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मुख पर चिन्ता के लक्षण थे और न हास्य के हो । परन्तु इन पैने शब्दों ने वह काम किया जो कदाचित धर्मराज के वाण भी न कर पाते 1 बोले:
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जैन महाभारत
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राजन् ! ऐसी बात मुह से निकालते समय यह सोच लेते तो अच्छा था कि मैं आपको सफलता की कामना कर चुका हू और आप जैसे धर्मनिष्ठ व्यक्ति को परास्त करने की शक्ति स्वय देवराज इन्द्र में भी नही हैं ।"
"पितामह ! जब तक ग्राप है तब तक हम विजय का स्वप्न भी नही देख सकते। फिर मैं आप की कामना को क्रियात्मक रूप मे परिणत होने की आशा करू तो क्यों कर ?" धर्मराज युधिष्ठिर
ने पूछा ।
"यह बात मैं स्वीकार करता हू पर मै अमर ही हू " - पितामह बोलें ।
"तो फिर पितामह । आप हमे यह तो बताने की कृपा करे कि आप जो हमारे रास्ते मे मेरू पर्वत के समान श्रा खडे हुए हैं, किस प्रकार रास्ते मे हटाए जा सकते हैं ? आपको याद होगा कि आप ने युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व मुझे इस प्रश्न को समय आने पर पूछने की ग्राज्ञा दी थी।"
प्रजय तो नही, न
युधिष्ठिर की बात सुनकर भी पितामह के मुख पर कोई चिन्ता या विपाद के भाव न आये। वे उसी प्रकार बोले- "हा, मैंने
कहा था । तो क्या वह समय आगया ?"
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"हा, पितामह! अव और नही महा जाता।"
पितामह चुप हो गए। इस चुप्पी से युधिष्ठिर के नेत्र चचल हो उठे। उनके मुह पर चिन्ता पुत गई। पितामह कुछ क्षण मौन रहे और फिर बोले- "बेटा ! मेरी मृत्यु तुम्हारे पक्ष मे विद्यमान है । द्रुपद की प्रतिज्ञा याद है ना ! शिखण्डी तो हैं ही। मैं उस के ऊपर कभी ग्रस्त्र शस्त्र प्रयोग नही कर सकता । बम उसी की आड़ लेकर धनजय मुझे जीवन मुक्त कर सकता है। इस उपाय के प्रतिरिक्त और कोई उपाय ही नहीं है कि मुझे रण क्षेत्र से हटा सको । कोई शक्ति ऐसी नहीं कि मेरे हाथों के चलते रहने पर मुझे परास्त कर सके।"