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कृष्णोपदेश
"और यह भी आप देख ही रहे है कि भरत खण्ड के कितने ही वीर रण वाकुरे, जिन्हो ने हमे कभी कोई हानि जान बूझ कर पनी इच्छा से नही पहुचाई, हमारे विरोधी बनकर रण मे उतरे
?”
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"पूरी बात तो बताओ। देखने को तो मैं सब कुछ देख रहा हू ।"
डूबता है ।
"तो महाराज ! आप ही बताइये कि क्या इन आदरणीय जनो और निरापराधो का रक्त भला क्यो बहाऊ धर्म का अनुयायी हूं उस ने तो मुझे आज्ञा दी है कि मैं किसी निर्दोष प्राणी का वध न करू । फिर में यह रक्तपात करके अपने लिए नरक ? मैं जिस क्यो मोल लूँ ? – नही मुझ से यह पाप न हो सकेगा ?"
अर्जुन का उत्तर सुनकर श्री कृष्ण को कुछ हसी आई उन्होने गम्भीरता पूर्वक कहा - " पार्थ ! ऐसे समय भी तुम्हे धर्म शिक्षा का ध्यान आया, अहोभाग्य ! तुम प्रशसा के पात्र हो । तुम धन्य हो । पर जिन भाषित धर्म की आड़ लेकर अपनी कायरता को मत छिपाओ ।
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" कायरता - कैसी कायरता ? मैं ससार की किसी भी शक्ति के सामने घुटने नही टेक सकता । पर वीरता का तो यह अर्थ नही कि अपने बाहुवल को पापयुक्त कर्मो में लगाता फिरू । " - अर्जुन ने उत्तर दिया ।
“पार्थ ! तुम ने जिन भाषित धर्म का तो उल्लेख किया पर पता भी है कि भगवान ने कहा क्या है ?"
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"हां, मुझे ज्ञात है कि उन्होने जीव वध को पाप बताया है । मनुष्य को अहिंसक होने का उपदेश दिया है। हिंसा को भयकर पाप कहा है ।" अर्जुन ने उत्तर दिया ।
"पार्थ ! तभी तो कहा है कि अधूरा ज्ञान व्यक्ति को ले