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जैन महाभारत
पाण्डवो के प्रति प्रेम को तिलाजलि देकर पक्ष परिर्वतन कर लिया ?"
फिर एक विचार मन में उठा-'दुर्योधन को वचन तो दे ही दिया परन्तु युधिष्ठिर में बिना मिले लौट जाना इस से भी अधिक भयकर भूल होगी।"
"राजन | मै तुम्हें वचन तो दे चुका, और उसे निभाऊंगा भी, परन्तु जाने से पहले युधिष्ठिर से भी मिल लेना आवश्यक समझता हू । अतः अभी मुझे विदा दो।"
दुर्योधन जानता था कि शल्य जैसे क्षत्रिय राजाओं का वचन झूठा नही हो सकता, इस लिए उसने उन की बात स्वीकार करते हुए कहा- "आप चाहते हैं तो अवश्य ही मिलिए । परन्तु ऐसा न हो कि प्रिय भानजो को देख कर वचन ही भूल जाये।"
दुर्योधन की इस बात से शल्य तिलमिला उठे। उन्हें क्रोध आया, पर अपने प्रावेश को रोकते हुए कहा "नही, भाई यह शल्य का वचन है । जो कह चुका वह असत्य सिद्ध नहीं होगा। तुम निश्चिन्त होकर अपने नगर लौट जायो ।'
दुर्योधन ने इस के बाद उनसे विदा ली और शल्य उपलव्या की ओर प्रस्थान कर गए।
__ x x x x x x x - उपप्लव्य नगर बहुत ही आर्कषक ढग पर सजा था । द्वार पर गहनाइया बज रही थी। स्त्रिया गीत गा रही थी चारो ओर भिन्न भिन्न भाति की सुगन्ध विवेरी जा रही थी और पाण्डवो की मेना, कर्मचारी, मित्र, महयोमी, बन्धु वान्धव सभी शल्य के स्वागत मे खड़े थे। ज्यो ही गल्य की सवारी नगर के द्वार पर पहची अम्म गस्त्रो से रग बरगी। पुप मालाए अाकाश की ओर फेंकी गई जो वापस मद्र राज के ऊपर पाकर गिरी । गानो तथा नफीरी की मधुर स्वर लहरी गुज उठी वाजों के द्वारा स्वागत गान गाया गया सेना ने