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________________ १०२ “जन महाभारत रूपी लावे से न्याय-नीति सौजन्यता. या मानवता रूपी कल्पद्रम झुलसते जा रहे थे। वह ऐसा उपाय दढ निकालने मे निमग्न था कि जिससे पाडवो का विनाश अवश्यम्भावी हो। इस कुचक्र-योजना निर्माण मे उसका मामा शकुनि मित्र कर्णादि सहयोगी एव परामर्शदाता बने हुए थे। काफी समय पर्यन्त विचार-विमर्श एव वादविवाद के पश्चात् , अन्तत. यह मित्र-मडली एक ऐसे विचार-विन्दु पर केन्द्रित हुई, कि जिससे दुर्योधन सहित सभी के चेहरे विजयोल्लास की सी दीप्ति से चमकने लगे । और "शुभस्य शीघ्रम्" का दुरुपयोग करते हुए, परस्रर के बुद्धि नैपुण्य की प्रशसा करते हए, योजना को क्रियान्वित करने के लिए धृतराष्ट्र के मत्रणा-गृह मे जा उपस्थित हुए। . . . - ___ + + + + .x x x . वत्स चिरञ्जीव होवो। कहो इस समय किस कारण से आनो हुअा। नमस्कार का उत्तर देते हुए वृद्ध राजा ने दुर्योधन से पूछा। पिता जी, बस अब बहुत हो चुका। पुरजनों की तीखी कडवी बातो को सुनते-सुनते. मेरे कान पक चुके हैं। अब मेरे से आपकी अपनी, अपने भाईयो की यह तीव्रनिन्दा एवं भर्त्सना नही सही जाती इतने विशाल साम्राज्य को पा कर भी हमे यदि मनस्ताप से झुलसते रहना पड़े तो उसके रखने से क्या लाभ ? . - क्यो? क्यो पुत्र, किस घटना को ले कर पुरजन हमे घृणित दृष्टि से देखते हैं । उत्सुकता से धृतराष्ट्र ने पूछा । यही कि जिस दिन से भाग्य ने हमारा साथ दिया। न्याय पुरस्क र हमने द्यूत मे युधिष्ठिर को पगजित किया, उसी दिन से पुरजन परिजन हाथ धो कर हमारे पीछे पड हुए है कि कौरवो से अपने भाइयो को वृद्धि नहीं देखी गई । उनको यश, राज्य, वैभव प्रतिष्ठा इन्हें फूटी पाखो नही सुहाती। हमे कोई कुलगार कह कर थकता है। कोई अत्याचारी को रट लगा रही है। और यहा तक घष्टता बढ़ गई है कि आपकी ही छत्र छाया मे रहते हैं, और आपका
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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