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________________ ५२१ कर्न का दान यदि वीरो को भी साथ लेलेंगे, वे सब अपनी अपनी सेनाओ सहित तुम्हारा अनुकरण करेगे । एक बार तुम ने व्यूह तोड दिया, तो फिर यह निश्चित समझो कि हम सब कौरव सेना को तहस नहस करके छोगे । युधिष्ठिर ने तब कुछ सोचकर कहा - "लेकिन तुम्हें कुछ हो गया तो मे अर्जुन भैया को क्या उत्तर दूंगा । नही, यह ठीक नही है। मैं अपनी विजय की कामना के लिए तुम्हे सकट मे नही डाल सकता ।" 1 "महाराज ! अप क्यों ऐसी चिन्ता करते हैं । मैं अपने मामा श्री कृष्ण और अपने पिता को दिखा दूंगा कि उनको अनुपस्थिति मे मैं उनके कार्य को पूर्ण कर सकता हू । श्रपने पराक्रम से मैं उन्हें प्रसन्न कर दूगा " " बर्डे जोश के साथ अभिमन्यु ने श्री कृष्ण और अर्जुन की वीरता को स्मरण करके कहा । 1 हा हाँ ठीक है। अभिमन्यु अपने पिता के अनुरूप ही हैं। और हम जो साथ होंगे तो इस पर संकट हो कैसे सकता हैं। मैं अपनी गदा से एक-एक कोरव को मौत के घाट उतार दूगा ।"भीमसेन ने उत्साह दर्शाते हुए कहा । युधिष्ठिर ने प्राशीर्वाद देते हुए कहा - "बेटा ! तुम्हारा वल हमेशा बढ़ता रहेगा। तुम यशस्वी होवोगे । "
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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