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जैन महाभारत
मे वास करने वाले इस प्रकार निर्धनो और निस्सहायों की भाति कहां जा रहे है ?"
उत्तर मे युधिष्ठिर ने अपनी समस्त विपदाए कह सुनाई। द्रौपदी रोने लगी और उसने कौरवो के अन्याय की शिकायत . की। तव सिद्धान्तज्ञाता वोले-ससार में प्रत्येक व्यक्ति पाप भी करता, है, धर्म भी, जो पाप नहीं करता वह निवृति मार्गी है।, लक्ष्मी, सम्पत्ति और राज्य के लिए लोग नीच से नीच कार्य भी कर डालते है, पर संसार मे पुण्य पाप का चक्र चलता रहता है, जो सुख भोगते हैं वह अपने पुण्य से। आप का जितना पुण्य है उतना ही, सुख आप को मिलेगा। न ससार मे कोई किसी को सुख देता है न दुख, यह मनुष्य के अपने कर्म है जिनका फल सुख या दुख के रूप में मिलता है। बाकी सब निमत मात्र बन जाता है। आप
ओ भोग रहे है वह आप के पूर्व कर्मों का फल है, जो भोगना ही होगा। ऐसा ही सर्वज्ञ देव का सिद्धान्त कहता है। दुख के समय
आप को विचलित नही होना चाहिए और किसी के अन्याय से पथ विमुख भी नही होना चाहिए।"
सिद्ध पुरुष के उपदेश से द्रौपदी को बहुत सान्त्वना मिली। और अपनी विपदाओ तथा दुर्योधन के अन्याय पूर्ण व्यवहार को अपने तथा पाण्डवो के पूर्व जन्मो के कर्मों का फल समझकर वह अपने भाग्य को तदवीर से बदलने के लिए पाण्डवों के साथ पुन चल पडी।
आगे जाकर जव वन समाप्त होने को था, पाण्डव भ्राताओ ने आपस मे विचार विमर्श किया कि भावी कार्य क्रम क्या हो? युधिष्ठिर वोले-"अच्छा हो कि हम अभी कुछ दिनों दुर्योधन की आँखों से ओझल रहे। उसे इसी हर्ष में फूलता छोड दें कि हम सब अग्नि की भेट हो गए है। इस के लिए यह आवश्यक है कि हम अपना वेष वदल कर घूमे।”
अर्जुन ने युधिष्ठिर की वात का समर्थन किया और सभी ने एक मन होकर निश्चय किया कि वे गुप्त वेष धारण कर ले। अतएव उन्हो ने राजकुमारों के वस्त्र उतार डाले और साधारण वस्त्र पहन लिए। पथ कर वेपधारी पाण्डव वन से निकल कर वस्ती की ओर चले।