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नौवा दिन
जब अश्वस्थामा सचेत हुना, शीघ्र ही सात्यकि के समीप पहुचा और जाते ही नाराच छोडा। जो कि उसे घायल कर पृथ्वी में जा घुसा। एक दूसरे बाण से उस ने सात्यकि की ध्वजा काट डाली। पर सात्यकि ने बाण वर्षा करके उसे भी आच्छादित कर दिया। अश्वस्थामा को वाणो से आच्छादित देख कर द्रोणाचार्य पुत्र रक्षा के लिये दौड पड़े और अपने पैने बाणों से सात्यकी को बोध डाला। उस ने भी बीस बाणो से आचार्य को बीध डाला। उसी समय परम प्रतापी वीर अर्जन ने ऋद्ध होकर द्रोणाचार्य पर अांक्रमण कर दिया। तीन ही बाणो से उसने आचार्य को घायल कर दिया और बडे वेग से बाण वर्षा कर के उन्हे ढक दिया। इस से आचार्य की क्रोधाग्नि एक दम भडक उठी और उन्होने ऐसी तीव्र गति से बाण चलाए कि एक बार तो अर्जुन भी बाणो के परदे मे छुप गया।
दुर्योधन ने तभी सुशर्मा को द्रोणाचार्य की सहायता के लिए भजा। अपने पिता को अर्जुन के मुकाबले पर जाते देखकर सुशर्मा
पुत्र को भुजाए भी फडक उठी और उसने शखनाद करके अपने पिता का अनुकरण किया। भिगत्तं राज ने और उसके पुत्र ने जाते हा अपने लोह-बाणो का भयकर प्रहार किया, परन्तु वीर अर्जुन ने उन दोनो के वाणों को अपने बाणों से व्यर्थ बना दिया और अपनी आर से इस प्रकार की बाण वर्षा की कि भिगर्त राज व उसका पुत्र आये थे प्रहार करने, स्वय उन्हे आत्म रक्षा की चिन्ता पड गई। यह देखकर पाण्डव पक्षीय सैनिक ठहाका मारकर हसने लगे। मिगत राज के रक्त ने उबाल खाया और वह प्राणो का मोह त्याग कर अजुन पर बाण वर्षा करने लगा। परन्तु वीर अर्जुन ने उस अवसर पर ऐसे रण कौशल का परिचय दिया कि देखने वाले, चाहे व पाण्डव पक्षीय थे अथवा कौरव पक्षीय, उसको मुक्त कण्ठ से प्रशसा करन लग। आकाश मे यूद्ध देख रहे देवता भो अर्जुन का हस्तालाघव देखकर "धन्य धन्य कहने लगे। भिगर्त्त राज और उसके पुत्र ने आवेश मे आकर पूनः एक भयकर आक्रमण किया, जिनसे कुपित होकर अर्जुन ने कौरव सेना के अग्र भाग मे खडे भिगर्त वीरो पर पायव्यास्य छोड़ा। जिससे आकाश मे खलबली मच गई और ऐसा प्रचण्ड पवन प्रगट हुया कि कौरव वीरों को अपने रथो पर जमे