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जन महाभारत
के लिए लड़ना हम अपना कर्तव्य समझते है। हा इस सम्बन्ध मे यह अवश्य ही समझते है कि यदि दुर्योधन किमी भी गर्त पर हम मे मन्धि करने को तयार हुग्रा तो हम मन्धि करना ही अच्छो समझेगे। हम अपने पुरे राज्य को वापिस लेने की जिद नहीं करते। और अन्त मे निर्णय श्री कृष्ण पर छोडते है वे दोनो ही पक्ष के हितचिन्तक हैं और धम के मर्म का भी समझते है "
श्री कृष्ण उस समय वहा विराजमान थे ! बोले "ठीक है जहा मैं पाण्डवो का हितचिन्तक हू वही कोरवो को भी मुखी देखना चाहता हू। परन्तु समस्या इतनी जटिल हो गई है और दुर्योधन उसे इतना जटिल बनाता जा रहा है, कि इसे मुलझाने के बारे में एक दम कुछ नहीं कहा जा सकता ।''
"फिर भी श्राप किमी प्रकार इमे सुलझाने का तो प्रयन्त करे। ही।"-सजय बोला।
“धत राष्ट्र गाति चाहते है। हम सन्धिवार्ता के लिा पहले हो दूत भेज चुके हैं। और हमे ज्ञान, हुआ है कि भीम जी तथा विदुर जी दोनो ही शाति व सन्धिं के पक्ष मे है। फिर तो समस्या मुलझ जानी चाहिए। श्री कृष्ण जी स्वय ही एक वार प्रगल कर के क्यो न देख ले ।"-युधिष्ठिर ने कहा ।
श्री कृष्ण कुछ मोचने लगे। थोड़ी देर मभी चुप रहे अन्त में उस चुप्पी को भग करते हुए श्री कृष्ण ने कहा-"मेरा विचार यह है कि मुझे एक बार स्वब ही हस्तिनापुर जाना होगा। पर दूसरी ओर मैं यह भी समझता है कि भीम , विदुर तथा धृतराष्ट्र की इच्छा सन्धि के लिए हो सकती है, परन्तु दुर्योधन अपने हठ वादी तथा मूर्व परामर्श दाताओ की कृपा से सन्धि के लिए कभी तैयार हो सकता है इस मे सन्देह है। फिर भी एक बार मैं उसे अवश्य ही समभाऊगा। प्रयत्न करूगा कि यह महायुद्ध छेड़ कर अपनी मृत्यु और अपने परिवार के नाश को निमन्त्रित न करें।"