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________________ मन्धि वार्ता २०३ मंजय ने फिर कहा-"महाराज धनराष्ट म्वय अपन पत्रा को हेठ से दुखी है। वास्तव मे धनगष्ट्र के पुत्र निरे मूर्ख हैं। वे न अपने पिता की बात पर ध्यान देते है और न वे भीष्म पितामह को हो- सुनते है । ये तो अपनी मूर्खता की धुन मे ही मम्न है। फिर भी आप तो धर्मराज है, मबृद्धि है अाप को उनकी मूर्वतारो मे उत्तेजित नहीं होना चाहिए। क्योकि यदि युद्ध छिडा तो एक ही वश की सन्ताने मारी जायेगी। ग्राप यद्ध के द्वारा च'हे पहाड़ी से लेकर मागर तक का राज्य भी जीत ले, पर तलवार तथा धनुष बाण जैसे अस्त्र शस्त्रों. मे वद्धावस्था तथा मृत्यु पर विजय नहीं- 'म सकते। त्याग ही सुख की प्राप्ति का साधन है। इस लिए पाप जसे धर्म बुद्धि व्यक्ति को कभी भी यद्ध की बात नही करनी चाहिए। हठ वादी दुर्योधन अपनी मुर्खता के कारण चाहे एक बार आप को गज्य देने से भी क्यो न इन्कार करदे, फिर भी आप युद्ध की बात-न-करे। - धृतराष्ट्र आy की बुद्धि पर विश्वास करते है। उन्ह ग्राप पर पुत्र वन प्रेम है और आप के प्रति उन्हे दर्योधन से अधिक विश्वास है। इस लिए वे चाहते हैं कि आप युद्ध का विचार त्याग कर धर्मानुकूल जीवन बिता कर समार मे यश प्रात करे । यदि दुर्भाग्यवश युद्ध छिड गया तो सब मे अधिक -दुख धृतराष्ट्र को होगा क्योकि रक्त चाहे कौरवो का वहे चाहे कुन्ती नन्दनो-का उनके लिए एक ही बात है। इस लिए मैं बार बार कह रहा हू उसका तात्पर्य यह है कि पाप राज्य से अधिक धर्म को चिन्ता करे " सजय की बात सुन कर युधिष्ठिर वोले - "सजय । सम्भव है । आप की ही बात सच हो। और यह बात तो बिल्कुल सच है हो कि हमे राज्य से अधिकं धर्म की चिन्ता होनी चाहिए। क्यों कि केवली प्रभु का भी यही कथन है कि धर्म ही मनुप्य का कल्याण करता है, यही एक मात्र सहारा है। धर्म से ही मनुष्य को वास्त. विक सुख प्राप्त होता है। राज्य तथा धन सुख प्राप्ति के साधन नही। फिर भी हम यह समझ कर अन्याय को बढते रहने. या फूलने फलने के लिए नही छोड सकते। हम न्याय के रक्षक है। जब तक गृहस्थ्य धर्म मे हैं तब तक अन्याय को रोकना तथा न्याय
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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