SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 477
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भीष्म का विछोह ४७१ क्योकि दुर्योधन के घमण्ड का एक मात्र कारण तुम्ही थे । . ...... अस्तु-जो कुछ हुआ सो हुआ, अब मैं चाहता हूं कि मेरे जीवन का अन्त होने के साथ साथ पाण्डवो के प्रति तुम्हारा वैर भाव समाप्त हो जाये। तुम अपने भाईयो की ओर रहो, तो कदाचित दुर्योधन सन्धि के लिए विवश हो जाये और यह भयकर युद्ध समाप्त हो जाये।" __कर्ण ने पितामह की बात सुनी तो वह वडे असमजस मे पड़ गया, फिर भी बोला- "पितामह ! मैं माता कुन्ती का पुत्र हू, यह मुझे ज्ञात हो गया है। परन्तु मैं दुर्योधन की ओर रहने को बाध्य हूं क्योंकि जब दुर्योधन ने मुझे सम्पत्ति दी थी तो मैं ने प्रतिज्ञा की थी कि उसके लिए मैं अपने प्राण तक दे दूगा। अतएव, मुझे कृपया कौरव पक्ष की ओर से लडने की आज्ञा दीजिए।" "जैसी तुम्हारी इच्छा।" पितामह बोले । कर्ण की बातो को सुन कर पितामह सदा ही उसे ललकारा करते थे, इसी लिए कर्ण समझता था कि पितामह उससे घृणा करते है । एक बार आवेश मे आकर युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व कर्ण ने प्रतिज्ञा की थी कि वह तब तक युद्ध मे नही उतरेगा जब तक भीष्म का बध नही होजाता। अब चूकि पितामह ससार से जा रहे थे, इस लिए उस ने पूछा-"पितामह आप ही कौरवो का सहारा थे। आप के बलबूते पर ही दुर्योधन ने युद्ध ठाना था, अब आप जा रहे हैं। अब तो कौरवो को बडी विपत्तिया पडेंगी कृपया बताईये कि युद्ध का सचालन कैसे हो?" "कर्ण ! तुम पर दुर्योजन को गर्व है और उसे मुझ पर सदा ही क्रोध प्राता रहा कि क्यो नही मैं, जो कर्ण के रास्ते में दीवार वनकर खडा हो गया हू, समाप्त हो जाता। तुम योग्य हो, धुरन्धर धनुर्धारी हो, तुम्हारे पास विद्याए है, अस्त्र-शस्त्र है, वल है और बुद्धि है। इसी के साथ दानवीरता के कारण तुम्हारे पास अपने पुण्य का भण्डार है। साहस पूर्वक रण मे उतरो। अव कौरवो की नोका की पतवार तुम्ही हो। कौरव सेना को अपनी सम्पति समझ कर उसकी रक्षा करो।" भीष्म पितामह की आशीष पाकर कर्ण बहुत प्रसन्न हुआ, पितामह के चरण छुए. बारम्बार प्रणाम किया और रथ पर चढकर हैं। अब तलबूते पर ही पतामह आप
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy