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जैन महाभारत
है कि तुम्हे अपनी क्षति की चिन्ता न करके उत्साह पूर्वक युद्ध करना चाहिए। यदि घटोत्कच से तुम पराजित हो भी गए तो ऐसी क्या बात है कि तुम आत्म ग्लानि के मारे खिन्न हो। " ।
"पितामह । मेरे मन को तो शाति तभी मिलेगी, जब कल को उस धूर्त का सिर काट लू गा। आप मेरी सहायता कीजिए।" दुर्योधन ने कहा।
"बेटा । घटोत्कच को जाकर तुम ललकारो यह तुम्हे शोभा नहीं देता--भीष्म पितामह ने कहा-तुम राजा हो। तुम्हे युधिष्ठर भीम, अर्जुन और नकुल महदेव से युद्ध करना ही उचित है । घटोत्कच जैसो के लिए मैं, कृपाचार्य, द्रोणाचार्य, अश्वस्थामा, कृतवर्मा, भूरिश्रवा और दु शासन आदि है। और कोई नहीं तो राजा भगदत्त ही उस से युद्ध करने जाये"
दुर्योधन को यह सुन कर बडा सन्तोष मिला । वह बोला"आप की ऐसी ही राय है तो फिर भगदत्त को ही घटोत्कच को लल- : कारना चाहिए। मेरे विचार से घटोत्कच उन के सामने नही ठहर ' सकता ।"
"हा | मेरी भी यही राय है।"
बस वात निश्चित हो गई और दुर्योधन अपने शिविर मे लौट प्राया। X X X
X रणागण मे दोनो ओर की सेनाए जा खडी हुई। दोनो ओर के सेनापतियों ने अपनी अपनी सेनामो की व्यूह रचना की और अन्तिम, आवश्यक हिदायते देकर रण की तैयारी के विगुल बजाये। तमाम रणक्षेत्र शख ध्वनिया और सिंहनादो से गूज उठा।
सेनापति की प्राज्ञा पाकर शूर भगदत्त सिंहनाद करता हुआ वडे वेग से शत्रुनो की ओर चला। उसे अपनो ओर पाते : देख पाण्डवो के महारथी भी ममेन. अभिमन्यु , घटोत्कच, द्रौपदी के पुत्र सहदेव , चेदिराज, वसुदान, और दशणराज क्रोध मे भर कर उसके सामने जा डटे। भगदत्त ने भी सुप्रतीक हाथी पर सवार होकर इन महारथियों पर धावा बोल दिया। तदनन्तर पाण्डवो का भगदत्त में भीषण सग्राम छिड़ गया। दोनो ओर से रण-कौशल के विचित्र