________________
__-मामी विपक्ष में
सलामी दी। पाडण्वो ने चरण रज ली मद्रराज ने सभी पाण्डवी को प्रेम पूर्वक छाती से लगा लिया। हर्षातिरेक और स्नेह के कारण मद्रराज की पलके भीग गई मामा को सामने देख कर नकुल और सहदेव के आनन्द की तो सीमा ही नहीं रही।
जब मद्रराज विश्राम कर के पाण्डवो से मिले तो सर्व प्रथम उन्होने पूछा- “युधिष्ठिर ! १३ वर्ष कैसे बीते ? '' इस के उत्तर मे पाण्डवों ने १३ वर्ष तक उठाई विपताओ का वृतांत कह सुनाया। सुन कर मद्रराज बोले-.-"मनुष्य को अपने ही कर्मों का फल कैसा कैसा भयकर भीगना पड़ता है यह तुम लोगों की बातो से ज्ञात हुआ । शास्त्रों की शिक्षाप्रो के प्रतिकूल कार्य करके, जुआ खेल कर, तुम लोगो को जो फल भोगना पड़ा, प्राशा है भावी सन्ताने इस से कुछ शिक्षा ग्रहण करेंगी।"
इन बातो के पश्चात भावी युद्ध की बातें चलीं। तव महाराज ने द्रवित होते हुए कहा-"धर्मराज! मैं तुम्हे यह दुखद समाचार किस मुंह से सुनाऊ । कि मैं कौरवो के पक्ष मे रहने का वचन दुर्योधन को दे चुका है।"
यह बात सुनते ही पाण्डवों के हृदय पर बज्रापात सा हुआ वे मन्न रह गए । बोले कुछ नहीं एक बार सब के चेहरों पर छाई गम्भीरता को देख कर शल्य स्वय दग्वित हुए और वह सारी प्राप बीती सुनाई जो यात्रा मे गुजरी थी।
मद्रराज की बात सुन कर महाराज युधिष्ठिर मन ही मन सोचने लगे जो हमा, वह हमारी ही भूल के कारण । हा शोक दुर्योधन इस बात से भी हम से बाजी मार गया ।
अपने निकट के रिश्तेदार समझ कर इनकी ओर मे हम - लापरवाह रहे और इनकी कोई खबर न ली, इसी का यह परिणाम
महाराज युधिष्ठिर को इस बात में बहुत बड़ा धक्का लगा था, परन्तु उन्होने अपने मन की व्यथा को प्रकट नही किया। अपन