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________________ ५ भीष्म का विछोह दुर्योधन पुन. बोला - "तुम्हारे शौर्य पर मुझे बहुत विश्वास है और मुझे आशा है कि तुम सेनापति पद के लिए उपयुक्त हो । पर इस विषय में मैं तुम्हारी राय को महत्त्व दूगा क्योकि तुम मेरे ऐसे अन्तरंग मित्र हो जिसकी बात पर मैं प्रख मीचकर विश्वास कर सकता हूं तुम जो राय दोगे वह अवश्य ही मेरे हित मे होगी ।" ४७३ 1 तब कर्ण ने उत्तर दिया, बडी शात मुद्रा मे, गम्भीरता पूर्वक - "राजन् | आप के लिए मैं अपना सर्वस्व न्यौछावर कर सकता हूं। और मुझे स्वय अपनी शक्ति का विश्वास है । तो भी मेरी राय मे भीष्म पितामह के बाद हमारे पास द्रोणाचार्य और कृपाचार्य जैसे शस्त्र विद्या के गुरु विद्यमान है। हमारी सेना के वीरो की अधिकतर सख्या उनकी ही शिष्य है। वे शस्त्र विद्या मे तो प्रवीण हैं ही, व्यूह रचना और युद्ध सचालन मे भी पारगत हैं अतः इन दो महानुभावो मे से किसी एक को यह कार्य सौपा जाये तो प्रत्युत्तम होगा । मैं द्रोणाचार्य को अधिक उपयुक्त समझता हू יין सभी कौरव एक स्वर से कह उठे - "ठीक है, पितामह के बाद द्रोणाचार्य ही सेनापति बनने चाहिए ।" दुर्योधन बोला- “ द्रोणाचार्य पर मेरी भी दृष्टि गई थी, अब सबकी राय मिल गई तो बात निश्चित ही समझिए । एक प्रकार से कर्ण का प्रस्ताव सर्व सम्मति से स्वीकार हुआ । तव दुर्योधन की प्राज्ञा से दो कौरव गए और द्रोणाचार्य को वहा ले आए। दुर्योधन ने विनीत भाव से कहा- प्राचार्य जी ! जाति, कुल, शास्त्र ज्ञान, वय, बुद्धि, वीरता, कुशलता आदि सभी वातो मे आप श्रेष्ठ है । पितामह के बाद एक श्राप ही हैं जिनके सहारे पर हम गर्व कर सकते हैं । अव हमारा भाग्य आप ही के हाथो मे है । यदि आप हमारी सेना का सचालन कार्य सम्भाल ले और सेनापतित्व स्वीकार कर लें तो मुझे आशा है कि हम शत्रुओ को परास्त करने मे सफल होगे । हम सबका निर्णय यही है ।" द्रोणाचार्य गम्भीर हो गए, उनके मनोभाव जो उनके मुख मण्डल पर उभर आये थे, साफ बता रहे थे कि वे विनती तो स्वीकार कर लेंगे, परन्तु दुर्योधन की आशा पूर्ण होगी इसमे उन्हे
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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