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________________ ८८ , जन महाभारत फिर युधिष्ठिर को समझाते हुए बोले- 'बेटा युधिष्ठिरं । तुम तो अजातशत्रु हो। उदार हृदय भी हो। मैं जानता हूं कि 'तुम इतने विशाल हृदय हो कि अपने शत्रुओ को क्षमा दान कर सकते हो। दुर्योधन से तुम्हे कोई वैर नही है। तुम ने उत्ते सदा अपना भाई समझा है। यह कुमित्रो के जाल मे फस गया है। इसे अपने और पराये की पहचान नहीं है। इसे इस, कुचाल के लिए क्षमा करदो। और जो कुछ हुआ उसे अपने दिल से निकाल,दो।" उन्हो ने दुर्योधन को अपने पास बुलाया और कहा-'बेटा तुम्हारी भूले हमारे कुल के नाश का कारण बन जायेगी। तुम जिस रास्ते पर चल रहे हो, वह नाश का है, कलंक और पाप का है। अब भी समय है, 'सम्भल जाओ। और अपनी भूलो को सुधारने का प्रयत्न करो। इस समय जो हुआ वह घोर अनर्थ हैं। वह हमारे कुल के मस्तक का काला दाग बन जायेगा। तुम युधिष्ठिर की जीती सम्पति वापिस करदो और उन्हे पहले के अनुसार राज्य करने दो, जिस आदर सत्कार से उन्हे बुलाया था, उसी आदर सत्कार से वापिस भेज दो। तुम्हारा और कुल का हित इसी वात में है। यदि तुम ने ऐसा न किया तो याद रक्खो तुम्हार। नाश अवश्यमभावी है। लक्षण बता रहे है कि अपनी वरवादी के वीज तुम ने वो दिए है। चलो अब भी समय है। इन सब बातो को इस एक उपाय से धो सकते हो। मेरी बात मान कर युधिष्ठिर की सम्पत्ति वापिस करदो ।" दुर्योधन के मन में भी यह वात बैठ गई कि कुछ भूल हो गई है। लक्षण शुभ नहीं है। पापी कायर भी होता है। इसी कारण दुर्योधन उस समय मन ही मन ताप रहा था, पर वह सोचने लगा कि यदि युधिष्ठिर की सम्पति उसे वापिस देदी, तो पाण्डव कभी इस घटना को न भूलें गे और किसी न किसी समय अवसर पाकर अवश्य ही बदला लेंगे। सांप चोट खाकर बच निकलता है, तो वह अवश्य ही चोट करने वाले को डसता है। इसी प्रकार पाण्डव इन्द्रप्रस्थ पहुचते ही अपने दल बल के साथ, मुझ पर आक्रमण कर देंगे और भीम ,अपनी प्रतिज्ञा- पूरी करेगा। .. इस
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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