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. * पन्द्रहवां परिच्छेद *
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* कीचक बध-
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मत्सय नरेश विराट सिहासन पर विराजमान थे। एक सेवक ने आकर उन्हे प्रणाम करते हुए कहा-"महाराज की जय विजे हो एक सन्यासी आप के दर्शन करना चाहता है। अपना नाम और पाने का तात्पर्य कुछ भी नहीं बताता।"
विराट नृप ने सेवक को आदेश दिया कि उसे दरवार मे माने दो। और कुछ देर बाद एक सन्यासी वेषधारी व्यक्ति विराट के सामने श्रा उपस्थित हया। ब्राह्मण समझ कर विराट ने उस का अभिवादन किया और आने का कारण पूछा। . वह वोला-“मेरा नाम कक है, मैं महाराजाधिराज युधिष्ठिर का मित्र है। चौसर सेलने, ज्योतिष राजनोति आदि मे निपुण हू। जव से सम्राट युधिष्ठिर का राज्य दुर्योधन ने छीन लिया और वे जगलों में चले गए, तभी से बेकार मारा मारा फिर रहा हूं। सम्राट युधिष्ठिर को मैंने बहुत खोजा, पर कही पता न लगा। जीवन यापन का कोई साधन नही था। आप के गुणों को प्रशसा सुनी। युधिष्ठिर भी आप की बड़ी ही प्रशसा किया करते थे, अत विवश होकर आप की शरण पाया है। यदि आप मुझे अपनी सेवा मे रख ले तो अति कृपा हो। महाराज धिष्ठिर द्वारा पून सिंहासनारूढ होने पर मैं उनके पास चला जाऊगा।'