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जैन महाभारत
रणक्षेत्र मे जा पहुचा। शोक विह्वल दुर्योधन ने जब कर्ण को रण. क्षेत्र मे आते देखा, उसका मन मयूर नृत्य कर उठा। उसकी आशाए पुनर्जीवत हो गई। उसका चेहरा खिल उठा। उसने एक शखनाद किया, वह पितामह की मृत्यु को भूल गया और दौडकर कर्ण को छाती से लगाकर बोला- "कर्ण ! तुम आगए तो मानो विजय मेरे शिविर में आगई। तुम हो तो मेरी सारी चिन्ताए दूर हो गई।"
"मैंने कहा था ना-कर्ण बोला-कि जब पितामह नही रहेगे मै अपने प्राणो को भी तुम्हारे लिए बलि देने आ जाऊगा। मैं आ गया और अब देखो मेरा रण कौशल ।"
दुर्योधन ने बार बार शख ध्वनि की। सभी कौरव चौक पडे। जब उन सभी ने तेजस्वी कर्ण को देखा, उछल पड़े और कर्ण की जय जयकार करने लगे।
ज्यों ही सूर्य इवा, भीष्म रूपी भास्कर भी अस्त हो गया। अब हाड मास का एक ढाँचा था जो बाणो पर रक्खा था। तेज तथा आभा मुखमण्डल से विलीन हो गई और वह शरीर जिसको देखकर अच्छे अच्छे बीर कांप जाया करते थे, अव मिट्टी के समान सो गया। चारो ओर अधकार छा गया, और उधर जव धृतराष्ट्र ने भीष्म पितामह के बध का समाचार सुना तो उनके मन मे जत रहो आशा दीप वुझ गया, अधकार छा गया, महलों मे अधेरा हो गया।
इधर दुर्योधन के शिविर मे समस्त कौरव भ्राता उपस्थित थे। सभी गम्भीर और चिन्तित दिखाई देते थे। कर्ण को भी वही बुला लिया गया। इतनी अधिक संख्या में लोग उपस्थित होने के उपरान्त भी कोई शब्द सुनाई नही दे रहा था, जिसका यह अर्थ सहज ही मे लगाया जा सकता है, कि अन्दर बैठे सभी लोग विचार मग्न हैं, किसी गम्भीर समस्या पर सोच रहे हैं।
तभी शिविर को निस्तब्धता को भग करते हुए दुर्योधन बोल उठा-"तो हाँ कणं ! कुछ सोचा, किसे सेनापति नियुक्त किया
जाय ?
कर्ण ने कोई उत्तर न दिया।