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जैन महाभारत
Purnainamai
दमन कैसे कर सकते हैं ? वे चाहते तो अब-तक भला यह बालक जीता बच सकता था ?"
दुर्योधन का मन अपराधी था, अपराधी जैसे: दूसरो की अोर . से शांकित रहता है. इसी प्रकार दुर्योधन सदैव ही द्रोण के प्रति सशंक रहता था उसने यह बात कहकर द्रोणाचार्य के मन को प्रशांत कर दिया। तभी दुःशासन वोला-"राजन् । द्रोणाचार्य उससे स्नेह रखने के कारण उसे क्षमा कर रहे हैं तो क्या हुआ ? मैं जो हूं। लो मैं अभी ही इस अभिमानी बालक को ठिकाने लगाये देता हूं।" ।
इतना कहकर वह अभिमन्यु की ओर झपटा। दोनों-में, घोर , सग्राम होने लगा। वे दोनों एक दूसरे को चकमा देते. पैतरे वदलते : और अद्भुत अस्त्रो का प्रयोग करके परास्त करने का प्रयत्न करते रहे। जव बहुत देरि हो गई, युद्ध चलते तो एक बार अभिमन्यु ने
द्ध होकर एक तीक्ष्ण बाण मारा, जिसे खाकर दुःशासन पुनः वाण न चला सका । अचेत होकर अपने रथ में हो चित गिर पड़ा। उसके चतुर साथी ने दुःशासन की देशा 'देखकर अपने रण को रण स्थल से दूर ले गया। पराक्रमी दु.शासन की पराजय को देखकर कौरवो मे सर्वत्र भय छा गया और जो थोड़े बहुत पाण्डव संनिक 'इस दृश्य को देख रहे थे, वे हतिरेक मे अभिमण्य की जय जयकार करने लगे। . __ . महावली कर्ण अभिमन्यु की जय जयकार को सुनकर श्रोध से जलने लगा, वह पुन: ताल ठोककर अभिमन्यु के सामने प्रा उटा'। दोनो मे भयकर युद्ध होने लगा, अन्त मे एक बार अभियन्यु ने पार से कहा-"कर्ण ! पहले तो वच गए थे, अब की बार सावधान।"
कर्ण ने उसी क्षण एक भयानक बाण धनुप पर चढ़ाया पर अभिमन्यु ने उसका धनप ही तोड डाला। कर्ण दात पीसने लगा, पर अभिमन्यु ने उसे इतना अवकाश ही न दिया कि वह दूसरा धनुप ले सके। तभी कर्ण के भाई सत पूत्र ने अभिमन्यु पर प्रायमण कर दिया। वह कर्ण का बदला लेना चाहता था, परन्तु अभिमन्यु के एक वाण से ही उसका सिर घड से भिन्न होकर पृथ्वी पर गिर " गया। लगे हाथों अभिमन्यु ने कर्ण को भी फिर खबर ले ली और कर्ण को अपने प्राण वचाने के लिए अपनी सेना सहित रण क्षेत्र से हट जाना पड़ा।