाल तो एक और भी गम्भीर हैं, वह यह कि कर्ण की शुभ प्रकृति के कारण आपका एक देवता, जिसने उसे कवच व कुण्डल दिये थे, उसको रक्षा मे । रहता है । यदि कोई साधारण व्यक्ति जायेगा, तो कदाचित वह देवता विघ्न उत्पन्न कर देगा और हम सफल नहीं हो सकेंगे । इसीलिए ग्रापको स्मरण किया है।" - 1 1 ६ इस प्रकार श्री कृष्ण ने इन्द्र को वाध्य कर दिया कि वही याचक बन कर जाये । वासुदेव होने के कारण इन्द्र उनकी श्राज्ञा का पालन करने को विवश था। वह वहां से याचक का वेष धारण करके चल पड़ा । उधर उस देवता को भी इस बात का पता चल गया कि इन्द्र याचक बन कर कर्ण से कवच तथा कुण्डल मांगने जा रहा है। उसने कहा :-- आग बन कर तू चला है मैं हवा हो जाऊगा । रोग बन कर तू चला है में दवा हो जाऊगा । और वह इन्द्र के पहुंचने से पूर्व ही कर्ण के पास पहुंच गया और जाकर कहा--"सावधान, कर्ण ! सावधान ! " "क्यों क्या बात है ?" विस्मित होकर कर्ण ने पूछा । "अभी ही एक याचक श्रायेगा- वह देवता बोला- वह प्राप से देवी कवच कुण्डल मागेगा, आप कही उसे कवच कुण्डल मत दे बठना ।" कर्ण ने कहा- "यह भला कैसे सम्भव है, कि कोई याचक श्राये तथा मुझ से किसी वस्तु की याचना करें, और में उसे इकार कर दूं । यह तो मेरे स्वभाव के ही प्रतिकूल है । नहीं, मैं उसे निराण नही कर सकता ।" Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ण का दान ५१५ "कर्ण ! आप नही जानते कि वह कौन है ?" 'कोई भी हो।" "वह देवराज इन्द्र है श्री कृष्ण ने उसे भेजा है।" "यह तो और भी अच्छी बात है कि देवराज इन्द्र याचक वन कर मेरे पास आ रहा है मैं उसे कदापि निराश नही करूगा ।' . "परन्तु एक तरफ से वह तुम्हारा जीवन ही तुम से मांग रहा है।" "प्राणो के रक्षक यत्रो की ही नहीं, वह चाहे मुझसे प्राणे भी ___ माग ले, मैं सहर्प दे दूगा। यही तो मेरी प्रतिज्ञा है।" . कर्ण का उत्तर मुनकर वह 'देवता अवाक रह गया । बहुत समझाया, पर कर्ण न माना। बेचारा निराश होकर चला गया, और मोचता रहा-"यह तो स्वामी ही जा रहा है, अब मैं क्या कर सकता हूं • कोई दूसरा होता तो उसे जाने हो न देता।" " इन्द्र याचक के वेश में पहुंचे। कर्ण ने बढ़ा कर आदर सत्कार किया। फिर पूछा-"कहिए क्या चाहिए ?' इन्द्र वाले -"वर्ण | मैंने आपकी दानवीरता की बडी प्रशसा सुनी है। यदि यह सत्य है कि आप किसी को निराश नहीं करते तो कृपया अपने देवी कवच कुण्डल मुझे प्रदान कीजिए।" सुनते ही कर्ण ने कवच उतारना प्रारम्भ कर दिया। कुण्डल भी उतार डाले और इन्द्र को देते हुए बोले-- 'और कुछ ? कुछ और चाहिए तो वह भी माग लो " अरे इन्द्र कवच और कुण्डल वो क्या वस्तु है तुम जानो और श्री कृष्ण की सम्मति लेकर पायो और तुम मेरे प्राण मागो देखो में देता हूं या नही। कर्ण ने हार्दिक प्रसन्नता के साथ कहा। ___ कर्ण की दानवीरता को देखकर इन्द्र मन ही मन लज्जित हुए। उन्हे खेद हुआ कि ऐसे महापुरुष से मैंने उसके प्राण ही माग लिए । वे वोले- 'कर्ण | जानते हो मैं कौन हूं ?" "हा, जानता हूँ, तुम याचक हो। "नही, मैं इन्द्र हूं।" "गलत, बिल्कुल गलत ! तुम इन्द्र कसे ? इन्द्र तो मैं हूँ । तुम तो याचक हो।" Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत ," "नही, मैं याचक के रूप मे भले ही हू पर हूँ देवता ही । "नही, नही, इन्द्र तो मैं हू, जो तुम्हे दान दे रहा हू । तुम इन्द्र कैसे ? तुम तो मेरे सामने हाथ फैला रहे हो ।" इन्द्र लज्जित हो गए और मन ही मन कहा - "हां, कर्ण तुम वास्तव मे इन्द्र से भी महान हो ।" इन्द्र ने तब सोचा कि ऐसे महापुरुष के साथ मुझे अन्याय नही करना चाहिए। और उन्होने कहा - "कर्ण ! तुम चाहो तो मुझ से कुछ मांग सकते हो ।" कर्ण ने हस कर कहा - "तुम भला मुझे क्या दे सकते हो । मैं याचक से कुछ मांगू यह मुझे शोभा नही देता । मैं देना जानता हू, मागना नही !" # इन्द्र ने बहुत चाहा कि कर्ण कुछ मांगे, पर उसने स्वोकार न किया, तब वे स्वयं ही वोले- "लो मैं तुम्हें एक शक्ति देता हूं, जो युद्ध मे किसी भी महान योद्धा को मार सकती हैं । पर एक ही योद्धा का वध इस से हो सकेगा । तुम चाहो तो किसी पर भी इसे प्रयोग कर सकते हो · ५.१६ "" ا कर्ण ने हस कर कहा - "मुझे तुम कुछ न दो तो ही अच्छा है । क्या पता तुम पुनः याचक रूप धारण करके आओ और इस शक्ति को भी वापिस ले जाओ " "नही, ऐसा नही होगा ।" यह कहकर इन्द्र ने वह शक्ति वही फेक दो और वहा मे चल पडे । जाकर कवच कुण्डल श्री कृष्ण को दिए और कहा" वासुदेव ! मुझे ऐसा अनुभव हो रहा है कि उस महापुरुष के साथ मेरे द्वारा ग्रन्याय हुआ है । वास्तव मे कर्ण बहुत ही महान पुरुष है। उसकी समता करने वाला संसार मे कोई नही " X - X X इधर दोनो ग्रोर की सेनाए रण क्षेत्र मे पहुंच गई। सेनापतियो ने अपनी अपनी सेना को क्रम मे खडा किया और ग्रावश्यक हिदायतें करके शस्त्र बजाए । कल जो घायल हुए थे, उन मे से भी अधिकतर आज रण क्षेत्र में खड़े थे। कौरवो की थोर से युद्ध आरम्भ होते हो मशप्तकों (भिगतं देशीय वीरो) ने आज पुनः अर्जुन को युद्ध के लिए ललकारा । दक्षिण दिशा की ओर खड़े सशप्तको की चुनौती अर्जुन ने स्वीकार की और अपना रथ वढाते हुए उधर चल पड़ा । Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ण का दान निकट जाकर उसने कहा - " तो तुम लोग यमलोक सिधारने के लिए बेताब हो रहे हो ।" ५१७ सुशर्मा गरज वडा - " तनिक दो दो हाथ करले तब तुम्हे पता चले कि कौन यमलोक सिधारता है ।" अर्जुन ने गाण्डीव उठाया और बाण वर्षा आरम्भ कर दी, सप्तक भी टिड्डी दल की भाति अर्जुन पर टूट पड े । घोर संग्राम छिड़ गया । अर्जुन के दक्षिण की ओर चले जाने पर द्रोणाचार्य ने अपनी सेना की चक्रव्यूह मे रचना की। यह देख कर पाण्डव सेना का सेनापति धृष्टद्युम्न चिन्तित हो उठा। उसने जाकर युधिष्ठिर से कहा—“राजन् नाज बडी विकट समस्या आ गई । द्रोण ने आज चक्रव्यूह रचा है । उसे कौन तोड सकेगा ?" इतने ही मे द्रोण ने धावा बोल दिया । युधिष्ठिर की ओर से भीम, सात्यकि, चेकितान, धृष्टद्युम्न, कृतिभोज, उतमौजा, विराट राज, कैकेय वीर आदि कितने हो महारथी थे । परन्तु चक्र व्यूह मे व्यवस्थित द्रोण की सेना के घावे को उन सभी सर्व विख्यात महारथियो मे से कोई न रोक पाया। सभी जी तोड प्रयत्न कर रहे थे. भीमसेन कभी घनुष उठाता, तो कभी गदा लेकर चलता । धृष्टद्युम्न कभी किसी ओर से आक्रमण करता, तो कभी किसी ओर से व्यूह तोडने का प्रयत्न करता, पर जहा भी जाता, अपने को घिरा पाता। यह देशा देखकर युधिष्ठिर चिन्तित हो उठे । सेनिको को मोर्चे पर लगाकर उन्होने भीमसेन, नकुल और सहदेव को अपने पास बुलाया । बोले - "ग्राज लगता है हमारी पराजय का दिन या गया । द्रोणाचार्य ने ऐसे चक्र व्यूह की रचना की है कि हम मे से सिवाय अर्जुन के और कोई इसे तोडने की विधि नही जानता । जिधर से हमारे महारथी, इस - व्यूह को तोडने की चेष्टा करते है उसी ओर से अपने को घिरा पाते हैं। हमारे सभी किये कराये पर पानी फिरना चाहता है । श्रव क्या किया जाये ?" 1 भीमसेन ने कहा - "महाराज ! मैं अपने सभी अस्त्र प्रयोग कार चुका परन्तु इस व्यूह का तो रास्ता ही दिखाई नही देता । ऐसा शुक्र है कि जिधर से जाता हूं उसी ओर से टिड्डो दल की भांति संनिक पीर महारथी टूट पड़ते हैं । मैं स्वयं निराश हो चुका हूँ ।" Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत नकुल ने कहा- "राजन् । आज लक्षण अच्छे नही दिखाई देते। मैं स्वय विस्मित हू कि यह व्यूह है तो कैसा? एक ऐसा चक्करदार किला द्रोणाचार्य ने बनाया है कि हम कुछ कर ही नही पाते।" सहदेव भी वोला-'महाराज ! मुझे तो लगता है कि यह जो कुछ हो रहा है । दुर्योधन और द्रोणाचार्य के पहले से सोचे समझे पडयन्त्र के अन्तर्गत है। द्रोणाचार्य को ज्ञात है कि चक्र व्यूह को तोडना हम मे से कोई नही जानता, जो जानता है, उसे पहले ही हम से अलग कर दिया गया है।" । युधिष्ठिर को आशा थी कि भाईयो से परामर्श करके कोई न कोई उपाय निकल आयेगा, परन्तु उन सव की बातों से भी वे निराश ही हुए। अन्त मे सिर पकड कर बैठ गए और शोक विह्वल होकर कहने लगे -"हाय ! मैंने समझा था कि यह युद्ध हमारी विपत्तियो को समाप्त कर देगा, परन्तु अब तो यह दीख रहा है कि यह सब कुछ हमारे नाश का सामान हो रहा है। और इस नाश के बीज को वोने वाला मैं ही। मेरे ही कारण हमारे कुल के महान पितामह का वध हुआ, मेरे ही कारण भरत क्षेत्र के असख्य योद्धा मौत के घाट उतरे। मैं ही विनाश का कारण हुन हा देव ! अपना 'विनाश होते मैं कैसे देख सकता है। इस से तो अच्छा है कि मेरे जीवन ही का अन्त हो जाये।" भीमसेन ज्येष्ट भ्राता युधिष्ठिर को इस प्रकार विचलित होते देखकर बड़ा दुखी हा और सान्त्वना देते हुए बोला"महागज। अव पश्चाताप से क्या लाभ प्रापका इस मे क्या दोप? दुप्ट दुर्योधन के पडयन्त्रो मे हम लोग फसते रहे और विपत्तियो मे पड़ते रहे । आज भी उसी दुष्ट के जाल में फसे हैं । पर कोई विपत्ति सदैव नही रहती। समस्त महान आत्मायो का कथन है कि युद्ध में प्रारही की विजय होगी। आप सन्तोप करके हमें प्रयत्न करते रहने का आदेश दीजिए। जब तक मेरे शरीर मे प्राण है, मैं आपकी पराजय नही होने दूगा." भैया ! तुम से मुझे यही श्राशा है, पर भेडिया धसान से क्या लाभ? मैं तुम्हें बिना मौत मरवाकर कसे सुखी रह सकता हूं ? और जब राज्य व सम्पत्ति को भोगने वाले मेरे भाई ही नहीं Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ण का दान ५१९ रहेगे तो मैं इस राज्य को लेकर क्या करूगा ? इस लिए मैं तुम्हारे प्राणो की आहुति दिलाना नहीं चाहता।"-युधिष्ठिर गम्भीरता पूर्वक बोले। "राजन ! शत्र की सेनाएं आगे बढ़ रही हैं, वह देखिए हमारे सैनिक मिट्टी के पुतलो की भाँति ढहते चले जा रहे हैं। द्रोणाचार्य के रथ से बार-बार विजय शंख की ध्वनि आ रही है। हमारी सेना का मनोबल गिर रहा है। अब बातें करने से काम न चलेगा। चलिए सब मिलकर टूट पड़ें। जिए या मरे, पर हम जीते जी दुष्ट दुर्योधन के हाथ में विजय पताका नहीं देख सकते।"नकुन ने उत्साह पूर्वक कहा। युधिष्ठिर ने पुन दुःख प्रगट करते हुए कहा-"मुझे पराजय या विजय की इतनी चिन्ता नही, चिन्ता इस बात की है कि मेरा प्रिय भ्राता अर्जुन, जिस पर हमे गर्व है, मेरे लिए अपने प्राणों की वाज़ी लगा रहा है, यदि कही शत्रुओं की विजय हो गई तो हम उस वीर को क्या 'उत्तरं देंगे ? ... हा शोक! आज रण क्षेत्र में मुझे यह भी दिन देखना पडा ?" . युधिष्ठिर सिर पकड द ख प्रगट कर ही रहे थे। कि उधर : से अर्जुन पुत्र अभिमन्यु आ निकला, जिसने वाल्यावस्था में ही गत १२ दिन मे वह पराक्रम दिखाया था कि शत्रु उससे उसी प्रकार काँपते थे जैसे अर्जुन से। सभी कहते थे कि अभिमन्यु श्री कृष्ण श्रार अर्जुन से किसी बात मे कम नही। वह पाया और आते ही युधिष्ठिर को प्रणाम किया, फिर विस्फारित नेत्रो से सभी पर दृष्टि डाली उन्हें देखते ही उसके विस्मय का ठिकाना न रहा। सन कहा- "महाराज ! श्राप लोग इस समय किस सोच मे बैठे है ' आपके चेहरो से तो लगता कि ग्राप पर कोई भारी विपत्ति आ गई है। या कोई भयानक घटना घटी है। आप किस का शोक मना रहे है ? उधर शत्र सेना प्रलय मचाती चली आ रही है। हमारे महारथी तक कान टेक गए। और इधर आप शोकावस्था में पठ मासू वहाते से दीख पड़ रहे है ? क्या कारण है ? कुछ में भी तो जानूं।" .. युधिष्ठिर ने गरदन उठाई और उसे अपने पास बुलाकर कहा-"वेटा ! तुम्हारी वीरता पर हम जितना भी गर्व करे कम Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२०. जैन-महाभारत. ही है बारह दिन तक तुमने जिस पराक्रम का प्रदर्शन किया, उस ने हमें भी आश्चर्य मे डाल दिया है। तुम ने बड़े बड़े विख्यात योद्धाओं के दात खट्टे कर दिए है । तुम्हारे अन्दर उत्साह है, विल है और कौशल है। ठीक है हमे इस समय इस प्रकार देखकर तुम्हे आश्चर्य हुआ होगा। पर बेटा !- दुःख है कि आज हमारे और, तुम्हारे-वारह दिन के सफलता पूर्ण युद्ध के कारनामे पर पानी फिर । रहा है। - "क्यों क्या हुआ ?" आश्चर्य से अभिमन्यु ने कहा। "वात यह है कि दुष्ट दुर्योधन के कुचक्र में फिर एक बार हम फस गए हैं। आज द्रोणाचार्थ ने चक्र व्यूह रचा है, परन्तु उस मे प्रवेश करने और उसे तोडने की विधि हम में से कोई नही जानता। वीर अर्जुन जानता था, पर वह तो दक्षिण की ओर संशप्तको से लड़ने गया। है। यही वह समस्या है जिसके कारण हम दुखित हैं। कुछ समझ मे नही आता कि क्या करें? आज हमारी पराजय निश्चित है ।"युधिष्टिर ने बड़े प्रेम से अभिमन्यु को समझाया। अभिमन्यु ने छाती तानकर कहा--"पिता जी. यहां नही तो क्या हुआ, उनका पुत्र तो यहां है।' युधिष्ठिर की आँखो मे तुरन्त चमक आ गई। हर्षातिरेक से पूछा-"क्या तुम जानते हो चक्र च्यूह तोड़ना ?" - "मैं चक्र व्यूह मे प्रवेश करना तो जानता हू परन्तु प्रवेश करने के उपरान्त कही कोई सकट आ जाये तो व्यूह से वाहरे निकलने की विधि मुझे ज्ञात नही" ~नम्र शब्दो में अभिमन्यु बोला। भीम को अभिमन्यु की बात से बड़ी प्रसन्नता हुई, उस ने .. कहा -"प्रवेश करने के उपरान्त संकट की तुम ने एक ही कही। मैं जो'तुम्हारे साथ रहूंगा।", '. युधिष्ठिर बोले- 'हां, हां हम सभी तुम्हारे पीछे पीछे चलेंगे : व्यूह को तोड़कर एक बार 'तुम प्रवेश कर लो, फिर तो जिधर से . ' तुम आगे बढ़ोगे. हम तुम्हारे पीछे पीछे चले आवेगे और तुम्हारी . सहायता को तैयार रहेगे।" ' भीमसेन ने पुन: कहा-तुम्हारे ठीक पीछे मैं रहूंगा. उस समय तुम्हारे अंगरक्षक जैसा काम करूगा और धृष्टद्युम्न, सात्यकि Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२१ कर्न का दान यदि वीरो को भी साथ लेलेंगे, वे सब अपनी अपनी सेनाओ सहित तुम्हारा अनुकरण करेगे । एक बार तुम ने व्यूह तोड दिया, तो फिर यह निश्चित समझो कि हम सब कौरव सेना को तहस नहस करके छोगे । युधिष्ठिर ने तब कुछ सोचकर कहा - "लेकिन तुम्हें कुछ हो गया तो मे अर्जुन भैया को क्या उत्तर दूंगा । नही, यह ठीक नही है। मैं अपनी विजय की कामना के लिए तुम्हे सकट मे नही डाल सकता ।" 1 "महाराज ! अप क्यों ऐसी चिन्ता करते हैं । मैं अपने मामा श्री कृष्ण और अपने पिता को दिखा दूंगा कि उनको अनुपस्थिति मे मैं उनके कार्य को पूर्ण कर सकता हू । श्रपने पराक्रम से मैं उन्हें प्रसन्न कर दूगा " " बर्डे जोश के साथ अभिमन्यु ने श्री कृष्ण और अर्जुन की वीरता को स्मरण करके कहा । 1 हा हाँ ठीक है। अभिमन्यु अपने पिता के अनुरूप ही हैं। और हम जो साथ होंगे तो इस पर संकट हो कैसे सकता हैं। मैं अपनी गदा से एक-एक कोरव को मौत के घाट उतार दूगा ।"भीमसेन ने उत्साह दर्शाते हुए कहा । युधिष्ठिर ने प्राशीर्वाद देते हुए कहा - "बेटा ! तुम्हारा वल हमेशा बढ़ता रहेगा। तुम यशस्वी होवोगे । " Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * संतालीसा परिच्छेद * 88888888888888 अभिमन्यु का वध 88888888888888 युधिष्ठिर चाहते थे कि अभिनन्यु को किसी सकट में न डाला जाय अतः उन्होने धृष्टद्युम्न, विराट, द्रपद, भीमसेन ' सात्यकि, -मकुल और सहदेव आदि सभी महारथियों को साथ लेकर एक विशाल सेना सहित अभिमन्यु का अनुकरण करना प्रारम्भ किया। अभिमन्यु गर्व के साथ अपने रथ पर सवार होकर द्रोण की चक्र व्यूह में व्यवस्थित सेना की ओर बढ़ा। उसने अपने सारथि को उत्साहित करते हुए कहा- 'सुमित्र! वह देखो द्रोण के रथ की ध्वजा । बस उसी पोर रथ बढ़ाओ। जल्दी करो।" सारथि ने अभिमन्यु की आज्ञा पाकर रथ को तीव्र गति से उसी ओर हांकना प्रारम्भ कर दिया। परन्तु रथ की गति से अभिमन्यु सन्तुष्ट न हुआ। उसने रथ को तेज़ो से हाकने के लिए पुनः सारथि को उकसाया। उत्साह में पाकर वह बार-बार कहने लगा -"सुमित्र चलायो, और तेज़ चलाओ।" । सारथि ने घोड़ो को तेजी से हांकते हुए नम्र भाल से कहा ~ "भैया ! चक्र व्यूह तोडना, वह भी द्रोणाचार्य जसे रण चातुर्य में पारंगत विद्या भास्कर द्वारा रचित, बड़ा ही जटिल कार्य है। तुम्हें महाराज युधिष्ठिर ने बड़ा ही भारी काम सौंप दिया है। द्रोणाचार्य अस्त्र विद्या के महान प्राचार्य हैं और महावली हैं। आप तो उनके सामने अवस्था में अभी विलकुल वालक समान ही हैं। इस लिए एक बार पुन. सोच लीजिए, ऐसा न हो कि ........' Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिमन्यु का वध ..........२३.. ३ अभिमन्यु सारथि की बात सुन कर हस पडा और बोला- "मुमित्र ! तुम जानते हो कि मैं वासुदेव श्री कृष्ण का भानजा और सर्व विख्यात धनुर्धारी वीर अर्जुन का पुत्र हूं। मेरी रगो मे वह रक्त दोड रहा है कि भय और अशंका तो मेरे पास भी नही फटक सकते। तुम जिन्हे महावली कह रहे हो उस की सारी सेना को मिला कर भी मेरा वल उन से अधिक है । और फिर कुल नायक को चिन्तित पडा देख कर मैं चुप रह जाऊं यह मुझ से नही होगा ! तुम चिन्ता मत करो। बस तेज चलायो । मुझे शीघ्र ही उस ओर पहुचादो " - अभिमन्यु की आज्ञा मान कर सारथि ने उसी अोर रथ वढा दिया। पीछे पीछे अन्य पान्डव वीरो के रथ और उन के सैनिक थे। दोड रहा है तो कह रहे हा फिर कुल ना तुम चिन्ता . आकाश मे मूर्य चमक रहा था, उसकी किरण अग्निनाणों की भाति पृथ्वी पर बरस रही थी, इधर अभिमन्यु का रथ बडे वेग से कोरव सेना को ओर बढ़ रहा था। तीन तीन वर्ष की आयु के बडे ही सुन्दर, चचल और वेगवान घोडे अभिमन्यु के सुनहरे रथ में जुते थे। अभिमन्यु की भाति उन मे भी उत्साह था। मानो वे भो शीघ्र ही कौरव सेना मैं पहंच कर उन के चक्र व्यूह को तोड डालने के लिए उत्सुक हो। अभिमन्यू का रथ ज्यो ही कौरव सेना के व्यूह के निकट पहुचा कौरव सेना मे हल चल मच गई।"--वह देखो अर्जुन पुत्र अभिमन्यु पा रहा है।" बहत से सैनिक अभिमन्यु के रथ की पोर सकेत कर के एक साथ चीख उठे। कुछ दूसरे सैनिक चिल्लाए . "और उस के पीछे पाण्डव-वीर अपनी सेना सहित बड़ी तेजी से बढे चले आ रहे हैं।" "अर्जुन न सही अभिमन्यु ही आज प्रलय मचा देगा।" किसी ने अाशका प्रकट करते हुए कहा । 'अजी! द्रोणाचार्य ने आज वह व्यूह रचा है कि आभमन्यु जैसे कल के छोकरे को तो प्रवेश मार्ग का पता भी नहीं चलेगा।" S एक सैनिक बोला। "वह भी सिंहनी का एक केहरी ही है देखो तो किस शान से चला पा रहा है ।" दूसरे ने कहा । कणिकार वृक्ष की ध्वजा लहराते हुए अभिमन्यु के रथ के Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ जैन महाभारत कौरव सेना के निकट पहुंचते ही, एक बारतो कौरव सैनिको के दिल 'दहल गए। सभी मन ही मन सोचने लगे--"वोरता मे अभिमन्यु अर्जुन से किसी प्रकार कम नही। आज के युद्ध में देखना ही चाहिए।" और अभिमन्यु का रथ घड़ घंडाता हुया ऐसे प्रा धमका जैसे छलांग लगा कर सिंह अपने शिकार के सिर पर प्रा धमकता है । एक मुहूर्त के लिए तो कौरव सेना की वह गति हो गई जैसे विजली टूटने पर भयभीत असहाय मनुष्य की हो जाती है। पान की आन में अभिमन्यु का रथ आया और बडे वेग से आक्रमण कर के उस ने अपने लिए मार्ग बना लिया। बडे यत्न से बनाया हुओं द्रोणाचार्य का व्यूह देखते ही देखते टूट गया ओर अभिमन्यु ने व्यूह में प्रवेश कर लिया। जैसे तूफान के सामने आने वाली चट्टाने भी ढहती चली जाती है। इसी प्रकारे अभिमण्यु के सामने जो भी कौरव वीर पाया वही यमलोक कूच करता गया। जैसे भाग में पड़ कर पतंगे भस्म हो जाते हैं उसी प्रकार अभिमन्यु की गति को रोकने की चेष्टा करने वाले कौरव वीर अभिमन्यु के शौर्य की ज्वाला में भस्म हो गए शवों और नर मुन्डों के ढेरो पर से उतरता हा अभिमन्यु का रथ आगे ही वढता गया। शिशु सिंह का प्रत्येक वाण यमदूत बन कर निकलता जिस पर पड़ता उसी के प्राण लेकर छोडता । जिधर से उसका रथ निकलता उधर ही सैनिकों के शव भूमि पर विछ जाते यहा तक कि पैर रखने को स्थान न मिलता। जिधर दृष्टि जाती उघर ही धनुष वाण, ढाल, तलवार, फरसे, गदा, अफुश. भाले, रास, चावुक, गल, नर मंड, कटे हुए मानव अंग, फटे कवच, रथो के टुकड़े आदि विखरे पड़े थे। कटे हुए हाथों, फटे सिरो, कूचली हुई खोपड़िया, हाथ पाव विहीन घड़ो आदि इस प्रकार विछ गए कि भूमि दिखाई ही नहीं देती थी। कौरव सैनिक जान हथेली पर रख कर पाते, परन्तु क्षण भर मैं वे यमलोक सिधार जाते। यह दशा देख कर कारव सैनिक भय विह्वल होकर इधर उधर भागने की चेष्टा करने लगे। द्रोण के व्यवस्थित व्यूह की यह दुर्दशा देख कर दुयोधन विक्षुब्ध हो उठा। उस ने अपने सनिको को फटकारना प्रारम्भ कर दिया और जब उसकी फटकारो से भी सैनिकों को उत्साह न पाया Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिमन्यु का वध तो वह स्वय ही जोश मे आकर बाल वीर से जा भिडा। परन्तु दुर्योधन को क्रुद्ध होकर अपने सामने आया देख कर अभिमन्यु की वा खिल गई । बड़े जोश से बोला-"आईये ! महाराज में आप ही की सेवा के लिए तो यहा आया हूं। अंभो तक आप कहां छुपे हुए दुर्योधन की कनपटी, जलने लगी, आवेश में आकर बोला"क्यो रे छोकरे ! कुछ सैनिको पर तेरा वार क्या चल गया तू होश. ही खो बैठा। सिंह की माद मे आकर-भी छाती तानता है। ठहर अभी ही तुझे बताता हूं।" कह कर दुर्योधन अभिमन्यु की ओर झपटा, पर इस से पहले कि वह कोई वार कर सके, अभिमन्यू के वाण उसकी ओर फुफकारे - नागो की भांति झपटे। । "ओह ! तू तो सिपोलिया है।"