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जैन महाभारत
है कि कही प्रजा विद्रोह न कर बैठे। हम लोक निन्दा और अपयश पात्र तो हो ही चुके है पर कही हस्तिनापुर से भी हाथ न धोना पड जाय। इस लिए अब भी समय है कि तुम पांडवो से प्रेम स्थापित कर लो। इसमे तुम्हे यश भी प्राप्त होगा और निश्चित रूप से आनन्द मगल भी।
पिता के मुख से पाडवो की प्रशसा सुन कर दुर्योधन के हृदय मे एक बार फिर टीस सी पैदा तो हुई। परन्तु अवसर की अनुकूलता नहीं थी। प्रत जहर की सी घुट पीते हुए, अपने रचे हुए जाल मे फसाने के लिए प्रत्यक्षत स्वर मे कोमलता प्रदर्शित करते हुए बोला -
- पिता जी मैं इस से नही घबराता कि कौन पाडवो का । साथी है। और कितनी उनमे शक्ति है। हमारे भी मित्रों की कमी नही मुझे अपनी शक्ति का पूर्ण विश्वास है। मैं जब चाहे पाडवो को सदा की नीद सुला सकता है। परन्तु 'मुझे दुख तो इस बात का है कि मैं जैसे २ पाडवो को चाहता हू वे त्यो त्यो प्रजाजनों में अधिक सन्मान के पात्र बनते जाते हैं । और हमे प्रतिष्ठा के स्थान पर अपयशकाभागी बनना पडता है। इस लिये कोई ऐसी युक्ति ' सुझाइये कि जिस से हमे भी ससार आदर की दृष्टि से देखने लगे और आप का सर्वत्रं जय जयकार होवे।
बेटा तुम ने आज मेरे हृदय को अमृत से सीच दिया। भगवान तुम्हे सदा ही सबुद्धि देवे। पुत्र स्मरण रक्खो, यश रूपी वैभव से जो सम्पन्न है वह तीनो काल मे सुखी और अजर अमर है और अपयशभागी त्रैलोक्येश्वर होकर भी दीनहीन और मृत प्राय होता है। अतः सर्वदा वह कार्य करो जिस से तुम्हारे यश की वृद्धि हो। दूसरे को बढाने से ही मनुष्य वृद्धि पाता है। जितना किसी को सुख प्रदान करोगे उतनी ही तुम्हारी वृद्धि होगी। यश प्राप्ति होगी! जितना किसी को सतायोगे, रुलाओगे, गिराओगे, उतना ही तुम्हे भी कष्ट उठाना पडेगा, रोना- पडेगा और ससार की दृष्टि से गिर जाओगे। इस लिए पुत्र यदि तुम यशस्वी