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________________ युद्ध होने लगा ३८५ H - में प्रलय मचा दी। पहले रोज की लड़ाई मे पाण्डव सेना बहत तग आ गई। धर्मराज युधिष्ठिर के मन मे भय छा गया। दुर्योधन आनन्द के मारे झूम रहा था। सूर्य की यात्रा पूर्ण हई। पश्चिम के सूर्य के अन्तिम चरण लाल वादलो के रूप मे प्रगट हुए और युद्ध बन्द होने के बाजे बज गए। दोनो सेनाए अपने अपने डेरो मे चली गई। पाण्डव घबराहट के साथ श्री कृष्ण के डेरे मे गए और युद्ध की चिन्ता जनक स्थिति से पार उतरने का उपाय सोचने लगे। __ श्री कृष्ण ने धैर्य बन्धाते हुए कहा-"पाप व्यर्थ ही चिन्ता करते है, पाप पांचो के रहते, पाचाल तथा मत्स्य देश की विशाल सना के होते हुए आप की पराजय हो जाये, यह असम्भव है। आप विश्वास रखिये कि विजय आप की ही होगी। युद्ध मे तो ऐसा होता ही है कि कभी शत्रु आगे बढता है, कभी पीछे हटता है। आप चिन्तित न हों।" . ... "परन्तु भीष्म जी के रहते हमारी विजय कैसे हो? वे तो प्रकले ही हमारी समस्त सेना का मुकाबला कर रहे है ।"-धर्म राज ने कहा! '.: श्री कृष्ण ने अपनी बात पर जोर देते हए कहा- "भीष्म नाभा सदा नहीं रहेगे। आप लोग यह क्यो भूलते है कि शिखण्डी भीष्म जी को मारने के लिए ही पैदा हुआ है।" ... वात चीत के उपरान्त दूसरे दिन के युद्ध की योजना बनी।
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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