-इतना कह कर दुर्योधन वही रुक गया और बाण वरसाने लगा परन्तु अभिमन्यु के. बाणो के आग उस के बाण कुछ न कर पाये। दुर्योधन कितनी बार दिशा बदल वदल कर,वार करने का प्रयत्न करता रहा, परन्तु अभिमन्यु योधन के बाणों को बीच ही मे, काटता रहा। इस प्रकार दोनो मे बार युद्ध छिड़ गया। अभिमन्यू के प्रहारो को देख कर कौरव निको को शका होने लगी कि कही महाराज दुर्योधन बालक के साथी हो न मारे जायें। भयभीत होकर सैनिक शोर मचाने लगे। ... द्रोणाचार्य को जब पता चला कि दुर्योधन अभिमन्यु से जा भड़ा है और वह वीर बालक दर्नोधन का नाको दम किए हुए हैं । ह बड़ा हो चिन्ता हुई और तुरन्त कुछ वीरो को आदेश दिया कि १ जाकर शीघ्र ही दुर्योधन की रक्षा करें। जैसे भी हो दुर्योधन को सह-शिशु के पजे से सुरक्षित छडा लें। आदेश पाते हो कितने __ हा वीर दुर्योधन की सहायता के लिए दौड पड। - दुधिन अपनी सी बहत कोशिशें कर रहा था कि किसी कार अभिमन्यु के चक्कर से निकला जाये पर वह वीर वालक उसे लन ६ तभी तो दुर्योधन निकले। इतने में ही द्रोणाचार्य की १. वहा पहुंच गई। जब एक साथ कितने ही वीरो ने दुर्योधन की ना करनी प्रारम्भ कर दी, तो दुर्योधन को बड़ा सन्तोष हुआ। बार बड़े परिश्रम से अभिमन्यु से युद्ध करने लगे, परन्तु अभि Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ F जैन महाभारत 4 मन्यु इतने वीरो के मुकाबले पर थाने के पश्चात तनिक भी विचलित न हुआ । वह उसी तरह वहादुरी से लड़ता रहा । यह देख कर दुर्योधन सहित सभी कौरव वीर चकित रह गए और मन हा मन उसकी प्रशसा करने लगे । कौरव वीर जी जान तोड कर लड रहे थे, इस घोर युद्ध मे दुर्योधन का दांव चल गया, और वह वहां से बच निकला। और "खैर से बुद्ध घर को श्राये" को कहावत चरितार्थ करता हुए, वह अपने प्राणों की खेर मनाते हुए वहाँ से चला गया। जब अभिमन्यु ने अपने सामने के योद्धाओं में दुयोधन को न पाया, तो वह पश्चाताप करते हुए सोचने लगा- " अफसोस हाथ मे श्राया हुआ शिकार बच कर निकल गया ।" उसे दुख तो हुआ पर युद्ध करने में शिथिलता न श्रई । उसी प्रकार वह लड़ता रहा और सोचता रहा कि शीघ्र ही इन वीरों को मार कर वह दुर्योधन को जा घेरे। उसे ने वड े उत्साह से उन्हें मार भगाया श्रोर श्रागे वडा । इसी आशा से कि ग्रागे कही न कही तो फिर दुर्योधन से सामना होगा और अब की बार वह उसे बच निकलने का अवसर ही न देगा । वह मार काट करता हुआ ग्रागे वढता जा रहा था, पर उसकी चचल दृष्टि वार वार दुर्योधन को ही खोज रही थी । ५२६ कौरव सेना ने जब देखा कि बालक अभिमन्यु प्रलय मचाता हुआ आगे बढ़ा ही जाता है, और यदि यही गति रही तो शीघ्र ही वह समस्त कौरव सेना को मार भगायेगा, तो युद्ध-धर्म और लज्जा को उसने ताण पर रख दिया। थोर बहुत से वीर इकट्ठे होकर एक साथ चारी भोर से उस वीर वालक पर टूट पड़े । परन्तु जैसे बढ़ती हुई बाढ के मामने रेत के प्रसस्य टोले तहस नहस होते चले जाते हैं, वर्षा ऋतु मे उफनती नदिया अपनी रेती ले किनारों को दहाती हुई चली जाती हैं, इसी प्रकार अभिमन्यु अपने सामने ग्राये हुए वीरो को ढहाता, मार काट करता श्रागे बढ गया । कौरवो की विशाल सेना के मध्य अभिमन्यु मेरु पर्वत की भांति दृढ़ होकर खडा था, जो टकराता वही टुकड़े टुकड़े हो जाता । कौरव वीरो में ही हा हा कार मच गया और यह देखकर द्रोण, श्रश्वस्थामा, कर्ण, शकुनि आदि सात महारथियों ने अपने अपने Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिमन्यु का वध ५२७ रथो पर चढकर एक साथ ही उस पर हल्ला बोल दिया। इसी बीच प्रश्नख नासक एक राजा बड़े वेग से अभिमन्यु के सामने पहूचा और जाकर भीषण प्रहार करने लगा। अपने बाणो से अभिमन्यु ने उसके वेग को रोक दिया और दो ही बाणो की मार से उसका शरीर पाहत होकर रथ से नीचे लुढक गया। क्रुद्ध होकर कर्ण ने तव वाण वर्षा प्रारम्भ की और मुकावले पर जा डटा । अभिमन्यु ने कर्ण को देखा तो तनिक सा मुस्करा कर बोला- "पिता से पराजित होने की कामना छोडकर पुत्र के हाथो अपनी मिट्टी खराब कराने आये हो तो लो।" बस वाण वर्षा प्रारम्भ कर दी, उसके अभेद्य कवच को तोड़ डाला भौर काफी परेशान किया। कर्ण की बुरी दशा देख दूसरे वीर प्रा डटे, पर सभी को अभिमन्यु ने अधिक देर तक न टिकने दिया। कितने ही वीरो को अपने प्राणो से हाथ धोना पड़ा। मद्रराज शल्य भी बुरी तरह घायल हुए, और अपने रथ पर ही अचेत पड़ गए। यह देखकर मद्रराज का छोटा भाई क्रोध के मारे आपे से बाहर हो गया और गरज कर बोला- "अभिमन्यु अब सम्भल । देख मैं तेरा काल बनकर आता ह " इतना कहकर वह अभिमन्यु की ओर झपटा, परन्तु अभिमन्यु ने उसके रथ को तोड़ डाला और अन्त मे यह कहकर कि-"जा तू भी, मत्यु को प्राप्त हो।" एक बाण मारा जा उसके सिर को दो भागो मे विभाजित करते हए दूर निकल गया। - - - अपने मामा श्री कृष्ण और पिता वीर अर्जुन से सीखी अस्त्र विद्या को काम मे लाकर कौरव दल के लिए सर्वनाश का दृश्य अस्तुत करने वाले अभिमन्यु की वीरता तथा रण कौशल को देखकर प्राणाचाय मन ही मन बहत प्रसन्न हए। वे गदगद हो उठे। और कृपाचार्य को सम्बोधित करके कहने लगे - 'मुझे सन्देह हैं कि अर्जुन भी इस वीर के समान पराक्रम दिखा सकता है ." - द्रोण ने मुग्ध होकर यह शब्द कहे थे, जो दुर्योधन ने भी सुन लिए। अभिमन्यु की प्रशसा द्रोण के मुह से सुनकर दुर्योधन को वडा कोष पाया। कहने लगा-"प्राचार्य को अर्जुन से कितना स्नेह ६, यह उसके पुत्र की प्रशसा सुनकर ही कोई समझ सकता है। भिमन्यु ठहरा उनके परम शिष्य का पुत्र । फिर प्राचार्य उसका . Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ जैन महाभारत Purnainamai दमन कैसे कर सकते हैं ? वे चाहते तो अब-तक भला यह बालक जीता बच सकता था ?" दुर्योधन का मन अपराधी था, अपराधी जैसे: दूसरो की अोर . से शांकित रहता है. इसी प्रकार दुर्योधन सदैव ही द्रोण के प्रति सशंक रहता था उसने यह बात कहकर द्रोणाचार्य के मन को प्रशांत कर दिया। तभी दुःशासन वोला-"राजन् । द्रोणाचार्य उससे स्नेह रखने के कारण उसे क्षमा कर रहे हैं तो क्या हुआ ? मैं जो हूं। लो मैं अभी ही इस अभिमानी बालक को ठिकाने लगाये देता हूं।" । इतना कहकर वह अभिमन्यु की ओर झपटा। दोनों-में, घोर , सग्राम होने लगा। वे दोनों एक दूसरे को चकमा देते. पैतरे वदलते : और अद्भुत अस्त्रो का प्रयोग करके परास्त करने का प्रयत्न करते रहे। जव बहुत देरि हो गई, युद्ध चलते तो एक बार अभिमन्यु ने द्ध होकर एक तीक्ष्ण बाण मारा, जिसे खाकर दुःशासन पुनः वाण न चला सका । अचेत होकर अपने रथ में हो चित गिर पड़ा। उसके चतुर साथी ने दुःशासन की देशा 'देखकर अपने रण को रण स्थल से दूर ले गया। पराक्रमी दु.शासन की पराजय को देखकर कौरवो मे सर्वत्र भय छा गया और जो थोड़े बहुत पाण्डव संनिक 'इस दृश्य को देख रहे थे, वे हतिरेक मे अभिमण्य की जय जयकार करने लगे। . __ . महावली कर्ण अभिमन्यु की जय जयकार को सुनकर श्रोध से जलने लगा, वह पुन: ताल ठोककर अभिमन्यु के सामने प्रा उटा'। दोनो मे भयकर युद्ध होने लगा, अन्त मे एक बार अभियन्यु ने पार से कहा-"कर्ण ! पहले तो वच गए थे, अब की बार सावधान।" कर्ण ने उसी क्षण एक भयानक बाण धनुप पर चढ़ाया पर अभिमन्यु ने उसका धनप ही तोड डाला। कर्ण दात पीसने लगा, पर अभिमन्यु ने उसे इतना अवकाश ही न दिया कि वह दूसरा धनुप ले सके। तभी कर्ण के भाई सत पूत्र ने अभिमन्यु पर प्रायमण कर दिया। वह कर्ण का बदला लेना चाहता था, परन्तु अभिमन्यु के एक वाण से ही उसका सिर घड से भिन्न होकर पृथ्वी पर गिर " गया। लगे हाथों अभिमन्यु ने कर्ण को भी फिर खबर ले ली और कर्ण को अपने प्राण वचाने के लिए अपनी सेना सहित रण क्षेत्र से हट जाना पड़ा। Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिमन्यु का वध .............. ५२९, · · कर्ण को जब अभिमन्यु ने खदेड दिया, तो कौरवो की पक्तिया जगह जगह 'से टूट गई। सैनिक अपने प्राण लेकर भागने 'लगे। यह दशा देखकर द्रोणाचार्य को बड़ी चिन्ता हुई। उन्होने 'संनिको को ललकारा, उन्हें रोका और युद्ध के लिए उकसाया । पर जो भी अभिमन्यु के सामने आने का साहस करता वही मारा जाता। वह उस समय उस ज्वाला के समान था, जिसमें कोई भी संनिक रूपो लकड़ी जाने पर धू धू करके जलने लगती थो। .x , x .. x x .. अभिमन्यु तो उस और साक्षात यमराज का रूप धारण किए प्रलय का ताण्डव नृत्य कर रहा है। प्राग्रो हम दूसरी ओर लौट चलं । जैसा कि हम पहले कह आये हैं, पाण्डव-वोर अपनी सेना सहित अभिमन्यु के पीछे पोछे आ रहे थे, जब अभिनन्यु ने व्यूह ताड कर अपने लिए मार्ग लिया, और कौरव सैनिक उसकी गति को अवरुद्ध करने के लिए उससे यद्ध करने लगे, तो उधर पाण्डव वीरो ने भी व्यूह मे घसने की चेप्टा की , परन्तु उसी क्षण जयद्रथ अपने सनिको को लेकर वहां पहच गया और उसने पाण्डवों पर भीषण आक्रमण कर दिया। धतराष्ट्र के भांजे, सिंधु नरेश जयद्रथ के इस साहस पूर्ण कार्य और सूफ को देखकर उस मोरचे के कौरव सैनिको - को उत्साह की लहर दौड़ गई। दूसरी ओर के कौरव सैनिक शीघ्न - ही दोडकर वहाँ पहुच गए, जहा जयद्रथ पाण्डव-वीरो का रास्ता - रोके खडा था। शीघ्न ही व्यूह मे आई दरार भर गई। इतने सैनिक चहा नहुच गए, कि अभिमन्यु ने जिन पक्तियो को तोड़कर अपने • लिए मार्ग बनाया था, वे पूर्ण हो गई और पहले से भी अधिक सुदृढ हो गई। पाण्डव वीर जयद्रथ से टक्कर लेने लगे। व्यूह के द्वार पर युधिष्ठिर तथा भीमसेन जयद्रथ से भिड गए। भीषण सग्राम हो रहा था, कि युधिष्ठिर ने एक बार भाला फेंक कर जयद्रथ पर मारा, जिससे जयद्रथ का धनुप टूट गया। क्षण भर मे ही जयद्रथ ने दूसरा Ey " घनुप सम्भाल लिया। और युधिष्ठिर पर बाणो की वर्षा प्रारम्भ कर दी। . भीमसेन ने जयद्रथ के भीपण प्राकमण के उत्तर में बाण बरसाये और उसके रथ की ध्वजा तथा छतरी कट कर रण भूमि म गिर गई। जयद्रथ का धनुप भी टूट गया, फिर भी वह किचित Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० जैन महाभारत मात्र भी विचलित न हुआ। उसने पुन: एक दूसरा धनुष सम्भाला और भीमसेन पर ही बाण बरसाने लगा, जिससे भीमसेन का धनुष कट कर गिर गया पल भर में ही जयद्रथ के बाणो से भीमसेन के रथ के घोडे ढेर हो गए। लाचार होकर भीमसेन को अपना रथ छोडकर सात्यकि के रथ पर चढना पड़ा। जयद्रथ ने जिस कुशलता से व्यूह की टूटो किले बन्दी को फिर से पूरा करके और वीरता से पाण्डवो को रोके रखकर व्यूह को ज्यो का त्यो बना दिया और पाण्डवों को व्यूह में प्रवेश न करने दिया, इस लिए अकेला अभिमन्यु कुछ सैनिको सहित ही व्यूह में पहुंच पाया और समस्त पाण्डव-वीर जो सकट के समय अभिमन्यु की रक्षा करने के उद्देश्य से चले थे, व्यूह से बाहर ही रह गए। अभिमन्यु व्यूह में अकेला महावली होते हुए भी कौरवो का नाश कर रहा था, जो भी उसके सामने आता उसे वह मार गिराता। पाण्डव-वीर बाहर खड़े खडे तो उसका तमाशा देखते रहे या कभी-कभी व्यूह मे प्रवेश करने के लिए भीषण आक्रमण करते रहे। परन्तु जयद्रथ वहा से न टला। उसने एक वार ललकार कर कहा भी-"मैं जीते जी अब किसी को भी व्यूह में प्रवेश न करने दंगा।" -और हुप्रा भी यही भीमसेन की गदा, नकुल सहदेव का रण कौशल और अन्य वीगे की चतुरता भी किसी काम न आई। इधर पाण्डव वोर व्यूह में प्रवेश करने के लिए असफल प्रयत्न कर रहे थे, उधर बालक अभिमन्यु सभी कौरव वीरो और उनकी सेना के बीच खड़ा अपने वाणो से सेना को तहस नहस कर रहा था। दुर्योधन पुत्र लक्ष्मण अभी बालक ही था, बिल्कुल अभिमन्यु की आयु का ही परन्तु अभिमन्यु की भांति उस मे भी वीरता फूट रही थी। उसे भय छु तक न गया था। अभिमन्यु की वाण वा से व्याकुल हो कर जब सभी योद्धा पीछे हटने लगे, तो लक्ष्मण से न रहा गया। वह अकेले ही जाकर अभिमन्यु से जा भिडा। वाल के लक्ष्मण की इस निर्भयता तथा वीरता को देख कर भागती हुई कौरव सेना पुन. इकठ्ठी हो गई और बालक लक्ष्मण का साथ देकर लड़ने लगी। उम ने बड़े वेग से अभिमन्यु पर वाण वर्षा करना प्रारम्भ करदी, पर वे बाण उसे ऐसे लगे, जैसे पर्व पर मेघ दे। दुर्योधन पुन अपने अदभुत पराक्रम का परिचय देता हुप्रा - बढ़ी वारता से युद्ध करता रहा। जब बहुत देर हो गई प्रार Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिमन्यु का बध ५३१ कता जाला वह परम पर लुढ़क वालक लक्ष्मण ने हार न मानी तो आवेश मे आकर अभिमन्यु ने उस पर एक भाला चलाया। केचुली से निकले सॉप की भाति चमकता हुप्रा वह भाला वीर लक्ष्मण के बड़े जोर से लगा । घुघराले वालो वाला वह परम सुन्दर बालक भाले की चोट न सह सका वेचारा घायल हो कर भूमि पर लुढ़क गया और देखते ही देखते कुडल धारी, सुन्दर मासिका व सुन्दर भौहो वाले उस राजकुमार लक्ष्मण के प्राण पखेरू उड गए। . , सैनिकों में शोर हया-"राजकुमार लक्ष्मण मारा गया। लक्ष्मण काम पाया ।" इस शोर को सुन कर विस्मित नेत्रा से दुर्योधन ने भूमि पर तडप तड़प कर प्राण देते अपने प्रिय पुत्र को देखा। वह प्रापे से वाहर हो गया। उस के नेत्रो मे खून उतर पाया, उसका मुख मण्डल प्रातः काल के उदय होते सूर्य की भाँति लाल हो उठा अग अग गरम हो गया और चिल्ला कर कहा- "इस दुष्ट अभिमन्यु का इसी क्षण वध करो मार डालो इस सपोलिये को सब मिलकर मेरे पुत्र के हत्यारे को एक क्षण मत जीवित रहने दो।" अर्त स्वर मे हा हा कार कर रहे कौरव सैनिक एक दम अभिमन्यु पर टूट पडे । . दुर्योधन ने द्रोणाचार्य की ओर देखकर कहा-"अब तो आप को सन्तोष पाया प्राचार्य ! मेरे बेटे को मरवा दिया ना।" । दुर्योधन की बात से द्रोणाचार्य के तन, वदन मे प्राग सी लग गई पर पुत्र शोक का प्राघात पहूचने की अवस्था मे दुर्योधन को जानकर उन्होने शात भाव से कहा-' लक्ष्मण जैसे वीर के वध हाने से किसे दु.ख न हुआ होगा। पर किया ही क्या जा सकता है। मैं तो अपने प्राण देकर भी उसे बचा सकता तो प्रसन्नता होती।" 'आप तो अभी अभी ऐसे खड़े हुए हैं मानो कुछ हुआ ही नहीं। मैं अभिमन्यु को जीविते नही देखना चाहता प्राचार्य ! अभी ही सव महारथियो को लेकर उस दुप्ट को मार डालना होगा।''दुर्योधन ने दात पीसते हुए चिल्लाकर कहा । "एक वीर बालक के मुकाबले पर हम सब का जाना तो युद्ध धर्म के विपरीत होगा।" द्रोणाचार्य बोले । "युद्ध-धर्म, युद्ध-धर्म-जल कर दुर्योधन ने कहा- क्या है आप का युद्ध धर्म । मेरा बेटा मारा गया और आप ने युद्ध धर्म की रट - Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ जैन महाभारत था। लगा रक्खी है। आप सेनापति हैं या धर्म गुरू ? मुझे अभिमन्यु का सिर चाहिए।" "ठीक है इस दुष्ट को अभी ही मार डालेंगे।" समस्त महारथी चिल्लाए। "चलिए ! देख क्या रहे हैं वह दुष्ट हमारे सैनिको को खा जायेगा।"~दुर्योधन पुनः गरजा। . द्रोणाचार्य क्रोध मे आकर अश्वस्थामा, वहदल, कृतवर्मा, श्रादि पाँच महारथियो को साथ लेकर तेजी से अभिमन्यु की पोर बढे-! और क्षण भर मे ही छः- महारथियो- ने उस वीर वालक को चारो ओर से जा घेरा । अव तक दुर्योधन की आज्ञा पा.कर,चारो -ओर से घरने वालो सैनिकों को अभिमन्यु मौत के घाट उतार चुका - कौरव महारथी जी तोड़ कर युद्ध करने लगे। पर अभिमन्यु चारो ओर से प्रहार कर रहे महारथियो का सफलता से मुकाबला करता रहा। उस ने एक वार द्रोण की ओर अबाध गति से वाण बरसाते हुए गरज कर कहा-'अाचार्य जी! क्या यही हैं आप और आप के साथियो की वीरता? आप तो ब्राह्मण है। विद्वद्वर. -धर्म शास्त्रो के ज्ञाता, नीतिवान होकर अधर्म पर कमर बाध ली ? कहाँ गया तुम्हारा युद्ध धर्म ?" - कर्ण की ओर वाण बरसाते हए उसने ताना मारा- "वडे दानवीर व नीतिवान बनते हो। हारने लगे तो न्याय और धर्म को हो तिलाजलि दे दो ?- धिक्कार है तुम्हारी वीरता पर। दो चूल्लू पानी में डूब मरो।" चारो ओर बौण वर्षा करता हया वह वीर बालक रथ पर खडा नाच सा रहा था। अकेला ही छहो महारथियो का डट कर मुकाबला कर रहा था। अपने बाणों से शो के बाण तोडता और स्वय प्रहार कर के उन के नाको दम कर रहा था। द्रोणाचार्य पूण कौशल का प्रयोग कर के लड रहे थे तभी एक दार पुनः अभिमन्यु " ने ताना मारा- "तो आप हैं शस्त्र; व युद्ध विद्या के गुरू। दुयोधन के साथ रह कर लाज, धर्म और नीति सभी घेच खाये। एक वालक ' को छ महारथियो और उन के सैनिको ने घेर रखा है। कहा है ' आपकी वह विद्या ? कहा है आपकी आँखो का पानी ? क्या वृद्धा. Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३३ अभिमन्यु का बध वस्था मे सभी भूल गए ? युद्ध धर्म को तिलांजलि देदी है तो कुछ कर के भी दिखाओ ।" बात ठीक थी । उस स्थिति मे उसे यही कहना भी चाहिए था । वह अकेला ही छ महारथियो से टक्कर ले रहा था. फिर भी किसी के वाण उस पर असर न कर रहे थे। शत्रुग्रो से घिरा होने पर भी उस के मुख पर चिन्ना का कोई लक्षण दिखाई न देना था । वह पहले को ही भांति निश्चिंत हो कर युद्ध कर रहा था । द्रोणाचार्य मन ही मन लज्जित थे, पर लडने पर विवश थे । कर्ण बहुतेरा निशाना वाघ कर बाण चलाता पर अभिमन्यु तो क्षण क्षण मे मंतरे वेदल रहा था । श्रपने निशाने खाली जाने से वह भी घबरा गया, लज्जित भी हुआ और अन्त मे क्रोध भी आया, न जाने अपने पर या अभिमन्यु पर । फिर भी वह लड़ता रहा । कदाचित श्रक्रेला उस स्थिति मे लडता तो अब तक अभिमन्यु के बाणो से विघ गया होता आकाश मे अपने विमानो पर चढ़े जो देवता इस महा समर को देख रहे थे श्रभिमन्यु के पराक्रम, वीरता तथा साहस पर मुग्ध हो गए । उनका मन हुग्रा कि दौड़ कर इस वीर बालक को छाती से लगा ले -1 1 • तभी कर्ण ने धीरे से द्रोणाचार्य से कहा - "गुरूदेव ! यह बालक है या मायामयी योद्धा । किसी तरह मार ही नही खाता / कुछ कीजिए गुरूदेव ! वरना दुर्योधन हमे अपने वाग्वाणों से बीध डालेगा ।" द्रोण ने कर्ण को उत्तर देते हुए कहा - " बात यह है कि इस ने जो कवच पहन रक्खा है, वह भैदा नही जा सकता। ठीक से निशाना वाघ कर इस के घोडो को रास काट डालो और पीछे की ओर से इस पर प्रस्त्र चलाश्रो ।' कर्ण ने श्राचार्य के परामर्श के अनुसार कार्य किया । पीछे की घोर से ग्रस्त्र चलाए । अभिमन्यु का धनुष कट गया । तव क्रुद्ध हो कर अभिमन्यु ने ललकारा - "अधर्मियो ! पीछे से अस्त्र चलाते तुम्हें लज्जा नही आई। इसी विरते पर वीर बनते हो । एक वालक के ऊपर यह अन्याय । धिक्कार हे तुम्हारे बाहुबल पर ।" 2 'कर्ण रुका नही, वह अस्त्र चलाता ही रहा और शीघ्र ही समरत महारथियो ने मिल कर अभिमन्यु के सारथि घोर उस के Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ जैन महाभारत छोडो को मार डाला। वह रथ विहीन हो गया । धनुष भी उस के पास न रहा। पर उस वीर के मुख पर भय का कोई भाव प्रकट न हुया । वह साहस पूर्वक ढाल तलवार लेकर मैदान में प्रा डटा उस समय उस के मुख पर अदम्भ बीरता झलक रही थी, मानो क्षत्रियोचित शूरता का वह मूर्त रूप हो। ढील तलवार लेकर ही उस वीर ने रण कौशल का ऐमा अदभुत प्रदर्शन किया कि शत्रु विस्मय मे पड़ गए। अभिमन्यु विद्युत गति से तलवार घुमाता रहा और जो भी उस के सामने पड़ा उसी की अच्छी खासी खबर लेता रहा । तलवार का चक्कर इस जोर से उस न वाघा कि तलवार चलती हो दिखाई न देती थी ऐसा लगता था कि जैसे कोई तेज धार का चक्र उसके हाथो मे हो। पर तभी द्रोण ने उसकी तलवार काट डाली और कर्ण ने कई तीक्ष्ण बाण चला कर उसको ढाल काट डाली। उस समय वीर अभिमन्यु का साहस अभूत पूर्व था, जिसने देखा उससे प्रशंसा करते न बनी। ढाल तलनगर के समाप्त होने ही उसके पास कोई अस्त्र न रह गया था परन्तु उस की सूझ देखिए । दौड़ कर उसने तुरन्त ही टूटे रथ का पहिया हाथ मे उठा लिया और उसे ही चक्र की भाति घुमाने लगा। ऐसा करते हुए लगता था मानो श्री कृष्ण के भाजे के हाथ मे सुदर्शन चक्र ा गया हो। वल्कि मानो सुदर्शन चक्र लिए ही स्वय वासुदेव ही रण क्षेत्र मे पागए हों। द्रोण के मुह से भी हठात निकल गया-'धन्य वीर बालक! तुम अजेय हो।" रय के पहिए को ही अस्त्र के रूप से प्रयोग करके कितने ही कौरव सैनिको को मौत के घाट उतार दिया। कुपित होकर यह समझ कर अस्पहीन वीर वालक अव कर ही क्या सकता है, कौरव सैनिको ने उसे चारो ओर से घेर लिया। भालो, गदाओ, तलवारा श्रीर वाणो से उस पर आक्रमण करने लगे और कुछ ही देरि मे धार अभिमन्यु के हाथ का रथ का पहिया चूर-चूर हो गया। इसा वीच दु-गामन पुत्र गदा लेकर अभिमन्यु पर पा झपटा। परन्तु दूर पड़ी एक गदा अभिमन्यु के हाथ भी लग गई। दोनों मे घोर युद्ध छिड़ गया। दोनों वीर एक दूसरे पर भयकर गदा प्रहार करते रहे दोनों ही कई बार गिरे, पुनः उठे और भिड़ गए। दूसरे सैनिक Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रभिमन्यु का बंध भी कभी कभी दुःशासन के पुत्र का साथ दे देते । अभिमन्यु बुरी " जब "रह घायल हो चुका था, उसका सारा शरीर चूर-चूर हो रहा था एक बार जब दोनों गिरे तो अभिमन्यु के उठने मे कुछ देर हो गई। तब तो समस्त शासन का पुत्र तनिक पहले ही उठ खडा हुआ । कौरव चिल्ला उठे – “मारो, देर न करो।” ओर उसने अभिमन्यु पर गंदा का एक भीषण प्रहार किया। अभिमन्यु गदा की मार से उठे न सका। फिर क्या था, कितने ही प्रहार उस पर हुए । कौरव सैनिको ने उसे बेजान समझ कर छोडा, तो अभिमन्यु ने अपनी डूबती आवाज में कहा - "अरे पापियो एक व्यक्ति को चारो ओर से घेरकर मारना कहा का धर्म है ? जाओ अब भी मुझे विश्वास है कि मेरे पिता तुम दुष्टों के इस अन्याय का बदला लेगे। तुम अपने किए पर पछताओगे और तुम्हारी वह गति होगो कि तुम्हारी सन्तानो तक तुम पर थूकेगी विश्वास रक्खो अधर्म तथा अन्याय V 11 की कभी विजय नही होगी फिर उसने अपनी डूबती प्रावाज मे धीरे धीरे कहा- "मातेश्वरी ! तुम्हे अन्तिम प्रणाम । खेद कि मैं अन्तिम समय तुम्हारे दर्शन पिता जी ! श्राप जहाँ भी हो, मेरा अन्तिम प्रणाम आप विश्वास रक्खें कि आप के पुत्र ने आपके नाम को बट्टा नही लगाया । श्राप मेरी त्रुटियो को क्षमा कर दे और इन दुष्टो को इन के अपराध का अवश्य दण्ड दे । मामा जी ! आप कहा हैं, ग्रापका भानजा शत्रुओ के बीच अकेला प्राण दे रहा है जहा हो मेरा अन्तिम प्रणाम स्वीकार करें।" उसकी जवान बन्द होगई। श्रखे फिर गई और लटक गई। इतना कहते कहते गरदन एक ओर न कर सका । स्वीकार करें । " ५ ३५ 9. घेर कर कौरव जगली मनाने लगे । लेकिन आकाश के पक्षी पुष्प पंखुडियां वरसाने लगे। यह देख कर श्राया । द्रोण का मुख लज्जा से लटक गया । जब कौरव वीर अभिमन्यु की मृत्यु पर रह रह कर दुर्योधन, दुःशासन के पुत्र और और सुभद्रा के पुत्र प्रभिमन्यु के शव को व्याघो की भाति नाचने कूदने और श्रानन्द जो सच्चे वीर थे उनकी श्रांखो मे ग्रासू आ गए। तक चीत्कार करने लगे और देवतागण उस वीर बालक के शव पर दुर्योधन को बढ़ा क्रोध श्रानन्द मना रहे थे द्रोणाचार्य की जय Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत जयकार मना रहे थे, उस समय ही युधिष्ठिर व्यूह से बाहर ख अभिमन्यु की पताका और रथ कही न देख कर मन ही मन सशय हो उठे और अपने धडकते हृदय से बार बार पूछने लगे-यह जर जयकार कैसी ? कहीं सुभद्रा पुत्र......" __ आगे उनसे कुछ न कहा जाता . एक महारथी ने द्रोण को उल्लास पूर्वक कहा-"प्राचार्य ! आज वडी कठिनाई से उस दुष्ट का अन्त हुआ। कैसा शुभ दिन है अाज फि......" “आज हम सव, परास्त हो गए। हम सव पथ विमुख हे गए। आज शोक का दिन है।" द्रोण बोले। .. . सुनकर दुर्योधन को पाखों मे खून उत्तर प्राया। Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अठतालीसवां परिच्छेद * अर्जुन की प्रतिज्ञा xxxxxx xx: पश्चिमी क्षितिज पर सूर्य रक्त के धांसू बहाता हुत्रा शोक से डूब रहा था, उधर कुरुक्षेत्र मे सूर्य मुख अभिमन्यु अन्तिम स्वासे ले रहा था कौरव वीर बिल्कुल वैसे ही आनन्द मना रहे थे जसे जगली असभ्य लोग किसी मनुष्य की अपने देवता को के लिए बलि देकर आनन्द मनाते, नाचते गाते हैं । ध्वनियां हो रही थी; बार बार जय जयकार की गगन गूज जाती । युधिष्ठिर का मन सशक हो उठा। उनका प्रसन्न करने बार बार शस 1 काप उठा । 7 I MONTS भेदी श्रावाज रोम रोम - तभी किसी ने समाचार दिया - "सुभद्रा पुत्र वीर अभिमन्यु मारा गया। कौरव महारथियों ने उस वीर बालक को चारो ओर से घेर कर हत्या कर डाली । " युधिष्ठिर के हृदय पर भयंकर आघात हुआ । वे अपने को सम्भाल न सके । उनकी पलकें भीग गईं । कण्ठ अवरुद्ध हो गया। कुछ कह नही पाये । भीम, नकुल और सहदेव को भी बड़ा दुख हुआ परन्तु इस से अधिक दुख उन्हें महाराज युधिष्ठिर की दशा देख कर हुआ । सूर्य अस्त हो गया। युद्ध बन्द कर दिया गया । X x X x X X X अपने शिविर में शोकातुर यधिष्ठर रह रह कर अभिमन्यु की वीरता और अपनी भूल पर कुछ न कुछ कह बैठते। सभी पाण्डव Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ५३६ .............जैन महाभारत... जैन.महाभारत जयकार मना रहे थे, उस समय ही युधिष्ठिर व्यूह से बाहर खड़े अभिमन्यु की पताका और रथ कही न देख कर मन ही मन सशंक हो उठे और अपने धडकते हृदय से बार बार पूछने लगे-यह जय जयकार कैसी ? कही सुभद्रा पुत्र . .." आगे उनसे कुछ न कहा जाता एक महारथी ने द्रोण को उल्लास पूर्वक कहा-"प्राचार्य ! आज बड़ी कठिनाई से उस - दुष्ट का अन्त हुआ। कैसा शुभ दिन है आज फि......" . . "अाज हम सब परास्त हो गए। हम सब पथ विमुख हो गए। आज शोक का दिन है।" द्रोणं बोले। सुनकर दुर्योधन की आखों मे खून उत्तर पाया। Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अठतालीसवां परिच्छेद * अर्जुन की प्रतिज्ञा XXXXFF पश्चिमी क्षितिज पर सूर्य रक्त के प्रांसू बहाता हुआ शोक मे डूब रहा था. उधर कुरुक्षेत्र मे सूर्य मुख अभिमन्यु अन्तिम स्वासें ले रहा था. कौरव वीर बिल्कुल वैसे ही आनन्द मना रहे थे जसे जगली असभ्य लोग किसी मनुष्य की अपने देवता को प्रसन्न करने के लिए बलि देकर आनन्द मनाते, नाचते गाते हैं । बार बार शख ध्वनियां हो रही थी; बार बार जय जयकार की गगन भेदी आवाज गूज जाती | युधिष्ठिर का मन सशक हो उठा। उनका रोम रोम काप उठा । San तभी किसी ने समाचार दिया- “सुभद्रा पुत्र वीर अभिमन्यु मारा गया। कौरव महारथियों ने उस वीर बालक को चारो ओर से घेर कर हत्या कर डाली ।" युधिष्ठिर के हृदय पर भयकर श्राघात हुआ । वे अपने को सम्भाल न सके । उनकी पलकें भीग गई । कण्ठ अवरुद्ध हो गया । कुछ कह नहीं पाये । भीम, नकुल और सहदेव को भी बड़ा दुख हुआ परन्तु इस से अधिक दुख उन्हे महाराज युधिष्ठिर की दगा देव कर हुआ । सूर्य अस्त हो गया। युद्ध बन्द कर दिया गया । x x x X X X X अपने शिविर में शोकातुर यविष्ठर रह रह कर अभिमन्यु की वीरता और अपनी भूल पर कुछ न कुछ कह बैठते। सभी पाठ Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ जैन महाभारत महारथी वहा बैठे उन्हे सान्त्वना दे रहे थे। युधिष्ठिर बोले- "हा, शोक | कृपाचार्य , दुर्योधन कर्ण और दु शासन को खदेड देने वाला परम प्रतापी मेधावी वीर बालक अभिमन्यु मेरी ही भूल के कारण माग गया। अब मैं अर्जुन को क्या उत्तर दूगा। जब वह अपने प्रिय पुत्र को मुझ से पूछेगा तो मैं किस मु. से कहूगा कि मैंने अपनी विजय की कामना से चक्र व्यूह मे भेज कर मरवा डाला। सुभद्र और उत्तरा जव मुझ से उस वीर की मृत्यु के लिए.. उत्तर मागेगी तो मैं कैसे कहूगा कि वह बालक मेरे लिए रण करता हुआ शहीद हो गया। हाय-1 सुभद्रा का लाल और . उत्तरा का सुहाग. मेरे रहते हुए दुष्ट कौरव महारथियों द्वारा मारा गया और मैं कुछ न कर सका। नहीं, नहीं. उसकी मृत्यु का ज़िम्मेदार मैं हू । मैंने ही उसे चक्रव्यूह मे भेजा था। ससार क्या कहेगा? यही ना, कि युधिष्ठिरःने अपने भाग्य की आग मे अर्जुन पुत्र की आहुति देदी।" __ युधिष्ठिर को इस प्रकार विलाप करते देख कर समस्त उपस्थित पाण्डव चीरो'का हृदय विदीर्ण हया जा रहा था। भीमसेन ने सान्त्वना देते हुए कहा- 'महाराज ! वोर अभिमन्यु मरा'नही, वह अमर हो गया, उस ने ऐसे पराक्रम का प्रदर्शन किया कि शत्रु तक मत्रामुग्ध हो गए... वह आज भी, अब भी जीवित है। उस ने अपने पिता और अपनी माता का नाम उज्जवल कर दिया। धन्य है. अर्जुन. धन्य है सुभद्रा । हमे उस के लिए शोक नही करना चाहिए। वह वीर गति को प्राप्त हुना।” पर प्रम बीहा शक्ति जिन्हो मे है उन्हें दुख होता.ही है। ___ कहने को तो भीम ने यह शब्द कह दिए, पर स्वयः उस का हृदय भी उस के शब्दो से सन्तुष्ट नही हो रहा. था-1. यह तो सभी जानते हैं कि जिस ने जन्म लिया है, उसे एक न एक दिन मरवा.. हैं। शोक और विलाप करने से भी कुछ होता.नही, फिर भी महान. प्रात्माए तक अपने प्रिय व्यक्तियो की मृत्यु-पर विलाप करती ही है। अभिमन्यु का विछोह तो ऐसा विछोह था कि सुनने वाले भी वेवस रो पड़े। उसकी वीरता-और-शत्रों के अधर्म की गाथा-ने तो और अग्नि मे घृत की आहुति का काम किया। __- --युधिष्ठिर सुवक्ते-हुए -बोले-"मैं किस तरह अपने मन को मझाऊ.। उस वीर की मृत्यु-ने मेरे-मन को क्षत-विक्षत कर दिया .. Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्जुन की प्रतिज्ञा है। ऐमा लगता है मानो वीर बालक मेरी आखो के सामने अदभ्य उत्साह से शत्रु के व्यूह को ओर बढ़ रहा है और कह रहा है"ताऊ जी ! आप चिन्ता मत करें यह शत्रु-तो कुल मिला कर भी मेरी शक्ति के सोलहवें भागे के बराबर भी नहीं, मैं अभी ही उन्हें मार भगाता हू।"-प्रोह! किस उत्साह से बह-गया । पलक झपकते ही उस ने कोरवो का व्यूह तोड कर अपने लिए मार्ग बना लिया। ओर हम सेवः मिल कर भी उस व्यह में प्रवेश न कर सके । पापी अमद्रयाने मुझ से मेरे वीर बालक को छीन लिया।" , " , सात्यकि बोला-राजन् । अब इस शोक से क्या लाभ धैर्य रखिये। अर्जुन उन दैप्टो में से एक एक से अभिमन्यु की हत्या को बदला लेगा पाप की ही यह दशा है तो सोचिये कि उस की क्या दशा होगी, - अभिमन्य जिम के दिल का टुकडा था 'अर्जुन अभी आता ही होगा। आप ही हैं जो उसे सान्त्वना दे सकते है। इस लिए सम्भलिए और अर्जुन को धैर्यःचन्धाने के लिए तैयार हो जाईये । उस वोर बालक की मृत्यु पर आसू वहाना आप को शोभा नही देता आप' को तो गर्व होना चाहिए कि आप के परिवार का एक वालक सारी शत्रु सेना को नाको चने चबा गया और यदि शत्रु दल अधर्म पर न उतरता, तो वह विजय पताका फहराता हुग्री सौटता।" "आप जो कह रहे हैं अक्षरशः सत्य ।। पर मैं क्या करू दिल तोनही मानता। मैं सोच रहा ह कि जब राजकुमारी उत्तरा विधवा के वेश मे बाल खोले हए मेरे सामने से निकलेगा तो में अपने हृदय का कटने से कसे रोकगा? सुभद्रा के नेत्रों से वहती प्रभूधारा को कैसे रोकगा। वह दोनो सन्नारीया मुझे जीवित देखकर क्या कहेगी? यही ना कि राज्य पाने के लिए स्वयं तो जीवित रहा, पोर अभिमन्यु की बलि दे पाया। दुख-विह्वल होकर युधिष्ठिर ने कहा। । द्रुपद बोले-'राजन | मौत में किसका चारा है, कौन है मा मृत्यु को रोक सके। मौत-किसी-के-टाले नही टलती। एक दिन सब ने मरना ही है। आप कर ही क्या सकते थे। जिन भगान.के वचन अटल हैं जान हो लेने की हिकमत में तरक्की देखी, . मौत का रोकने वाला कोई पैदा न हुमा।" Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४० जैन महाभारत " इसी प्रकार सभी महाराज युधिष्ठिर को सान्त्वना दे रहे थे। पर-युधिष्ठिर वार-बार अपने मन को समझाते, पर हृदय मे उठ रहे शोक के तूफान को वे रोक न पाते। . - युधिष्ठिर के शिविर मे शोक और विलाप चल रहा था, सान्त्वना तथा धैर्य के वार्तालाप हो रहे थे "कभी कभी कोई वीर . अभिमन्यु की वीरतो के राग छेड़ देता, कोई उसके असीम साहम का गुणगान करता, तो कोई उसके उठ जाने से हुई हानि को याद । करके रो उठता। शोक सभा थी वह. प्रत्येक एक दूसरे को धैर्य बन्धा रहा था, और प्रत्येक भासू भी वहाता जाता था। उस वीर बालक की मृत्यु पर युधिष्ठिर के शिविर में ही नही कौरवो के भी शिवरो मे शोक प्रकट किया जा रहा था जाने वाला जा चुका था, हा उसकी वाते रह गई थीं उसकी चर्चा शेष थी - छुप गए वे साजे हस्ती छोड कर। - - अब तो बस आवाज ही पावाल है। संशप्तकों का सहार करके जव अर्जुन अपने शिविर की ओर लौट रहा था, बार-बार उसका मन किसी अज्ञात शोक से बोझल हो जाता। बार-बार उसके मन पर कोई प्राघात सा लगता और वह आप ही आप शोक विह्वल सा हो जाता। उसने एक वार श्री कृष्ण से कहा-"मधुसूदन ! न जाने क्यो मेरा मन दुखित हो रहा है। वार-बार कोई अज्ञात खेद मेरे हृदय पर छा जाता है और ऐसा होता है मानो मेरे हृदय पर शोक का पहाड़ टूट पड़ा हो। मेरा मन नोझल हो रहा है, आंखें बरस पड़ने को हो रही हैं। जाने क्या बात है ?" , श्री कृष्ण मुस्करा पडे-"शत्रुनो का सहार करके लौट रहे हो और वता रहे हो अपने मन को दुखित, बडे आश्चर्य की बात है। सम्भव है मन मे तुम्हारे कोई आशका छुपी हो, हमे कभी कभी विश्वास का रूप धारण करके तुम्हारे मन को शोकातुर कर जाता हो। पर यह तो युद्ध है, इस में कितनी ही घटनाए ऐसी भी घट सकती हैं, जिन्हें सुनकर ही तुम्हारे हृदय पर वज्राघात हो। किन्तु तुम्हे दुखित होना शोभा नहीं देता। धर्य और साहस से काम लो' अर्जुन शांत हो गया। परन्तु कुछ ही दूर आगे आने पर जब Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्जुन की प्रतिज्ञा . ५४१ ने-खड़े कुछ लबा मेरे वा, सका रथ शिविर के इतना निकट हो गया कि वह शिदिर के सामने खड़े व्यक्ति को देख सकें, दुखित होकर फिर बोला'गोविन्द । अाज कुछ लक्षण ही उलटे हो रहे हैं । प्रतिदिन जब में युद्ध से लौटता था, तो सभी मेरे स्वागत को बाहर निकल पाते थे। मेरा पुत्र वीर अभिमन्यू शिविर से बाहर खडा मुस्कराता होता, पर अाज तो कोई भी नही दीख पड़ रहा, बल्कि शिविर के सामने खडा सैनिक भी बार-बार मुझे देखकर सिर नीचा कर लेता है। कही कोई दुखद घटना तो नही घट गई ! आज मेरे दक्षिण की और चले जाने के पश्चात, सूना है. द्रोणाचार्य ने चक्रव्यूह रचा था। उसे तोडना मेरे अतिरिक्त हम में से और कोई नहीं जानता। हाँ अभिमन्य को अभी मैं चक्र व्यूह मे प्रवेश करना ही सिखा सका हूँ, व्यूह से निकलना अभी उसे नही बताया कहीं महाराज युधिष्ठिर या मेरे किसी दूसरे भ्राता के ऊपर कोई विपत्ति तो नही टूट गई ? मेरा हृदय बोझल हो रहा है। मुझे सारा शिविर शोक में डूबा प्रतीत हो रहा है। क्या कारण है ?" " "धनजय ! विश्वास रक्खो कि युधिष्ठिर का वध कोई कर पायेगा, अभी ऐसा कोई नही जन्मा ।-श्री कृष्ण ने घोडो की रास ढाली करते हुए कहा-रहो किसी के युद्ध मे काम पाने की वात, सो दावानल जले और उसमे लोग कदें तो यह आशा करना कि दावानल का उन पर कोई प्रभाव ही नहीं होगा, मूर्खता है ! युद्ध आय है तो कितने ही प्रियजन मोरे ही जायेंगे। मरने वालो का पाक करने से क्या लाभ ? जो आया है उसे जाना ही है। जन्न भीष्म जैसे मारे गए तो दसरों की तो बात ही क्या? फिर भी निश्चित रहो, तुम्हारे भाईयो मे से सभी सुरक्षित हैं।" । अर्जुन का मन फिर भी दुखित रहा, वह शोक को अपने से अलग न कर पाया । बोझल मन लिए वह शिविर पर जाकर उतरा, तो सैनिको ने उसे सामने देखकर गरदन झुका ली। उसका हृदय घड़क उठा। 'क्या बात है ?" सैनिक कुछ न बोला। उसने पुनः प्रश्न किया। "यह रोनी सी सूरत क्यों बना ली है ? क्या कोई विशेष घटना हुई ? Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२. .............जैन महाभारत । सनिक ने अपनी दृष्टि पृथ्वी पर जमा दो और पैर से मिट्टो कुरेदने लगा। . अर्जुन सिंहर उठा,-"अभिर कहा गया? ... सैनिक पुनः कुछ न बोला। आहत पक्षी की भांति उसका मन -तड़प -उठाः। वह अन्दर गया, जहां युधिष्ठिर अपने भ्रातामो-तथा- सगी-साथियों, सहित बैठे थे। जाते ही उसने चारो ओर दृष्टि डाली। सभो-की-गरदते लटक रही थी। अर्जुन के मन मे खेदयुक्त प्रानका - का बवडर उठ खड़ा हुआ। उसने युधिष्ठिर को प्रणाम किया और छुहते ही पूछा--"क्या वात है अाप-इस प्रकार मुरझाये हुए क्यो वैठे है? क्या हुअा है ? क्या कोई... ..?" ... . .उसने उपस्थित वीरो पर दृष्टि डाली। उसके सभी भ्राता और अन्य स्नेही वन्धु वान्धव वहाँ बैठे थे। फिर पूछा-''महाराज! आप सभी के चेहरे क्यो उतरे हुए है ? क्या वात हुई है ? आप सभी शोक विह्वल दिखाई देते है ? . .महाराज युधिष्ठिर फिर भी कुछ न बोले। किस मुंह से वे उस दुखद समाचार को सुनाते . -उनका-मन तुरन्त चीत्कार कर उठने को हुआ, पर अपने को उन्होने, नियत्रित किया। . . - "आप मौन क्यो हैं, बताईये, मुझे शीघ्र बताईये, हुआ क्या है ? मेरा मन प्राशकित हो गया है। अभिमन्यु कहाँ है, वह रोज. की भांति प्राज कही दिखाई क्यो नही पड़ता ?"-अर्जुन ने पूछा। कुछ कहने के लिए युधिष्ठिर ने मुह खोला, पर आवाज काठ में ही अटक कर रह गई। 'अर्जुन ने दुखित होकर कहा-"तो क्या मेरा -प्रिय पुत्र......" आगे वह कुछ न कह पाया, उसके नेत्रो मे प्रासू आ गए। "हम ने तो बहुत प्रयत्न किया कि उस वीर वालक की सहायता को पहुँचे पर .. ' , । युधिष्ठिर के इतने शब्द सुनकर ही अर्जुन ने सारी बात समझ ली। उसके मन पर भयकर वज्राघात हा वह खडा न रह सका और वालको की भाति विलख बिलख कर रोने लगा। उसके दन को देखकर अन्य वीर भी अश्रुपात, करने लगे। अर्जुन ने विलाप करते हुए कहा-"हाय मैं कही का न ही अटक के दुखित होकर पाया Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्जुन की प्रतिज्ञा ५४३ + -. . . . . . . रहा। मेरे लिए आज सारा ससार अधकारपूर्ण हो गया। अब मैं सुभद्रा को क्या जवाब दूंगा। और राजकुमारी उत्तरा जिसके हाथो को मेहन्दों भी अभी तक न मिटी, उसको क्या कहकर सान्त्वना दूगा। हा! जिसका पालन पोषण मैंने इतने प्यार से किया, जिसके कौशल, साहस और वीरता पर मुझे सदा ही गर्व रहा, मेरे रहते वह होनहार मुझे बिलखता छोड़ कर मुझ से मुह मोड कर चला गया।' हा मेरा गाण्डीव, मेरा भुजवल उस सुकुमार मेरे हृदयं पाश के किसी काम न आ सका। प्रोह ! जब मैंने द्रोणाचार्य द्वारा चक्र व्यूह रचना की बात सुनी थी, मेरा माथा तो तभी ठनका था। पर खेद कि मैंने संशप्तकों का सामना छोडकर प्रात्म सम्मान को ठेस देना गवारा न किया। मैं क्या जानता था कि मेरे चार महाबली भ्रातागो और अनेक महारथियो के रहते हुए शत्रु' उस वीर बालक को निगल जायेंगे ? मैं होता तो एक बार उसकी रक्षा के लिए साक्षात यमराज से भी टंकरा जाता और प्राण रहते मैं उसे ससार से मह न मोडने देता। हाय ! सुभद्रां सोचती होगी कि उसका लाल शीघ्र ही विजय सन्देश लेकर प्रायेगा, उत्तरा उसके स्वागत के लिए प्रारती का थाल सजाए बैठी हागी। द्रौपदी उससे उसके शत्रुयो के संहार का शुभ सम्वाद सुनने के लिए बेताब बैठी होगी। लेकिन वह वीरवर चला गया और मैं असहायों की भांति रोने के लिए रह गया." . अर्जुन की हिचकियाँ बध गईं। जो वीर सदा सिंह की भांति गर्जना करता रहता था, जो सदा साहस और वीरता की बातें करते रहने के लिए प्रसिद्ध था, जिसके नेत्रो से सदा हर्प, उत्साह, यौवन, साहस, आलोक, तेज और चिनगारिया निकलती थी. वह अश्रुपात कर रहा था। देखने वालों से भी न रहा गया और वे अपने करुण कुन्दन,को ता बड़ी कठिनाई से रोक पाये पर अपनी प्राखो से बहतो अविरल अश्रुधारा को किसी प्रकार भी न रोक पाये। , अर्जुन ने फिर अपने को धिक्कारते हुए कहा-"टूट जानो ऐ प्रतुत्य बलवाहिनी भुजाओं टूट जायो, फट जा ऐ वज के समान विशाल छाती फट जा, जब मैं अपने लाइले की रक्षा ही न कर सका तो फिर मुझे तुम्हारी, क्या जम्दरत। नही, नही मुझे नहीं चाहिए Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४ जैन महाभारत I यह शरीर । तुम तो शत्रु के लिए ? उसी समय श्री कृष्ण ने उसे समझाते हुए कहा - धनजय | तुम्हें क्या हो गया है ? अपने को सम्भालो । साक्षात काल हो । तुम्हारी ग्राखो मे ग्रांसू छी. छी: तुम्हे.. यह शोभा नही देता । मुझे तो ग्राशा थी कि इस दुखद समाचार को सुनकर तुम्हारे नेत्रो से क्रोध की चिंगारियां निकल पड़ेंगी और तुम वीर अभिमन्यु के हत्यारों से बदला लेने के लिए बेचैन हो जायोगे । परन्तु नुम तो नारियों की भाँति विलाप करने लगे। वह वीर वीरगति को प्राप्त हुआ है, उस पर अश्रु बहाना उसका अपमान करना है । धनंजय ! मनुष्य सभी कुछ टाल सकता है, पर मृत्यु को टालना उसके वस. की बात नही । जिसने जन्म लिया है उसे मरना ही है । हाँ, फूल तो दो दिन बहारे गुलिस्ताँ दिखला गए । हसरत उन गुँचो पे है, जो बिन खिले मुरझा गए ।" परन्तु वह वीर तो कली होते हुए भी अपने प्रभूत पूर्व गुणो से अपने को अमर कर गया । अर्जुन ! श्रात्मा कभी नही मरता, वह चोला बदल सकता है, परन्तु उसका कभी नाश नहीं होता । श्रभिमन्यु के शरीर को शत्रुग्रो ने निर्जीव कर दिया तो क्या हुआ, उस की आत्मा जिस रूप मे भी जायेगी, उसी रूप मे वह अपना उज्ज्वल रूप दिखायेगी । तुम विश्वास रक्खो कि वह वीर मर कर भी अमर है । उसने तुम्हारे नाम को उज्ज्वल ही किया है । तुम्हें गर्व होना चाहिए कि तुम्हारी अनुपस्थिति में उस ने वही काम किया जो तुम्हे करना चाहिए था ।" इसी प्रकार कितनी ही प्रकार से श्री कृष्ण अर्जुन को धैर्य वन्धाने लगे । वे अभिमन्यु के मामा थे, उस की मृत्यु से उन्हें भी धक्का लगा, पर उन के लिए शोक श्रौर हर्ष समान ही थे । उन्होने अनेक धार्मिक गाथाए सुना कर और जिन प्रभु की वाणी बताकर इस नश्वर संसार की वास्तविकता दर्शाते हुए अर्जुन को धैर्य वन्धाया जब श्री कृष्ण के उपदेश से अर्जुन को कुछ सन्तोष हुआ तो उस ने युधिष्ठिर से कहा - "महाराज ! मुझे यह तो बताईये कि वीर श्रभिमन्यु किस प्रकार मारा गया और कोन उसकी हत्या के लिए Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्जुन की प्रतिज्ञा जिम्मेदार है !" तब युधिष्ठिर बोले-"तुम्हारे सशप्तकों से युद्ध करने जाने के उपरान्त द्रोणाचार्य ने चक्रव्यूह ग्चा । हम में से कोई उस व्यूह को तोडना नही जानता था, हमारी सेना का संहार होने लगा मैं वहाही दुखी हमा। तभी उस वीर ने आकर बताया कि वह व्यूह मे प्रवेश करना जानता है। हमने सोचा कि हम भी उस के पाछे व्यूह मे चले जायेगे ताकि सकट के समय हम उस की रक्षा कर सक । यह सोच कर मैंने उसे व्यूह तोडने की आज्ञा देदी। और हम सव उस के पीछे पीछे चले। एक विशाल सेना हमारे साथ थी, परन्तु पापी जयद्रथ ने हमारा रास्ता रोक लिया और वीर अभिमन्यु तो व्यूह मे चला गया, जयद्रथ ने हमें न जाने दिया वह वीर अकेला ही शत्रुओ को तहस नहस करता हुआ आगे बढ़ता रहा। जहा से व्यूह टूटा था जयद्रथ ने अपने सैनिको से वह दगर तुरन्त भर दो और फिर दुष्ट कौरव महारथियो ने मिल कर चारो तरफ से घेर कर उसे मार डाला " ___ इतना सुन कर ही अर्जुन को भृकुटि धनुष के समान तन गई आखो में ज्वाला झाकने लगी और उस ने उसी समय प्रतिज्ञा की'मैं अपने गाण्डीव की सौगन्ध खाकर प्रतिज्ञा करता हूँ कि कल सूर्य अस्त होने से पहले ही दुष्ट जयद्रथ का जो मेरे पुत्र के वध का कारण बना सिर काट डालूंगा। अन्यथा मैं स्वय ही जीवित चिता मे प्रवेश करूगा।" . अर्जुन की प्रतिज्ञा सुन कर वहां उपस्थित पाण्डव कांप उठे। बड़ी ही दढ़ प्रतिज्ञा थी। और सभी जानते थे कि अर्जुन अपनी प्रतिज्ञा अवश्य ही पूर्ण करेगा। श्री कृष्ण भी उस की प्रतिज्ञा मन कर विस्मित रह गए। उम के बाद युधिष्ठिर ने सारी कथा विस्तार सुनाई । जिसे सुन कर अर्जुन बिगड़ कर बोला-'द्रोणाचार्य को लज्जा न पाई। एक बालक को छ. महारथियो ने घेर कर मारा. इस अधर्म पर वे डूब न मरे। अच्छा कोई बात नहीं मैं इस युद्ध मे इन सबको मौत के घाट उतार दूंगा।' फिर उस ने अपनी दृढ प्रतिज्ञा को दोहराया और कहा कि Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत "यदि जयद्रथ की रक्षा के लिए आचार्य द्रोण और कृप भी मा-जाए तो उन को भी मैं अपन बाणो की भेट चढ़ा दूगा।".. ... .यह कह कर अर्जुन ने अपने गाण्डीव का ज़ोर से टकार किया और श्री कृष्ण ने पाच--जन्य- बजाया और- भीमसेन -बोल-उठा"गाण्डीव की यह टकार, और - मधुसूदन के धृतराष्ट्र के पुत्रो के सर्वनाश की सूचना है।" . Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * उच्चासवां परिच्छेद 8589998898556609 जयद्रथ वध 9900900७७०००ह जयद्रथ अपने शिविर में विश्राम कर रहा था, तभी एक दूत ते श्राकर प्रणाम किया। "क्या बात है ?" " राजन् । अभी अभी हमारे जासूसों ने सूचना दी है कि अर्जुन ने कल सूर्यास्त से पहले पहले आप का वध करने को प्रतिज्ञा की है। वह या तो सूर्यात से पूर्व ही आप को मार डालेगा अन्यथा स्वयं जीवित ही चिता में जल मरेगा ।" او जयद्रथ को जैसे- बिजली का नगा तार छू गया हो । व्याकुलता से उठ खड़ा हुआ । उसकी आखे फटी सो पूछा - "क्या कहा ? अर्जुन ने प्रतिज्ञा की है "जी हाँ ।" י 31 • 感 1 93 वह खडा न रह सका, श्रासन पर गिर सा पडा । "अव क्या " होगा ? " - यह ये वे शब्द जो उसके मुह से निकले । उसके are वह चिन्ता मग्न हो गया। न जाने क्या सोचता रहा। एक दम रह गई । कुछ देर बाद वह कहता सुना गया - "लेकिन मैंने तो अर्जुन के पुत्र को नहीं मारा, मैंने तो एक भी वाण उस पर नही चलाया ।" मैं तो अभिमन्यु का हत्यारा नहीं। फिर अर्जुन मुझ पर क्यो कुपित हुआ ?" कुछ देर तक फिर उस के मुंह पर मोने छा गया। वह T Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत तडप रहा था, मानो उस के हृदय मे विष से वुझा तीर चुभ गया हो । ___ 'दुर्योधन ! सुना आप ने ? अर्जुन ने मुझे कल सूर्यास्त तक मारने की प्रतिज्ञा की है।"- भय विह्वल जयद्रथ ने दुर्योधन से जाकर कहा। दुर्योधन ने उसका भय विह्वल चेहरा देखा तो स्वय व्याकुल हो गया-"हां, दूतो ने ऐसा ही समाचार दिया है।" उस ने कहा। "तो फिर अब क्या होगा ?" .. -- “जो होगा देखा जाये गा। चिन्ता क्यों करते हो ?" "नही दुर्योधन | अर्जुन अपनी बात का धनी है, वह मुझे मारे विना न छोड़ेगा। देखो तो अभिमन्यु को मारा किसी ने और फल भोगे कोई हैं न यह अन्याय। मुझे तो अपने देश लौट जाने की आज्ञा दे दीजिए । वस मैं अब और यहा नही ठहर सकता।"कापता हुआ जयद्रथ बोला। . . "क्या कह रहे हो ? युद्ध छोड कर चले जाना चाहते हो ?" विस्मित होकर दुर्योधन ने प्रश्न किया। .. "हां, मुझे नहीं चाहिए यह युद्ध पाप के साथियो ने वास्तव मे अभिमन्यु के साथ अन्याय किया, और अब उस अन्याय का बदला मुझ से लिया जायेगा । मैं दूसरे को आई मे क्यो मरू ? मुझे तो बस आज्ञा दीजिए ताकि मैं अभो ही अपने देश लौट जाऊ ."-जयद्रथ ने अपनी मानसिक दशा का परिचय देते हुए कहा। दुर्योधन समझ गया कि जयद्रथ बुरी तरह घबरा गया है, उस ने उसे धीरज वधाते हुए कहा- 'आप भय न करें, मैं विश्वास दिलाता हू कि अर्जुन अापका वाल भी बांका नही कर सकता । प्राप की रक्षा के लिए मैं कर्ण चित्रसेन, विविंशति, भूरिश्रवा, शल्य, वृषसेन पुरुमित्र, जय, कांभोज, मुदक्षिण, नत्यव्रत, विकर्ण, दुर्मुख दुःशासन, सुबाहु, कालिंगव, अवन्तिदेश के दोनो राजाप्रो. प्राचार्य द्रोण, अश्वस्थामा, शकुनि श्रादि, समस्त महारथियों को लगा दूगा। हम प्राण देकर भी आपकी रक्षा करेंगे । फिर अर्जुन की क्या . मजाल है आप के पास भी फटक सके। प्रसन्नता की बात तो यह है कि कल को हम प्राप का पता भी न चलने देंगे। और सूर्यास्त Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जयद्रथ वध mmmmm..५४९ होने पर हमारा मुख्य शत्रु अर्जुन स्वय ही जीवित जल मरेगा । इस लिए आप को तो प्रसन्न होना चाहिए कि क्रोध मे पाकर हमारा शत्रु स्वय ही अपने नाश का जाल रच गया। "fकन्तु यदि अर्जुन ने मुझे खोज निकाला तो?" ___“मैं कहता हू हम तुम्हे ऐसे स्थान पर रक्खेंगे कि हम सब मारे गए तभी अर्जुन आप के पास तक पहुच सकता है, जो कि असम्भव है।" "अर्जुन बड़ा वीर है, उसके लिए कुछ भी असम्भव नही !" में समझता हूं कि भय के मारे आप पर अर्जुन को भूत सवार हो गया है।" जयद्रथ स्वयं भी एक महाबली था पहले तो भय के मारे वह अपने मनोभावो को छुपा न सका, पर जब उसे दुर्योधन का सहारा मिला और कुछ धेर्य बघा तो वह आत्म सम्मान और व्याभिमान की रक्षा के लिए सचेत होगया और दुर्योधन की अन्तिम बात से वह स्वयं ही प्रात्म ग्लानि के मारे कुछ कह सकने योग्य न रहा। हा उसने इतना अवश्य कहा--"दुर्योधन ! कल यदि थोडी सी भी भूल हो गई, तो आप अपने एक परम सहयोगी से हाथ धो बैठेगे।" ____ "नही, ऐसा कदापि नही होगा " दढ़ता से दुयौंधन बोला। जयद्रथ सन्तुष्ट होकर वहा से चला गया तो दुर्योधन ने एक भयकर अट्टहास किया और फिर स्वय ही वोला- "अवश्य ही मेरा भाग्य जाग रहा है। आज भयकर शत्रु, अर्जुन पुत्र अभिमन्यु का पत्ता कटा और कल अर्जुन भी समाप्त हो जायेगा। फिर तो विजय का श्रेय मुझे मिला ही रक्खा है।" उस के पापी मन ने शंकित होकर पूछा- "और यदि अर्जुन जयद्रथ तक पहुच गया तथा उसका वध कर डालने मे ही सफल हो गया तो ? .......