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पाण्डव वच गए
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को सकट से उबारने वाला उसका अपना पुण्य है। अत हम पर जो घोर सकट आने वाला है उस से बचने का एक मात्र उपाय है कि हम सभी अपने को धर्म ध्यान मे लगाए।" भाइयो को धर्म ध्यान को प्रेरणा देकर युधिष्ठिर अपनी समस्त इच्छाओं का विपय भोग हटा कर धर्म ध्यान मे तल्लीन हो गए। वे मेरू पर्वत सदृश निश्चल खडे हो नासाग्र दृष्टि कर आत्मा का चिन्तन करने लगे। उनका विश्वास था कि धर्म ध्यान के प्रसाद से जितने भी अमगल है वे सव नष्ट हो जाते हैं और निशिदिन नये मगल होने लगते हे। धर्म के प्रताप से ही दुख सुख रूप परिणमन होता है । जिस प्रकार ग्रीष्म ऋतु की प्रखर किरणो के लगने से वृक्ष फलता है, इसी प्रकार धर्म धारण से इन्द्र तक का आसन कपायमान होता है।
युधिष्ठिर और उनके भाइयो द्वारा धर्म ध्यान व उपधान तप करने से एक देवता का आसन कम्पायमान हुआ और उसने अपने अवधिज्ञान के बल से जान लिया कि पाण्डवों पर कोई आकस्मिक विपदा आने वाली है। उसी के लिये वे घोर तप कर रहे हैं । वह तुरन्त भू लोक की ओर चल दिया और उसने सकल्प किया कि पाण्डवो को इस सकट से अवश्य ही उबालूगा ।।
और प्रकट होकर पाण्डवो से बोला - पाडु पुत्रो ! निश्चित , रहो कि कोई भी शत्र तुम्हारा कुछ नही कर सकता । कोई भी सकट पड़ने पर मैं तुम्हारी रक्षा अवश्य करु गा।" महाराज युधिष्टिर बोले- 'लेकिन कनकध्वज द्वारा विद्या सिद्ध कर लेने पर हमारी रक्षा कैसे हो सकेगी ?"
"धर्म तुम्हारी रक्षा करेगा । तुम्हारा सहायक तुम्हारा पुण्य है।"--इतना कह कर वह देव वहा से चल पडा और कुछ दूर पर बैठो द्रौपदी को हर कर ले गया ।
एक भांड की दृष्टि उस ओर पड़ी। पाण्डवो को उस पर वहुत क्रोध पाया। युधिष्ठिर ने उसे पकड़ने के लिए नकुल और सहदेव को आदेश दिया। वे दोनो भ्राता उसी समय धनुप बाण मम्भाल कर उसके पीछे भागे।