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आठवा दिन
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श्री कृष्ण मन ही मन मुस्कराये। उन्होने अर्जुन के जोग को और हवा दी।
इधर अर्जुन को श्री कृष्ण प्रोत्साहित कर रहे थे उधर दुर्योधन भीष्म पितामह के पास अपना रोना रो रहा था ।वह कह रहा था--- "पितामह । पाण्डवो को जैसे श्री कृष्ण का सहारा है, वैसे ही आप का आश्रय लेकर हमने पाण्डवो से युद्ध ठाना है। मेरे साथ ग्यारह अक्षौहिणी सेना है। आप जैसे कुशल सेनापति है। ससार के सर्व श्रेष्ठ योद्धा मेरे पक्ष मे है। फिर भी पाण्डवो की सात अक्षौहिणी सेना ही हमारा नाक में दम किए हुए है। कुछ तो भीम पुत्र घटोत्कच के मुकाबले पर मेरी जो पराजय हुई उसे देख कर मैं प्रात्म ग्लानि के मारे मरा जा रहा हूं। पितामह । जो कुछ हो रहा है उसे देखते हुए मैं विक्षब्ध हो उठा ह। आप कल को कुछ ऐसा को जिए कि उस चचल कुमार घटोत्कच से मैं अपना वदला ले सक । यदि वह जीवित रहा तो न जाने हमे कितनी क्षति उठानी पड़े। मेरे भाईयो का वध हो जाना, इतनी शक्ति के होते हुए, मेरे लिए डूब मरने की बात है। पितामह ! आप कदाचित न समझ पाये कि उस समय मेरे दिल पर क्या बीत रही है।" पितामह । गम्भीरता पूर्वक सारी बातें सुनते रहे और दुर्योधन ने जब अपनी चात समाप्त कर ली तो वोले--"बेटा । पाण्डव म्वय इतने बलवान है। कि तुम्हारे पास दो तीन अक्षौहिणी सेना और भी होतो तो भा सहज मे हम जीत न पाते। उनके सामने हम सव उहर पा रहे हैं यही बहुत है।"
पितामह की बात सुन कर दुर्योधन जल उठा। ग्रावेश में आकर वोला--" पितामह । पाप की बातो से मुझे पाण्डवो की प्रशसा की गन्ध पा रही है। आप इस तरह की बाते करते है मानो में कुछ भी नहीं है। आप के मन में ऐसा ही था तो आपने युद्ध प्रारम्भ होने से पहले ही क्यो नही कह दिया, मै युद्ध हो न पाता। अब जब कि हम रणागण मे प्रा डटे आप ऐसी बाते कह कर मुझे हतोत्साह कर रहे हैं।"
. "ग्रावेश में प्राकर कुछ नही हो सकता-पितामह शानि धूचना बोले-तुम्हें सत्य कटु नहीं लगना चाहिये। शभु की गति । एक कम प्राकना भारी भूल होगी। मेरे कहने का तो अर्थ यह