स्मरण है कि उसके सारथि हैं श्री कृष्ण और सहयोगी हैं भोमसेन,, धृष्टद्युम्न प्रादि." । . वह बोला--"तो भी मेरा ही लाभ है. जोत फिर भी मेरी ही है क्योकि जयद्रथ के पिता की भविष्य वाणी के अनुसार जो जयद्रथ का सिर काट कर भूमि पर गिरा देगा उसी के सिर के उसी समय सौ टुकड़े हो जायेंगे । जयद्य का पिता वहा ही पुण्यवान Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५०. ............. जैन महाभारत तथा शुभ प्रकृति वाला व्यक्ति है, उसकी बात कभी असत्य सिद्ध नहीं' होंगी। इस लिए मेरे तो दोनों हाथो मे लड्डू हैं । जीत हर प्रकार से मेरी ही है । अहा हाइ हाइ हाइ" .. बात यह थी कि सिन्धु देश के प्रसिद्ध नरेश वृद्ध क्षय, के एक पुत्र हुआ. जिसका नाम रक्खा गया जयद्रथ । बडी तपस्या के पश्चात यह पुत्र हुअा था। इस कारण वडा ही आनन्द मनाया गया । ज्योतिषियो से इसके जीवन के सम्बन्ध मे पूछा गया। तब उन्होने बताया कि जयद्रथ बडा -ही-यशस्वी व परम प्रतापी-संजा बनेगा, किन्तु एक श्रेष्ठ क्षत्रिय के हाथो सिर काटे जाने से- इसकी मृत्यु होगी। यापि वृद्ध क्षय बडा ही- धर्म' ध्यानी, सच्चरित्र, सुशील; गुणी, विद्यावान और धर्म के मर्म का ज्ञाता था, और वहां जानता था कि यह शरीर नाशवान है, आत्मा अपने किए कर्मों का फल भोगता ही है, उसे अपने कर्मानुसार चोले बदलने'हाते हैं. जिसे जीवन मिला, उसके लिए मृत्यु, अवश्यमभावी है तथापि बडे बडे ज्ञानियो और तपस्वियो तक को अपने प्रिय जनो की मृत्यु पर खेद होता ही है अत. वृद्ध क्षय भी घोर तपस्या से प्राप्त पुत्र रत्न की, मृत्यु की भविष्य-वाणी- सुनकर व्यथित-हो गया और उसने कई सप्ताह निराहार जाप किया, फिर घोषणा की कि जो मेरे पुत्र का सिर काट कर-पृथ्वी पर गिरायेगा, उसी क्षण उसके भी सिर के सौ. टुकडे हो जायेगे। , जयद्रथ के व्यस्क हो जाने पर वद्धं क्षय ने राज-सिंहासन पर' जयद्रथ को बैठाया और स्वय- पंच महीं व्रती, साधु वृति घरिण कर ली। - .. . . ' । द्रोणाचार्य अपनी शैय्या पर पडे करवंटे बदल रहे थे। जयद्रथ वहां पहुचा और चरणा पकड कर प्रणाम किया। फिर विनीत भाव से पूछा-'आचार्य । इस समय पाने के लिये' मुझे क्षमा करें। में यह जानना चाहता हु कि आम ने मुझे और अर्जुन को एक साथ ही अस्त्र-विद्या सिखाईथी। क्या हमदोनो की शिक्षा मे कोई अन्तर है ?. अर्जुन मुझ से किसी बीतामे अधिक तो नही ?" - द्रोणा जानते थे कि यह प्रश्नः क्यों पूछा गयाँ हैं, वे बोले Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयद्रथ वध "जयद्रथ | तुम दोनों को मैंने तो एक जैसी ही शिक्षा दी थी। परन्तु आपने लगातार अभ्यास ओर अपनी कठिन तपस्या के कारण, साथ ही अपने पूर्व सचित पुण्य तथा शुभ प्रकृति के कारण अर्जुन तुम से वढा-चढ़ा है इस में कोई सन्देह नहीं।" ____ जयद्रथ को हृदय कांप उठा। बोला- तो फिर क्या अर्जुन _ मुझे . . ?" - "नहीं, नही, तुम्हे भयभीत न होना चाहिए-द्रोण ने बात समझते हुए बीच मे ही कहा-कल हम ऐसे व्यूह की रचना करेगे जिसे तोडना अर्जुन के लिए भी दु साहस होगा। उस व्यूह के सबसे पिछले मोरचे पर हम तुम्हे रक्खेंगे, तुम्हारी रक्षा में अनेक वीर रहेंगे। व्यूह के अगले मोरचों पर मैं स्वय रहूंगा। फिर तुम तो क्षत्रिय हो। अपने पूर्वजो की शानदार परम्परा को जीवित रखते हुए निर्भय होकर युद्ध करो। यमराज तो हम सद का पीछा कर रहे है, अन्तर इतना है कि कोई पहले जाता है, किसी को पीछे जाना है । सभी को अपने अपने कर्मों का फल भोगना है, तुम्हे भी और मुझे भी। तुम या मैं इस से बचकर भागकर और कही जा ही कहा सकते हैं।" सारी रात वेचारे जयद्रथ ने व्याकुलता से गुजारी। विल्कुल उसी सैनिक की भाँति जिसे स्वर्ण सिंहासन पर बैठाकर उसके सिर पर नंगी तीक्ष्ण तलवार बाल में बांध कर लटका दी गई हो। उसे चारों ओर अर्जुन ही गाण्डीव लिए हुए दिखाई देता। X :-* -X X X X X पक्षियो का कलख प्रारम्भ हो गया, अधकार की चादर को विदाण करती सूर्य की स्वणिम किरणें फुट निकलीं । छावनियो में चहल पहल प्रारम्भ हो गई . ज्यो ही सूर्य की किरणे सफेद हुई, द्रोणाचार्य अपने शिविर से बाहर निकले, तैयारी का शख नाद हुआ बार कुछ ही देरि वाद सेनाएं रण क्षेत्र में पहुंच गई। द्रोणाचार्य अपना सेना की व्यवस्था में लग गए। सबसे पीछे जयद्रप की अपनी सेना व सरक्षकों के साथ रक्खा गया। उसकी रक्षा के लिए भूरिअवा, कर्ण, अश्वस्थामा, शल्य वषसेन प्रादि महारधी अपनी सेनाओं साहत सुसज्जित खड़े थे। इन वीरों की मेना और पाण्डवों की Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंन महाभारत सेना के बीच में शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ प्राचार्य द्रोण ने एक भारी सेना को शकट चक्र-व्यूह मे रचा शंकट व्यूह के अन्दर कुछ दूर आगे पद्म-व्यूह बनाया । उससे आगे एक सूत्री-मुख-व्यूह रचा । उस व्यूह मे जयद्रथ सुरक्षित था। शकट व्यूह के द्वार पर स्वय द्रोणाचार्य खड़े हुए. : उस दिन उन्होने सफेद वस्त्र धारण किए हुए थे, उनका कवच भी सफेद रग का था। उनके रथ के घोडो का रंग भी सफेद ही था । वे अपने अपूर्व लेज के साथ प्रकाशवान ह रहे थे। व्यूह की व्यवस्था तथा मजबूती देखकर दुर्योधन को धीरज बधा। धतराष्ट्र के पुत्र दुमर्पण ने कौरव सेना के आगे लाकर अपनी सेना खडी कर दी. उस.सेना में एक हजार रथ, - एक. सौ.हाथी, तीन हजार घोडे, दस हजार पैदल और डेढ हजार धनुर्धारी-वीर सुव्यवस्थित रूप से खडे थे। अपनी इम सेना के आगे अपना रथ खडा करके दुर्मर्षण ने अपना शख वजाया और पाण्डवो को युद्ध के लिए ललकारा . “कहा है वह अर्जुन, जिसे अपने बल पर बडा. अभिमान है, जिसके बारे मे पाण्डवो ने उडा रक्खा है कि उसे युद्ध मे परास्त ही नहीं किया जा सकता। कहा है वह ?. आये तो हमारे सामने । मैं अभी.ससार को दिखा दगा कि अभिमानो का सिर नीचा होता है। वह हमारी सेना से टकराकर इसी प्रकार चूर चूर हो जायेगा जिस प्रकार मिट्टी का घडा पहाड़ से टकराकर टुकड़े टुकड़े हो जाता है।" अर्जुन ने चुनौती सुनी तो पाण्डवो की व्यवस्थित सेना से । निकलकर दुर्मर्षण की सेना के सामने आ खड़ा हुआ और अपना शंख बजाया, जिसका अर्थ था कि उसे चुनौती स्वीकार है। उस ने गरज कर कहा-"दुर्मर्षण ! घबराते क्यों हो, तुम्हे अभी ही अपनी शक्ति का पता चल जायेगा, ठीक ही कहा है कि जब चींटी. की मौत धाती है तो उसके पंख निकल जाते हैं।" . . ., कौरव सेना में बार-बार शख बजने लगे। तब अर्जुन ने श्री कृष्ण को कहा--"केशव-!- अबा रथ, दुर्मषण की सेना की ओर चलाईये। उधर जो गज सेना है. उसको तोडते हुए अन्दर घुसेंगे।" '। जाते ही अर्जुन ने दुर्मर्षण की सेना पर भयंकर प्रहार किया। शाता है तो उसके प्रम बार-बार शय दुर्मर्षण Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयद्रथ बध गज सेना उसके वाणो का ताव न ला सकी और कुछ ही देरि में, तितर बितर हो गई। - दुर्मर्षण बार-बार ललकारता रहा । पर सेना में उत्साह का सचार न हुआ । बल्कि जो भी बीर अर्जुन के सामने आया, वही मृत्यु को प्राप्त हुया ।, तीन अंधड़ के चलने पर जैसे, मेघ खण्ड बिखर जाते हैं इसी प्रकार अर्जुन के बाणों से दुर्मर्षण की सेना, विखर-गई यह देख दु शासन को बड़ा झोष पाया और वह अपनी सेना सहित अर्जुन के सामने प्रा डटा - बडा ही रोमांच- कारों और वीभत्स दृश्य उपस्थित हो गया । अर्जुन के बाणो की - मार से सैनिको के शरीर निष्प्राण होने लगे। चागे ओर शवों के डर लग गए। रथ टूट गए और सिर, धड़-तथा हाथ पैर इधर-उधर बिखर गए। उस वीभत्स दृश्य को देखकर दुःशासन की बची खुची सना का साहस टूट गया और वह मैदान छोड़कर भाग निकली। शासन ने बहुतेरा,जोर मारा, पर जैसे सिंह के सामन भेडो की एक नहीं चलती, इसी प्रकार दुर्मर्षण तिलमिलाने के उपरान्त कुछ न कर पाया वह भागा और जाकर द्रोणाचार्य के पास भय पखल होकर पुकार की-' आचार्य ! अर्जुन की गति को रोकिए वह तो साक्षात काल रूप धारण करके तबाही मचाता हुया बढा चला आ रहा है।" द्राण वोले--:"दुर्मर्षण ! उसकी गति को रोक पाना बच्चो का खेल नही है।" . इतने ही मे अर्जुन का रथ भो द्रोण के पास पहच गया। जाते हा उसने तीन बाण उनके चरणो मे फेके और वीरोचित प्रणाम उपरान्त उसने कहा - "गुरुदेव ! अपने प्रिय पुत्र को गवाकर भारदुःख से व्यथित होकर. अपने पुत्र की हत्या के लिए जिम्मेदार जयद्रथ की खोज मे मैं आया ह। मुझे अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करनी है। आज आप कृपया मुझे अनुगहीत करें।" अजुन के नम्र निवेदन को सुनकर द्रोण वोले-"पार्थ! आज तो तुम मुझ से टक्कर लिए बिना आगे न, जा सकोगे।" . __ "क्या पापं मेरी प्रतिज्ञा पूर्ति के पथ पर दीवार बनकर. खड़े रहना चाहते हैं ?"-अर्जुन ने प्रश्न किया। . . . "म तुम्हारे शत्रु-दल का सेनापति जी है।" द्रोण बोले । - मजुन ने द्रोण के शब्दो का उत्तर अपने तोण वाणों से Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S ५५४ 2 जैन महाभारत दिया । 7 1 भयंकर संग्राम छिड गया । श्रर्जुन तीक्षण वाणों का प्रहार कर रहा था और द्रोण उसके बाणों को तोड़ जा रहे थे 1 तब, कुपित होकर अर्जुन ने पैतरा बदल कर वाण चलाने आरम्भ करें दिए । एक दो बाण द्रोण को चोट पहुंचाने में सफल हुए तो उन्हें भो क्रोध आया और कुपित होकर ऐसे बाण चलाये कि अर्जुन तथा श्री कृष्ण दोनों ही घायल हो गए इस से कृपित होकर अर्जुन गाण्डीव पर बाण चला ही रहा था कि द्रोण ने उसके धनुष की डोरी काट डाली । और फिर मुस्करा कर आचार्य ने उसके घोडो रथ और उसके चारो ओर वाणो की वर्षा कर दी। अर्जुन ने दूसरा धनुष लेकर बाण चलाये और श्राचार्य पर हावी होने की इच्छा से तीक्ष्ण बाण चलाने प्रारम्भ कर दिए । " f परन्तु द्रोण भी उसी प्रकार अर्जुन का मुकावला करने लगे । फिर क्या था बे रोक बाणो से उन्होने अर्जुन को घने अंधकार मे डाल दिया । यह देखकर वासुदेव अर्जुन से बोले - शस्त्र विद्या में पारगंत द्रोण से ही जूझते रहे तो यही शाम हो जायेगी । अब देरि करना ठीक नहीं कहो तो द्रोण को यही छोड़ कर रथ आगे बडा दूं । आचार्य थकने वाले नही है अर्जुन ने स्वीकृति दे दी, तब श्री कृष्ण ने बडी कुशलता से आचार्य की बाई ओर से रथ हांक दिया और आगे निकल गए । यह देख द्रोण ने कहा- "पार्थ ! तुम तो शत्रु को परास्त किए बिना आगे बढते ही न थ 'ग्राज कैसे निकले जा रहे हो ?" ( ❤ 1 अर्जुन ने मुस्कराकर कहा - " आप कही शत्र थोड े ही है,' श्राप तो गुरु देव हैं। भला श्राप को हराने की क्षमता मुझ मे कहाँ ? मैं तो श्रापका शिष्य हूं पुत्र के समान । थाप को परास्त करने की समता भला ससार मे किस रण बांकुरे में हो सकती है t 1 י " " यह कहता हुन आगे बढ़ गया। श्री कृष्ण घोडो को तेजी से दौड़ा रहे थ। द्रोण के सामने से हट कर अर्जुन का रथ कौरव सेना की ओर चली । सेक i अर्जुन जाते ही भोजों की सेना पर टूट पड़ा। कृत वर्मा और सुदक्षिण पर उसने एक साथ ही आक्रमण कर दिया और उन दोनो Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयद्रथ बंध ५५५ को परास्त करके श्रुतायुध से जा भिडा। भयकर सग्राम छिड़ गया। श्रुतायुध के घोडे मारे गए इस पर क्रुद्ध होकर वह गदा हाथ मैं लेकर रथ से उतर आया और क्रोध वश गदा का प्रहार श्री कृष्ण परं कर दिया। पर निशस्त्र और युद्ध मैं न लड़ रहे श्री कृष्ण पर चलाई गदा उलटी श्रुतायुध को ही जा लगी, जिसकी चोट खाकर उसका शरीर तडपने लगा। कुछ ही क्षण पश्चात उसकी यई लीला समाप्त हो गई। यह उस वर दान का परिणाम था जो उसकी मां ने प्राप्त किया था। इस वर दान की भी एक कथा है। x x x . :x कहते हैं श्रुतायुध की मां पर्णशम बडी पुण्यवती थी। उस ने अपनी तपस्या से वैसमण देवता के प्रसन्न होने पर वरदान मांगा था कि उसका पुत्र किसी शत्रु के हाथो न मारा जाये। उत्तर मे देवता ने कृपा कर एक गदा उसे भंट की और कहां कि तेरा वेटा इस गदा को लेकर लड़ेगा तो कोई भी शत्रु उसका वध न कर सकेगा परन्तु शर्त यह है कि यह गदा उस पर न चलाई जाय, जो नि शस्त्र हो. अथवा जो युद्ध मैं शरीक न हो । यदि इन मे से किसी पर चलाई गई तो यह गदा उलटकर चलाने वाले का ही वध कर देगी। . तो वही थी वह गदा जो श्रुतायुध ने चलाई थी और क्रोधवश देवता की शर्त वह भूल गया, जिसके कारण श्री कृष्ण जो नि शस्त्र भी थे और लंड भी न रहे थे पर गदा का वार कर वंठने से उस गदा ने उसी का बध कर दिया। . . श्रुतायुध के मरते ही काभोज राज सुदक्षिण ने अर्जुन पर प्रहार किया। परन्तु अर्जुन के वाणो के सामने उसकी एक न चली। अर्जुन ने उसके घोड़ों को मार डाला । धनुप तोड डाला और उस के कवच को चूर २ कर दिया । अन्त मैं एक ऐसा तीक्ष्ण बाण खीच कर मारा जो सीधे जाकर उसकी छाती पर लगा और वह हाथ फला कर भुमि पर गिर पड़ा। उसके मुह से एक चोत्कार निकला और छाती से रक्त का फव्वारा।। Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६ ......... जैन महाभारत श्रुतायुध और काभोज का इस प्रकार अन्त देख कर श्रुतायु व अच्छतायु दो राजा अर्जुन पर टूट पड़े । वे दोनो दो ओर से अर्जुन पर बाण बरसाने लगे । दोनो ही बड़े चंचल और बलवान राजा थे, उनका मुकाबला करते २ अर्जुन बहुत थक गया बड़ा घोर सनाम छिड़ा था। दोनो ने मिलकर अर्जुन को घायल कर दिया। थक कर अर्जुन-ध्वज स्तम्भ के सहारे खड़ा हो गया । ... उस समय श्री कृष्ण वं.ले' "पार्थ ! रुक कैसे 'गए । इन दोनो राजामो की आत्मा इनके शरीर के बन्धन से मुक्त होने को लालायित है । और तुम्हारे बाणो की प्रतीक्षा कर रही हैं । देखो सूर्य का रथ वहुत आगे जा चुका है । तुम्हें जयद्रथ का वध करना है " अर्जुन को फिर उन्साह हुआ और उसने धनुष हाथ मैं सम्भाल लिया । देखते ही देखते उसने उन दोनों राजाओं को मार डाला । यह देख उनके दो पुत्र क्रुद्ध हो कर अर्जुन पर झपटे । पर जैसे इस्पात की दीवार से सिर टकराने पर सिर टकराने वाले को ही हानि पहुंचती है, उसी प्रकार उन दोनों के प्रहार करने से उनके प्राणों पर ही बन आई । अर्जुन ने दोनो को ही चिरनिद्रा मे सुला दिया।, - __गाण्डीव पर- दूसरी डोरी चढाकर, अर्जुन कौरव-सेना सागर फो चीरता हुआ आगे बढ़ा । उसके बाणो की मार से चारों ओर शव ही शव दिखाई देने लगे । कही कुचली हुई खोपड़ियां पडी थी, तो कही कटे हुए सिर रक्त के धारायें बह रही थी। टूटे हुए कवचो, चूर चूर हुए रथो और घोड़ो के शवो से धरती पट गई । कुछ ही देरि मे, वह स्थान, जो पहले छटे हुए कडियेले जवानो की पक्तियो से भरा था, मास पिण्डो, रक्त धाराओ, हड्डियो और रथो के अवशेषों से भर गया और तिल धरने को भी भूमि नही मिलती थी, अर्जुन का रथ शवो को कुचलता हुआ आगे जा रहा था , - उस समय वह भयानक अस्त्र प्रयोग कर रहा था। कभी उस के अस्त्रों से आग की लपटें निकलती थी तो कभी धुआं छूटता था। चिनगारियां सी छोड़ते उसके बाण क्षणभर में अनेक प्राणियो को मौत के घाट उतार देते थे। घोड़ों व मनुप्यो के चीत्कारो ने उस Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयद्रथ वध ५५७ स्थान पर वीत्स वातावरण बना दिया। मार काट करता, रथो और हाथियो को मिटाता विनाश की ज्वाला बखेरता अर्जुन उस स्थान पर पहुच गया जहां जयद्रथ था। . अर्जुन का रथ जयद्रथ की ओर जाते देख दुर्योधन बहुत चिन्तित हुआ · तुरन्त ही वह द्रोणाचार्य के पास पहुचा और बोला "प्राचार्य ! अर्जुन तो हमारे व्यूह को तोडकर अन्दर प्रवेश कर चुका है और वह मार काट करतो उस स्थान पर पहुच गया है, जहा अनेक वीरो से सुरक्षित जयद्रथ खडा है । हमारी इस हार से वह वीर विचलित हो उठेगे जो जयद्रथ की रक्षा पर तैनात हैं । हम सब को आशा थी कि अर्जुन विना आचार्य जी से निबटे आगे नहीं जायेगा, न प्राचार्य हो उसे आगे जाने देगे। पर वह पाशा तो झूठी निकली। श्राप के देखते २ अर्जुन अपना रथ आगे बढा ले गया मालूम होता है कि आप पाण्डवों की विजय का रास्ता साफ करने को सदा हो प्रस्तुत रहते हैं। यह देख कर मेरा मन अधीर हो उठा है। आप ही बताईये कि मैंने आप का क्या बिगाड़ा है. जो आप मुझे पराजित करने पर तुले हैं । यदि पहले ही मुझे आपका इरादा ज्ञात हो जाता तो वेचारे जयद्रथ से यहाँ रुकने का आग्रह ही न करता। वहातो अपने देश जाना चाहता था । परन्तु मैंने ही उसे न जाने दिया। मेरी भूल से उस बेचारे के प्राणों पर प्रा बनी। अर्जुन ने यदि उस पर आक्रमण कर दिया तो फिर वह किसी प्रकार न बच पायेगा ' दुर्योधन के शब्दो से द्रोणाचार्य को बडी ठेस लगी । तो भी समय के अनुसार उन्होने क्रोध को पी लिया और बोले-"दुर्योधन! तुम ने इस समय जो शब्द कहे है, यद्यपि वे मेरे हृदय मैं बाणों की भांति लगे है तथापि में उनका बुरा नही मानता | क्योकि मे तुम्हे पुत्रवत मानता हूं, जैसा अश्वस्थामा, वैसे ही मेरे लिए तुम । इस लिए तुम्हारी बात को छोडकर में इस समय जो उचित समझता हूं वही बताता हू। देखो । पाण्डवो की सेना हमारे सैनिको को मारती काटती वही तीव्र गति से बढ़ी चली आ रही है। इस समय में यह उचित नहीं समझता कि यह मोरचा छोडकर अर्जुन का पीछा करने जाऊं। यदि मे यहाँ से हट गया तो अनर्थ हो जायेगा । देखो ! इस समय अर्जुन तो जयद्रथ की खोज मे गया है और युधिष्टिर इधर श्रा Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत रहा है । मैं उसे जीवत पकड कर तुम्हे सौपना चाहता हू । इस प्रकार तुम्हारी एक इच्छा की पूर्ति हो जायेगी।" __ बीच ही मे दुर्योधन बोल उठा-"पर जयद्रथ वेचारे का क्या होगा ?" "हाँ, तुम भी बड़े शूरबीर हो । अर्जुन का सामना करने के लिए तुम तुरन्त वहा जाता।" "क्या आपको आशा है कि ऋद्ध अर्जुन को मे रोक पाऊगा।" ___"मैं तुम्हे एक अभिमान्त्रित कवच दूगा। इस देवी कवच को पहन कर यदि तुम युद्ध करोगे तो तुम पर शत्रु का कोई भी अस्त्र प्रभाव न डाल सकेगा । और इस कवच के सहारे तुम जयद्रथ की रक्षा कर सकोगे । इधर मे युधिष्ठिर को पकड़ लूगा।" द्रोण की बात सुनकर दुर्योधन को अपार हर्प हुआ । उसने देवी कवच लिया और उसे पहन कर एक बड़ी सेना साथ ले अर्जुन का सामना करने चल पडा। अर्जुन कौरव सेना को तहस नहस करता हुमा आगे वढा चला जा रहा था। बहुत दूर निकल जाने पर श्री कृष्ण ने देखा कि घोड़े थके हुए है । उन्होने रथ एक स्थान पर रोक दिया ताकि घोड सुस्ता ले। रथ रुका देखकर विन्द और अनुविन्द नामक दो वीरो ने अाक्रमण कर दिया , अर्जुन ने बड़े कौशल से उनकी सेना को तितर बितर कर दिया और उन्हे भी मौत के घाट उतार दिया। इसके वाद थोडी देर श्री कृष्ण ने घोडो को सुस्ताने का अवसर देकर फिर रथ हांक दिया और जयद्रथ की ओर तेजी से रथ बढाने लगे। पीछे से शोर उठा तो श्री कृष्ण ने घूम कर देखा और अर्जुन को सचेत करते हुए बोले "पार्थ ! देखो, पोछे, से दुर्योधन आ रहा है, उसके साथ एक बडी सेना है चिरकाल से मन मैं क्रोध की । जो आग दवा' रक्खी है, प्रोज उसे प्रगट करो। इस अनर्थ की जड़ में को जला कर भस्म कर दो। इससे अच्छा अवसर नही मिलेगा आज यह तुम्हारा शत्रु तुम्हारे बाणो का लक्ष्य बनने को आ रहा है। स्मरण रहे यह महारथी है। दूर से भी आक्रमण करने की सामर्थ्य Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयद्रथ वध रखता है। अस्त्र विद्या का कुशल जानकार है। जोश के साथ युद्ध करेगा। शरीर का गठोला और बलो है तनिक सावधानी से गाण्डीव के कमाल दिखाना।" यह कह कर श्री कृष्ण ने रथ घुमा दिया और अर्जुन ने एका एक दुर्योधन पर हमला कर दिया। इस आचानक अाक्रमण से दुर्योधन तनिक भी न घबराया वल्कि गरज कर बोला-',अर्जुन ! सुना तो वहुत है कि तुम बडे 'वीर हो, वीरोचित र माचकारी कृत्य तुम ने किए हैं, किन्तु तुम्हारी वीरता का सही परिचय तो हम अब तक मिला नही है । जरा देखें तो सही कि तुम मे कौन सा ऐसा पराक्रम है कि जिसकी इतनी प्रशसा सुनने मे आ रही है " तनिक सो गरमी पाकर या शरद ऋतु मे बर्फानी हवा से जैसे कच्चे चमडे का जूता है, इसी प्रकार देवी कवच पाकर दुर्योधन अकड गया था। और दोनो मे घोर सग्राम छिड गया । . बहुत देर तक दोनो एक दूसरे पर बाण वर्षा करते रहे । फिर भी दुर्योधन उसी प्रकार डटा रहा । गाण्डीव से निकले प्राण वाण उसका कुछ न विगाड रहे थे तब श्रीकृष्ण ने विस्मय पूर्वक कहा"पार्थ । यह कैसे पाश्चर्य की बात है कि जो वाण वलिष्ट लोगो के प्राण ले लेते हैं, उन्ही का दुर्योधन पर कोई प्रभाव नही हो रहा। गाण्डीव से निकला बाण और उसका शत्रु पर कोई प्रभाव न हो । आश्चर्य की बात है । मुझे तो कभी ऐसी आशा न थो । अर्जुन ! कही तुम्हारी पकड में ढील तो नही रहती ? भुजारो का बल तो कम नही हो गया ? गांण्डीव का तनाव तो स्वाभाविक है ? फिर क्या बात है जो तुम्हारे वाण दुर्योवन पर असर नहीं करते ?" . अजुन ने कहा-"मधु सूदन ! लगता है द्रोण ने अपनाअभिमन्त्रित कवच इसे दे दिया है उसी को दुर्योधन पहने हुए है । प्राचार्य ने इस कवच का भेद मुझे भी बताया था । यही कारण है कि मेरे वाण उस पर असर नहीं करते । यह उसी के वल पर साहस बाँध अभी तक रुका है। फिर भी आप अभो ही देखिथे कि दूसरे के कवच को शरीर पर लादे, लदे बैल की भाति खडे दुर्योधन का क्या दशा होती है ?" Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ . जैन महाभारत । . . - यह कहते अर्जन ने पैतरे वदल कर ऐसे तीक्ष्ण वाण चलाये, कि उनकी मार से क्षण भर मे ही दुयोधन के रथ के घोड धाराशायी हो गए। सारथि नीचे लुढक गया और रथ चूर चूर हो गया कुछ ही देरि मे दुर्योधन का धनुष भी अर्जुन ने काट डाला। दस्ताने फाड डाले और दुर्योधन के शरीर का वह भाग जो कवच से ढका नही था, अर्जन के बाणो से विध गया । अर्थात जिन वस्तुओ व भागों पर अभिमन्त्रितं कवच नही था; अजुन के बाणो की मार उन्ही पर अपना रंग दिखा गई। । अर्जुन के बाणो से दुर्योधन के हाथ, पाव, नाखून, उगलियां तक बिंध गए और अन्त में दुयोधन को हार माननी पडी । वह समर भूमि मे पीठ दिखा कर भाग खडा हा । श्री कृष्ण ने पाचजन्य वाया और बड़े जोर से विजय नाद किया। " । जयद्रथ की रक्षा पर नियत वीरों ने जब यह देखा उनके दिल एक बारगो दहल उठे। पर मरता क्या न करता की लोकोक्ति के अनुसार भूरि श्रवा कर्ण, वृषसेन; शल्य, अश्वथामा, जयद्रथ आदि आठो महारथी अर्जुन के मुकाबले पर आगए । परन्तु अजुन ने गाण्डीव की एक टकार करके उनकी सेना का दिल दहला दिया। वाण वर्षा आरम्भ हो गई। , दुर्योधन को अर्जुन का पीछा करते देख कर पाण्डव सेना ने शत्रुनो पर और भी जोर का आक्रमण कर दिया । घृष्टद्युम्न ने सोचा कि जयद्रथ की रक्षा करने यदि द्रोणाचार्य भी चले गए तो वड़ा अनर्थ हो जायेगा । इसलिए उन्हे रोक रखना चाहिए । इसी उद्देश्य से उसने द्रोण पर लगातार अाक्रमणं जारी रखा । घृष्टधुम्न की इस चाल के कारण कौरव सेना तीन भागो' में विभाजित होकर कमजोर पड गई। . . . . एक बार अवसर पाकर धृष्टद्युम्न ने अपना रथ द्रोण के रथ, से टकरा दिया। दोनों के रथ एक दूसरे से भिड़ गए। दोनो.रथ पास पास खड़े बड़े ही भले प्रतीत हो रहे थे। धृष्ट गुम्न ने अपने धनुष:वाण फैक दिए और तलवार लेकर द्रोण के पर जा चढा और उन पर उन्मत होकर प्रहार करने लगा। वह तो था उनका जन्म का वैरी । . Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयद्रथ बध . ५६१. उस पर वे बिल्कुल उसी प्रकार झपटे जैसे किसी मृग को अपनी माद पर आया देख सिंह झपटता है । धृष्टद्यम्न की आंखों मे रक्त-पिपासा झलक रही थी। बहुत देर तक वह आक्रमण करता रहा । एक वार दोण ने ऐसा पैना वार किया कि वह धृष्टद्युम्न के प्राण ही ले लेता, यदि ठीक उसी समय सात्यकि बाण से उनके प्रहार को न काट देता। प्रचानक सात्यकि की बाण वर्षा हो जाने से द्राण का ध्यान उसकी पोर चला गया। इसी बीच पाचाल देश के रथ सवार घष्टद्युम्न को वहा से हटा ले गए। काले नाग के समान फुफकारते हए और लाल-लाल नेत्रो से. चनगारिया बरसाते हुए दोणाचार्य सात्यकि पर टूट पडे । परन्तु · जात्यकि भी कोई मामूली योद्धा न था । पाण्डव-सेना के सब से बतुर योद्धाओ मे उसका स्थान था। जब उसने द्रोणाचार्य को अपनी मोर झपटते हुए देखा तो वह खुद भी उनकी ओर झपट पड़ा। _ चलते २ सात्यकि ने अपने सारथि से कहा- "सारथि । यह ई द्रोणाचार्य ! जो अपनी ब्राह्मणोचित वृत्ति को छोडकर धर्म राज को पीडा पहुचाने वाले क्षत्रियोचित कार्य कर रहे हैं : इन्ही के कारण दुर्योधन को घमण्ड है। स्वय यह भी अपने बल के, घमण्ड में राये रहते हैं चलायो वेग व कुशलता से रथ, तनिक इनका भी सर्प- चूर्ण कर दू ।" : . सात्यकि का सकेत पाते ही सारथि ने घोडे छोड दिए । चाँदी । सफेद चमकने वाले घोडे हवा से बात करने लगे और सात्यकि का द्रोणाचार्य को योर ले दौड । पास पहचते २ सात्यकि और द्रोण । एक दूसरे पर वाण बरसाने आररभ कर दिए। दोनो मे. भयकर युद्ध छिड गया। दोनो ओर से नाराच बाणो की वर्षा हो रही थी। सानो वीर कब बाण तरकश से लेते है कव खीचते है और कब छोड ति है। इस बात का पता ही न चलता था। दोनो के बाणो से रथो के बीच की दूरि वाणो से पट गई । इस रोमांचकारी दृश्य को देख दूसर सैनिक पर स्पर युद्ध करना भूल गए और सात्यकि दोनो 'स्था को ध्वजाए टूट कर गिर गई। रथो की छतरिया भी टट ३ । पर वे आपस में भिड़े ही हुए थे। कोई भी हार मानने को पार न था । सात्यकि बार वार सिंह गर्जना करता. और उनके ' Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ जन महाभारत . .... उत्तर मे द्रोण वृद्ध सिंह की भाँति गरजते। दोनो के धनुषो की टकार, वड जोरों से सुनाई दे रही थी। उनके पास पास युद्ध रत सभी सैनिक रुक गए थे। मृदग, शख आदि की ध्वनिया मौन हो गई। आकाश मे देवता, विद्याधर-गधर्व, यक्ष प्रादि इन दोनो के युद्ध को विस्मय पूर्वक देख रहे थे। । ___- द्रोण का धनुप सात्यकि के वाण से टूट गया, तो उन्होने दूसरा धनुष सम्भाला पर उसकी डोरी चढा हो रहे थे कि वह भो सात्यकि ने तोड डाला । द्रोण ने तीसरा धनुष उठाया, कुछ हो देरि मे वह भी टूट गया । इस प्रकार द्रोण के पूरे एक सौ धनुष सात्यिक ने तोड डाले । द्रोण उसके पराक्रम को देखकर मन ही मन कहने, लगे- 'मात्यकि तो धुरन्धर रामचन्द्र, कार्तिकेय,भीष्म और धनजय प्रादि कुशल योद्धाओ की टक्कर का वीर है।" सात्यकि ने और भी कुशलता का परिचय दिया। द्रोण जिस अस्त्र का प्रयोग करते, सात्यकि भी उसी अस्त्र का उसी प्रकार प्रयोग करता । द्रोण तग पागए। तो उन्होने सात्यकि के वध का इच्छा से आग्नेयास्त्र चलाया । आग की लपटे बखेरता आग्नेयास्त्र चला। तभी सात्यकि ने वरुणास्त्र चलाया, जो पानी बरसाता हुआ चला और उस ने वोच ही मे प्राग्नेयास्त्र को ठण्डा कर दिया । इस प्रकार बहुत देरि तक भयकर अस्त्रो का प्रयाग होता रहा परन्तु' सात्यकि ने किसी से भी हार न मानी वह डटा ही रहा और प्रत्येक अस्त्र की काट करता रहा । द्रोणाचार्य यह देखकर वडे क्रुध हुए, . तब उन्होने एक दिव्यास्त्र छोडा, जिसे सात्यकि न काट पाया, तो भी उसने अपने को बचा लिया पर नभी से वह कुछ कमजोर पडने लगा। यह देख कौरव-सेना मे हर्ष की लहर दौड़ गई। तभी युधिष्ठिर को पता चला कि सात्यकि पर सकट आया हुआ है, उन्होने अपने आस-पास के वीरो से कहा- "कुशल योद्धा नरोत्तम और सच्चे बीर सात्यकि द्रोण के बाणो से बहुत ही पीड़ित ।। हो रहे हैं । चलो, हम लोग उधर चल कर उस वीर पुरुष की .. सहायता करे।" -- . धृष्टद्युम्न ने युधिष्टिर को रोकते हए कहा-"धर्मराज । श्राप का वहा जाना ठोक नही है। मुझे आज्ञा दो जिए कि सात्यकि की सहायता करू । Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयद्रथ वध ---- "ठीक है द्रपद कुमार ! तुम तुरन्त जायो - युधिष्ठर बोलेअपने माथे कुशल वीरो को लेते जाओ। सात्यकि कमजोर पड़ रहा है, कही अवसर पाकर द्रोणाचार्य उसका बध करने मे सफल हो गए, तो हमे 'भयकर' क्षति होगी । जाओ, देरि न करो। " + 1 ५६३ 4 एक बडी सेना को लेकर घृष्टद्युम्न तुरन्त उस ओर चल पंडा । बड़ी कठिनाई से उसने, सात्यकि को द्रोण के फन्दे से बचाया । *7 X x 'X 1 ?" दूर से श्री कृष्ण के पांच जन्य की आवाज सुनाई दे रही थी । युधिष्ठिर के कान उसी ओर थे । सात्यकि को सम्बोधित करते हुए वह अपनी चिन्ता प्रगर करते हुए बोले- "सात्यकि ' ' मुना तुमने । अकेले पाच जन्य 'की' ही आवाज श्रा रही है, गाण्डीव धनुष की टकार सुनाई नहीं देती " अर्जुन को कही कुछ हो तो नही गया सात्यकि ने ध्यान से सुना और बोला - " बात तो आपकी ठीक है पर पाच जन्य भी तो ग्रेजुन के लिए ही बज रहा होगा । अजुन के प्रहारो से शत्रु मर रहे होगे तभी तो श्री कृष्ण राख बजाते होगे । यदि जुन को कुछ हो जाता। तो पाच जन्य ही क्यो सुनाई देता ?" 1 1 り ܀ + + "नही सात्यकि, सम्भव है श्री कृष्ण ही उस दगा मे स्वय लढने लग गए हो । जान पडता है अर्जुन सकट मे पड़ गया है । आगे सिन्धु राज की सेना है, पीछे द्रोण की । अर्जुन सुबह से व्यूह मे घुसा है और अब शाम होने को आई, अभी तक उसका पता नही चला ! जरूर दाल मे कुछ काला है ।" - युधिष्ठिर चिन्ता व्यक्त करते हुए बोले । C 15 "नही धर्मराज | आप व्यर्थ ही चिन्तित हो गए । अर्जुन को कोई परस्त कर सके, असम्भव है।” सात्यकि ने दृढता पूर्वक कहा । "वह देखो फिर पाच जन्य की ही ध्वनि सुनाई दी - युधिष्ठिर फिर चिन्तातुर होकर बोले- गाण्डीव की टकार सुनाई ही नही देती । सात्यकि । तुम श्रर्जुन के मित्र हो । वह तुम से बड़ा स्नेह रखता है । वह तुम्हारी वडी प्रशसा किया करता । जब हम वनवास में थे तो कितनी ही बार अर्जुन को मैंने कहते सुना कि सात्यकि Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४, जन महाभारत जैसा ऊचा वीर कही देखने को भी न मिलेगा। उस ओर तो देखो ! आकाग मे कैसी धूल उड़ रही है। अर्जुन जरूर 'शत्रुनो से घिरा, हुआ है और सकट मे है । जयद्रथ कोई असाधारण' महारथी नही, फिर उसकी रक्षा के लिए आज कई महारथी अपने प्राणो की बाजी लगाने को तैयार है 'तुम अभो ही इसी घड़ी अर्जुन को सहायता को चले जाओ। --- ।' कहते कहते युधिष्ठिर वडे ही अधीर हो उठे। महाराज युधिष्ठिर के बार वार अाग्रह पर सात्यकि ने नम्न भाव से कहा-'धर्मराज! आपकी आज्ञा मेरे सिर-पाखो पर है और फिर अर्जुन के लिए मैं क्या नही कर सकता ? मैं उसके लिए अपने प्राण भी न्योछावर कर सकता हू, आपकी आज्ञा होने पर-तो मैं एक वार देवताओ से भी टक्कर ले सकता हूं। परन्तु मुझे-वासुदेव और धनंजय चे जो अाज्ञा दी है, वह भी, मुझे याद है : उसी, के कारण मैं आपको अकेला नहीं छोड़ सकता।" उतावले होकर युधिष्ठिर पूछ बैठ- वह कौन सी आज्ञा है, जो मेरी आशा के रास्ते मे रोडा बन गई है ?". " "महाराज ! रुष्ट न हो। उन्होने, जाते. समय मुझ से कहा था कि-'जब तक हम दोनों जयद्रथ का वध करके न लौटे तब तक तुम युधिष्ठिर की रक्षा करते रहना । खूब सावधान रहना, तनिक सी भी असावधानी न हो । तुम्हारे ही भरोसे हम युधिष्ठिर को . छोड़ जाते हैं. 'द्रोण की प्रतिज्ञा को ध्यान में रखना और उनकी रक्षा में प्रत्येक प्रकार को बाजी, लगा देनां ।' -अब आप ही, बताईये - मैं कैसे यहा से जा सकता हूं ? वे मुझ पर भरोसा- करके इतनी बडी ज़िम्मेदारी डाले गए हैं।"- सात्यकि ने विनीत भाव से कहा। . "जिसके आदेश की तुम्हे इतनी चिन्ता है उसके प्राणो की तुम्हे तनिक भी चिन्ता नहीं । तुम इसी, समय उसके काम न । प्रायोगे, तो कत्र आवेगी तुम्हारी मित्रता ?- आवेश मे आकर , युधिष्ठिर बोले। "महाराज ! मुझे विश्वास है कि शत्रुओं की सम्मिलित - शक्ति धनजय की शक्ति के सोल्हवें भाग के समान भी नही है। धनजय अंजेय है। आप व्यर्थ ही चिता कर रहे है ।"- सात्यकि ने कहा। Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . . . . .-जयद्रथ वध- reak or car...-५.६५.. ' 'नही, नही यह तो तुम्हारों बहाना है । सार्फ क्यो नही कहते कि उस सेकेट पूर्ण स्थान पर तुम जाना ही नहीं चाहते। युधिष्ठिर अर्जुन के स्नेह में आकर कह गए। सात्यकि के हृदयं को इन शब्दो से ठेस लगी, आहत पक्षी की भाति तंडप कर वह बोला-'महाराज '। सुझे ज्ञात नही था कि आप रण क्षेत्र में खड़े होकर अपने इस अनन्य भक्त के लिए यह कटु शब्दं भी प्रयोग कर सकेंगे। मुझे इसका बड़ा ही खेद है। तो भी श्रीपंको ललकारने और फटकारने का अधिकार है, इसलिए मैं सर्व कुछ सहन करू गो। फिर भी शंत्रो से आपकी रक्षा के लिए अन्त समय तक डटा रहूगा ।" . यह सुन युधिष्ठिर अपने शब्दो पर पश्चाताप करने लगे और बहुत सोच विचार के बाद बोले -“सात्यकि ! मुझे क्षमा करना' । वास्तव में अर्जुन मुझे अपने प्राणो से भी अधिक प्रिय है । जब कभी मैं उसे 'मर्कट में पड़ा महसूस करता हू तो बेचैन हो जाता हूँ। तुम मेरी बात मानो और उसकी जाकर खबर लो। यहा, मेरी: रक्षा के लिए भीमसेन है. धृष्टद्युम्न है और भी कितने ही वोर हैं, तुम्हे. मेरी आज्ञा माननी ही होगी।" ५. विवश होकर सात्यकि चलने की तैयार हुआ। धर्मराज ने सात्यकि के 'रथे-परं हर प्रकार के अस्त्र-शस्त्र और युद्धः सामग्री रखवा दी और खूर्व विश्राम करके ताज हो रहें चंचल तथा चतुर घोडे भो जुतवां दिए । आँशीर्वाद देकर सात्यकि को विदा किया । । । सात्यकि ने रथ पर सवार होकर भीमसेन से कहा- "महावली भीमसन । केशव' और धनंजय ने ती' धर्मराज का मुझे सौंपा था; उसी भरोसे के साथ मैं युधिष्ठिर को तुम्हें सौंपता हू । उनकी पॅच्छी तरह देख भाल करना और द्रोण से 'सीवधान रहना ।" । सारथि ने घोड छोड़ दिए । हवा से बात करते घोड' कौरव सेना की ओर तीब्र गति से भागने लगे । रास्ते में कौरव-सेना ने सात्यकि का डटकर, मुकावला- किया । पर सात्यकि उनको भारी सेना को तितर बितर करता हुआ आगे बढता रहा। जैसे ही सात्यकि युधिष्ठिर को छोड़कर अर्जुन की ओर चला, वैसे ही द्रोणाचार्य ने पाण्डव सेना पर हमले करने प्रारम्भ Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ जैन महाभारत कर दिए । पाण्डव सेना की पक्तिया कई जगह से टूट गई और उन्हे पीछे हटना पड गया। यह देख युधिष्ठिर बड़े चिन्तित हुए।' . . युधिष्ठिर पुन चिन्तित हो उठे । बोले - "अर्जुन अभी तक लौटा नही और सात्यकि की भी कोई खबर नहीं आई और उधर से बार बार पाँचजन्य की ध्वनि पा रही है, गाण्डीव की टंकार सुनने को मेरे कान बेचैन हा रहे है, टकार सुनाई हो, नहीं देती। मेरा मन शका के मारे काप रहा हे , न जाने क्यो - मुझे चिन्ता हो रही है। कहीं मेरे प्रिय भ्राता अर्जन पर कोई सकट तो नहीं आ गया। भीमसेन ? मै बहुत चिन्ताकुल हो रहा हू । मेरी समझ मे ही नहीं आता कि क्या करू ?" युधिष्टिर को इस प्रकार , व्याकुल देखकर भीम सेन-भी चिन्ताकुल हो गया, उसने कहा- “महाराज !. यद्यपि मैं आपको चिन्ता रहित करने के लिए आपकी प्रज्ञानुसार सब कुछ करने को तत्पर हूं। तो भी मै अपकी चिन्तानिमूल समझता हूं' क्योकि प्रिय भ्राता अर्जुन का कुछ विगाड सके, ऐसा तो मुझे कोई दिख ई नहीं देता ' आपको मैने कभी इतना अधीर होते नहीं देखा । आप निश्चिन्त रहिए अथवा मुझ से बताईये कि क्या करू" । ! "भैया ! न जाने क्यों मेरा दिल बहुत घबरा रहा है तुम तन्त जागो और , अर्जुन की खबर' लो"-युधिष्ठिर बोले.! . "मेरे लिए तो अर्जुन की खबर लेना भी उतना आवश्यक है जितना आपको रक्षा करना । सात्यकि आपकी रक्षा का भार मुझ पर छोड़ कर गए है, अब आप ही बताईये कि मैं क्या करू. ? अापकी आज्ञा का पालन करू या आपके प्रति अपने कर्तव्य को, पूर्ण करने के लिएयही रहूं ?"-भीम सेन ने कहा। "तुम मेरी चिन्ता न करो। मुझे यहां कोई खाये नही जा रहा । अर्जुन के प्राण बहुत मूल्यवान हैं। उसकी रक्षा पहले करो। वह है तो हमारे लिए सब कुछ है । वह न रहा और तुमने मेरे प्राणों की रक्षा कर लो तो भी सब कुछ चौपट हो जायेगा । मैं जो कुछ. कहता है वही करो। तुरन्त अर्जुन की सहायता को पहुंचो।" युधिष्ठिर ने व्याकुल होकर कहा उस समय यह साफ जाहिर हों रहा था कि अर्जुन के प्रति उन्हे कितना स्नेह है। ... Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयद्रथ वध ५६७ भीम सेन ने एक आज्ञाकारी अर्जुन की भांति कहा-"आप को आज्ञा सिर-यांखो पर । मै जाता है और वहा यदि अर्जुन भईया पर कोई सकट होगा तो अपने प्राण देकर भी उन्हे सकट-मुक्त करूगा । पर आप अपने को सम्भाले रहे । कही ऐसा न हो कि अर्जुन की चिन्ता ही मे आप अपने को भूल जायें और शत्रु का दाव चल जाय । और ऐसा भी न हो कि आप मेरो तरह किसी और को भी मेरे पीछे पीछे ही भेज दें, और शत्र के लिए मैदान साफ हो जाये।" "तुम निश्चित रहो भीम ! मैं सावधान हू । हाँ, तुम ज्योही अर्जुन के पास पहुचो और वह कुशल से हो तो सिंह-नाद करना। मैं तुम्हारे नाद को सुनकर समझ लू गा कि अर्जुन सकुशल है ।"युधिष्ठिर वोले। __भीमसेन ने अपने रथ मे आवश्यक अस्त्र-शस्त्र रक्खे और जाने से पूर्व धृष्टद्युम्न को पास बुलाकर कहा-महाराज युधिष्टिर अर्जुन के लिए बड़े चिन्तित हैं। उनकी आज्ञा से मैं उसकी सहायता के लिए जा रहा हू।. राजा की आज्ञा का पालन करना हमारा कर्तव्य है इसलिए मैं यह जानता हुग्रा भी कि अर्जुन भैया सकुशल होगे और शत्रु को कोई शक्ति भी उनका कुछ नही बिगाड़ सकती, मैं उस ओर जा रहा हूं! अब मै महाराज की रक्षा का भार तुम पर सौंपता हू द्राणाचार्य की प्रतिज्ञा तो तुम्हे ज्ञात ही है । उनसे सावधान रहना ।" __ "तुम विश्वास रक्खो जव तक मेरे शरीर मे प्राण है, महाराज के पास भी कोई नही फटक सकता ..।" धृष्टद्युम्न ने अाश्वासन देते हुए कहा ---और भीम सेन का रथ कौरव सेना की ओर तीन गति से वढने लगा! ___ भीम के रथ को अपनी ओर आते देख - कौरव-सेना मे कोलाहल मच गया। सब ने उसका रास्ता रोक लिया, पर भीम सेन की वाण वर्षा के आगे किसी की न चली। रक्त की नदिया बहाता हुआ, कौरव सैनिको के शवों पर से बढाता हुया भीम सेन आगे वढता गया । धृतराष्ट्र के ग्यारह वेटों को उसने यम लोक पहुचाया। भीम इस प्रकार कौरव-सेना का संहार करता करता दूर निकल गया और आगे जाकर उसका वास्ता पड़ा, द्रोणाचार्य से। Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ जैन महाभारत कर दिए । पाण्डव सेना की पक्तियां कई जगह से टूट गई और उन्हे पीछे हटना पड गया। यह देख युधिष्ठिर बड़े चिन्तित हुए। ... ... युधिष्ठिर पुन.चिन्तित हो उठे। बोले - "अर्जुन अभी तक लौटा नही और सात्यकि की भी कोई खबर नही आई. और उधर से बार बार पाँचजन्य को ध्वनि आ रही है, गाण्डीव की टकार सुनने को मेरे कान बेचैन हा रहे हैं, टकार सुनाई हो नहीं देती। मेरा मन शका के मारे काप रहा हे , न जाने क्यो - मुझे चिन्ता हो रही है। कही मेरे प्रिय भ्राता अर्जन पर कोई सकट तो नही आ गया । भीमसेन ? मैं बहुत चिन्ताकुल हो रहा हूं । मेरी समझ मे ही नही आता कि क्या करू ?" युधिष्टिर को इस प्रकार , व्याकुल देखकर भीम सेन-भी चिन्ताकुल हो गया. उसने कहा-"महाराज ! यद्यपि में आपको चिन्ता रहित करने के लिए आपको अज्ञानुसार सब कुछ करने को तत्पर हूं। तो भी मै अपको चिन्तानिमूल समझता हूं क्योकि प्रिय भ्राता अर्जुन का कुछ विगाड सके, ऐसा तो मुझे कोई दिख ई नहीं देता। आपको मैने कभी इतना अधीर होते नहीं देखा । आप निश्चिन्त रहिए अथवा मुझ से बताईये कि क्या करू।" ""भैया! न जाने क्यों मेरा दिल बहत घबरा रहा है तुम तरन्त जागो और अर्जुन की खबर' लो ."--युधिष्ठिर बोले ! "मेरे लिए तो अर्जुन की खबर लेना-भी उतना आवश्यक है जितना आपको रक्षा करना । सात्यकि आपकी रक्षा का भार मुझ पर छोड़ कर गए हैं, अब आप ही बताईये कि मैं क्या करूं ? आपकी आज्ञा का पालन करू या आपके प्रति अपने कर्तव्य को पूर्ण करने के लिए. यही रहू ?"-भीम सेन ने कहा । -- "तुम मेरी चिन्ता न करो। - मुझे यहां कोई खाये नही जा रहा । अर्जुन के प्राण बहुत मूल्यवान हैं। उसकी रक्षा पहले करो। वह है तो हमारे लिए सब कुछ है। वह न रहा और तुमने मेरे प्राणों की रक्षा कर लो तो भी सव कुछ चौपट हो जायेगा । मै जो कुछ कहता हूं वही करो। तुरन्त अर्जुन की सहायता को पहुंचो।"--- युधिष्ठिर ने व्याकुल होकर कहा उस समय यह साफ़ जाहिर हो रहा था कि अर्जुन के प्रति उन्हे कितना स्नेह है। '' . . Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयद्रथ वध ५६७ भीम सेन ने एक प्राज्ञाकारी अर्जुन की भांति' कहा-"पाप की आज्ञा सिर-आखो पर । मै जाता है और वहा यदि अर्जुन भईया पर कोई सकट होगा तो अपने प्राण देकर भी उन्हे सकट-मुक्त करूगा । पर आप अपने को सम्भाले रहे । कही ऐसा न हो कि अर्जुन की चिन्ता ही मे आप अपने को भूल जायें और शत्रु का दाव चल जाय । और ऐसा भी न हो कि आप मेरी तरह किसी और को भी मेरे पीछे पीछे ही भेज दे, और शत्र के लिए मैदान साफ हो जाये।" "तुम निश्चित रहो भीम ! मैं सावधान हू । हाँ, तुम ज्योही अर्जुन के पास पहुचो और वह कुशल से हो तो सिंह-नाद करना। में तुम्हारे नाद को सुनकर समझ लू गा कि अर्जुन सकुशल है ।"घुधिष्ठिर वोले । भीमसेन ने अपने रथ मे आवश्यक अस्त्र-शस्त्र रक्खे और जाने से पूर्व धष्टद्युम्न को पास बुलाकर कहा-महाराज युधिष्टिर सर्जुन के लिए वडे चिन्तित है। उनकी आज्ञा से मैं उसकी सहायता लिए जा रहा है। राजा की आज्ञा का पालन करना हमारा तिव्य है इसलिए मैं यह जानता हुअा भी कि अर्जुन भैया सकुशल गे और शत्रु को कोई शक्ति भी उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती, । उस ओर जा रहा है। अब मै महाराज की रक्षा का भार तुम पर पिता हू द्राणाचार्य की प्रतिज्ञा तो तुम्हे ज्ञात ही है । उनसे विधान रहना।" "तुम विश्वास रक्खो जब तक मेरे शरीर में प्राण है, हाराज के पास भी कोई नही फटक सकता ।" धृष्टद्यम्न ने श्वासन देते हुए कहा |--और भीम सेन का रथ कौरव सेना की और तीव्र गति से बढ़ने लगा ! भीम के रथ को अपनी ओर आते देख - कौरव-सेना मे लाहल-मच गया । सब ने उसका रास्ता रोक लिया, पर भीम सेन वाण वर्षा के आगे किसी की न चली। रक्त की नदियां बहाता पा, कौरव सैनिको के शवो पर से बढाता हुया भीम सेन आगे ढता गया । धृतराष्ट्र के ग्यारह वेटो को उसने यम लोक पहुचाया। भीम इस प्रकार कौरव-सेना का सहार करता करता दूर कल गया और आगे जाकर उसका वास्ता पड़ा, द्रोणाचार्य से। Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ जैन महाभारत द्रोण उसका रास्ता रोक कर वोले- भीम सेन ! मैं तुम्हारा शत्र है। मुझे परास्त किए बिना तुम आगे नहीं बढ़ सकोगे । मेरी अनुमति पाकर हो तुम्हारा भाई अर्जुन व्यूह मे प्रवेश कर सका है। पर तुम्हे जाने की मैं पाता नही दू गा" __आचार्य का विचार था कि अर्जुन की ही भाति भीम सेन भी उनके प्रति आदर प्रगट करेगा । परन्तु भीम सेन तो उल्टा क्रुद्ध हो गया . उसने गरज कर कहा- "ब्राह्मण श्रेष्ट । अर्जुन व्यूह मे घुस गया है तो आप से आज्ञा लेकर नही आपकी कृपा वश ; नही, वरन अपने बल के बूते पर उसने व्यूह को तोड कर प्रवेश किया है । परन्तु आप याद रखिये कि अर्जुन ने आप पर दया की होगी, किन्तु आप मुझ से ऐसी आशा न रखिये। मैं आप का शत्रु हू और मेरे सामने जो कोई आयेगा, चाहे वह मेरा गुरु ही क्यो न हो, मेरे हाथो अपनी धृष्टता का फल चखे बिना न रहेगा । भीम किसी की दया का मोहताज नही है, वह वल के द्वारा अपना रास्ता बनाना जानता है ।" . द्रोण तो उसके स्वभाव से परिचित थे ही, उन्होने क्रुद्ध भीम को शांत करने के लिए कहा- 'अरे वृकोदर ! पहले गुरु-ऋण तो , 'चुकाता जा । जाता कहाँ है ?" . भीम और भी ऋद्ध हो गया और खिसिया कर वोला-हा। ठीक है, आपका ऋण भी चुकाता चल । पर याद रहे कि मैं आपको पूरी तरह छका दूंगा।" '. "मूर्ख । यह मत भल कि मुझ से ही तूने वह विद्या प्राप्त की है, जिसके बल पर तू अकड रहा है ।"-कुपित होकर द्राण वोले ब्राह्मण श्रेष्ठ ! वह दिन लद्द गए, जब आप हमार गुरु थे हमारे पिता तुल्य थे। तब हम आपका शीश झुकाते थे आप को पूजते थे। पर आज तो आप छूटते हा स्वय अपने को मेरा शत्रु कह चके है । फिर भी आप चाहते हैं तो आप को शत्रु गुरु मानकर आप का गुरु ऋण चुकाए ही देता है।" "यह कहता हुया भीम सेन भूखे भेडिये की 'भाँति अपने रथ । से उतरा और दौड़कर उसने द्वोण का रथ उठाकर फेंक दिया । द्राण बड़ी कठिनाई से कूद कर अपने प्राण बचा सके। वे दौड़ कर दूसर Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयद्रथ वध ५६९ ram.... रथ पर जा चढे, उसे भा भीम ने अपनो गदा से चूर चूर कर दिया । तब विवश हो द्रोण एक और रथ पर जा चढं, क्रुद्ध होकर पागल हाथी की भाति भीम उस रथ की ओर भागा और इससे पहले कि द्रोण अपने वाणो से उसको गति को रोक पाये उसने उस रथ को अपनी बलिप्ट भुजाओ से ऊपर उठा लिया और ऊपर की ओर फेंक कर अपने रथ पर आ चढा । द्रोण उस बार भी बडी कठिनाई से वच सके। भीम सेन इस प्रकार गुरु ऋण चुक. कर आगे बढ़ गया। ‘स्मरण रहे कि इस अदृसुत बल-प्रदर्श क के कारण हो भीम को मदोन्मत्त हाथी की उपमा दी जाती है, वास्तव मे उसमे विचित्र वल था। वह अपनी गदा घुमात। हुअा कौरव सेना पर टूट पडा और असख्य सनिको को यमलोक पहुचाता हुआ व्यूह मे घस गया। - उस दिन उसने द्रोण के कई रथ तोड़े थे, जिससे कौरव-निक भय -विह्वल हो गए थे और उसके सामने पड कर युद्ध करने का साहस उन्हे न होता था वह कोरव सेना को चीरता फोडता जा रहा था कि भोजो ने उसका सामना किया। परन्तु जिम प्रकार अग्नि सूखे वन को जला कर भस्म कर डालती है, इसी प्रकार भीमं ने भोजो को भी नष्ट कर डाला और आगे बढ़ने लगा । जितने भी सैनिक - वल उसके सामने आये उन्हे भारता, पछाडता वह आगे ही वढा। - कही बाणो से वार करता तो कही गदा से सनिको का सहार करना आखिर वह उस स्थान पर पहुच हा गया जहा अर्जुन जयद्रथ की सेना से लड रहा था। E अर्जुन को सुरक्षित देखते ही भीम सेन ने सिंह नाद किया। - भीम का सिंह नाद सुन कर श्री कृष्ण और अर्जुन प्रानन्द के मारे छल पड़े और उन्होंने भी जोरो से सिंह नाद किया । इन सिह दो को सुन कर युधिष्ठिर बहुत ही प्रसन्न हुए । उनके मन के क के बादल हट गए। उन्होने अजुन को मन ही मन आशीर्वाद दया। वे सोचने लगे-"अर्जुन अवश्य ही सूर्यास्त से पूर्व जयद्रथ वध कर देगा । उसके करने से दुर्योधन का साहस टूट जायेगा। ीष्म पितामह के वध के उपरान्त यह दूसरी बडी क्षति दुर्योधन को होगी, जो उसकी कमर तोड़ देगी। इससे वह युद्ध के भावी परिणाम Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७० जैन महाभारत के सम्वन्ध मे शकित हो जायेगा और सन्धि के लिए तैयार हो जायेगा सम्भव है कि जयद्रथ की समाप्ति पर ही इस युद्ध की समाप्ति हो जाय । मैं राज्य का न्यूनतम भाग लेकर भी. सन्धि कर सकता है। फिर हम दोनो, कौरव तथा पाण्डव भाईयों की भाति प्रेम से रहने लगेगे।" . इधर युधिष्ठिर के मन मे.ऐसे विचार उठ रहे थे, उधर भीम तथा कर्ण मे भयकर सग्राम हो रहा था। कर्ण ने भीम का रास्ता रोक कर कहा-अरे मूर्ख ! तू भी अर्जुन के साथ ही यमलोक जाने के लिए यहां पहुंच गया ?" भीम कर्ण के शब्दो को सुन कर क्रुद्ध हो गया और आवेश में आकर उस पर टूट पडा वडा ही भय कर सग्राम होने लगा । भीम के वाणों से कर्ण का धनुष टूट - गया । उसने दूसरा धनुष उठाया, पर भीम ने उसे भी तोड दिया । फिर कर्ण ने एक और धनुष उठा लिया, और बाण वर्षा प्रारम्भ करदी । भीम सेन ने उसका रथ तोड डाला और घोडो व सारथि को मार डाला। दुर्योधन ने अपने दो भाईयो को कर्ण की रक्षा के लिए भेजा । परन्तु उनको भीम ने, काल का ग्रास बना दिया। .. इस प्रकार दुर्योधन के कई भाईयों को भीम सेन ने मार गिराया। और कर्ण को बुरी तरह घायल कर दिया । दुर्योधन को कर्ण की दशा देखकर बडो चिन्ता हुई । 'उसने वार वार अपने भ्रातानो को कर्ण की रक्षा को भेजा, पर प्रत्येक भीम के हाथों मारा गया । कर्ण पहले तो शात भाव से लडता रहा और वार वार से शब्दो का प्रयोग करता रहा, जिन से भीम विचलित हो जाता वह आवेश मे आ जाता और पागल हाथी की भाति प्रहार करता, परन्तु अन्त मे कर्ण का मन दुर्योधन के भाईयो का वध होने के कारण क्रुद्ध हो गया। उसने जी तोड कर युद्ध आरम्भ कर दिया। भीम सेन ने कर्ण के कई रथ तोड डाले । अनेक धनुप काट डाले और बार बार ऐसे भीपण प्रहार किए जिनसे कर्ण के प्राणों पर या वमती । कर्ण था वडा हो यशस्वी-प्रतापी योद्धा । वह अपनी रक्षा कर लेता । अन्त मे कर्ण ने कुपित होकर भीम सेन- के रथ को तोड डाला । उसके रथ के घोडो, और सारथि को मार डाला। Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. जयद्रथ वध भीम सेन ने रथ से कूद कर हाथियो के शवो के पीछे मोरचा जमाया। वहां से उसके हाथ जो भी लगा, रथी के टुकडे, पहिए, टूटे हुए भाले, टूटी गदाए आदि, वही फेक कर कर्ण को मारी। उस समय यदि कर्ण चाहता तो भीम को मार डालता, परन्तु जब ऐसा अवसर प्राया, जो उसे कुन्ती को दिया वचन याद आगया । उसने वचन दिया था कि वह अर्जुन के अतिरिक्त और किसी पाण्डव को नं मारेगा । उसी वचन के अनुसार उसने भीम, सेन का बध न किया। ___ इतने मे ही श्री कृष्ण की नज़र भीम सेन पर पड़ गई जो निःशस्त्र होकर भी कर्ण के ऊपर प्रहार कर रहा था. उन्होंने अर्जुन से कहा- “पार्थ ! उधर देखो भीम सेन को कर्ण,मारे डाल रहा है ।", . अर्जुन औरो से लडना भूल तुरन्त -भीम सेन की रक्षा के लिए पहुच गया । "-x 'xri xi - इंधर सात्यकि और भूरि श्रवा मे युद्ध हो रहा था ।' लडते लंडते सात्यकि और भूरि श्रवा दोनों के घोड़े मारे गए, धनुष कट गए और रथ भी बेकार हो गए । इसके पश्चात दोनो वीर ढाल तलवार लेकर भूमि पर उतर आये । और आपस मे भिड गए। 