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अश्वस्थामा
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उसी समय युधिष्ठिर दौड पडे बोले-'भीम सेन ! शरण पाये वीर पर हाथ उठाना तुम्हे शोभा नहीं देता है । अश्वस्थामा प्राण दान माग रहा है । और तीर्थकरो का कथन है कि दानो म सर्व श्रेप्ट दान है अभय दान | अब इसे छोड़ दो।"
"नही मुझे तो द्रौपदी भाभी को इसका सिर पेश करना है, ताकि इनके कटे सिर को देखकर वह अपने हृदय मे धधक रही शोक एव क्रोध की ज्वाला को शात कर सके "-भीम सेन ने कहा।
"मैं उस सती के लिए अपने माथे का उज्ज्वल रत्न दुगा। वही मेरी पराजय को निशानी होगी-अश्वस्थामा ने दीनता पूर्वक कहा-महाबलो भीम अव मुझे क्षमा करदो। और मेरे माथे का रत्न उस सन्नारी को समर्पित करके कहो कि अश्वस्थामा अपने प्राणो का दान लेकर, पराजय के रूप मे यह रत्न देकर, वन मे चला गया , मैं वन मे चला जाऊगा और अपने पापा के प्रायश्चित के रूप मे घोर तपस्या करू गा।"
यह सुनकर युधिष्ठिर और भी प्रसन्न हुए । उन्होने भीम के चगुल से अश्वस्थामा को मुक्त कराया। अश्वस्थामा ने माथे का रत्न भीम सेन को दे दिया और वन की ओर चल पडा।
भीम सेन उस रत्न को लेकर द्रोपदी के पास पहुचा और रत्न देकर बोला-"भाभी ! यह रत्न तुम्हारी ही खातिर लाया है। यह अश्वस्थामा की पराजय का चिन्ह है। उसने हम से प्राण दान मांगा और अपने माथे का यह रत्न तुम्हारे लिए दिया है । जिस दुष्ट ने तुम्हारे पुत्रो को मारा था, वह परास्त हो गया । दु शासन का मैने रक्त वहा दिया, दुर्योधन भी मारा गया। अव अपने हृदय से क्रोध का दावा नल बुझा दो और शात हो जायो।"
भीम सेन द्वारा दिया रत्न द्रौपदी युधिष्टिर को देते हुए बोली- "धर्मराज | इस रत्न को आप अपने मस्तक पर धारण करे।"
सारा हस्तिनापुर नगर निस्सहाय व विधवा स्त्रियो और अनाथ वालको के करुण चीत्कारो रोने व कलपने के हृदय विदारक शब्दो से गज उठा। जिधर जाईये उधर ही रोने पीटने की यात्रा ग्रा रही थी, प्रत्येक घर मे शोक मनाया जा रहा था । ऐया को