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________________ जैन महाभारत नकुल ने कहा- "राजन् । आज लक्षण अच्छे नही दिखाई देते। मैं स्वय विस्मित हू कि यह व्यूह है तो कैसा? एक ऐसा चक्करदार किला द्रोणाचार्य ने बनाया है कि हम कुछ कर ही नही पाते।" सहदेव भी वोला-'महाराज ! मुझे तो लगता है कि यह जो कुछ हो रहा है । दुर्योधन और द्रोणाचार्य के पहले से सोचे समझे पडयन्त्र के अन्तर्गत है। द्रोणाचार्य को ज्ञात है कि चक्र व्यूह को तोडना हम मे से कोई नही जानता, जो जानता है, उसे पहले ही हम से अलग कर दिया गया है।" । युधिष्ठिर को आशा थी कि भाईयो से परामर्श करके कोई न कोई उपाय निकल आयेगा, परन्तु उन सव की बातों से भी वे निराश ही हुए। अन्त मे सिर पकड कर बैठ गए और शोक विह्वल होकर कहने लगे -"हाय ! मैंने समझा था कि यह युद्ध हमारी विपत्तियो को समाप्त कर देगा, परन्तु अब तो यह दीख रहा है कि यह सब कुछ हमारे नाश का सामान हो रहा है। और इस नाश के बीज को वोने वाला मैं ही। मेरे ही कारण हमारे कुल के महान पितामह का वध हुआ, मेरे ही कारण भरत क्षेत्र के असख्य योद्धा मौत के घाट उतरे। मैं ही विनाश का कारण हुन हा देव ! अपना 'विनाश होते मैं कैसे देख सकता है। इस से तो अच्छा है कि मेरे जीवन ही का अन्त हो जाये।" भीमसेन ज्येष्ट भ्राता युधिष्ठिर को इस प्रकार विचलित होते देखकर बड़ा दुखी हा और सान्त्वना देते हुए बोला"महागज। अव पश्चाताप से क्या लाभ प्रापका इस मे क्या दोप? दुप्ट दुर्योधन के पडयन्त्रो मे हम लोग फसते रहे और विपत्तियो मे पड़ते रहे । आज भी उसी दुष्ट के जाल में फसे हैं । पर कोई विपत्ति सदैव नही रहती। समस्त महान आत्मायो का कथन है कि युद्ध में प्रारही की विजय होगी। आप सन्तोप करके हमें प्रयत्न करते रहने का आदेश दीजिए। जब तक मेरे शरीर मे प्राण है, मैं आपकी पराजय नही होने दूगा." भैया ! तुम से मुझे यही श्राशा है, पर भेडिया धसान से क्या लाभ? मैं तुम्हें बिना मौत मरवाकर कसे सुखी रह सकता हूं ? और जब राज्य व सम्पत्ति को भोगने वाले मेरे भाई ही नहीं
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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