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जैन महाभारत -
मेरी मानो और पाण्डवो से सम्मान पूर्वक समझोता करलो।"
दुर्योधन ने कहा- "पिता जी । आप तो व्यर्थ ही भय विह्वल हो रहे हैं मानो हम सब कमजोर है देखिये हमारे पास ग्यारह अक्षौहिणी सेना है जब कि पाण्डवो के पास केवल अक्षौहिणी सेना ही है। फिर ग्यारह अंक्षौहिणी सेना के मामने पाण्डवो की ७ अक्षौहिणी सेना भला क्य। कर सकती है। हमारी इतनी विशाल सेना और कर्ण आदि वीरो के बल से ही तो पाण्डव -घबरा गए है और पहले आधा गज्य मागते थे, तो अब भय विह्वल होकर केवल पाच गाव ही मागने लगे । . क्या, पाच गाव वाली माम से यह सिद्ध नहीं होता कि उन्हे अपनी पराजय का निश्चय हो गया है और इसी कारण सन्धि व शाति का ढोग रच कर वे कुछ न कुछ ले मग्ने के चक्कर में है। इतने पर भी आपको हमारी विजय पर मन्देह हो तो आश्चर्य की बात है।"
धृतराष्ट्र ने पुन समझाने की चेष्टा की-"वेटा! जब पाच गाव देकर ही युद्ध टल सकता है और हम एक भयकर सकट मे बच सकते है तो वाज आयो युद्ध में। पाच गांव देने में तुम्हे क्या आपत्ति हैं। तुम्हारे पाम तो पूरा का पूरा गज्य रह हो रहा है। यह मौदा सर्वथा लाभप्रद है। अव हठ न करो। मान जानी।"
धतराष्ट्र का जब इम उपदेश का दुर्योधन पर उलटा ही प्रभाव पड़ा। वह चिढ गया और क्रुद्ध हो कर बोला- "मैं तो मूई की नोक बराबर भी भूमि पाण्डवी को नहीं देना चाहता। आप की जा इच्छा हो करे। पाण्डवो मे शक्ति है तो रण भूमि मे या कर निर्णय करे ।"
यह बहता हुया दुर्योधन उठ ग्वडा इया और मभा भवन के
नोट - ग्रान कल जैसे विभिन्न दलो को मिला कर सेना में एक डिविजन बनता है, वैसे ही उन दिनो कई विभाग मिला कर एक अक्षौहिणी बनती थी। एक अक्षौहिणी मे २१,८७० रथ पोर मी हिसाव मे हाथी. घोडे, पैदल प्रादि की संख्या होती थी।