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जैन महाभारत
पहले ही कहा था कि इस युद्ध से हमे कोई लाभ नही होने वाला। सुना आप ने मेरा लाडला बेटा इरावान ससार से चला गया।"
कृाण बोले-पार्थ बेटे की मृत्यु पर इतना दुःख क्यो प्रगट करते हो। उसे तो एक न एक दिन जाना ही था। ससार मे अमर कौन है ? इरावान वीरगति को प्राप्त हुआ है। यह दुख की तो वात नही । कई कौरव भी तो तुम्हारे हाथों मारे गए।"
श्री कृष्ण कौरवो की बात कह कर अर्जुन को सान्त्वना देना चाहते थे । पर अर्जुन के मन पर गहरा घाव हुआ था। कहने लगा -"गोविन्द ! कौरव भी मारे गए और इधर कुछ हमारे वीर काम आये । यह सब कुकर्म धन के लिए ही तो हो रहा है। धिक्कार है ऐसी सम्पति को जिसके लिए इस प्रकार वन्धु-बान्धवो का विनाश हो । भला यहा एकत्रित हुए अपने भाईयो और अपने पुत्रो का वध करके या कराके हमे क्या मिलेगा ?"
अर्जुन के शब्दो मे युद्ध के प्रति उदासीनता थी। ऐसी बात देख कर श्री कृष्ण को शका हुई कि कही अर्जुन पुन' युद्ध से हाथ न खीच ले । वोले-"पार्थ | यह जो कुछ हो रहा है पापी दुर्योधन शकुनि और कर्ण के कुमन्त्र से ही तो। उन के षडयन्त्र से हो रहा है विवश रोकना उदासीनता से तो सम्भव नहीं। क्या द्रौपदी के अपमान की बात भूल गए। तुम्ही ने तो प्रतिज्ञा की थी कि उस सतो के साथ अन्याय करने वालो को तुम अपने गाण्डीव से दण्ड दोगे ? वीर पुरुष मोह वश युद्ध से पैर पीछे नही हटाया करते।"
अर्जुन बहुत देरि तक इरावान को याद कर के दुःख प्रगट करता रहा और अन्त मे जव श्री कृष्ण ने कहा- 'धनजय । इरावान से तुम्हे कितना प्रेम है, तुम्हारे हृदय पर उनकी हत्या से कितनी चोट पहुंची है, इसका पता कल युद्ध में चलेगा। तुम्हारे गाण्डीव म छूटे बाण कल को इरावान के हत्यारो के लिए यमदूत बन जान चाहिएं । वीरो से स्नेह प्रगट करने का यही सर्वोत्तम उपाय है।"
अर्जुन के रक्त मे क्रोध तथा उत्साह सचार हुआ और उसकी मुठ्ठियां वध गई। मुख मण्डल "दृढ हो गया और पाखो मे अरुणाइ दोड गई। आवेश मे आकर कहा-"गोविन्द ! कल को मैं इरावान के हत्यारो पर विजली बन कर टूट पड़ेगा। विश्वास रखिये। अपने बेटे की हत्या का बदला अवश्य लूगा।"