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________________ सन्धि वार्ता ३०५ - - सजय ने श्री कृष्ण की बात सुनी। उसने अनुभव किया कि श्री कृष्ण को बात में कौरवो के लिए एक धमकी भी छिपी है और उन्हें विश्वास हैं कि महायुद्ध में पराजय कौरवो की ही होगी । कुछ सोच कर सजय बोला -- "आप हस्तिनापुर आकर यदि समझाने का प्रयत्न करेंगे तो सम्भव है आप के कहने व समझाने बुझाने से दुर्योधन मान जाय । . परन्तु एक बात का ध्यान आप अवश्य ही रक्खे कि दुर्योधन के मूर्ख सलाह कार उसे भडकाते रहते हैं इस बात को आधार बना कर कि देखा, पाण्डवो की श्रोर से घमकी दी जा रही है। और दुर्योधन को अपनी शक्ति पर अभिमान है इस लिए आप किसी भी प्रकार दुर्योधन के सहयोगियो का उसे उत्तेजित करने का अवसर न दें ।" श्री कृष्ण सजय के परामर्श पर मुस्करा दिए । युधिष्ठिर ने कहा - "श्री कृष्ण जी ! आप जाकर जिस तरह भी हो सन्धि का उपाय खोजे यदि दुर्योधन हमे हमारा पूर्ण राज्य भी न दें तो हम केवल ५ गाँव तक ले कर भी सन्तुष्ट हो सकते हैं . ग्राप चाहे तो यह न्यूनतम माग उस से स्वीकार करा कर युद्ध टाल सकेंगे ।" V श्री कृष्ण ने युधिष्ठिर की उदारता की भूरि भूरि प्रसा की । अन्त मे बोलें युधिष्ठिर ! इतनी शक्ति होने और इतनी विशाल सेनाओ का सहयोग प्राप्त कर चुकने के पश्चात भी इतनी न्यूनतम शर्त पर सन्धि करने को तैयार होकर आप ने जो उदारता न्याय प्रियता, धर्म प्रियता और शान्ति प्रियता दर्शाई है, उसको कदाचिन आप के अतिरिक्त प्राज के युग मे किसी से भी आशा नही की जा सकती। आप की ओर से इतनी छूट देने पर तो संन्धि हो जानी चाहिए। परन्तु यदि इस दशा में भी सन्धि न हुई तो फिर आप का रणभेरी बजा देना पूर्ण तथा न्यायोचित होगा ।" - ! सजय को युधिष्ठिर की बात सुन कर बहुत ही सन्तोष हुआ और मन ही मन उस ने युधिष्ठिर की बहुत प्रशसा की 1 मन हो मन वह युधिष्ठिर की उदारता के प्रति तनमस्तक हुआ और प्रत्यक्ष रूप मे कहने लगा--''धन्य धन्य राजन् ! ग्राप वास्तव मे धर्म 4
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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