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________________ जैन महाभारत विराट ने युधिष्ठिर का नाम सुना तो उन्हे बडी प्रसन्नता हुई वह कह बैठे-महाराजाधिराज युधिष्ठिर का जिक्र करके तुम ने हमारे मन में व्यापक दुख को हरा कर दिया। "प्रोह ! कितना अन्याय हुआ उन के साथ ? वे तो वास्तव में बड़े हो बुद्धिवान, दयावान और धर्म नीति का पालन करने वाले अद्वितीय नरेण है। पर उनकी एक भूल ने ही उन्हे राजा से रंक बना दिया। पर तुम उनके मित्र हो, अपने को चौसर के खेल में निपण बताते हों, फिर तुम्हारे रहते युधिष्ठिर चौसर मे क्यो हार गए ?" "महाराज ! उस समय मैं उनके पास नहीं था, उन्हे तो धोखे से हस्तिनापुर बुलाया गया था, यदि मैं उनके साथ होता तो फिर शकुनि की क्या मजाल थी कि वह उन्हे परास्त कर देता।" -कक ने कहा। "जो भी हो, हम तुम्हे निराश नही करेंगे। महाराज युधिष्ठिर के दरबार की भॉति ही इस दरबार को समझो।" विराट बोले। _ 'महाराज ! मुझे आप से ऐसी ही आशा थी। वास्तव म आप के सम्बन्ध मे महाराज युधिष्ठिर ने जो बताया था, वह अक्ष. रश सत्य सिद्ध हो रहा है। मेरे साथ महाराज युधिष्ठिर के कुछ और सेवक भी है। जो अपने अपने काम में सर्व प्रकार से निपुण है। वे भी जीवन, यापन के लिए ही आप की शरण आये है।" कक रूपी युधिष्ठिर ने कहा। विराट ने उसी समय उन लोगो को भी वूला लिया । भीम से पूछा -- "तुम महाराज युधिष्ठिर के यहा क्या काम करते थे !" . "महाराज ! मैं उनकी रसोई मे काम करता था, मुझ से वह बहुत प्रसन्न थे।" - "डील डौल से तो तुम्हारे कथन का समर्थन नही होता।" "मुझे बचपन से पहलवानी का शौक रहा है, और महाराज युधिष्ठिर भी मुझे कभी कभी कुश्तियां लडाकर मनोरजन किया
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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