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दुर्योधन का कुचक्र
ही कहते है कि प्रांखो से तो श्रधा था ही, अब हृदय की भी फूट गई है । पिता जी, सच कहता हूं कि इस अपमान से जीवित रहने की अपेक्षा मर जाना श्रेयस्कर है ! मन करता है इन राज्यद्रोहियों को चुन चुन कर मौत के घाट उतार दूं । परन्तु आपकी - कोमल प्रकृति से विवश हो कर दांत पीस कर रह जाता हूं। अब जब सिर से भी पानी गुजरने लगा तो मेरे लिए आप से निवेदन करना आवश्यक हो गया है।
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वृद्ध धृतराष्ट्र बुद्धिमान थे, न्यायशील भी। अपने भतीजों के प्रति उन्हे कुछ स्नेह भी था । उन्हे अपने पुत्रों के प्रति मोह था । उनके चक्षु ज्योति हीन थे । उनके स्वभाव मे दृढ निश्चय करने और उस पर चलते रहने की कमी थी । किसी बात पर वे स्थिर नही रह सकते थे । अपने हठी पुत्र दुर्योधन को वश मे रखने की उनमे क्षमता नही थी । इसी कारण यह जानते हुए भी कि दुर्योधन कुपथ पर जा रहा है, उसे रोकने अथवा सुपथ पर लाने मे असमर्थ थे । इसके कार्यों को देख देख कर उनके मन मे पीडा होती । पर वे मन ही मन मैं घुटते कुडते रहते पर प्रत्यक्षत कुछ कह न पाते थे । परन्तु आज अपने पुत्र की बातो को सुन कर जहा उन्हे अपने अपमान को जान कर दुख होना चाहिये था प्रत्युत प्रसन्नता हुई । उन्होने सोचा, चलो सुबह का भूला शाम को भी घर ग्रा जाये तो खैर ही है । शायद कोई रास्ता ऐसा निकल आये जिससे अब यह पाडवो से विरोध करना त्याग देवे और प्रेम पूर्वक साथ रहना स्वीकार कर लेवे । इत्यादि विचार करते हुए राजा धृतराष्ट्र ने चिन्ता व्यक्त करते हुए कहा
पुत्र, गुलाब केतकी कस्तूरी किसी से चिचोरिया करने नही जाती कि तुम हमे सुगन्धित रूप मे वखानो । पारखी स्वयं उनकी सुगन्ध से श्रापित होता है और प्रशंसा करता है । त्यो पांडव धर्मात्मा है, गुणवान हैं, सबसे समान स्नेह रखते हैं । इसी कारण प्रजा भी उन्हे चाहती है। उनकी सहायता करने वालों की भी कमी नही है । और जब से तुमने द्यूत के द्वारा पाडवो से विरोध खडा किया है। तब से प्रजा तो क्या हमारे वश के प्रतिष्ठित समस्त पुरुषो की भी दृष्टि से गिर गये हो । मुझे यह भय सताता रहता