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जेन महाभारत
दुर्योधन को बात खटको, फिर भी उस समय उपस्थित लोगों की लज्जा वश वह बोला - "हां पितामह बताईये ना। मैं तो आप का सेवक हू।"
"मेरी कामना यही है कि यह युद्ध मेरे साथ ही समाप्त हो जाये। बेटा ! मेरी आत्मा को सन्तुष्ट करने के लिए तुम पाण्डवो से अवश्य ही सन्धि करलो।"-पितामह ने कहा ।
वह वात दुर्योधन के तीर सी लगी, मन ही मन वह विलबिला उठा । परन्तु मुख से उसके कुछ भी न निकला, धीरे धीरे सभी राजा पितामह को अन्तिम प्रणाम कर के अपने अपने शिविर में चले आये।
दानवीर कर्ण को जव ज्ञात हुआ कि पितामह भीष्म रणभूमि मे पड़े अन्तिम स्वाँसे ले रहे है, यह तुरन्त दर्शनार्थ दौड पड़ा।
पितामह बाणो की शय्या पर लेटे थे, कर्ण पहुचा और घुटनो के वल पैरो की ओर बैठ कर उसने हाथ जोड़ दिये-"पूज्यकुलनायक ! सर्वथा निर्दोष होने पर भी सदा आप की घृणा का जो पात्र वना रहा, वही सूत पूत्र कर्ण पाप को सादर प्रणाम करता है । स्वीकार करे।"
पितामह ने पाखे खोली. उन्होने देखा कि विनय पूर्वक प्रणाम करके कर्ण कुछ भयभीत सा हो गया है। यह देख उन का दिल भर आया, निकट बुलाया और बोले - "वेटा । तुम राधा पुत्र नही बल्कि कुन्ती पुत्र हो मैंने तुमसे कभी द्वं ष नही किया और न कभी घृणा ही की। वल्कि पाण्डवो के ज्येष्ठ भ्राता होते हुए भी तुम ने केवल दुर्योधन को प्रसन्न करने के लिए सदा अन्याय का पक्ष लिया, इमी से मेरा मन मलिन हो गया। वैसे तुम जैसा दानवीर आज पृथ्वी पर कोई नही, तुम्हारी दानवीरता के सामने मैं नतमस्तक तक होता है तुम्हारी वीरता, शूरता भी प्रशसनीय है, श्री कृष्ण तथा अर्जुन के अतिरिक्त कौन है जो तुम्हारा मुकाबला कर सके। । परन्तु ठण्डे दिल से सोचो कि इस भयंकर युद्ध की बुनियाद म तुम्हारा क्रोध और दुर्योधन के प्रति अति मोह व पाण्डवों के प्रति तुम्हारा वर भाव कितना है। प्राज मैं बाणो की शय्या पर पड़ा दम तोह रहा हूं, मेरी वीरोचित मृत्यु हो रही है, तुम्हारी हो कृपा में।