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सैनापतियों की नियुक्ति
भीम से जब पूछा गया तो उस ने कहा- भैया अर्जुन की बात ठीक है, पर हमारे लिए द्रोणाचार्य से भी अधिक समस्या भीष्म जी की है हमे अपना सेनापति ऐसा बनाना चाहिए जो उन्हे मार सके । शिखण्डी का जन्म ही भीष्म जी के वध के लिए हुआ है । अतः शिखण्डी को ही सेनापति क्यो न बनाया जाय ?"
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अन्न मे युधिष्ठिर ने श्री कृष्ण से पूछा । वे बोले – “इन सब ने जिन जिन महारथियों के नाम लिए, सभी सुयोग्य हैं और सेनापति बनने योग्य हैं। पर अर्जुन की राय मुझे ठीक जंचती है । घृष्टद्युम्न को ही सेनापति बनाया जाये |
जिस वीर ने स्वयं द्रौपदी से अर्जुन का परिणग्रहण कराया था, जो राज्य सभा मे हुए द्रौपदी के घोर अपमान और उस पर किए गए घोर अत्याचार की कल्पना मात्र से ही भडक उठता था, अपनी बहन के अपमान का कौरवो से बदला लेने की प्रतीक्षा मे जिस ने तेरह वर्ष बडी बेचैनी से व्यतीत किए थे, जो महान रण योद्धा था, उसी पांचाल राजकुमार धष्टद्युम्न को सेनापति बनाना सभी ने स्वीकार कर लिया और फिर उसका विधिवत अभिषेक कर दिया गया। उस समय वीरों की सिंह गर्जना, भेरियो के भैरी नाद, शखों की तुमुल ध्वनि, दुंदुभी के गर्जन यादि से प्राकाश गूज उठा। अपने कोलाहल से पृथ्वी को कपाती और दिशाओ को गुजाती हुई पाण्डव सेना कुरुक्षेत्र के मैदान मे जा पहुंची ।
दूसरी ओर कौरवों की ओर से युद्ध की घोषणा हो चुकने के बाद कौरव सेना को ग्यारह भागों में विभाजित किया गया। उस के बाद प्रश्न श्राया कि सेनापति कौन बने । दुर्योधन ने अपने सभी उद्दण्ड परामर्श दाताओ को अपने पास बुला कर विचार विमर्श किया। शकुनि ने कहा- "मेरे विचार से भीष्म पितामह को हो सेनापति रखा जाय । सेनापति होने के कारण उन्हें पाण्डवो के विरुद्ध डटकर युद्ध करना पडेगा । उनका सामना कर सकने वाला पाण्डवो मे कोई भी नही । भीष्म जो पाण्डवो से स्नेह रखते है । बस पाण्डवो और भीष्म जी को टकरा देने का एक यही उपाय है ।"