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जैन महाभारत
यात्म
सजे है। आप जैसे उच्च विचारों और शेर्भ वादी व्यक्ति की कभी पराजय नहीं हो सकती।"
-- -- ..... - . प्रात्म प्रशसा सुनने के बाद भी युधिष्ठिर गम्भीर ही रहे। उन्हो के चेहरे पर प्रसन्नता का एक भाव भी द्रवित न हुअा ठीक है महाँ पुरुष ने अपनी प्रशंसा,सुन कर प्रसन्न होते और ने अपनी आलोचना से खिन्न हो। वे गम्भीरतापूर्वक बोले-"सजय ! आप के द्वारा प्राप्त धृतराष्ट्र के सन्देश से अपार प्रसन्नता हुई है आप उन से जाकर मेरी ओर से कहे कि हमे उन पर विश्वास है हम ने अपने स्वर्गवासी पिता जी के स्थान पर माना है। उन्ही की कृपा से हमे प्राधा राज्य मिला था और आज यदि वे चाहे और हृदय से प्रयल करे तो व्यर्थ का रक्त पात बच - सक्ता है। यदि दुर्योधन हमे जीवन यापन के लिए पाच ग्राम भी देना स्वीकार कर ले तो हम धृतराष्ट्र की सेवा करते हुए अपना जीवन निर्वाह कर लेंगे। धृतराष्ट्र हमारे लिए सदा आदरणीय रहे हैं और रहेंगे। उन्ही की कृपा से १२ वर्ष के बनवास व ५ वर्ष अज्ञातवास की शर्त पर हमे राज्य वापिसी का आश्वासन मिला था। यदि वह वचन वे पूर्ण करादे तो अहो भाग्य। हम रण भूमि में उनके पुत्रो के शत्रु रूप मे पाने की इच्छा नहीं रखते, परन्तु हमे ऐसा करने को विवश किया जा रहा है। श्री कृष्ण जी उनके पास पहचेंगे। वे दृढता पूर्वक अपने मनोबल को प्रयोग कर के सन्धि का मस्ता खुलवा दें। हम जीवन भर उनके आभारी रहेगे।"
__ "आप भीष्म पितामह से जाकर कहे कि पाण्डवो को उनकी न्याय प्रियता पर पूर्ण विश्वास है। उन्हो ने हमारे दूत के साथ जो सौजन्यता दाई है हम उस के लिए आभारी है। हम जानते है। कि वे शाति के कितने बडे समर्थक है । वे { न्याय प्रिय है। वे यदि चाहे तो हम जीवन भर य ही बनों में भटकते फिरने के लिए भी तैयार है परन्तु उनके रहते कौरव पक्ष ' की ओर से अपने वचन का उल्लघन हो यह उन के लिए भी लज्जा की बात है। हमे चाहे किसी रूप में भी रहना पड़े पोर चाहे अन में दुर्योधन को हल ने विवश होकर शत्रु स्प मे भी रण भूमि