________________
दुर्योधन का पड़यन्त्र
५७
__बूढे धृतराष्ट्र को अपने पुत्र पर अपार स्नेह था ही, शकुनि की वात से वह सच मुच बहुत चिन्तित हो गए, दुर्योधन को अपनी छाती से लगा कर प्यार करते हुए बोले-"बेटा, हा मेरे तो. आखें ही नहीं, जो मैं तुम्हारी दशा देख सकता। पर तुम्हें सभी प्रकार का ऐश्वर्य प्राप्त है. तुम मेरे ज्येप्ट पुत्र हो, राज्य के उत्तराधिकारी तुम्ही हो । फिर तुम्हें दुख काहे का हैं ?
दुर्योधन अवरुद्ध कण्ठ से, दीर्घः निश्वास छोडते हुए बोला"पिता जी। मैं राजा कहलाने योग्य कहाँ रहा ? एक साधारण व्यक्ति की तरह खाता पीता, पहनता ओढता हुं। यह भी पता नहीं कि भविष्य में यह भी मिलेगा, या नहीं ? बेटे की निराशा पूर्ण बातें सुन कर धृतराष्ट्र का हृदय फटा सा जाने लगा, उन्होने तुरन्त उस से, इस उदासीनता और निराशा का कारण पूछा। दुर्योधन ने अपने मन की गाठ खोलते हुए इन्द्रप्रस्थ की सुपमा, वहां को स्मृद्धि, पांडवों के यश की वृद्धि और द्रौपदी के उपहास की सारी बातें बता दीं। और अन्त मे बोला- 'अब आप ही बताइये मुझे चैन आये तो क्यो कर। मेरे लिए तो दुदिन पा रहे हैं, न जाने कब पाण्डव शक्ति शाली होकर राज्य छीन ले। यदि मुझे राजा भी बने रहने दिया, तो भी आज तो द्रौपदो अपमान करती है. कल उसके बच्चे मुझे भी सभाओं में अपमानित किया करेंगे। सच पूछो तो पिता जी. पाण्डवो की उन्नति क्या हो रही है, मेरे हृदय पर कुल्हाडे चल रहे है।"
' , धृतराष्ट्र में दुर्योधन की चिन्ता का कारण पाण्डवो की उन्नति जान कर कहा- "बेटा सन्तोप रक्खो। तुम्हारी आशाए निर्मल हैं। तुम्हे ..... • "
दुर्योधन ने वात काटते हुए उपदेश देना प्रारम्भ कर दिया"पिता जो मन्तोप क्षश्रियोचित धर्म नहीं है। उरने अथवा दया करने से राजानों का मान सम्मान जाता रहता है, उनकी प्रतिष्ठा नहीं रहती। बुधिष्ठिर का विशाल व धन धान्य ने भरपूर राज्य भी देसकार मुन ऐसा नगता है कि मानो सम्पति और राज्य तो कुछ है ही नहीं। पिता जी मैं तो यह महसूस कर रहा हूं लिपाटव