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दुर्योधन का अंहकार
हैं, और उसके साथी श्री कृष्ण जिनकी प्रशसा करते पोप नही अघाते, वह बेचारे तो कल परसो ढोर चराया करते थे। वे क्या जाने लडने की सार। मेरे सामने उन , दोनो मे से एक भी नहीं ठहर सकता और मेरी बात की सच्चाई आप को रण भूमि में ज्ञात हो जायेगी। आप दुर्योधन को भय विह्वल करने की चेप्टा, न करें।" - कर्ण की यात्म प्रशंसा का उत्तर उसे ही न देकर भीष्म जी धृतराष्ट्र से बोले- "राजन ? सूत्र पुत्र कर्ण बार बार यही दम भर रहा है कि मैं पाण्डवो को रण भूमि मे खत्म कर दंगा। किन्तु मैं कहता हूं कि पाण्डवों की शक्ति का सोलहवां भाग भी उस मे नहीं है ! - तुम्हाग युत्र उसी की बातों पर युद्ध के लिए तैयार हो रहा है, और स्वयं अपने नःश का आयोजन कर रहा है। वरना उसमे कितनी शक्ति है यह तो मत्स्य देश पर किए आक्रमण के समय ही ज्ञात हो गया था। यदि उस मे अर्जुन जैसे वीर को परास्त करने की शक्ति है तो मत्स्य देश की चढाई मे उसे क्या हो गया था ? अर्जुन के सामने से दुम दबा कर -क्यो भागा था। इस काण्ठ से पहले भी तो एक बार गन्धर्वो के सामने कर्ण ने मुंह की खाई है - उस अवसर पर कणं दुर्योधन को शत्रुओ के चगुल में फसा छोड कर हा भाग आया था परन्तु उन्ही अपार शक्ति वान गन्धर्वो में अजुन ने ही दुर्योधन को मुक्त करा दिया था। जब दो बार कर्ण अजुन से मात खा चुका और दुर्योधन दो बार रण क्षत्रो मे पराजित हो चुका, फिर किस बल बूते पर कर्ण दुर्योधन को उकसाता है और दुर्योधन उसकी मुर्खता पूर्ण उत्तेजक वाती पर विश्वास कर हा है "
धृतराष्ट्र को भीष्म जी की बात जम गई। बड़े सन्तप्त होकर दुर्योधन को समझाने लगे- "भीष्म जी जो कहते हैं वही तर्क संगत, युक्ति सगत,. न्यायोचित और करने योग्य जान पडता . है। हमे सन्धि कर ही लेनी चाहिए। इस से हम अपने राज्य को वचा लेगे और व्यर्थ ही सकट मोल लेने से बच जायेगे। परन्तु तुम्हे तो न जाने क्या होगया है कि मेरी सुनते ही नही। जिन मे विवक है और जिन्हें अनुभव है तुम उन्ही की बात कर रहे हो।