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जैन महाभारत तथा शुभ प्रकृति वाला व्यक्ति है, उसकी बात कभी असत्य सिद्ध नहीं' होंगी। इस लिए मेरे तो दोनों हाथो मे लड्डू हैं । जीत हर प्रकार से मेरी ही है । अहा हाइ हाइ हाइ" ..
बात यह थी कि सिन्धु देश के प्रसिद्ध नरेश वृद्ध क्षय, के एक पुत्र हुआ. जिसका नाम रक्खा गया जयद्रथ । बडी तपस्या के पश्चात यह पुत्र हुअा था। इस कारण वडा ही आनन्द मनाया गया । ज्योतिषियो से इसके जीवन के सम्बन्ध मे पूछा गया। तब उन्होने बताया कि जयद्रथ बडा -ही-यशस्वी व परम प्रतापी-संजा बनेगा, किन्तु एक श्रेष्ठ क्षत्रिय के हाथो सिर काटे जाने से- इसकी मृत्यु होगी।
यापि वृद्ध क्षय बडा ही- धर्म' ध्यानी, सच्चरित्र, सुशील; गुणी, विद्यावान और धर्म के मर्म का ज्ञाता था, और वहां जानता था कि यह शरीर नाशवान है, आत्मा अपने किए कर्मों का फल भोगता ही है, उसे अपने कर्मानुसार चोले बदलने'हाते हैं. जिसे जीवन मिला, उसके लिए मृत्यु, अवश्यमभावी है तथापि बडे बडे ज्ञानियो और तपस्वियो तक को अपने प्रिय जनो की मृत्यु पर खेद होता ही है अत. वृद्ध क्षय भी घोर तपस्या से प्राप्त पुत्र रत्न की, मृत्यु की भविष्य-वाणी- सुनकर व्यथित-हो गया और उसने कई सप्ताह निराहार जाप किया, फिर घोषणा की कि जो मेरे पुत्र का सिर काट कर-पृथ्वी पर गिरायेगा, उसी क्षण उसके भी सिर के सौ. टुकडे हो जायेगे। ,
जयद्रथ के व्यस्क हो जाने पर वद्धं क्षय ने राज-सिंहासन पर' जयद्रथ को बैठाया और स्वय- पंच महीं व्रती, साधु वृति घरिण कर ली। - .. . .
' । द्रोणाचार्य अपनी शैय्या पर पडे करवंटे बदल रहे थे। जयद्रथ वहां पहुचा और चरणा पकड कर प्रणाम किया। फिर विनीत भाव से पूछा-'आचार्य । इस समय पाने के लिये' मुझे क्षमा करें। में यह जानना चाहता हु कि आम ने मुझे और अर्जुन को एक साथ ही अस्त्र-विद्या सिखाईथी। क्या हमदोनो की शिक्षा मे कोई अन्तर है ?. अर्जुन मुझ से किसी बीतामे अधिक तो नही ?" - द्रोणा जानते थे कि यह प्रश्नः क्यों पूछा गयाँ हैं, वे बोले