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________________ जयद्रथ वध "जयद्रथ | तुम दोनों को मैंने तो एक जैसी ही शिक्षा दी थी। परन्तु आपने लगातार अभ्यास ओर अपनी कठिन तपस्या के कारण, साथ ही अपने पूर्व सचित पुण्य तथा शुभ प्रकृति के कारण अर्जुन तुम से वढा-चढ़ा है इस में कोई सन्देह नहीं।" ____ जयद्रथ को हृदय कांप उठा। बोला- तो फिर क्या अर्जुन _ मुझे . . ?" - "नहीं, नही, तुम्हे भयभीत न होना चाहिए-द्रोण ने बात समझते हुए बीच मे ही कहा-कल हम ऐसे व्यूह की रचना करेगे जिसे तोडना अर्जुन के लिए भी दु साहस होगा। उस व्यूह के सबसे पिछले मोरचे पर हम तुम्हे रक्खेंगे, तुम्हारी रक्षा में अनेक वीर रहेंगे। व्यूह के अगले मोरचों पर मैं स्वय रहूंगा। फिर तुम तो क्षत्रिय हो। अपने पूर्वजो की शानदार परम्परा को जीवित रखते हुए निर्भय होकर युद्ध करो। यमराज तो हम सद का पीछा कर रहे है, अन्तर इतना है कि कोई पहले जाता है, किसी को पीछे जाना है । सभी को अपने अपने कर्मों का फल भोगना है, तुम्हे भी और मुझे भी। तुम या मैं इस से बचकर भागकर और कही जा ही कहा सकते हैं।" सारी रात वेचारे जयद्रथ ने व्याकुलता से गुजारी। विल्कुल उसी सैनिक की भाँति जिसे स्वर्ण सिंहासन पर बैठाकर उसके सिर पर नंगी तीक्ष्ण तलवार बाल में बांध कर लटका दी गई हो। उसे चारों ओर अर्जुन ही गाण्डीव लिए हुए दिखाई देता। X :-* -X X X X X पक्षियो का कलख प्रारम्भ हो गया, अधकार की चादर को विदाण करती सूर्य की स्वणिम किरणें फुट निकलीं । छावनियो में चहल पहल प्रारम्भ हो गई . ज्यो ही सूर्य की किरणे सफेद हुई, द्रोणाचार्य अपने शिविर से बाहर निकले, तैयारी का शख नाद हुआ बार कुछ ही देरि वाद सेनाएं रण क्षेत्र में पहुंच गई। द्रोणाचार्य अपना सेना की व्यवस्था में लग गए। सबसे पीछे जयद्रप की अपनी सेना व सरक्षकों के साथ रक्खा गया। उसकी रक्षा के लिए भूरिअवा, कर्ण, अश्वस्थामा, शल्य वषसेन प्रादि महारधी अपनी सेनाओं साहत सुसज्जित खड़े थे। इन वीरों की मेना और पाण्डवों की
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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