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________________ दुर्योधन का कुचक्र १०५ एव सुखी बनना चाहते हो, तो सबसे प्रथम अपने भाई पांडवों के सुखो का निराकरण करो कि जिनको तुमने राजराजेश्वर की गद्दी में दीनहीन भिक्षुको की सी. दयनीय स्थिति मे ला पटका है यदि तुम उन्हे सुख सुविधाए प्रदान करो, तो प्रजा तुम्हारा अवश्य अभिनन्दन करेगी। और वत्स, मैं तो यह समझता हू कि यदि उनका राज्य तुम उन्हे समर्पण करदो, समस्त विसवाद ही समाप्त, हो जाये और ससार भर मे तुम्हारा जय जयकार गूज उठे। प्रेम से दुलारते हुए अन्धे राजा ने दुर्योधन को सम्मार्ग पर लाने की चेप्टा की। पिताजी श्राप का, कथन धर्म नीति अनुमोहित है। सभी ग्रन्थ एव वृद्धजन यही कुछ. समझाते है परन्तु मैं तो राजनीतिज्ञो. के इस कथन को प्राथमिकता प्रदान करता हूं कि शत्रु एवं काटों को जब भी समय मिले मसल डालना चाहिये। परन्तु देखता हू कि इस पथ पर अग्रसर होते हुए प्रत्येक अवसर पर मुझे लाछित ही होना पड़ा है।' -अत. हृदय से न चाहते हुए भी; मात्र आप की आजा को शिरोधार्य कर, एक बार इस शिक्षा की भी परीक्षा करके देख लेता है। यदि इसमे कुछ हृदय को समाधान एव लोक मे सफलता प्राप्त हुई, तो फिर जैसे भी आप को याज्ञा होगी उसे विना ननुनच के स्वीकार करता रहूगा। परन्तु वर्तमान मे मुझे 'यह उचित नही जचता कि मैं पोंडवों को सहसां राज्यं प्रदान कर दू। दुर्योधन ने कहा। - हा. दुर्योधन तुम्हारा कथन सोलह आने सत्य है। यदि इस समय पांडवों को राज्य लौटाया गया तो लोग समझेंगे कि दुर्योधन पाडवों से डर गया है। दूसरे इस समय वे लोग अपने किये का भोग रहे है। जो उन्होने महाराज का अपमान किया था अव उसका उनको स्वाद मिल रहा है । गर्मी सर्दी भूख प्यास आदि से व्याकुल होते हुए अवश्य हो तुम्हारे ऊपर दात पीसते होगे। यदि ऐसे समय राज्य की वागडोर उनके हाथो समर्पण कर दी तो वह "हाथ धो कर तुम्हारे पीछे पड़ेगे। आश्चर्य नही उस समय हमे ही राज्य से हाथ न धोने पड़ जायें। इस लिये भले वनने की धुन में । कही अपने पैरो, पर कुल्हाड़ी न, मार,बैठना। वात सम्भालते हुए
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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