1 दोनो ने हो वडे पराक्रम का प्रदर्शन किया। दोनो ही एक दूसरे से बढ कर थे। अत. दोनो अपने अपने बाहु वल से ' एक दूसरे को पराजित करने की चेष्टा करते रहे। परन्तु क्रिमी ने भी हार न मानी और दोनो की ढाले कट गई । तब वे प्रापस. मे मल्ल युद्ध करने लगे। . दोनो एक दूसरे की छाती से छाती टकराते और गिर पड़ने । एक दूसरे को कसकर पकड लेते और ज़मीन पर लोटने लगते । फिर अचानक उछल कर खडे हो जाते । और एक दूसरे को धक्का देकर मार गिराते । इसी प्रकार दोनो युद्ध रते रहे। इतने मे श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा-"धनजय ! सात्यकि थक गया प्रतीत होता है । जान पड़ता है भूरि श्रवा उसकी जान ही लेकर छोडेगा ।". . . Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत परन्तु अर्जुन तो कौरव सेना से भिड़ा था. फिर उसे यह बात भी भली नही लगी थी कि जब वह सात्यकि को युधिष्टिर की रक्षा का भार सौंप कर आया था, तो सात्यकि वहां युधिष्टिर को छोड़कर चला क्यो आया । इसलिए वह युद्ध करने मे दत्तचित्त रहा। उसने सात्यकि की चिन्ता नही की । ५७२ परन्तु श्री कृष्ण ने पुन अर्जुन का ध्यान उसी ओर खींचा। बोले - " अर्जुन ! सात्यकि को जब भूरिश्रवा ने युद्ध के लिए ललकारा था, वह तभी थका हुआ था और अव तो वह बहुत ही थक गया है। उसकी रक्षा करो वरना तुम्हारा प्रिय मित्र भूरिश्रवा के हाथो मारा जायेगा ।" इतने में भूरिश्रवा ने सात्यकि को दोनों हाथो मे दबोच कर ऊपर उठा लिया और भूमि पर पटक दिया । कौरव सैनिक चीख पडे - "सात्यकिं मारा गया । सात्यकि मारा गया । " "अजुन । देखो वृष्णि कुल को सब से प्रतापी वीर मात्यकि भूमि पर ग्रसहाय सा पडा है । ज' तुम्हारे प्राण बचाने और तुम्हारी सहायता करने आया था उसी की तुम्हारे तुम्हारे देखते ही देखते तुम्हारा मित्र अपने प्राण गवाने वाला है श्री कृष्ण ने अर्जुन से - एक बार पुन सात्यकि की सहायता करने का आग्रह किया । सामने हत्या हो रही है । 69 f अर्जुन ने देखा कि भूमि पर पड़े उनके मित्र सात्यकि को भूरिश्रवा उसी प्रकार खीच रहा है, जिस प्रकार सिंह हाथी को घसीट रहा हो । यह देख प्रजुन भारी चिता मे पड गया । उसे कुछ सूझ न पड़ा कि क्या करे ? - जुन ने श्री कृष्ण से कहा- मधु सूदन । भूरिश्रवा मुझ से नही लड रहा, फिर मैं क्या करू ? जब कोई वीर दूसरे से लड़ रहा हो तो तीसरे को उस मे हस्तक्षेप करने का अधिकार नही होता । पर मैं अपने मित्र का वध भी अपनी श्राखो के श्रागे नही देख सकता अब आप ही बताईये कि 1 क्या करू ܝܕ ܕ श्री कृष्ण बोले--"अर्जुन | कई वीरों से युद्ध कर चुकने के कारण सात्यकि अब निहत्था, निसहाय और थका हुआ है, वह बुरी Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयद्रथ वध ५७३ तरह भूरि श्रवा के हार्थो मे फसा है तुम्हे इस समय इस सम्बन्ध मे तटस्थता नही बरतनी चाहिए।" _ ज्यों ही अर्जुन ने सात्यकि की ओर देखा, उस समय सात्यकि नोचे पडा था और भूरि श्रवा उसके शरीर को एक पांव से दवा कर दाहिने हाथ मे तलवार लेकर उस पर वार करने को उधत था। यह देख अर्जुन से न रहा गया। उसने उसी क्षण तान कर बाण चलाया । बाण लगते ही भूरि श्रुवा का दाहिना हाथ कटकर तलवार सहित दूर भूमि मे जा गिरा। ___ हाथ कटे हुए भूरि श्रवा ने पीछे मुड़ कर अर्जुन को देखा __ तो क्रुद्ध होकर बोला : ___“अरे, कुन्ती पुत्र, मुझे तुम से ऐसे अवीरोचित कार्य की पाशा न थी जब मै दूसरे से लड रहा था, तुम्हारी ओर देख तक न रहा था, तो तुमने पीछ से मुझ पर आक्रमण क्यो किया ? ऐसा अधार्मिक, अनियमित और अवीरोचित युद्ध करना तुम्हे किसने सिखाया, कृप ने या द्रोण ने ? मैं जानता हू कि क्षत्रियो को कलकित करने वाला यह कृत्य तुमने स्वय नहीं किया होगा, अवश्य ही तुम्हे श्रा कृष्ण ने उकसाया होगा? वही है ऐसे अधर्मो के मूल ।" । ___ इस प्रकार भूरि श्रवा के मुख से अपनी और श्री कृष्ण की . निंदा सुनकर अर्जुन ने कहा-“भूरि श्रवा ! दूसरे के मुंह पर थूकने से पहले अपना मुह पानी मे देख लिया होता । तुम मेरे दाहिने हाथ सात्यकि का वध कर रहे थे, जब कि वह निशस्त्र था और भूमि पर पडा था । तुम्हारे इस अधर्म को मैं सह लेता, तो क्यो ? वह कृत्य तुम्हारा कौन सा ही धर्म के अनुसार था ? और जब अभिमन्यु बुरी तरह थक गया था, निःशस्त्र था, उसका कवच फट गया था, तब कई महारथियो द्वारा चारो ओर से घर कर उस निहत्थं बालक को मारना कौन से धर्म के अनुसार उचित था ? हमारा नाश करने के लिए तुम धर्म को भूल जाते हो, और जव तुम्हारे अधर्म को हम रोकते है तो तुम धर्म का दुहाई देते हो । वृद्धावस्था मे क्या बुद्धि भी गवा ली है ?" भूरि श्रवा सुनकर मौन रह गया और प्रायश्चित करने के लिए वह वही एक स्थान पर पामरण अनशन कर के बैठ गया। Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " '५७४ जैन महाभारत , तभी सात्यकि को होश आया और उसने चारो ओर देखा । अपने अपमान से क्रोध के मारे वह जल रहा था, उसने आव देखा न ताव, तलवार से ध्यान मग्न भूरि श्रवा का सिर कोट दिया। - 1 अर्जुन जयद्रथ की खोज मे चारो ओर रक्त की नदिया बहाता फिर रहा था, पर कही जयद्रथ नजर ही न आता था । तब वह चिन्तित होकर बोला "सखे ! सूर्य अस्त होने वाला है और जयद्रथ कही दिखाई नही देता ! क्या करू ? क्या मैं अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण न कर पाऊगा?” श्री कृष्ण ने पश्चिमी दिशा की ओर देखा । वे भी चिन्ता . मग्न हो गए और कुछ ही देरि मे सूर्य प्रकाश लुप्त हो गया। कौरव -सेना मे हर्ष छा गया और पाण्डव सेना का एक एक महारथी और सैनिक चिन्ताकुल हो गया । स्वय अर्जुन दु.ख के मारे शिथिल हो गया। . तभी जयद्रथ प्रानन्द के मारे उछलता हा सामने आ गया और बार बार पश्चिम की ओर देखने लगा । तभी श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा- "पार्थ ! वह देखो जयद्रथ प्रफुल्लित होकर वारम्वार 1 पश्चिम को ओर देख रहा है.।, बस इसी समय निशाना बाधकर , ऐसा वाण मारो, जो उसके सिर को काटता हुआ निकल जाये । हा देखो वह अपना देवी, अभिमन्त्रित बाण चलाना, ताकि वह सिर । काटता हुआ निकल ही न जाये, बल्कि सिर को लेजा कर जयद्रथ के पिता की गोद मे गिराये ।"-. . . श्री कृष्ण ने एक ऐसा बोर्ण पहले ही जयद्रथ बध के लिए रख छोड़ा था, श्री कृष्ण की आज्ञा पाकर उसी बाण को गाण्डीव पर "चढाकर अर्जुन ने मारा, और बाण जयद्रथ का सिर 'उड़ाता हुआ निकला । जयद्रथ का सिर उस वाण की मार से कट कर उसके बाप "की गोद मे जाकर पडा। और जब उसका बाप शोकातुर होकर 1 उठा तो सिर भूमि पर गिर पडा और उसके सिर के सौ टुकड़े हो गए। । इधर ज्यो ही जयद्रथ का सिर कटा, त्यो ही सूर्य चमक 1 उठा । इस अद्भुत चमत्कार को देख कर सभी चकित रह गए। Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयद्रथ बध ५७५ अर्जुन भो विस्मित था। श्री कृष्ण बोले-"पार्थ | चकित न हो। मैंने ही एक विद्या के द्वारा सूर्य पर अधकार का परदा डाल दिया था, ताकि जयद्रथ बाहर आ जाये । सो मेरी इच्छा पूर्ण हुई इससे तुम्हारी प्रतिज्ञा पूर्ण हुई।" अर्जुन ने श्री कृष्ण के प्रति बडी ही कृतज्ञता प्रगट की। इधर कौरव सेना मे शोक छा गया और पाण्डवं सेना सिंह नोद कर उठी। RENER Ka मार Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 31 * पचासवां परिच्छेद 86000008885859 >> द्रोणाचार्य का अन्त 90068985800000 युद्ध के चौदहवे दिन जब सायकाल के उपरान्त भी युद्ध जारी रहा और बडी बडी मशालों के प्रकाश मे दोनो शोर की सेनाएं जूझती रही । -5 कर्ण और घटोत्कच मे उस रात बडा ही भयानक युद्ध हुआ घटोत्कच और उसकी सेना ने इतनी भयंकर वाण वर्षा की कि दुर्योधन के झुण्ड के झुण्ड सैनिक मारे गए । प्रलय सा मच गया । यह देख कर दुर्योधन का दिल कापने लगा । न किसी वरना यह कर्ण को कौरव वीरो ने कर्ण से अनुरोध किया कि किसी तरह आज घटोत्कच का काम तमाम कर दिया जाय । राक्षस हमारी सेना को तवाह कर डालेगा । घटोत्कच ने भी इतनी पीडा पहुंचाई थी कि वह भी क्रुद्ध हो रहा था । कौरवो का अनुरोध सुनकर उसकी उत्तेजना और भी प्रबल हो उठी। वह आपे मे न रहा और उसने देवराज इन्द्र द्वारा दी हुई उस शक्तिअस्त्र का प्रयोग घटोत्कच पर कर दिया, जिसे उसने बड े यत्न से अर्जुन का वध करने के लिए सम्भाल कर रक्खा हुआ था । घटोत्कच मारा गया। कौरव सेना की जान मे जान श्राई । पाण्डवो की सेना को बडा शोक हुआ 1 इतने पर भी युद्ध बन्द नही हुया । द्रोणाचार्य वाणो की इतनी तीव्र बौछार कर रहे थे कि पाण्डव सैनिक गाजर मूली की भाति Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रोणाचार्य का अन्त - ५७७ कट रहे थे । रहे सहे पाण्डव संनिक भी भयभीत हो गए थे। पाण्डव महारथी चिन्तित हो उठे । श्री कृष्ण ने कहा"अर्जुन । आज द्रोणाचार्य से अपनी सेना की रक्षा करना आसान नहीं हैं । जब तक वे हैं, तुम्हे अपनी सफलता' की आशा ही नही करनी चाहिए। और जव तक उनके हाथो मे शस्त्र हैं, तब तक तुम्हे उनके परास्त होने की आशा नही होनी चाहिए।" - "फिर क्या किया जाय, मधु सूदन ! कुछ तो उपाय वताईये।'-अर्जुन ने विनीत भाव से पूछा। कृष्ण बोले-"एक ही उपाय है वह यह कि किसी प्रकार उन्हें हत प्रद कर दिया जाये । वे जव किसों अपने प्रिय के बध का समाचार सुनेगे, तो वे व्याकुल होकर रह जायेगे ' और उन से शस्त्र । चलेगा ही नही, बस उसी समय उन्हे मारा जा सकता है।" "परन्तु पहले उनके किसी प्रिय जन का मृत्यु होनी चाहिए "-अर्जुन सोचते हुए बोला। "नही, इसके लिए यह उपाय किया जा सकता है कि कोई उनके पास जाकर यह समाचार सुनाये कि अश्वस्थामा मारा गया, बस काम बन जायेगा।"--श्री कृष्ण बोले ! अर्जुन सुनकर सन्न रह गया। इस प्रकार असत्य मार्ग का अनुकरण करना उसे ठीक न जचा । ऐसा करने से उसने साफ इन्कार कर दिया । पाण्डव पक्ष के दूसरे वोरो ने भी इसे नापसन्द कर दिया । . . तव श्री कृष्ण ने कहा-"सोच लो ! .. आज द्रोणाचार्य तुम्हारी सेना को तहस नहस कर देगे। कल तुम्हारे महारथियो को मार डालेगे और इस प्रकार तुम सब मारे जाओगे। यही नही, बल्कि तुम्हारे परिवार का भी एक प्रकार से नाश हो जायेगा, जो तुम्हे विजय दिलाने अथवा दुर्योधन के अन्याय को परास्त करने के लिए तुम्हारे साथ जीवन की आशा त्याग कर यहा पाये हैं।" ' कृष्ण की बातो का जादू की भाति प्रभाव हुमा । और युधिष्टिर सोचने लगे--- "मेरी भूल से मेरे भ्राता जी मेरे साथ वनो मे भटकते फिरे, और दास बनकर रहे और आज मेरे ही कारण सहस्रो शूरवीर द्रोण के हाथों मारे जायेंगे। सहन्नो ललनाए विधवा होगी, लाखो वालक अनाथ हो जायेगे। उसके बाद भी अन्याय का Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ こ -५७८ साम्राज़ रह जायेगा । इसलिए जहा अपना यश बढाने के लिए मैंने 1 अपने भ्रातालो तथा अपने सहयोगियों को यातनाए पहुचाई हैं, वहा आज अपने यश को हानि पहुंचाने का एक कार्य करके मैं इतने प्राण 'बचा सकता हू । अपने परिवार की रक्षा कर सकता हू, और अन्याय F 1 1-7 " का सिर नीचा होने का रास्ता खोल सकता हूँ " Tam यह सोच कर वे बोले "ठीक है, इस असत्य भाषण द्वारा द्रोण को मैदान से हटाने का अपयश में अपने ऊपर लूगा । श्री कृष्ण की बताई युक्ति हमे पानी ही चाहिए ।" ५ "" जैन महाभारत 1 इस प्रकार धर्मराज युधिष्ठिर असत्य भाषण, द्वारा शत्रु को परास्त करने को तैयार हो गए। और फिर तो सभी पाण्डव पक्षीय वीर उसके पक्ष में हुए । भीम सेन को एक उपाय और सूझा। उसने अपनी गदा, से, अश्वस्थामा हाथी को मार डाला, और जोर जोर से चिल्लाने लगा -- "अश्वस्थामा को मैंने मार डाला, अश्वस्थामा मारा गया ।" =*/* ;F }, जव यह शब्द द्रोणाचार्य के कान में पड े तो वे सन्न रह गए। उन्होंने पुन ध्यान से सुना और निकट ही खंड़ युधिष्ठिर से पूछा"युधिष्टिर क्या यह संहो है कि प्रश्वस्थामा मारा गया ।" " • + 1 * उस समय युधिष्टिर जी कडा करके कह गए - 'हां यह ठीक 'है कि श्वस्थामा' मारा गया, 'उसी समय उन्हे धर्म की ध्यान आया और वे धीरे से वोले - " परन्तु मनुष्य नही वरनं हाथी" इन शब्दो ' कों द्रोणाचार्य के कानो मे न पड़ने देने के लिए, पाण्डव पक्षीय निकों ने उसी समय ढोल, मृदग और शख बजाने आरम्भ कर दिए और उनकी ऊंची आवाज मे युधिष्ठिर की आवाज दब कर रह गई। fr T NO फिर तो द्रोणाचार्यं शोकातुर होकर खड़े के खडे रह गए । इस समाचार से उन्हें इतना धक्का लगा कि वे शस्त्र' सुध बुध खोकर लंडना भूल गए और अपने हृदय को सम्भालने की चेष्टा करने लगे । तभी भीम सेन ने आकर उन्हे वडी जली कटी सुनाई । बोली"कहिए ब्राह्मण श्रेष्ट ! अपना धर्म छोड़ कर क्षत्रियो का धर्म अपनाया और वह भी अन्याय का पक्ष लेने के लिए ?' कहा गई आप की नीति आपका धर्म ? आप ने बेचारे श्रभिमन्यु वालकं को Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रोणाचार्य का अन्त अधर्म पूर्वक मरवा दिया। इसी बल पर विद्वान तथा नीतिवान वनते हो ?" एक तो वह अश्वस्थामा की मृत्यु का मिथ्या समाचार सुन कर ही खिन्न हो रहे थे, इन शब्दो से वे और भी दुखित हो गए। उन्होने अपने शस्त्र फेक दिए । अपने को उन्होने युद्ध करने मे असमर्थ पाया । तभी धृष्टद्युम्न ने दौड़ कर उनका सिर काट डाला। और द्रोणाचार्य ससार से उठ गए। ' कौरवो की सेना मे हाहाकार मच गया और पाण्डव सेना अानन्द मनाने लगी। परन्तु युधिष्ठिर बहुत दुखित थे। . ", Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२ जैन महाभारत बाज़ कबूतर की ओर झपटता है।।। -: :___ दुःशासन ने भीम को अपनी ओर झपटते हुए देख कुछ घबरा सा गया, फिर भी वह वहां खड़े रहने पर विवश था 'बाण धनुष पर चढाकर उसने भीम पर प्रहार किया ही था कि भीम ने अपने वाण से उसके वाण को तोड डाला और धनुप को काट डाला । उसके बाद उसने एक छलाँग मारी और दुःशासन को धर दाबा ।' दोनो भुजानो मे उसे दाब कर नीचे गिरा दिया, फिर लगा उसके हाथ पांव तोडने । घूसो की मार से ही दु.शासन अधमरा हो गया। नीचे पडा पडा ही वह गाली वके जा रहा था और भीम सेन" उसे' इस प्रकार मार रहा था जैसे कुम्हार मिट्टी को ठीक करने के लिए ऊपर घुसे लगाता है। थोड़ी ही देरि में भीम ने दु.शासन ' का एक हाथ तोड कर फेंक दिया । वह दृश्य बड़ा ही-वीभत्स था । भीम उसे मार रहा था और कहता जाता था - "वुला कौन है तेरा सहायक ? देखू तो कौन आता है तुझे बचाने के लिए ? मूर्ख । द्रौपदी को असहाय देखकर तो तूने अपनी वोरता दिखाने के लिए नीचता पूर्ण कार्य किए और उस पर भो अपने पर गर्व करता रहाव अंबवता कौन है जो तेरी-मुझ से रक्षा कर सके ? कौन है जो तुझे छुडा सके ?" भीम सेन की मार से दुःशासन के प्राण पखेरू उड गए। इस प्रकार भीम ने उसका रक्त बहा दिया उस समय भीम सेन का रूपं वडा भयानक था । वह उठा और चारो ओर आनन्द तथा गर्व से नत्य सा करने लगा, उस समय उसके भाषण रूप को देखकर कौरव सैनिक कांप उठे । भीम ने सिंह नाद किए और ार्ज़ना- की-"कहा है दुःशासन का दुष्ट भाई-दुर्योधन-! ,अब उसका नम्बर है।। कहाँ. छुपा बैठा है, मेरे सामने आये ताकि उसे भी शीघ्र ही यमलोक पहुचा दू । अब वह मरने को तैयार हो जाय।" ! .. __ . उस समय भीम की सिंह गर्जना, उसके भयानक रूप और उसकी दहाड़े कौरवो का दिल दहला रही थी। यहा तक कि-एक वार तो कर्ण भो काप उठा । कर्ण की-ऐसी दशा, देख कर- शल्य ने उसे दिलासा देते हुए कहा :-... ... .......-: --- “कर्ण ! तुम जैसे वोर को साहस त्यागना शोभा नहीं देता। दुःशासन की मृत्यु से दुर्योधन बहुत-शोकातुर हो गया है अव-उसकी Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ण का वध ५८३ पाखें तुम्ही पर हैं । यदि तुम धीरज खो दोगे तो कैसे काम चलेगा? वह देखो अर्जुन तुम्हारा बध करने की इच्छा से वाण वर्षा - कर रहा है ।" इतना सुनते ही कर्ण को होश आया । और वह क्रुद्ध होकर अर्जुन पर टूट पडा । - दुर्योधन दु शासन को मृत्यु के कारण बहुत ही शोक विह्वल था वह चिन्ता मग्न खडा था, अश्वस्थामा उसके पास आया और बोला-“भैया दु शासन का जिस प्रकार बध हुआ, उसे देखकर ही रोगटे खड़े हो जाते हैं । भोम ने बडा ही अमानुषिक व्यवहार किया है जो हो, अव हमारे लिए युद्ध बन्द कर लेना ही उचित है । आप पाण्डवो से सन्धि कर लीजिए।" . सन्धि का नाम सुनते ही दुर्योधन का खून खौल उठा और ऋद्ध होकर बोला , प.पो भीम सेन ने जगली पशुयो सा व्यवहार किया और तुम कहते हो उन लोगो से मैं सन्धि कर लू जो ऐसे असभ्य है जिन्हो ने मेरे भाईयो को जयद्रथ को और मेरे सेना पतियों को मार डाला। नही मैं लड गा । अन्तिम समय तक लडता रहूगा।" उसके सिर पर तो मृत्यु नाच रही थी, वह भला कैसे मानता आवेश मे आकर उसने पाण्डवो पर भयकर आक्रमण कर दिया । x कर्ण और अर्जुन मे भीषण सग्राम छिडा था । दोनो ही टक्कर के महारथी थे। कर्ण ने एक ऐसा वाण चलाया जो काले नाग की भाति विष की आग वरसाता हुमा अर्जुन को ओर चला । श्री कृष्ण ने जब देखा कि सर्पमुखास्त्र अर्जुन की ओर आ रहा है, तो उन्होने युक्ति पूर्वक रथ नीचा कर लिया और वह अस्त्र अर्जुन के मुकुट को गिराता हुआ निकल गया । यदि श्री कृष्ण ऐसा न करते, ता वह अस्त्र अर्जन के प्राण ले लेता । अर्जन को इस बात से वडा क्रोध आया और उसने बड़ी तीन गति से वाण वर्षा प्रारम्भ कर दी। इतने मे ही समयवश कर्ण के रथ का एक पहिया अचानक धरती मे धस गया । कर्ण घबरा गया और बोला - "अर्जुन ! मेरे रथ का पहिया कीचड़ मे धस गया है, तनिक ठहरो मैं उसे कीचड़ से निकाल Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८४ जैन महाभारत कर सूखी धरती पर रख दू । तुम तो धर्म-युद्ध के धनी हो । युद्ध धर्म को निभा कर तुमने जो यश कमाया है, उसे कलकित न करना तनिक बाण वर्षा वन्द करलो।" । श्री कृष्ण ने चिढकर कहा-"अरे वाह रे । धर्म के ठेकेदार जव अपनी जान पर बन आई तो तुम्हें धर्म याद अाया, पर जब द्रौपदी को अपमानित करा रहे थे, तब तुम्हे धर्म याद नही आया ? नौ सिखिये युधिष्ठर को कुचक्र मे फसाते समय तुम्हे धर्म याद नही आया । दुधमुए बालक अभिमन्यु को तुम सात महारथी घरकर मार रहे थे तब तुम्हे धर्म याद क्यो नही आया ?" श्री कृष्ण की झिडकी सुनकर कर्ण को कुछ कहते न बना और वह अपने अटके हुए रथ पर से ही युद्ध करने लगा। उसने एक बाण बडा ही ताक कर मारा, जो अर्जुन को जा लगा जिससे अर्जुन कुछ देरि के लिए विचलित हो गया। बस इस समय का ही उपयोग करने के लिए कणं झट से कूद पडा, रथ का पहिया कीचड से निकालने के लिए। उसने भरसक प्रयास किया पर उस का भाग्य उससे रूठ चुका था, पहिया हजार प्रयत्न करने पर भी न निकला। यह स्थिति देख श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा-"पार्थ ! इस सुन्दर अवसर को हाथ से मत जाने दो।" और अर्जुन ने वाण वर्षा प्रारम्भ करदी । कर्ण ने उस समय परशुराम से सीखी विद्या को प्रयोग करना चाहा · पर उसे वह याद न रही। और अर्जुन के एक बाण ने उसका सिर धड से अलग कर दिया। Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * बावनवा परिच्छेद * दुर्योधन का अन्त हिसात्मक युद्ध के द्वारा अधर्म अथवा अत्याचार को नष्ट करने की आशा करना व्यर्थ है। हथियार वन्द युद्ध से अत्याचार तथा अन्याय कभी नही मिटते । तभी तो भगवान महावीर ने कहा है कि ... "वैर से वैर निकालने मे वैर हो को वृद्धि होती है ।" धार्मिक उद्देश्यो के जो भी युद्ध किए जाते हैं, उनमे भी अनिवार्य रूप से अन्याय और अधर्म होते हा हैं । ऐसे युद्धो के परिणाम स्वरूप अधर्म की वृद्धि ही होती है। इसी सिद्धान्त के अनुसार यदि हम महाभारत के युद्ध को देखे तो इस परिणाम पर पहुचेगे कि कितनी ही बाते पाण्डवों की ओर से भी धर्म विरोधी ही हुई । कर्ण का वध किस प्रकार हुआ, इसे देखकर, द्रोणाचार्य के बध की गाथा पढकर और भूरिश्रवा के वध मे अपनाए गए उपायों को देखकर तो यह और भी प्रगट हो जाता है कि युद्ध दूसरे पापो अधर्मों तथा अन्यायो का कारण बन जाता है, चाहे वह किया गया हो अधर्म अथवा अन्याय के प्रतिकार के ही लिए । जव दुर्योधन को कर्ण के वध का समाचार मिला तो उसके शोक की सीमा न रही । यह दुख उसके लिए असहाय हो उठा। वह बार वार कर्ण को स्मरण करके विलाप करने लगा। उसकी इस शोचनीय स्थिति को देखकर कृपाचार्य ने कहा-"राजन । आपने जो जो कार्य, जिस जिस व्यक्ति को सौंपा, उसी ने प्रसन्नता पूर्वक Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८६ जैन महाभारत उसे किया और करते करते अपने प्राणो का उत्सर्ग भी कर दिया । इस प्रकार हमारे कितने ही महारथी मारे गए । अव युद्ध के इस भयानक दावानल को शात करना ही उचित है । आपको अपनी रक्षा के लिए अब सन्धि कर लेनी चाहिए । युद्ध बन्द ही आपको श्रेयस्कर होगा। यद्यपि दुर्योधन हताश हो चुका था तथापि कृपाचार्य के मुख से सन्धि का शब्द सुनकर वह आवेश मे आगया। कहने लगा"प्राचार्य | क्या आप चाहते है कि मैं अपने प्राण बचाने के लिए पाण्डवो से सन्धि कर लू ? नही, यह तो कायरता होगी ।. हमे वीरता से काम लेना होगा क्या मैं भीरु की भाति अपने प्राण बचालू जब कि मेरी खातिर मेरे बन्धु बाघवो व मित्रो ने अपने प्राणो का उत्सर्ग कर दिया हैं यदि मैं ऐसा करूगा तो ससार मुझ पर थूकेगा, लोग कहेगे कि दुर्योधन ने अपने वद्ध जनो, मित्रो तथा वन्धु बाधवी को तो मरवा डाला और जब वे सब मारे गए और अपने प्राणो का प्रश्न आया तो सन्धि करली । लोक निन्दा सहकर मैं कौन सा सुख भोगने को जीता रहू ? जब मेरे अपने सभी मित्र व बन्धु मारे जा चुके तो सन्धि करके कौन सा सुख भोग सकूगा? अब तो जो भी हो, हमे लडते ही रहना है । क्या तो अन्त मे हम विजयी होगे, अन्यथा अपने प्राण देकर अपने वन्धु बान्धवो के पास पहुच जायेगे।" सभी कौरव वीरो ने दुर्योधन की इन बातो की सराहना की। सभी ने उसका समर्थन किया और सब ने युद्ध जारी रखना ही उचित ठहराया। इस पर सब की सम्मति से मद्र राज शल्य को सेनापति बनाया गया । शल्य बडा ही पराक्रमो, वीर और शक्तिमान था। उसकी वीरता अन्य मृत कौरव सेनापतियो से किसी भाति कम न थी। शल्य के सेनापतित्य मे आगे युद्ध प्रारम्भ हुआ। पाण्डवो की सेना के सचालन का कार्य स्वय युधिष्ठिर ने सम्भाला युद्ध प्रारम्भ हाते ही महाराज युधिष्ठिर ने स्वय हा शल्य पर आक्रमण किया । जो शाति को मूर्ति से प्रतीत होते थे अव क्रोध की प्रति मूर्ति से बनकर बडे प्रचण्ड वेग से शल्य पर टूट पड़े । उनका भीषण-स्वरूप बडा ही पाश्चर्य जनक था। देर तक दोनो मे द्वन्द्व युद्ध होता रहा। आखिर युधिष्ठिर ने शल्य पर एक शक्ति Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्योधन का अन्त ५८७ A . . . अस्त्र का प्रयोग किया जिसके द्वारा मद्रराज शल्य घायल होकर घडाम से रथ पर से इस प्रकार गिरे जसे उत्सव-समाप्ति के बाद इन्द्र-ध्वजा । उनके गिरते ही बची खुशी कौरव-सेना मे कोलाहल मच गया । शल्य के मर जाने से कौरव-सेना नि सहाय सी हो गई । भय विह्वल होकर सभी सैनिक कांपने लगे। परन्तु रहे सहे धृतराष्ट्र पुत्रो ने साहस से काम लिया और सब मिलकर भीम सेन पर टूट पडे । बाणों की वर्षा प्रारम्भ करदी, पर उन्मत्त हाथी की भाँति भीम सेन वार वार सिंह नाद करता हुना उन पर झपटता रहा और कुछ ही देरि मे उसने अपने बाणो से उन सभी को मोर गिराया । फिर तो कौरव सैनिको मे और भी भय छा गया । भीम सन तो आनन्द के मारे उछलता कूदता रण भूमि मे दहाड़ मारता घूमने लगा, मानो आज ही उसका जीवन सार्थक हुआ हो । तेरह वर्ष तक दबा रखो क्रोध की अग्नि उस दिन भडकी और दुर्योधन के अतिरिक्त शेष रहे सभी धृतराष्ट्र के पुत्रो को मार कर वह सन्तुष्ट सा प्रतीत होता था। वह हर्ष से फला न समाता था। दूसरी ओर शकुनि और सहदेव का युद्ध हो रहा था । तलवार की पैनी धार के समान नोक वाला एक बाण शकुनि पर चलात हुए सहदेव ने कहा- 'मूख शकुनि । ले अपने पापो का दण्ड भुगत ही ले।" वह वाण शकुनि के हृदय मे प्रविष्ट हो गया, जिससे वास्तव मे उसको अपने पापो का फल मिल ही गया , एक चीत्कार के साथ वह ढेर हो गया । युधिष्ठिर, भीम और सहदेव ने उस दिन इसी प्रकार अनेक दुर्योधन पक्षीय वोरो को मार गिराया। कौरव-सेना के लगभग सारे वीर सदा के लिए सो गए। कुरु क्षेत्र मानव शवो से पटा पडा था ! चारो ओर कटे हुए हाथ पैर, घड और सिर बिखरे हुए थे । उनसे दुर्गन्ध उठने लगी थी । अकेला दुर्योधन रह गया था, जिसका हृदय टूट गया था और वह अपने प्राणो की रक्षा के लिए इधर उधर भटकता फिर रहा था । परन्तु उन शाति न मिलती थी। Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ............mar जन महाभारत अभी कृपाचार्य शेष थे। उन्हे अपने मन की व्यथा सुनाते हुए दुर्योधन बोला-'प्राचार्य । अब तो सब तहस नहस हो गया । मैं अकेला हू न जाने मुझे भी कव मृत्यु श्रा दबाये । दूरदर्शी विदुर शायद पहले ही इस युद्ध के परिणाम को जानते थे, तभी तो वे मुझे वार बार समझाते रहते थे और युद्ध करने को भी उन्होने बहुत मना किया था। वे चाहते थे कि मैं सन्धि कर लू । पर मुझ पर न जाने कैसा भूत चढा था कि मैंने उनकी एक न सुनी और अपनी हठ से अपना सब कुछ गवा बैठा । अव में निस्सहाय है। कुछ समझ मे नही पाता कि क्या करू | राज्य पाण्डवो के हाथ मे चला गया, इसका मुझे दुख नहीं है, दुख है तो इस बात का कि मेरे अपने सभी चले गए । मैं उनकी याद मे तडपने रहने के लिए जीवित बचा ह । पिता जी जन्म के अन्ध हैं और माता पिता जी के कारण चक्ष हीन है । वे हमे याद कर करके रोते रहा करेगी। हाय ! मेरा अन्त इस प्रकार होगा, मुझे इसकी कभी आशा नही थी।" कृपाचार्य ने उसे धैर्य बन्धाते हुए कहा-"दुर्योधन ! इस प्रकार अधीर क्यो होते हो। तुमने तो साहस त्यागना कभी सीखा नही। तुम अभी अपने को अकेला क्यो समझते हो । अश्वस्थामा और मैं अभी तुम्हारे साथ है। तुम साहस पूर्वक युद्ध करो। देखो ! तुम्ही ने तो कहा था कि तुम भीरू की भाति जीना नहीं चाहते । जिस मनुष्य ने सदा शत्रुओ को ललकारा है वह विपदा आने पर इस प्रकार विलाप करने लगे, यह उसके लिए लज्जा को बात है ।" ___ "नही, प्राचार्य जी ! अब क्या रह गया है, जिस पर मैं गर्व करू । मैं जिन पर गर्व करता था, वे सभो मारे गए । अब युद्ध की बात मैं चाहे न करू तो भी युद्ध तो मेरे बघ के बाद ही बन्द होगा। मैं भाग कर कहा जा सकता हू । भीम मुझे जीवित थोडे ही छोडेगा । पर मैं निराश हो चुका है। युद्ध से मैं ऊब गया हू । मेरे जीवित रहने का तो कोई उपाय ही नही । पर खेद है तो इस बात का कि समय रहते मेरी आखें न खली और अपने बन्धु बाधवो के हत्यारों से मैं बदला न ले सका।" दुर्योधन ने व्याकुल व निराश होकर कहा। कृपाचार्य बोले- "दुर्योधन ! तुम्हे इतना हताश होने की Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्योधन का अन्त ५८९ आवश्यकता नही है। तुम चाहो तो तुम मे अब भी ऐसी शक्ति प्रा सकती है कि कोई शत्रु तुम्हे न मार सके । किन्तु बदला लेने की भावना छोड दो सर्वज्ञ जिन देव का कथन है की बदला लेने की भावना वाला उतना ही कर्मवर्धन करता है, पार्थ विस्मय पूर्वक दुर्योधन ने पूछा-"क्या कह रहे है प्राचार्य जी । क्या वास्तव मे कोई ऐसा उपाय भी है कि मैं शत्रुओ द्वारा न मारा जा सकू?" " "हा हा तुम्हारे घर ही एक ऐसी सन्नारी है, बल्कि देवी है, जिसकी दृष्टि तुम्हारे जिस अग पर पड जायेगी, उसी अग पर शत्रु का कोई शस्त्र या अस्त्र असर न कर सकेगा।" कारण ससार का वरणक हस्त स्पष्ट नही देखता नीची भावना से शुभ प्रकृति संग्रह है ऐसा जिन देव भगवान का कथन है वह शुभ प्रकृति नत्रो ओर भावना द्वारा तुम्हे आयेगी फिर कोई शस्त्र अस्त्र असर नही करेगा।- "कौन है वह देवी । मुझे शीघ्र बताईये।" "वह है तुम्हारी जननी, गाधारी । वह पतिव्रता नारी यदि तुम्हारे शरीर पर एक बार दृष्टि डाल दे तो तुम्हारा शरीर इस्पात का हो जायेगा । परन्तु तुम्हे उसके आगे विल्कूल नग्नावस्था मे जाना होगा।"-कृपाचार्य ने कहा । । “पर मेरी माता की पाखो पर तो पट्टी बन्धी रहती है, वे कभी अपनी आखो से पट्टी खोलती ही नहीं. वे अपनी पट्टी खोल सकेगी ?" "हा, हा पुत्र प्रेम के कारण वे ऐगा कर सकती है।" "पर मैं उनके सामने नग्न कसे जाऊ?'' "यदि तुम्हे अपने प्राणो की रक्षा करनी है, तो यह करना ही होगा." कृपाचार्य के शब्द सुनकर दुर्योधन सोचने लगा कि वह क्या करे। बहुत देरि तक वह सोचता रहा और अन्त मे उमने वैसा ही करने का निश्चय कर लिया। नग्न होकर वह अपनी माता के पास चला । श्री कृष्ण ने उसे देख लिया और वे समझ गए कि दुर्योधन वैमा क्यों कर रहा है । उन्होने तुरन्त ही एक बहुत बडा, बडे बडे मोटे पुष्पों मे बना Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत हुआ हार लिया। जिसकी कई लडिया थी । और दुर्योधन के निकट पहुंच कर कह । - " दुर्योधन ! नग्नावस्था में कहाँ चल दिए, " ५९० "माता जी के पास जा रहा हू ।" दुर्योधन ने सत्य ही कहा । " माता के पास जा रहे हो और नग्नावस्था मे ? वड आश्चर्य की बात है ।" श्री कृष्ण ने ग्राश्चर्य प्रगट करते हुए कहा । 1 " बात ही कुछ ऐसी है ” – केशव समझ गये और विचार किया की हारे हुये शत्रु का विश्वास नही करना चाहिए और दाव नही देना चाहिये - कोई भी बात हो पर गुप्तागो को तो ढक लिया होता । लो यह पुष्प हार पहन लो जिससे जधायों का भाग ढक जाये । तुम्हारा उद्देश्य भी पूरा हो जायेगा और व्यवहार धर्म भी निभ जायेगा उसने खुशी खुशी हार पहन लिया । " माता के पास जाकर उसने अनुनय विनय की । गाधारी ने अपनी आखो की पट्टी उतार डाली और उस पर दृष्टि डाली । गले मे पड़ी पुष्प माला देखकर बोली - "मूर्ख ! तूने यह क्या किया ? यह हार गले मे व्यो डाल लिया ?" "लाज के मारे ।” 6' 'कही तुझे रास्ते मे श्री कृष्ण तो नही मिल गए थे ? " गांधारी ने शक्ति होकर पूछा । "हा. उन्होने ही तो मुझे यह माला पहनाई है ।" “मूर्ख ! बस उन्होने तुझे माला क्यो पहनाई तेरे प्राण ही हर लिए।" "वह क्यो ।” "पगले ! माता ने कहा- फूलों से ढकी जंघाओ पर हो शत्रु वार करेगा और याद रख इसके कारण तेरी मृत्यु होगी ।" "यदि मैं अत्र पुष्प मालाए उतार फेंकूं तो .. 1 " " अव क्या होता है । वह वही समय था पट्टी जा श्री कृष्ण इस अवसर पर भी तुझे मात दे गए मेरी दृष्टि से तू लाभ न उठा पाया ।” । उतारने से । मुझे खेद है कि Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयद्रथ वध AAA .. गांधारी के यह वचन सुनकर दुर्योधन को बडा खेद हुआ हुतांश व निराश होकर वह वापिस चला आया। अपने शोक विह्वल हृदय को लिए दुर्योधन इधर उधर फिरता था। श्री कृष्ण द्वारा उसकी योजना असफल कर दिए जाने से वह बहुत दुखित हुआ, और अन्त मे जब उसे कही भी शाति न मिली तो गदा लेकर एक जलाशय को ओर चला गया । जहा वह छुपकर अपने जीवन पर विचार करने लगा। जितना वह विचार करता, उतना ही उसे दुःख होता। वह अपने को - सर्व प्रकार से असफल व्यक्ति समझने लगा। . .. . '- दूसरे दिन जब रणक्षेत्र मे दुर्योधन दिखाई न पड़ा, तो पाडव सोचने लगे कि वह कही जा छुपा है। पाचो ने सोचा कि उसे खोजना चाहिए । जहा कही हो, द ढकर उसे दण्ड दिया जाय पाचो श्री कृष्ण सहित उसकी खोज मे निकले। चलते चलते वे उसी जलाशय पर पहुंच गए जहाँ दुर्योधन छिपा बैठा था । युधिष्ठिर..ने , उसे ललकार कर कहा-"धूर्त ! अब अपने प्राण वचाने के लिए..यहा प्रा छुपा है । अपने परिवार और मित्रो. का नाश कराने के पश्चात स्वय वच निकलना चाहते हो। तुम्हाग-हर्ष और अभिमान क्या हुआ ? तुम क्षत्रिय कुल में पैदा होकर भी कायरता दर्शाते हो ? वाहर निकलो और क्षत्रियोचित ढग से युद्ध करो । युद्ध से भाग कर जीवित रहने की चेप्टा करके कौरव कुल को कलकित करने वाले दुर्योधन । तुम अपने कर्मों से अपने कुल पर बहुत कालिख पोत चुके, अन्त समय पर और कालिख क्यो पोतते हो ?" .. युधिष्ठिर की ललकार सुनकर दुर्योधन व्यथित होकर बोला"युधिष्ठर ! यह मत समझना कि मैं प्राण बचाने के लिए यहा हर कर बैठा हू । मैं भयभीत होकर भी नहीं पाया।" "तो फिर किस लिए आये है यहा श्रीमान ?"-भीम ने चिढकर पूछा। - "मैं अपनी थकान मिटाने के लिए इस ठण्डे स्थान पर चला पाया था, युधिष्ठिर ! मैं न तो डरा हुया हूं न मुझे प्राणो माहो मोह है । फिर भी, सच पूछो तो युद्ध से मेरा जी ऊत्र-गया है। मेरे Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९२ जैन महाभारत - सगे सम्बन्धी सब मारे जा चुके हैं । बस मैं अकेला- ही बचा हू । राज्य सुख का मुझे लोभ नही। यह सारा राज्य अब तुम्हारा ही है । जानो और निश्चित होकर राज्य काज सम्भालो ।'-दुर्योधन ने क्षुब्ध होकर कहा । ... । - "दुर्योधन ! कदाचित तुम्हे याद होगा कि एक दिन तुम्ही ने कहाँ था कि सुई की नोक जितनी भी भूमि नहीं दूंगा । शाति प्रस्ताव जब हमने तुम्हारे पास भेजा, तुमने उसे ठुकरा दिया । श्री कृष्ण को भी तुमने निराश लौटाया। हमे पाच गाव देना भी तुम्हे स्वीकार न हुआ । अब कहते हो कि सारा राज्य तुम्हारा 'ही है । शायद तुम्हे अपने सारे पाप याद नही रहे। तुमने हमे जो यातनाए पहुचाई और द्रौपदी का जो अपमान किया था, वे सब तुम्हारे महा पाप तुम्हारे प्राणो की वाल माग रहे हैं । अब तुम बच, मही पायोगे।' युधिष्ठिर ने गरजते हुए कहा । । । युधिष्ठिर के मुख से जव दुर्योधन ने यह कठोर वाते सुनी तो उसने गदा उठा ली और आगे आकर बोला-'अच्छा, यही सही, बिना युद्ध किए तुम्हे चैन नही पड़ने वाला, तो फिर आजानो। मैं अकेला हू, थका हुआ हू । मेरे पास कवच भी नहीं है । और तुम पांच हो, तथा तरो ताजा हो । इसलिए एक एक करके निबट ला। चलो।" यह सुन युधिष्ठिर वोले- "यदि अकेले पर कईयो का आक्रमण करना धर्म नही है, तो इसका ध्यान तुम्हे बालक अभिमन्यु को मारत समय क्यो नही आया था ? तुम्ही ने तो, घिरवाकर अभिमन्यु की मरवाया था । सात सात महारथीं एक बालक को इकठ्ठ मिल कर मारे तो धर्म है, और जब हम पाच हो और तम अकल हो तो अधम है । अव तुम्हे धर्म के उपदेश सूझ है। सारे जीवन भर अधर्म किये और अब अन्त समय मे धर्म का प्रार्ड लेते हो ? चलो, हम तुम्हारी ही बान मान लेते हैं, चुन लो हम में से किसी एक का । जिसे तुम चाहो वही तुम से युद्ध करेगा। यदि द्वन्द्व युद्ध मे तुमन हम में स किसी को, जिससे तुम लडोगे, हरा दिया तो सारा राज्य तुम्हारा ही होगा, तुम्हारी विजय हो जायेगी और यदि मारे गए, तो अपन पापो का बदला नरक मे पायोगे।" Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्योधन का अन्त यह सुन दुर्योधन ने भीम से गदा युद्ध करने की इच्छा प्रगट की । भीम सेन भी राजी हो गया और गदा युद्ध प्रारम्भ हो गया । दोनो की गदाए जब परस्पर टकराती तो उनमे से चिनगारिया निकल पडती थी। इस प्रकार बडी देर तक युद्ध जारी रहा । ५९३ दोनो मे जीत इशारो मे ही इसी बीच दर्शक आपस मे चर्चा करने लगे कि किस की होगी उस समय श्री कृष्ण ने अर्जुन से बताया कि यदि भीमदुर्योधन की जाघ पर गदा मारेगा तो जीत जायेगा भीम सेन ने उस सकेत को देख लिया और आव देखा न ताव एक गदा पूरा शक्ति से दुर्योधन की जघ पर दे मारी । जाघ पर गदा लगनी थी कि दुर्योधन पृथ्वी पर कटे पेड़ की भाति गिर पडा । यह देख भीम सेन और उन्मत्त हो गया। मन मे बसी घृणा क्रोध के साथ उवल पडी । उसी उन्मत्त दशा मे उसने घायल पडे दुर्योधन के माथे पर जोर की लात जमाई । उसका यह कार्य श्री कृष्ण को अच्छा न लगा उन्होने बहुत बुरा भला कहा । भीम सेन चुप रह गया दुर्योधन जाँघ टूट जाने के कारण अधमरी अवस्था मे वही पड़ा रहा । और पाण्डव अपने शिविर की ओर लौटने लगे तो दुर्योधन ने श्री कृष्ण को बडी जली कटी सुनाई । Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -'* त्रेपनवाँ परिच्छेद * 9 अश्वत्थामा र दुर्योधन पर जो कुछ बीतो उसका वृतात सुनकर अश्वस्थामा बहुत क्षब्ध हो उठा। उसे इस बात का वडा दु.ख हुया कि भोम सेन ने दुर्योधन की जाघ पर गदा प्रहार किया और इस प्रकार युद्ध के नियमों का उल्लघन करके अधर्म तथा पाप .. किया । साथ ही उसे अपने पिता द्रोणाचार्य के मरने के लिए जो कुछ कुचक्र रचा गया था, वह भी अभी भूला नही था । वह मारे क्रोध के आपे से बाहर हो गया । उसकी मुठ्ठिया वार वार वन्ध जातो और दात पीसने लगता। उसके जी मे पाया कि वह कही भोम को अकेला पाये तो उसे अपने क्रोध की ज्वाला मे भस्म करके रखदे । वह तुरन्त दुर्योधन के वचे खुचे सैनिको को लेकर उस स्थान की ओर चल पडा, जहा दुर्योधन पड़ा हुआ मृत्यु की प्रताक्षा कर रहा था। जाते ही उसने दुर्योधन के सामने प्रतिज्ञा की कि आज ही रात्रि को मैं पाण्डवो का वीज़ नप्ट करके ,रहूगा मृत्यु की प्रतीक्षा करते दुर्योधन के मन मे पुन पाण्डवो के प्रति विद्वेष की ज्वाला भडक उठी। उसने पड़े पड़े ही आस पास खडे लोगो के सामने विधिवत अश्वस्थामा को अपनी सेना का सेनापति बना दिया और बोला-'प्यारे अश्वस्थामा ! अव तुम्ही मुझे शाँति दिला सकते " हो। तुम्हे सेनापति बनाना कदाचित मेरे जीवन का अन्तिम काय है। मैं बडी आशा से तुम्हारी वाट जोहता रहूगा । मत भूलना कि Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " अश्वस्थामा < すみ ܐ ܕ पाण्डवों ने तुम्हारे यशस्वी पिताका असत्य भाषण के द्वारा वध किया था ।" ५९५ 2 X X - 27 X. सूर्य डूब चुका था, रात्रि का अन्धकार धीरे धीरे वढ रहा था । चारो ओर अन्धेरा ही अन्धेरा था । तारों के धूमिल प्रकाश के होते हुए भी अन्धकार का साम्राज्य छाया था । अश्वस्थामा, कृपाचार्य 'और कृतवर्मा एक बरगद के पेड़ के नीचे रात बिता रहे थे । कृत और अवस्थामा बहुत थके हुए थे, वे पडते ही खर्राटे भरने लगे । पर विद्वद्वेष की ज्वाला मे जल रहे अश्वस्थामा को नीद कहां । वह तो पांण्डवों के नाश का उपाय सोच रहा था । 1 "2 1 चारो ओर कई प्रकार के पशु पक्षियो की बोलियां गूंज रही थी । उनके होते हुए भी अश्वस्थामा की विचार तरग चल रही थी । उस बरगद की शाखाओ पर कौरवो के झुण्ड के झुण्ड बसेरा - कर रहे थे । रात्रि में वे सब सोये हुए थे कि कही से एक उल्लू उड़ कर श्राया और आते ही उन सोते, कौथो पर प्रहार कर दिया । एक एक करके चोचे मार मार कर उल्लू उन्हें चीरने - फाड़ने लगा । रात का समय था । उल्लू तो भलि भाँति देख रहा था, किन्तु कौओ को अन्धेरे मे कुछ दिखाई ही नही देता था । वे चिल्ला चिल्ला कर 'मर गए । अकेले उल्लू के प्रागे सैकडो कीओ की भी एक न चली। यह देख श्रश्वस्थामा सोचने लगा - " जिस प्रकार अकेले उल्लू ने सोते हुए सैकडो कौओ को मार डाला, यदि में भी सोते हुए पाण्डवो, जिन्होंने मेरे साथियो को मार डाला है, धृष्टद्युम्न जिसने मेरे पिता की हत्या की और उनके साथियो पर आक्रमण कर दू तो उन्हें मार सकता हू । वे बहुत है, मैं अकेला हूं। इसी प्रकार में उनसे बदला ले सकता हू । वे सोते होगे, इस लिए मेरा सामना न कर पायेंगे ।" तभी उसके मन मे प्रश्न हुया - क्या यह धर्म युक्त कार्य "होगा ?" 5 अवस्थामा सोचने लगा- "पाण्डवो ने भी तो प्रधर्म से मेरे पिता का वध किया है, भीम ने भी तो अधर्म से दुर्योधन की जाध तोड़ी है। फिर धर्म पाण्डवों को अधर्म से मार डालने मे क्या Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .५९६ जन महाभारत हानि । शत्रु की कमजोरी से लाभ उठांना अनुचित नहीं हैं । और फिर हमारे पास अब इतनी सैना कहा जो धर्म युद्ध में उनसे जीत सके । मुझें अपनी प्रतिज्ञा भी तो पूर्ण करनी है।" - वहत सोच विचार के उपरान्त अश्वस्थामा ने उल्लू और कौओं वाली नीति का पालन करने का ही निश्चय किया और कृपाचार्य को जगा कर उसने अपना निश्चय कह सुनाया । अश्वस्थामा की बात सुनकर कृपाचार्य बहुन लज्जित हुए। वे बोले-"अश्वस्थामा -ऐसे अन्याय पूर्ण विचार और तुम जैसे शूरवीर के मन मे । बेटा ! हमने जिसके लिए शस्त्र उठाये थे, वह तो मृत्यु की बाट जोह रहा है। हम उस अधर्मी तथा अन्यायी की ओर से लड़े और हार गए। अब अन्त मे हमे ऐसा अनुचित कार्य नही करना चाहिए, जिससे हमारा आत्मा कलकित हो जाये । अव तो हमारे लिए यही उचित है कि धृतराष्ट्र महा सतो गाधारी और महा बुद्धिमान विदुर के पास चलें और जो वे अाज्ञा दे वही करे। हमें यह शोभा नहीं देता कि इस प्रकार महा पाप कमाए। यह तो महा अधर्म की बात है। तुम्हे ऐसी बात सोचनी भी नहीं चाहिए।' यह सुनकर अश्वस्थामा का क्रोध तथा शोक और भी प्रबल हो गया। बोला-' मामा जी ! धर्म भी धर्मियों के साथ ही चलता है ! जिसे आप अधर्म कह रहे है, वह मेरी दृष्टि मे धर्म है। पिता जी और दुर्योधन को जिस प्रकार मारा गया क्या वह धर्म के अनुकूल है ? तो फिर उसका बदला लेने के लिए मैं भी अधर्म का रास्ता क्यो न लू ? मैं तो निश्चय कर चुका हूं कि अभी ही पाण्डवो के शिविर मे घुस जाऊगा और अपने पिता के हत्यारे धृष्टद्युम्न, दुर्योधन के हत्यारे भीम सेन और उसके भाईयो को जो कि कवच उतारे सो रहे हैं, जाकर मार डालूगा मैं अपने पिता और दुर्योधन का ऋण इसा प्रकार चुका सकता हूं।" कृपाचार्य अपने भाजे की बाते सुनकर बड़े व्यथित हुए कहने लगे-'अश्वस्थामा तुम्हारा यश सारे संसार में फैला है, क्रोध मे आकर ऐसा कार्य मत करो जो तुम्हारे यश की सफेद चादर पर रक्त के छोटे लगा दे। सोते हुए शत्रु को मारना कदापि धर्म नहीं है। तुम यह विचार त्याग दो।" Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अश्वस्थामा ५९७ झल्लाकर अश्वस्थामा बोला-"मामा जी ! आपने यह क्या धर्म धर्म की रट लगा रक्खी है पिता जी का बध धृष्टद्युम्न ने उस समय किया था जब वे अस्त्रं शस्त्र फेक कर ध्यान मान बैठ थे । इस प्रकार कर्म का बन्धन पाण्डवों के हाथो कभी का टूट चुका ! कर्ण कीचड मे फसे रथ के पहिए को निकाल रहा था अर्जुन ने तब उस पर प्रहार किया, भूरिश्रुवा पर अर्जुन ने पीछे से वार किया और भीम सेन ने दुर्योधन की कमर के नाचे वार किया, क्या तब भी धर्म रह गया । पाण्डवो ने तो अधर्म की बाढ हो ला दी: तब मैं धर्म से बन्धा रहूं तो क्यो ? आप चाहे इसे धर्म कहे अथवा अधर्म, मैं तो .. जा रहा हू अपने पिता और दुर्योधन का बदला लेने " ! इतना कह कर अश्वस्थामा पाण्डवो के शिविर की ओर जाने को उठा । यह देख कृपाचार्य और कृतवर्मा भी उठ खड़े हुए "और बोले-“अश्वस्थामा ! आज तुम महा पाप करने पर उतारु हो गए हो । पर हम तुम्हे अकेले शत्रु के मुह मे नही जाने देंगे।" .. । यह कहकर वे दोनो भी प्रश्वस्थामा के साथ हो लिए। . माधो रात बोत चुकी था । पाण्डवो के शिविरो मे सभी सनिक मृदु निद्रा मे साये पड़े थे । घृष्टद्युम्न भी पड़ा था। इतने मे हो अश्वस्थामा, कृपाचार्य और कृतवर्मा के साथ वहाँ पहुच गया । अश्वस्थामा पहले धृष्टद्युम्न के शिविर मे घुसा और जाते ही घृष्टद्युम्न पर कूद पड़ा साये पडे धृष्टद्युम्न को उसने कुचल कुचल कर मार डाला और फिर सभी पांचाल राज कुमारों को इसी प्रकार मार डाला। इसके बाद उसने द्रौपदी के पुत्रो की हत्या को । । कृपाचार्य और कृतवर्मा ने भी अश्वस्थोमा का हाथ वटाया और तीनो ने ऐसे ऐसे अमानुपिक अत्याचार किए जैसे कि कभी सुनने मे भी नही आये । यह कुकृत्य करके अश्वस्थामा ने शिविरो मे आग लगा दी , आग बड़े जोरो से भड़क उठी और शिविरों मे फैल गई। इससे सोये पड़े सभा संनिक जाग पड़े और भयभीत हाकर इधर उधर भागने लगे । अश्वस्थामा ने उन सभो को मार डाला जो उसके हाथ लगे 1 फिर उल्लास पूर्वक बोला-"अव मैं प्रसन्न हू । मैंने अपना कर्तव्य पूर्ण किया, अब मै दुर्योधन को यह शुभ Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९८. जैन महाभारत ܐܙ 404 समाचार जाकर सुनाता हू यह कहकर वह अपने मामा कृपाचार्य और कृतवर्मा के साथ उस स्थान की ओर चला, जहां दुर्योधन- अन्तिम घड़िया-गिन रहा था । - C महत X -TO-A t X X 6 - दुर्योधन के पास पहुंच कर यश्वस्थामा ने हर्षातिरेक से कहा"महाराज- दुर्योधन - आप भी जीवित है क्या ? देखिये, मैं आपके लिए कैसा शुभ समाचार लाया हूँ, जिसे सुनकर आपका कलेजा अवश्य ही ठण्डा हो जायेगा और श्राप शांति से मर सके । देखिये । मैंने कृपाचार्य व कृतवर्मा ने सारे पांचाल समाप्त कर दिए । पाण्डवो के भी सारे पुत्र हमने मार डाले। द्रौपदी का कोई पुत्र जीवित नही छोडा । पाण्डवो की सारी सेना को हमने या तो जलाकर मार डाला अथवा कुंचल कर या ग्रग प्रत्यग तोड़ कर खत्म कर डाला। इस प्रकार पाण्डवो के वोरो और सनिको का सर्वे नाश हो गया, वंस पाण्डवों के पक्ष में ग्रव ज्ञात ही व्यक्ति जीवित है और आपके पक्ष के हम तीन अव तो श्रापको अवश्य ही शांति मिली होगी । हम ने उन सभी को सोते हुए ही जा घेरा था और इस प्रकार आपके साथ हुए अन्याय का वदला ले लिया ।" ट्रो I J • -दुर्योधन को यह समाचार-सुनकर अपार हर्ष हुआ, वोला "प्रिय गुरु भाई ! आज तुमने वह कार्य किया है जिसे भीष्म पितामह, वीर कर्ण और द्रोणाचार्य भी न कर पाय । मेरी आत्मा सन्तुष्ट हो गईं ' अव मैं शांति पूर्वक मर सकूंगा । तुम्हारे समाचार सुनने के लिए ही जी रहा था ।" इतना कह कर दुर्योधन ने तीन हिचकिया ली और उसके प्राण पखेरू उड़ गए। f 37 1 1 in J 1 X X XTM x पाण्डवों को अपनी सेना, अपने वीरों और द्रौपदी के पुत्रों के इस प्रकार मारे जाने से बड़ा ही दुख हुआ । युधिष्ठिर बोले- "प्रभो अभी हमे विजय प्राप्त हुई थी । और मैं समझता था कि यह नागकारी युद्ध समाप्त हो गया । पर अश्वस्थामा के पापों हाथों ने पोसा पलट दिया। उसने एक पाप करके हमारी जीत को भी पराजय मे परिवर्तित कर डाला । ओह ! हम क्या जानते थे कि द्रोण पुत्र अश्वस्थामा इतना नीच हो सकता है । सोते शत्रुओं पर तो आज 1 Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अश्वस्थामा ५९९ तक किसी ने प्रहार नही किया-पर सम्भव है यह मेरे उस कर्म का फल हो जो मैंने द्रोण के साथ किया था । हाय ! मैं युद्ध जीत कर भी बुरी तरह हारा । अब द्रौपदी के दिल पर क्या बीतेगी ? मेरी दशा उस पाजी की सी हो गई जो महा सागर को तो सफलता पूर्वक पार कर लेता है,पर अन्त मे छोटे-से नाले मे डूबकर नप्ट हो जाता है। श्री कृष्ण उन्हे सांत्वना देते हुए बोले-“महाराज युधिप्टिर । व्यर्थ शोक करने से क्या लाभ ? जो होना था हो गया। मरता क्या न करता की लोकोक्ति को चरितार्थ करते हुए अश्वस्थामा ने यह मव कुछ किया है। उसने जो कुछ किया वह अपनी आत्मा के साथ ही अन्याय किया है । वीरो का कर्तव्य है कि वे खोकर दुखी और पाकर प्रफुल्लित न हो । आप तो धर्म राज है । आपको विलाप करना शोभा नहीं देता। जो हुआ, उसे भूल जाओ।" द्रौपदी की दशा तो बडी हो दयनीय थी । जव उसने अपने वेटो के मारे जाने का समाचार सुना, वह सन्न रह गई। पागलो की भानि अपने व ल नोचने लगी, कपडे फाडने लगी। वडी कठिनाई से उसे होग मे लाया गया। तव वह बल खाती नागिन की भाति जल्दी से पाण्डवो के पास पहची और उसने गरज कर कहा-"क्या आप लागो में कोई भी ऐसा नही है जो मेरे पूयो की हत्या का बदला ले सके ?" इस चूनौती के उत्तर मे भीम सेन कडक कर वोला-"जब तक भीम सेन जीवित है। तुम्हे किसी प्रकार की चिन्ता नही है। मैं गपथ लेता हू कि कोई मेरा साथ दे अथवा न दे जब तक तुम्हारे पुत्रों के हत्यारे अश्वस्थामा से बदला न ले लूंगा, तब तक चैन से न वैठूगा ।" ___ भोम सेन की इस भीष्म प्रतिज्ञा को सुनकर एक बार तो सभी सन्न रह गए । परन्तु फिर उसकी प्रतिज्ञा को पूर्ण कराने के लिए सभी उसके साथ चलने को तैयार हो गए। सभी भ्राता अश्वस्थामा की सोज में निकल पडे । ढढते ढूंढने आखिर उन्होंने गगा के तट पर व्यास के आश्रम मे छपे अश्वस्थामा का पता लगा ही लिया पीर जाकर उसे घेर लिया। अश्वस्थामा और भीम सेन मे युद्ध छिड़ गया । दोनों वीर Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___५९८. . . . जैन महाभारत - समाचार जाकर सुनाता हूं." , : यह कहकर वह अपने मामा कृपाचार्य: उस स्थान की ओर चला जहा दुर्योधन : रहा था । : : . . . . . MTT - दुर्योधन के पास पहुंच कर,अश्वस्थामा ने .. "महाराज दुर्योधन.! आप अभी जीवित है क्या.. लिए कैसा,शुभ समाचार लाया हू, जिसे सुनकः , * अवश्य ही ठण्डा हो जायेगा और आप शाति से मर मैंने कृपाचार्य व कृतवर्मा ने सारे पाचाल समाप्त कर .. . के भी सारे पुत्र हमने मार डाले। द्रौपदी को कोई 1 छोडा । पाण्डवो की सारी सेना को हमने या तो जला - अथवा कुचल कर या अग प्रत्यग तोड़ कर खत्म कर · , wh प्रकार पाण्डवो के 'वोसे और सनिको का 'सर्व नाश पाण्डवों के पक्ष में अव ज्ञात ही व्यक्ति जीवित है और हम तीन । अव तो आपको अवश्य ही शांति मिलो होर उन सभी को सोते हुए ही जा घेरा था और इस प्रकार हुए अन्याय का वदला ले लिया ।" . . ... 17 :दुर्योधन को यह समाचार सुनकर अपार हर्प हुअा ... "प्रिय गुरु भाई ! आज तुमने वह कार्य किया है. पितामह, वीर कर्ण और द्रोणाचार्य भी न कर पाय । सन्तुष्ट हो गई । अब, मैं शाति पूर्वक मर सकूँगा । तुम्ही सुनने के लिए ही जो रहा था-', इतना कह कर दुर्योधन हिचकिया ली और उसके प्राण पखेरू उड़ गए। .. पाण्डवों को अपनी सेना, अपने वीरों और 'द्रौपदी के । इस प्रकार मारे जाने से बड़ा ही दुख हुआ । युधिष्ठिर बोले-.. अभी हमे विजय प्राप्त हुई थी । और मैं समझता था कि यह कारी युद्ध समाप्त हो गया । पर अश्वस्थामा के पापी हाथो ने पी. पलट दिया। उसने एक पाप करके हमारी जीत को भी पराजय मा. परिवर्तित कर डाला । ओह ! हम क्या जानते थे कि 'द्रोण पुत्र अश्वस्थामा इतना नीच हो सकता है । सोते शत्रुओं पर तो आज -- -- --- - Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अश्वस्थामा ५९९ तक किसी ने प्रहार नही किया–पर सम्भव है यह मेरे उस कर्म का फल हो जो मैंने द्रोण के साथ किया था । हाय ! मैं युद्ध जीत कर भी बुरी तरह हारा । अव द्रौपदी के दिल पर क्या बीतेगी ? मेरी दशा उस पाजी की सी हो गई जो महा सागर को तो सफलता पूर्वक पार कर लेता है,पर अन्त मे छोटे-से नाले मे डूबकर नष्ट हो जाता है । श्री कृष्ण उन्हे सांत्वना देते हए बोले-"महाराज युधिष्टिर ! व्यर्थ शोक करने से क्या लाभ ? जो होना था हो गया। मरता क्या न करता की लोकोक्ति को चरितार्थ करते हुए अश्वस्थामा ने यह मव कुछ किया है। उसने जो कुछ किया वह अपनी आत्मा के साथ ही अन्याय किया हैं । वीरो का कर्तव्य है कि वे खोकर दुखी और पाकर प्रफुल्लित न हो । आप तो धर्म राज है । आपको विलाप करना शोभा नहीं देता। जो हुआ. उसे भूल जाओ।" द्रौपदी की दशा तो बडी हो दयनीय थी । जव उसने अपने वेटो के मारे जाने का समाचार सुना, वह सन्न रह गई। पागलो की भाति अपने व ल नोचने लगी, कपडे फाडने लगी। बडी कठिनाई से उसे होश मे लाया गया। तव वह बल खाती नागिन की भाति जल्दी से पाण्डवो के पास पहुंची और उसने गरज कर कहा-"क्या आप लोगो मे कोई भी ऐसा नही है जो मेरे पुत्रो की हत्या का बदला ले सके ?" इस चुनौती के उत्तर मे भीम सेन कडक कर वोला-“जव तक भीम सेन जीवित है । तुम्हे किसी प्रकार की चिन्ता नही है । मैं शपथ लेता हूं कि कोई मेरा साथ दे अथवा न दे जव तक तुम्हारे पुत्रो के हत्यारे अश्वस्थामा से बदला न ले लंगा, तब तक चैन से न वैठगा ।" भीम सेन की इस भीष्म प्रतिज्ञा को सुनकर एक बार तो सभी सन्न रह गए । परन्तु फिर उसकी प्रतिज्ञा को पूर्ण कराने के लिए सभी उसके साथ चलने को तैयार हो गए। सभी भ्राता अश्वस्थामा की खोज मे निकल पडे । ढूढते ढूंढने आखिर उन्होने गंगा के तट पर व्यास के आश्रम मे छुपे अश्वस्थामा का पता लगा ही लिया और जाकर उसे घेर लिया। अश्वस्थामा और भीम सेन मे युद्ध छिड़ गया । दोनों वीर Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० जैन महाभारत पहले धनुष बाणो से लडे, जव धनुप कट गए तो ढाल तलवार हाथ मे लेकर मैदान मे आगए । अर्जुन को एक वार ऐसा क्रोध आया कि उसने गाण्डीव पर बाण चढाया. ताकि भीम सेन से लड रहे अश्वस्थामा का काम तमाम करदे, परन्तु युधिष्टिर ने उसे रोकते हुए कहा-"भीम ने प्रतिज्ञा की है इसलिए उसे ही लडने दो। वीर जब आपग मे लड रहे हो तो तीसरे को हस्तक्षेप नही करना चाहिए। अश्वस्थामा ऐसी कोई धर्म विरुद्ध बात नहीं कर रहा, जिसके कारण तुम्हे हस्तक्षेप करने की आवश्यकता पड़े।" अर्जुन ने हाथ रोक लिया। उधर ढाल तलवार के भी टूट फूट जाने पर भीम सेन और अश्वस्थामा ने गदा सम्भाल ली । जव दोनो अपनी गदाओं को टकराते तो भयकर ध्वनि निकलती, चिनगारिया झड जाती । दोनो उन्मत्त हाथियो की भाति लडते रहे । ........ और फिर उनमे मल्ल युद्ध होने लगा । आखिर मे एक बार भीम सेन ने अश्वस्थामा को ऊपर उठा कर भूमि पर बड जोरो से पटक दिया। और झट वह उसकी छाती पर चढ़ बैठा । घुटने की एक ही चोट पडनी थी कि अश्वस्थामा 'ची' बोल गया। उसने कहा"भीम सेन ! मैंने हार मान ली । अब मुझे क्षमा कर दो।" परन्तु भीम सेन तो और भी जोश मे आ गया, उसने क्रुद्ध होकर कहा-“निद्राअग्नि द्रौपदी के पुत्रो को मारने वाले और रात्रि मे प्राग लगा कर सहस्रो सैनिको को जला मारने वाले कलंकी तुझे क्षमा करदू ! नही, मैं तेरे प्राण लेकर ही छोड़गा।" ___उसने फिर विनती की---"भीम सेन तुम महाबली हो । तुम क्षत्रिय वीर हो। मैं तुम्हारी शरण पाता ह । क्षत्रिय कभी शरण आये पर हाथ नही उठाया करते ।" "क्षत्रिय धर्म की दुहाई देकर जान बचाना चाहता है नीच । आवेश मे आकर भीम सेन ने कहा-मै तुझे विना मारे नही छोड सकता । कायर जब परास्त हो गया तो क्षमा याचना करता हैं । धूर्त ! जब तू धृष्टद्युम्न और उसके भाईयो को, तथा द्रौपदी पुत्रो का मार रहा था तव तुझे ब्राह्मण धर्म का ध्यान नहीं पाया, अव मुझे क्षत्रिय धर्म की दुहाई देकर अपने प्राणो-की भिक्षा मांगता है ? ठहरा ना भिक्षा माँग कर जोवन निर्वाह करने वाला ब्राह्मण ही।" Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अश्वस्थामा ६०१ उसी समय युधिष्ठिर दौड पडे बोले-'भीम सेन ! शरण पाये वीर पर हाथ उठाना तुम्हे शोभा नहीं देता है । अश्वस्थामा प्राण दान माग रहा है । और तीर्थकरो का कथन है कि दानो म सर्व श्रेप्ट दान है अभय दान | अब इसे छोड़ दो।" "नही मुझे तो द्रौपदी भाभी को इसका सिर पेश करना है, ताकि इनके कटे सिर को देखकर वह अपने हृदय मे धधक रही शोक एव क्रोध की ज्वाला को शात कर सके "-भीम सेन ने कहा। "मैं उस सती के लिए अपने माथे का उज्ज्वल रत्न दुगा। वही मेरी पराजय को निशानी होगी-अश्वस्थामा ने दीनता पूर्वक कहा-महाबलो भीम अव मुझे क्षमा करदो। और मेरे माथे का रत्न उस सन्नारी को समर्पित करके कहो कि अश्वस्थामा अपने प्राणो का दान लेकर, पराजय के रूप मे यह रत्न देकर, वन मे चला गया , मैं वन मे चला जाऊगा और अपने पापा के प्रायश्चित के रूप मे घोर तपस्या करू गा।" यह सुनकर युधिष्ठिर और भी प्रसन्न हुए । उन्होने भीम के चगुल से अश्वस्थामा को मुक्त कराया। अश्वस्थामा ने माथे का रत्न भीम सेन को दे दिया और वन की ओर चल पडा। भीम सेन उस रत्न को लेकर द्रोपदी के पास पहुचा और रत्न देकर बोला-"भाभी ! यह रत्न तुम्हारी ही खातिर लाया है। यह अश्वस्थामा की पराजय का चिन्ह है। उसने हम से प्राण दान मांगा और अपने माथे का यह रत्न तुम्हारे लिए दिया है । जिस दुष्ट ने तुम्हारे पुत्रो को मारा था, वह परास्त हो गया । दु शासन का मैने रक्त वहा दिया, दुर्योधन भी मारा गया। अव अपने हृदय से क्रोध का दावा नल बुझा दो और शात हो जायो।" भीम सेन द्वारा दिया रत्न द्रौपदी युधिष्टिर को देते हुए बोली- "धर्मराज | इस रत्न को आप अपने मस्तक पर धारण करे।" सारा हस्तिनापुर नगर निस्सहाय व विधवा स्त्रियो और अनाथ वालको के करुण चीत्कारो रोने व कलपने के हृदय विदारक शब्दो से गज उठा। जिधर जाईये उधर ही रोने पीटने की यात्रा ग्रा रही थी, प्रत्येक घर मे शोक मनाया जा रहा था । ऐया को Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२ जैन महाभारत नही था जिसका कोई मरा न हो । सब हा हा कार कर रहे थे। सभी को पाखों से सावन भादो की झड़ी लगी थी । सारे नगर मे चीत्कारो का इतना शोर था कि नगर मे प्रवेश करते हुए दिल घबराता था । ध्तराष्ट्र अपने साथ निस्सहाय स्त्रियों को लेकर कुरुक्षेत्र की ओर चले, रोने पीटने वालो का यह दल जब कुरुक्षेत्र मे पहुचा तो एक बार सारा क्षेत्र विलाप से भर गया । जहा लगभग तीन सप्ताह तक तलवारें, धनुष, भाले, बछिया, सिंह नाद, हाथियो की चिंघाड़ें, घोडो की हिनहिनाहट सुनाई देती थी, वही अव स्त्रियों का करुण क्रन्दन गूज रहा था । पृथ्वी से उठते चीत्कार आकाश को छने लगे। एक भयानक विलाप सारे क्षेत्र की छाती दहला रहा था। उस क्षेत्र मे चारो ओर लागे ही लाशे दिखाई देती थी । कुत्ते और श्रृगाल वीरो के शवो को खीच रहे थे । चीलो और गिद्धो के झुण्ड के झुण्ड लाशो पर टूट पडे थे। जव चीलो, गिद्धो, कुत्तो और श्रगालो ने जब मनुष्यो के रोने पीटने को आवाज सुनी तो वे भी एक साथ मिल कर बोल उठे । उस समय इतना शोर हा कि कान पडी आवाज सुनाई नही देती थी। लगता था कि पशु पक्षी मनुष्यो के चीत्कारो की खिल्ली उडा रहे हो और कट रहे हो-"विनाश की लीला रचाते समय नही सूझा था अव यांसू बहाते हो। अव विलाप करने से क्या लाभ ?" सब अपने अपने प्रिय जनो के शवो को खोज रहे थे । कोई किसी खोपड़ी को हसरत भरी नज़रो से देखकर प्रांसू बहा रही थी तो कोई किसी घड से लिपट कर रुदन कर रही थी। और धृतराष्ट्र तो एक ओर खडे प्रासू वहाते रहे । वह वेचारे अपने पूत्रो के शगे को भी पहचान सकने की शक्ति न रखते थे। Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * चवन्नवां परिच्छेद * 9888888888889 Y गांधारी की फटकार - 8888888888888 सजय धृतराष्ट्र का एक प्रकार से दाया हाथ था, वह सदा उसके साथ रहता था, उनके समस्त रहस्य सजय को ज्ञात थे। कहते है वह प्रतिदिन कुरुक्षेत्र के युद्ध का वर्णन जाकर धृतराष्ट्र को सुनाया करता था। वैष्णवो के मतानुसार महाभारत के सारे युद्ध का वृतात उसी का कहा हुअा है । जो भी हो सजय था धृतराष्ट्र का आत्मा ही। जव वृद्ध धृतराष्ट्र अपने बेटो के शोक मे आँसू बहा रहे थे, तब सजय उन्हे धैर्य वधाता हुआ बोला-' महाराज | पाप जैसे वयो वृद्ध और अनुभवी व्यक्ति को समझाने की क्या आवश्यकता ? आप तो स्वय समझदार और जानकार हैं , आप जानते ही हैं कि जो होना था वह हो गया। मृत वीरो के लिए आसू बहाने से कोई लाभ नही है । अव तो धैर्य ही एक मात्र उपाय है । प्रत्येक प्राणी अपने कर्मो का फल भोगता है। मृतात्मायो को आपके पासुनो से कोई लाभ नही पहुच सकता। इसलिए आप शात हो जाईये और अपने मन को समझाईये।" विदुर जी भी उस समय धृतराष्ट्र के पास पहूच गए। उन्होने कहा-"आपके इन वेटो को मैंने बहुत समझाया, पर वे न माने। इसी का कारण है कि आज उनकी यह गति हुई । तो भी हमे यह जान लेना चाहिए कि आत्मा अजर अमर है । यह गरीर अनित्य है। किसी न किसी दिन शरीर का नाश होता ही है। जो लोग इस युद्ध मे मारे गए है, वे वीर गति को प्राप्त हुए है । उनके लिए ग्रामू Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत वहाना और पश्चाताप करना व्यर्थ ही है । अत अब आप विलाप समाप्त करके पाण्डवो को ही अपना पुत्र समझिए । युद्ध मे, एक न एक पक्ष की हार तो होतो हो है और जब इतना भयकर युद्ध ठना था तो एक न एक पक्ष के वीरो की तो यह गति होती ही है । इसलिए आपका विलाप वेकार है । पाण्डव आपके भाई की हो सन्तान हैं। उन्हे आपना आत्मज जान कर आप सन्तोप करेंगे तो आपको शाति मिलेगी । वरना इस व्याकुलता से आप का स्वास्थ्य विगड जायेगा और खोये हुए पुत्रो की आत्मा को भी आप कोई लाभ नहीं पहुचा सकेगे।" इस प्रकार कई बार विदुर जी ने घृतराष्ट्र को सान्त्वना दी। उन्हे अनेक प्रकार से समझाया । किसी प्रकार उनके प्रासू रुके। तव रोती विलखती स्त्रियो के झुण्ड को पार करते हुए पाण्डव श्री कृष्ण के साथ धृतराष्ट्र के पास आये और नम्रता पूर्वक हाथ जोडे हुए उनके सामने जाकर खडे हो गए। विदुर जी ने कहा-"महाराज ! आपके पुत्रवत् भतीजे अापके सामने हाथ जोडे खडे हैं।" __ धृतराष्ट्र की आखो से पुन आसू बह निकले । उन्होने अवरुद्ध कण्ठ से कहा-''वेटा युधिष्ठिर ! तुम सव सकुगल तो हो।" युधिष्ठिर वोले-'पाप की कृपा से हम जीवित हैं और अव आपके चरणो मे आज्ञाकारी पुत्रो के समान स्थान पाना चाहते हैं। हमारे कारण यदि आपको कुछ कष्ट पहुचा हो तो आप क्षमा करदे । हम नहीं चाहते थे कि युद्ध हो, वह हमारे लाख प्रयत्न करने पर भी युद्ध टला नही मुझे अपने भाईयों के लिए वडा शोक है । अब मैं स्वय दुर्योधन को कमो, जो कदाचित आपको खटके, पूरी करने का प्रयत्न करू गा। पिता जी के मुनिव्रत धारण करने के उपरान्त से हम ने आप ही को अपना पिता माना है। पिता उद्दण्ड बालकं को भी स्नेह करता है। इसी प्रकार आप हमे अपना स्नेह प्रदान करें।" धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर को छातो से लगा लिया । पर वह आलिंगन स्नेह पूर्ण न था। इतिहास कारो का कथन है कि उसके पश्चात धृतराष्ट्र ने भीमसेन को अपने पास बुलाया। पर धतराष्ट्र के हाव भाव से श्री कृष्ण भोम के प्रति उनके मनोभाव जान गए और उन्होने भीम के ! Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गांधारी की फटकार ६०५ स्थान पर एक लोहे की प्रतिमा अन्धे वृतराष्ट्र के सामने खडी करदी, श्री कृष्ण का भय सही सावित हुआ। क्योकि पहले तो उन्होने उस प्रतिमा से स्नेह प्रगट किया । परन्तु तभी उन्हे अपने वेटो की याद आ गई और उन्होने प्रतिमा को इतने जोर से भीचा कि प्रतिमा चूर चूर हो गई। परन्तु प्रतिमा के चूर हो जाने के उपरान्त धृतराष्ट्र को ध्यान पाया कि मैंने यह क्या कर डाला . वे दुखित हो कर बोले--"हाय मैंने यह क्या कर डाला, क्रोध मे पाकर भीमसेन की हत्या करदो।" इतना कह कर वे विलाप करने लगे । तभी श्री कृष्ण वोले-"महाराज । श्राप चिन्तित न हो । भीम सेन सकुशल है।" "तो फिर यह कौन था, जो मेरे हाथो चूर हो गया।" "वह थो लोहे की प्रतिमा।" । धृतराष्ट्र को क्रोध तो आया, पर उसे पीकर बोले-"श्री कृष्ण ! तुम ने बहुत अच्छा किया कि मुझे एक पाप से बचा लिया।" फिर तो धृतराष्ट्र ने भीम सेन को अपने पास बुलाकर बड़ा स्नेह दर्शाया। इसी प्रकार अर्जुन, नकुल पार सहदेव को भी छाती से लगा कर प्यार किया। उन्ह पाशार्वाद दिया और सुख पूर्वक राज्य काज करने को कहा । ___ गाघारी एक ओर खडी विलाप कर रही थी । विदुर जी ने जाकर उसे ढाढस बन्धाया । और इसके लिए उन्होने प्रात्मा के सम्बन्ध मे ज्ञातपूर्ण उपदेश दिया। फिर पाण्डव उसके पास गए और पर छकर प्रगाम किया। जव श्री कृष्ण पहचे तो प्रणाम करके बोले"सती गाधारा ! अब विलाप बन्द करो जाने वाले अव वापिस तो पाते नही । अब तो पाण्डवों को ही अपना बेटा समझो। तुम्हारे पुत्र यदि मेरो बात मान लेते और पाण्डवो से सन्धि कर लेते तो आज उनकी यह गति नही होतो और न आपको यह दिन देखना पड़ता ठोक है अभिमान विखण्डे का कारण बनता है। जो समस्याए शाति से सूलझ सकतो है वही हिंसा से विकट रूप धारण कर लेतो है। तुम जसो सती. जो धर्म के मर्म को समझनो है, मृत व्यक्तियों के लिए आंसू बहाये, यह अच्छा नहीं लगता। सन्तोष करो।" गांधारी के हृदय मे क्रोध का दावा नल धधक उठा । उसने Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महाभारत श्री कृष्ण को फटकारते हुए कहा-"कृष्ण तू अव मुझे उपदेश दे आया है। क्या मैं नही जानती कि यह सव युद्ध की जड़ तू ही था तेरे ही कारण मेरे परिवार का नाश हुया। तेरे ही कारण रक्त के नदिया वही । तेरे ही कारण मेरे सौ पुत्र मारे गए । तेरे ही कारण भारत खण्ड के असख्य वीर बलि चढे । तू न होता तो असख्य नारियं का सुहाग न उजडता असख्य वालक अनाथ न होते । और कुरुक्षेत्र इस प्रकार हड्डियो से भरा न होता । तूने ही युद्ध के बीज बोये। तूने ही भीष्म, द्रोण, कर्ण, दुर्योधन और दुःशासन आदि का बध कराया और जिनका तू पक्षपाती बना, उन्हे भी इस योग्य कर दिया, कि वे कभी तेरे सामने छाती तान कर खड़े न हो सकेंगे। मैं जानती हूं कि त्रिखण्डी होने के उपरान्त मुझे चाह हई कि भारत खण्ड मे कोई ऐसा क्षत्रिय कुल न रहे, जो यादवो से किसी भी समय टक्कर ले सके। हमारा कुल तेरी आखो मे खटक रहा था और उसी का तू ने नाश करा दिया। पर याद रख कि तूने मेरा कुल मिटाया है, तो तेरे कुल का भी नाश हो जायेगा और तू अपने पाप का भयकर फल भोगेगा । तेरे सारे कुचक्र के वाद भी मुझे तो पानी देने वाला भी होगा, तू निस्सहाय होकर तडप तडप कर प्यासा ही मर जायेगा। यह एक सती का वचन हैं, जो कभी खाली न जायेगा।" गाधारी के इन शब्दो को सुनकर सभी काप उठे । श्री कृष्ण का दिल भी दहल गया और पाण्डव भी भयभीत हो गए। पर तीर हाथ से छूट चूका था । सती के मुंह से शाप निकल ही गया था। अब क्या हो सकता था । श्री कृष्ण ने अपनी ओर से बहुत ही स्पष्टी करण दिया, पर गाधारी को वे सन्तुष्ट न कर सके । ___ इस समय व्यास जी ने क्रुद्ध सती को शांत करने के उद्देश्य से कहा-"देवी । तुम महान सती हो । तुम पाण्डवो पर कुद्ध, न होयो। उनके प्रति मन मे द्वपन रक्खो क्योकि टेप अधर्म को जन्म देता है । याद है तुम्ही ने तो युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व कहा था कि जहा धर्म होगा, जीत भी उन्ही की होगी। और आखिर वही हुआ। जो बाते बीत चुकी उन्हे याद करके मन मे वैर रखना अच्छा नही है । तुम्हारी सहन शीलता और धैर्य का यश समस्त ससार मे फैल रहा है । अव तुम अपने स्वभाव को मत बदलो । यही ठीक है कि तुम मा हो, मॉ के हृदय मे अपने पुत्रो के प्रति जो ममता होती है, Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गांधारी की फटकार ६०७ उसी के वशीभूत होकर तुम्हे अपने पुत्रो के प्रति शोक है, पर तुम साधारण स्त्री तो नही हो । तुम्हें तो उच्चादर्श प्रस्तुत करना ही शोभा देता है।" । गांधारी ने उत्तर दिया-"मैं जानती हूं कि पुत्रों के वियोग । के कारण मेरी बुद्धि अस्थिर हो चुकी है. परन्तु फिर भी पाण्डवो के . सौभाग्य पर मैं ईर्ष्या नहीं करती। आखिर वे भी मेरे लिए पुत्रो के . ही समान हैं। मैं जानती हूं कि दुःशासन और शकुनि ही इस कुल के नाश के मूल कारणं थे, परन्तु श्री कृष्ण ने शकुनि तथा दुःशासन द्वारा प्रज्वलित अग्नि को हवा दी और वह ज्वाला दावानल बन गई । मुझे यह भी विदित है कि अर्जुन तथा भीम निर्दोष है । अपनी सत्ता के मद में आकर मेरे पुत्रों ने यह विनाशकारी युद्ध छेडा था और अपने अत्याचारी कर्मों के कारण मारे भी गए । परन्तु एक बात का मुझे बहुत खेद एव शोक है। श्री कृष्ण की कृपा से दुर्योधन और भीम सेन मे गदा युद्ध हुआ, यहाँ तक तो ठीक है । लेकिन कृष्ण के सकेत पर भीम सेन ने कमर के नीचे गदा मार कर गिराया, यह मुझ से नहीं सहा जाता।" . भीम को इस बात का दुःख था कि उसने दुर्योधन को अनीति से मारा है । गांधारी की बाते सुनकर वह क्षमा याचना करते हुए बोला-"मा! युद्ध मे अपने बचाव के लिए क्रोध वश मुझ से ऐसा हुआ, वह धर्म हुआ या अधर्म, आप इसके लिए मुझे क्षमा कर दे। उस समय मैं क्रोध मे था, क्रोध से पाप होते हैं, मुझ से भी यह पाप हुआ। मैं यह स्वीकार करता हूं कि धर्म-युद्ध करके मैं दुर्योधन को परास्त नही कर सकता था, और दुर्योधन की ओर से युद्ध मे वार बार अधर्म हुआ, बार बार युद्ध-नियमो का उल्लघन होता रहा, बस इसी कारण मैं भी अधर्म कर बैठा । पर यह तो सोचिये कि मेरे द्वारा की गई अनीति की जड क्या थी । दुर्योधन ने युधिष्ठिर को जुए के खेल में फंसा कर हमारा राज्य छीन लिया और दुःशासन ने भरी सभा में द्रौपदी का अपमान किया, इससे हमारे हृदय धधक उठे। तेरह वर्ष तक हम दुर्योधन की अनीति के कारण उत्पन्न हुई क्रोध की चिनगारी को छिपाये रहे। प्रगट होने पर हम ने सिर्फ पांच गाव मागे, उसने सुई की नाक जितनी भूमि भी देने से इन्कार Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ६०९ जैन महाभारत कर दिया । हमारे शाति-दूत श्री कृष्ण की अपने ही दरवार में उसई : हत्या करनी चाही हमारे मामा को उसने धोखा देकर अपने पद हार मे लिया। युद्ध मे बालक अभिमन्यु को अनीति से मरवाया । योनि कितनी ही ऐसी बातें थी कि मेरे हृदय को छलनी कर गई थी। उसी की अनीतियो के फल स्वरूप मुझ से यह दुष्कर्म हुआ । इसलिए मा मुझे क्षमा कर दीजिए। मैं जीवन भर आपकी ऐसी सेवा करूंगा निक आपको पुत्र हीना होने का खेद ही नहीं रहेगा। मैं दुर्योधन को प्राक को नही दे सका तो इसके बदले, अपने आप को देता हूं।" बाव सर्वज्ञ देव का कथन है कि यह सामुदांणी कर्म होते हैं जो प्राणि के कई कारणो से सहार होते है यह सुन गाधारी करुण स्वर मे वोली-"वेटा ! मुझे दुः इस बात का है कि तुम लोगों ने मेरे सौ के सौ पुत्र मार डाले, एवं तो छोड ही दिया होता, जिस पर हम सन्तोष कर लेते।" फिर उस देवी ने युधिष्टिर को अपने पास बुलाया। यधिष्टिरी काँपते हुए उसके सामने गए और हाथ जोड़कर खड़े हो गए । वे बहुत ही भय विह्वल हो रहे थे। बडे ही नम शब्दो में वोले-"देवी! जिस अत्याचारी ने आप के पुत्रो की हत्या कराई, वह यदि आप के शाप के योग्य हो तो शाप दे दीजिये। सचमुच में बडा कृतघ्न हूं। मैंने बडा पाप किया। श्राप से क्षमा मागू तो किस मुंह से? आखिर सामुदाणी कम ही होते है जो किसी समय, जीव अशु, भावना से बाधते हैं- गाधारी को क्रोध आ रहा था, पर वह कुछ बोली नहीं । युधिप्टिर की, बार्तों से वह नम हो गई । इतने में ही द्रौपदी रोतो. हुई गांधारी के पास गई। उसे रोता देख गांधारी बोली-"बेटी ।। मेरी ही भांति तु भी दुखी है। पर विलाप करने से क्या होता है। तू मुझे इसके लिए दोषी समझ कर क्षमा कर दे". । ... पाण्डव वहाँ से चले गए। गाधारी द्रौपदी को धैर्य बंघाती "रही। कितना करुण दृश्य था वह, एक शोक विह्वल नारी' दूसरी नारी को धैर्य बंधा रही थी, उस नारी को जो उसकी पत्नी थी। 'जिंस के प्रति गाधारी कुपित थी। ' Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाधारी की फटकार - धृतराष्ट्र पाण्डवों को अपने साथ ले गए। एक बार पुनः हस्तिनापुर में उत्सव मनाया गया। बड़े ठाठ से युधिष्ठिर की सवारी निकली । और फिर युधिष्टिर आनन्द पूर्वक राज करने लगे। धृतराष्ट्र को वे सभी प्रकार का सुख देते थे । तो भी उसके मन की वेदना मिटती न थी । वे भूमि पर ही सोते थे और लम्बे लम्बे उपवास करते थे। कुन्ती गांधारी के मन को बहलाने की चेष्टा करती रहती। विशेष सूचना इसके आगे श्री नेमनाथ जी का विवाह देवकी का. लाल गज सुकमाल का वर्णन महा सति द्रौपूता का हरण श्री कृष्ण जी महाराज को धात्री खण्ड में जाना विजय प्राप्त करना और द्रौपता की वापिस ना द्वारका नगरी दहन श्री तेमनाथ भगवान का त्याग पाण्डवो की गवृति.मोक्ष ग़मन, सती राजमती का, त्याग सती द्रौपता का हार पोर मोक्ष गमन इत्यादि जैन महाभारत के तृतीय भाग में पढ़ें। Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारे मौलिक प्रकाशन : . . . मूल्य संख्या पुस्तक नाम 1 शुक्ल जैन रामायण (पूर्वार्द्ध) ... ... 3-0-02 , , उत्तरार्द्ध ... ... 4-0-fa 3 प्रधानाचार्य पूज्य सोहन लाल जी म० कार्य आदर्श जीवन ... ... ... 4-0-15 4 पजाब केशरी जैनाचार्य पूज्य कांशीराम जी म० का श्रादर्श जीवन 5 शुक्ल जैन महाभारत प्रथम भाग . ... 5-0-0 6 , , द्वितीय , ... 5-0-0 7 धर्म दर्शन ( दस धर्म विवेचन )... ... 2-0-0 8 मुख्य तत्त्व चिंतामणि... ... ... 0-62 न.पं. '9 तत्त्व चितामणि भाग एक (विस्तार सहित) ... 0-75 ., -10 , , , , दो , , ... 0-75 ,, 11 . , , , तीन , , .... 0-750 12 तैतीस बोल- , , ... '0-15ml ....... प्राप्ति स्थान 1. 1 पूज्य सोहन लाल जैन रजोहरण पात्र भण्डार अम्बाला शहर (पजान) 2 पूज्य कांशी राम स्मृति ग्रन्थ माला 12 लेडी हाडिंग रो नई देहलो। Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राप्ति-स्थान ला. टेकचन्द सुखदेव राज जैन कोतवाली बाज़ार अम्बाला शहर ( पजाब) ला. कान्ता प्रसाद जैन ( जल्लाबादी ) कान्धला ( मुजफ्फर नगर ) 3 पूज्य सोहन लाल जैन पात्र भंडार अम्बाला शहर ( पजाब ) 4 श्री प्रीतम चन्द जैन . 36 F कमला नगर, देहली 5 जिनेंद्र प्रिंटिंग प्रेस, राजपुरा (पजाव) '