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________________ कर्ण का दान ५१९ रहेगे तो मैं इस राज्य को लेकर क्या करूगा ? इस लिए मैं तुम्हारे प्राणो की आहुति दिलाना नहीं चाहता।"-युधिष्ठिर गम्भीरता पूर्वक बोले। "राजन ! शत्र की सेनाएं आगे बढ़ रही हैं, वह देखिए हमारे सैनिक मिट्टी के पुतलो की भाँति ढहते चले जा रहे हैं। द्रोणाचार्य के रथ से बार-बार विजय शंख की ध्वनि आ रही है। हमारी सेना का मनोबल गिर रहा है। अब बातें करने से काम न चलेगा। चलिए सब मिलकर टूट पड़ें। जिए या मरे, पर हम जीते जी दुष्ट दुर्योधन के हाथ में विजय पताका नहीं देख सकते।"नकुन ने उत्साह पूर्वक कहा। युधिष्ठिर ने पुन दुःख प्रगट करते हुए कहा-"मुझे पराजय या विजय की इतनी चिन्ता नही, चिन्ता इस बात की है कि मेरा प्रिय भ्राता अर्जुन, जिस पर हमे गर्व है, मेरे लिए अपने प्राणों की वाज़ी लगा रहा है, यदि कही शत्रुओं की विजय हो गई तो हम उस वीर को क्या 'उत्तरं देंगे ? ... हा शोक! आज रण क्षेत्र में मुझे यह भी दिन देखना पडा ?" . युधिष्ठिर सिर पकड द ख प्रगट कर ही रहे थे। कि उधर : से अर्जुन पुत्र अभिमन्यु आ निकला, जिसने वाल्यावस्था में ही गत १२ दिन मे वह पराक्रम दिखाया था कि शत्रु उससे उसी प्रकार काँपते थे जैसे अर्जुन से। सभी कहते थे कि अभिमन्यु श्री कृष्ण श्रार अर्जुन से किसी बात मे कम नही। वह पाया और आते ही युधिष्ठिर को प्रणाम किया, फिर विस्फारित नेत्रो से सभी पर दृष्टि डाली उन्हें देखते ही उसके विस्मय का ठिकाना न रहा। सन कहा- "महाराज ! श्राप लोग इस समय किस सोच मे बैठे है ' आपके चेहरो से तो लगता कि ग्राप पर कोई भारी विपत्ति आ गई है। या कोई भयानक घटना घटी है। आप किस का शोक मना रहे है ? उधर शत्र सेना प्रलय मचाती चली आ रही है। हमारे महारथी तक कान टेक गए। और इधर आप शोकावस्था में पठ मासू वहाते से दीख पड़ रहे है ? क्या कारण है ? कुछ में भी तो जानूं।" .. युधिष्ठिर ने गरदन उठाई और उसे अपने पास बुलाकर कहा-"वेटा ! तुम्हारी वीरता पर हम जितना भी गर्व करे कम
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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