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________________ * उन्तालीसवां परिच्छेद * न। आठवां दिन । सभी जानते है कि रण क्षेत्र में उतरने पर किसी को कुशलता अनिवार्य नहीं है। वल्कि रण मे उतरने वाले अपने सिर पर कफन वाध कर जाते है । ऐसा समझा जाता है। और क्षत्रिय वीर के रण में काम आने पर वीरगति को प्राप्त हया माना जाता है। महाभारत मे तो भरत खण्ड के सभी शरवीर किसी न किसी ओर से लड़ रहे थे। एक ओर ग्यारह अक्षौहिणी सेना थी तो दूसरी ओर मात। परन्तु सात अक्षौहिणी सेना वालो पाण्डवो की स्वय की शक्ति इतनी अधिक थी कि ग्यारह अक्षौहिणो सेना वाले कौरव भी उनका सामना करते समय अपनी विजय के प्रति आश्वस्त थे, ऐसा नहीं माना जा सकता। इतनी भयानक टक्कर में कोई वीर काम प्रा जाये तो न आश्चर्य की ही बात हो सकती हैं और न रण वीरो को वीरगति को प्राप्त हए वीर पर अश्रपात करना हो सोभा देता है । फिर भी मोह हो तो ससार चक्र और आवागमन के चक्र को चलाते रहने का कारण है। गृहस्थ्य व्यक्ति मे मोह न हो तो गृहस्थ्य ही क्या रहे, उसे तो विरक्त हो जाना चाहिए। इस लिए अर्जुन को ' यम का मर्म ज्ञात होने और आत्मा के विभिन्न जन्म धारण करते -', 'हन का रहस्य मालम होने पर भी और रण मे काम प्राये वीर पर ग्रासू बहाना व्यर्थ समझते हए भी, इरावान की मृत्यु का नगर सुन कर बहुत दुःख हुया। कुछ देर के लिए वह मन्न सा या। उन के हृदय पर बड़ा प्राघात लगा। उस का मन कार कर उठा। श्री कृष्ण से कहने लगा-मधु सूदन । मन
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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