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________________ २०७ कीचक बध कर पूछा। "नही त्रुटि तो कोई नहीं हुई। पर अब हम तुम्हे अपने महल मे नही रख सकते। "सो क्यो ?' "वात यह है कि महाराज तुम्हारे गधों से घबराते है। अरि वह नहीं चाहते कि तुम्हारे कारण कोई नई मुसीवत खडी हो जाय ।"-रानी सुदेष्णा ने कहा । राजा विराट ने पहले ही रानी सुदेष्णा को कह दिया था कि सौरन्ध्री को उचित पुरस्कार देकर विदा कर देने मे ही हमारा कल्याण है। पता नही उसके गधर्व क्या कर डाले। इसी लिए सुदेष्णा ने जो स्वय ही द्रौपदी से भयभीत हो गई थी, उक्त वात कही थी। द्रौपदी को बडो ठेस लगी। फिर भी उसने नम्रता पूर्वक कहा-"महारानी जी! केवल १५ दिन मुझे और यहा रहने की आज्ञा दे दीजिए। तव तक मेरे पति का एच्छिक कार्य तथा मन्तव्य पूर्ण हो जायेगा। और वे स्वय ही मुझे यहा से ले जायेगे। आप ने जहा और वहत सी कृपाए की है इतनी और कीजिए ।" रानी ने यह वात विराट से जा कही। और उन दोनो ने. द्रोपदी के पति के भय से, द्रौपदी की विनती स्वीकार कर ली। नगर के जो लोग भी द्रौपदी को देखते, कह उठते-"इम का रूप ही इतना आकर्षक है कि कोई वीर उस पर ग्रासक्त होकर अपने प्राण दे तो कोई आश्चर्य को बात नही। पर है यह बडी भयानक। इस की ओर किसी ने कुदृष्टि से देखा और प्राण गए।" द्रोपदो से सभी घबराने लगे थे। अतएव कोई उसे किनी काय को न कहता। वात तक करते हए घबराते। परन्नु द्रोपदी उमा प्रकार सेवा कार्य करती रही। जबकि रानी मुदेष्णा उसे कहा करतो कि वह अधिक काम न किया करे। पाराम से रहे ।
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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